कठपुतलियाँ (मलयालम कहानी) : कारूर नीलकंठ पिल्लै
Kathputliyan (Malayalam Story) : Karoor Neelakanta Pillai
घर के आँगन में पहुँचकर एन्यूमरेटर ने अपने आप "312 बढ़ई का अहाता," कहते हुए ऊँची आवाज में पूछा, "क्या, यहाँ कोई नहीं है?"
नारियल के पत्तों से छाए कमरे से एक औरत बरामदे की ओर आई।
"नाम अम्मिणी है?" हाथ में रखे कागज की ओर देखकर आगंतुक ने पूछा।
युवती की स्वतः विकसित आँखें और खिल गई। वह घबरा गई कि कोई मुकदमा या पुलिस तो नहीं!
"जनगणना करने आया हूँ। बताओ, यहाँ कौन-कौन है?"
"अब मैं ही हूँ। माँ अभी-अभी नाले के किनारे केवड़ा छेदने गई है। भाई मजदूरी के लिए गया है।"
"बताओ, अम्मिणी किसका नाम है?"
"माँ का।"
"अच्छा, अम्मिणी पुरुष है या स्त्री?" वह तो हँस पड़ी, व्यंग्य की हँसी। फिर भी खूबसूरत हँसी।
"माँ और मैं स्त्रियाँ हैं, भाई पुरुष है।"
"पिताजी नहीं है?"
"मर गए।"
"तो अम्मिणी विधवा है?"
"अब विधवा है।"
फिर उसने कहा, "जनगणना लेते समय छतरी पकड़ना मना होगा। इस आग जैसी धूप में खड़ा होकर जनगणना ले लें तो लोगों की संख्या कम हो जाएगी। इस बेंच पर बैठिए।"
गोबर से लीपे साफ-सुथरे और चमकदार उस नाटे बरामदे में चढ़कर आगंतुक एक बेंच पर बैठा। फिर अम्मिणी की जानकारी पूछकर लिखने लगा।
"तुम्हारा नाम?"
"मेरा नाम नलिनी।" जरा लाज के साथ वह बोली।
"उम्र?"
"देखने पर कितनी लगती है?"
"मुझे कुछ नहीं लगता।"
वह तो मुसकरा उठी।
"तेईस"
"शादीशुदा है क्या?"
"अब पति है?"
वह जरा घबरा उठी।
"अब यहाँ नहीं, तेरहवें मीलवाले घर में जनगणना ले ली क्या?"
"वहाँ की जनगणना दूसरा कोई आदमी लेगा। अब बताओ, तुम्हारा पति है, है न?"
"हाँ या नहीं, जो भी लिखो।" उसने अनमने भाव से कहा।
"हाँ लिखना और नहीं लिखना, दोनों अलग-अलग तो हैं न?"
"तो अस्पष्ट रूप में हाँ लिख दो।"
"अभी शादी नहीं हुई होगी। केवल मँगनी हुई है न? तब तो विवाहिता नहीं, अविवाहिता लिखना है।"
"वैसा नहीं, शादी तो हुई।"
उसने सिर के पीछे खुजलाया, जिससे लंबे और तेलरहित उसके मैले बाल खुल गए और नीचे की ओरगिरकर उसके सुंदर रूप को एक खूबसूरत तथा अनोखा परिवेश दे गए।
"पति...?"
"पति है। पति नहीं भी है।"
"छोड़ दिया है, है न? तब तो विभर्तृका अथवा पतिविहीन?"
"वह शब्द सुनकर लगता है कि लिखने योग्य है। एक बार और बोलो तो विभर्ता। ऐसी ही कोई उलझी हुई समस्या है यह भी, किंतु उसने छोड़ा नहीं। अगर छोड़ा है तो फिर हर हफ्ते वह अपने दूत को क्यों इधर मेरे पास भेजता रहता है?"
"तुमने उसे छोड़ दिया होगा?"
"मैंने स्वीकारा भी नहीं, छोड़ा भी नहीं। तुम जो चाहो, लिख दो। तुम ही सबके जानकार हो।"
"मुझे तुम्हारे पति के बारे में क्या पता? तुम जो भी कहो, लिख लूँगा। पति है, ऐसा लिख तो लू?"
"हाँ, वही अच्छा है।"
"यह रजिस्टर अच्छा और बुरा लिखने का नहीं है। यह सच लिखने का है।"
"मैंने जो कहा, वही सच है।"
ऐसा कहकर उसने बाल पीछे की ओर बाँध लिये। वह आदमी यों ही देखता रहा।
"बच्चों को जन्म दिया है?" "बच्चे को भी जन्म नहीं दिया, बच्ची को भी जन्म नहीं दिया।"
"गर्भपात हुआ है?"
"हुआ है न? वहाँ जाकर छह महीने पूरा होने के पहले ही गर्भपात शुरू हुआ। हर दिन गर्भपात।"
"हर दिन गर्भपात?"
"इसीलिए तो मैं यहाँ चली आई।"
"क्या कह रही हो, गर्भपात यानी गर्भ का गिर जाना, हुआ है क्या?"
"कैसी अटपटी बातें पूछ रहे हो? अच्छा हुआ कि मेरा भैया यहाँ नहीं है।"
उस आदमी को थोड़ा गुस्सा आया, "भैया होता तो क्या होता? यह तो सरकारी काम है। भैया क्या, मामा के होने पर भी जो कुछ पूछना है, मैं पूछ ही लूंगा। सच-सच बताना होगा। अगर न कहती तो कसूर होगा। जो कुछ कहोगी, उसे गुप्त रखूँगा।"
"बड़ी गरमी लगती है तो इससे हवा चलाओ।"
यों कहकर नलिनी ने एक बिजना उस बेंच के कोने पर रख दिया।
"मेरे कहने का मतलब कि अगर भैया के सामने यह सब पूछते तो मुझे शर्म आ जाती।" "फिर बोलो!"
"नहीं।"
"नहीं बोलोगी?"
"नहीं, नहीं। पहले गर्भपात के बारे में पूछा न? वह न बताऊँगी।"
"तब तो यह बताओ कि प्रतिमास तुम्हारी आय कितनी है?" "भैया को तीन रुपए बढ़ईगिरी की मजदूरी मिलती है।"
"मेरा मतलब भैया की मजदूरी से नहीं। तुम्हारी..."
"मैं कोई काम नहीं करती।"
"तो कोई आय नहीं। तब तो परावलंबी..." "मैं, यह किसने कहा? उस घाट की कात्ता ने कहा होगा। उसकी बातें मुझे भी कहनी हैं।" वह आदमी मस्ती से हँसा। "कात्ता, उसने क्या कहा है, मैंने जो कहा, वह तुमने नहीं सुना? एक व्यक्ति की कोई आय नहीं तो दूसरों की आय पर उसे जीना पड़ता है। तुम्हें कोई आय नहीं मिलती। खाने-पहनने को पैसे चाहिए। वह देनेवाले चाहे माता हो या भाई, उसके आश्रय में तुम जीती हो। सही है न?"
"तुम कचहरी के जैसे सवाल पूछते हो?"
"कचहरी में तुम्हारी पूछताछ कभी हुई है क्या?"
"उस बदमाश ने वह भी करवाया।"
"कौन, पति?"
"क्या, वह पति है! लिख दो कि मेरा पति नहीं। उसके लिए चाहे तो मैं तुम्हें कुछ तोहफा दे दूंगी।"
"रहने दो। तुम्हारी कोई आय नहीं है न?"
"मेरी आय तो है। मैं पराश्रय में नहीं जीती। महीने में पंद्रह रुपए मेरी आय है।"
"ठीक है। तब तो तुम्हारा पेशा क्या है?" "भला! इस सरकार को क्या-क्या जानना है? पेशा एक नहीं, अनेक हैं।"
"वे सब कह दो। लिखने के लिए कागज में काफी जगह है।"
"मैं ही इस घर में खाना पकाती हूँ। मैंने ही यह बरामदा लीपा है।"
"अच्छी तरह लीपा है। आईने के समान चमकता है।"
"मेरा पति बढ़ई! ओह! वह तो मेरा कोई नहीं, वह कहा करता था कि मेरा गाल आईने के समान चमकता है। तो यह बरामदा मेरे गाल के समान है।" वह हँस पड़ी, मानो मजाक की कोई बात कही हो।
वह भी हँसा।
इस बीच पड़ोस की कोई लड़की आँगन में आई और एन्यूमरेटर के चेहरे की ओर घूरकर देखती रही।
"छोकरी बस दस साल की ही हुई है; ऐसा घूरकर देखती है। लगता है कि दो साल बाद इस ओर किसी को आने नहीं देगी।"
लड़की को गुस्सा आया, "मैंने देखा तो तुम्हें क्या हानि हुई? लो मैं जाती हूँ।" कहकर वह उसी रास्ते लौटी, जहाँ से आई थी। जाते वक्त वह कुछ फुसफुसा रही थी।
नलिनी ने कहा, "उसे गुस्सा आना चाहिए। किसी का सिर दिखाई पड़े तो न जाने कहाँ से हो, छोकरी आँगन में आ जाती।"
एन्यूमरेटर को अब वहाँ बैठे रहने में डर का अनुभव होने लगा।
"फिर, पेशे के बारे में तुमने कुछ नहीं कहा?"
"कहा न? एक घर में जितने काम हैं, सब-के-सब मैं करती हूँ।"
"मुझे तुम्हारे पेशे के बारे में जानना है, जिससे तुम्हें कुछ आय मिलती है।"
"अगर आयवाला कोई पेशा नहीं है तो क्या तुम कुछ दोगे?"
"पूछोगी तो..." मारे हिचक के वह पूरा कह नहीं पाया।
"अगर पूछे तो दोगे न?"
उस आदमी ने चारों ओर देखा।
वह बोली, "घर में कोई आए तो शिष्टाचार का पालन होना चाहिए न?"
वह एकदम पूछ बैठा, "मैंने कुछ अशिष्ट कहा क्या?"
"तुमने नहीं। मैंने शिष्टाचार नहीं दिखाया। लगता है कि पान खानेवाले हो।" ऐसा कहकर वह कमरे के भीतर चली गई। भीतर से चीजें बटोरने की आवाज सुनाई पड़ी। थोड़ी देर बाद वह पान-सुपारी लेकर आई। वह आदमी पान खाने लगा। वह फिर कमरे के अंदर चली गई और तीन कठपुतलियाँ लाई। उसने कहा, "मेरा पेशा यही है। एक पुतली बनाने के लिए मुझे एक दिन काफी है।"
उस आदमी ने कठपुतली देखी। एक बित्ता लंबाई में बनाई स्त्री मूर्तियाँ। सब-की-सब बढ़िया। चमकदार रंग देनेवाली वस्तुओं से बनाई गई मूर्तियाँ। मांसल खूबसूरत अंग। ऊँची छाती, मोटी जाँघ, दुबली कटि, लंबे बाल, मोहक मुसकराहट। कुल मिलाकर मादक व मनोहर मूर्तियाँ! वह आदमी पलकें मूँदे बिना उन्हें देखता रहा। फिर उसकी ओर देखा, "कमाल है! चारों एक जैसी!"
"तीन देखकर चार लगना, यह तो अद्भुत है।" उसने कहा। उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया। "ये साँचे में ढालकर बनाई जाती हैं न?"
"हम ढालने का काम करनेवाले नहीं हैं।"
"तब तो तराश–तराशकर बनाया होगा। क्षीरसागर-मंथन के दौरान निकली लक्ष्मी जैसी लगती है।"
"क्षीरसागर-मंथन में मैंने भाग नहीं लिया था। इसलिए मैंने लक्ष्मी को नहीं देखा है। मैंने अपना पेशा दिखाया, बस। वैसे तुमने चार क्यों कहा?"
"ये जड़ तीन, इन्हें बनानेवाली चेतन एक, इस प्रकार चार। अचरज की बात है कि चारों एक जैसी हैं।"
"अर्थात् चेतन भी जड़ जैसा लगता है। यही है न? इसमें अचरज की कोई बात नहीं। मेरी तो यही नियति है।" उसकी आँखें चमकीं। वह फिर कमरे के अंदर गई। वापस आने पर उसका चेहरा लाल-लाल हो गया था। हाथ में एक पुतली थी, उसने उसे उस आदमी के पास रखा। उसने उसे उठाकर देखा-
"क्या, यह कंसवध का कृष्ण है या धोखेबाज को कृष्ण का वेश पहनाया गया है? थोड़ा बड़ा होता तो ककड़ी के खेत में रखा जा सकता, जिससे किसी की दीठ न लग जाए। नहीं तो थोड़ा छोटा होता तो..."
वह बीच में बोल उठी, "वह ऐसा हो गया। दस-पचास बनाए तो देखनेवाले सब खरीदते रहे। तीन-चार आने मिलते रहे। धीरे-धीरे वेश कृष्ण का तथा रूप किसी दूसरे कृष्ण का होता गया। दूसरा कृष्ण यानी वह आदमी, जिसे मैंने एक समय कृष्ण के समान माना। उस आदमी के बारे में सोचने पर ही मुझे गुस्सा आ जाएगा। फिर तो पुतला उसके जैसे निकल आता। मेरा सारा क्रोध उस पुतले के चेहरे में रहेगा। तब तो लोगों ने पुतले खरीदने छोड़ दिए। मैंने पेशा भी बंद कर दिया। निर्णय लिया कि अब पुरुष रूप नहीं बनाऊँगी। श्रीपार्वती का रूप बनाकर देखा; यानी एक स्त्री का रूप बनाकर उसे श्रीपार्वती का नाम दिया। नहीं तो मैंने श्रीपार्वती को कब देखा है? मैंने सुना है कि श्रीपार्वती ने तपस्या की है और शिव के साथ नर्तन भी किया है। सिनेमा में देखा भी है। कभी-कभी पार्वती और परमेश्वर आपस में रूठ जाते हैं। इन सारी बातों को मन में रखकर मैं पुतली बनाने लगी। कभी-कभी मैं आईने में देखकर पार्वती के समान हाव-भाव दिखाकर उस रूप की पुतली बनाती। स्वयं को पार्वती मानकर ही मैंने यह काम किया। अंत में हुआ क्या? पार्वतियाँ सब एक जैसी..."
उस आदमी ने उसे टोककर कहा, "तुम और पार्वती एक जैसी हैं।"
"मैं और पार्वती एक समान कैसी? पार्वती का रूप मेरा हो जाता है। मुझे शर्म आई। मेरा रूप बनाकर बेचूं तो खरीदने..."
वह आदमी सहसा बोल उठा, "बहुत लोग होंगे।"
"होंगे, यह तो मैंने देख लिया है। जो लोग खरीदेंगे, वह भी मेरी हँसी उड़ाएँगे। पुतली बढ़िया है। मैंने पहले कात्ता के बारे में कहा न? उसने मेरे सामने ही कितनी बार कहा है कि रूप दिखाकर पुरुषों को आकृष्ट करने के लिए ही मैं पुतली बेचती हूँ। लगता है कि मेरे एक ही थप्पड़ से उसकी आँखें फूट जाती। फिर मुझे लगा कि मेरे सामने न कहे तो मैं क्या डाँटूँ। अगर दूसरी कोई स्त्री ऐसा करे तो मैं भी उसकी हँसी उड़ाती।"
"वह तो ठीक होगा। अपने ही रूप को इतने सटीक ढंग से प्रस्तुत करने की तुम्हारी कला अदभुत ही है।"
उसने कहा, "तुम सिर्फ चापलूसी कर रहे हो। एक बना लिया तो उसे देखकर जितना चाहे बनाया जा सकता है न? सबसे पहले आईने में अपने रूप को देखकर बनाना है। वह उतनी बड़ी बात तो नहीं।"
"वह ठीक है।"
"मेरे अधिकांश पड़ोसी ऐसे थे, मैं जो भी कहती, उसे सच मान लेते। मैं उन सबसे डरती थी।"
"अब, मुझसे डर तो नहीं है न?"
"अब मैं किसी से नहीं डरती। मुझे यह विचार तक नहीं कि मेरे अलावा कोई दूसरा भी है।" "कलाओं से जुड़े अधिकांश लोग ऐसे ही होते हैं।"
वह कमरे के अंदर गई। उसके वापस आने के पहले वह धीमे स्वर में बोला, "इसका नाम ही अहंकार है।"
उसने चार पुतलियाँ लाकर उस आदमी के सामने रख दीं। करुण, रौद्र, अद्भुत, शृंगार आदि भावों की पराकाष्ठा को अभिव्यक्त करनेवाली अपने ही रूप में बनी पुतलियाँ!
"यदि मैं कहूँ कि ये बहुत खूबसूरत हैं तो क्या तुम चापलूस कहकर मेरा परिहास करोगी?" "वैसा नहीं कहूँगी। आप क्यों कहते हैं कि ये बेहद खूबसूरत हैं? मैं इन्हें बेचती नहीं। मैं इन्हें इसलिए बनाती हूँ कि दिन के वक्त सोने से बच जाऊँ। किसी दिन इसकी जरूरत पड़ेगी। ऐसे लोगों के हाथ पहुँचने पर, जिन्होंने मुझे नहीं देखा है, वे इसे 'वेश्या का विज्ञापन' कहकर मेरा परिहास नहीं करेंगे, इतना तो मैं जानती हूँ।"
"एक पेशा तुम जानती हो। उसे अच्छी तरह करती भी हो। उससे कोई आय न मिले तो वह कष्ट ही है। तुम किंवदंतियों से क्यों डरती हो? लोग जो भी कहें, कहने दें। एक पुतली के लिए एक रुपया कोई अंधा भी देगा। तब तो तुम्हारी जरूरतों की पूर्ति पराश्रय के बिना हो जाएगी। मैं लिख लेता हूँ कि पेशा शिल्पकारी है।"
उस आदमी ने लिख लिया और भी बातें लिख लीं। उसके भाई से संबंधित खबरें भी उससे पूछकर लिखीं। इस बीच उसने एक को छोड़ बाकी सभी पुतलियों को अंदर रख दिया। एक पुतली उसने अपने हाथ में रखी थी।
उस आदमी ने फिर एक बार पान खाया। "क्या तुम यह कहती हो कि तुम पुतलियाँ नहीं बेचोगी?"
"मैं उन्हें खाती नहीं, चूल्हे में फेंकती भी नहीं।"
"क्या, तुम्हारे पास अनेक पुतलियाँ है?"
"क्या, यह सवाल भी जनगणना के अंतर्गत आता है?"
"तो जाऊँ। पति रूठकर..."
वह बीच में बोली, "वह बात कह चुकी न? क्या, राहियों से पति के बारे में इससे ज्यादा कह सकती हूँ? वह आदमी निरा जानवर है। दारू पीता है, फिर पागल कुत्ते जैसा हो जाता है। रास्ते में दिखनेवालों से झगड़ा करता है, फिर मार खाता है। दारू के उतरने तक यानी सवेरे तक पुलिस स्टेशन में पड़ा रहता है। एक रात के दूसरे पहर को किसी वरिष्ठ पुलिस अफसर ने एक सिपाही को कह भेजा था कि मैं जाकर पति को जमानत पर ले आऊँ। मैंने कहा कि सबेरा होने के बाद ही उसे बाहर भेजें। तब उसने कहा कि यह शिकायत लेकर न आना कि घर में जब पति न थे, तब किसी ने घुसकर हमला किया। तो मैंने कहा कि कोई हमला करने आ जाए तो मेरे सिरहाने बड़ी छेनी रखी हुई है। उसके जाने के दो घंटे बाद झूलते-झुलते पति आया। मैंने कुछ नहीं पूछा और कुछ नहीं कहा। सवेरे होने पर मैंने कहा कि मैं घर जाती हूँ। तब उसने पूछा, 'क्यों?' मैंने कहा, "मैं यहाँ रहूँ तो बड़ी छेनी से किसी की हत्या करनी पड़ेगी। इसलिए मैं जाती हूँ। तब वह जानवर एकदम कह उठा कि उसका हाथ इमली तोड़ने नहीं जाएगा। तब यह कहकर कि इस जानवर के साथ रहने के लिए मैं नहीं। मैं सड़क की ओर आकर बस पकड़ के यहाँ आई। कहने को तो और भी कई कहानियाँ हैं, जिन्हें कहने पर घृणा आ जाती है।"
उसने बातें खत्म की तो वह आदमी उठा।
"यह चाहे तो रख लो," कहकर उसने एक मूर्ति उसकी ओर बढ़ाई।
उस आदमी ने उसे सहर्ष स्वीकार किया। उसने देखा, रौद्र भाव की उसकी मूर्ति। उसे देख उस आदमी के चेहरे का आनंद फीका पड़ गया। फिर भी धन्यवाद कहकर उस आदमी ने कागज का एक टुकड़ा वहाँ रखकर कहा "यह देखो तो..."।
उसने देखा, उस आदमी ने उसकी तसवीर खींची है। उसने ध्यान से देखा "कमाल है कि बातों के बीच यह खींचा है। वह मूर्ति दे दो।" ऐसा कहकर वह अंदर गई और तपस्या करनेवाली पार्वती की एक बड़ी मूर्ति लाकर उस चित्रकार को दे दी। उस आदमी ने आनंद और कृतज्ञता के साथ उसे स्वीकार कर लिया।
"तो चलो।" कहकर वह आँगन की ओर उतरी। वह आदमी अगले घर की ओर चला। उसके उर में वीणा की तंत्रियों से बजनेवाला नाद गूंजता रहा।