खेत का धन : राजस्थानी लोक-कथा

Khet Ka Dhan : Lok-Katha (Rajasthan)

पुराने समय में एक राजा था- बहुत ही उदार, न्यायप्रिय और प्रजा का ध्यान रखनेवाला। उसके राज्य में लोग सुखी थे । कोई भी अपराधी बिना सजा पाए नहीं रह सकता था। कुछ समय बाद राजा के मन में घमंड आ गया। वह सोचने लगा, 'मैं कितना बुद्धिमान हूँ । प्रजा का कितनी अच्छी तरह से पालन कर रहा हूँ। दूर-दूर तक मेरी ख्याति है।' कुछ दिनों तक तो राजा ने यह बात किसी से नहीं कही, लेकिन एक दिन राजा के मन में अपने दरबारियों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने की लालसा जागी। राजा ने अपने दरबारियों से पूछा, "मेरा राजकाज कैसा चल रहा है? पड़ोसी राजा मेरे बारे में क्या सोचते हैं?"

प्रधानमंत्री ने जवाब दिया, "महाराज, आपके राज्य में सर्वत्र अमन- चैन है। सारी प्रजा आपकी जय-जयकार कर रही है।"

यह सुनकर राजा खुश हो गया। उसने दूसरा प्रश्न पूछा, "मेरे पितामह और मेरे पिताजी के जमाने में राज्य कैसा था ? "

प्रधानमंत्री ने जवाब दिया, "महाराज, शायद ही कोई व्यक्ति जीवित हो, जो आपके पिता या पितामह के राजकाज के बारे में कुछ बता सके। पास के जंगल में एक महात्मा रहते हैं, उनकी आयु काफी है; शायद वे कुछ बता सकें।"

राजा ने कहा, "उन्हें बुलाया जाए।"

राजा के आदेश पर प्रधानमंत्री ने महात्मा को दरबार में बुलवाया। राजा ने उनसे वही प्रश्न किया।

महात्मा ने कहा, “ आपको एक घटना सुनाता हूँ। इसका संबंध आपके पिता तथा पितामह के राज से है। आप सब समझ जाएँगे कि किसका राज कितना अच्छा था ? " इतना कह महात्मा बताने लगे, "राजन्, आपके दादा के राज्य में एक किसान के पास कुछ जमीन थी। उसके घर में खेती में मदद करनेवाला दूसरा कोई आदमी नहीं था। इसीलिए किसान ने अपनी जमीन दूसरे किसान को बिना किसी लिखा-पढ़ी के खेती करने के लिए दे रखी थी। फिर भी जमीन जोतनेवाला किसान ईमानदारी से उसका हिस्सा बिना कहे दे देता था ।

"एक दिन की बात है, दूसरा किसान जमीन जोत रहा था। तभी हल की नोक किसी सख्त चीज से टकराई। बैल रोककर उसने जमीन को थोड़ा सा खोदा तो अशर्फियों से भरा हुआ एक कलश निकला। उस कलश को लेकर वह जमीन के मालिक के पास गया और बोला, 'तुम्हारी जमीन में से यह कलश निकला है। मैं इसे तुम्हें सौंपने आया हूँ।'

"पहले किसान ने कहा, 'तुम भी कैसी भोली-भाली बातें करते हो ! मैं जमीन तुम्हें दे चुका हूँ। जमीन में जो कुछ निकले, वह तुम्हारा है, चाहे अनाज हो, चाहे अशर्फी। मुझे तो सिर्फ फसल का ही हिस्सा चाहिए।'

" इस बात को लेकर दोनों में काफी देर तक बहस हुई, पर कोई भी उस कलश को लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। आखिरकार उन्होंने फैसला किया कि राजा के पास चलकर यह कलश उन्हें सौंप देना चाहिए।

"दोनों किसान आपके पितामह के पास आए और बोले, 'महाराज, यह कलश राज्य की भूमि से निकला है। राज्य आपका है, इसीलिए इसे आप रखें।'

"राजा ने कहा, 'तुम दोनों नासमझ हो। जमीन हम तुम्हें, दे चुके हैं। अब उसमें से जो कुछ निकले, वह किसान का। राज्य का उसपर कोई हक नहीं। तुम दोनों में से जिसका भी हक हो, वह उसे रख ले।'

" दोनों किसान निराश होकर लौट आए। आखिर तय हुआ कि जिस जगह यह निकला है, वहीं वापस गाड़ दिया जाए। दोनों किसानों ने ऐसा ही किया । "

महात्मा से बीती घटना सुनकर राजा बोला, “महात्मन्, ऐसा क्यों किया गया ? धन का सदुपयोग हो सकता था। पाठशाला खुलवाई जा सकती थी। अस्पताल बनवाए जा सकते थे। गरीब लोगों को जीवन निर्वाह के लिए मदद दी जा सकती थी।"

महात्मा मुसकराए। बोले, "राजन्, उन दिनों विद्या या चिकित्सा मोल नहीं मिलती थी । दान लेना भी बुरा समझा जाता था। सभी अपने-अपने परिश्रम की कमाई खाते थे। "

सुनकर राजा चुप हो गया।

महात्मा ने कथा फिर आगे बढ़ाई, "समय की गति को कौन रोक सकता है! एक दिन आपके पितामह का देहांत हो गया। आपके पिता गद्दी पर बैठे। साथ ही वे दोनों किसान भी स्वर्ग सिधार गए। दोनों किसानों के लड़के बड़े हुए। इस बीच आदमी में भी थोड़ा-थोड़ा अंतर आ गया। जो किसान जमीन का मालिक था, उसके लड़के ने मन में सोचा, 'पिताजी को जो कलश देने के लिए किसान आया था, वह ठीक ही आया था। जमीन उसे खेती करने के लिए दी गई थी। जमीन के भीतर का धन तो पिताजी का ही था। पिताजी ने वह धन लेने से इनकार करके बड़ी भूल की। '

"यह सोचकर वह खेती करनेवाले किसान के पुत्र के पास गया। बोला, 'भैया, जो कलश तुम्हारे पिताजी मेरे पिताजी को देने आए थे, वह बात ठीक ही थी। जमीन तो तुम्हें खेती करने के लिए दी गई थी । अतः मेरे पिताजी ने बेकार ही उस धन को लेने से इनकार कर भूल की। आज मैं उस भूल को सुधारने आया हूँ।'

"खेती करनेवाले किसान के लड़के के मन में भी लोभ आ चुका था। बोला, 'मेरे पिता कितने नासमझ थे! खेत में निकला हुआ धन दूसरे को देने गए थे। जब जमीन को वह जोतते थे, तो उसमें चाहे जो निकले, वह उनका ही हुआ। अगर कलश की जगह साँप निकलता और मेरे पिता को काट लेता तो मृत्यु उनकी ही होती। भूल तुम्हारे पिता ने नहीं, मेरे पिता ने की।'

"दूसरे किसान का लड़का अशर्फियों का वह कलश चुपचाप जमीन में से निकाल लाया। कुछ धन उसने गाँव के बड़े लोगों को बाँटकर अपनी ओर मिला लिया। फिर सुख से रहने लगा।"

कुछ देर रुककर महात्मा ने कहा, "राजन्, वह तो हुई दो किसानों की बात । इधर आपके पिता के मन में भी लोभ समाया। सोचने लगे कि जमीन के भीतर का धन तो राज्य का ही होता है, वह किसान का कैसे हुआ ? यह सोचकर आपके पिताजी ने सिपाही भेजकर किसान के पुत्र से कलश मँगवाया। किसान ने साफ मना कर दिया। कहा, 'राजा तो जमीन दे चुका है। उसमें जो कुछ निकले, वह जमीन जोतनेवाले का है। राजाजी चाहें तो मैं दस-बीस आदमियों को लेकर हाजिर हो सकता हूँ। वे मेरी बात का समर्थन कर देंगे।' ये आदमी वे ही थे, जिन्हें वह धन देकर अपने पक्ष में कर चुका था। सिपाही ने वापस आकर राजा को सारी बात कही, तो वे भी चुप हो गए।

"समय बीतता गया। समय आने पर आपके पिताजी स्वर्गवासी हो गए और उन दोनों किसान के बेटे भी।

"अब आया आपका राज्य हर बात के कायदे-कानून बन गए। अदालतें और पुलिस थाने खड़े हो गए। मुकदमा लड़ने के लिए वकील- बैरिस्टर भी पढ़-लिखकर तैयार हो गए। उन दानों किसानों के बेटों में भी उस स्वर्ण कलश को लेकर वाद-विवाद खड़ा हो गया। अदालत में मामला गया, तो दोनों किसानों को सजा हो गई। कलश राज्य की (यानी आपकी) संपत्ति बन गया। पिछले वर्ष ही यह फैसला किया है आपकी अदालत ने।

"अब राजन् ! हालत यह है कि वह अशर्फियोंवाला कलश तो आपके खजाने में है और वे दोनों किसान आपकी जेल में। क्योंकि आप जैसे न्यायप्रिय राजा के राज्य में कोई अपराध करके सजा से कैसे बच सकता है? घटना मैंने सुना दी। अब आप स्वयं फैसला कर लें, राज किसका अच्छा था ?"

सुनकर राजा का सिर नीचा हो गया।

(साभार : यशवंत कोठारी)

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