कष्टात्कष्टतरंक्षुधा (हिंदी निबन्ध) : बालकृष्ण भट्ट
Kashtatkashtatarnkshudha (Hindi Nibandh) : Balkrishna Bhatt
शरीर में भाँति-भाँति के रोग-दोष का होना, धन रहित हो एक-एक पैसे के लिए तरसना; बंधु-बांधव, प्रेमी जनों की जुदाई का दु:सह दु:ख आदि अनेक कष्ट मनुष्यह-जीवन में आ पड़ते हैं किंतु हाय पेट की आग का बुझना इससे बढ़ कर कोई क्लेुश नहीं है। और-और दु:ख लोग बहुत कुछ रोने-गाने और संताप के उपरांत किसी-न-किसी तरह बरदाश्त कर अंत को चुप हो बैठ रहते हैं पर भूख का क्लेसश नहीं बरदाश्ता होता। जठराग्नि के लिए ईंधन संपादन का ऐसा भारी बंधन है जिसमें जीव मात्र बँधे हुए भोर को खाट से उठते ही साँझ लौ इसी की चिंता में व्यनग्र इतस्तधत: धावमान् किसी-न-किसी तरह अपना पेट पालते ही तो हैं। अस्तुस और-और समय तुरंत पूरा इस उदर दरी का पाटना इतना कर्रा चाहे न भी रहा हो जैसा अब हो रहा है, किंतु अनेक बार की गाई हुई गीत का फिर-फिर गाना व्यरर्थ और नितांत अरोचक होगा। योगी जन यत्नव और अभ्यागस से उन-उन इंद्रियों को जिन्हेंा काबू में लाना अतीत दुर्घट है अंत को अपने अधीन करी तो लेते हैं पर इस जठराग्नि के ऊपर उनका कुछ वश नहीं चलता। बे-वश उन्हेंह भी इसके लिए चिंता करनी ही पड़ती है। श्रृंगारोत्तउरसत्प्रे मेयरचना चातरी के एकमात्र परमाचार्य कविवर गोवर्द्धन अपनी 'गोवर्द्धन सप्त शती' में ऐसा लिख भी गए हैं-
“एक: स एव जीवति हृदय विहीनोपि राहु:।
य:सर्वलघिमकारणमुदरं न विभर्ति दुष्पूररम्।।”
जीवन एक राहु का सफल है, जो केवल शिरोभाग होने से हृदय शून्यप होकर भी सहृदय चतुर या सरस हृदय वाला है इसलिए कि यावत् हलकाई का एकमात्र कारण उदर अपने में नहीं रखता। भागवत में व्या सदेव महाराज ने धनियों पर आक्षेप करते हुए लिखा है-
“कस्मा द्भजंति कवयो धनदुर्मदांधान्”
कवि और बुध जन, धन के मद में अंधे धनियों की सेवा क्योंा करते हैं और अपना अपमान उनसे क्योंर कराते हैं? अपने इस दग्धोकदर के भर लेने को साग-पात और वन के फल-फूल क्याच उच्छिन्न्् हो गए हैं। पर वह समय अब कहाँ रहा जब कि संतोष की शांति-मूर्ति का प्रकाश एक-एक आदमी पर झलक रहा था, गांभीर्य और उदार भाव का सब ओर विस्तामर था, हवस और तृष्णाफ-पिशाची का सर्वथा लोप था, किसी को किसी तरह की संकीर्णता और किसी वस्तु् का अभाव न था, वैसे समय में भी क्षुधा का क्लेअश इतना असह्य था कि लिखने वाले ने इसे “काष्टवत्क,ष्ट तरं” कहा-न कि अब इस समय जब कि कौड़ी और मुहर का फर्क आ लगा है। उस समय लोग स्वाभाव ही से संतुष्ट , सहनशील सब भाँति आसूदा, चंचल मन और इंद्रियों को अपने वश में किए हुए थे। देश ऐसा रँजा-पुँजा था कि चारों ओर आनंद-बधाई बज रही थी। नई-नई ईजादों से हवस इस कदर नहीं बढ़ी थी, किसी चीज की हाजत न थी तब नई ईजाद क्योंब की जाती? वही अब इस समय देखा जाता है कि लोगों में तृष्णाी का क्षय किसी तरह होता ही नहीं, संतोष को किसी कोने में भी कहीं स्थाेन नहीं मिलता, 'मन नहिं सिंधु समाय' इस वाक्य, की चरितार्थता इन्हीं दिनों देखी जाती है। चंचल इंद्रियों को दबा कर विषय-वासना से परहेज करने वाले या तो दंभ की मूर्ति होंगे नहीं तो वे ही होंगे जिनमें शाइस्तीगी या सभ्ययता ने अपना प्रकाश नहीं किया। परस्प र की स्पनर्द्धा या डाह ने यहाँ तक पाँव फैला रखा है कि लोगों को हवस की कटीली झाड़ी में झोंके देती है। उदारभाव संकुचित हो न जानिए किस गुफा में जा छिपा, दूसरे के मुकाबले जरा भी अपनी हानि या अपनी हेठी सहना किसी को गँवारा नहीं होता। दुर्भिक्ष-पीड़ित प्रजा में अनेक आधि-व्या धि, प्लेरग और मरी से सब ओर उदासी और नहूसत का पूरा रंग जम रहा है। चहूँ ओर दरिद्रता का जहाँ साम्राज्यह फैला हुआ है वहाँ विलायत की नई-नई नफासत और भाँति-भाँति की चटकीली, मन को लुभाने वाली कारीगरी जो कुछ बच रहा, उसे भी ढोए लिए जाती है। क्षुधा को काष्टतत्कजष्टमतर लिखने वाले इस समय होते तो न जानिए कितना पछंताते, क्याू तअज्जुसब सिर धुनने लगते। किंतु दैवी रचना बड़ी ही अद्भुत है, कुदरत के खेल का कौन पार पा सकता है इतने पर भी मोह का जाल ऐसा फैला हुआ है कि पढ़, अपढ़, ज्ञानी, मानी सभी उसमें फँसे हुए हैं। क्षुधा के इस अपरिहार्य कष्टऐ से बचने की कौन कहे जान बूझ हम सब लोग उसमें अपने को छोड़ते जाते हैं। कितने हैं जिन्हेंऐ पेट भर अंत खाने की नहीं मिलता। सूखपूर्वक रहने का स्थाोन भी नहीं है तब जिंदगी की और लज्जऐतें और आराम की कौन कहे पर नरक से परित्राण पाने को पुत्र को पैदा होना जरूरी बात मान रहे हैं-
“पुत्राम्नोजनरकात् त्रायते इति पुत्र:”
क्याप कुआँ की भाग है हम नहीं जानते। इन गीदड़ों की सृष्टि से, क्याप नरक से उद्धार होता है। नरक से उद्धार इस उदृष्ट वाद को कौन जानता है, किसी की चिट्ठी तो आई नहीं पर इन गीदड़ों की सृष्टि यहाँ घोर नरक में हमें अलबत्ताव गिराती है। जिसमें औलाद बढ़े इसलिए पुत्र का अर्थ नरक से उद्धार करने वाला तब के लिए था जब देश-का-देश एक कोने से दूसरे तक सूना और खाली पड़ा था और उसे आबाद करना पुराने आर्यों को मंजूर था। अब तो मनु का यह श्लोेक हमारे वास्ते उपयुक्तध है-
'चतुर्णामपि भ्रातृणामेकश्चे त्पुबत्रवान्भ्वेत्।
तेन पुत्रेण सर्वे ते पुत्रिणो मनुरब्रवीत्।।”
चार भाइयों में एक भी सिंह शावक-सा पुत्र जन्मे् तो उसी से वे चारों पुत्रवान् हैं। सच तो है मुर्दा दिल, सब भाँति गए बीते, निरे निकम्मे, गीदड़ की-सी प्रकृति वाले, अब इस समय हम लोगों की औलाद बढ़ के क्याम होगी? सियार के कभी सिंह पैदा हो सर्वथा असंभव है। इनका अधिक बढ़ना केवल ऊपर का वाक्य् कष्टाित्केष्ट तरंक्षुधा को पुष्ट् करने के लिए है। देश में क्षुधा का क्ले श जो दिन-दिन बढ़ रहा है उसमें सामयिक शासन प्रणाली की भाँति-भाँति की कड़ाई के अतिरिक्ता एक यह भी है कि बाल्यै विवाह आदि अनेक कुरीतियों की बदौलत हम लोगों की निकम्मीि सृष्टि अत्यंत बढ़ती जाती है जिनमें सिंह के छौनों का-सा पुरुषार्थ कहीं छू नहीं गया। पूर्व संचित सब शत-छिद्र घट में पानी के समान निकला जाता है देश में पुरुषार्थ के अभाव से नया धन आता नहीं, परिणाम जिसका भूख का क्ले श बढ़ाने के सिवाय और क्या हो सकता है? धन इस तरह क्षीण होता जाता है धरती की शक्ति अल्प हो जाने से पैदावरी औसत से उतनी नहीं होती जितनी आबादी मुल्कस की बढ़ रही है। एक साल किसी एक प्रांत में भी अवर्षण हुआ तो उसका असर देश भर में छा जाता है। माना पहले की अपेक्षा धरती अब बहुत अधिक जोती बोई जाती है। किंतु उत्पाशदिका-शक्ति कम होने से खेती की अधिकाई का कोई विशेष लाभ न रहा। अस्तुत, सो भी सही यहाँ की पैदावार यहीं रहती बाहर के दूर देशों में न जाती तब भी सस्ती रहती अन्नत का कष्टो न उठाना पड़ता। सो भी नहीं है देश में धना आने का कोई दूसरा द्वार न रहा सिवाय पृथ्वी् की उपज के वह उपज बाहर न जाय तो बड़े-बड़े फर्म और महाजनों की कोठियों में भी जहाँ लाख और करोड़ की गिनती है एक पैसा न दिखलाई दे। कलकत्ता- और बंबई ऐसे दो एक शहरों को छोड़ देश भर में बड़े-बड़े रोजगारी जिनके घर रुपयों की झनझनाहट रहती थी उदासी छाई हुई है, जिनके चलते काम में किसी को पानी पीने की फुरसत नहीं मिलती थी वहाँ लोग मौन साधे बसना बिछाए हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, केवल ब्याुज की या गाँव की आमदनी में अमीरी ठाठ बाँधे हुए हैं। तात्पधर्य यह कि कोई दूसरा उद्यम न रहा सिवाय खेती की उपज के जो हमारी निज की भोग्यए वस्तु है उसे दूसरे को दे जब हम उसका मूल्या लेंगे तो हमारे निज के भोजन में तो कसर पड़ती ही रहेगी। इसका विचार यहाँ पर छोड़े ही देते हैं कि वही उपज जिसे हम कच्चाे बाना (रॉ मैटेरियल) कहेंगे हमसे खरीद विलायत वाले अपनी बुद्धि कौशल से बदले में हम से चौगुना कभी को अठगुना वसूल करते हैं और हम उन-उन पदार्थों की चमक-दमक तथा स्व च्छ ता पर रीझ खुशी से दिए देते हैं देश को निर्धन और दरिद्र किए डालते हैं। जैसा हमारे यहाँ हजारपति और लाखपति रईसों में अग्रगण्यु और माननीय होते हैं वैसा ही अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंइड आदि देशों में करोड़पति हैं, लाख दो लाख का धनी तो वहाँ किसी गिनती में नहीं हैं। उन लोगों ने अलबत्ताो कभी कान से भी न सुना होगा कि मूर्ख का कष्ट भी कोई कष्टम है। यहाँ पुत्र नरक से उद्धार का द्वार हो श्वासन समूह को इतना बेहद बढ़ा दिया कि पेट पालन भी दुर्घट हो गया। हमारे पढ़ने वाले हमें चाहे जो समझें हमें चाहे जैसी हिकारत की नजर से ख्यापल करें हम कहेंगे यही कि देश की इस वर्तमान दशा में हम लोगों की सृष्टि का बढ़ना जीते ही नारकीेय यातनाओं का स्वायद चखना है। हम नहीं जानते कहाँ तक इनका पौरुषेय विही श्वा न दल बढ़ता जाएगा जिसमें गर्मी कहीं नाम को नहीं बच रही। सच माघ कवि ने कहा है-
“पादहतं यदुस्था।यि मूर्द्धानमधिरोहति।
स्व स्थाा एवापमानेपि देहिनस्त।द्वरं रज:।।”
रास्तेद की धूलि भी पाँव से ताड़ित हो सिर पर चढ़ती है, जिससे प्रकट है कि अपना अपमान ऐसा बुरा है कि ऐसी तुच्छक वस्तुस धूलि भी नहीं उसे सह सकती और सिर पर चढ़ अपमान का बदला चुकाना चाहती है। कवि कहता है धूलि 'खाक' को भी जब इतना ज्ञान है तो उस मनुष्यब से धूलि ही भली जो अपमान सहकर भी निर्विकार जैसे का तैसा बना रहता है। इतना ही होता तो इनकी यह दशा क्यों होती कि इस समय भूमंडल पर कोई जाति नहीं है जो इतने दिनों तक अपमान कैसा वरन् गुलामी की हालत में धौल खाते-खाते जन्मं का जन्मो बीत गया और चेत न आई सिर नीचा किए सबर को अपना दीक्षा गुरु मान सब सहते चले जाते हैं। जिन्हेंन गुलामी झेलते न जानिए कितनी शताब्दीो बीत गई जो इनकी नस-नस में व्याेप्त। हो गई इसी से सेवकाई का काम ये बहुत अच्छान जानते हैं और अपनी स्वाीमिभक्ति के बड़े अभिमानी भी हैं। मालिक बनना न इन्हें आता है न स्वाशमित्वं की जितनी बात और जितने गुण हैं व इनके मन में धँसते हैं न आ-कल्पांहत इनके सुधरने की कोई आशा पाई जाती है। केवल दास्यं-भाव होता तो कदाचित् मिट जाता और फिर से इनमें नव जीवन आ जाता। पुराने ब्रिटंस चार सौ वर्ष लों रोमंस लोगों की गुलामी के बाद फिर जो क्रम-क्रम से स्वजच्छंाद होने लगे तो कहाँ तक उन्नचति के शिखर पर चढ़े कि अब इस भूमंडल पर उसके समान कोई जाति नहीं है और इंग्लैं ड इस समय सब का शिरोमणि हो रहा है। पर यहाँ तो दूसरा कोढ़ इनके साथ परिवर्तन-विमुखता का लग रहा है। मनु के समय जो दो पहिए का छकड़ा निकला उसमें फिर अब तक कुछ अदल-बदल न हुई। शायद इसके बराबर का ऐसा ही कोई दूसरा पाप होगा कि बाप-दादा के समय की प्रचलित रिवाज में परिवर्तन किया जाय। जो कुछ दोष उसमें आ गया है उसे मिटाय संशोधन करना मानो अपने लिए नरक का रास्ताक साफ करना है, उसका यह लोक-परलोक दोनों गया दाखिल समझो इत्याअदि बातों का खयाल कर क्षुधा को कष्टासत्कसष्ट तर कहना हिंदुस्ताझन के लिए सब भाँति सत्य और उचित मालूम होता है।