कर्किटकम् (आषाढ़) (मलयालम कहानी) : एम. टी. वासुदेवन नायर

Karkidakam (Malayalam Story in Hindi) : M. T. Vasudevan Nair

कर्किटकम् महीने की बारिश माँ की तरह होती है। खुशमिजाज देखकर साथ हो लो, तो अचानक बरस पड़ती है। बिजली की कड़क के साथ मूसलधार बरसती तो स्कूल आने-जाने में परेशानी होती है, भूख की जलन भी तंग करती है।

सुबह चावल की कंजी पीकर स्कूल जाओ। शाम को घर वापस आने के बाद ही पेट के अंदर कुछ जाएगा। हर महीने पिताजी का मनीऑर्डर आता है। दो-तीन दिनों तक स्कूल जाते वक्त दो आने मिल जाते हैं। बाद के दिनों में दोपहर के खाने का कोई इंतजाम नहीं। एक बजे की घंटी बजती है तो कुछ लड़के 'मारार' के होटल के पिछवाड़े जाकर पानी पी आते हैं। जो बच्चे दोपहर को भूखे रह जाते हैं, उनके लिए मारार इडली बनाने के बड़े बरतन में पानी रखवा देता है, बड़ा लोटा भी।

बारिश के दिनों में सिर्फ भूख लगती है, प्यास नहीं। सुबह चार मील चलकर स्कूल पहुँचते ही भूख सताने लगती। चौथे पीरियड तक पहुँचते पेट में चूहे दौड़ने लगते। ठीक उसी वक्त पास के होटल से सब्जी में तड़का देने की महक उठती है।

कुछ बच्चे घर से खाना ले आते हैं और कुछ होटल में खा लेते हैं। मारार के होटल में छात्रों के लिए खाने के पैसे में रियायत दी जाती है। जो खाना दूसरे लोग छह आने में खाते हैं, छात्र पाँच आने में खा सकते हैं। होटल से पानी पीकर लौटने वाले हम चार हैं—कल्लड़त्तूर से आनेवाला रंकन, कुट्टिप्पालम शिवदासन, विलक्कल गोविंदन और मैं। ओ. मुहम्मद और पी. मुहम्मद चंतप्पटी की चाय की दुकान में चाय पीनेवाले हैं।

दोपहर के बाद भूख मिट जाती है। फिर कुछ खाने को जी नहीं चाहता। चार बजे तक भूख लगे बिना बेजान सा बैठा जा सकता है। शाम को घर वापस चलते वक्त भूख फिर से सिर उठाती है। खाने के साथ सब्जी क्या बनी होगी, सोचते हुए चलो तो भूख ज्यादा परेशान नहीं करती।

मैं गोविंदन के साथ स्कूल से लौटता। बारिश के दिनों में पहाड़ी के नीचे पहुँचते-पहुँचते पानी में तर– बतर हो जाता। छतरी को किसी भी दिशा में पकड़ो, पानी की बूंदें अंदर आ ही जाती हैं। कभी-कभार रंकन के हाथ में बीड़ी होती। ठंड में मुँह में धुआँ भरने के सुख के बारे में रंकन बयान जारी करता, तो मुझे भी बीड़ी पीने की इच्छा होती, मगर गलती करने का साहस नहीं होता। मैं तेक्केप्पाटु, अम्मालु अम्मा का बेटा! गाँव में सब कहते हैं कि पैसों की तंगी है तो क्या हुआ, उस औरत के बच्चे बड़े नेक हैं। यह सूचना घर में माँ ही अकसर देती रहती है।

रंकन अपने रास्ते पर मुड़ जाता है, तो आगे दो मील तक गोविंदन का साथ मिलता है। वह खूब मोटातगड़ा लड़का है। धोती-कुरता पहनता है। निकर पहनकर बहुत कम बच्चे स्कूल में आते हैं। मैं उनमें एक हूँ।

'छातरी पत्थर' के पास गोविंदन भी अपना अलग रास्ता लेता है, तो आगे मुझे अकेला चलना पड़ता है। रसोई में छींके पर रखी कंजी की याद आते ही मेरी चाल तेज हो जाती है। सब्जी क्या बनी होगी–कटहल की या केले की? पिछवाड़े के पेड़ के कटहल से बनी है तो मक्खन की तरह बनेगी, बिल्कुल स्वादिष्ट!

सुबह से बारिश हो रही थी। निकर का निचला हिस्सा पूरी तरह भीग गया था। पानी निचोड़ने के बाद क्लास में बैठा था। दोपहर तक सूख भी गया था, मगर पेट में दर्द होने लगा था।

पानी में तर-बतर घर पहुंचा। छतरी बरामदे के नीचे रखकर रबड़ के काले फीते में बँधा किताबों का गट्ठा 'चारुवटी' में छोड़कर अंदर गया तो रोज की तरह माँ को पुकारा, "माँ..."!

"माँ पड़ोस में गई है।" मीनाक्षी दीदी ने जवाब दिया। रोज माँ ही खाना परोस देती थी। मीनाक्षी दीदी के हाथों परसा खाना मुझे पसंद नहीं। बिरादरी की एक औरत है। घर के कामकाज में माँ का हाथ बँटाने के लिए रखा है। मौसी को वह पसंद नहीं, लेकिन माँ हमेशा उसकी बदहाली पर तरस खाती है।

"रहने दे न उसे, अपने घर में क्या लेकर खाएगी?"

'इसने घर में तो अंबार लगा रखा है!' मौसी व्यंग्य कसती है। चार जनों का खाना अकेली खाती है यह जानवर! मीनाक्षी दीदी की गैर-हाजिरी में मौसी ताने देती। वह दिखती भी ऐसी है। खूब लंबी-मोटी एक औरत। उभरे हुए दाँत। ब्लाऊज नहीं पहनती। बॉडिस तक नहीं। बाहर जाते समय कंधे पर तौलिया डाल लेती है। पास आती है तो 'शक्ति पूजा' वाले बंद छोटे कमरे की बू आती है। थाली सामने रखते हुए वह कुछ—न —कुछ कह देती और मुझे शक होता कि खाने में उसकी लार टपकी है। इसलिए उसका परोसा हुआ खाना मैं अनमना सा खा लेता।

'तेक्किनी' कमरे में लटकाई बाँस की अलगनी पर गीली कमीज बिछाने के बाद मैं मुड़ा तो मौसी का जाप सुनाई पड़ा। वह नहाकर आ रही थी। बारिश में भी तीन बार नहाती है। कहती है, हरदम शरीर जलता रहता है। मौसाजी के भतीजे ने टोटका जो किया है।

पूरब की खिड़की के पास चटकाई भस्म की टोकरी से भस्म लेकर पूजाघर के सामने हाथ जोड़ने के बाद गीले कपड़े बदलने के लिए मौसी अंदर जाने लगी तो मैंने उनसे पूछा-

"माँ कहाँ गई?"

"पता नहीं।"

चौके में देखा तो मीनाक्षी दीदी केले के कंद का छिलका निकाल रही थी। दोपहर को भी यही सब्जी बनी थी क्या? केले के कंद की सब्जी बनाते समय उसमें नारियल तेल डालने के पहले भूने हुए चावल का आटा मिला देना होता है। तभी स्वादिष्ट बनती है।

मैं पीढ़ा निकालकर बैठा और बेसब्री से मीनाक्षी दीदी को पुकारा, "कंजी दो!"

बिना सिर उठाए मीनाक्षी दीदी ने जवाब दिया, "बिल्ली ने कंजी का बरतन गिरा दिया, बेटा!"

उसे मार डालने का गुस्सा मन में भर गया। कैसी बेरुखी से बोलती है, 'बिल्ली ने गिरा दिया।'

चेहरा उठाए बिना मीनाक्षी दीदी आगे बोली, "नहाके आ जाओ! रात का खाना अभी तैयार होगा। माँड़ पसाने के पहले तुम्हारे लिए कंजी निकाल दूँगी!"

पसाने के पहले हाँड़ी से थाले में कंजी निकाल लेना माँ की राय में अमंगल कार्य है, लेकिन कटाई के दिनों में जब चावल की तंगी नहीं होती, मौसी अपने बच्चे चंद्रन और कमलम् के लिए निकाल देती थी। मुझ जैसा नेक बच्चा ऐसा अमंगल कार्य कैसे होने देता? 'माँ को अपने बच्चों पर नाज होने का मौका मिलना चाहिए न कि मैंने भी दो बच्चों को पाला है, उनको देखो!'

"माँ कहाँ गई? आवाज ऊँची करके मैंने एक बार फिर पूछा। बाहर घूमने का क्या यही वक्त मिला उन्हें?" मीनाक्षी दीदी पर गुस्सा होना बेकार था। माँ आती तो सारा गुस्सा उन पर उतार देता।

"माँ आती ही होगी, अभी मेरा कहना मान!"

मैं रसोईघर की निचली दीवार पर हाथ रखकर खड़ा रहा। नानी माँ चूल्हे के अंदर से निकाले हुए मिट्टी के थक्के, भस्त और कचूर को पीसकर जुकाम की दवा बना रही थी। जुकाम होने पर यह 'चूर्ण' मूर्धा में लगाने से आराम मिलता है।

तीनों चूल्हे बुझे पड़े थे। मुझे उस ओर देखते देखकर मीनाक्षी दीदी ने आश्वासन दिया-

तुम उसकी चिंता मत करो, वह सब मीनाक्षी दीदी के लिए पल भर का काम है।"

नानी माँ ने मुझे देखा।

"अरी, गुड़ का शरबत बनाकर उसे पीने के लिए दे, सुबह से भूखा है।"

मीनाक्षी दीदी ने अनसुनी कर दी।

मैं बरामदे में लौटा। बरामदे के पश्चिमी छोर पर खंभे के सहारे मौसी बालों की गाँठें निकालती हुई बैठी थी।

"चंद्रन क्यों दिखाई नहीं देता?"

"चंद्रन और कमलम् पेरश्शन्नूर गए।"

पेरश्शन्नूर उनके पिताजी का घर है। मौसाजी को मरे तीन साल हो चुके थे। उनके परिवार में बँटवारे के समय अपने हिस्से की जमीन बहनों को देकर मौसाजी यहाँ आकर बस गए थे। यहीं से उनकी अरथी उठी।

"मैंने दोनों को भेज दिया, चार दिन वहाँ रह आने के लिए।"

'वटक्किनी' कमरे से नानी माँ के खाँसने की आवाज आई।

उन्होंने पुकारा—'मीनाक्षी...'

मीनाक्षी दीदी ने नानी की पुकार नहीं सुनी।

संसार भर के प्रति गुस्सा मन में भरकर मैं दहलीज पर बैठा रहा। तभी दक्षिणी आँगन से आती माँ नजर आई। कंधे पर साफ धुला हुआ तौलिया डाल रखा है, तो पड़ोस से नहीं, कहीं दूर से लौटी है। माँ की जबान खुलते ही उन पर बरस पड़ने के विचार से नारियल की तीली से फर्श पर रेखाएँ खींचकर मैं बैठा रहा।

"गीला कपड़ा बदलकर कोई तौलिया नहीं पहन सकता था तू?'' मैं चुप रहा।

मैंने मीनाक्षी दीदी को आवाज दी। आँगन में पैर लटकाकर बरामदे में बैठ गई।

"कांदी का चूरा बाकी बचा है क्या?"

"जो बचा था, वही तो दोपहर को उबाल लिया था।"

"उस माप्ला की दुकान से सामान खरीदना बंद करना ही अच्छा है।" माँ ने स्वगत कथन किया।

दो दिन पहले सामान खरीदने गया तो बकाया अदा किए बिना सामान उधार देने से ऊब्दु ने इनकार किया था।

"अच्युतन आ गया?"

अच्युतन मेरे मामाजी हैं। माँ के छोटे भाई।

"नहीं देखा।"

"हूँ।...जब तक चाय की दुकान में उधार मिलता है, मर्द लोग घर की रसोई की चिंता नहीं करेंगे। मीनाक्षी...जरा पड़ोसन कल्याणी को बुला ला।"

"कुंजोप्पोल ने क्या कहा?"

"परसों तक बनाएगी।"

"बड़ी कंजूस है, बदमाश।"

"नहीं, मुझे एक बोरी अनाज वह कैसे इनकार करेगी?" मीनाक्षी दीदी ने दरवाजे पर आकर याद दिलाई।

"आज के लिए क्या करेंगे? गोपाल दा के पास किसी को भेज दूं?"

प्...फ...माँ ने गुस्सा थूक दिया। "गोपाल दा...उससे तो भूखों रहना अच्छा है। उसकी नई अमीरी के आगे मैं सिर झुकाऊँ? उस घर की औरतों का किस्सा मुझे मालूम है। कल तक पालक्कल मेनोन के घर में कपड़े धोने जाया करती थीं।"

थोड़ी राहत पाकर माँ ने मीनाक्षी दीदी को फिर याद दिलाई, "तू जाकर कल्याणी को बुला ला।" मीनाक्षी दीदी चली गई। मैंने सोचा, अब तो वह पूछेगी कि क्या मैं कंजी पी चुका? लेकिन माँ ने मेरा ध्यान नहीं किया। उसकी आँखें बरामदे के छोर पर बालों की गाँठे निकालती मौसी पर थीं।

"भरी शाम को बरामदे में बैठकर ही यह काम करना चाहिए। इस घर का सत्यानाश क्यों नहीं होगा। आँगन में बाल बिखराने का वक्त है यह?"

हमेशा की तरह मौसी ने अनसुनी कर दी।

जब मेरी बारी आएगी, मैंने इंतजार किया।

"तू अभी तक नहाया नहीं?" माँ की आवाज धीमी हो गई। “आज इस घर में दोपहर का खाना नहीं बना बेटा। ऐसा नहीं कि तुम्हारा हिस्सा अलग रखना भूल गई। जा, नहा के आ, तब तक रात का चावल पक जाएगा।"

मैं वैसे ही बैठा रहा तो माँ ने फिर कहा।

"जा, जल्दी कर!"

भूख के साथ मेरा गुस्सा भी गायब हो चुका था। अंदर जाकर तौलिया ढूँढ़ते समय माँ को कहते सुना-

"बच्चों के बापू परदेश पड़े हड्डी गला रहे हैं, मगर क्या फायदा?"

तालाब पड़ोसी के अहाते में है। बारिश के कारण खूब पानी भरा है। पानी बाहर खेत की तरफ बह भी रहा है। कगार के कट जाने से तालाब का विस्तार बढ़ गया है। किनारे पर खड़ी रंगन की झाड़ी अब पानी में है।

नहाकर लौटा। साबुन रखने के बहाने रसोई में जाकर देखा। चूल्हा जल रहा था। पानी उबल रहा था। मीनाक्षी दीदी चावल धो रही थी, कल्याणिक्कुट्टी पास खड़ी थी। "बोटी का चावल बदबूदार होता है।" वह कह रही थी।

मीनाक्षी दीदी को ताँबे की कटोरी में धुले हुए चावल डालते देखकर मैं मन-ही-मन खुश हुआ।

'रात के लिए इंतजाम हो गया। कल का क्या होगा?' मीनाक्षी दीदी अपने आप अफसोस कर रही थी।

बिना पुती दीवार की दरार में कुत्ते की जीभ जैसा घिसा साबुन रखकर मैं आँगन में उतरा। बारिश ने आँगन में डबरे छोड़ दिए थे। सोर के दालान में लेटा बछड़ा जुगाली कर रहा था। उसकी आँखों के नीचे लगी चोट पर मक्खियाँ भिनभिनाती थीं। पिछली बारिश में उसकी माँ गड्ढे में गिरकर मर गई। सुबह दुहने के बाद चरने के लिए बाहर छोड़ा था। शाम को वापस नहीं आई। पहले मीनाक्षी दीदी गई ढूँढ़ने, फिर अच्युत मामा भी खोज में निकले और खाली हाथ लौट आए। आखिर, अगली सुबह चक्कन को पहाड़ी के ऊपर भेजा। चक्कन गाँव की हर जगह से परिचित है। जगह-जगह घूमकर जड़ी-बूटियाँ उखाड़ने का काम जो करता है। शाम तक वह बुरी खबर ले आया। नानी माँ भी रो पड़ी थी। मौसाजी की मृत्यु पर भी इस घर के लोग यों दुःखी नहीं हुए थे।

गोशाला के पीछे केले की झुंड की ओर पत्थर फेंकते हुए थोड़ी देर इधर-उधर घूमने के बाद मैं फिर बरामदे में चढ़ा।

माँ अब भी वैसी की वैसी बैठी थी। खेत का मजदूर कणक्कराई आँगन की सीमा पर काई जमी दीवार पर हाथ रखकर खड़ा था।

"अब की फसल भी गई मालकिन, ऐसी बारिश के बाद भूसी ही हाथ लगेगी।"

"चार महीने के लिए धान तक नहीं मिलती खेनी से।"

"बुरे दिन में सब उल्टा होता है।"

कणक्कराई छतरी टोपी सिर पर रखकर आँगन की सीमा से होकर पश्चिमी फाटक तक बढ़ा तो मौसी ने उसे पुकारा, "कणक्कराई, पान है तेरे पास? बाजार से खरीद लाने के लिए कोई है नहीं।"

मैंने माँ की ओर देखा। मौसी नीच जात की कणक्कराई से पान माँगती है, तो माँ पर गुस्से का पारा चढ़ जाता है।

कणक्कराई ने गोद की पान की पोटली से पान का एक टुकड़ा निकालकर बरामदे में रखते हुए कहा, 'सूखा सा एक टुकड़ा है बस, मालकिन!"

मौसी पान लेकर अंदर जाने लगी तो मैंने सोचा-बिना खाए वह रह सकती है, लेकिन पान खाए बिना उससे रहा नहीं जाता। सुपारी नहीं मिली, तो नारियल की जड़ के साथ भी वह पान खा लेती है। माँ की नजरें बचाकर कटाई के दिनों में मैंने उसे धान के बदले पान-तंबाकू खरीदते देखा है।

कल्याणिक्कुट्टि माँ के पास आकर बैठ गई।

"कितना मिला?"

"तीन सेर!"

"रोज राशन खरीदकर खानेवालों के घर में ज्यादा कैसे मिल सकता है?"

"मालू दीदी, कोत्तुलंगाट में किसी को भेजिए न। सुना है, फसल काटकर चुकता करने की शर्त पर उन्होंने चार बोरी धान खरीदा है।"

"माँगने पर शायद मिल जाएँगे, लेकिन इलाके भर में ढिंढोरा पीटेंगे। भूखे ही सही, मेरे बच्चों को चार लोगों के सामने सिर उठाकर चलने दे।"

फिर माँ हमेशा की तरह हिसाब लगाने लगी। हर महीने पिताजी चालीस रुपए भेजते और बड़े भाई दस रुपए।

"हर महीने की पहली तारीख को पूरे पचास हाथ लगते हैं। बस इसी से इतने सारे पेट भरने हैं।"

अच्युत मामा, मौसी, उनके बच्चे, नानी माँ, मीनाक्षी सब शामिल हैं, माँ के 'इतने सारे पेट' में।

"इस बार उस पार के बच्चे नहीं आए क्या?"

उस पार के बच्चे अच्युत मामा के बच्चे हैं। वे नदी के उस पार रहते हैं। कर्किटकम् महीने में इस घर में मेहमान बनकर आते हैं। सात-आठ दिन ठहरने के बाद वापस जाते। लौटते समय नानी माँ उन्हें कहती, 'कल-परसों आ जाना!'

नानी माँ कभी-कभी अच्युतन के बच्चों का दुखड़ा रोती तो मौसी उन पर गुस्सा होती।

'बुढिया की तरफदारी देखो, हमेशा उस पार के बच्चों का रोना लेकर बैठती है। मेरे भी दो बच्चे हैं, दीदी के भी दस-बारह साल का एक लड़का है। उनकी कभी कोई खबर नहीं लेती। उस पार के बच्चे आ पहुँचते तो बुढ़िया को तनिक थकान भी नहीं लगती। उन्हें खिलाने—पिलाने में लगी रहती है। उनको नहलाने—सहलाने से फुरसत ही नहीं मिलती।'

मौसी का कहना पूरी तरह सच नहीं। जब भी किसी बच्चे को जुकाम हो जाती है, छींकने की आवाज सुनते ही नानी माँ उसे अपने पास बुला लेती, मिट्टी के कलश में रखा चूर्ण मूर्धा पर रगड़ देती और उँगली नथुनों पर रखकर दवा सूंघने के लिए कहती।

माँ मौसी को समझाती, "अरी, थोड़ी ही सही, हमारी अपनी खेती तो है, उन लोगों को साल भर चावल खरीदना पड़ता है न!" कर्किटकम् महीने में मौसी के बच्चे कुछ दिनों के लिए उनके पिता के घर हो आते हैं। अच्युत मामा के बच्चे हमारे घर के मेहमान बनकर आते हैं। बस मुझे कहीं नहीं जाना है। मेरे पिताजी का घर दूर अंडत्तोड़ में है। बस में पच्चीस मील की यात्रा और आगे नाव में भी चढ़ना पड़ता है।

पिताजी की छुट्टियों में ही हम वहाँ जा पाते हैं। माँ को तो वह भी पसंद नहीं। वह दादी माँ को नापसंद करती है; क्योंकि दादी माँ लोगों से शिकायत करती रहती है कि मेरे पिताजी ससुरालवालों के पेट भरने के चक्कर में घरवालों को भुला बैठे हैं।

कल्याणिक्कुट्टी खाली बैठकर बेकार की बातें बघारने लगी तो माँ ने उससे आँगन बुहारने के लिए कहा। धोती का सिरा उठाकर कमर में खोंसते हुए उसका आँगन बुहारना बड़ा सुंदर दृश्य है। खुले बालों के छोर पर गाँठ बाँधी है। कमर झुकाकर आँगन बुहारते समय बाल कंधे के ऊपर से जमीन तक लटक रहे हैं। लाल चूड़ियाँ खनकती हैं।

(कल्याणिक्कुट्टी खूबसूरत है, यह बात समझने के लिए मुझे और तीन साल लगे।)

चावल के पकने के समय का मन में अंदाजा लगाकर लाल चूड़ियों की खनक के लिए कान देकर मैं खंभे के सहारे बैठा था कि कल्याणिक्कुट्टी बुहारना बंद करके अचानक बोली, "मालू दीदी, कोई आ रहा है। लगता है, इधर को ही रहा है।" मैंने भी देखा, आनेवाला इधर को ही आ रहा था। कुरता पहना है। माँ ने कमर झुकाकर देखा।

फाटक की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आया तो मैंने आनेवाले को पहचान लिया।

"शंकुण्णी भैया हैं माँ!"

"कौन शंकुण्णी भैया?"

"अंडत्तोड़ के।"

"बाप रे!" माँ हड़बड़ाकर उठी। कल्याणिक्कुट्टी को अंदर भेजा। रसोई में जा। मीनाक्षी से चावल का माँड़ पसाने को कहा।

छतरी लपेटकर वे बरामदे में चढ़कर बदनुमा दाँत निपोरकर जनाना आवाज में शंकुण्णि भैया ने माँ से कुशल पूछी, "पहचानती हैं न आप मुझे?"

"हाँ हाँ, शंकुण्णी, आज कैसे रास्ता भूल आया? आओ-आओ, पैर धोने के लिए लोटा भर पानी ला दे उण्णी।" माँ ने मुझसे कहा।

"मैं खुद ले लूँगा।"

बरामदे में रखा पानी खुद लेकर शंकुण्णी भैया ने पैर धोए।

"चटाई उठा ला।" माँ ने मुझसे कहा।

"बस, मैं यहीं बैठता हूँ, मामी!"

"सो कैसे होगा? मेहमानों को बिठाने का तरीका तो है।"

बेंत का हत्थेवाला पुराना छाता ओलती में लटकाकर वह बरामदे की मुँडेर पर बैठ गया।

"अंडत्तोड़ से ही आ रहे हो न?"

"जी।"

"कोई खास खबर तो नहीं?"

"नहीं, मैं ही चला आया। कुछ दिनों से आपकी कुशल पूछने एक बार यहाँ आने के बारे में सोच रहा था। सो अभी समय मिला।"

"अच्छा किया।"

माँ ने दादी माँ और पिताजी की बहनों का कुशल पूछा। शंकुण्णी भैया के घरवालों के बारे में भी पूछ लिया।

"उण्णी अब किस क्लास में है?"

"सातवीं में।" उसके चेहरे की ओर देखे बिना मैंने जवाब दिया।

वैसे उसके चेहरे की ओर देखना मुझे पसंद भी नहीं। चेचक के दागवाला चेहरा। हरदम बेवजह दाँत निपोरता रहता है। गंदे और बदनुमा दाँत। पिता के दूर के रिश्ते का भतीजा है। पिता के घर में उससे मुलाकात हुई थी। पिताजी या चाचाजी छुट्टी पर आते तो यह भी पहुँच जाता। बड़े भाई घर पर हैं तो लगा रहता है, वरना मुड़कर नहीं देखता।' अम्मिणी दीदी और लक्ष्मी दीदी उसके मुँह पर ही कह देती हैं।

मैं चुपके से अंदर गया। मीनाक्षी दीदी चावल का माँड़ पसा रही थी। कल्याणिक्कुट्टी नहीं दिखी।

"उण्णी, कौन आया?"

"अंडत्तोड़ से शंकुण्णी भैया।"

"सौ जगह दौड़कर तीन सेर चावल मिला, तो मेहमान भी आ धमका।" मीनाक्षी दीदी ऊँची आवाज में बोली थी। तभी माँ वहाँ पहुँची और उसे सावधान कर गई।

"चुप रह हरामजादी, अपनी गरीबी को अपने पास रख। दूसरों के सामने उसका ढिंढोरा मत पीट।"

मीनाक्षी दीदी ने हाँड़ी को सीधा करके ढक्कन में चिपके चावल के दानों को हाथ से पोंछकर हाँड़ी में डाल दिया।

"शंकुण्णी हो या और कोई, अंडत्तोड़ से आनेवाले हमारे मेहमान हैं। वापस जाकर सौ बातें बनाएगा। तू नासमझ है, इसलिए आगाह करती हूँ। हमें अपनी मर्यादा का पालन करना है। उस घर में मेरी इज्जत का सवाल है।"

चार हाथ लंबी जीभवाली मीनाक्षी दीदी चुपचाप सुनती रही।

माँ सबको भला-बुरा कहती है। अच्युत मामा तक को नहीं छोड़ती, मगर कोई भी उनके खिलाफ कुछ नहीं कहता, क्योंकि जायदाद के बँटवारे के समय पिताजी ने ही उसका कर्ज चुकाया था। पिताजी के पैसों से इस घर के सारे पेट भरते हैं।

"उण्णी, पापड़वाले के घर से एक आने का पापड़ ले आ। बोल, पैसे कल भिजवा देंगे। जाते वक्त कणक्कराई के लड़के को इधर भेज। मीनाक्षी, वह छोकरा आए तो उससे एक नारियल तुड़वा ले। पीसकर चटनी बनाएँगे। अंडत्तोड़ से आए मेहमान को मात्र केले के कंद की सब्जी के साथ चावल कैसे परोसेंगे हम। कल्याणी से थोड़ा नारियल तेल उधार ले आ।"

ढेर सारे सुझाव देकर बरामदे में लौटने के पहले माँ ने याद दिलाया, "हाँ, पापड़ के टुकड़े मत करना, पूरा तल लेना, वरना शर्मिंदा होना पड़ेगा।"

भात की हाँड़ी और हल्के पीले रंग के माँड़ से भरे ताँबे के बरतन की ओर बारी-बारी देखकर मैं खड़ा रहा। क्या मीनाक्षी दीदी को याद नहीं कि स्कूल से लौटकर मैंने अभी तक कुछ नहीं खाया। कह दूँ कि भूख लगी है, मगर संकोच होता है। 'प्यास लगी है' कहकर याद दिलाऊँ?

पापड़वाली के घर की ओर चला। अच्छा हुआ, शंकुण्णी भैया आ पहुँचा। खाने में पापड़ और नारियल की चटनी मिलेगी। पापड़ तलने के बाद बचे तेल में भात डालकर नमक के साथ खा लेने का खयाल आया तो मुँह में पानी भर गया। मीनाक्षी दीदी से माँगकर खा लूँगा।

पापड़ खरीदकर लौटते वक्त देखा कि पड़ोस के आम के पेड़ के नीचे एक पका आम पड़ा है। दौड़कर उठाया, मगर कौवे ने अंदर से पूरा खा लिया था। छिलका मात्र बाकी था।

घर पहुँचा। शंकुण्णी भैया कुरता उतारकर खटिया के सिरहाने रखकर माँ से बातें कर रहा था। माँ कहती थीं, 'बारिश के बाद छप्पर में खपरैल डालने का इरादा है। कटहल के दो पेड़ों की लकड़ी लगेगी। देख रखा है। हर साल नारियल के पत्तों के छाजन लगाने में कितने पैसे खर्च होते हैं। बेटा गिविंदनकुट्टी हर पत्र में लिखता है कि चार साल के छाजन के पैसों से खपरैल डालने का खर्चा पूरा हो जाएगा।'

पिताजी का घर नया है। खपरैलवाला और बड़ा। शायद उस घर की बराबरी के खयाल से माँ कहती थी। यह घर बाहर से बदहाल है, मगर अंदर काफी जगह है। झाड़-बुहारू करने में पूरा दिन लग जाता है। वह मीनाक्षी है न मदद करने के लिए। इसलिए झाड़-पोंछकर, जाला निकालकर रखती है। वरना सबकुछ सँभालना मेरे बस की बात कहाँ!

शकुण्णी भैया जनाना आवाज में 'हाँ...हाँ...' करता जा रहा था। भैया की नौकरी, पिताजी का मनीऑर्डर, उण्णी की (मेरी) होशियारी, घर में छाजन लगाने के दिन की दावत-तरह-तरह की बातें हो रही थीं।

शाम जल्दी आ पहुँची। आसमान में बादल फिर उमड़ने लगे थे।

"शंकुण्णी, तुम्हें नहाना है क्या?"

"जी हाँ।"

"उण्णी, जाकर मीनाक्षी को बोल कि तौलिया और कोठार के अंदर नई हाँड़ी में से नहाने का चूरन ला दे। हाँ, कटोरी में थोड़ा तिल का तेल भी निकाल दे। नानी माँ के कमरे में डिब्बे में होगा।"

नानी माँ के कमरे के अंदर अँधेरा है। डिब्बा खाट के नीचे है। "क्या ढूँढ़ता है?"

"तेल।"

"किसके लिए?"

"अंडत्तोड़ से शंकुण्णी भैया आया है।"

"अंडत्तोड़ से।"

नानी माँ की आवाज में इज्जत भरी थी। अंडत्तोड़ से किसी का आना कोई मामूली बात नहीं। पिताजी के रिश्तेदार 'अंडत्तोड़वाले' जाने जाते हैं।

डिब्बे के ढक्कन में कपड़ा लपेट रखा है। डिब्बे के गले में भी चींटियों को हटाने के लिए मिट्टी के तेल में भिगोया कपड़ा बाँधा है। डिब्बा निकालकर दरवाजे के पास उजाले में रखा। अंदर थोड़ा तेल बचा था।

तेलवाला महीने में एक बार आता है तो उससे सेर भर तेल खरीदा जाता है। हर इतवार को तेल लगाकर नहाना है। माँ करछुल से तेल निकालकर देती है। एक बूंद भी गिराए बिना उसे पूरे शरीर पर मलना है। माँ को नारियल तेल सिर में लगाने से परहेज है। इसीलिए तिल का तेल खरीदा जाता है। महीने भर के लिए सेर भर।

कटोरी में तेल डाला तो लगा कि कुछ ज्यादा गिरा। अब डिब्बे में तलछट के अलावा कुछ भी बाकी नहीं। बरामदे में पहुँचे तो माँ की आँखें कटोरी पर लगी थीं। उन आँखों में इलजाम था। मीनाक्षी दीदी का लाया तौलिया पहनकर, नहाकर धोती खंभे के ऊपर रखने के बाद शंकुण्णी भैया आराम से शरीर पर तेल मलने लगा। शरीर भर में तेल लगा दिया। तब भी कटोरी में आधा तेल बाकी था। माँ मेरी नासमझी पर अंदर-हीअंदर कुढ़ रही थी।

मैंने नहीं सोचा था कि कागज के टुकड़े पर रखा चूरन उठाकर वह कटोरी में डालेगा, लेकिन उसने वही किया, चूरन को तेल के साथ मिलाकर उसका गोला बनाया और हथेली के अंदर घुमाते हुए मुझसे पूछा, "उण्णी, तालाब किस ओर है?"

पता नहीं क्यों, रास्ता दिखाकर साथ चलने के लिए माँ ने मुझसे नहीं कहा। आँगन की दक्षिणी सीमा तक जाकर मैंने उसे रास्ता दिखाया, "उस तरफ नीचे उतरना है।"

मीनाक्षी दीदी दीप जला लाई।

"उण्णी को भूख लगी होगी।" माँ ने मीनाक्षी दीदी और मुझे लक्ष्य करके कहा। मैंने अनसुना कर दिया।

"शाम ढलने दें, तब परोसेंगे।"

स्नान चूरनवाले कागज के टुकड़े से पायदान पर गिरी तेल की बूंदें पोंछकर बाहर फेंकते हुए माँ ने स्वगत किया, 'आजकल तेल कितना कीमती हो गया है, मगर अंडत्तोड़वालों के सामने कंजूसी दिखाएँ भी कैसे?'

मुझसे यह सब क्यों कहा जा रहा है? मेरे खयालों में पापड़ के तेलवाले भात का स्वाद भर गया था। नीच जात के बच्चों की तरह केले के झुंड के पीछे छिपते अंधकार को देखकर मैं बैठा रहा।

शंकुण्णी भैया नहा आया। पूरबी बरामदे में जाकर तौलिया बदलकर धोती पहनी। हाथों से बाल सँवारे, गीला तौलिया मेरे हाथ में दिया। तभी अच्युत मामा के आने की आहट सुनाई दी। उनका आना दूर से ही मालूम पड़ता है। डकार छोड़ता रहता है। कहते हैं, गैस की शिकायत है।

"कौन आया है?" मामा सकपकाया।

"अंडत्तोड़ से है।" माँ ने जवाब दिया।

मामा की आवाज झट से धीमी पड़ गई।

"कौन?"

"शंकुण्णी।"

शंकुण्णी भैया बरामदे की मुँडेर पर बैठा था। "कैसे रास्ता भूल आया?" मामा का सवाल सुनकर वह उठा। "बैठो, बैठो!" अंडत्तोड़वाले को अच्युत मामा भी मानते हैं।

पिताजी के घर में रसोई के बाहर नारियल की तीली से दाँत कुरेदते हुए अम्मिणी दीदी की पुकार के इंतजार में भूखा बैठनेवाले शंकुण्णी के प्रति यों आदर दिखाया जा रहा था। अच्युत मामा ने जोर से डकार लेते हुए बरामदे के फर्श पर बैठकर बीड़ी जलाई।

"उधर की क्या खबर है?"

"खास कुछ नहीं।" मुँडेर पर बैठकर पैर हिलाते हुए शंकुण्णी ने जवाब दिया, "बस मामी और बच्चों का कुशल पूछने चला आया।"

"मेरी भी एक दफा अंडत्तोड़ में आने की इच्छा है। जीजाजी को आने दे। गुरुवायूर मंदिर में भी जाना है।"

कर्किटकम् में अँधेरा जल्दी हो जाता है। ढिबरी जलाकर दीवार की कील में लटका दी। पूजाघर के सामने दीया बुझ चुका था। झुलसी बत्ती की बू थोड़ी देर हवा में ठहर गई थी। माँ अंदर जाने लगी तो जाने किसको लक्ष्य कर पूछ बैठी कि 'लालटेन का शीशा अभी तक दुकान में आया कि नहीं?'

शुक्रवार को छोड़कर बाकी दिनों में मेरे लिए यह पढ़ाई का समय है। शुक्रवार होने के कारण आज पढ़ाई बंद। आगे शनिवार और इतवार दो दिन पड़े हैं।

फुहार शुरू हो गई है। पश्चिमी बरामदे में दीवार के सहारे बैठा अच्युत मामा पहले कभी अंडत्तोड़ में खाई किसी खास मछली के स्वाद के बारे में बता रहा था।

मुझसे अपना सिर उठाया नहीं जा रहा था। बड़ी नींद आ रही थी। हल्की हवा में शरीर के ऊपर से ठंड की लहरें गुजरने लगी थीं। रोम-रोम में सिहरन हो रही थी।

बरामदे में माँ की आवाज फिर सुनाई दी।

"अच्युत, तुम्हें नहाना है क्या?"

"नहाने का मन नहीं करता। जब से बारिश शुरू हुई है, नाक रिसती रहती है। हाथ-मुँह धो लूँगा, बस!"

"तो आओ शंकुण्णी, खाना खाओ।"

खटिया किरकिराई।

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