करिश्मा कुदरत का (नाइजीरियाई कहानी) : चिनुआ अचेबे
Krishma Kudrat Ka (Nigerian Story in Hindi) : Chinua Achebe
जौनथन इवेम्बु स्वयं को बहुत ही भाग्यशाली मानता था । 'शुभ- पुनर्जीवन' - यह कामना उसके लिए युद्ध समाप्ति के उन पहले धुँधले दिनों में मित्रों द्वारा एक दूसरे को दी गई शुभकामनाओं से कहीं अधिक थी और उसके दिल में गहरी पैठ गई थी । वह युद्ध में से पाँच अनमोल वरदानों के साथ बच निकला था उसका सलामत सिर, उसकी बीवी मारिया का सलामत सिर तथा उसके चार में से तीन बच्चों का सलामत सिर । साथ ही बोनस के रूप में बची हुई थी उसकी बाईसिकल भी जो अपने आप में एक करिश्मा था । लेकिन इस करिश्मे का मुकाबला उन पाँच सलामत सिरों से तो नहीं किया जा सकता ।
बाईसिकल का अपना एक छोटा-सा इतिहास था । लड़ाई की चरम सीमा के दिनों में एक दिन 'आवश्यक मिलिटरी कार्य के लिए उसकी बाईसिकल की सेवाएँ प्राप्त कर ली गई । बाईसिकल का नुकसान ही उसके लिए काफी होता और वह उसे सहने के लिए तैयार था । परन्तु उसे अफसर की सचाई पर शक हो गया था । जौनथन को तकलीफ़ उसके फटे-पुराने चिथड़ों या एक नीले और एक ब्राउन जूतें से झाँकते अंगूठों या जल्दी में टाँके गये उसके रैंक के स्टार से नहीं थी । बहुत से अच्छे और बहादुर सिपाही देखने में उससे भी ख़राब लगते थे । शक तो उसे अफसर के व्यवहार में मजबूती और पकड़ की कमी के कारण हुआ था । इसीलिए यह सोचकर कि वह उसके प्रभाव में आ सकेगा, जौनथन ने अपने रफिया बैग में हाथ डाला और दो पाउंड निकाले जिनसे वह अपनी पत्नी द्वारा कैम्प के अधिकारियों को बेचने के लिए जलाने की लकड़ियाँ लाने जा रहा था । उन्हें बेचकर वह स्टॉक - फिश और कॉर्न-मील खरीदती थी। दो पाउंड देकर उसने बाईसिकल वापिस छुड़ाई । उसी रात उसने उसे जंगल में साफ जगह में गाड़ दिया जहाँ कैम्प के मृतकों को दफनाया जाता था और जहाँ उसका अपना सबसे छोटा लड़का दफ्न था । एक साल बाद जब विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया तो उसने उसे खोद कर निकाला तो साइकिल पर सिर्फ़ थोड़ी सी पाम ग्रीज़ लगाने की ही ज़रूरत पड़ी । 'कुदरत के करिश्मों की कमी नहीं,' उसने हैरानी से कहा ।
वह उसे तुरन्त टैक्सी के रूप में चलाने लगा । जल्दी ही उसने कैम्प के अधिकारियों और उनके परिवारों को सबसे नज़दीक वाली पक्की सड़क पर पहुँचा पहुँचा कर बियाफ्रा की मुद्रा का ढेर इकट्ठा कर लिया । वह हर ट्रिप के छह पाउंड लेता और जिनके पास उस मुद्रा की कमी नहीं थी वे उसे इस तरह खर्च करके खुश थे । पन्द्रह दिन बाद उसके पास एक सौ पन्द्रह पाउंड की रकम इकट्ठी हो गई थी ।
तब वह इनूगू गया और वहाँ एक और करिश्मा उसका इन्तज़ार कर रहा था । यह तो एकदम अविश्वसनीय था । उसने अपनी आँखें मलीं और फिर एक बार देखा । वह वहीं उसके सामने खड़ा था । कहना न होगा कि यह करिश्मा भी उसके परिवार के पाँच सिरों के सलामत बच जाने के मुकाबले में कुछ भी नहीं था । यह नवीनतम करिश्मा था औगई ओवरसाइड में उसका छोटा-सा मकान । सचमुच, कुदरत के करिश्मों की कोई कमी नहीं थी ! दो घर छोड़कर एक अमीर कॉन्ट्रैक्टर का भव्य भवन जिसे उसने लड़ाई से कुछ ही देर पहले बनाया था, मलबे का ढेर बन गया था । और यहाँ जौनथन का गारे की ईटों और जिंक की छत से बना छोटा-सा घर एकदम सलामत खड़ा था। यह दूसरी बात है कि दरवाज़े तथा खिड़कियाँ और छत की पाँच शीटें गायब थीं । लेकिन उससे क्या ? फिर एक दिन सुबह-सवेरे, जंगल में खुले में रह रहे हज़ारों लोगों से पहले इनूगू पहुँच कर उसने जिंक, लकड़ी और गत्ते के मुड़े तुड़े शीट बीन लिये । उसने मुसीबत का मारा एक बढ़ई भी खोज निकाला जिसके टूल बॉक्स में एक पुरानी हथौड़ी, एक कुन्द रन्दा तथा कुछ जंग खाई टेढ़ी-मेढ़ी कीलें थीं । इनसे उसने जिंक, लकड़ी और गत्ते की उन शीटों को दरवाज़े तथा खिड़कियों के पाँच शटरों के रूप में बदलवा लिया । बढ़ई की बनवाई थी पाँच नाईजीरियन शिलिंग या पचास बियाफ्रन पाउंड । उसने पाउंड दे दिये और अपने-अपने कन्धों पर सलामत सिर लिए परिवार के पाँचों सदस्य खुशी-खुशी घर में आ बसे ।
उसके बच्चे मिलिटरी कब्रिस्तान के पास से आम बीन कर सिपाहियों की बीवियों को कुछ सिक्कों के बदले में बेचने लगे- इस बार ये असली सिक्के थे । और उसकी बीवी ज़िन्दगी दुबारा शुरू करने की जल्दी में पड़ोसियों के नाश्ते के लिए आकरा के गोले बनाने लगी । परिवार की इस आय से उसने पास के गाँवों में अपनी साइकिल पर जाकर ताज़ी ताड़ी लाना शुरू किया । इसमें उसने अपने कमरे में पानी (जो सरकारी नल में दुबारा बहने लगा था ) मिलाकर सिपाहियों तथा उन किस्मत वालों के लिए 'बार' खोल दी जिनके पास असली पैसा था ।
शुरू-शुरू में वह हर रोज़, फिर हर दूसरे दिन और आखिर में हफ्ते में एक दिन कोल कार्पोरेशन के दफ़्तर जहाँ वह पहले खदान मज़दूर के रूप में काम करता था यह पता लगाने के लिए जाता था कि उनका क्या बन रहा है । आखिर में इतना ही जान पाया कि उसका अपना छोटा सा घर उसकी अपनी समझ से कहीं बड़ी खुशकिस्मती था । उसके साथ के कई खदान मज़दूर, जिनके पास दिन के अन्त में कहीं जाने की जगह नहीं होती थी, दफ्तर के बाहर ही बोर्नवीटा के खाली टिनों में बचा खुचा पका कर वहीं सो रहते थे । हफ़्ते लम्बे होते गये और फिर भी जब कुछ न बना तो जौनथन ने जाना बिल्कुल बन्द कर दिया और अपनी बार की ओर रुख किया ।
लेकिन कुदरत के करिश्मों की तो कोई कमी नहीं है । ट्रेज़री के बाहर पाँच दिन टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों में लड़ने-झगड़ने के बाद विद्रोहियों की मुद्रा वापस जमा कर देने के एवज़ में उसकी हथेली पर बीस पाउंड धर दिये गये तो उसे लगा कि लक्ष्मी की वर्षा सी हो उठी है । जब पैसे मिले तो उसे और उस जैसों के लिए यह क्रिसमस के उपहार जैसा था । उन्होंने उस पैसे को 'ऐग-रैशर का नाम दे दिया (चूँकि वे उसके नाम का ठीक से उच्चारण नहीं कर पा रहे थे) ।
जैसे ही पाउंड वाले नोट उसकी हथेली पर रखे गये, जौनथन ने अपनी मुट्ठी भींच ली और मुट्ठी समेत उन्हें अपनी पैंट की जेब में ठूंस लिया । उसे बहुत ही सतर्क रहना था क्योंकि दो एक दिन पहले उसने एक आदमी को जन-सागर के सामने गश खाकर गिरते देखा था क्योंकि जैसे ही उसे बीस पाउंड मिले एक पत्थर - दिल बदमाश ने उसकी जेब काट ली थी। हालाँकि यह ठीक नहीं था कि उस खराब हालत में उस बदकिस्मत को बुरा-भला कहा जाता लेकिन फिर भी लाइन में लगे कुछ लोगों ने उसकी लापरवाही के बारे में कुछ कहा था, विशेषकर जब उसने जेब उलट कर दिखाई जिसमें इतना बड़ा छेद था कि उसमें चोर का सिर भी समा जाता । लेकिन वह ज़ोर देकर कहता रहा कि पैसे तो उसकी दूसरी जेब में थे जिसे उलट कर उसने दिखाया कि वह सलामत थी । इसीलिए तो सतर्क रहने की आवश्यकता थी ।
जौनथन ने जल्दी ही पैसों को अपने बायें हाथ और जेब में बदल दिया ताकि ज़रूरत पड़ने पर दाँया हाथ मिलाने के लिए खाली रहे । अपनी नज़र उसने इतनी ऊँचाई पर गड़ा रखी थी कि वह सामने आने वाले किसी आदमी पर पड़े ही नहीं और हाथ मिलाने की ज़रुरत ही न पड़े, कम से कम घर पहुँचने तक तो ।
सामान्यतया वह गहरी नींद सोता था लेकिन उस रात उसने पड़ोस में होनेवाली हर एक आवाज़ को एक-एक करके ख़त्म होते देखा । यहाँ तक कि चौकीदार भी जो दूर कहीं किसी धातु वाली चीज़ को बजा कर घंटों की सूचना देता था, एक का गजर बजा कर सो गया था । सोने से पहले वही आखिरी विचार उसके दिमाग़ में रहा होगा । वह ज़्यादा देर तो नहीं सोया होगा क्योंकि जब उसे झकझोर कर उठाया गया ।
"कौन खटखटात है ?" उसके साथ फर्श पर लेटी उसकी पत्नी ने फुसफुसाकर कहा ।
"नाहीं मालूम,” उसने साँस रोक, फुसफुसा कर कहा ।
दूसरी बार खटखटाहट इतनी जोर से हुई और इतनी ताकत से कि लगता था जीर्ण-शीर्ण-सा दरवाज़ा टूट ही जायेगा ।
"कौन खटखटात है ?” उसने पूछा । आवाज़ सूखी और थरथराहट भरी थी ।
"चोर हूँ और हमारे आदमी है", शान्त जवाब आया, “दरवाज़ा खोलो न” इसके साथ ही ज़ोर-ज़ोर से खटाखटाहट होने लगी ।
शोर पहले मारिया ने मचाया, फिर उसने और फिर बच्चों ने । “पुलिस रे ! अरे, चोर ! ऐ पड़ोसियो ! पुलिस ! हम तो मर गये... बेमौत मारे गये ! पड़ोसी सो गये का ? उठेंगे नाहीं ! पुलिस"
यह काफी देर होता रहा और फिर एकाएक बन्द हो गया । शायद उन्होंने चोरों को डरा दिया था । एकदम चुप्पी थी। लेकिन कुछ ही देर तक ।
“तुम खतम कर चुके क्या ?" बाहर वाली आवाज़ ने पूछा । "हम भी मदद करें । ऐ लोगो !"
“पुलिस ! चोर ! अरे पड़ोसियो ! हम तो मर ही गये ! अरे पुलिस !" लीडर के अलावा पाँच और आवाजें थीं ।
जौनथन और उसके परिवार को डर के मारे लकवा मार गया था । मारिया और बच्चे खोई आत्माओं की तरह चुपचाप रो रहे थे । जौनथन लगातार सुबक रहा था ।
चोरों के शोर के बाद की चुप्पी भी और डरावनी थी। जौनथन ने लीडर को बोलने के लिए प्रार्थना की और अपनी बात कहने को कहा ।
'मेरे दोस्त', उसने आखिर कहा, 'हमउ कोशिस किये हैं उनका बुलाने को । लगता है वे सो रहे हैं । हम भी अब क्या करें ? मिलिटरी को बुलाना होगा ? मिलिटरी तो पुलिस से अच्छी होती है न ?'
“हाँ !” उसके आदमियों ने उत्तर दिया । जौनधन को लगा आवाज़ें पहले से ज़्यादा थीं और वह ज़्यादा ज़ोर से रोने लगा । उसकी टाँगे ढह-सी गयीं और उसका हलक एकदम सूख सा गया था ।
"दोस्त, अच्छा बोलो ? मिलिटरी को बुलाने के लिए क्या कहें ।
"नहीं !"
"ठीक । अब हम बिजनेस बतियाते हैं । हम घटिया चोर नाहीं हैं । हम कोई गड़बड़ नहीं करते हैं । गड़बड़ काम सबे खतम ! लड़ाई खतम ! कटाकट खतम । सिविल वार दुबारा नाहीं होनेवाली । यह बखत सिविल पीस का है न ?”
"ठीक है ।" सभी ने कोरस में कहा ।
"तुम्हें मुझसे क्या चाहिए ? मैं एक ग़रीब आदमी हूँ । मेरे पास जो कुछ था लड़ाई में जाता रहा । तुम मेरे पास क्यों आये हो ? तुम्हें तो पता है किसके पास पैसा है । हम..."
"ठीक है ! हम भी जानते हैं तुम्हारे पास पैसा नहीं है । लेकिन हमरा पास तो एक खोटी चवन्नी तक नहीं है । इसी के बास्ते इस खिड़की को खोल कर एक सौ पाउंड दे दो तो हम चले जाँय । नहीं तो हमउ का अन्दर आकर गिटार बजाना पड़ता है, ऐसे.....
आकाश में ऑटोमेटिक फायर की आवाज गूंज उठी । मारिया और बच्चे फिर जोर-जोर से रोने लगे ।
"ओहो, मिस्सी रोई है क्या ? इसकी जरूरत नहीं । हम भी बता दें कि जे हम अच्छे चोर हैं । हम भी थोड़ा पैसा लेते हैं और चले जाते हैं । हम भी औरतन को इज्ज़त नहीं लूटते- क्या ?”
"बिल्कुल नहीं ।" कोरस में जवाब आया ।
"मेरे दोस्त," जौनथन ने फटी आवाज़ में फिर शुरू किया, 'मैंने सुना जो तुमने कहा और मैं तुम्हारा शुक्रिया कहता हूँ । अगर मेरे पास सौ पाउंड होते..."
“देखो, दोस्त । तुम भी ठीक से नहीं खेलते तो हम सब घर में आकर खेलते हैं। जब हमऊ घर में आ कर देखत तो फिर ऐसे नहीं जायेंगे इसी बास्ते...."
“बनानेवाले भगवान की कसम, अगर तुम अन्दर आके सौ पाउंड ढूँढ़ लो तो ले ले और साथ ही मुझे, मेरी बीवी और बच्चों को गोली भी मार दो। मैं भगवान की कसम खाता हूँ । मेरे पास कुल रकम ये ऐग रैशर वाले बीस पाउंड हैं जो आज ही मिले हैं..."
"ठीक है । वक्त ही बरबाद हो रहा है । खिड़की खोलू और बीस पाउंड लाइब । हम भी इसी से काम चलाई लेंगे ।”
कोरस में ज़ोर-ज़ोर से बहस होने लगी । “नहीं यह झूठ बोलता है । इसका पास काफी पैसे हैं... अन्दर चलते हैं और ध्यान से खोजते हैं । बीस पाउंड क्या चीज होती है ?"
"चुप्प !" लीडर की आवाज़ आकाश में इकलौती गोली की तरह गूँजी और मुनमुनाहट एकदम शान्त हो गई । "सुनते नाहीं ? जल्दी से पइसे लाओ !"
"मैं आता हूँ", जौनथन ने कहा और अँधेरे में चटाई पर अपने साथ रखे छोटे लकड़ी के बक्से की चाबी टटोलने लगा ।
सुबह की पहली रोशनी में जब पड़ोसी और अन्य लोग हमदर्दी दिखाने आये तो वह अपनी साइकिल के कैरियर पर पाँच गैलन वाला कैन बाँध रहा था और उसकी बीवी खुली आग के सामने खड़ी मिट्टी की कड़ाही में खौलते तेल में आकरा के गोले तल रही थी । एक कोने में उसका सबसे बड़ा लड़का बीयर की पुरानी बोतलों में से कल की बची बासी ताड़ी उड़ेलकर उन्हें साफ़ कर रहा था ।
"मैं तो परवाह ही नहीं करता", उसने हमदर्दी जताने आये लोगों से कहा, नज़र बाँधनेवाली रस्सी पर टिकाये हुए. "ऐग रैशर भला क्या चीज़ है ? क्या मैं पिछले हफ़्ते उस पर निर्भर था ? या यह उन चीज़ों से ज़्यादा कीमती है जो लड़ाई के साथ चली गई हैं ? मैं कहता हूँ ऐग रैशर जाये भाड़ में । उसे भी वहीं जाने दो जहाँ बाकी सब है । कुदरत के करिश्मे कम नहीं होंगे ।"
(अनुवादक : हरीश नारंग)
(साभार : फौजी लड़कियाँ तथा अन्य कहानियाँ-साहित्य अकादेमी)