ख़रगोश और हाथी : बिहार की लोक-कथा

Khargosh Aur Hathi : Lok-Katha (Bihar)

किसी वन में हाथियों के झुंड का नायक चतुर्दंत नामक महागज निवास करता था। वहाँ किसी समय बिलकुल पानी नहीं बरसा। तालाब, कुएँ, सरोवर, नदी-नाले सभी सूख गए। सभी हाथियों ने गजराज से कहा, “देव! हाथियों के बच्चे प्यास से व्याकुल होकर मरने जैसे हो गए हैं। कुछ मर भी गए हैं। कोई ऐसा जलाशय खोजा जाए, जहाँ पानी पीकर हम लोग पूरी तरह स्वस्थ-प्रसन्न रह सकें।”

तब देर तक सोचकर वह बोला, “मुझे एक प्रदेश का पता है, जहाँ एक बड़ा तालाब है और जिसमें सदा गंगा का जल भरा रहता है, वहीं जाना चाहिए।”

पाँच रात चलने पर सभी उस तालाब तक पहुँचे। वहाँ स्वेच्छा से जल में अवगाहन करके मन भर जाने पर तालाब से निकले। तालाब के आसपास सुकोमल भूमि में ख़रगोशों के सैकड़ों बिल थे। वे हाथियों के इधर-उधर घूमने से टूट गए। बहुत-से ख़रगोशों के हाथ-पैर, सिर-गर्दन आदि टूट गए। कुछ मर गए। कुछ अधमरे से पड़े रहे। हाथियों के झुंड के चले जाने पर हाथियों के पैरों से कुचले हुए, टूटे हाथ-पैरों वाले, ख़ून से सने जर्जर शरीर वाले, बच्चों के मर जाने से आँखों में आँसू वाले ख़रगोशों ने परेशान होकर परस्पर सलाह-मशविरा किया, “हाय, हम सब नष्ट हो गए। दूसरी जगह पानी नहीं है, इसलिए हाथियों का समूह रोज़ ही यहाँ आएगा। इस तरह हम सबका नाश हो जाएगा। कोई उपाय सोचना चाहिए।” एक बोला, “देश त्याग कर अन्यत्र जाना चाहिए, और क्या उपाय है?” मनु और व्यास ने कहा है, “कुल के लिए एक, गाँव के लिए कुल, जनपद के लिए गाँव तथा अपने लिए पृथ्वी का त्याग करना चाहिए।”

तब अन्य ख़रगोशों ने कहा, “पिता, पितामहों के स्थान को अचानक नहीं छोड़ना चाहिए। उनके लिए कोई संकट पैदा करना चाहिए, ताकि किसी भी तरह दुर्भाग्य न आ सके।”

औरों ने भी कहा, “यदि यहाँ भी वैसा ही संकट उपस्थित हो जाएगा, तो कोई भी यहाँ नहीं आएगा। यह विभीषिका कोई चतुर दूत ही दूर कर सकता है। दूत उनको ऐसा कह सकता है कि विजयदत्त नामक राजा हमारा स्वामी है। वह चंद्रमंडल में निवास करता है। तालाब पर आने वालों को रोकता है। हमारी रक्षा वही करता है। श्रद्धापूर्वक उनसे यह बात करने पर संभवतः हमारी समस्या समाप्त हो जाए।” एक ने कहा, “लंबकर्ण नामक ख़रगोश बातचीत में बड़ा चतुर है और दूत कर्म को जानने वाला है। उसे वहाँ भेजना चाहिए। उसे ढूँढ़िए, ताकि हम सभी की भली-भाँति कष्ट-मुक्ति हो सके।”

एक अन्य बोला, “अहो, यह तरकीब ठीक है। हमारी रक्षा का और कोई उपाय नहीं है। इसलिए वैसा ही करना चाहिए।”

हाथियों के झुंड के स्वामी के समीप जाने के लिए लंबकर्ण को नियुक्त किया गया। वह उनके पास गया। हाथियों के रास्ते में आकर उसको रोककर बोला, “हे दुष्ट हाथी! तुम खेलते-कूदते इतने बेरोक-टोक क्यों चंद्र तालाब में आ रहे हो? तुम्हें नहीं आना चाहिए, लौट जाओ।” यह सुनकर विस्मित मन से गज बोला, “तुम कौन हो?” ख़रगोश बोला, “मैं लंबकर्ण नामक ख़रगोश चंद्रमंडल में निवास करता हूँ। अभी मैं चंद्रमा द्वारा आपके पास दूत के रूप में भेजा गया हूँ। आप तो जानते ही हैं कि यर्थाथवादी दूत को उसकी सत्यवादिता के कारण दोष नहीं देना चाहिए। सभी जानते हैं कि दूत के मुख से राजा ही बोलते हैं।”

यह सुनकर वह बोला, “हे ख़रगोश! चंद्रमा का संदेश शीघ्र ही बताओ।” वह बोला, “कुछ दिन पूर्व अपने झुंड के साथ आते हुए आपने बहुत से ख़रगोश मार दिए। क्या आप नहीं जानते कि यह मेरे प्रति दोष है। जीवित रहना चाहते हो तो किसी भी कारण इस सरोवर में नहीं आना चाहिए। यही संदेश है।”

हाथी बोला, “आपके स्वामी चंद्र कहाँ हैं?”

वह बोला, “तालाब में। आपके द्वारा कुचलने से बचे हुए ख़रगोशों को सांत्वना देने के लिए आपके पास दोबारा भेजा गया हूँ।” हाथी बोला, “यदि ऐसा है तो उन्हें दिखाइए, ताकि मैं स्वामी को प्रणाम करके अन्यत्र चला जाऊँ।” ख़रगोश बोला, “तो मेरे साथ आइए, मैं दिखाता हूँ।”

उसी रात हाथी को ख़रगोश ने तालाब के समीप ले जाकर पानी में चंद्रमा की परछाई दिखाई और बोला, “ये हमारे स्वामी जल में समाधि लेकर बैठे हैं। उन्हें प्रणाम करके शीघ्र लौट जाइए, कहीं समाधि भंग हो गई तो वे बहुत ग़ुस्सा करेंगे।” उसके बाद डरे हुए हाथी ने उन्हें प्रणाम किया और परिजनों के साथ वहाँ से चला गया।

उस दिन से सारे ख़रगोश अपने-अपने बिल में सपरिवार सुखपूर्वक रहने लगे।

(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)

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