करुणालय (गीतिनाट्य) : जयशंकर प्रसाद

Karunalaya (Opera/Geetinatya) : Jaishankar Prasad

पात्र-परिचय : करुणालय (गीतिनाट्य)

पुरुष-

हरिश्चन्द्र : अयोध्या के महाराज

रोहित : युवराज

वसिष्ठ : ऋषि

विश्वामित्र : ऋषि

शुनःशेफ : अजीगर्त का पुत्र

शक्ति : वसिष्ठ का पुत्र

मधुच्छन्द : विश्वामित्र के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ

ज्योतिष्मान् : सेनापति

स्त्री-

तारिणी : अजीगर्त की स्त्री

सुव्रता : दासी-रूप में विश्वामित्र की गन्धर्व-विवाहिता स्त्री

यह दृश्यकाव्य गीति नाट्य के ढंग पर लिखा गया है। तुकान्त-विहीन मात्रिक छन्द में वाक्यानुसार विराम-चिह्न दिया गया है। यद्यपि हिन्दी में इस ढंग की कविता का प्रचार नहीं है, तथापि अन्य भाषाओं में (जैसे संस्कृत में कुलक, अंग्रेजी में ब्लैंक वर्स, बंगला में अमित्रक्षर छन्द आदि) इसका उपयुक्त प्रचार है। हिन्दी में भी इस कविता का प्रचार कैसा लाभ-दायक होगा, इसी विचार के लिए आज यह काव्य पाठकों के सामने उपस्थित किया गया है।

माघ संवत् 1970

- इन्दु, कला 4,
खंड 1, किरण

प्रथम दृश्य : करुणालय (गीतिनाट्य)

सरयू में नाव पर जल-विहार करते हुए महाराज हरिश्चन्द्र का सहचर-जनों सहित प्रवेश

हरिश्चन्द्र

सान्ध्य नीलिमा फैल रही है, प्रान्त में
सरिता के। निर्मल विधु विम्ब विकास है,
जो नभ में धीरे-धीरे है चढ़ रहा।
प्रकृति सजाती आगत-पतिका रूप को।
मलयानिल-ताड़ित लहरों में प्रेम से
जल में ये शैवाल जाल हैं झूमते।
हरे शालि के खेत पुलिन में रम्य हैं
सुन्दर बने तरंगबायित ये सिन्धु से,
लहराते जब वे मारुत-वश झूम के।
जल में उठती लहर बुलाती नाव को,
जो आती है उस पर कैसी नाचती।
अहा खिल रही विमल चांदनी भी भली।
तारागण भी उस मस्तानी चाल देख
देख रहे हैं, चलती जिससे नाव है।
वंशी-रव से होता पूर्ण दिगन्त है
जो परिम-सा फैल रहा आकाश में।
प्रकृति चित्र-पट-सा दिखलाती है अहा,
कल-कल शब्द नदी से भिन्न न और का,
शान्ति ! प्रेममय शान्ति भरी है विश्व में!
सुन्दर है अनुकूल-पवन, आनन्द में
झूम-झूमकर धीरे- धीरे चल रहा
पिये ! प्रेम-मदिरा विह्नल-सा हो रहा
कर्णधार हो स्वयं चलाता नाव को।
नौके ! धीरे, और जरा धीरे चलो,
आह, तुम्हें क्या जल्दी है उस ओर की।
कहीं नहीं उत्पात प्रभञ्जन का यहां।
मलयानिल अपने हाथों पर है धरे
तुम्हें लिये जाता है अच्छी चाल से
प्रकृति सहचरी-सी कैसी है साथ में,
प्रेम-सुधामय चन्द्र तुम्हारा दीप है।
नौके ! है अनुकूल पवन यह चल रहा,
और ठहरती, हाँ इठलाती ही चली।

ज्योतिष्मान

महाराज ! इस तट-कानन को देखिये,
कैसा है हो रहा सघन तरु-जाल से।
इसी तरह यह जनपद पहले था, प्रभो !
कानन- शैल भरे थे चारों ओर ही
हिंस्र जन्तु से पूर्ण, मनुज-पशु थे यहां।
आर्य-पूर्व-पुरुषों की ही यह कीर्ति है,
जो अब ये उद्यान सजे फल फूल से,
बने मनोहर क्रीड़ा-कूट विचित्र ये।
इक्ष्वाकु-कुल भुजबल से निर्बीज ही
हुए दस्युदल, अब न कभी वे रोष से
आँख उठाते हम आर्यों को देख के।
आर्य-पताका है फहराती अरुण हो।

हरिश्चन्द्र

आर्यों के अनुकूल देवगण हैं सदा
विश्व हमारा शासन अभिनय रंग है
हम पर है दायित्व सभी सुख-शान्ति का
सब विभूतियाँ और उपकरण गर्व के
आर्य जाति के चरणों में उपहार हैं।

नेपथ्य में घोर गर्जन

यह कैसा उत्पात ! चलो जल्दी करो
मांझी ! तट पर नाव ले चलो शीघ्र ही।

मांझी

प्रभो ! स्तब्ध है नाव; न हिलती है । अरे
देखो तो इसको क्या है, हैं हो गया।

नेपथ्य से गर्जन के साथ।

मिथ्याभाषी यह राजा पाखण्ड है
इसने सुत बलि देना निश्चित था किया
जब वह पहिनेगा हिरण्यमय वर्म को।
राजकुमार हुआ है अब बलि-योग्य जब
तो फिर क्यों उसकी बलि यह करता नहीं?
नहीं? बार-बार इसने हमको वंचित किया
उसका है यह दण्ड, आह! हतभाग्य यह
जा सकता है नही कहीं भी नाव से।

हरिश्चन्द्र

आह ! देव यदि आप जानते समझते
कितनी ममता होती है सन्तान की
देव ! जन्मदाता हूं फिर भी अब नहीं
देर करूंगा, बलि देने में पुत्र की।
जो कर चुका प्रतिज्ञा उसको भूल के
क्रोधित होने का अवसर दूंगा नहीं।
हे समुद्र के देव ! देव आकाश के,
शान्त हूजिये, क्षमा कीजिये, दीन को।

नेपथ्य से गर्जन के साथ।

अच्छा जल्दी जाकर तू उद्योग में
तत्पर हो, कर यज्ञ पुत्र-बलिदान से।

हरिश्चन्द्र

जो आज्ञा, मैं शीघ्र अभी जाके वहाँ ।
प्रथम करूंगा कार्य आपका भक्ति से।

(नौका चलने लगती है)

द्वितीय दृश्य: करुणालय (गीतिनाट्य)

कानन में रोहित

(स्वगत)

पिता परमगुरु होता है; आदेश भी
उसका पालन करना हितकर धर्म है।
किन्तु निरर्थक मरने की आज्ञा कड़ी
कैसे पालन करने के हैं योग्य यों।
वरुण, देव हो या कि दैत्य !
वह कौन है? क्या उसको अधिकार हमारे प्राण पर
क्या वह इतनी सार्वजनिक सम्पत्ति है
नहीं, नहीं, ‘वह मेरा है’ यह स्वत्त्व है
हम जब थे अज्ञान न थे कुछ जानते
सुख किसका है नाम, तरुणता वस्तु क्या,
प्रकृति प्रलोभन में न फँसे थे, पास की
वस्तु न यों आकर्षित करती थी हमें,
तभी क्यों न कर लिया क्रूर बलि-कर्म को
अहा स्वच्छ नभ नील, अरुण रवि-रश्मि की
सुन्दर माला पहन, मनोहर रूप में,
नव प्रभात का दृश्य सुखद है सामने
उसे बदलना नील तमिस्रा रात्रि से
जिसमें तारा का भी कुछ न प्रकाश है
प्रकृति मनोगत भाव सदृश्य जो गुप्त,
यह कैसा दुखदायक है ? हाँ बस ठीक है।
देखेंगे परिवर्तनशील प्रकृति को
घूमेंगे बस देश-देश स्वाधीन हो।
मृगया से आहार, जीव सहचर सभी
नव किसलय दल सेज सजी सब स्थान में
कहो रही क्या कमी सहायक चाप है।

नेपथ्य से

चलो सदा चलना ही तुमको श्रेय है।
खड़े रहो मत, कर्म-मार्ग विस्तीर्ण है।
चलनेवाला पीछे को ही छोड़ता
सारी बाधा और आपदा-वृन्द को।
चले चलो, हाँ मत घबराना तनिक भी
धूल नहीं यह पैरों में है लग रही
समझो, यही विभूति लिपटती है तुम्हें।
बढ़ो, बढ़ो, हाँ रुको नहीं इस भूमि में,
इंच्छित फल की चाह दिलाती बल तुम्हें,
सारे श्रम उसको फूलों के हार से
लगते हैं, जो पाता ईप्सित वस्तु को।
चलो पवन की तरह, रुकावट है कहाँ,
बैठोगे, तो कहीं एक पग भी नहीं
स्थान मिलेगा तुम्हें, कुटिल संसार में।
सघन लतादल मिले जहाँ हैं प्रेम से
शीतल जल का स्रोत जहाँ है बह रहा
हिम के आसन् बिछे, पवन् परिमल मिला
बहता है दिन-रात, वहाँ जाना तुम्हें !
सुनो ग्रीष्म के पथिक, न ठहरो फिर यहाँ;
चलो, बढ़ो, वह रम्य भवन अति दूर है।

रोहित

(आकाश को देखकर)

अरे ! कौन ! यह ? छाया-सी है इन्द्र की
कायरता का अरि, प्रतिमा पुरुषार्थ की
बड़ी कृपा आकाश-विहारी देव की
हुई, दीन करता प्रणाम है भक्ति से।
देव ! आप यदि हैं प्रसन्न, तो भाग्य है;
प्रभो ! सदा आदेश आपका ध्यान से
पालन करता रहे दास, वर दीजिए
"रुके कर्म-पथ में न कभी यह भीत हो"

नेपथ्य से

हम प्रसन्न हैं, वत्स! करो निक्ष कार्य को।

(रोहित जाता है)

तृतीय दृश्य: करुणालय (गीतिनाट्य)

अजीगर्त के कुटीर में अजीगर्त और तारिणी

अजीगर्त

प्रिये ! एक भी पशु न रहे अब पास में,
तीन पुत्र; भोजन का कौन प्रबन्ध हो ?
यह अरण्य भी फल से खाली हो गया,
केवल सूखी डाल, पात फैले, अहो
नव वसन्त में जब यह कुसुमित था हुआ,
तब तो अलि, शुक और सारिका नीड़ में
कोमल कलरव सदा किया करते। अहो
जहाँ फैल कर लता चरण को चूमती
कोमल किसलय अधर मधुर से प्रेम से,
अब सूखे काँटे गड़ते हैं, हा! वहीं!
कानन की हरियाली ही सब भूख को
तुरत मिटाती थी देकर फल-फूल ही
वहाँ न छाया भी मिलती है धूप में।
कहो प्रिये, अब फिर क्या करना चाहिए?

तारिणी

हाय ! क्या कहें प्राणनाथ इस भूमि में
अब तो रहना दुष्कर-सा है हो गया।

नेपथ्य से रोहित

"घबराओ मत अजीगर्त। मैं आ गया।"

प्रवेश करके

रोहित

कहिए क्या है दुःख आपको जो अभी
इतने व्याकुल होकर यों किस बात को
सोच रहे थे। क्या पशुओं का दुःख है ?

अजीगर्त।

तुम तो जैसे सत्य बात हो जानते
और दिखाई देते राजकुमार-से,
स्वर्णखचित यह शिरस्त्रण है कह रहा
वर्म बना बहुमूल्य बताता विभव का
किन्तु सकोगे समझ ! भूख के दुःख को
और विकल पीड़ित अकाल से प्राण को
जीवन की आकुल आशा जब त्रस्त हो
एक-एक दाने का आश्रय खोजती
वह वीभत्स पिशाच खा लिया चाहता
जब अपना ही मांस। अधीर विडम्बना
हँसती हो इन दुर्बल शब्दों पर,
अजी तब भी तुम कुछ दोगे मुझे सहायता?

रोहित

एक बात यदि तुम भी मेरी मान लो।

अजीगर्त।

मानूँगा कैसी ही निष्ठुर बात हो।

रोहित

सौ दूँगा मैं गाय तुम्हें, जो दो मुझे
एक पुत्र अपना, उस पर सब सत्त्व हो
मेरा, उसको चाहे जो कुछ मैं करूँ।

तारिणी

दूंगी नहीं कनिष्ठ-पुत्र को मैं कभी।

अजीगर्त।

और ज्येष्ठ को मैं भी दे सकता नहीं।

रोहित

तो मध्यम सुत दे देना स्वीकार है-
बलि देने के लिए एक नरमेध में?

(ऋषि-पत्नी मुंह ढाँप कर चली जाती है और अजीगर्त कुछ सोचने लगता है)

अजीगर्त।

हाँ हाँ ! मुझको सब बातें स्वीकार हैं।
चलो मुझे पहले गायें दे दो अभी।

रोहित

अच्छा, उसको यहाँ बुलाओ देख लें
हम भी, मध्यम पुत्र तुम्हारा है कहाँ ?

अजीगर्त।

(नेपथ्य की ओर मुख करके)

शुनःशेफ ! ओ शुनःशेफ ! ! आ जा यहाँ।

(मार खाने के भय से खेल छोड़कर शुनःशेफ भागता हुआ आता है)

शुनःशेफ

क्या है बाबा, क्यों हो मुझे बुला रहे?
मैंने कोई भी न किया है दोष जो
आप बुलाते मुझे मारने के लिये!

अजीगर्त।

चुप रह ओ मूर्ख ! बोलना मत, यहाँ
खड़ा रह, (रोहित से) -
यही मध्यम मेरा पुत्र है।

रोहित

अच्छा है। बस चलो अभी तुम साथ में,
राज्य-केन्द्र में चलते हैं हम भी अभी,
उसी स्थान में मूल्य तुम्हे मिल जायगा
और इसे हम ले जाते हैं संग ही।

शुनः शेफ से

चलो चलो जी साथ हमारे शीघ्र ही
हमारे हाथ तुम्हारा विक्रय हो चुका।

(शुनःशेफ का अजीगर्तत की ओर सकरुण देखते हुए रोहित के साथ प्रस्थान)

चतुर्थ दृश्य : करुणालय (गीतिनाट्य)

महाराज हरिश्चन्द्र सिंहासनासीन।

शुनःशेफ को साथ लिए हुये रोहित का प्रवेश

रोहित

हे नरेन्द्र हे पिता पुत्र यह आपका
रोहित सेवा में आ गया। विनम्र हो
करता अभिवादन है, अब कर दीजिये
क्षमा इसे। हूँ पशु लेकर आया यहाँ।

हरिश्चन्द्र

रे पुत्रधम ! तूने आज्ञा भंग की
मेरी, अब तू योग्य नहीं इस राज्य के।

रोहित

देव ! दिया जाता बलि में जो मैं तभी
तो क्या पाता राज्य ! न ऐसा कीजिये।
सुनिये, मैंने रक्षा की है धर्म की
नहीं आप होते अनुगामी निराय के।
पुत्र न रहता, तो क्या होता कौन फिर
देता पिण्ड तिलोदक। यह भी समझिये
कुल के पुण्य पुरोहित देव वसिष्ठ से

(वसिष्ठ का प्रवेश, राजा अभ्युत्थान देता है)

वसिष्ठ

राजन् ! विजयी रहो ! सुनी सब बात है
यह तो अच्छा कार्य कुँवर ने है किया।
यदि पशु का है पिता; दे दिया सत्य ही
उसने बलि के लिये इसे, तो ठीक है।
राजपुत्र के बदले इसको दीजिये
बलि; तब देव प्रसन्न तुरन्त हो जायंगे
और आप भी सत्य-सत्य ही जायंगे।

शुनःशेफ से

क्यों जी ! तुमको दिया पिता ने क्या इन्हें
मूल्य लिया है?

शुनःशेफ

सत्य प्रभो ! सब सत्य है।

वसिष्ठ

फिर क्या तुझको यह सब स्वीकार है ?

शुनःशेफ

जो कुछ होगा भाग्य और जिन कर्म में।

वसिष्ठ

अच्छा फिर सब यज्ञ-कार्य भी ठीक हो
और शीघ्र करना ही इसको उचित है।

हरिश्चन्द्र

जो आज्ञा हो, मैं करता हूँ सब अभी।

(सबका प्रस्थान)

पञ्चम दृश्य : करुणालय (गीतिनाट्य)

(यज्ञ-मण्डप में हरिश्चन्द्र, रोहित, वसिष्ठ, होता इत्यादि बैठे है। शुनःशेफ यूप में बँधा हुआ है । शक्ति उसे बध करने के लिए बढ़ता है, पर सहसा रुक जाता है।)

वसिष्ठ

शक्ति, तुम्हारी शक्ति कहां है जो नहीं
करता है बलि-कर्म, देर है हो रही।

शक्ति

पिता, आप इस पशु के निष्ठुर तात से
भी कठोर है। जो आज्ञा यों दे रहे !

(शस्त्र फेंक कर)

कर्म नहीं, यह मुझसे होगा घोर है।

(प्रस्थान। अजीगर्तत का प्रवेश)

अजीगर्त।

और एक सौ गायें मुझको दीजिये,
मैं कर दूँगा काम आपका शीघ्र ही।

वसिष्ठ

अच्छा अच्छा, तुम्हें मिलेंगी और भी
सौ गायें। लो पहले इसको तो करो।

(अजीगर्त शस्त्र उठाकर चलता है)

शुनःशेफ

(आकाश की ओर देखकर)

हे हे करुणा-सिन्धु, नियन्ता विश्व के,
हे प्रतिपालक तृण, वीरुध के, सर्प के,
हाय प्रभो ! क्या हम इस तेरी सृष्टि के
नहीं, दिखाता जो मुझ पर करुणा नहीं!
हे ज्योतिष्पथ-स्वामी ! क्यों इस विश्व की
रजनी में, तारा प्रकाश देते नही
इस अनाथ को, जो असहाय पुकारता
पड़ा दुःख के गर्त बीच अति दीन हो
हाय ! तुम्हारी करुणा को भी क्या हुआ,
जो न दिखाती स्नेह पिता का पुत्र से।
जगत्पिता! हे जगद्बन्धु, हे हे प्रभो,
तुम तो हो, फिर क्यों दुःख होता है हमें?
त्राहि-त्राहि करुणालय ! करुणा-सहम में
रखो, बचा लो ! विनती है पदपद्य में।

(आकाश में गर्जन, सब त्रस्त होते है। सब शक्तिहीन हो जाते है।
विश्वामित्र का मधुच्छन्दा प्रभृति अपने सौ
पुत्रों के साथ प्रवेश)

विश्वामित्र

(वसिष्ठ से)

कहो कहो इक्ष्वाकु-वंश के पूज्य हे ?
आर्य महार्षि ! कैसा होता यह काम है ?
हाय ! मचा रक्खा क्या यह अन्धेर है !
क्या इसमें है धर्म ? यही क्या ठीक है ?
किसी पुत्र को अपने बलि दोगे कभी ?
नहीं ! नहीं ! फिर क्यों ऐसा उत्पात है ?

(आकाश की ओर देखकर)

अपनी आवश्यकता का अनुचर बन गया
रे मनुष्य ! तू कितने नीचे गिर गया
आज प्रलोभन-भय तुझसे करवा रहे
कसे आसुर कम्र्म। अरे तू क्षूद्र है-
क्या इतना? तुझ पर सब शासन कर सके
और धर्म की छाप लगाकर मूढ़ तू !
फँसा आसुरी माया में, हिंसा जगी
अथवा अपने पुरोहितों के मान की
ऋषि वसिष्ठ को, गुरुकुल को, इस राज्य के।

वसिष्ठ से

तुम हो त्राता धर्म मनुज की शांति के
यह क्या है व्यापार चलाया ? चाहिए
यदि मनुष्य के प्राण तुम्हारे देव को
ले लो (मधुच्छन्दा की ओर देखकर-)

वसिष्ठ

लज्जित हूँ, मुझमें यह साहस था नहीं
विश्वामित्र महर्षि तुम्हें हूँ मानता

झपटती हुई, एक राजकीय दासी का प्रवेश;
जो राजा और अजीगर्त की ओर देखकर कहती है

दासी

(राजा से)

न्यास ! न्याय !! हे देव, न्याय कर दीजिये

(अजीगर्त से)

रे रे दुष्ट बना हे ऋषि के रूप में
निरा बधिक रे नीच ! अरे चाण्डाल तू
भूल गया दुर्दैव सदृश उस बात को

(विश्वामित्र से)

और न तुम भी मुझको हो पहचानते।
क्या वह नवल तमाल कुञ्ज में प्रेम से
परिवत्र्तन वनमाला का विस्मृत हुआ
क्या वह सब थी केवल कुटिल प्रवञ्चना?
अहो न अब पहचान रहे निज पुत्र को
जो है परिचित शुनःशेफ के नाम से।

विश्वामित्र

अरे ! सुव्रता ! तू है, सचमुच स्वप्न-सी
मुझको अब सब बातें आती ध्यान में
मैं जब तप के लिए छोड़ असहाय ही
तुझे गयाकृफिर पड़ा अकाल। न था कहीं
क्षण-भर को अवलम्ब तुम्हें यह भूल कर
मैं चिन्तित था धर्म और तप तत्व में
रे झूठे अभिमान तुझे धिक्कार है।
तुझे बहुत खोजा था मैंने ग्राम में।
जब जाता था हिमगिरि के वनकुञ्ज में
सत्य, तुझे वंचित न कभी मैनेंकिया।
ईश-कृपा से आज अचानक पा गया।
प्रिये ! तुम्हारा मुख, निज सुत को देखकर
पूर्ण हुआ आनन्द।

(शुनःशेफ की ओर)

ज्येष्ठ यह पुत्र है
मेरा, अब तुम सुत को लेकर साथ में
सुखी रहो।

(अजीगर्त से)

रे दुष्ट वधिक ! अब क्यों नहीं
बतलाता है उसको अपना पुत्र तू,

हरिश्चन्द्र से

राजन् ! यह सुव्रता हमारी नारि है
इसे मुक्त दासीपन से कर दीजिये,
और नराधम को भी शासित कीजिये
राजन् ! सब तप और सत्य तुम कर चुके
यदि अपनी इस प्रजा-वृन्द का ध्यान हो
दुःख दूर करने का कुछ उद्यम करो।

हरिश्चन्द्र

हे कौशिक ऋषिवर्य ! इसे कर दीजिये
क्षमा, और सुव्रता स्वतंत्रता हो ऋषे।
चरणों में यह राज्य आज उत्सर्ग है !

विश्वामित्र

अस्तु। सुव्रते ! कहां कहां फिर तुम रहीं
मेरे जाने बाद ? -

सुव्रता

प्रभो! उस ग्राम से
लांछित करके देश-निकाला ही मिला,
क्योंकि गर्भिणी थी मैं इससे घूमती
आयी मैं इस ऋषि के आश्रम पास में।
प्रसव-समर्पण किया इसी की गोद में
और स्वयं अन्तःपुर में दासी बनी

वशिष्ठ

धन्य सुव्रते ! साधु ! सुशीले ! धन्य तू
आया पति, सुत, फिर अपने सौभाग्य से

विश्वामित्र

करुणा वरुणालय जगदीश दयानिधे।
सब यों ही आनन्द सहित सुख से रहें।

(सबकी ओर देख कर)

जगन्नियन्ता का यह सच्चा राज्य है
सबका ही वह पिता, न देता दुःख है
कभी किसी को। उसने देखा सत्य को
हरिश्चन्द्र के; जिसने प्रण पूरा किया
उद्यत होकर करने में बलिकम्र्म के।
यह जो रोहित को बलि देते तो नहीं
वह बलि लेता; किन्तु मना करता इन्हें।
क्योंकि अधम है क्रूर आसुरी यह क्रिया
यह न आर्य पथ है, दुस्तर अपराध है
यह प्रकाशमय देव, न देता दुःख है।
अस्तु, सभी तुम शक्तिहीन हो हो गये
कहता हूँ उसको सुन लो सब ध्यान से,
समस्वर से सब करो स्तवन, उस देव का
जो परिपालक है इस पूरे विश्व का।
तुममें जब हो शक्ति और यह पुत्र भी
शुनःशेफ हो मुक्त आप; तब जान लो
यज्ञ कार्य पूरा होकर फल मिल गया।

(समवेत स्वर से)

जय जय विश्व के आधार।
अगम महिमा सिन्धु-सी है कौन पावै पार।
जो प्रसव करता जगत निज तेज का आकार।
उसी की शुभ-ज्योति से हो सत्य-पथ निर्धार ।
छुटे सब यह विश्व बन्धन हो प्रसन्न उदार।
विश्व प्राणी प्राण में हो व्याप्त विगत विकार।
कृजय जय विश्व के आधार।।

(आलोक के साथ वीणा-ध्वनि। शुनःशेफ का बन्धन आप-से-आप खुल जाता है,
और सब शक्तिमान् होकर खड़े हो जाते हैं। पुष्प-वृष्टि होती है।)

(आलोक के साथ पटाक्षेप)

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