कविप्रिया (नाटक) : अज्ञेय
Kavi Priya (Hindi Play) : Agyeya
पात्र
शान्ता : कवि दिवाकर की पत्नी
सुधा, मालती : शान्ता की सहेलियाँ
सुरेश : बन्धु, सुधा का पति
अशोक : बन्धु
दिवाकर : कवि
बालक, माली, वेयरा
(बँगले के सामने बगीचे के एक भाग में, शान्ता और माली।)
माली : पानी तो हम बराबर देत रहेन, माँ जी। मगर लू-
शान्ता : (जिसके स्वर में अपार धैर्य और एक स्निग्ध अन्तर्मुखीय भाव है) रहने दो, माली; ऐसे बहाने मत बनाओ। तुम्हें आदत है सब चीज़ दैव पर छोड़ने की - ‘दैव नहीं बरसेगा तो बीज नहीं जमेगा।’ ऐसे भी देश होते हैं जहाँ दैव कभी बरसता ही नहीं - वहाँ क्या पौधे ही नहीं होते?
माली : (मानो अपने बचाव में) माँ जी-
(निकट आती हुई हँसती आवाजें : मालती, सुधा और सुरेश)
सुधा : वह रही, बगीचे में। शान्ता!
सुरेश : नमस्कार, शान्ता भाभी। बाग़वानी हो रही है?
शान्ता : अरे सुधा - सुरेश भैया! आइए! (सकपकाती-सी) मेरे हाथ मिट्टी के हो रहे हैं-माली, दौड़कर ज़रा देवीसरन से कुरसियाँ डाल देने को कहो तो-
मालती : जी हाँ, मेरी तरफ़ तो देखेंगी क्या श्रीमती शान्ता देवी - उर्फ़ कवि-प्रिया-
शान्ता : ओहो मालती! जरा सामने तो आओ, मैंने तो देखा ही नहीं!
मालती : जी, यही तो कह रही है। मुझे क्या देखने लगीं। मैंने कवि, न बुलबुल, न गुलाब का फूल।
शान्ता : (हैरान-सी) आखिर मामला क्या है?
सुधा : (धीरे से) न सही गुलाब का फूल, मालती का सही।
मालती : (डपटककर) चुप रहो जी! (शान्ता से) अच्छा कविप्रिया, देवीजी, पहले तो मिठाई खिलाइए-
सुरेश : नाम ठीक रखा है आपने-कविप्रिया देवी! आपको भी कवि होना चाहिए था-
मालती : मुझे खामहखाह। कवि तो जो हैं सो हैं ही हैं - पूछो न उनकी देवी जी से!
शान्ता : यह पहेली क्या है आखिर! मालती, तुम्हीं बताओ, क्या बात है - लेकिन पहले सब लोग बैठ तो जाओ!
मालती : अब तुम बनो मत, शान्ता। कल तुम्हारे कविजी सम्मेलन में सभापति रहे, उनके कविता-पाठ की सारे शहर में धूम है-तुमने तो हमें कभी बताया ही नहीं कि वह कविता लिखते भी हैं!
सुरेश : अच्छा शान्ता भाभी, वह सारे प्रेमगीत अकेले तुम्हीं को सुनाते होंगे और छिपाकर रख लेते होंगे?
सुधा : और शान्ताजी तो भला किसी को बताने क्यों लगीं अपनी सूम की दौलत!
मालती : तभी तो आज हम दल बाँधकर तुम्हें देखने आये हैं!
शान्ता : (कुछ हँसकर) तो मुझे क्यों देखने आयीं? मैं तो वही-की-वही शान्ता हूँ, अनपढ़, बेसमझ - मुझे तो कविता छू भी नहीं गयी। और वह तो इस समय यहाँ हैं नहीं, न जाने कब आएँगे। खैर, तुम लोग बैठो, वह जब भी आवें-
मालती : नहीं देवीजी, यों नहीं। हम आप ही को देखने आये हैं, आपके दर्शन करने, आपसे कविता सुनने-
शान्ता : मानो अवाक्) मुझसे! कविता?
मालती : जी हाँ। आपकी कविता और आपके उनकी कविता। सुर से-ठीक वैसे ही जैसे ‘वह’ जो आपको अकेले में सुनाते होंगे!
सुधा : जी हाँ, वैसे ही।
शान्ता : तुम लोग सब पागल हो गयी हो क्या?
शान्ता : यह लो। अभी अपने को अनपढ़ बता रही थी, अब हमें पागल बता रही हैं!
शान्ता : मैंने कहा तो, वह घर नहीं हैं, आवेंगे तो कविता सुन लेना।
सुधा : आप तो घर पर हैं न, यह पहले बताइए।
शान्ता : मैं घर पर नहीं हूँगी तो और कहाँ हूँगी - उनके साथ सम्मेलनों में घूमूँगी? मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता, मैं यहीं ठीक हूँ घर में।
सुधा : तो तुम कभी कहीं जातीं-
शान्ता : न, मुझे क्या करना है बाहर? यहीं बगीचे में टहल लेती हूँ... मुझे बगीचे में काम करना अच्छा लगता है।
सुधा : बुरी बात है शान्ता! तुम एकदम बाहर ही नहीं निकलती-
मालती : हाँ, यह तो बहुत बुरा है। जहाँ न जाए रवि, वहाँ पहुँचे कवि। और कवि की स्त्री घर से बाहर न निकले? कविप्रिया बन्दिनी होगी, यह हमने कभी नहीं सोचा था!
शान्ता : अब बस भी करो! बन्दिनी काहे की? वह कवि हैं, वह बाहर जावेंगे, मुझे घर में कम काम हैं?
मालती : ओह, मैं समझी! (सुधा से) बात यह है कि अगर कवि भी घर ही रहेंगे तो उनकी काव्य-धारा फूटेगी कैसे? प्रिया हर वक्त पास रहेगी तो कवि का चिर-विरही हिया तो चुप ही हो जाएगा। और हम सांसारिक की तरह प्रिया को साथ लेकर घूमे-फिरेगा, सिनेमा देखेगा, तब तो उसकी कविता का स्रोत ही सूख जाएगा। प्रिया को निर्वासन देकर ही तो कवि कवि बन सकता है - उसका जीवन बलि देकर ही काव्य साधना कर सकता है।
शान्ता : तुम रखो अपना पांडित्य! मैं यह सब-कुछ नहीं जानती।
सुधा : अच्छा, ये बहाने रहने दो अब। यह बताओ कि दिवाकर बाबू - कवि जी आवेंगे कब? हम उन्हीं से उनकी कविता सुन लेंगे।
शान्ता : सो मैं क्या जानूँ! एक बार घर से निकले तो कब लौटेंगे यह भगवान भी नहीं बता सकते। मालती कह रही थी न, जहाँ न जाए रवि, तहाँ जाए कवि? सो रवि सुबह का निकला साँझ को ही घर लौटता है, पर कवि का क्या ठिकाना!
मालती : तुम रूठतीं नहीं?
शान्ता : क्यों? उन्हें कुछ काम रहता होगा...
मालती : और तुम्हें कोई काम हो, कहीं जाना हो तो?
सुधा : चाय पीकर गये हैं?
शान्ता : (कुछ रुककर) नहीं, चाय पीकर तो नहीं गये। लेकिन मैं तो घर पर ही हूँ, जब आवेंगे, तभी चाय हो जाएगी। मुझे तो कहीं जाने-आने का काम होता ही नहीं... यहीं बगीचे में काम कर लेती हूँ, रूठने की बात ही क्या है!
सुधा : और रात को आये तो?
शान्ता : तो रात को चाय होगी... भोजन देर से हो जाएगा।
सुधा : भई वाह! मानो बच्चा हो... जो मिल जाए उसी में खुश।
मालती : लेकिन मुझे तो भई, बहुत गुस्सा आता। मैं तो कभी बात न करती।
शान्ता : (कुछ गम्भीर होकर) हाँ भई, तुम्हें शायद गुस्सा आता, या न आता तो कम-से-कम दिखातीं जरूर (लम्बी साँस के साथ) लेकिन यहाँ यह सब नहीं चलता। मैं गुस्सा करूँ तो वह दुगुना गुस्सा करेंगे। रूठा वहाँ जाता है जहाँ कोई मनाने वाला हो-जैसे माँ के साथ... माँ के साथ मैं भी बहुत रूठा करती थी... (सहसा खिलखिलाकर) दीवार के साथ और कवि के साथ भी भला रूठा जाता है?
सुधा : अच्छा, तुम कभी रोती नहीं? ज़रूर रोती होंगी?
शान्ता : (थोड़ी देर बाद) रोती तो हूँ शायद! लेकिन तुम लोगों की तरह शायद नहीं। कोई मेरे आँसू पोंछकर मुझे मनाएगा, यह सोचकर नहीं। कभी रात के अँधेरे में रो लेती हूँगी... अन्धकार को परचाने के लिए...(गला भारी हो जाता है।)
(बालक का प्रवेश)
बालक : माँ, माँ, मैं ज़रा साइकिल चला लूँ?
शान्ता : (सुस्थ होकर) नहीं बेटा, अब रात में...
बालक : हाँ, माँ, यहीं थोड़ी दूर ही रहूँगा... बेयरा को साथ ले जाऊँगा...
शान्ता : अच्छा जा! पर दूर मत जाना।
बालक : अहा हा... जाएँगे-जाएँगे!
(बालक उछलता हुआ जाता है।)
शान्ता : (मानो स्वगत) यह भी तो मेरे साथ कभी-कभी बहुत रूठता है, मैं मना लेती हूँ।
सुरेश : बड़ा अच्छा लड़का है। शान्ता भाभी, तुम्हारा तो मन यही बहलाये रखता होगा।
शान्ता : हाँ, सो तो है ही।
सुधा : और जो तंग करता होगा सो?
शान्ता : तंग तो बच्चे करते ही हैं, पर उससे कोई तंग होता थोड़े ही है। मैं तो सोचती हूँ, मुन्ने के कारण मुझे दुनिया के हिसाब-किताब से छुट्टी मिली-क्या पाया, क्या नहीं पाया, इसका लेखाजोखा रखने की ज़रूरत नहीं अब मुझे। मैं समझती हूँ कि जीवन जो देता, मैंने पा लिया...
मालती : कैसा हिसाब-किताब?
शान्ता : हिसाब-किताब नहीं तो और क्या! कहने को तो सब भावना, आकांक्षा और मन और अध्यात्म की बातें हैं, लेकिन असल में तो हिसाब-किताब ही है न। कितना रंग, कितना उजाला, कितना अँधेरा, कितना प्रकाश, कितनी छाया, कितना प्यार, कितना आराम, कितना परिश्रम जीवन में मिला...जो लोग रोमांस के पँखों पर उड़ते हैं, वे भी इस हिसाब-किताब को भूलते नहीं। और इस जोड़-बाक़ी में अगर मुनाफ़ा देखें तो खुश होते हैं, घाटा देखें तो जीवन के प्रति असन्तोष उन्हें होता है। सुधा, तुम क्या सोचती हो मैं नहीं जानती, पर मैं तो भावना के हिंडोले नहीं झूलती। मेरा जीवन शान्त, स्थिर हो गया है क्योंकि मैं प्रिया नहीं, माता हूँ। (स्वर क्रमशः भावाविष्ट होता जाता है।) मैं स्नेह और आदर की अपेक्षा में रहनेवाली नहीं, स्नेह देनेवाली हूँ। मैं सुबह से शाम तक जो कुछ करने का है, करती जाती हूँ-जागती हूँ, उठती हूँ, खिलाती हूँ, खाती हूँ, देखती हूँ, सुनती हूँ-और मैं किसी चीज़ का, किसी बात का प्रतिवाद नहीं करती। प्रतिवाद कोई किसका करे-जीवन कोई बुझौवल थोड़े ही है, वह सबसे पहले अनुभव है!
सुरेश : (मानो अधिक गम्भीर बात को हँसी में टालने का यत्न करता हुआ) जीवन बुझौवल है कि नहीं, यह तो अलग बात है, पर भाभी, पर तुम ज़रूर हो।
शान्ता : (उसी प्रकार का आविष्ट) हूँगी।-इसीलिए कि मुझमें बुझौवल कहीं नहीं है...मैं सुलझाव-ही-सुलझाव रह गयी हूँ। ‘दो’ पहेली है जिसका सुलझाव है ‘एक’ और ‘एक’। लेकिन ‘एक’... ‘एक’ भी पहेली है इसीलिए कि उसका आगे सुलझाव नहीं है, वह निरी इकाई है... होने और न होने की सीमा-रेखा। उसे सुलझाना चाहने का मतलब है। उसे मिटा ही देना।
सुरेश : (प्रयत्नपूर्वक विषय को बदल देने के लिए) शान्ता भाभी, सामने बगीचा तो देखा, पीछे भी कुछ बना है?
शान्ता : (सँभलकर, बदले हुए स्वर में) अभी तो बन रहा है। मगर अँधेरे में दीखेगा क्या? (ज़ोर से) माली!
माली : हाँ माँजी! का हुकुम है माँजी?
शान्ता : उधर क्यारी में पानी लगा दिया है?
माली : हाँ माँजी-
शान्ता : देखोगे तुम लोग? चलो!
(उधर जाते हुए स्वर)
सुधा : उधर चबूतरे के आस-पास तो बेला फूला होगा?
सुरेश : अहा, यह करौंदे की झाड़ी तो बड़ी सुन्दर है। यहीं बैठकर कविजी कविता लिखते होंगे न?
शान्ता : सो मैं क्या जानूँ कि वह कहाँ बैठकर लिखते हैं? लेकिन तुम लोग तो बैठो इस चबूतरे पर।
सुधा : तभी तो मैंने तुमसे पूछा था कि तुम घर पर रहती हो न?
मालती : फिर तुमने शुरू की वही बात? कवि की प्रिया घर नहीं रहती। घर पर रहे तो वह प्रिया नहीं है। आज तक कभी सुना है कि किसी कवि ने प्रिया को सामने बिठाकर काव्य लिखा हो और वह काव्य सफल हुआ हो? कवि एक अपार्थिव प्रेम का चित्र मन में लिए उस चित्र से जीवन का मिलान करते हुए चलता है... और जीवन को घटिया पाता है। उसकी एक कल्पना की प्रिया होती है जिसे वह सारी दुनिया में ढूँढ़ता फिरता है और कभी पाता नहीं। जीवन में जो प्रिया मिलती है वह तो मानवी है, उसके कल्पनालोक की देवी थोड़े ही है। वह देवी जो सोच सकती है -यानी कवि की कल्पना में - वह कोई पार्थिव प्रिया नहीं सोचती, जो कह सकती है, जैसे-जैसे प्रेम कर सकती है, वह कोई हाड़-मांस की प्रिया क्या कर पाएगी! तभी तो कवि लोग ऐसे तोताचश्म होते हैं... अगर उन्हें कल्पना के प्रति सच्चे रहना है तो फिर वास्तव से तो मन फेरना ही होगा, क्योंकि वास्तव तो जिस चीज़ को वह छूते हैं यही पाते हैं कि निरी मिट्टी है, और मिट्टी को ही प्यार करें, तो फिर कल्पना बिचारी क्या हो? किसी भी बड़े कवि का जीवन ले लो, उसकी सारी ज़िन्दगी एक खोज है जिसका नतीजा केवल इतना है ही कि ‘नहीं’। यह भी नहीं। यह भी नहीं।’ इसी कभी न मिटनेवाली खोज को, कभी न बुझनेवाली प्यास को, कोई कूची से आँकता है, कोई क़लम से लिखता है, कोई छन्दों में बाँधता है; और लोग देखकर-सुनकर कहते हैं ‘कितना सुन्दर! कितना मार्मिक! कैसा दिव्य प्रेम!’ कवि को जीवन में आनन्द नहीं मिलता पर यश तो मिलता है, उनकी कीर्ति अमर हो जाती है। पर कवि की स्त्री - मृत्यु के पार अमर होने की बात तो दूर, वह तो जीवन में भी-
सुधा : भई मालती, तुमने तो कमाल कर दिया। अब तो तुम्हें किसी मीटिंग में ले जाकर मंच पर खड़ा कर देना चाहिए। ऐसी फुल-झरी-सी लगा दी तुमने तो-
मालती : तुम्हें तो हर वक्त ठट्टा ही सूझता है। पूछो न शान्ता से, वह भी तो हमारी-तुम्हारी उम्र की है; कोई बात है भला कि ऐसी दार्शनिकों की-सी बातें करे? शान्त स्थिर-होने और न होने की सीमा-रेखा! हूँ! मुझे तो ऐसा गुस्सा आ रहा है इन कवियों पर कि-
सुरेश : सो तो दीख ही रहा है। लेकिन अब आप गुस्सा मत कीजिए; चाहे तो इस करौंदे की छाँह में बैठ कर कविता कीजिए। (सुधा से) क्यों जी, अब चलना चाहिए न?
सुधा : हाँ, बड़ी देर हुई। अच्छा शान्ता बहिन, फिर आएँगे कभी-कविजी से कह देना, कविता ज़रूर सुनेंगे।
सुरेश : नमस्ते, भाभी।
शान्ता : हाँ ज़रूर आना, बहिन। वह होंगे तो ज़रूर सुनाएँगे ही तुम लोगों को। नमस्ते, सुरेश भैया-
मालती : मैं भी तो चल रही हूँ भई, कि मुझे छोड़े जा रहे हो?
सुधा : (हँसती हुई) हमने सोचा, शायद तुम्हारा व्याख्यान अभी समाप्त न हुआ हो!
मालती : अच्छा, शान्ता, मेरी किसी बात का गुस्सा मत करना-
शान्ता : वाह गुस्सा कैसा। फिर आना!
मालती : हाँ नमस्ते!
(जाते हैं)
शान्ता : (स्वगत) अब! (धीरे-धीरे गुनगुनाने लगती है)
सखी, मेरी नींद नसानी हो!
पिया को पन्थ निहारते सब रैन बिहानी हो,
बिन देखे कल ना परे, मेरी नींद नसानी हो।
सखी, मेरी नींद नसानी हो।
पिया को पन्थ निहारते सब रैन बिहानी हो।
रैन बिहानी हो...।
शान्ता : (सहसा चुप होकर) आ गये? (ज़ोर से) बैरा! चाय तैयार करो!
अरे नहीं - (चौंककर और फिर सुस्थ होकर) ओह, अशोक!
अशोक : पहचानती भी नहीं दीदी!
शान्ता : मैं समझी थी-
अशोक : क्या समझी थीं?
शान्ता : कुछ नहीं। आओ, बैठो।
अशोक : (बैठता है) शान्ता दीदी, अँधेरे में बैठी क्या कर रही थीं?
शान्ता : कुछ नहीं, आकाश देख रही थी। मुझे साँझ के बाद आकाश देखना बहुत अच्छा लगता है। कैसे धीरे-धीरे अन्धकार घिरता आता है और धीरे-धीरे सब कुछ पर छा जाता है... इस जीवन के, इस लोक के सब आकार मिट जाते हैं, एक मौन निःस्तब्धता में, और फिर दूर - कितनी दूर! - उदय हो आते हैं कितने नये लोक और उनके नये आकार! लोग सूर्यास्त के रंगों को सुन्दर बताते हैं, लेकिन उससे भी सुन्दर होता है सूर्यास्त की लालिमा का मिटना-
अशोक : रोज देखते-देखते ऊबतीं नहीं, एक ही दृश्य?
शान्ता : ऊबना कैसा? यह मिटने का खेल तो नित नया है - यही तो एक खेल है जो हमेशा नया है। और इस देखते-देखते इनसान विभोर होकर अपने को निरे जीवन पर छोड़ देता है-हम अपने को जीवन पर छोड़ दे सकते हैं, तभी तो हम जी सकते हैं, उसका हल खोजना हो तो उसे पहेली बनाना है।
अशोक : दीदी, मैं आया तब तुम शायद गा रही थीं न? मैं सोचता हूँ, यहाँ चुप-चुाप बैठकर गाना सुनूँगा।
बेयरा : चाय तैयार है, सा’ब।
शान्ता : लो, पहले चाय पियो।
अशोक : दीदी, यही तो बात मुझे अच्छी नहीं लगती। यह भी कोई चाय का समय है भला? और मैं कोई अजनबी तो हूँ नहीं जो खातिर करें-
शान्ता : तुम्हीं थोड़े ही पियोगे? मैं भी तो लूँगी-
अशोक : उससे क्या! रात के तो नौ बजे हैं। इस समय आपने मेरे लिए चाय क्यों मँगायी?
शान्ता : आपके लिए क्यों? चाय का आर्डर तो मैं तुम्हारे आने से पहले दे चुकी थी!
अशोक : ओह, तो आप लीजिए। मैं तब तक आपका आकाश देखता हूँ - मैं तो चाय लूँगा नहीं।
शान्ता : नहीं, मैं तो चाय केवल साथ के लिए पी लेती हूँ - मुझे भी इच्छा नहीं रही।
अशोक : तब?
शान्ता : मैंने अपने लिए नहीं मँगायी थी।
(बेयरा आता है।)
बेयरा : जी सा’ ब-
शान्ता : चाय उठा ले जाओ। और बाबा वापस आ गया है न? साइकिल अन्दर रख दिया है?
बेयरा : जी। बाब सोने जाते हैं।
(ट्रे समेट ले जाता है।)
अशोक : शान्ता दीदी, आप जो गाना गा रही थीं, वह गाइए।
शान्ता : मैं क्या गाती हूँ। वह तो यों ही कभी गुनगुनाती हूँ-
अशोक : जो हो-
(शान्ता बाहर की ओर जाती है, आकाश की ओर देखती है। उसका स्वर दूर आता है।)
शान्ता : अच्छी बात है, मैं तो तारे देखते-देखते कभी गुनगुनाया करती हूँ - (धीरे-धीरे गाती है)
सखी, मेरी नींद नसानी हो।
पिया को पन्थ निहारते सब रैन बिहानी हो।
बिन देखे कल ना परे, मेरी नींद नसानी हो।
सखी मेरी नींद नसानी हो-
पिया को पन्थ निहारते सब रैन बिहानी हो।
रैन बिहानी हो-
(गाते-गाते शान्ता का गला भारी हो आता है-फिर आवाज़ सहसा टूट जाती है। एक बार गला साफ़ करने का शब्द, फिर एक कड़ी गाती है, फिर गला रुँध जाता है और वह सहसा चुप हो जाती है)
अशोक : (सहसा चिन्तित) क्या बात है, शान्ता दी-
(बहुत हल्की-सी सिसकी का शब्द)
अशोक : (धीमे, कोमल स्वर से) शान्ता दी-
(क्षण-भर मौन)
(बाहर से निकट आता ताँगे का शब्द और घंटी)
अशोक : शान्ता को थोड़ी देर अकेली छोड़ देना उचित समझ कर बहाना बनाता हुआ-सा) शान्ता दी, मैं ज़रा मुन्ने को देख आऊँ, नहीं तो अभी सो जाएगा। अभी आया।
(बाहर दूर पर ही कवि का शब्द, क्रमशः निकट आता हुआ)
कवि : ओह, शान्ता। मुझे अभी तत्काल फिर बाहर जाना होगा, ज़रा जल्दी से एक प्याला चाय दे दोगी-
शान्ता : (सँभल कर) जी!
(भीतर जाती है।)
(भीतर से बालक ही हँसी का शब्द)
बालक : (भीतर’ से) बस; अशोक मामा गिलगिली मत चलाइए-
अशोक : तो तुम बोलते क्यों नहीं?
कवि : अरे, कौन, अशोक? (ज़ोर से) अशोक!
अशोक : (भीतर से) आ गये आप?
कवि : अरे यहाँ आओ यार, दो मिनिट गप्प ही करें, अभी तो चला जाऊँगा।
अशोक : (निकट आकर, विस्मित स्वर में) कहाँ?
कवि : यहीं ज़रा बैठो। चाय पियोगे?
अशोक : नहीं, इस समय नहीं।
(भीतर से शान्ता के गुनगुनाने का स्वर, जो क्रमशः कुछ स्पष्ट हो जाता है।)
शान्ता : (गाती है।)
सखी री, नींद नसानी हो।
पिया कौ पन्थ निहारते सब रैन बिहानी हो।
ज्यों चातक घन को रटै, मछरी जिमि पानी हो,
मीरा व्याकुल बिरहिनी, सुधि-बुधि बिसरानी हो।
कवि : (अर्ध स्वगत) फिर वही गाना।
अशोक : क्यों आपको गाना अच्छा नहीं लगता?
कवि : नहीं, गाना क्यों नहीं अच्छा लगेगा, पर शान्ता वही एक ही रोने-रोने सुर गाती है। (सहसा चुप हो जाता है।)
(शान्ता का स्वर स्पष्ट हो गया है, वह पास आ रही है।)
‘‘सखी, मेरी नींद नसानी हो।
पिया कौ पन्थ निहारते सब रैन-’’
(गान सहसा बन्द हो जाता है।)
शान्ता : लीजिए, चाय!
(इलाहाबाद, जून 1949)