कौआपरी और आशिकतन (हिंदी व्यंग्य) : बालकृष्ण भट्ट

Kauapari Aur Aashiqtan (Hindi Satire) : Balkrishna Bhatt

आज हमारे पंचमहाराज गोपियों में कन्हैया के परतो पर कौआपरियों के बीच आशिकतन बनने की ख़्वाहिश मन में ठान भोर ही को घर से चल पड़े—
‘‘मन लगा गधी से तो परी क्या चीज़ है’’

यह मत समझो हमारे पंचमहाराज आशिकतनी में किसी से पीछे हटे हुए हैं। घर में चाहे भूँजी भाँग न हो, दिल-दिमाग तो सात ताड़ की ऊँचाई से भी अधिक ऊँचा है। नेवले का सा मुँह सूरत में साक्षात् छाया सुत, किंतु सौंदर्य और हुस्न में कोटि कंदर्प लजावन तरहदारी में मटियाबुर्ज के नौबान किस हकीकत में! अबे ओ खड्डेदार बुल्ले! क्या तुझे भी आशिकतन बनने का हौसिला चर्राया क्या? सूरत लंगूर मगर दुम की कसर है। दुम न हो दुमदार सितारे को नोच कर ला दूँ। अरे ओ बीचुड्डों! अंचनगिरी पर्वत की श्यामता का अनुहार करने वाले तुम्हारे अंग-प्रत्यंग की छवि पर तन-मन सब वारै ये मुफलिस कल्लाच होकर भी आशिकतनों में नाम लिखाए तुम्हारे पीछे खराब खस्ता हैं, तुम्हारे लिए बेकल हैं। इश्क के फंदे में गिरफ़्तार बेबस हैं, असीर हैं, बेकल इतने कि कलकत्ता को कौन कहे कालापानी छान आने पर भी तुम उन्हें अपना दासानुदास चरण सेवक कर लेने को राज़ी हो तो उन्हें कोई उज़र नहीं है। अब तो इस कूचे में पाँव रख चुके हैं। आशिकों की फिहरिश्त में नाम दर्ज हो गया। लोकनिंदा और बदनामी को कहाँ तक डरैं। ओखली में सिर दै मूसलों की धमक से कहाँ कोई बच सकता है। शरम को शहद समझ चाट बैठे। बिना बेहयाई का जामा पहिने आशिक के तन जेब नही—

‘‘गाढे इश्क के हैं हम आशिक
तेरी जुदाई में मल-मल के हाथ रहते हैं।।’’

हाय मेरी कौआपरी - कौआपरी - कौआपरी- अफसोस जर दिया जनानो के पास माल न हुआ नहीं तो कौआपरियों की पलटन खड़ी कर हम उसके कपतान बनते या तो शाह वाजिद अली किसी जमाने में हुए थे या अब हमी इस वख्त देख पड़ते। अच्छा तो क्या बिलाई से भैंस लगती हैं किसी मालदार को चलकर फंसावै। ओ हो! आप हैं—पंडिअमुक! अमुक! अमुक! बाबू फलां! फलां! फलां! मिस्टर सो एंड सो! सो एंड सो! सो एंड सो! लाला साहब वगैरह! वगैरह! ओ: खो:! आप क्या हैं—बला हैं! करिश्मा हैं! तिलस्मा हैं! फिनामिना हैं! आश्चर्य और अद्भुत तथा लोकोत्तर वस्तु का संदोह हैं। उठती उमर और जग जानी जवानी के जोश के उफान में बीबी लोकमोहिक के नवासे हैं।

‘‘चुलबुल चालाक चतुर चरपर छिन-छिन में होत।
छैले छबीले छिछोरे ओर छोर के’’।।

क्या कहना आप ही तो हैं। भला यह तो कहिए आपने कितने करा-टाप और पदाघात के पश्चात पदाधिरूढ़ हो अनंग अखाड़े की पहलवानी प्राप्त की—
‘‘सदा शठ: शठापालं मल्लो मल्लाय शक्ष्यति’’
सींक से पतले आप के भुजदंड आप की पहलवानी की गवाही दे रहे हैं! मुरछल आप हाथ में क्यों लिए रहते हैं? नहीं नहीं यह तो नीम की टेहनी है। क्या कौआपरियों में नवधाभक्ति के साधन का योग सिद्ध हो गया है?

‘‘स्मरणं कीर्तनं विष्णोरर्चनं पादसेवनम्’’धनुषकार कमान सी झुकी हुई कमर से भी बोध होता है आपकी तपस्या सिद्ध हो गई, महाप्रसाद पाए गए—

लक्षाणामब्दमेकन्तु धूम्रपानमद्योमुखी।
उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्या सुमुखी जगाम।।

सुमुखी नही, सुमुखो कहिए—सुमुख, दुर्मुख, कृष्णामुख, घोड़मुख, लोखरीमुख, बीघमुख—मुख के जितने विशेषण जोड़ते जाइए हम सबका एक-एक उदाहरण आपको देते जाएँगे। गरज कि पंचमहाराज आशिकतनी के महकमे को बीच तक टटोल इसे अथाह और बे ओर-छोर पाय ऊब गए और निश्चय किया कि इन कौआपरियों के फंदे में पड़तन और धन दोनों का तहस-नहस है। ईश्वर शत्रु को भी इनसे बचाए रक्खे, वही सब सोचते-विचारते घर लौटे।

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