कर्बला (नाटक) : मुंशी प्रेमचंद

Karbala (Play) (Part-2) : Munshi Premchand

कर्बला (नाटक) (भाग-2) : प्रेमचंद

तीसरा अंक

पहला दृश्य

[दोपहर का समय। रेगिस्तान में हुसैन के काफ़िले का पड़ाव। बगूले उड़ रहे है। हुसैन असगर को गोद में लिए अपने खेमे के द्वार पर खड़े हैं।]

हुसैन– (मन में) उफ्, यह गर्मी! निगाहें जलती हैं। पत्थर की चट्टानों से चिनगारियां निकल रही हैं। झीलें, कुएं सब सूखे पड़े हुए हैं, गोया उन्हें गर्मी ने जला दिया हो। हवा से बदन झूलसा जाता है। बच्चों के चेहरे कैसे संवला गए हैं। यह सफेदी, यह रेगिस्तान, इसकी कहीं हद भी है या नहीं। जिन लोगों ने प्यास के मारे हौक-हौककर पानी पी लिया है, उनके कलेजे में दर्द हो रहा है। अब तक कूफ़ा से कोई कासिद नहीं आया। खुदा जाने मुसलिम का क्या हाल हुआ। करीने से ऐसा मालूम होता है कि ईराकवालों ने उनसे दग़ा की, और उनको शहीद कर दिया, वरना यह खामोशी क्यों? अगर वह जन्नत को सिधारे हैं,

तो मेरे लिए भी दूसरा रास्ता नहीं हैं। शहादत मेरा इंतजार कर रही है। कोई मुझसे मिलने आ रहा हैं।

[फर्जूक का प्रवेश]

फर०– अस्सलामअलेक या हज़रत हुसैन, मैंने बहुत चाहा कि मक्के ही में आपकी जियारत करूं, लेकिन अफसोस, मेरी कोशिश बेकार हुई।

हुसैन– अगर ईराक से आए हो, तो वहां की क्या खबर हैं?

फर०– या हज़रत! वहां की खबरें वे ही हैं, जो आपको मालूम हैं। लोगों के दिल आपके साथ हैं, क्योंकि आप हक पर हैं और, उनकी तलवारें यजीद के साथ है, क्योंकि उसके पास दौलत है।

हुसैन– और मेरे भाई मुसलिम की भी कुछ खबर लाए हो?

फर०– उनकी रूह जन्नत में है, और सिर किले की दीवार पर।

मातम है कई दिन से मुसलमानों के घर में;

खंदक में है लाश उनकी व सर किले की दर में।

हुसैन– (सीने पर हाथ धरकर) आह! मुसलिम, वही हुआ, जिसका मुझे खौफ़ था। अब तक तुम्हें कफ़न भी नसीब नहीं हुआ। क्या तुम्हारी नेकनियती का यही सिला था? आह! तुम इतने दिनों तक मेरे साथ रहे, पर मैंने तुम्हारी कद्र न जानी। मैंने तुम्हारे ऊपर जुल्म किया, मैंने जान-बूझकर तुम्हारी जान ली। मेरे अजीज और दोस्त, सब के सब मुझे कूफ़ावालों से होशियार कर रहे थे, पर मैंने किसी की न सुनी, और तुम्हें हाथ से खोया। मैं उनके बेटों को और उनकी बीबी को कौन मुँह दिखाऊंगा।

[मुसलिम की लड़की फातिमा आती है।]

आओ बेटी, बैठो, मेरी गोद में चली आओ। कुछ खाया कि नहीं?

फातिमा– बुआ ने शहद और रोटी दी थी। चचाजान, अब हम लोग कै दिन में अब्बा के पास पहुंचेगे? पाँच-छः दिन तो हो गए!

हुसैन– (दिल में) आह! कलेजा मुंह को आता है। इस सवाल का क्या जवाब दूं। कैसे कह दूं कि अब तेरे अब्बा जन्नत में मिलेंगे। (प्रकट) बेटी, खुदा की जब मरजी होगी।

अली०– आह! तुम अब्बाजान की गोद में बैठ गई। उतरिए चटपट।

फातिमा– तुम मेरे अब्बाजान की गोद में बैठोगे, तो मैं अभी उतार दूंगी।

हुसैन– बेटी, मैं ही तुम्हारा अब्बाजान हूं। तुम बैठी रहो।

इसे बकने दो।

फातिमा– आप मेरी तरफ देखकर आंखों में आंसू क्यों भरे हुए हैं। आप मेरा इतना प्यार क्यों कर रहे हैं? आप यह क्यों कहते हैं कि मैं ही अब्बाजान हूं? ऐसी बातें तो यतीमों से की जाती हैं।

हुसैन– (रोकर) बेटी, तेरे अब्बा को खुदा ने बुला लिया।

[फातिमा रोती हुई अपनी मां के पास जाती है। औरतें रोने लगती हैं।]

जैनब– (बाहर आकर) भैया, यह क्या गजब हो गया?

हुसैन– बहन, क्या कहूं सितम टूट पड़ा। मुसलिम तो शहीद हो गए। कूफ़ावालों ने दग़ा की।

जैनब– तो ऐसे दग़ाबाजों से मदद की क्या उम्मीद हो सकती है? मैं तुमसे मिन्नत करती हूं कि यहीं से वापस चलो। कूफ़ावालों ने कभी वफा नहीं की।

[मुसलिम के बेटे अब्दुला का प्रवेश।]

अब्बदुल्ला– फूफीजान, अब तो अगर तकदीर भी रास्ते में खड़ी हो जाये, तो भी मेरे कदम पीछे न हटेंगे। तुफ् है मुझ पर, अगर अपने बाप का बदला न लू! हाय वह इंसान, जिसने किसी से बदी नहीं की, जो रहम और मुरौवत का पुतला था, जो दिल का इतना साफ था कि उसे किसी का शुबहा न होता था इतनी बेदरदी से कत्ल किया जाये।

(अब्बास का प्रवेश)

अब्बास– बेशक, अब कूफ़ावालों को उनकी दग़ा की सजा दिए बगैर लौट जाना ऐसी जिल्लत हैं जिससे हमारी गर्दन हमेशा झुकी रहेगी। खुदा को जो कुछ मंजूर है, वह होगा। हम सब शहीद हो जायें, रसूल के खानदान का निशान मिट जाये, पर यहां से लौटकर हम दुनिया को अपने ऊपर हंसने का मौका न देंगे। मुझे यकीन है कि यह शरारत कूफ़ा के रईसों और सरदारों की है, जिन्हें जियाद के वादों ने दीवाना बना रखा है। आप जिस वक्त कूफ़ा में कदम रखेंगे, रियाया अपने सरदारों से मुंह फेरकर आपके कदमों पर झुकेगी और वह दिन दूर नहीं जब यजीद का नापाक सिर उसके तन से जुदा होगा। आप खुदा का नाम लेकर खेमे उखड़वाइए। अब देर करने का मौका नहीं है। हक के लिए शहीद होना वह मौत है जिसके लिए फरिश्तों की रूहें तड़पती हैं।

जैनब– भैया, मैं तुझ पर सदके। घर वापस चलो।

हुसैन– आह! अब यहां से वापस होना मेरे अख्तियार की बात नहीं है। मुझे दूर से दुश्मन की फौज का गुबार नजर आ रहा है। पुश्त की तरफ भी दुश्मन ने रास्ता रोक रखा है। दाहिने-बाएं कोसों तक बस्ती का निशान नहीं। कूफ़ा में हमें तख्त नसीब हो या तख्ता, हमारे लिए कोई दूसरा मुकाम नहीं है। अब्बास, जाकर मेरे साथियों से कह दो, मैं उन्हें खुशी से इजाज़त देता हूं, जहां जिसका जी चाहे, चला जाये। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। चलो, हम लोग खेमे उखाड़े।

दूसरा दृश्य

[संध्या का समय। हुसैन का काफिला रेगिस्तान में चला जा रहा है।]

अब्बास– अल्लाहोअकबर। वह कूफ़ा के दरख्त नज़र आने लगे।

हबीद– अभी कूफ़ा दूर है। कोई दूसरा गांव होगा।

अब्बास– रसूल पाक की कसम, फौज है। भालों की नोंके साफ नज़र आ रही हैं।

हुसैन– हां, फौज ही है। दुश्मनों ने कूफे से हमारी दावत का यह सामान भेजा है। यहीं उस टीले के करीब खेमे लगा दो। अजब नहीं कि इसी मैदान में किस्मतों का फैसला हो।

[काफिला रुक जाता हैं। खेमे गड़ने लगते हैं। बेगमें ऊंटों से उतरती हैं। दुश्मन की फौज करीब आ जाती है।]

अब्बास– खबरदार, कोई कदम आगे न रखे। यहां हज़रत हुसैन के खेमे हैं।

अली अक०– अभी जाकर इन बेअदबों की तबीह करता हूं।

हुसैन– अब्बास, पूछो, ये लोग कौन हैं, और क्या चाहते हैं?

अब्बास– (फौज से) तुम्हारा सरदार कौन हैं?

हुर– (सामने आकर) मेरा नाम हुर है। हज़रत हुसैन का गुलाम हूं।

अब्बास– दोस्त दुश्मन बनकर आए, तो वह भी दुश्मन है।

हुर– या हजरत, हाकिम के हुक्म से मजबूर हूं, बैयत से मजबूत हूं, नमक की कैद से मजबूत हूं, लेकिन दिल हुसैन ही का गुलाम है।

हुसैन– (अब्बास से) भाई, आने दो, इसकी बातों में सच्चाई की बू आती है।

हुर– या हज़रत, आपको कूफ़ावालों ने दग़ा दी है! जियाद और यजीद, दोनों आपको कत्ल करने की तैयारियां कर रहे हैं। चारों तरफ से फौजें जमा की जा रही हैं। कूफ़ा से सरदार आप से जंग करने के लिए तैयार बैठे हैं।

हुसैन– पहले यह बतलाओ कि तुम्हारे सिपाही क्यों इतने निढाल और परेशान हो रहे हैं?

हुर– या हज़रत क्या अर्ज करूं। तीन पहर से पानी का एक बूंद न मिला। प्यास के मारे सबों के दम लबों पर आ रहे हैं।

हुसैन– (अब्बास से) भैया, प्यासों की प्यास बुझानी एक सौ नमाज़ों से ज्यादा सवाब का काम है। तुम्हारे पास पानी हो, तो इन्हें पिला दो। क्या हुआ, अगर मेरे ये दुश्मन हैं, हैं तो मुसलमान– मेरे नाना के नाम पर मरनेवाले।

अब्बास– या हज़रत, आपके साथ बच्चे हैं, औरतें और पानी यहां उनका है।

हुसैन– इन्हें पानी पिला दो, मेरे बच्चों का खुदा है।

[अब्बास, अली अकबर, हबीब पानी की मशकें लाकर सिपाहियों को पानी पिलाते हैं।]

अब्बास– हुर, अब यह बतलाओ कि तुम हमसे सुलह करना चाहते हो या जंग?

हुर– हज़रत, मुझे आपसे न जंग का हुक्म दिया गया है, न सुलह का। मैं सिर्फ इसलिए भेजा गया हूं कि हज़रत को जियाद के पास ले जाऊं, और किसी दूसरी तरफ न जाने दूं।

अब्बास– इसके मानी यह हैं कि तुम जंग करना चाहते हो। हम किसी खलीफ़ा या आमिल के हुक्म के पाबंद नहीं हैं कि किसी खास तरफ जायें। मुल्क खुदा का है। हम आजादी से जहां चाहेंगे, जायेंगे। अगर हमको कोई रोकेगा, तो उसे कांटों की तरह रास्ते से हटा देंगे।

हुसैन– नमाज़ का वक्त आ गया। पहले नमाज अदा कर लें, उसके बाद और बातें होंगी। हुर, तुम मेरे साथ नमाज़ पढ़ोगे या अपनी फौज के साथ?

हुर– या हज़रत, आपके पीछे खड़े होकर नमाज अदा करने का सवाब न छोड़ूगा, चाहे मेरी फौज मुझसे जुदा क्यों न हो जाये।

तीसरा दृश्य

[संध्या का समय– नसीमा बगीचे में बैठी आहिस्ता-आहिस्ता गा रही है।]

दफ़न करने ले चले जब मेरे घर से मुझे,
काश तुम भी झांक लेते रौज़ने घर से मुझे।
सांस पूरी हो चुकी दुनिया से रुख्सत हो चुका,
तुम अब आए हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे।
क्यों उठाता है मुझे मेरी तमन्ना को निकाल,
तेरे दर तक खींच लाई थी यही घर से मुझे।
हिज्र की सब कुछ यही मूनिस था मेरा ऐ क़जा–
एक जरा रो लेने दे मिल-मिल के बिस्तर से मुझे।
याद है तस्कीन अब तक वह जमाना याद है,
जब छुड़ाया था फ़लक ने मेरे दिलवर से मुझे।

[वहब का प्रवेश। नसीमा चुप हो जाती है।]

वहब– खामोश क्यों हो गई। यही सुनकर मैं आया था।

नसीमा– मेरा गाना ख़याल है, तनहाई का मूनिस अपना दर्द क्यों सुनाऊं, जब कोई सुनना न चाहे।

बहब– नसीमा, शिकवे, करने का ह़क मेरा है, तुम इसे ज़बरदस्ती छीन लेती हो।

नसीमा– तुम मेरे हो, तुम्हारा सब कुछ मेरा है, पर मुझे इसका यकीन नहीं आता। मुझे हरदम यहीं अंदेशा रहता है कि तुम मुझे भूल जाओगे, तुम्हारा दिल मुझसे बेज़ार हो जायेगा, मुझसे बेतनाई करने लगोगे। यह ख़याल दिल से नहीं निकलता। बहुत चाहती हूं कि निकल जाये, पर वह किसी पानी से भीगी हुई बिल्ली की तरह नहीं निकलता। तब मैं रोने लगती हूं, और ग़मनाक ख़याल मुझे चारों तरफ़ से घेर लेते हैं। तुमने न-जाने मुझ पर कौन-सा जादू कर दिया है कि मैं अपनी नहीं रही। मुझे ऐसा गुमान होता है कि हमारी बहार थोड़े ही दिनों की मेहमान है। मैं तुमसे इल्तजा करती हूं कि मेरी तरफ से निगाहें न मोटी करना, वरना मेरा दिल पाश-पाश हो जायेगा। मुझे यहां आने के पहले कभी न मालूम हुआ था कि मेरा दिल इतना नाजुक है।

वहब– मेरी क़ैफ़ियत इससे ठीक उल्टी है। मेरे दिल में एक नई कूबत आ गई है, मुझे खयाल होता है अब दुनिया की कोई फ़िक्र, कोई तग़ीव, कोई आरजू मेरे दिल पर फ़तह नहीं पा सकती। ऐसी कोई ताकत नहीं है, जिसका मैं मुकाबला न कर सकूं। तुमने मेरे दिल की कूबत सौगुनी कर दी। यहां तक अब मुझे मौत का भी गम नहीं। मुहब्बत ने मुझे दिलेर, बैखौफ़, मजबूत बना दिया है, मुझे तो ऐसा गुमान होता है कि मुहब्बत कूबते-दिल की कीमिया है।

नसीमा– वहब, इन बातों से वहशत हो रही है, शायद हमारी तबाही के सामान हो रहे हैं। वहब, मैं तुम्हें न जाने दूंगी, कलाम पाक की क़सम, कहीं न जाने दूंगी। मुझे इसकी फिक्र नहीं कि कौन खलीफ़ा होता है और कौन अमीर। मुझे माल व ज़र की, इलाके व जागीर की मुतलक़ परवा नहीं। मैं तुम्हें चाहती हूं, सिर्फ तुम्हें।

[कमर का प्रवेश]

कमर– वहब, देख, दरवाजे पर जालिम जियाद के सिपाही क्या गजब कर रहे हैं। तेरे वालिद को गिरफ्तार कर लिया है और जामा मसजिद की तरफ खींचे लिए जाते हैं।

नसीमा– हाय सितम, इसीलिए तो मुझे वहसत हो रही थी।

[वहब उठ खड़ा होता है। नसीमा उसका हाथ पकड़ लेती है।]

वहब– नसीमा, मैं अभी लौटा आता हूं, तुम घबराओ नहीं।

नसीमा– नहीं-नहीं तुम यहां मुझे जिंदा छोड़कर नहीं जा सकते। मैं जियाद को जानती हूं। तुमको भी जानती हूं। जियाद के सामने जाकर फिर तुम नहीं लौट सकते।

कमर– बेटा, अगर नसीमा तुझे नहीं जाने देती, तो मत जा। मगर याद रख, तेरे चेहरे पर हमेशा के लिए स्याही का दाग़ लग जायेगा। खुद जाती हूं। नसीमा, शायद हमारी-तुम्हारी फिर मुलाकात न हो, यह आखिरी मुलाकात है। रुखसत। वहब, घर-बार तुझे सौंपा खुदा तुझे नेकी की तौफ़ीक दे, तेरी उम्र दराज़ हो।

वहब– अम्मा, मैं भी चलता हूं।

कमर– नहीं, तुझ पर अपनी बीबी का हक़ सबसे ज्यादा है।

वहब– नसीमा, खुदा के लिए…।

नसीमा– नहीं। मेरे प्यारे आक़ा, मुझे जिंदा छोड़कर नहीं।

[कमर चली जाती है। वहब सिर थामकर बैठ जाता है।]

नसीमा– प्यारे, तुम्हारी मुहब्बत की क़तावार हूँ, जो सजा चाहे दो। मुहब्बत खुदग़रज होती है। मैं अपने चमन को हवा के झोंकों से बचाना चाहती हूं। काश तकदीर ने मुझे इस गुलज़ार में न बिठाया होता, काश मैंने इस चमन में अपना घोंसला न बनाया होता, तो आज वर्क और सैयाद का इतना खौफ क्यों होता! मेरी बदौलत तुम्हें यह नदामत उठानी पड़ी काश मैं मर जाती!

[नसीमा वहब के पैरों पर सिर रख देती है।]

चौथा दृश्य

[आधी रात का समय। अब्बास हुसैन के खेमे के सामने खड़े पहरा दे रहे हैं। हुर आहिस्ता से आकर खेमे के करीब खड़ा हो जाता है।]

हुर– (दिल में) खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा? किस मुंह से रसूल के सामने जाऊंगा? आह, गुलामी तेरा बुरा हो। जिस बुजुर्ग ने हमें ईमान की रोशनी दी, खुदा की इबादत सिखाई, इंसान बनाया, उसी के बेटे से जंग करना मेरे लिये कितनी शर्म की बात है। यह मुझसे न होगा। मैं जानता हूं, यजीद मेरे खून का प्यासा हो जायेगा, मेरी जागीर छीन ली जाएगी, मेरे लड़के रोटियों के मुहताज हो जायेंगे, मगर दुनिया खोकर रसूल की निगाह का हकदार हो जाऊंगा। मुझे न मालूम था कि यजीद की बैयत लेकर मैं अपनी आक़बत बिगाड़ने पर मजबूर किया जाऊंगा। अब यह जान हज़रत हुसैन पर निसार है। जो होना है, हो। यजीद की खिलाफत पर कोई हक नहीं। मैंने उसकी बैयत लेने में खास गलती की। उसके हुक्म की पाबंदी मुझ पर फर्ज़ नहीं। खुदा के दरबार में मैं इसके लिये गुनहगार न ठहरूंगा।

[आगे बढ़ता है।]

अब्बास– कौन है? खबरदार, एक कदम आगे न बढ़े, वरना लाश जमीन पर होगी।

हुर– या हज़रत, आपका गुलाम हुर हूं। हज़रत हुसैन की खिदमत में कुछ अर्ज करना चाहता हूं।

अब्बास– इस वक्त वह आराम फरमा रहे हैं।

हुर– मेरा उनसे इसी वक्त मिलना जरूरी है।

अब्बास– (दिल में) दग़ा का अंदेशा तो नहीं मालूम होता। मैं भी इसके साथ चलता हूं। जरा भी हाथ-पांव हिलाया कि सिर उड़ा दूंगा (प्रकट) अच्छा, जाओ।

[अब्बास खेमे से बाहर हुसैन को बुला लाते है।]

हुर– या हज़रत, मुआफ कीजिएगा। मैंने आपको नावक्त तकलीफ दी। मैं यह अर्ज करने आया हूं कि आप कूफ़ा की तरफ न जाये। रात का वक्त है, मेरी फौज सो रही है, आप किसी दूसरे तरफ चले जायें। मेरी यह अर्ज कबूल कीजिए।

हुसैन– हुर, यह अपनी जान बचाने का मौका नहीं, इस्लाम की आबरू को कायम रखने का सवाल है।

हुर– आप यमन की तरफ चले जायें, तो वहां आपको काफी मदद मिलेगी। मैंने सुना है, सुलेमान और मुख्तार वहां आपकी मदद के लिये फौज जमा कर रहे हैं।

हुसैन– हुर जिस लालच ने कूफ़ा के रईसों को मुझसे फेर दिया, क्या वह यमन में अपना असर न दिखाएगा? इंसान की गफ़लत सब जगह एक-सी होती है। मेरे लिए कूफ़ा के सिवा दूसरा रास्ता नहीं है। अगर तुम न जाने दोगे, तो जबरदस्ती जाऊंगा। यह जानता हूं कि वहीं मुझे शहादत नसीब होगी। इसकी खबर मुझे नाना की जबान मुबारक से मिल चुकी है। क्या खौफ़ से शहादत के रुतबे को छोड़ दूं?

हुर– अगर आप जाना ही चाहते हैं, तो मस्तूरात को वापस कर दीजिए।

हुसैन– हाय, ऐसा मुमकिन होता, तो मुझसे ज्यादा खुश कोई न होता। मगर इनमें से कोई भी मेरा साथ छोड़ने पर तैयार नहीं है।

[किसी तरह से ऊँ ऊँ की आवाज आ रही।]

हुर– या हजरत, यह आवाज कहां से आ रही है? इसे सुनकर दिल पर रोब तारी हो रहा है।

[एक योगी भभूत रमाए, जटा बढ़ाए, मृग-चर्म कंधे पर रखे हुए आते हैं।]

योगी– भगवन्! मैं उस स्थान को जाना चाहता हूं, जहां महर्षि मुहम्मद की समाधि है।

हुसैन– तुम कौन हो? यह कैसी शक्ल बना रखी है?

योगी– साधु हूं। उस देश से आ रहा हूं, जहां प्रथम ओंकार-ध्वनि की सृष्टि हुई थी। महर्षि मुहम्मद ने उसी ध्वनि से संपूर्ण जगत को निनादित कर दिया है। उनके अद्वैतवाद ने भारत के समाधि-मग्न ऋषियों को भी जागृति प्रदान कर दी है। उसी महात्मा की समाधि का दर्शन करने के लिए मैं भारत से आया हूं, कृपा कर मुझे मार्ग बता दीजिए।

हुसैन– आइए, खुशनसीब कि आपकी जियारत हुई। रात का वक्त है अंधेरा छाया हुआ है। इस वक्त यहीं आराम कीजिए। सुबह मैं आपके साथ अपना एक आदमी भेज दूंगा।

योगी– (गौर से हुसैन के चेहरे को देखकर) नहीं महात्मन् मेरा व्रत है कि उस पावन भूमि का दर्शन किए बिना कहीं विश्राम न करूंगा। प्रभो, आपके मुखारविंद पर भी मुझे उसी महर्षि के तेज का प्रतिबिंब दिखाई देता है। आप उनके आत्मीय हैं?

हुसैन– जी हां, उनका नेवासा हूं। मगर आपने नाना को देखा ही नहीं, फिर आपको कैसे मालूम हुआ कि मेरी सूरत उनसे मिलती है?

योगी– (हंसकर) भगवन्! मैंने उनका स्थूल शरीर नहीं देखा, पर उनके आत्मशरीर का दर्शन किया है। आत्मा द्वारा उनकी पवित्र वार्ता सुनी है। में प्रत्यक्ष देख रहा हूं कि आप में वही पवित्र आत्मा अवतरित हुई है। आज्ञा दीजिए, आपके चरण-रज से अपने मस्तक को पवित्र करूं।

हुसैन– (पैरों को हटाकर) नहीं-नहीं, मैं इंसान हूं और रसूल पाक की हिदायत है कि इंसान को इंसान की इबादत वाजिब नहीं।

योगी– धन्य है! मनुष्य के ब्रह्मत्व का कितना उच्च आदर्श है! यह ज्ञान-ज्योति, जो इस देश के उद्भाषित हुई है, एक दिन समस्त भूमंडल को आलोकित करेगी, और देश-देशांतरों में सत्य और न्याय का मुख उज्जवल करेगी। हां, इस महार्षि की संतान-न्याय-गौरव का पालन करेगी। अब मुझे आज्ञा दीजिए, आपके दर्शनों से कृतार्थ हो गया।

[योगी चला जाता है]

हुसैन– अब मुझे मरने का ग़म नहीं रहा। मेरे नाना की उम्मत हक और इंसाफ की हिमायत करेगी। शायद इसीलिए रसूल ने अपनी औलाद को हक पर कुर्बान करने का फैसला किया है। हुर, तुमने इस फकीर की पेशगोई सुनी?

हुर– या हज़रत, आपका रुतबा आज जैसा समझा हूं, ऐसा कभी न समझा था। हुजूर रसूल पाक से मेरे हक़ में दुआ करें कि मुझ रूहस्याह के गुनाह मुआफ़ करें।

[चला जाता है]

हुसैन– अब्बास, अब हमें कूफ़ावालों को अपने पहुंचने की इत्तिला देनी चाहिए।

अब्बास– वजा है।

हुसैन– कौन जा सकता है?

अब्बास– सैदावी को भेज दूं?

हुसैन– बहुत अच्छी बात है।

[अब्बास सैदावी को बुला लाते हैं।]

अब्बास– सैदावी, तुम्हें हमारे पहुंचाने की खबर लेकर कूफ़ा जाना पड़ेगा। यह कहने की जरूरत नहीं कि यह बड़े खतरे का काम है।

सैदावी– या हजरत, जब आपकी मुझ पर निगाह है, तो फिर खौफ़ किस-किस बात का।

हुसैन– शाबाश, यह खत लो, और वहां किसी ऐसे सरदार को देना, जो रसूल का सच्चा बंदा हो। जाओ, खुदा तुम्हें खैरियत से ले जाये।

[सैदावी जाता है।]

हुसैन– (दिल में) सैदावी, जाते हो, मगर मुझे शक है कि तुम लौटोगे! तुमने जिसे न दीन की हिफ़ाजत का ख्याल है, न हक का, जिसे दुश्मनों ने चारों तरफ़ से घेर नहीं रखा है, जिसको शहीद करने के लिए फौजे नहीं जमा की जा रही हैं, जो दुनिया में आराम से जिंदगी बसर कर सकता है, महज वफ़ादारी का हक़ अदा करने के लिए जान-बूझकर मौत के मुंह में कदम रखा है, तो मैं मौत से क्यों डरूं।

[गाते हैं।]

मौत का क्या उसको हैं, जो मुसलमां हो गया,
जिसकी नीयत नेक हैं, जो सिदकू ईमां हो गया।
कब दिलेरों को सताए फिक्र जर और खौफ़ जो,
अज्म सादिक उसका है, जो पाक दामा हो गया।
क्यों नदामत हो मुझे, दुनिया में ग़र जिंदा रहा,
जाय ग़म क्या है, जो नज़रे-तेग़ बुर्रा हो गया।
हो अदू दुनिया में रुसवा, आखिरत में ग़म नसीब,
मुनहरिफ दीं से हुआ, औं’ नंग-दौरां हो गया।

पांचवां दृश्य

[रात का समय। हुसैन अपने खेमे में सोए हुए हैं। वह चौंक पड़ते हैं, और लेटे हुए, चौकन्नी आंखों से, इधर-उधर ताकते हैं।]

हुसैन– (दिल में) यहां तो कोई नजर नहीं आता। मैं हूं, शमा है, और मेरा धड़कता हुआ दिल है। फिर मैंने आवाज किसकी सुनी! सिर में कैसा चक्कर आ रहा है। जरूर कोई था। ख्वाब पर हकीकत का धोखा नहीं हो सकता। ख्वाब के आदमी शबनम के परदे में ढकी हुई तस्वीरों की तरह होते हैं। ख्वाब की आवाज़ें जमींन के नीचे से निकलने वाली आवाजों की तरह मालूम होती है। उनमें यह बात कहां! देखूं, कोई बाहर तो खड़ा नहीं है। (खेमे से बाहर निकलकर) उफ् कितनी गहरी तारीकी है, गोया मेरी आँखों ने कभी रोशनी देखी ही नहीं। कैसा गहरा सन्नाटा है, गोया सुनने की ताकत ही से महरूम हूं। गोया यह दुनिया अभी-अभी अदम के ग़ार से निकली है (प्रकट) कोई हैं।

[अली अकबर का प्रवेश]

अली०– हाज़िर हूं, अब्बाजान, क्या इरशाद है?

हुसैन– यहां से अभी कोई सवार तो नहीं गुजरा है?

अली०– अगर मेरे होश-हवास बजा हैं, तो इधर कोई जानदार नहीं गुजरा।

हुसैन– ताज्जुब है, अभी लेटा हुआ था, और जहां तक मुझे याद है, मेरी पलकें तक नहीं झपकीं, पर मैंने देखा, एक आदमी मुश्की घोड़े पर सवार सामने खड़े होकर मुझसे कह रहा है कि ‘ऐ हुसैन! इराक जाने की जल्दी कर रहे हो, और मौत तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ी जा रही है।’ बेटा, मालूम हो रहा है, मेरी मौत करीब है!

अली०– बाबा, क्या हम हक़ पर नहीं हैं?

हुसैन– बेशक, हम हक़ पर हैं, तो मौत का क्या डर। क्या परवा, अगर हम मौत की तरफ जायें या मौत हमारी तरफ आए।

हुसैन– बेटा, तुमने दिल खुद कर दिया। खुदा तुमको वह सबसे बड़ा इनाम दे, जो बाप बेटे को दे सकता है।

[जहीर, हबीब, अब्दुला, कलबी और उसकी स्त्री का प्रवेश।]

अली०– कौन इधर से जा रहा है?

जहीर– हम मुसाफिर हैं। ये खेमे क्या हज़रत हुसैन के हैं?

अली०– हां।

जहीर– खुदा का शुक्र है कि हम मंजिल-मक़सूद पर पहुंच गए। हम उन्हीं की जियारत के लिए कूफ़ा से आ रहे हैं।

हुसैन– जिसके लिए आप कूफ़ा से आ रहे है, वह खुद आपसे मिलने के लिए कूफ़ा जा रहा है। मैं ही हुसैन बिन अली हूं।

जहीर– हमारे जहे-नसीब कि आपकी जियारत हुई। हम सब-के-सब आपके गुलाम हैं। कूफ़ा में इस वक्त दर व दीवार आपके दुश्मन हो रहे हैं। आप उधर क़स्द न फरमाएं। हम इसलिए चले आए हैं कि वहां रहकर आपकी कुछ खिदमत नहीं कर सकते। हमने हज़रत मुसलिम के क़त्ल का खूनी नज़ारा देखा है, रानी को कत्ल होते देखा है, और गरीब तौआ की चोटियां कटते देखी है। जो लोग आपकी दोस्ती का दम भरते थे, वे आज जियाद के दाहिने बाजू बने हुए हैं।

हुसैन– खुदा उन्हें नेक रास्ते पर लाए। तकदीर मुझे कूफ़ा लिए जाती है, और अब कोई ताकत मुझे वहां जाने से रोक नहीं सकती। आप लोग चलकर आराम फरमाएं। कल का दिन मुबारक होगा, क्योंकि मैं उस मुकाम पर पहुंच जाऊंगा, जहां शहादत मेरे इंतजार में खड़ी है।

[सब जाते हैं]

छठा दृश्य

[कर्बला का मैदान। एक तरफ केरात-नदीं लहरें मार रही है। हुसैन मैदान में खड़े हैं। अब्बास और अली अकबर भी उनके साथ हैं।]

अली अकबर– दरिया के किनारे खेमे लगाए जाए, वहां ठंडी हवा आएगी।

अब्बास– बड़ी फ़िजा की जगह है।

हुसैन– (आंखों में आंसू भरे हुए) भाई, लहराते हुए दरिया को देखकर खुद-बखुद बाबा बहुत ग़मग़ीन थे। उनकी आंखों से आंसू न थमते थे। न खाना खाते थे, न सोते थे। मैंने पूछा– ‘‘या हजरत, आप क्यों इस क़दर बेताब हैं?’’ मुझे छाती से लिपटाकर बोले– ‘‘बेटा, तू मेरे बाद एक दिन यहां आएगा, उस दिन तुझे मेरे रोने का सबब मालूम होगा। आज मुझे उनकी वह बात याद आती है। उनका रोना बेसबब नहीं था। इसी जगह हमारे खून बहाए जायेंगे, इसी जगह हमारी बहनें और बेटियां, कैद की जाएंगी, इसी जगह हमारे आदमी कत्ल होंगे, और हम जिल्लत उठाएंगे। खुदा की क़सम, इसी जगह मेरी गर्दन की रगें कटेंगी और मेरी दाढ़ी खून में रंगी जायेगी। इसी जगह का वादा मेरे नाना से अल्लाहताला ने किया है, और उसका वादा तक़दीर की तहरीर है।

[गाते हैं।]

देगा जगह कोई मुश्ते गुबार को,
बैठेगा कौन लेके किसी बेकरार को।
दर सैकड़ों कफ़स में हैं, फिर भी असीर हूं,
कैसा मकां मिला है, गरीबे-दबार को।
दिल-सौज कौन है, जो न जाने के जुल्म से,
देखे मेरी बुझी हुई शमए-मज़ार को।
आखिर है दास्तान शबे-ग़म कि बाग मर्ग,
करता है बंद दीदए-अख्तर शुमार को।
आवाज ए-चमन की उम्मीद और मेरे बाद–
चुप कर दिया फ़लक ने ज़बाने-बहार को।
राहत कहां नसीब कि सहराए-गम को धूप,
देती है आग हर शजरे शायादार को।
खुद आसमां को नक्शे-वफा से है दुश्मनी,
तुम क्यों मिटा रहे हो निशाने-मजार को।
इस हादिसे से कबूल कि मैं फिर कुछ न कह सकूं,
सुन लो बयान हाले-दिले बेकरार को।

[जैनब खेमे से बाहर निकल आती है।]

जैनब– भैया, यह कौन-सा सहरा है कि इसे देखकर खौफ से कलेजा मुंह को आ रहा है। बानू बहुत घबराई हुई है, और असगर छाती से मुंह नहीं लगाता।

हुसैन– बहन! यही कर्बला का मैदान है।

जैनब– (दोनों हाथों से सिर पीटकर) भैया, मेरी आंखों के तारे, तुम पर मेरी जान निसार हो। हमें तक़दीर ने यहां कहां लाके छोड़ा, क्यों कहीं और चलते?

हुसैम– बहन, कहां जाऊं? चारो तरफ से नाके बंद हैं। जियाद का हुक्म कि मेरा लश्कर यहीं उतरे। मजबूत हूं, लड़ाई में बहस नहीं करना चाहता।

जैनब– हाय भैया! यह बड़ी मनहूस जगह है। मुझे लड़कपन से यहां की खबर है। हाय भैया! इस जगह तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे। मैं बैठी देखूंगी, और तुम बर्छियां खाओगे। मुझे मदीने भी न पहुंचा सकोगे? रसून की औलाद यहीं तबाह होगी, उनकी नामूस यहीं लूटेगी। हाय तकदीर!

इस दश्त में तुम मुझसे बिछुड़ जाओगे भाई,
गर खाक भी छानूं तो न हाथ आवेगा भाई।
बहनों को मदीने में न पहुंचाओगे भाई,
मैं देखूंगी और बरछिया तुम खाओगे भाई।
औलाद से बानू की यह छूटने की जगह है,
नामूसे-नबी की यही लूटने की जगह है।

[बेहोश हो जाती हैं। लोग पानी के छींटे देते हैं]

अली अक०– या हजरत, खेमे कहां लगाए जाये?

अब्बास– मेरी सलाह तो है कि दरिया के किनारे लगें।

हुसैन– नहीं, भैया, दुश्मन हमें दरिया के किनारे न उतरने देंगे। इसी मैदान में खेमे लगाओ, खुदा यहां भी है, और वहां भी। उसकी मर्जी पूरी होकर रहेगी।

[जैनब को औरतें उठाकर खेमे में ले जाती हैं।]

बानू– हाय-हाय! बाजीजान को क्या हो गया। या खुदा हम मुसीबत के मारे हुए हैं, हमारे हाल पर रहम कर।

हुसैन– बानू, यह मेरी बहन नहीं, मां है। अगर इस्लाम में बुतपरस्ती हराम न होती, तो मैं इसकी इबादत करता। यह मेरे खानदान का रोशन सितारा है। मुझ-सा खुशनसीब भाई दुनिया में और कौन होगा, जिसे खुदा ने ऐसी बहन अता की। जैनब के मुंह पर पानी के छींटे देते हैं।

सातवां दृश्य

[नसीमा अपने कमरे में अकेली बैठी हुई है– समय १२ बजे रात का।]

नसीमा– (दिल में) वह अब तक नहीं आए। गुलाम को उन्हें साथ लाने के लिए भेजा, वह भी वहीं का हो रहा। खुदा करे, वह आते हों। दुनिया में रहते हुए हमारे ऊपर मुल्क की हालात का असर न पड़े। मुहल्ले में आग लगी हो तो अपना दरवाजा बंद करके बैठ रहना खतरे से नहीं बचा सकता। मैंने अपने तई इन झगड़ों से कितना बचाया था, यहां तक कि अब्बाजान और अम्मा जो यजीद की बैयत न कबूल करने के जुर्म में जलावतन कर दिए गए, तब भी मैं अपना दरवाजा बंद किए बैठी रही, पर कोई तदबीर कारगर न हुई। बैयत की बला फिर गले पड़ी। वहब मेरे लिए सब कुछ करने को तैयार है। वह यजीद की बैयत भी कबूल कर लेता, चाहें उसके दिल को कितना ही सदमा हो। पर जो कुछ हो रहा है, उसे देखकर अब मेरा दिन भी यजीद की बैयत की तरफ मायल नहीं होता, उससे नफ़रत होती है। मुसलिम कितनी बेदरदी से कत्ल किए गए हानी को जालिम ने किस बुरी तरह कत्ल कराया। यह सब देखकर अगर यजीद की बैयत कबूल कर लूं, तो शायद मेरा जमीर मुझे कभी मुआफ न करेगा। हमेशा पहलू में खलिश होती रहेगी। आह! इस खलिश को भी सह सकती हूँ, पर वहब की रूहानी कोफ्त अब नहीं सही जाती। मैंने उन पर बहुत जुलम किए। अब उनकी मुहब्बत की जंजीर को और न खींचूंगी। जिस दिन से अब्बा और अम्मा निकाले गए हैं, मैंने वहब को कभी दिल से खुश नहीं देखा। उनकी वह जिंदादिली गायब हो गई। यों वह अब भी मेरे साथ हंसते हैं, गाते हैं, पर मैं जानती हूं, यह मेरी दिलजुई है। मैं उन्हें जब अकेले बैठे देखती हूं, तो वह उदास और बेचैन नजर आते हैं…वह आ गए, चलूं दरवाजा खोल दूं।

[जाकर दरवाजा खोल देती है। वहब अंदर दाखिल होता है।]

नसीमा– तुम आ गए, वरना मैं खुद आती। तबियत बहुत घबरा रही थी। गुलाम कहां रह गया?

वहब– क़त्ल कर दिया गया। नसीमा, मैंने किसी को इतनी दिलेरी से जान लेते नहीं देखा। इतनी लापरवाही से कोई कुत्ते के सामने लुकमा भी न फेंकता होगा। मैं तो समझता हूं, वह कोई औलिया था।

नसीमा– हाय, मेरे वफ़ादार और गरीब सालिम! खुदा तुझे जन्नत नसीब करे। जालियों ने उसे क्यों क़त्ल किया?

वहब– आह! मेरे ही कारण उस गरीब की जान गई। जामा मसजिद में हजारों आदमी जमा थे। खबर है, और तहकीक खबर है कि हज़रत हुसैन मक्के से बैयत लेने आ रहे हैं। जालिमों के होश उड़े हुए हैं। जो पहले बच रहे थे, उनसे अब यजीद की खिलाफत का हलफ़ लिया जा रहा है। जियाद ने जब मुझसे हलफ़ लेने को कहा, तो मैं राजी हो गया। इनकार करता तो उसी वक्त कैदखाने में डाल दिया जाता। जियाद ने खुश होकर मेरी तारीफ की, और यजीद के हामियों की सफ़ में ऊंचे दर्जे पर बिठाया, जागरीर में इजाफ़ा किया, और कोई मंसब भी देना चाहते हैं। उसकी मंशा यह भी है कि सब हामियों को एक सफ़ में बिठाकर एकबारगी सबसे हलफ़ ले लिया जाये इसीलिये मुझे देर हो रही थी। इसी असना में सालिम पहुंचा, और मुझे यजीदवालों की सफ़ में बैठे देखकर मुझसे बदजबानी करने लगा। मुझे दग़ाबाज जमानासाज बेशर्म, खुदा जाने, क्या-क्या कहा, और उसी जोश में यजीद और जियाद दोनों ही को शान में बेअदबी की। मुझे ताना देता हुआ बोला, मैं आज तुम्हारे नमक की कैद से आजाद हो गया। मुझे कत्ल होना मंजूर हैं मगर ऐसे आदमी की गुलामी मंजूर नहीं, जो खुद दूसरों का गुलाम है। जियाद ने हुक्म दिया– इस बदमाश की गर्दन मार दो और, जल्लादों ने वहीं सहन में उसको कल्ल कर डाला। हाय! मेरी आंखों के सामने उसकी जान ली गई, और मैं उसके हक़ में जबान तक न खोल सका, उसकी तड़पती हुई लाश मेरी आंखों के सामने घसीटकर कुत्तों के आगे डाल दी गई, और मेरे खून में जोश न आया। आफियत बड़े मंहगे दामों में मिलती है।

नसीमा– बेशक, महंगे दाम हैं। तुमने अभी बैयत तो नहीं ली?

वहब– अभी नहीं, बहुत देर हो गई, लोगों की तादाद बढ़ती जाती थी आखिर आज हलफ़ लेना मुल्तवी किया गया। कल फिर सबकी तलबी है।

नसीमा– तुम इन जालिमों को बैयत हर्गिज न लेना।

वहब– नहीं नसीमा, अब उसका मौका निकल गया।

नसीमा– मैं तुमसे मिन्नत करती हूं हर्गिज न लेना।

वहब– तुम मेरी दिलजूई के लिए अपने ऊपर जब्र कर रही हो।

नसीमा– नहीं वहब, अगर तुम दिल से भी बैयत कबूल करनी चाहो, तो मैं खुश न हूंगी। में भी इंसान हूं वहब, निरी भेड़ नहीं हूं। मेरे दिल के जज़बात मुर्दा नहीं हुए है। मैं तुम्हें इन जालिमों के सामने सिर न झुकाने दूंगी। जानती हूं जागरी जब्त हो जायेगी,. वजीफ़ा बंद हो जायेगा, जलावतन कर दिए जायेंगे। मैं तुम्हारे साथ ये सारी आफ़तें झेल लूंगी।

वहब– और अगर जालिमों ने इतने ही पर बस न की?

नसीमा– आह वहब, अगर यह होना है, तो खुदा के लिए इसी वक्त यहां से चले चलो। किसी सामान की जरूरत नहीं। इसी तरह, इन्हीं पांवों चलो। यहां से दूर किसी दरख्त के साए में बैठकर दिन काट दूंगी, पर इन जालिमों की खुशामद न करूंगी।

बहब– (नसीमा को गले लगाकर) नसीमा, मेरी जान तुझ पर फ़िदा हो। जालिमों की सख्ती मेरे हक में अकसीर हो गई। अब उस जुल्म से मुझे कोई शिकायत नहीं। हमारे जिस्म बारहा गले मिल चुके है, आज हमारी रूहें गले मिली हैं, मगर इस वक्त नाके बंद होंगे।

नसीमा– जालिमों के नौकर बहुत ईमानदार नहीं होते। मैं उसे 50 दीनार दूंगी, और वहीं हमें अपने घोड़े पर सवार कराके शहर पहुंचा देगा। वहब– सोच लो, बागियों के साथ किसी की रू-रियासत नहीं हो सकती उनकी एक ही सजा है, और वह है कत्ल।

नसीमा– वहब, इंसान के दिल की क़ैफियत हमेशा एक-सी-नहीं रहती। केंचुए से डरने वाला आदमी सांप की गर्दन पकड़ लेता है। ऐश के वंदे गुदड़ियों में मस्त हो जाते हैं। मैंने समझा था, जो खतरा है, घोंसलों से बाहर निकलने में है, अंदर बैठे रहने में आराम-ही-आराम है। पर अब मालूम हुआ कि सैयाद के हाथ घोंसले के बाहर निकलने में है, अंदर बैठे रहने में आराम-ही-आराम है। पर अब मालूम हुआ कि सैयाद के हाथ घोंसले के अंदर भी पहुंच जाते हैं। हमारी नजात जमाना से भागने में नहीं, उसका मुकाबला करने में है। तुम्हारी सोहबत ने, मुल्क की हालत ने, क़ौम के रईसों और अमीरों की पस्ती ने मुझ पर रोशन कर दिया कि यहां इतमीनान के मानी ईमान-फ़रोशी और आफ़ियत के मानी हक़कुशी हैं। ईमान और हक़ की हिफ़ाजत असली आफ़ियत और इतमीनान है। शायद ने खूब कहा है–

लुफ्त मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में,
कुछ अगर है, तो यही खूने-जिगर पीने में।

वहब– मुआफ करो नसीमा, मैंने तुम्हें पहचानने में गलती की। चलो, सफ़र का सामान करें।

चौथा अंक

पहला दृश्य

[प्रातःकाल का समय। जियाद फर्श पर बैठा हुआ सोच रहा है।]

जियाद– (स्वगत) उस वफ़ादारी की क्या कीमत है, जो महज जबान तक महदूद रहें? कूफ़ा के सभी सरदार, जो मुसलिम बिन अकील से जंग करते वक्त बग़लें झांक रहे हैं। कोई इस मुहिम को अंजाम देने का बीडा नहीं उठाता। आकबत और नजात की आड़ में सब-के-सब पनाह ले रहे हैं। क्या अक्ल है, जो दुनिया को अकबा की ख़याली नियामतों पर कुर्बान कर देती है। मजहब! तेरे नाम पर कितनी हिमाकतें सबाब समझी जाती हैं, तूने इंसान को कितना बातिन-परस्त, कितना कम हिम्मत बना दिया है!

[उमर साद का प्रवेश]

साद– अस्सलामअलेक या अमीर, आपने क्यों याद फ़रमाया?

जियाद– तुमसे एक खास मामले में सलाह लेनी है। तुम्हें मालूम हैं, ‘रै’ कितना ज़रखेज, आबाद और सेहतपरवर सूबा है?

साद– खूब जानता हूं, हुजूर, वहां कुछ दिनों रहा हूं, सारा सूबा मेवे के बागों और पहाड़ी चश्मों में गुलजार बना हुआ है। बाशिदें निहायत खलीक और मिलनसार। बीमार आदमी वहां जाकर तवाना हो जाता है!

जियाद– मेरी तजवीज है कि तुम्हें उस सूबे का आमिल बनाऊं। मंजूर करोगे?

साद– (बंदगी करके) सिर और आंखों से। इस क़द्रदानी के लिये क़यामत तक शुक्रगुजार रहूंगा।

जियाद– माकूल सालाना, मुशाहरे के अलावा तुम्हें घोड़े नौकर, गुलाम सरकार की तरफ से मिलेंगे।

साद– ऐन बंदानवाजी है। खुदा आपको हमेशा खुशखर्रर रखे।

जियाद– तो मैं मुंशी को हुक्म देता हूं कि तुम्हारे नाम फ़रमान जारी कर दे, और तुम वहां जाकर काम संभालो।

साद– गुलाम हमेशा आपका मशकूर रहेगा।

जियाद– मुझे यकीन है, तुम उतने ही कारगुज़ार और वफ़ादार साबित होगे, जैसी मुझे तुम्हारी जात से उम्मीद है।

[मीर मुंशी को बुलाता है, वह साद के नाम फ़रमान लिखता है।]

साद– (फ़रमान लेकर) तो मैं कल चला जाऊं?

जियाद– नहीं-नहीं इतना जल्द नहीं। वहां जाने के पहले तुम्हें अपनी वफ़ादारी का सबूत देना पड़ेगा। इतना ऊंचा मंसब उसी को दिया जा सकता है, जो हमारा एतबार हासिल कर सके। यह किसी बड़ी खिदमत का सिला होगा।

साद– मैं हर एक खिदमत के लिये दिलोजान से हाजिर हूं। जिस मुहिम को और कोई अंजाम न दे सकता हो, उस पर मुझे भेज दीजिए। खुदा ने चाहा, तो कामयाब होकर आऊंगा।

जियाद– बेशक-बेशक, मुझे तुम्हारी जात से ऐसी ही उम्मीद है। तुम्हें मालूम है, हुसैन बिन अली कूफ़े की तरफ़ आ रहे हैं। हमको उनकी तरफ से बहुत अंदेशा है। तुमको उनसे जंग करने के लिये जाना होगा। उधर से हमें बेफ़िक्र करके फिर ‘रै’ की हुकूमत पर जाना।

साद– या अमीर, आप मुझे इस मुहिम पर जाने से मुआफ़ रखे, इसके सिवा आप जो हुक्म देंगे, उसकी तामिल में मुझे जरा भी उज्र न होगा।

जियाद– क्या, हुसैन से जंग करने में तुम्हें क्या उज्र है?

साद– आपका गुलाम हूं, लेकिन हुसैन के मुकाबले से मुझे मुआफ़ रखे, तो आपका हमेशा एहसान मानूंगा।

जियाद– बेहतर है, तुम्हारी जगह किसी और को भेजूंगा। फ़रमान वापस देकर घर बैठ जाओ। ‘रै’ का इलाका उसी आदमी का हक़ है, जो इस मुहिम को अंजाम दे। मौत के बग़ैर जन्नत नसीब नहीं हो सकती। जो आदमी एक पैर दीन की किश्ती में रखता है, दूसरा पैर दुनिया की किश्ती में, उसे कभी साहिल पर पहुंचना नसीब न होगा।

साद– (दिल में) एक तरफ़ ‘रै’ का इलाक़ा है, दूसरी तरफ़ नजात; एक तरफ दौलत और हुकूमत है, दूसरी तरफ़ लामत और अजाब! खुदा! मेरी तकदीर में क्या लिखा। है (प्रकट) या अमीर, मुझे एक दिन की मुहलत दीजिए। मैं कल इस मामले पर गौर करके आपको जवाब दूंगा।

जियाद– अच्छी बात है। सोच लो।

[दोनों चले जाते हैं।]

दूसरा दृश्य

[प्रातःकाल का समय। साद का मकान। साद बैठा हुआ है।]

साद– (मन में) यार दोस्त, अपने बेगाने, अजीज, सब मुझे हुसैन के मुकाबले पर जाने से मना करते हैं। बीबी कहती है, अगर तेरे पास दुनिया में कुछ भी बाकी न रहे, तो इससे बेहतर है कि तू हुसैन का खून अपनी गर्दन पर ले। आज मैंने जियाद को जवाब देने का वादा किया है। सारी रात सोचते गुजर गई, और अभी तक कुछ फैसला न कर सका। अजीज दोफ़स्ले पड़ा हुआ हूं। अपना दिल भी हुसैन के क़त्ल पर आमादा नहीं होता। गो मैंने यजीद के हाथों पर बैयत की। पर हुसैन से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है। कितना दीनदार, कितना बेलौस आदमी है। हमी ने उन्हें यहां बुलाया, बार-बार खत और क़ासिद भेजे, और आज जब वह यहां हमारी मदद करने आ रहे हैं, तो हम उनको जान लेने पर तैयार है हाय खुदग़रजी! तेरा बुरा हो, तेरे सामने दीन-ईमान, नेक-बद की तरफ़ से आँखें बंद हो जाती है। कितना गुनाहे-अजीम है। अपने रसूल के नवासे की गर्दन पर तलवार चलाना! खुदा न करे, मैं इतना गुमराह हो जाऊं। ‘रै’ का सूबा कितना जरखे़ज है। वहां थोड़े दिन भी रह गया, तो मालामाल हो जाऊंगा। कितनी शान से बसर होगी। तुफ् है मुझ पर, जो अपनी शान और हुकूमत के लिये बड़े-से-बड़े गुनाह करने का इरादा कर रहा हूं। नहीं, मुझसे यह फ़ेल न होगा। ‘रै’ जन्नत ही सही, पर फ़र्जन्दे-रसूल का खून करके मुझे जन्नत में जाना भी मंजूर नहीं।

[जियाद का प्रवेश।]

साद– अस्सलामअलेक। अमीर जियाद, मैं तो खुद ही हाजिर होनेवाला था। आपने नाहक़ तकलीफ की।

जियाद– शहर का दौरा करने निकला था। बागियों पर इस वक्त बहुत सख्त निगाह रखने की जरूरत है। मुझे मालूम हुआ है कि हबीब, जहीर, अब्दुलाह वगै़रा छिपकर हुसैन के लश्कर में दाखिल हो गए है। इसकी रोकथाम न की गई, जो बाग़ी शेर हो जायेंगे। हुसैन के साथ आदमी थोड़े हैं, पर मुझे ताज्जुब होगा, अगर यहां आते-आते उनके साथ आधा शहर हो जाये। शेर पिंजरे में भी हो तो, भी उससे डरना चाहिए। रसूल का नाती फौज का मुहताज नहीं रह सकता। कहो, तुमने क्या फैसला किया? मैं अब ज्यादा इंतजार नहीं कर सकता।

साद– या अमीर, हुसैन के मुकाबले के लिये न तो अपना दिल ही गवाही देता है, और न घरवालों की सलाह होती है। आपने मुझे ‘रै’ की निज़ामत अता की है, इसके लिये आपको अपनी मुरब्बी समझता हूं। मगर क़त्ले-हुसैन के वास्ते मुझे न भेजिए।

जियाद– साद, दुनिया में कोई खुशी बगै़र तकलीफ के नहीं हासिल होती। शहद के साथ मक्खी के डंक का जहर भी है। तुम शहद का मजा उठाना चाहते हो, मगर डंक की तकलीफ नहीं उठाना चाहते। बिना मौत की तकलीफ उठाए जन्नत में जाना चाहते हो। तुम्हें मजबूर नहीं करता। इस इनाम पर हुसैन से जंग करने के लिये आदमियों की कमी नहीं है। मुझे फ़रमान वापस दे दो, और आराम से घर बैठकर रसूल और खुदा की इबादत करो।

साद– या अमीर! सोचिए, इस हालत में मेरी कितनी बदनामी होगी। सारे शहर में खबर फैल गई कि मैं ‘रै’ का नाज़िम बनाया गया हूं। मेरे यार-दोस्त मुझे मुबारकबाद दे चुके। अब जो मुझसे फ़रमान ले लिया जायया, तो लोग दिल में क्या कहेंगे?

जियाद– यह सवाल तो तुम्हें अपने दिल से पूछना चाहिए।

साद– या अमीर मुझे कुछ और मुहलत दीजिए।

जियाद– तुम इस तरह टाल-मटोल करके देर करना चाहते हो। कलाम पाक की कसम है, अब मैं तुम्हारे साथ ज्यादा सख्ती से पेश आऊंगा। अगर शाम को हुसैन से जंग करने के लिये तैयार होकर न आए, तो तेरी जायदाद जब्त कर लूंगा, तेरा घर लुटवा दूंगा, यह मकान पामाल हो जायेगा, और तेरी जान की भी खैरियत नहीं।

[जियाद का प्रस्थान]

साद– (दिल में) मालूम होता है, मेरी तकदीर में रूस्याह होना ही लिखा है। अब महज़ ‘रै’ की निजामत का सवाल है। अब अपनी जायदाद और जान का सवाल है। इस जालिम ने हानी को कितनी बेरहमी से कत्ल किया। कसीर का भी अपनी अईनपरवरी की गिरां कीमत देनी पड़ी। शहरवालों ने जबान तक न हिलाई। वह तो महज हुसैन के अजीज थे। यह मामला उससे कहीं नाजुक है। जियाद बेरहम हो जायेगा, तो जो कुछ न कर गुजरे, वह थोड़ा है। मैं ‘रै’ को ईमान पर कुर्बान कर सकता हूं, पर जान और जायदाद को नहीं कुरबान कर सकता। काश मुझसे हानी और कसीर की-सी हिम्मत होती।

[शिमर का प्रवेश]

शिमर– अस्सलामअलेक। साद, किस फिक्र में बैठे हो, जियाद को तुमने क्या जवाब दिया?

साद– दिल हुसैन के मुकाबले पर राजी नहीं होना।

शिमर– सरवत और दौलत हासिल करने का ऐसा सुनहरा मौका फिर हाथ न आएगा। ऐसे मौके जिदंगी में बार-बार नहीं आते।

साद– नजात कैसे होगी?

शिमर– खुदा रहीम है, करीम है, उसकी जात से कुछ बईद नहीं। गुनाहों को माफ न करता, तो रहीम क्यों कहलाता? हम गुनाह न करें, तो वह माफ क्या करेगा?

साद– खुदा ऐसे बड़े गुनाह को माफ न करेगा।

शिमर– अगर खुदा की जात से यह एतकाद उठ जाये, तो मैं आज मुसलमान न रहूं। यह रोजा और नजाम या ज़कात और खैरात, किस मर्ज़ की दवा है, अगर हमारे गुनाहों को भी माफ़ न करा सके।

साद– रसूले-खुदा को क्या मुंह दिखाऊंगा?

शिमर– साद, तुम समझते हो, हम अपनी मर्जी के मुख्तार हैं, यह यक़ीदा बातिल है। सब-के-सब हुक्म के बंदे हैं। उसकी मर्जी के बगैर हम अपनी उंगली को भी नहीं हिला सकते। सबाब और अज़ाब का यहां सवाल ही नहीं रहता। अक्लमंद आदमी उधार के लिये नकद को नहीं छोड़ता। ताखीर मत करो, वरना फिर हाथ मलोगे।

[शिमर चला जाता है।]

साद– (दिल में) शिमर ने बहुत माकूल बातें कहीं। बेशक खुदा अपने बंदों के गुनाहों को माफ करेगा, वरना हिसाब के दिन दोज़ख में गुनाहगारों के खड़े होने की जगह भी न मिलेगी। मैं जाहिद खुदा की यही मरजी है कि हुसैन के मुकाबले पर मैं जाऊं, वरना जियाद यह तजवीज़ ही क्यों करता। जब खुदा की यही मर्जी है, तो मुझे सिर झुकाने के सिवा और क्या चारा है। अब जो होना हो, सो हो– आग में कूद पडा, जलूं या बचूं।

[गुलाम को बुलाकर जियाद के नाम अपनी मंजूरी का खत लिखता है।]

गुलाम– शायद हुजूर ने ‘रै’ की निजामत कबूल कर ली है

साद– जा, तुझे इन बातों से क्या मतलब।

गुलाम– मैं पहले ही से जानता था कि आप यही फैसला करेंगे।

साद– तुझे क्योंकर इसका इल्म था?

गुलाब– मैं खुद इस मंसब को न छोड़ता, चाहे इसके लिये कितना ही जुल्म करना पड़ता।

साद– (दिल में) जालिम कैसी पते की बात कहता है।

[गुलाम चला जाता है, और साद गाने लगता है।]

कोई तुमसे जुदा दर्दे-जुदाई लेके बैठा है,
वह अपने घर में अब अपनी कमाई लेके बैठा है।
जिगर, दिल, जान, ईमां अब कहां तक नाम ले कोई,
वह जालिम सैकड़ों चीजें पराई लेके बैठा है।
खुदा ही है मेरी तौबा का, जब साक़ी कहे मुझसे–
अरे, पी भी, कहां की पारसाई लेके बैठा है।
तेरे काटे शबे-गम मेरी बरसों से नहीं कटती,
तो फिर तू ऐ खुदा, नाहक खुदाई लेके बैठा है।
कहूं कुछ मैं, तो मुंह फेरकर कहता है औरों से–
खुदा जाने, यह कब की आशनाई लेके बैठा है।
अमल कुछ चल गया है शौक़ पर ज़ाहिद का ऐ यारो,
कि मस्जिद में पुरानी एक चटाई लेके बैठा है।

तीसरा दृश्य

[केरात-नदी के किनारे साद का लश्कर पड़ा हुआ है। केरात से दो मील के फासले पर कर्बला के मैदान में हुसैन का लश्कर है। केरात और हुसैन के लश्कर के बीच में साद ने एक लश्कर को नदी के पानी को रोकने के लिये पहरा को बैठा दिया है। प्रातःकाल का समय। शिमर और साद खेमे में बैठे हुए हैं।]

साद– मेरा दिल अभी तक हुसैन से जंग करने को तैयार नहीं होता। चाहता हूं, किसी तरीके से सुलह हो जाये, मगर तीन कासिदों में से एक भी मेरे खत का जवाब न ला सका। एक तो हज़रत हुसैन के पास जा ही न सका, दूसरा शर्म के मारे रास्ते ही से किसी तरह खिसक गया, और तीसरे से जाकर हुसैन की बैयत अख्तियार कर ली। अब और कासिदों को भेजते हुए डरता हूं कि इनका भी वही हाल न हो।

शिमर– ज़ियाद को ये बातें मालूम होंगी, तो आपसे सख्त नाराज होगा।

साद– मुझे बार-बार यही ख्याल आता है कि हुसैन यहां जंग के इरादे से नहीं, महज हम लोगों के बुलाने से आए हैं। उन्हें बुलाकर उनसे दग़ा करना इंसानियत के खिलाफ़ मालूम होता है।

शिमर– मुझे खौफ़ है कि आपके ताखीर से नाराज होकर, जियाद आपको वापस न बुला लें। फिर उनके गुस्से से खुदा ही बचाए। जियाद ने कितनी सख्त ताकीद की थी कि हुसैन के लश्कर को पानी का एक बूंद भी न मिले। वहां उनके आदमी दरिया से पानी ले जाते है, कुएं खोदते हैं। इधर से कोई रोक-टोक नहीं होती। क्या आप समझते हैं कि जियाद से ये बातें छिपी होंगी।

साद– मालूम नहीं, कौन उसके पास ये सब खबरें भेजता रहता है?

शिमर– उसने यहां अपने कितने गोंइदे बिठा रखे हैं, जो दम-दम की खबरें भेज देते हैं।

[एक कासिद का प्रवेश]

कासिद– अस्सलामअलेक बिन साद। अमीर का हुक्मनामा लाया हूं।

[साद को जियाद का खत देता है।]

साद– (खत पढ़कर) तुम बाहर बैठो, इस जवाब दिया जायेगा। (कासिद चला जाता है) इसमें भी वही ताकीद है कि हुसैन को पानी मत लेने दो, जंग करने में एक लहमें की देर न करो। देखिए, लिखते हैं–

‘‘हुसैन से जंग करने के लिये अब कोई बहाना नहीं रहा। फौज की कमी की शिकायत थी, सो वह भी नहीं रही। अब मेरे पास २२ हजार सवार और पैदल मौजूद हैं।’’

शिमर– बेशक, उनका लिखना वाजिब है। मैं जाकर सख्त हुक्म देता हूं कि हुसैन के लश्कर की एक चिड़िया भी दरिया के किनारे न आने पाए। आप जंग का हुक्म दे दें।

साद– आपको मालूम है, २२ हजार आदमियों में कितने अजाब के खौफ़ से भाग गए, और रोज भागते जाते हैं।

शिमर– इसीलिये तो और भी जरूरी है कि जंग शुरू कर दी जाये, वरना रफ्ता-रफ्ता यह सारी फौज बादलों की तरह गायब हो जायेगी। पर मैंने सुना है, जियाद ने उन सब आदमियों को गिरफ्तार कर लिया है, और बहुत जल्द वे सब फौज में आ जायेंगे। पर यह हुक्म भी जारी कर दिया है कि जो आदमी फौज से भागेगा, उसकी जायदाद छीन ली जायेगी, और उसे खानदान के साथ जलावतन कर दिया जायेगा, इस हुक्म का लोगों पर अच्छा असर पड़ा है। अब उम्मीद नहीं कि भागने की कोई हिम्मत करे। मुझे यह भी खबर मिली है कि जियाद ने कई आदमियों को कत्ल करा दिया है।

[एक और कासिद का प्रवेश]

कासिद– अस्सलामअलेक बिन साद। हजरत हुसैन ने यह खत भेजा है, और उसका जवाब तलब किया है। (साद को खत देता है।)

साद– (खत पढ़कर) बाहर जाकर बैठो। अभी जवाब मिलेगा।

शिमर– (खत पर झुककर) इसमें क्या लिखा है?

साद– (खत को बंद करके) कुछ नहीं, यही लिखा है कि मैं तुमसे मिलना चाहता हूं।

शिमर– यह उनकी नई चाल है। कमाल पाक की कसम, आप उनकी दरख्वास्त मानकर पछताएंगे। आपको फौज में फिर आना नसीब न होगा।

साद– क्या तुम्हारा यह मतलब है कि हुसैन मुझसे दग़ा करेगे? अली का बेटा दग़ा नहीं कर सकता।

शिमर– यह मेरा मतलब नहीं। यहां से बच निकलने की कोई तज़वीज पेश करना चाहते होंगे। उनकी जबान में जादू का असर है, ऐसा न हो कि वह आपको चकमा दे। क्या हर्ज है, अगर मैं भी आपके साथ चलूं?

साद– मैं समझता हूं कि मैं अपने दीन और दुनिया की हिफ़ाजत खुद कर सकता हूं। मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं।

शिमर– आपको अख्तियार है। कम-से-कम मेरी इतनी सलाह तो मान ही लीजिएगा कि अपने थोड़े-से चुने हुए आदमी लेते जाइएगा।

साद– यह मेरा जाती मामला है, जैसा मुनासिब समझूंगा, करूंगा।

[कासिद को बुलाकर खत का जवाब देता है]

शिमर– रात का वक्त लिखा है न?

साद– इतना तो तुम्हें खुद समझ लेना चाहिए था।

शिमर– (जाने के लिये खड़ा होकर) मेरी बात का जरूर ख़याल रखिएगा। (दिल में) इसके अंदाज से मालूम होता है कि हुसैन की बातों में आ जायेगा। जियाद के पास खुद जाकर यह किस्सा कहूं।

साद– (दिल में) खुदा तुझसे समझे जालिम? तू जियाद से भी दो अंगुल बढ़ा हुआ है। शायद मेरा यह कयात गलत नहीं है कि तू ही जियाद को यहां के हालात की इत्तिला देता है। हुसैन दग़ा करेंगे! हुसैन दग़ा करने वालों में नहीं, दग़ा का शिकार होने वालों में है।

[उठकर अंदर चला जाता है]

चौथा दृश्य

[हुसैन के हरम की औरतें बैठी हुई बातें कर रही हैं। शाम का वक्त।]

सुगरा– अम्मा, बडी प्यास लगी है।

अली असगर– पानी, बूआ पानी।

हंफ़ा– कुर्बान गई, बेटे कितना पानी पियोगे? अभी लाई (मश्को को जाकर देखती है, और छाती पीटती लौटती है) ऐ कुरबान गई बीबी, कहीं एक बूंद पानी नहीं। बच्चों को क्या पिलाऊं?

जैनब– क्या बिलकुल पानी गायब हो गया?

हंफ़ा– ऐ कुरबान गई बीबी, सारे मटके और मशकें खाली पड़ी हुई हैं।

जैनब– गजब हो गया। नदी तो बंद ही थी, अब जालिम कुएं भी नहीं खोदने देते।

असगर– पानी, बूआ पानी!

शहरबानू– या खुदा! किस आवाज में फंसे। इन नन्हों को कैसे समझाऊं!

हंफ़ा– बीबी, कुरबान जाऊं। मैं जाकर दरिया से पानी लाती हूं। कौन मुआ रोकेगा, मुंह झुलस दूं उसका। क्या मेरे लाल प्यासों तड़पेंगे, जब दरिया में पानी भरा हुआ है?

जैनब– तू नहीं जानती, साढे छः हजार जवान दरिया का पानी रोकने के लिए तैनात हैं?

हंफ़ा– ऐ कुरबान जाऊं बीवी, कौन मुझसे बोलेगा, झाड़ न मारूंगी। रसूल के बेटे प्यासे रहेंगे?

[हंफ़ा एक मशक लेकर दरिया की तरफ़ जाती है और थोड़ी देर बाद लौट आती है, सिर के बाल नुचे हुए, कपड़े फटे हुए, मशक नदारद। रोती हुई जमीन पर बैठ जाती है।]

जैनब– क्या हुआ हंफ़ा? यह तेरी क्या हालत है?

हंफा– बीबी, खुदा का अज़ाब इन रूस्याहों पर नाजिल हो। जालिम ने मुझे रोक लिया, मेरी मशक छीन ली, और एक कुत्ते को मुझ पर छोड़ दिया। भागते-भागते किसी तरह यहां तक पहुंची हूं। हाय! इन मूजियों पर आसमान भी नहीं फट पड़ता। इतनी दुर्गति कभी न हुई थी।

(रोती है।)

हुसैन– (अंदर जाकर) हंफ़ा क्यों रोती है, अरे, यह तेरे कपड़े किसने फाड़े?

जैनब– बेचारी शामत की मारी पानी लेने गई थी। बच्चे प्यास से तड़प रहे थे। जालिमों ने नोमजान कर दिया।

हुसैन– हंफ़ा, मत रोओ। रसूल के कदमों की कसम, अभी उन जालिमों का सिर तेरे पैरों पर होगा, जिनके बेरहम हाथों ने तेरी बेहुरमती की, चाहे मेरे सारे रफ़ीक, मेरे सारे अजीज़ और मैं खुद क्यों न मर जाऊं। औरत की बेहुरमती का बदला खून है, चाहे वह गुलाम और बेक़स ही क्यों न हों। उन मलऊनों को दिखा दूंगा कि मुझे अपनी लौंडी की आबरू अपने हरम से कम प्यारी नहीं है।

[तलवार हाथ में लेकर बाहर जाते हैं, पर हंफा उनके पैरों को पकड़ लेती है।]

हंफा– मेरे आका़, मेरी जान आप पर फ़िदा हो। मैं अपना बदला दुनिया में नहीं, अक़बे में लेना चाहती हूं जहां की आग कहीं ज्यादा तेज, जहां की सजाएं यहां से कहीं ज्यादा दिल हिलाने वाली होंगी। मैं नहीं चाहती कि आपकी तलवार से कत्ल होकर वह अजाब से छूट जाय।

हुसैन– हंफा, यह सब उसके लिए है, जो दुनिया में अपना बदला न ले सके। अगर मेरे पास एक लाख आदमी होते, तो तेरी बेइज्जती का बदला लेने के लिए मैं उन्हें कुरबान कर देता, इन बहत्तर आदमियों की हकी़क़त ही क्या है। मेरे पैरों को छोड़ दे, ऐसा न हो कि मेरा गुस्सा आग बनकर मुझको जलाकर खाक कर दे।

हंफा– (दिल में) काश इस वक्त वे जालिम यहां होते और देखते कि जिसे उन्होंने कुत्तों से नुचवाया था, उसकी अली के बेटे की निगाहों में कितनी इज्जत है। नहीं मेरे मौला, मैं दुश्मनों को इतनी अच्छी मौत नहीं देना चाहती। मैं उन्हें जहन्नूम की आग में जलाना चाहती…।

[अली अकबर का प्रवेश]

अली अक०– अब्बाजान, साद अपनी फ़ौज से निकलकर आया है, और आपसे मिलना चाहता है।

हुसैन– हां, मैंने इसी वक्त उसे बुलाया था। पहले उससे हंफ़ा को सताने वालों के खून का मुआविजा लेना है।

[हुसैन और अली अकबर बाहर जाते हैं।]

अली अक०– या हजरत, मैं भी आपके साथ रहूंगा।

अब्बास– मैं भी।

हुसैन– नहीं, मैंने उनसे तनहा मिलने का वादा किया है। तुम्हारे साथ रहने से मेरी बात में फर्क आएगा।

अली अक०– वह तो अपने एक साथ एक सौ जवानों से ज्यादा लाया है, जो चंद कदमों के फासले पर खड़े हैं। हम आपको तनहा न जाने देंगे।

अब्बास– साद की शराफ़त पर मुझे भरोसा नहीं है।

हुसैन– मैं उसे इतना कमीना नहीं समझता कि मेरे साथ दग़ा करे। खैर, अगर उसे कोई एतराज न होगा, तो वहां मौजूद रहना। उसे भी अपने साथ दो आदमियों को रखने की आजादी होगी।

[तीनों आदमी अस्त्र से सुसज्जित होकर चलते हैं। परदा बदलता है। दोनों फौजों के बीच में हुसैन और साद खड़े हैं। हुसैन के साथ अकबर और अब्बास हैं, साद के साथ उसका बेटा और गुलाम]

साद– अस्सलामअलेक। या फ़र्जदे रसूल, आपने मुझे अपनी खिदमत में हाज़िर होने का मौका दिया, इसके लिए आपका मशक़र हूं। मुझे क्या इर्शाद है?

हुसैन– मैंने तुम्हें यह तसफ़िया करने के लिए तकलीफ़ दी है कि आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो? तुम्हारे वलिद रसूल पाक के रफीकों में थे, और अगर बाप की तबियत का असर कुछ बेटे पर पड़ता है, तो मुझे उम्मीद है कि तुम में इंसानियत का जौहर मौजूद है। क्या नहीं जानते कि मैं कौन हूं। मैं तुम्हारे मुंह से सुनना चाहता हूं।

साद– आप रसूल पाक के नवासे हैं।

हुसैन– और यह जानकर भी तुम मुझसे जंग करने आए हो, क्या तुम्हें खुदा का जरा भी खौफ नहीं है? तुममें जरा भी इंसाफ नहीं है कि तुम मुझसे जंग करने आए हो, जो तुम्हारे ही भाइयों की दग़ा का शिकार बनकर यहां आ फंसा है, और अब यहां से वापस जाना चाहता है। क्यों ऐसा काम करते हो, जिसके लिए तुम्हें दुनिया में रुसवाई और अक़बा में रूस्याही हासिल हो?

साद– या हजरत, मैं क्या करूं। खुदा जानता है कि मैं कितनी मजबूरी की हालत में यहां आया हूं।

हुसैन– साद, कोई इंसान आज तक वह काम करने पर मजबूर नहीं हुआ। जो उसे पसंद न आया हो। तुमको यकीन है कि मेरे कत्ल के सिलसिले में तुम्हारी जागीर बेढ़ंगी ‘रै’ हुकूमत हाथ आएगी, दौलत हासिल होगी। लेकिन साद, हराम की दौलत ने बहुत दिनों तक किसी के साथ दोस्ती नहीं की और न वह तुम्हारे लिए अपनी पुरानी आदत छोड़ेगी। हबिस को छोड़ो और मुझे अपने घर जाने दो।

साद– फिर तो मेरी जिंदगी के दिन उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।

हुसैन– अगर यह खौफ़ है, तो मैं तुम्हें अपने साथ ले जा सकता हूं।

साद– या हज़रत, जालिम मेरे मकान बरबाद कर देंगे, जो शहर में अपना सानी नहीं रखते।

हुसैन– सुभानल्लाह! तुमने वह बात मुंह से निकाली, जो तुम्हारी शान से बईद है। अगर हक़ पर कायम रहने की सजा में तुम्हारा मकान बरबाद किया जाये, तो ऐसा बड़ा नुकसान नहीं। हक़ के लिए लोगों ने इससे कहीं बड़े नुकसान उठाए हैं, यहां तक कि जान से भी दरेग़ नहीं किया। मैं वादा करता हूं कि मैं तुझे उससे अच्छा मकान बनवा दूंगा।

साद– या हजरत, मेरे पास बड़ी जरखे़ज और आबाद जागीरें हैं, जो जब्त कर ली जायेंगी, और मेरी औलाद उनसे महरूम रह जायेगी।

हुसैन– मैं हिजाज, मैं तुम्हें उनसे ज्यादा जरखेज और आबाद जागीरें दूंगा। इसका इतमीनान रखो कि मेरी ज़ात से तुम्हें कोई नुकसान न पहुंचेगा।

साद– या हज़रत, आप पर मेरी जान निसार हो, मेरे साथ २२ हज़ार सवार और पैदल हैं। जियाद ने उनके सरदारों से बड़े-बड़े वादे कर रखे हैं, मैं अगर आपकी तरफ आ भी जाऊं, तो वे आपसे जरूर जंग करेंगे। इसीलिए मुनासिब यही है कि आप जो शर्त पसंद फरमाएं, मैं जियाद को लिख भेजूं। मैं अपने खत के सुलह पर जोर दूंगा, और मुझे यकीन है कि जियाद मेरी तजवीज मंजूर कर लेगा।

हुसैन– खुदा तुम्हें इसका सबाब आक़बत में देगा। मेरी पहली शर्त है कि मुझे मक्का लौटने दिया जाये, अगर यह न मंजूर हो, तो सरहदों की तरफ जाकर अमन से जिंदगी बसर करने को राजी हूं, अगर यह भी मंजूर न हो, तो मुझे यजीद ही के पास जाने दिया जाये, और सबसे बड़ी शर्त यह है कि जब तक मैं यहां हूं, मुझे दरिया से पानी लेने की पूरी आजादी हासिल हो। मैं यजीद की बैयत किसी हालत से न कबूल करूंगा, और अगर तुमने मेरी बापसी की यह शर्त कायम न की, तो हम यहां शहीद हो जाना ही पंसद करेंगे। लेकिन अगर यह मंशा है कि मुझे कत्ल ही कर दिया जाये, तो मैं अपनी जान को गिरां से गिरां कीमत पर बेचूंगा।

साद– हजरत, आपकी शर्तें बहुत माकूल हैं।

हुसैन– मैं तुम्हारे जवाब का कब तक इंतजार करूं?

साद– सुबह, आफ़ताब की रोशनी के साथ मेरा कासिद आपकी खिदमत में हाजिर होगा।

[दोनों आदमी अपनी-अपनी फौज़ की तरफ लौटते हैं।]

पांचवां दृश्य

[८ बजे रात का समय। जियाद की खास बैठक। शिमर और जियाद बातें कर रहे हैं।]

जियाद– क्या कहते हो। मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि दरिया पर हुसैन का कोई आदमी न आने पाए।

शिमर– बजा है। मगर मैं तो हुसैन के आदमियों को दरिया से पानी लाते बराबर देखता रहा हूं, और शायद मेरा, दरिया की हिफ़ाजत के लिए अपनी जिम्मेदारी पर, हुक्म जारी करना साद को बुरा लगा।

जियाद– साद पर मुझे इतमीनान है। मुमकिन है, उसे लोगों को प्यासों मरते देखकर रहम आ गया हो, और हक़ तो यह है कि शायद मैं भी मौके पर इतना बेरहम नहीं हो सकता। इससे यह नहीं साबित होता कि साद की नीयत डाँवाडोल हो रही है।

शिमर– मैं साद की शिकायत करने के लिए आपकी खिदमत में नहीं हाजिर हुआ हूँ, सिर्फ वहां ही हालत अर्ज करनी थी। हुसैन ने आज साद को मुलाकात करने को भी तो बुलाया है। देखिए, क्या बातें होती हैं।

जियाद– क्या? साद हुसैन से मुलाकातें भी कर रहा है? तुम साबित कर सकते हो?

शिमर– हूजूर, मेरे सबूत की जरूरत नहीं। उनका कासिद अभी आता ही होगा।

जियाद– क्या कई बार मुलाकातें हुई हैं?

शिमर– आज की मुलाकात का भी तो मुझे इल्म है, पर शायद और भी मुलाकातें तनहाई में हुई हैं।

जियाद– कोई और आदमी साथ नहीं रहा?

शिमर– मैंने खुद साथ चलना चाहा था, पर मेरी अर्ज कबूल न हुई।

जियाद– कलाम पाक की कसम मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता। मैंने उसे हुसैन से जंग करने को भेजा है, मसालहत करने के लिए नहीं। मैं उससे इसका जवाब तलब करूंगा।

शिमर– हुजूर के उनके साथ जो सलूक किए हैं, और इस काम के लिए सिला तजवीज किया है वह तो किसी दुश्मन को भी आपका दोस्त बना देता। मगर अपना-अपना मिजाज ही तो है।

[एक कासिद का प्रवेश]

कासिद– अस्सलामअलेक या अमीर, उमर दिन साद का खत लाया हूं।

[जियाद को खत देता है, और जियाद उसे पढ़ने लगता है। कासिद बाहर चला जाता है।]

जियाद– इस मसालहत का नतीजा तो अच्छा निकला। हुसैन वापस जाने को रजामंद हैं, और साद ने इसकी ताईद करते हुए लिखा है कि उनकी जानिब से किसी खतरे का अंदेशा नहीं। खल़ीफ़ा यजीद की मंशा भी यही है। साद ने खूब किया कि गैर जंग के फतह हासिल कर ली।

शिमर– बेशक बड़ी शानदार फतह है।

जियाद– क्यों, यह फतह नहीं है? तंग क्यों करते हो? शिमर– जिसे आप फतह करते रहे हैं, वह फतह नहीं, आपकी शिकस्त है। ऐसी शिकस्त, जो आपको फिर पनपने न देगी। आग फूस में पड़कर उतनी खौफ़नाक नहीं हो सकती, जितने इस मुहासिरे से निकलकर हुसैन हो जायेंगे। शेर किसी शिकार के पीछे दौड़ता हुआ बस्ती में आ गया है। उसे आप घेरकर मार सकते हैं, लेकिन एक बार वह फिर जंगल में पहुंच जाये, तो कौन है, जो उसके पंजों के सामने जाने की हिम्मत कर सके। कर्बला से निकलकर हुसैन वह दरिया होंगे, जो बांध को तोड़कर बाहर निकल आया हो, और आपकी हालत उसी टूटे हुए बांध की-सी होगी।

जियाद– हां, इसमें तो कोई शक नहीं कि अगर वह निकलकर हिजाज और यमन चले जायें, तो शायद खलीफ़ा यजीद की खिलाफत डगमगा जाये। मगर एक शर्त यह भी तो है कि उन्हें यजीद के पास जाने दिया जाए। इसमें हमें क्या उज्र हो सकता है?

शिमर– अगर बाज कबूतर के करीब पहुंच जाये, तो दुनिया की कोई फौज उसे बाज के चंगुल से नहीं बचा सकती। हुसैन अपने बाप के बेटे हैं। खलीफा़ उनकी दलीलों से पेश नहीं पा सकते। कोई अजब नहीं कि अपनी अक्ल के ज़ोर से आज का कैदी कल का खलीफ़ा हो, और खलीफ़ा को उल्टे उसकी बैयत कबूल करनी पड़े।

जियाद– तुम्हारा यह खयाल भी बहुत सही है। काश मुझे तुम्हारी वफ़ादरी का इतना इल्म पहले होता, तो तुम्हीं फौज के सिपहसालार होते।

शिमर– काश साद ने मेरी बातें इतनी कद्रदानी से सुनी होती, तो मुझे यहां आने और आपको तकलीफ़ देने की जरूरत ही न पड़ती।

जियाद– तुम सुबह चले जाओ, और साद से कहो कि फौरन जंग शुरू करे।

शिमर– हुजूर की जो हुक्म देना हो खत के जरिए दे। मातहत के जरिए उसके अफ़सर को हुक्म देना अफसर को मातहत के खून का प्यासा बनाना है।

जियाद– बेहतर, मैं खत ही लिख देता हूं।

[जियाद खत लिखकर शिमर को देता है]

शिमर– इसमें हुजूर ने ऐसा कोई कलमा तो नहीं लिखा, जिसमें साद को सुबहा हो कि मेरे इशारे से लिखा गया है?

जियाद– मुतलक़ नहीं। हां, यह अलबत्ता लिख दिया है कि अगर तूने सिरताबी की, तो तेरी जगह शिमर लश्कर का सरदार होगा।

शिमर– हुजूर की कद्रदानी की कहां तक तारीफ करूं।

जियाद– इसकी जरूरत नहीं। अगर साद मेरे हुक्म की तामील करे, तो बेहतर, नहीं तो वह माजूल होगा, और तुम लश्कर के सरदार होगे। पहला काम जो तुम करोगे, वह साद का सर कलम करके मेरे पास भेजना होगा। यहीं तुम्हारी बहाली की बिस्मिल्लाह होगी।

शिमर– (उठकर) आदाब बजा लाता हूं।

[शिमर बाहर चला जाता है और जियाद मकान में आराम करने जाता हैं।]

छठा दृश्य

[प्रातःकाल। शाम का लश्कर। हुर और साद घोड़ों पर सवार फ़ौज का मुआयना कर रहे हैं।]

हुर– अभी तर जियाद ने आपके खत का जबान नहीं दिया?

साद-उसके इंतजार में रात-भर आंखें नहीं लगीं। जब किसी की आहट मिलती थी, तो गुमान होता था कि कासिद है। मुझे तो यकीन है कि अमीर जियाद मेरी तजबीब मंजूर कर लेंगे।

हुर– काश ऐसा होता! अगर जंग की नौबत आई, तो फौज़ के कितने ही सिपाही लड़ने से इनकार कर देगे।

[सामने से शिमर घोड़ा दौड़ाता हुआ आता है।]

साद– लो, कासिद भी आ गया। खुदा करे, अच्छी खबर लाया हो। अरे, यह तो शिमर है।

हुर– हां, शिमर ही है। खुदा खैर करे, जब यह खुद जियाद के पास गया था, तो मुझे आपकी तजबीब के मंजूर होने से बहुत शक है।

शिमर– (करीब आकर) अस्सलामअलेक। मैं कल एक जरूरत से मकान चला गया। अमीर जियाद को खबर हो गई। उसने मुझे बुलाया और आपको यह खत दिया।

[खत साद को देता है। साद खत पढ़कर जेब में रख लेता है, और एक लंबी सांस लेता है।]

साद– शिमर, मैंने समझा था, तुम सुलह की खबर लाते होंगे।

शिमर– आपकी समझ की गलती थी। आपको मालूम है कि अमीर जियाद एक बार फैसला करके फिर उसे नहीं बदलते। अब आपकी क्या मंशा है?

साद– मजबूर हुक्म की तामील करूंगा।

शिमर– तो मैं, फौजों को तैयार होने का हुक्म देता हूं?

साद– जैसा मुनासिब समझा।

[शिमर फौज़ की तरफ़ चला जाता है।]

हुर– खुदा सब कुछ करें, इंसान का बातिन स्याह न बनाए।

साद– यह सब इन्हीं हजरत की कारगुजारी है। जियाद मेरी तरफ़ से कभी इतने बदनुमान न थे।

हुर– मुझे तो फ़र्जन्दें रसूल से लड़ने के खयाल ही से दहशत होती है।

साद– हुर, तुम सच कहते हो। मुझे यकीन है कि उनसे जो लड़ेगा, उसकी जगह जहन्नुम में है। मगर मजबूर हूं, ‘रै’ की परवा न करूं, तो भी घर की तरफ़ से बेफ़िक्र तो नहीं हो सकता। अफ़सोस, मैं हविस के हाथों तबाह हुआ। काश मेरा दिल इतना मजबूत होता कि ‘रै’ की निजामत पर लट्टू न हो जाता, तो आज मैं फ़र्जन्दें रसूल के मुकाबले पर न खड़ा होता। हुर, क्या इस जंग के बाद किसी तरह मगफ़िरत हो सकती?

हुर– फ़र्जन्दे-रसूल के खून का दाग़ कैसे धुलेगा?

साद– हुर, मैं इतने रोजे रखूंगा कि मेरा जिस्म घुल जाये, इतनी नमाजें अदा करूंगा कि आज तक किसी ने न की होंगी। ‘रै’ को सारी आमदनी खैरात कर दूंगा। पियादा पा हज करूंगा। और रसूल पाक की क़ब्र पर बैठकर रोऊंगा, गुनहगारों की खताएं मुआफ करूंगा, और एक चीटीं को भी ईजा न पहुंचाऊंगा। हाय! जालिम शिमर सोचने का मौका भी नहीं देना चाहता। फौजें तैयार हो रही हैं। क़ीस, हज्जाज, शीश, अशअस अपने-अपने आदमियों को सफ़ों में खड़े करने लगे। वह लो, नक्कारे पर चोट भी पड़ गई।

हुर– मैं भी जाता हूं, अपने आदमियों को संभालूं।

[आहिस्ता-आहिस्ता जाता है।]

साद– ऐ खुदा! बहुत बेहतर होता कि तूने मुझे शिमर की तरह स्याह बातिन बनाया होता, या हानी और क़सीर का-सा दिल दिया होता कि अपने को ग़ैर पर कुर्बान कर देता। कमजोर इंसान भी जानता है कि मुझे क्या करना चाहिए, और क्या नहीं कर सकता। वह गुलाम से भी बदतर है, जिसका अपनी मर्जी पर कोई अधिकार नहीं। मेरे कबीलेवालों ने भी सफ़बंदी शुरू कर दी। मुझे भी अब जाकर अपनी जगह पर सबसे आगे चलना चाहिए और वही करना चाहिए, जो शिमर कराए, क्योंकि अब मैं फ़ौज़ का सरदार नहीं हूं, शिमर है।

[आहिस्ता-आहिस्ता जाकर फौ़ज के सामने खड़ा हो जाता है।]

शिमर– (उच्च स्वर से) ऐ खिलाफत को जिंदा रखने के लिए अपने तई कुरबान करने वाले। बहादुरों, खुदा का नाम लेकर कदम आगे बढ़ाओ, दुश्मन तुम्हारे सामने है। वह हमारे रसूल पाक का नवासा है, और उस रिश्ते से हम सब ताजीम से उसके आगे सिर झुकाते हैं। लेकिन जो आदमी हिंर्स का इतना बंदा है कि रसूल पाक के हुक्म का, जो उन्होंने खिलाफ़त को अब तक कायम रखने के लिए दिया था, पैरों-तले कुचलता है, और जो क़ौम की बैयत की परवा न करके अपने विरासत के हक़ के लिए खिलाफ़त को खाक में मिला देना चाहे, वह रसूल का नवासा होते हुए भी मुसलमान नहीं है। हमारी निगाहों में रसूल के हुक्म की इज्जत उसके नवासे की इज्जत से कहीं ज्यादा है। हमारा फर्ज है कि हमने जिस खलीफ़ा की बैयत क़बूल की है, उसे ऐसे हमलों, से बचाएं, जो हिर्स को पूरा करने के लिए दाद के नाम पर किए जाते हैं। चलो, फर्ज के मैदान में कदम बढ़ाओ।

[नश्कारे पर चौब पड़ती है, और पूरा लश्कर हुसैन के पड़ाव की तरफ बढ़ता है। साद आगे कदम बढ़ाता हुआ हुसैन के खेमे के क़रीब पहुंच जाता है।]

अब्बास– (हुसैन के खेमे से निकलकर) साद! यह दग़ा! हम तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहे है, और तुम हमारे ऊपर हमला कर रहे हो? क्या यही आईने-जंग है?

साद– हज़रत, कलाम पाक की कसम, मैं दगा के इरादे से नहीं आया। (जियाद का खत अब्बास के हाथ में देकर) यह देखिए, और मेरे साथ इंसाफ कीजिए। मैं इस वक्त नाम के लिए फ़ौज का सरदार हूं, अख्तियार शिमर के हाथों में है।

अब्बास– (खत पढ़कर) आखिर तुम दुनिया की तरफ झुके। याद रखो, की दरगार में शिमर नहीं, तुम खतावार समझे जाओगे।

साद– या हजरत, यह जानता हूं पर जियाद के गुस्से का मुकाबला नहीं कर सकता। वह बिल्ला है, मैं चूहा हूं, वह बाज है, मैं कबूतर हूं। वह एक इशारे से मेरे खानदान का निशान मिटा सकता है। अपनी हिफ़ाजत की फिक्र ने मुझे मजबूर कर दिया है, मेरे दीन और ईमान को फ़ना कर दिया है।

अब्बास– खुलासा यह है कि तुम हमारा मुहासिरा करना चाहते हो। ठहरो, मैं जाकर भाई साहब को इत्तिला दे दूं।

[अब्बास हुसैन के खेमे की तरफ जाते हैं।]

शिमर– (साद के पास आकर) क्या अब कोई दूसरी चाल चलने की सोच रहे हैं?

साद– नहीं, हजरत हुसैन को हमारी आमद और मंशा की इत्तिला देने गए हैं।

शिमर– यह मौके को हमारे हाथों से छीनने का हीला है। शायद कबीलों से इमदाद तलब करने का क़स्द कर रहे हैं। एक दिन की देर भी उन्हें मौके का बादशाह बना सकती है।

[अब्बास खेमे से वापस आते हैं।]

अब्बास– मैंने हजरत हुसैन को तुम्हारा पैग़ाम दिया। हज़रत को इसका बेहद सदमा है कि उनकी कोई शर्त मंजूर नहीं की गई। सुलह की इससे ज्यादा कोशिश उनके इमकान में न थी। गो हम सब जंग के लिये तैयार है, लेकिन उन्होंने एक दिन की मुहलत मांगी है कि दुआ और नमाज में गुजारे। सुबह को हमें खुदा का जो हुक्म होगा, उसकी तामील करेंगे।

साद– इसका जवाब मैं अपनी फ़ौज के दूसरे सरदारों से मशविरा करके दूंगा।

[अब्बास अपने खेमों की तरफ़ जाते हैं, और हुर, हज्जाज, अशअस, कीस सब साद के पास आकर खड़े हो जाते हैं।]

साद– शिमर, तुम्हारी इस मामले में क्या सलाह है?

शिमर– यह उनकी हीलेबाजी है। आइंदा आप अमीर हैं, जो जी चाहे, करें।

साद– (दूसरे सरदारों से मुखातिब होकर) हजरत हुसैन ने एक दिन की मुहलत की दरख्वास्त की है, आप लोगों की क्या सलाह है?

शिमर– इसका आप लोग खयाल रखिएगा कि यह मुहलत आफ़त के मीजान को पलट सकती है।

हुर– मुहलत के मंजूर करने में पसोपेश का कोई मौका नहीं।

हज्जाज– हुसैन अगर काफ़िर होते, और मुहल्लत की दरख्वास्त करते, तो भी उसको कबूल करना लाजिम था।

क़ीस– बहुत मुमकिन है, वह कल तक आपस में सलाह करके यजीद की बैयत कबूल कर ले, तो नाहक खूरेजी क्यों हो।

शिमर– और अगर शाम तक बनी, असद और दूसरे कबीले उनकी मदद के लिए आ जायें, तो?

शीश– हजरत हुसैन ने अभी तक किसी कबीले से इमदाद नहीं तलब की है, वरना हम इतने इतमीनान से यहां न खड़े होते।

साद– बनी और असद ही नहीं, अगर ईराक के सारे कबीलें आ जायें, तब भी हम आज उन्हें जंग के लिए मजबूर नहीं कर सकते। यह इंसानियत के खिलाफ़ है। मेरा यही फैसला है। आइंदा आप लोगों को आख्तियार है।

[साद गुस्से में भरा हुआ वहां से चला जाता है।]

शिमर– क्या आप लोगों की यही मर्जी है कि आज जंग मुल्तवी की जाय?

हुर– यहां जितने असहाय मौजूद है, सब अपनी राएं दे चुके, अमीरे-लश्कर भी चला गया। ऐसी हालात में मुहलत के सिवा और हो ही क्या सकता है। अगर आप अपनी जिम्मेदारी पर जंग करना चाहते हैं, तो शौक से कीजिए।

[हुर, हज्जाज बगैरह भी चले जाते हैं।]

शिमर– (दिल में) कौन कहता है कि हुसैन के साथ दग़ा की गई? यहां सब-के-सब के दोस्त हैं। इस फौ़ज में रहने से कहीं यह बेहतर था कि सब के सब हुसैन की फौज में होते। तब भी उनकी इतनी मदद न कर सकते। मुझे जरा ताज्जुब न होगा, अगर कल सब लोग हथियार रखकर हुसैन के कदमों पर गिर पड़े। जियाद को इस मुहलत की भी इत्तिला तो दे ही दूं।

[साद का क़ासिद मुहलत का पैग़ाम लेकर हुसैन के लश्कर की तरफ जाता है। शिमर अपने खेमे की तरफ़ जाता है।]

सातवाँ दृश्य

[समय ८ बजे रात। हुसैन एक कुर्सी पर मैदान में बैठे हुए हैं। उनके दोस्त और अजीज सब फ़र्श पर बैठे हुए हैं। शमा जल रही है।]

हुसैन– शुक्र है, खुदाए-पाक का, जिसने हमें ईमान की रोशनी अता की, ताकि हम नेक को क़बूल करें, और बद से बचें। मेरे सामने इस वक्त मेरे बेटे और भतीजे, भाई और भांजे, दोस्त और रफी़क सब जमा हैं। मैं सबके लिए खुदा से दुआ करता हूँ। मुझे इसका फख्र है कि उसने मुझे ऐसे सआदतमंद अजीज और ऐसे जाँ निसार दोस्त अता किए। अपनी दोस्ती का हक़ पूरी तरह अदा कर दिया, आपने साबित कर दिया कि हक़ के सामने आप जान और माल की कोई हक़ीकत नहीं समझते। इस्लाम की तारीख में आपका नाम हमेशा रोशन रहेगा। मेरा दिल खयाल से पाश-पाश हुआ जाता है कि कल मेरे बायस वे लोग, जिन्हें जिंदा हिम्मत चाहिए, जिनका हक है जिंदा रहना, जिनको अभी जिंदगी में बहुत करना बाकी है, शहीद हो जायेंगे। मुझे सच्ची खुशी होगी, अगर तुम लोग मेरे दिल का बोझ हल्का कर दोगे। मैं बड़ी खुशी के हरएक को इजाजत देता हूं कि उसका जहां जी चाहे, चला जाये। मेरा किसी पर कोई हक़ नहीं है। नहीं मैं तुमसे इल्तमास करता हूं इसे क़बूल करो। तुमसे किसी को दुश्मनी नहीं हुई है, जहां जाओगे, लोग तुम्हारी इज्जत करेंगे। तुम जिंदा शहीद हो जाओगे, जो मरकर शहादत का दर्जा पाने से इज्जत की बात नहीं। दुश्मन को सिर्फ मेरे खून की प्यास है, मैं ही उसके रास्ते का पत्थर हूं। अगर हक़ और इंसाफ को सिर्फ मेरे खून से आसूदगी हो जाये, तो उसके लिए और खून क्यों बहाया जाये? साद से एक शव की मुहलत मांगने में यही मेरा खयाल था। यह देखो में यह शमा ठंडी किए देता हूं, जिसमें किसी को हिजाब न हो।

[सब लोग रोने लगते हैं, और कोई अपनी जगह से नहीं हिलता।]

अब्बास– या हजरत, अगर आप हमें मारकर भगाएं, तो भी हम नहीं जा सकते। खुदा वह दिन न दिखाए कि हम आपसे जुदा हों। आपकी सफलता के साए में पल-भर अब हम सोच ही नहीं सकते कि आपके बगैर हम क्या करेंगे, कैसे रहेंगे।

अली अकबर– अब्बाजन, यह आप क्या फरमाते हैं? हम आपके कदमों पर निसार होने के लिये आए हैं। आपको यहां तनहा छोड़कर जाना तो क्या, महज उसके खयाल से रूह को नफ़रत होती है।

हबीब– खुदा की कसम, आपको उस वक्त तक नहीं छोड़ सकते, जब तक दुश्मनों के सीने में अपनी तेज बर्छिया न चुभा लें। अगर मेरे पास तलवार भी न होती, तो मैं आपकी हिमायत पत्थरों से करता।

अब्दुल्लाह कलवी– अगर मुझे इसका यकीन हो जाये कि मैं आपकी हिमायत में जिंदा जलाया जाऊंगा और फिर जिंदा होकर जलाया जाऊंगा, और यह अमल सत्तर बार होता रहेगा, तो भी मैं आपसे जुदा नहीं हो सकता। आपके कदमों पर निसार होने से जो रुतबा हासिल होगा, वह ऐसी-ऐसी बेशुमार जिंदगियों से भी नहीं हासिल हो सकता।

जहीर– हज़रत आपने जबाने-मुबारक से ये बातें निकालकर मेरी जितनी दिलशिकनी की है, उसका काफी इजहार नहीं कर सकता। अगर हमारे दिल दुनिया की हविस से मगलूब भी हो जायें, तो हमारे किसी दूसरी तरफ जाने से गुरेज करेंगे। क्या आप हमें दुनिया में रूहस्याह और बेगै़रत बनाकर जिंदा रखना चाहते हैं?

अली असगर– आप तो मुझे शरीक किए बगै़र कभी कोई चीज न खाते थे, क्या जन्नत के मजे अकेले उठाइएगा? शमा जलवा दीजिए, हमें इस तरीकी में आप नज़र नहीं आते।

हुसैन– आह! काश रसूले-पाक आज जिंदा होते और देखते कि उनकी औलाद उनकी उम्मत हक़ पर कितने शौक से फिदा होती है। खुदा से मेरी यही इल्तजा है कि इस्लाम में हक पर शहीद होने वालों की कभी-कमी न रहे। असगर, बेटा जाओ, तुम्हारे बाप की जान तुम पर फिदा हो, हम-तुम-साथ जन्नत के मेवे खायेंगे। दोस्तों, आओ, नमाज पढ लें। शायद यह हमारी आखिरी नमाज हो।

[सब लोग नमाज पढ़ने लगते हैं।]

आठवाँ दृश्य

[प्रातःकाल हुसैन के लश्कर में जंग की तैयारियां हो रही हैं।]

अब्बास– खेमे एक दूसरे से मिला दिए गए, और उनके चारों तरफ खंदके खोद डाली गई, उनमें लकड़ियां भर दी गई। नक्कारा बजवा दूं?

हुसैन– नहीं, अभी नहीं। मैं जंग में पहले क़दम नहीं बढ़ाना चाहता। मैं एक बार फिर सुलह की तहरीक करूंगा। अभी तक मैंने शाम के लश्कर से कोई तकदीर नहीं की, सरदारों ही से काम निकालने की कोशिश करता रहा। अब मैं जवानों से दूबदू बातें करना चाहता हूं। कह, दो सांडनी तैयार करे।

अब्बास– जैसा इर्शाद।

[बाहर जाते हैं।]

हुसैन– (दुआ करते हुए) ऐ खुदा! तू ही डूबती हुई किश्तियों को पार लगाने वाला है। मुझे तेरी ही पनाह है, तेरा ही भरोसा है, जिस रंज से दिल कमजोर हो, उसमें तेरी ही मदद मांगता हूं। जो आफत किसी तरह सिर से न टले, जिसमें दोस्तों से काम न निकले, जहां कोई हीला न हो, वहां तू ही मेरा मददगार है।

[खेमे से बाहर निकलते हैं। हबीब और जहीर आपस में नेजेवाजी का अभ्यास कर रहे हैं।]

हबीब– या हजरत, खुदा से मेरी यही दुआ है कि नेजा साद के जिगर में चुभ जाये, और ‘रै’ की सूबेदारी का अरमान उसके खून के रास्ते निकल जाये।

जहीर– उसे सूबेदारी जरूर मिलेगी। जहन्नुम की या ‘रै’ की, इसका फैसला मेरी तलवार करेगी।

हबीब– वाह! वह मेरा शिकार है, उधर निगाहें न उठाइएगा। आपके लिये मैंने शिमर को छोड़ दिया।

जहीर– बखुदा, वह मेरे मुकाबिले आए, तो मैं उसकी नाक काटकर छोड़ दूं। ऐसे बदनीयत आदमी के लिये जहन्नुम से ज्यादा तकलीफ दुनिया ही में है।

अब्बास– और मेरे लिये कौन-सा शिकार तजवीज किया?

जहीर– आपके लिये जियाद हाजिर है।

हुसैन– और मेरे लिये? क्या मैं ताकता ही रहूंगा?

जहीर– आपको कोई शिकार न मिलेगा।

हुसैन– मेरे साथ यह ज्यादती क्यों?

जहीर– इसलिए कि आप भी शिकारियों की जाल में आ जायेंगे, तो जन्नत की नियामतों में भी साझा बटाएंगे। आपके लिये रसूल-पाक की कुर्बत काफ़ी है। जन्नत की नियामतों में हम आपको शरीक नहीं करना चाहते।

हुसैन– मैं जरा साद के लश्कर से बातें करके आ जाऊं, तो इसका फैसला हो।

हबीब– उन गुमराहों की फ़रमाइश करना बेकार है। उनके दिल इतने सख्त हो गए हैं कि उन पर कोई तकदीर असर नहीं कर सकती।

हुसैन– ताहम कोशिश करना मेरा फर्ज़ है।

[परदा बदलता है। हुसैन अपनी सांड़नी पर साद की फौज के सामने खड़े हैं।]

हुसैन– ऐ लोगों, कूफ़ा और शाम के दिलेर जवानों और सरदारों! मेरी बात सुनो, जल्दी न करो। मुसलमान अपने भाई की गर्दन पर तलवार चलाने में, जितनी देर करे, ऐन सवाब है। मैं उस वक्त तक खुरेजी नहीं करना चाहता, जब तक तुम्हें इतना न समझा लूं, जितना मुझ पर वाजिब है। मैं खुदा और इंसान दोनों ही के नजदीक इस जंग की जिम्मेदारी से पाक रहना चाहता हूं, जहां भाई की तलवार भाई की गर्दन पर होगी। तुम्हें मालूम है, मैं यहां क्यों आया? क्या मैंने इराक या शाम पर फौजकसी की? मेरे अजीज़, दोस्त और अहलेबैत अगर फौज कहे जा सकते हो, तो बेशक मैंने फौजकसी की। सुनो और इंसाफ करो, अगर तुम्हें खुदा का खौफ और ईमान का लिहाज है कि मैं यहां के झगड़ों से अलग रहकर खुदा की इबादत में अपनी जिंदगी के बचे हुए दिन गुजारूंगा। मगर तुम्हारी ही फरियाद ने मुझे अपने गोशे से निकाला, रसूल की फरियाद सुनकर मैं कानों से उंगली न डाल सका। अगर इस हिमायत की सज़ा क़त्ल है, तो यह सिर हाजिर है, शौक से कत्ल करो। मैं हज्जात से पूछता हूं-क्या तुमने मुझे खत नहीं लिखे थे?

हज्जाज– मैंने आपको कोई खत नहीं लिखा था।

हुसैन– क़ीस, तुम्हें भी खत लिखने से इंकार है?

कीस– मैंने कब आपसे फरियाद की थी?

शिमर– सरासर ग़लत है, झूठ है।

हुसैन– खुदा गवाह है कि मैं अपनी जिंदगी में कभी झूठ नहीं बोला, लेकिन आज यह दाग भी लगा।

कीस– आप यजीद की बैयत क्यों नहीं कर लेते कि इस्लाम हमेशा के लिये फ़ितना और फसाद-पाक हो जाये?

हुसैन– क्या इसके सिवा मसालहत की और कोई सूरत नहीं है?

शिमर– नहीं, और कोई दूसरी सूरत नहीं है।

हुसैन– तो इस शर्त पर सुलह करना मेरे लिये गैरमुमकिन है। खुदा की कसम, मैं जलील होकर तुम्हारे सामने सिर न झुकाऊंगा, और न खौफ़ मुझे यजीद की बैयत कबूल करने पर मजबूर कर सकता है। अब तुम्हें अख्तियार है। हम भी जंग के लिये तैयार हैं।

शिमर– पहला तीर चलाने का सबाब मेरा है।

[हुसैन पर तीर चलाता है।]

किसी तरफ से आवाज आती है–

‘‘जहन्नुम में जाने का फख्र भी पहले तुझी को होगा।’’

[हुसैन ऊँटनी को अपनी फौज की तरफ़ फेर देते हैं। हुर अपनी फ़ौज से निकलकर आहिस्ता-आहिस्ता हुसैन के पीछे चलते हैं।]

शिमर– वल्लाह, हुर, तुम्हारा इस तरह आहिस्ता-आहिस्ता अपने तई तौल-तौलकर चलना मेरे दिल में शुबहा पैदा कर रहा है। मैंने तुमको कभी लड़ाई में इस तरह काँपते हुए चलते नहीं देखा।

हुर– अपने को जन्नत और जहन्नुम के लिये तौल रहा हूं, और हक़ है कि मैं जन्नत के मुकाबले में किसी चीज को नहीं समझता, चाहे कोई मार ही क्यों न डाले। (घोड़े को एक ऐड लगाकर हुसैन के पास पहुंच जाते हैं) ऐ फर्जन्दे रसूल! मैं भी आपके हमराह हूं। खुदावंद मुझे आप पर फिदा करे, मैं वहीं हूं, जिसने आपको रास्ते में वापस करने की कोशिश की थी। खुदा की कसम, मुझे उम्मीद न थी कि ये लोग आपके साथ यह बर्ताव करेंगे, और सुलह की कोई शर्त न कबूल करेंगे, वरना मैं आपको इधर आने ही न देता, जब तक आप मेरे सिर पर न आते। अब इधर से मायूस होकर आपकी खिदमत में हाजिर हुआ हूं कि आपकी मदद करते हुए अपने तई आपके कदमों पर निसार कर दूं। क्या आपके नजदीक मेरी तौवा कबूल होगी?

हुसैन– खुदा से मेरी दुआ है, तुम्हारी तौबा कबूल करें।

हुर– अब मुझे मालूम हो गया कि मैं यजीद से अपनी बैयत वापस लेने में कोई गुनाह नहीं कह रहा हूं।

[दोनों चले जाते हैं। तीरों की वर्षा होने लगती है।]

नवाँ दृश्य

[कूफ़ा का वक्त। कूफ़ा का एक गांव। नसीमा खजूर के बाग में जमीन पर बैठी हुई गाती है।]

गीत

दबे हुओं को दबाती है ऐ जमीने-लहद,
यह जानती है कि दम जिस्म नातवां में नहीं।
क़फस में जी नहीं लगता है आह! फिर भी मेरा,
यह जानता हूं कि तिनका भी आशियां में नहीं।
उजाड़ दे कोई या फूंक दे उसे बिजली,
यह जानता हूं कि रहना अब आशियां में नहीं।
खुदा अपने दिल से मेरा हाल पूछा लो सारा,
मेरी जवां से मजा मेरी दास्तां में नहीं।
करेंगे आज से हम जब्त, चाहे जो कुछ नहीं।
यह क्या कि लब पै फुगां और असर फुगां में नहीं।
खयाल करके खुदा अपनी किए को रोता हूं,
तबाहियों के सिवा कुछ मेरे मकां में नहीं।

[वहब का प्रवेश]

नसीमा– बड़ी देर की। अकेले बैठे-बैठे जी उकता गया। कुछ उन लोगों की खबर मिली?

वहब– हां नसीमा, मिली। तभी तो देर हुई। तुम्हारा खयाल सही निकला। हज़रत हुसैन के साथ है।

नसीम– क्या हज़रत-हुसैन की फौज़ आ गई?

वहब– कैसी फौज़? कुल बूढ़े, जवान और बच्चे मिलाकर ७२ आदमी हैं। दस-पांच आदमी कूफ़ा से भी आ गए हैं। कर्बला के बेपनाह मैदान में उनके खेमे पड़े हैं। जालिम जियाद ने बीस-पच्चीस हजार आदमियों से उन्हें घेर रखा है। न कहीं जाने देता है, न कोई बात मानता है, यहां तक कि दरिया से पानी भी नहीं लेने देता। पांच हजार जवान दरिया की हिफा़जत के लिये तैनात कर दिए हैं। शायद कल तक जंग शुरू हो जाये।

नसीमा– मुट्ठी-भर आदमियों के लिये २०-२५ हजार सिपाही! कितनी ग़जब! ऐसा गुस्सा आता है, जिया को पाऊं, तो सिर कुचल दूं।

वहब– बस, उसकी यही जिद है कि यजीद की बैयत कबूल करो। हजरत हुसैन कहते हैं, यह मुझसे न होगा।

नसीमा– हजरत हुसैन नबी के बेटे है, कौल पर जान देते हैं। मैं होती तो जियाद को ऐसा जुल देती कि वह भी याद करता। कहती– हां, मुझे बैयत कबूल है। वहां से आकर बड़ी फ़ौज जमा करती, और यजीद के दांत खट्टे कर देती। रसूल पाक को शरआ मैं ऐसी आफ़तों के मौके के लिये कुछ रियासत रखनी चाहिए थी। तो हजरत की फौज़ में बड़ी घबराहट फैली होगी?

वहब– मुतलक नहीं नसीमा। सब लोग शहादत के शौक में मतवाले हो रहे हैं। सबसे ज्यादा तकलीफ पानी की है। जरा-जरा से बच्चे प्यासे तड़प रहे हैं।

नसीमा– आह जालिम! तुझसे खुदा समझे।

वहब– नसीमा, मुझे रुखसत करो। अब दिल नहीं मानता, मैं भी हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार होने जाता हूं। आओ, गले मिल ले। शायद फिर मुलाकात न हो।

नसीमा– हाय वहब! क्या मुझे छोड़ जाओगे। मैं भी चलूंगी।

वहब– नहीं नसीमा, उस लू के झोंको में यह फूल मुरझा जायेगा। (नसीमा को गले लगाकर) फिर दिल कमजोर हुआ जाता है। सारी राह कंबख्त को समझाता आया था। नसीमा, तुम मुझे दुत्कार दो। खुदा, तूने मुहब्बत को नाहक पैदा किया।

नसीमा– रोकर वहब, फूल किस काम आएगा। कौन इसको सूंघेगा, कौन इसे दिल से लगाएगा? मैं भी हजरत जैनब के क़दमों पर निसार हूंगी।

वहब– वह प्यास की शिद्दत, वह गरमी की तकलीफ, वह हंगामे, कैसे ले जाऊं?

नसीमा– जिन तकलीफों को सैदानियां झेल सकती है, क्या मैं न झेल सकूंगी? हीले मत करो वहब, मैं तुम्हें तनहा न जाने दूंगी।

वहब– नसीमा, तुम्हें निगाहों से देखते हुए मेरे कदम मैदान की तरफ न उठेंगे।

नसीमा– (वहब के कंधे पर सिर रखकर) प्यारे! क्यों किसी ऐसी जगह नहीं चलते, जहां एक गोशे में बैठकर इस जिंदगी का लुप्त उठाएं। तुम चले जाओगे, खुदा न ख्वास्ता दुश्मनों को कुछ हो गया, तो मेरी जिन्दगी रोते ही गुजरेगी। क्या हमारी जिंदगी रोने ही के लिये है? मेरा दिल अभी दुनिया की लज्जतों का भूखा है। जन्नत की खुशियों की उम्मीद पर इस जिंदगी को कुर्बान नहीं करते बनता। हज़रत हुसैन की फतह तो होने से रही। पच्चीस हज़ार के सामने जैसे सौ, वैसे ही एक सौ एक।

वहब– आह नसीमा। तुमने दिल के सबसे नाजुक हिस्से पर निशाना मारा। मेरी यही दिली तमन्ना है कि हम किसी आफ़ियत के गोशे में बैठकर जिंदगी की बहार लूटें। पर जालिम की यह बेदर्दी देखकर खून में जोश आ जाता है, और दिल बेअख्तियार यही चाहता है कि चलकर हजरत हुसैन की हिमायत में शहीद हो जाऊं। जो आदमी अपनी आंखों से जुल्म होते देखकर जालिम का हाथ नहीं रोकता, वह भी खुदा की निगाहों में जालिम का शरीक है।

नसीमा– मैं अपनी आंखें तुम पर सदके करूं, मुझे अजाब व सवाब के मुखमसों में मत डालो। सोचो, क्या यह सितम नहीं है कि हमारी जिंदगी की बहार इतनी जल्द रुखसत हो जाये? अभी मेरे उरूसी कपड़े भी नहीं मैले हुए, हिना का रंग भी नहीं फीका पड़ा, तुम्हें मुझ पर जरा भी तर्स नहीं आता? क्या ये आंखें रोने के लिये बनाई गई हैं? क्या ये हाथ दिल को दबाने के लिये बनाए गए हैं? यही मेरी जिंदगी का अंजाम है?

[वहब के गले में हाथ डाल देती है।]

वहब– (स्वगत) खुदा संभालियों, अब तेरा ही भरोसा है। यह आशिक की दिल बहलानेवाली इल्तजा नहीं मालूम का ईमान ग़ारत करने वाला तकाजा है।

[साहसराय की सेना सामने से चली आ रही है।]

नसीमा– अरे! यह फौज कहां से आ रही है? सिपाहियों का ऐसा अनोखा लिबास तो कहीं नहीं देखा। इनके माथों पर ये लाल-लाल बेल-बूटे कैसे बने हैं? कसम है इन आंखों की, ऐसे सजीले, कसे हसीन जवान आज तक मेरी नजर से नहीं गुजरे।

वहब– मैं जाकर पूछता हूं, कौन लोग है। (आगे बढ़कर एक सिपाही से पूछता है) ऐ जवानों! तुम फरिश्ते हो या इंसान? अरब में तो हमने आदमी नहीं देखे। तुम्हारें चेहरों से जलाल बरस रहा है। इधर कहां जा रहे हो?

सिपाही– तुमने सुलतान साहसराय का नाम सुना है। हम उन्हीं के सेवक हैं, और हजरत हुसैन की सहायता करने जा रहे हैं, जो इस वक्त कर्बला के मैदान में घिरे हुए हैं। तुमने यजीद की बैयत ली है या नहीं?

वहब– मैं उस जालिम की बैयत क्यों कबूल करने लगा था।

सिपाही– तो आश्चर्य है कि तुम हज़रत हुसैन की फौज में क्यों नहीं हो। तुम सूरत से मनचले जवान मालूम होते हो, फिर यह कायरता कैसी?

वहब– (शरमाते हुए) हम वहीं जा रहे हैं।

सिपाही– तो फिर आओ, साथ चले।

वहब– मेरे साथ मस्तूरात भी हैं। तुम लोग बढ़ो, हम भी आते हैं।

[फ़ौज चली जाती है।]

नसीमा– यह साहसराय कौन है?

वहब– यह तो नहीं कह सकता, पर इतना कह सकता हूं कि ऐसा हक़परस्त दिलेर, इंसान पर निसार होने वाला आदमी दुनिया में न होगा। वेकसों की हिमायत में कभी उसे पीछे कदम हटाते नहीं देखा। मालूम नहीं, किस मजहब का आदमी है, पर जिस मजहब और जिस क़ौम में ऐसी पाक रूहें पैदा हों, वह दुनिया के लिये बरकत है।

नसीमा– इनके भी बाल बच्चे होंगे?

वहब– बहुत बड़ा खानदान है। सात तो भाई भी हैं।

नसीमा– और मुसलमान न होते हुए भी ये लोग हजरत हुसैन की इमदाद के लिए जा रहे हैं?

वहब– हां, और क्या!

नसीमा– तो हमारे लिये कितनी शर्म की बात है कि हम यों पहलूतिही करें।

वहब– प्यारी नसीमा, चले चलेंगे। दो-चार दिन तो जिदंगी की बहार लूट लें।

नसीमा– नहीं वहब, एक लम्हें की भी देर न करो। खुदा हमें जन्नत में फिर मिलाएगा, और अब अब्द तक जिंदगी की बहार लूटेंगे।

वहब– नसीमा आज और सब्र करो।

नसीमा– एक लम्हा भी नहीं। वहब, अब इम्तहान में न डालो, सांडनी लाओ, फौरन चलो।

पांचवां अंक

पहला दृश्य

[समय ९ बजे दिन। दोनों फौ़जे लड़ाई के लिये तैयार हैं।]

हुर– या हजरत, मुझे मैदान में जाने की इजाजत मिले। अब शहादत का शौक रोके नहीं रुकता।

हुसैन– वाह, अभी आए हो और अभी चले जाओगे। यह मेहमाननेवाजी का दस्तूर नहीं कि हम तुम्हें आते-ही-आते रुखसत कर दें।

हुर– या फ़र्जदे-रसूल मैं आपका मेहमान नहीं, गुलाम हूं। आपके कदमों पर निसार होने के लिये आया हूं।

हुसैन– (हुर के गले मिलकर आंखों में आंसू भरे हुए) अगर तुम्हारी इसी में खुशी है, तो आओ, खुदा को सौंपा–

दुनिया के शहीदों में तेरा नाम हो भाई,

उक़बा में तुझे राहतोआराम हो भाई।

[हुर मैदान की तरफ चलते हैं, हुसैन खेमे के दरवाजे तक उन्हें पहुंचाते आते हैं। खेमे से निकलते हुए हुर हुसैन के कदमों को बोसा देते हैं, और चले जाते हैं।]

हुर– (मैदान में जाकर)

गुलाम हजरते शब्बीर रन में आता है,
वही जो दीन का है बंदा, वह मेरा आका है।
वह आए ठीक के खम, जिसकी मौत आई है।
उसी का पीने को खूँ मेरी तेग आई है।

[सफ़वान उधर से झूमता हुआ आता है।]

हुर– सफवान, कितनी शर्म की बात है कि तुम फ़र्जदे-रसूल से जंग करने आए हो?

सफवान– हम सिपाहियों को माल, दौलत, जागीर और रुतवा चाहिए, हमें दीन और आक़बत से क्या काम? संभल जाओ।

[दोनों पहलवानों में चोटें चलने लगती हैं।]

अब्बास– वह मारा। सफवान का सीना टूट गया, जमीन पर तड़पने लगा।

हबीब– सफ़वान के तीनों भाई दौड़े चले आते हैं।

अब्बास– वाह मेरे शेर! एक तलवार से लिया, दूसरा भी गिरा, और तीसरा भागा जाता है।

हबीब– या खुदा, खैर कर, हुर का घोड़ा गिर गया।

हुसैन– फौरन एक घोड़ा भेजो।

[एक आदमी हुर के पास घोड़ा लेकर जाता है।]

अब्बास– यह पीरा नासाली और यह दिलेरी! ऐसा बहादुर आज तक नज़र से नहीं गुजरा। तलवार बिजली की तरह कौंध रही है।

हुसैन– देखो, दुश्मन का लश्कर कैसा पीछे हटा जाता है। मरनेवालों के सामने खड़ा होना आसान नहीं है। दिलेरी को इंतहा है।

अब्बास– अफ़सोस, अब हाथ नहीं उठते। तीरों से सारा बदल चलनी हो गया।

शिमर– तीरों की बारिश करो, मार लो। हैफ़ है तुम पर कि एक आदमी से इतने खायाफ़ हो। वह गिरा, काट लो सिर और हुसैन की फ़ौज में फेंक दो।

[कई आदमी हुर के सिर को काटने को चलते हैं, कि हुसैन मैदान की तरफ दौडते हैं।]

एक– वह हुसैन दौड़े चले आते हैं। भागों, नहीं तो जान न बचेगी।

हुसैन– हुर की लाश से लिपटकर

टुकड़े हैं बदन, जख्म बहुत खाए हैं भाई,
हो होश में आ लाश पै हम आए हैं भाई।

[हुर आंखें खोलकर देखते हैं, और अपना सिर उनकी गोद में रख देते हैं।]

हुर– या हजरत, आपके कदमों पर निसार हो गया, जिंदगी ठिकाने लगी।

तकिया तेरे जानू का मयस्सर हुआ आका़,
जर्रा था यह सब महरे-मुनौवर हुआ आका़।

हुसैन– हाय! मेरा जांबाज रफीक़ दुनिया से रुखसत हो गया। यह वह दिलावर था, जिसने हक पर अपने रुतबा और दौलत को निसार कर दिया, जिसने दीन के लिये दुनिया को लात मार दी। ये हक पर जान देने वाले हैं, जिन्होंने इस्लाम के नाम को रोशन किया है, और हमेशा रोशन रखेंगे। जा मुहम्मद के प्यारे, जन्नत तेरे लिए हाथ फैलाये हुए है। जा, और हयात अब्दी के लुत्फ उठा। मेरे नाना से यह दीजियो कि हुसैन भी जल्द ही तुम्हारी खिदमत में हाजिर होने वाला है, और तुम्हारे कुन्बे को साथ लिए हुए। काबिल ताजीम हैं वे माताएं, जो ऐसे बेटे पैदा करती हैं!

दूसरा दृश्य

[समर-भूमि। साद की तरफ़ से दो पहलवान आते हैं– यसार और सालिम।]

यसार– (ललकारकर) कौन निकलता है, हुर का साथ देने के लिये। चला जाए, जिसे मौत का मजा चखना हो। हम वह है, जिनकी तलवार से क़ज़ा की रूह भी क़जा होती है।

[अब्दुल्लाह कलवी हुसैन के लश्कर से निकलते हैं।]

यसार– तू कौन हैं?

अब्दुल्लाह– मैं अब्दुल्लाह बिन अमीर कलवी हूं, जिसकी तलवार हमेशा बेदीनों के खून की प्यासी रहती है।

यसार– तेरे मुकाबले में तलवार उठाते हमें शर्म आती है। जाकर हबीब या जहीर को भेज।

अब्दुल्लाह– तू उन सरदार के-फौज़ से क्या लड़ेगा, जिनकी जिंदगी जियाद की गुलामी में गुजरी। तुझे उन रईसों को ललकारते हुए शर्म भी नहीं आती। तुझ जैसों के लिये मैं ही काफी हूं।

[यसार तलवार लेकर झपटता है। अब्दुल्लाह एक ही वार में उसका काम तमाम कर देते हैं। तब सालिम उन पर टूट पड़ता है। अब्दुल्लाह की पांचों उंगलियां कट जाती है, तलवार जमीन पर गिर पड़ती है वह बाएं हाथ में नेजा ले लेते हैं, और सालिम के सोने में नेजा चुभा देते हैं। वह भी गिर पड़ता है। जियाद की फौज से निकलकर लोग अब्दुल्लाह को घेर लेते हैं। इधर से कमर लकड़ी लेकर दौड़ती है।]

कमर– मेरी जान तुम पर फ़िदा हो, रसूल के नवासे के लिये लड़ते-लड़ते जान दे दो। मैं भी तुम्हारी मदद को आई।

अब्बदुलाह– नहीं-नहीं, कमर मेरे लिये तुम्हारी दुआ काफी है; इधर मत आओ।

क़मर– मैं इन शैतानों को लकड़ी से मारकर गिरा दूंगी। एक के लिये दो भेजे, जब दोनों जहन्नुम पहुंच गए, जो सारी फौज़ निकल पड़ी। यह कौन-सी जंग है?

अब्बदुल्लाह– मैं एक ही हाथ से इन सबको मार गिराऊंगा। तुम खेमे में जाकर बैठो।

कमर– मैं जब तक जिंदा हूं, तुम्हारा साथ छोड़ूंगी। तुम्हारे साथ ही रसूल पाक की खिदमत में हाजिर हूंगी।

हुसैन– (कमर से) ऐ नेक खातून, तुझ पर अल्लाह ताला रहम करे। तुम वहां जाओगी, तो यहां मस्तूरात की खबर लेगा? औरतों को जिहाद करना मना है। लौट आओ, और देखो, तुम्हारा जांबाज शौहर एक हाथ से कितने आदमियों का मुकाबला कर रहा है। आफ़रीं है तुम पर, मेरे शेर। तुमने अपने रसूल की जो खिदमत की है, उसे हम कभी न भूलेंगे। खुदा तुम्हें उसकी सजा देगा। आह! जालिमों ने तीर मारकर गरीब को गिरा दिया! खुदा उसे जन्नत दे।

क़मर– या हज़रत इसका गम नहीं। वह आप पर निसार हो गए, इससे बेहतर और कौन-सी मौत हो सकती थी। काश मैं भी उनके साथ चली जाती। मेरे जांबाज! सच्चे दिलावर जा, और जन्नत में आराम कर। तू वह था जिसने कभी सायल को नही फेरा, जिसकी नीयत कभी खराब और निगाह कभी बुरी नहीं हुई। जा, और जन्नत में आराम कर।

हुसैन– कमर सब्र करो कि इसके सिवा कोई चारा नहीं है।

कमर– मुझे उनके मरने का गम नहीं हैं। मैं खुश हूं कि उन्होंने हक़ पर जान दी। इस वक्त अगर मेरे सौ बेटे होते, तो मैं इसी तरह उन्हें भी आपके कदमों पर निसार कर देती। काश वहब इतना जनपरस्त न होता…।

[वहब का प्रवेश]

वहब– अस्सलामअलेक या हज़रत हुसैन।

क़मर– (वहब को गले लगाकर) जरा देर पहले ही क्यों न आ गए बेटा कि अपने बाप का बेटा कि अपने बाप का आखिरी दीदार कर लेते। नसीमा कहां है?

वहब– यहीं खेमों के पीछे खड़ी है?

क़मर– मैं अभी तुम्हारा ही जिक्र कर रही थी। क्यों बेटा, अपने बाप का नाम रोशन न करोगे? मेरा तुम्हारे ऊपर बड़ा हक़ है। तुम मेरे जिगर का खून पीकर पले हो। मेरा दूध हलाल न करोगे! मेरी तमन्ना है कि हुसैन पर अपनी जान निसार करो, ताकि दुनिया में क़मर का नाम क़मर की तरह चमके, जिसका और बेटा, दोनों की हक़ पर शहीद हुए।

वहब– अम्माजान, मेरी भी दिली तमन्ना यह थी और है। मैं अपने बाप के नाम को दाग़ नहीं लगाना चाहता, मगर नसीमा को क्या करूं? उसकी मुसीबतों का खयाल हिम्मत को पस्त कर देता है। जाता हूं, अगर उसने इजाजत दे दी, तो मेरे लिये उससे बढ़कर खुशी नहीं हो सकती।

क़मर– बेटा, तुम उसकी आदत से वाकिफ होकर फिर उसी से पूछने जाते हो। इसके मानी इसके सिवा और कुछ नहीं है कि तुम खुद मैदान में जाते हुए डरते हो।

[वहब नसीमा के पास जाता है।]

नसीमा– काश जरा देर कब्ल आ जाते, तो अब्बाजान की आखिरी दुआएं मिल जाती।

वहब– हमारी बदनसीबी

नसीमा– मैं जानती हूं, तुम हमेशा के लिये खैरबाद कहने आए हो। जाओ, प्यारे, और एक सपूत बेटे की तरह अपने वालिद का नाम रोशन करो। काश औरतों पर जिहाद हराम न होता, तो मैं भी तुम्हारे ही साथ अपने को हक़ की हिमायत में निसार कर देती। जब से मैंने फ़र्जदें-रसूल की पाक सूरत देखी है, मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मेरा दिल रोशन हो गया है, और उस रोशनी में कुर्बान हो जाओ। नसीमा जब तक जिएगी, तुम्हारी मज़ार पर फ़ातिहा और दरूद पढ़ेगी। जाओ, जन्नत में मुझे भूल न जाना। मैंने हवस के दाम में फंसकर तुम्हें फ़र्ज के रास्ते से हटा दिया था। रसूल पाक से कहना, मेरा गुनाह मुआफ करें। जाओ, इन आंसुओं का खयाल न करो, वरना ये आंसू तुम्हारे जोश को बुझा देंगे। मैं अभी बहुत दिन तक रोऊंगी, तुम इसका ग़म न करना। जाओ, तुम्हें खुदा को सौंपा– आह! दिल फटा जाता है। कैसे सब्र करूं?

[वहब आंसू पोंछता हुआ जाता है।]

कमर– (अंदर आकर) बेटी, तुझे गले से लगा लूं, और तुझ पर अपनी जान फ़िदा, तूने खानदान की आबरू रख ली।

नसीमा– अम्माजान, रसूल पाक ने अगर कोई बेइंसाफी की, तो वह यही है कि औरतों पर जियाद हराम कर दिया, वरना इस वक्त मैं वहब के पहलू में होती। देखिए, दुश्मन उन पर चारों तरफ से कितनी बेदर्दी से नेजे़ और तीर फेंक रहे हैं। किसी की हिम्मत नहीं है कि उनके सामने खम ठोककर आए। आह! देखिए, उनके हाथ कितनी तेजी से चल रहे हैं। जिस पर उनका एक हाथ पड़ जाता है, वह फिर नहीं उठता, दुश्मन भागे जाते हैं। हा बुजदिलो, नामर्दो! वह इधर चले आ रहे हैं, बदन खून से तर हैं, जिस पर भी जख्म लगे हैं।

[वहब आकर खेमे के सामने खड़ा हो जाता है।]

वहब– अम्माजान, मुझसे राजी हुई?

क़मर– बेटा, तुझ पर हजार जान से निसार हूं। तुमने बाप का नाम रोशन कर दिया, लेकिन मैं चाहती हूं कि जब तक तेरे हाथों में ताकत है, तब तक दुश्मनों को आराम न लेने दे।

वहब– (स्वगत) आह! हक़ पर जान देना भी उतना आसान नहीं है, जितना लोग खयाल करते हैं। (प्रकट) अम्मा, यही मेरा भी इरादा है, लेकिन नसीमा के आसुंओं की याद मुझे खींच लाई है।

[क़मर चली जाती है।]

नसीमा, तुम्हें आखिरी बार देखने की तमन्ना मैदान से खींच लाई। सनम का पुजारी सनम ही पर कुर्बान हो सकता है, दीन और ईमान, हक़ और इंसाफ, ये सब उसकी नजरों में खिलौने की तरह लगते हैं। मुहब्बत दुनिया की सबसे मजबूत बेड़ी है, सबसे सख्त जंजीर। (चौंककर) कोई पहलवान मैदान में आकर ललकार रहा है। हाय! लानत हो उन पर, जो हक को पामाल करके हजारों को नामुराद मरने पर मजबूर करते हैं। नसीमा, हमेशा के लिये रूखसत? मेरी तरफ एक बार मुहब्बत की निगाहों से देख लो, उनमें मुहब्बत का ऐसा जाम हो कि उसका नशा मेरे सिर से कयामत तक न उतरे।

नसीमा– मेरी जान आह! दिल निकला जाता है…।

[वहब मैदान की तरफ चला जाता है।]

खुदा! काश मुझे मौत आ जाती कि वह दिलखराश नज्जारा आंखों से न देख पड़ता मेरा जवान दिलेर जांबाज शौहर मौत के मुंह में जा रहा है, और मैं बैठी देख रही हूं। जमीन, तू क्यों नहीं फट जाती कि मैं उसमें समा जाऊं, बिजली आसमान से गिरकर क्यों मेरा खातमा नहीं कर देती! वह देव उन पर तलवार लिए झपटा, या खुदा मुझ नामुराद पर रहम कर। दूर हो जालिम, सीधा जहन्नुम को चला जा। अब कोई आगे नहीं आता है। हाय! जालियों ने घेर लिया। खुदा, तू यह बेइंसाफी देख रहा है, और इन मूजियों पर अपना कहर नहीं नाजिल करता। एक के लिये एक फ़ौज भेज देना कौन-सा आईने-जंग है। हाय! खुदा गजब हो गया। अब नहीं देखा जाता।

[छाती पीटकर रोने लगती है, शिमर वहब का सिर काट कर फेंक देता है, कमर दौड़कर सिर को गोद में उठा लेती है, और उसे आंखों से लगाती हैं।]

कमर– मेरे सपूत बेटे, मुबारक है यह घड़ी कि मैं तुझे अपनी आंखों से हक़ पर शहीद होते देख रही हूं। आज तू मेरे कर्ज़ से अदा हो गया, आज मेरी मुराद पूरी हो गई, आज मेरी जिदंगी सफल हो गई, मैं अपनी सारी तकलीफ़ का सिला पा गई। खुदा तुझे शहीदों के पहलू में जगह दे। नसीमा…मेरी जान, आज तूने सच्चा सोहाग पाया है, जो कयामत तक तुझे सुहागिन बनाए रखेगा। अब हूरें तरे तलुओं-तले आंखे बिछांएगी, और फरिश्ते तेरे क़दमों की खाक का सुरमा बनाएंगे।

[वहब का सिर नसीमा की गोद में रख देती है, नसीमा सिर को गोद में रखे हुए बैठ करके रोती है।]

काजल बना-बनाके तेरी खाके–दर को मैं
रोशन करूंगी अपनी सवादे-नजर को मैं।
आंसू भी खश्क हो गए, अल्लाह रे सोज़े-गम,
क्योंकर बुझाऊँ आतिशे-दाग़े जिगर को मैं।
तेरे सिवा है कौन, जो बेकस की ले खबर,
आती न तेरे दर पर, तो जाती किधर को मैं।
तलवार कह रही है जवानी-कौम से–
मुद्दत से ढूंढ़ती हूं तुम्हारी कमर को मैं।
बाज आई मैं दुआ ही से, या रब कि कब तलक
करती फिरू तलाश जहां में असर को मैं।
गर-तेरी खाके दर से न मिलता यह इफ्तखार,
करती न यों बुलंद कभी अपने सिर को मैं।

हाय प्यारे! तुम कितने बेवफा़ हो, मुझे अकेले छोड़कर चले जाते हो! लो, मैं भी आती हूं। इतनी जल्दी नहीं, जरा ठहरो।

[साहसराय का प्रवेश]

साहसराय– सती, तुम्हें नमस्कार करता हूं।

नसीमा– साहब, आप खूब आए। आपका शुक्रिया तहेदिल से शुक्रिया आपने ही मुझे आज इस दर्जे पर पहुंचाया। आपके वतन में औरतें अपने शौहरों के बाद जिंदा नहीं रहती। वे बड़ी खुशनसीब होती हैं।

साहस०– सती, हम लोगों को आशीर्वाद दो।

नसीमा– (हंसकर) यह दरजा! अल्लाह रे मैं, यह वहब की बदौलत, उसकी शहादत के तुफैल, खुदा, तुमसे मेरी दुआ है, मेरी क़ौम में कभी शहीदों की कमी न रहे, कभी वह दिन न आए कि हक़ को जांबाजों की जरूरत हो, और उस पर सिर कटाने वाले न मिले। इस्लाम, मेरा प्यारा इस्लाम शहीदों से सदा मालामाल रहे!

[अपने दामन से एक सलाई निकालकर वहब के खून में डुबाती।]

क्यों, साहसराय, तुम्हारे यहां सती के जिस्म से आग निकलती है, और वह उसमें जल जाती है। क्या बिला आग के जान नहीं निकालती?

साहस०– नसीमा, तू देवी है। ऐसी देवियों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। आकाश से देवता तुझ पर पुष्प-वर्षा कर रहे हैं।

[नसीमा आंखों में सलाई फेर लेती है, और एक आह के साथ उसकी जान निकल जाती है।]

तीसरा दृश्य

[दोपहर का समय। हजरत हुसैन अब्बास के साथ खेमे के दरवाजे पर खड़े मैदाने-जंग की तरफ ताक रहे हैं।]

हुसैन– कैसे-कैसे जांबाज दोस्त रुखसत हो गए और होते जा रहे हैं। प्यास से कलेजे मुंह को आ रहे हैं, और ये जालिम नमाज तक की मुहलत नहीं देते। आह! जहीर का सा दीनदार उठ गया, मुसलिम बिन ऊसजा इस आलमेजईफ़ी में भी कितने जोश से लड़े। किस-किसका नाम गिनाऊं।

अब्बास-या हजरत, मुझे अंदेशा हो रहा है कि शिमर कोई नया सितम ढाने की तैयारियां कर रहा है। यह देखिए, वह सिपाहियों की एक बड़ी जमैयत लिए इधर चला जाता है।

हबीब– (जोश से) शिमर, खबरदार, अगर इधर एक कदम भी बढ़ाया, तो तेरी लाश पर कुत्ते रोवेगे। तुझे शर्म नहीं आती जालिम कि अहलेबैत के खेमे पर हमला करना चाहता है।

शिमर– हम इस हमले से जंग का फैसला कर देना चाहते हैं। जवानो, तीर बरसाओ।

हुसैन– अफसोस, घोड़े मरे जा रहे हैं। घुटने टेककर बैठ जाओ, और तीरों का जवाब दो। खुदा ही हमारा वाली और हाफ़िज हैं।

शिमर– बढ़ो-बढ़ो, एक आन में फैसला हुआ जाता है।

सिपाही– देखते नहीं हो; हमारी सफ़ें खाली होती जाती हैं! यह तीर हैं। या खुदा का गजब। हम आदमियों से लड़ने आए हैं, देवों से नहीं।

शिमर– लड़कियां जलाओ, फौरन इन खेमों पर आग के अंगारे फेंको, जलते हुए कुंदे फेंको जलाकर स्याह कर दो।

[आग की बारिश होने लगती है। औरतें खेमे से चिल्लाती हुई बाहर निकल आती है।]

जैनब– तुफ् है तुझ पर जालिम, मर्दों से नहीं, औरतों पर अपनी दिलेरी दिखाता है।

हुसैन– साद! यह क्या सितम हैं? तुम लोगों का दुश्मन मैं हूं। मुझसे लड़ो, खेमों में और औरतों और बच्चों के सिवा कोई मर्द नहीं है। वे गरीब निकलकर भाग न सकी, तो हम इधर चले जायेगें, तुमसे लड़ न सकेंगे। अफसोस है कि इतनी जमैयत के होते हुए भी तुम यह विदअतें कर रहे हो।

शिमर– फेंको अंगारे। मुझे दोजख में जलना नसीब हो, अगर मैं इन सब खेमों को जला न डालूं।

शीस– शिमर, तुम्हारी यह हरकत आईने जंग के खिलाफ़ है। हिसाब के दिन तुम्हीं इसके जिम्मेदार होंगे।

कीस– रोको अपने आदमियों को।

शिमर– मैं अपने फ़ैल का मुख्तार हूं। आग बरसाओ, लगा दो आग।

शीस– साद, खुदा को क्या मुंह दिखाओगे?

हबीब– दोस्त, टूट पड़ो, शिमर, पर, बाज की तरह टूट पड़ो। नामूसे-हुसैन पर निसार हो जाओ। एकबारगी नेजों का वार करो।

[हबीब और उनके साथ दस आदमी नेजे ले जाकर शिमर पर टूट पड़ते हैं। शिमर भागता है, और उसकी फौज भी भाग जाती है।]

हुसैन– हबीब, तुमने आज अहलेबैत की आबरू रख ली। खुदा तुम्हें इसकी सज़ा दे।

हबीब– या मौला, दुश्मन दो-चार लम्हों के लिए हट गया है, नमाज का वक्त आ गया है, हमारी तमन्ना है कि आपके साथ आखिरी नमाज पढ़ ले। शायद फिर यह मौका न मिले।

हुसैन– खुदा तुम पर रहम करे, अजान दो। ऐ साद, क्या तू इस्लाम की शरियत को भी भूल गया? क्या इतनी मुहलत न देगा कि नमाज पढ़कर जंग की जाय?

शिमर– खुदा पाक की कसम, हर्गिज नहीं। तुम बेनमाज़ क़त्ल किए जाओगे। शरियत बागियों के लिए नहीं है।

हबीब– या मौला, आप नमाज अदा फरमाएं, इस मूजी को बकने दें। इसकी इतनी मजाल नहीं है कि नमाज में मुखिल हो।

[लोग नमाज पढ़ने लगते हैं। साहसराय और उनके सातों भाई हुसैन की पुश्त पर खड़े शिमर के तीरों से उनको बचाते रहते हैं। नमाज खत्म हो जाती है।]

हुसैन– दोस्तों, मेरे प्यारे ग़मसारो, यह नमाज इस्लाम की तारीख में यादगार रहेगी। अगर खुदा के इन दिलेर बंदों ने, हमारे पुश्त पर खड़े होकर, हमें दुश्मनों के तीरों से न बचाया होता, तो हमारी नमाज हर्गिज न पूरी होती। ऐ हक़परस्तों, हम तुम्हें सलाम करते हैं। अगर्चे तुम मोमिन नहीं हो, लेकिन जिस मजहब के पैरों ऐसे हक़परजर, ऐसे इंसाफ पर जान देन वाले, जिंदगी को इस तरह नाचीज समझने वाले, मजलूमों की हिमायत में सिर काटने वाले हों, वह सच्चा और मिनजानिब खुदा है। वह मजहब दुनिया में हमेशा कायम रहे और नूरे इस्लाम के साथ उसकी रोशनी भी चारों तरफ फैले।

साहसराय– भगवन् आपने हमारे प्रति जो शुभेच्छाएं प्रकट की हैं, उनके लिए हम आपके कृतज्ञ हैं। मेरी भी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि जब कभी इस्लाम को हमारे रक्त की आवश्यकता हो, तो हमारी जाति में अपना वक्ष खोल देने वालों देने वालों की कमी न रहे। अब मुझे आज्ञा हो कि चलकर अपने प्रायश्चित की क्रिया पूरी करूं।

हुसैन– नहीं, मेरे दोस्तों, जब तक हम बाकी हैं, अपने मेहमानों में न जाने देंगे?

साहस०– हजरत, हम आपके मेहमान नहीं, सेवक हैं। सत्य और न्याय पर मरना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। यह हमारा कर्त्तव्य मात्र है, पर किसी पर एहसान नहीं।

हुसैन– आह! किस मुंह से कहूं कि जाइए। खुदा करे इस मैदान में हमारे और आपके खून से जिस इमारत की बुनियाद पड़ी है, वह जमाने की नज़र में हमेशा महफूज रहे, वह कभी वीरान न हो, उसमें हमेशा नग़मे की सदाएं बुलंद हों, और आफ़ताब की किरणें हमेशा उस पर चमकती रहें।

[सातों भाई गाते हुए मैदान में जाते हैं।]

जय भारत, जय भारत, जय मम प्राणपते!
भाल विशाल चमत्कृत सित हिमगिर राजे,
परसत बाल प्रभाकर हेम-प्रभा ब्राजे।
जय भारत…
ऋषि-मुनि पुण्य तपोनिधि तेज-पुंजधारी,
सब विधि अधम अविद्या भव-भय-तमहारी।
जय भारत…
जय जय वेद चतुर्मुख अखिल भेद ज्ञाता,
सुविमल शांति सुधा-निधि मुद मंगलदाता।
जय भारत…
जय जय विश्व-विदांवर जय विश्रुत नामी,
जय जय धर्म-धुरंधर जय श्रुति-पथगामी।
जय भारत…
अजित अजेय अलौकिक अतुलित बलधामा,
पूरन प्रेम-पयोनिधि शुभ गुन-गुन-ग्रामा।
जय भारत…
हे प्रिय पूज्य परम मन नमो-नमो देवा,
बिनवत अधम-पापि जन ग्रहन करहु सेवा।
जय भारत…

अब्बास– गज़ब जांबाज हैं। अब मुझ पर यह हकीकत खुली कि इस्लाम के दायरे के बाहर भी इस्लाम है। ये सचमुच मुसलमान हैं और रसूल पाक ऐसे आदमियों की शफ़ाअत न करें, मुमकिन नहीं।

हुसैन– कितनी दिलेरी से लड़ रहे हैं!

अब्बास– फौज़ में बेखौफ़ घुसे जाते हैं। ऐसी बेजिगरी से किसी के मौत के मुंह में जाते नहीं देखा।

अली अक०– ऐसे पांच सौ आदमी भी हमारे साथ होते, तो मैदान हमारा था।

हुसैन– आह! वह साहसहाय घोड़े से गिरे। मक्कार शिमर ने पीछे से वार किया। इस्लाम को बदनाम करने वाला मूजी!

अब्बास– वह दूसरा भाई भी गिरा।

हुसैन– इनके रिवाज के मुताबिक लाशों को जलाना होगा। चिता तैयार कराओ।

अली अक०– तीसरा भाई भी मारा गया।

अब्बास– जालिमों ने चारों तरफ़ से घेर लिया, मगर किस गजब के तीरंदाज हैं। तीर का शोला-सा निकलता है!

अली अक०– अल्लाह, उनके तीरों से आग निकल रही है। कोहराम मच गया, सारी जमैयत परेशान भागी जा रही है।

अब्बास– चारों सूरमा दुश्मन के खेमों की तरफ जा रहे हैं। फौज़ काई की तरह फटती जाती है। वह खेमों से शोला निकलने लगे!

अली अक०– या खुदा, चारों देखते-देखते गायब हो गये।

हुसैन– शायद उनके सामने कोई खदक खोदी गई है।

अब्बास– जी हां, यही मेरा भी खयाल है।

हुसैन– चिताएं तैयार कराओ। अगर फ़रेब न किया जाता, तो ये सारी फौज़ को खाक़ कर देते। तीर है या मौजजा।

अब्बास– खुदा के ऐसे बंदे भी है, जो बिना गरज के हक़ पर सिर कटाते हैं।

हुसैन– ये उस पाक मुल्क के रहने वाले हैं, जहां सबसे पहले तौहीद की सदा उठी थी। खुदा से मेरी दुआ है कि इन्हें शहीदों में ऊंचा रुतबा दे। वह चिता शोले उठे! ऐ खुदा, यह सोज इस्लाम के दिल से कभी न मिटे, इस क़ौम के लिए हमारे दिलेर हमेशा अपना खून बहाते रहें, यह बीज जो आज आग में बोया गया है, क़यामत तक फलता रहे।

चौथा दृश्य

[जैनब अपने खेमे में बैठी हुई है। शाम का वक्त]

जैनब– (स्वगत) अब्बास और अली अकबर के सिवा अब भैया के कोई रकीफ़ बाकी नहीं रहे। सब लोग उन पर निसार हो गए। हाय, कासिम-सा जवान, मुसलिम के बेटे, अब्बास के भाई, भैया इमाम हसन के चारों बेटे, सब दाग़ दिए गए। देखते-देखते हरा-भरा बाग वीरान् हो गया, गुलजार बस्ती उजड़ गई। सभी माताओं के कलेजे ठंडे हुए। बापों के दिल बाग़-बाग़ हुए। एक में ही बदनसीब नामुराद रह गई। खुदा ने मुझे भी दो बेटे दिए हैं, पर जब वे काम ही न आए, तो उनको देखकर जिगर क्या ठंडा हो। इससे तो यही बेहतर होता कि मैं बांझ ही रहती। तब यह बेवफ़ाई का दाग़ तो माथे पर न लगता। हुसैन ने इन लड़कों को अपने लड़कों की तरह समझा, लड़कों की तरह पाला, पर वे इस मुसीबत में, तारीकी में, साए की तरह साथ छोड़ देते हैं, दग़ा कर रहे हैं।

हां, यह दग़ा नहीं, तो और क्या है? आखिर भैया अपने दिल में क्या समझ रहे होंगे। कहीं यह खयाल न करते हों कि मैंने ही उन्हें मैदान जाने से मना कर दिया है। यह खयाल न पैदा हो कि मैं उनके साथ अपनी गरज निकालने के लिए जमानासाजी कर रही थी। आह! उन्हें क्योंकर अपना दिल खोलकर दिखा दूं कि वह उनके लिए कितना बेकरार है, पर अपने लड़कों पर काबू नहीं। जाओ, जैसे तुमने मेरे मुंह में कालिख लगाई है, मैं भी तुम्हें दूध न बख्शूंगी। ये इतने कम हिम्मत कैसे हो गए। जिसका नाना रण में तूफान पैदा कर देता था, जिनके बाप की ललकार सुनकर दुश्मनों के कलेजे दहल जाते थे, वे ही लड़के इतने वादे, पस्तहिम्मत हों। यह मेरी तकदीर की खराबी, और क्या! जब रण में जाना ही नहीं, तो वे हथियार सजाकर क्यों मुझे जलाते हैं। भैया को कौन-सा मुंह दिखाऊंगी, उनके सामने आंखें कैसे उठाऊंगी।

[दोनों लड़कों का प्रवेश]

औम– अम्माजान, आप हमारा फैसला कर दीजिए। मैं पहले रण में जाता हूं, पर यह मुझे जाने नहीं देता, कहता है पहले में जाऊंगा। सुबह से यही बहस छिड़ी हुई है, किसी तरह छोड़ता ही नहीं। बताओ, बड़े भाई के होते हुए छोटा भाई शहीद हो, यह कहां का इंसाफ है?

मुहम्मद– तो अम्माजान, यह कहां का इंसाफ है कि बड़ा भाई तो मरने जाये, और छोटा भाई बैठा उसकी लाश पर मातम करे। अम्मा, आप चाहे खुश हों या नाराज, यह तो मुझसे न होगा। शायद इनका यह ख्याल हो कि मैं जब क़ाबिल नहीं हूं। छोटा हूं, क्या जवाब दूं, लेकिन खुदा चाहेगा, तो–

एक हमले में गर हम उलट दें सफ़े लश्कर,
फिर दूध न अपना हमें तुम बख्शियो मादर!
शह के क़दमे-पाक पै सिर देके फिरेंगे,
या रण से सिरे-शिम्रोउमर लेके फिरेंगे।

अम्माजान, आप न मेरी खातिर कीजिए न इनकी, इंसाफ़ से फरमाइये पहले किसको जाने का हक है?

जैनब– अच्छा, तुम लोगों के रण में जाने का यह मतलब था। मैं कुछ और समझ रही थी। प्यारो, तुम्हारी मां ने तुम्हारी दिलेरी पर शक किया, इसे माफ करो। मालूम नहीं, मुझे क्या हो गया था कि मेरे दिल में तुम्हारी तरफ से ऐसे बसबसे पैदा हुए। लो, मैं झगड़ा चुकाए देती हूं। तुम दोनों खुदा का नाम लेकर साथ-साथ सिधारो, और दिखा दो कि तुम किसी शब्बीर की उल्फ़त में कम नहीं हो। मेरी और मेरे खानदान की आबरू तुम्हारे हाथ है।

शेरों के लिए नंग है तलवार से डरना,
मैदान में तन-मन के सिपर सीनों को करना।
हर जख्म पै दम उलफ़ते-शब्बीर का भरना,
कुरबान गई जीने से, बेहतर है वह मरना।
दुनिया में भला इज्जते-इस्लाम तो रह जाय,
तुम जीते रहो, या न रहो, नाम तो रह जाय।
नाना की तरह कौन बग़ा करता है देखूं?
सिर कौन हजारों के जुदा करता है देखूं?
हक़ कौन बहुत मां का अदा करता है देखूं?
एक-एक सफ़े-जंग में क्या करता है देखूं?
दिखलाइयों हाथों से सफाई का तमाशा,
मैं परदे से देखूंगी लड़ाई का तमाशा।

यह तो मैं जानती हूं कि तुम नाम करोगे, पर कमसिन बहुत हो, इसलिए समझती हूं। जाओ, तुम्हें खुदा को सौंपा।

[दोनों मैदान की तरफ जाकर लड़ते हैं, और जैनब परदे की आड़ से देखती है। शहरबानू का प्रवेश।]

शहरबानू– है-है, बहन, यह तुमने क्या सितम किया? इन नन्हें-नन्हें बच्चों को रण में झोंक दिया। अभी अली अकबर बैठा ही हुआ है, अब्बास मौजूद ही है, ऐसी क्या जल्दी पड़ी थी?

जैनब– वे किसी के रोके रुकते थे? कल ही से हथियार सजे मुंतजिर बैठे है। रात-भर तलवारें साफ की गई है और यहां आए ही किसलिए थे। जिन्दगी बाकी है, तो दोनों फिर आएंगे। मर जाने का ग़म नहीं, आखिर किस दिन काम आते। जिहद में छोटे-बड़े की तमीज़ नहीं रहती। मैं रसूल पाक को कौन मुंह दिखाती।

शहरबानू– देखो, हाय-हाय, दोनों के दुश्मनों को किस तरह घेर रखा है। कोई जाकर बेचारों को घेर भी नहीं लेता। शब्बीर भी बैठे तमाशा देख रहे हैं। यह नहीं कि किसी को भेज दें। हैं तो जरा-जरा से, पर कैसे मछलियों की तरह चमकते फिरते है! खैर अच्छा हुआ, अब्बास दौड़े जा रहे हैं।

[अब्बास का मैदान की तरफ दौड़े हुए आना।]

जैनब– (खेमे से निकलकर) अब्बास, तुम्हें रसूल पाक की कसम है, जो उन्हें लौटाने जाओ। हां, उनका दिल बढ़ाते जाओ। क्या मुझे शहादत के सवाब में कुछ भी देने का इरादा नहीं है? भैया तो इतने खुदग़रज कभी न थे!

[दोनों भाई मारे जाते हैं। हुसैन और अब्बास उनकी लाश उठाने जाते हैं, और जैनब एक आह भरकर बेहोश हो जाती है।]

पांचवां दृश्य

[१२ बजे रात का समय। लड़ाई ज़रा देर के लिए बंद है। दुश्मन की फ़ौज ग़ाफिल है। दरिया का किनारा। अब्बास हाथों में मशक लिए दरिया के किनारे खड़े हैं।]

अब्बास– (दिल में) हम दरिया से कितने करीब हैं। इतनी ही दूर पर यह दरिया मौजें मार रहा है, पर हम पानी के एक-एक बूंद को तरसते रहते हैं। दो दिन से किसी के मुंह में पानी का कतरा नहीं गया, बच्चे वगैरह पानी के लिए बिलबिला रहे हैं, औरतों के लब खुश्क हुए जाते हैं, खुद हजरत हुसैन का बुरा हाल हो रहा है। मगर कोई अपनी तकलीफ़ किसी से नहीं कहती। बेचारी सकीना तड़प रही थी। काश ये जालिम इसी तरह गाफ़िल पड़े रहते, और मैं मशक लिए हुए बचकर निकल जाता। जी चाहता है, दरिया-का-दरिया पी जाऊं, पर गै़रत गवारा नहीं करती कि घर के सब आदमी तो प्यासों मर रहे हों, और मैं यहीं अपनी प्यास बुझाऊं। घोड़े ने भी पानी में मुंह नहीं डाला। वफा़दार जानवर! तू हैवान होकर इतना ग़ैरतमंद है, मैं इंसान होकर बेग़ैरतमंद हो जाऊं।

[दरिया से पानी लेकर घाट पर चढ़ते हैं।]

एक सिपाही– यह कौन पानी लिए जाता है?

अब्बास– (खामोश)

कई आदमी– क्या कोई पानी ले रहा है? खड़ा रह।

[कई सिपाही अब्बास को घेर लेते हैं।]

एक– यह तो हुसैन के लश्कर का आदमी है– क्यों जी, तुम्हारा क्या नाम है?

अब्बास– मैं हजरत हुसैन का भाई अब्बास हूं।

कई आदमी– छीन लो मशक।

अब्बास– इतना आसान न समझो। एक-एक बूंद पानी के लिए एक-एक सिर देना पड़ेगा। पानी इतना महंगा कभी न बिका होगा।

[अब्बास तलवार खींचकर दुश्मनों पर झपट पड़ते हैं, और उनके घेरे से निकल जाने की कोशिश करते हैं।]

[शिमर दौड़ा हुआ आता है।]

शिमर– खबरदार, खबरदार, चारों तरफ से घेर लो, मशक में नेजे मारो, मशक में।

अब्बास– अरे जालिम, बेदर्द! तू मुसलमान होकर नबी की औलाद पर इतनी संख्तियां कर रहा है। बच्चे प्यासों तड़प रहे हैं, हज़रत हुसैन का बुरा हाल हो रहा है, और तुझे जरा दर्द नहीं आता।

शिमर– खलीफ़ा से बग़ावत करने वाला मुसलमान मुसलमान नहीं, और न उसके साथ कोई रियायत की जा सकती है। दिलेरी, बस, जंग का इसी दम खातमा है। अब्बास को लिया, फिर वहां हुसैन के सिवा और कोई बाकी न रहेगा।

[सिपाही अब्बास पर नेजे चलाते हैं, और अब्बास नेजों को तलवार से काट देते हैं।]

[साद का प्रवेश]

साद– ठहरो-ठहरो! दुश्मन को दोस्त बना लेने में जितना फायदा है, उतना कत्ल करने में नहीं। अब्बास, मैं आपसे कुछ अर्ज करना चाहता हूं। एक दम के लिए तलवार रोक दीजिए। तनी हुई तलवार मसालहत की जबान बंद कर देती है।

अब्बास– मसालहत की गुफ्तगू अगर करनी है, तो हज़रत हुसैन के पास क्यों नहीं जाते। हालांकि अब वह कुछ न सुनेंगे। दो भांजे, दो भतीजे मारे जा चुके, कितने ही अहबाब शहीद हो चुके, वह खुद जिन्दगी से बेजार हैं, मरने पर कमर बांध चुके हैं।

साद– तो ऐसी हालत में आपको अपनी जान की और भी कद्र करनी चाहिए। दुनिया में अली की कोई निशानी तो रहे। खानदान का नाम तो न मिटे।

अब्बास– भाई के बाद जीना बेकार है।

साद–

माबैन लहद साथ बिरादर नहीं जाता,
भाई कोई भाई के लिए मर नहीं जाता।

अब्बास–

भाई के लिये जी से गुजर जाता है भाई?
जाता है बिरादर भी जिधर जाता है भाई?
क्या भाई हो तेगों में तो डर जाता है भाई।
आंच आती है भाई पै, तो मर जाता है भाई।

साद– आपसे तो खलीफ़ा को कोई दुश्मनी नहीं, आप उनकी बैयत क़बूल कर लें, तो आपकी हर तरह भलाई होगी। आप जो रुतबा चाहेंगे, वह आपको मिल जायेगा, और आप हजरत अली के जानशीन समझे जायेंगे।

अब्बास– जब हुसैन-जैसे सुलहपसंद आदमी ने जिसने कभी गुस्से को पास नहीं आने दिया, जिसने जंग पर कभी सबकत नहीं की, जिसने आज भी मुझसे ताक़ीत कर दी कि राह न मिले, तो दरिया पर न जाना तुम्हारी बात नहीं मानी, तो मैं जो इस औसाफ में से एक भी नहीं रखता, तुम्हारी बातें मानूंगा।

साद– तुम्हें अख्तियार है।

शिमर– टूट पड़ो, टूट पड़ो।

[एक सिपाही पीछे से आकर एक तलवार मारता है, जिससे अब्बास का दाहिना हाथ कट जाता है। अब्बास बाएं हाथ में तलवार ले लेते हैं।]

शिमर– अभी एक हाथ बाकी है, जो उसे गिरा दे, उसे एक लाख दीनार इनाम मिलेगा। चारों तरफ़ से जख्मी सिपाहियों की आहें सुनाई दे रही हैं। अब्बास सफ़ों को चीरते, सिपाहियों को गिराते हुसैन के खेमे के सामने पहुंच जाते हैं। इनमें से एक सिपाही तलवार से उनका बायां हाथ भी गिरा देता है। शिमर उनकी छाती में भाला चुभा देता है। अब्बास मशक दांतों से पकड़ लेते है। तब सिर पर एक गुर्ज पड़ता है, और अब्बास घोड़े से गिर पड़ते हैं।

अब्बास– (चिल्लाकर) भैया, तुम्हारा गुलाम अब जाता है– उसका आखिरी सलाम कबूल करो।

[हुसैन खेमे से बाहर निकलकर दौड़ते हुए आते हैं, और अब्बास के पास पहुंच कर उन्हें गोद में उठा लेते है]

हुसैन– आह! मेरे प्यारे भाई, मेरे क़बूते-बाजू, तुम्हारी मौत ने कमर तोड़ दी। हाय! अब कोई सहारा नहीं रहा। तुम्हें अपने पहलू में देखते हुए मुझे वह भरोसा होता था, जो बच्चे को अपनी मां की गोद में होता है। तुम मेरे पुश्तेपनाह थे। हाय! अब किसे देखकर दिल को ढाढ़स होगा। आह! अगर तुम्हें इतनी जल्द रुखसत होना था, तो पहले मुझी को क्यों न मर जाने दिया? आह अब तक मैंने तुम्हें इस तरह बचाया था, जैसे कोई आंधी से चिराग से बचाता है। पर क़ज़ा से कुछ बस न चला। हाय! मैं खुद क्यों न पानी लेने गया। हाय, अब खैर, भैया इतनी तस्कीन है कि फिर हमसे तुमसे मुलाकात होगी, और फिर हम क़यामत तक न जुदा होंगे।

छठा दृश्य

[दोपहर का समय। हुसैन अपने खेमे में खड़े है, जैनब, कुलसूम, सकीना, शहरबानू, सब उन्हें घेरे खड़े हैं।]

हुसैन– जैनब, अब्बास के बाद अली अकबर दिल को तस्कीन देता था। अब किसे देखकर दिल को ढाढ़स दूं? हाय! मेरा जवान बेटा प्यासा तड़प-तड़पकर मर गया! किस शान से मैदान की तरफ़ गया था। कितना हंसमुख, कितना हिम्मत का धनी! जैनब, मैंने उसे कभी उदास नहीं देखा, हमेशा मुस्कुराता रहता था। ऐ आंखों! अगर रोई, तो तुम्हें निकालकर फेंक दूंगा। खुदा की मर्जी में रोना कैसा! मालूम होता है, सारी कुदरत मुझे तबाह करने पर तुली हुई है। यह धूप कि उसकी तरफ ताकने ही से आंखें जलने लगती है! यह जलता हुआ बालू, ये लू के झूलसाने वाले झोंके, और यह प्यास! यों जिंदा जलना तीरों और भालों के जख्मों से कहीं ज्यादा सख्त है।

[अली असगर आता है, और बेहोश होकर गिर पड़ता है।]

शहरबानू– हाय, मेरे बच्चे को क्या हुआ!

हुसैन– (असगर को गोद में उठाकर) आह! यह फूल पानी के बग़ैर मुर्झाया जा रहा है। खुदा, इस रंज में अगर मेरी जबान से तेरी शान में कोई बेअदबी हो जाये, तो माफ कीजिए, मैं अपने होश में नहीं हूं। एक कटोरे पानी के लिए इस वक्त मैं जन्नत के हाथ धोने को तैयार हूं।

[असगर को गोद में लिए खेमे से बाहर आकर।]

ऐ जालिम क़ौम, अगर तुम्हारे खयाल में गुनहगार हूं, तो इस बच्चे ने तो कोई खता नहीं की है, इसे एक घूंट पानी पिला दो। मैं तुम्हारी नबी को नेवासा हूं, अगर इसमें तुम्हें शक है, तो काबा का बेकस मुसाफिर तो हूं। इससे भी अगर तुम्हें ताम्मुल हो, तो मुसलमान तो हूं। यह भी नहीं, तो अल्लाह का एक नाचीज बंदा तो हूं। क्या मेरे मरते हुए बच्चे पर तुम्हें इतना रहम भी नहीं आता?

मैं यह नहीं कहता हूं कि पानी मुझे ला दो,
तुम आन के चिल्लू से इसे आब पिला दो।
मरता है यह, मरते हुए बच्चे को जिला दो,
लिल्लाह, कलेजे की मेरी आग बुझा दो।
जब मुंह मेरा तकता है यह हसरत की नजर से,
ऐ जालिमो, उठता है धुआं मेरे जिगर से।

[शिमर एक तीर मारता है, असगर के गले को छेदता हुआ हुसैन के बाजू में चुभ जाता है। हुसैन जल्दी से तीर को निकालते हैं और तीर निकलते ही असगर की जान निकल जाती है। हुसैन असगर को लिये फिर खेमे में आते हैं।]

शहरबानू– यह मेरा फूल-सा बच्चा!

हुसैन– हमेशा के लिये इसकी प्यास बुझ गई। (खून से चिल्लू भरकर आसमान की तरफ उछालते हुए।) इस सब आफ़तों का गवाह खुदा हैं। अब कौन है, जो जालिमों से इस खून का बदला लें।

[सज्जाद चारपाई से उठकर, लड़खड़ाते हुए मैदान की तरफ चलते हैं।]

जैनब– अरे बेटा, तुम में तो खड़े होने की भी ताब नहीं, महीनों से आंखें नहीं खोली, तुम कहाँ जाते हो।

सज्जाद– बिस्तर पर मरने से मैदान में मरना अच्छा है। जब सब जन्नत पहुंच चुके, तो मैं यहां क्यों पड़ा रहूं।?

हुसैन– बेटा, खुदा के लिये बाप के ऊपर रहम करो, वापस जाओ। रसूल की तुम्हीं एक निशानी हो। तुम्हारे ही ऊपर औरतों की हिफ़ाजत का भार है। आह! और कौन है, जो इस फ़र्ज को अदा करे। तुम्हीं मेरे जांनसीन हो, इन सबको तुम्हारे हवाले करता हूं। खुदा हाफिज! ऐ जैनब, ऐ कुलसूम, ऐ सकीना, तुम लोगों पर मेरा सलाम हो कि यह आखिरी मुलाकात है।

[जैनब रोती हुई हुसैन से लिपट जाती है।]

सकीना– अब किसका मुंह देखकर जिऊंगी।

हुसैन– जैनब!

मरकर भी न भूलूंगा मैं एहसान तुम्हारे;
बेटों को भला कौन बहन भाई पै वारे।
प्यार न किया उनको, जो थे जान से प्यारे;
बस, मा की मुहब्बत के थे ये अंदाज हैं सारे।
फ़ाके में हमें बर्छियां खाने की रज़ा दो;
बस, अब यही उल्फ़त है कि जाने की रज़ा़ दो।
हमशीर का ग़म है किसी भाई को गवारा?
मजबूर है लेकिन असद अल्लाह का प्यारा।
रंज और मुसीबत से कलेजा है दो पारा;
किससे कहूं, जैसा मुझे सदमा है तुम्हारा।
इस घर की तबाही के लिये रोता है शब्बीर।
तुम छूटती नहीं मां से जुदा होता है शब्बीर।

[हाथ उठाकर दुआ करते हैं।]

या रब, है यह सादात का घर तेरे हवाले,
रांड हैं कई खस्ता जिग़र तेरे हवाले,
बेकस है बीमार पिसर तेरे हवाले,
सब हैं मेरे दरिया के गुहरे तेरे हवाले।

[मैदान की तरफ जाते हैं।]

शिमर– (फौज से) खबरदार, खबरदार, हुसैन आए। सब-के-सब संभल जाओ। समझ लो, अब मैदान तुम्हारा है।

[हुसैन फ़ौज के सामने खड़े होकर कहते हैं।]

बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का!
मां ऐसी कि सब जिसकी शफा़अत के हैं मुहताज,
बाप ऐसा, सनमखानों को जिसने किया ताराज;
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का।
लड़ने को अगर हैदर सफ़दर न निकलते,
बुत घर से खुदा के कभी बाहर न निकलते।
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का।
किस जंग में सीने को सिपर करके न आए?
किस फौ़ज की सफ़ जेर व ज़बर करके न आए?
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का।
हम पाक न करते, तो जहां पाक न होता,
कुछ खाक की दुनिया में सिवा खाक न होता।
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का।
यह शोर अजां का सहरोशाम कहां था।
हम फर्श पै जब थे, तो यह इस्लाम कहां था?
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का।
लाजिम है कि सादात की इमदाद करो तुम।
ऐ जालिमों, इस घर को न बरबाद करो तुम।
बेटा हूं अली का व नेवासा रसूल का।


[फौज पर टूट पड़ते हैं।]


शिमर– अरे नामर्दो, क्यों भागे जाते हो, कोई शेर नहीं, जो सबको खा जायेगा।

एक सिपाही– जरा सामने आकर देखो, तो मालूम हो। पीछे खड़े-खड़े मुंह के आगे खंदक क्या है।

दूसरा– अरे, फिर इधर आ रहे हैं! खुदा बचाना!

तीसरा– उन पर तलवार चलाने को तो हाथ भी नहीं उठते। उनकी सूरत देखते ही कलेजा थर्रा जाता है।

चौथा– मैं तो हवा में तीर छोड़ता हूं, कौन जाने, कहीं मेरे ही तीर से शहीद हो जायें, तो आक़बत में कौन मुंह दिखाऊंगा।

पांचवा-मैं भी हवा ही में छोड़ता हूं।

शिमर– (तीर चलाकर) क्यों भागते हो? क्यों अपने मुंह में कालिख लगाते हो? दुनिया क्या कहेगी, इसकी भी तुम्हें शर्म नहीं?

क़ीस– सारी फौ़ज दहल गई, उसको खड़ा रखना मुश्किल हैं।

शीस– अली के सिवा और किसी को यह दम-खम नहीं देखा।

शिमर– (तीर चलाकर) सफ़ो को खूब फैला दो, ताकि दौड़ते-दौड़ते गिर पड़ें।

हुसैन– साद और शिमर, मैं तुम्हें फिर मौका देता हूं, मुझे लौट जाने दो, क्यों इन गरीबों की जान के दुश्मन हो रहे हो? तुम्हारा मैदान खाली हो गया। तुम्हीं सामने आ जाओ, जंग का फैसला हो जाये।

साद– शिमर, जाते हो?

शिमर– क्यों न जाऊंगा, यहां जान देने नहीं आया हूं।

साद– मैं जाऊं भी, तो लड़ नहीं सकता।

[हुसैन दरिया की तरफ़ जाते हैं।]

शिमर– अब और भी गजब हो गया, पानी पीकर लौटे, तो खुदा जाने क्या करेंगे। हज्जात को ताकीद करनी चाहिए कि दरिया का रास्ता न दे।

[हज्जाज को बुलाकर]

हज्जाज, हुसैन को हर्गिज दरिया की तरफ न जाने देना।

हज्जाज– (स्वगत) यह अजाब क्यों अपने सिर लूं। मुझे भी तो रसूल से कयामत में काम पड़ेगा। (प्रकट) जी हां, आदमियों को जमा कर रहा हूं।

[हुसैन घोड़े की बाग ढीली कर देते हैं, पर वह पानी की तरफ गर्दन नहीं बढ़ाता, मुंह फेरकर हुसैन की रकाब को खींचता है।]

हुसैन– आह! मेरे प्यारे बेजबान दोस्त! तू हैवान होकर आक़ा का इतना लिहाज करता है, ये इंसान होकर अपने रसूल के बेटे के खून के प्यासे हो रहे हैं। मैं तब तक पानी पीऊंगा, जब तक तू न पिएगा।

(पानी पीना चाहते हैं।)

हज्जा– हुसैन, तुम यहां पानी पी रहे हो, और लश्कर खेमों में घुसा जाता है।

हुसैन– तू सच कहता है?

हुसैन– यकीन न आए, जो जाकर देख आओ।

हुसैन– (स्वगत) इस बेकली की हालत में कोई मुझसे दग़ा नहीं कर सकता। मरते हुए आदमी से दग़ा करके कोई क्यों अपनी इज्जत से हाथ धोएगा।

[घोड़े को फेर देते हैं, और दौड़ते हुए खेमे की तरफ़ आते हैं।]

आह! इंसान उसने कहीं ज्यादा कमीना और कोरबातिन है, जितना मैं समझता था। इस आखिरी वक्त में मुझसे दग़ा की और महज इसलिए कि मैं पानी न पी सकूं।

[फिर मैदान में आकर लश्कर पर टूट पड़ते हैं, सिपाही इधर-उधर भागने लगते हैं।]

शिमर– (तीर चलाकर) तुम मेरे ही हाथों मरोगे।

[तीर हुसैन के मुंह में लगता है, और वह घोड़े से गिर पड़ते हैं। फिर संभलकर उठते हैं, और तलवार चलाने लगते हैं।]

साद– शिमर, तुम्हारे सिपाही हुसैन के खेमों की तरफ़ जा रहे हैं, यह मुनासिब नहीं।

शिमर– औरतों का हिफाजत करना हमारा काम नहीं है।

हुसैन– (दाढ़ी से खून पोछते हुए) साद, तुम्हें दीन का खौफ़ नहीं है, तो इंसान तो हो, तुम्हारी भी तो बाल-बच्चे हैं। इन बदमाशों को मेरे खेमों में आने से क्यों नहीं रोकते ?

साद– आपके खेमों में कोई न जा सकेगा, जब तक मैं जिंदा हूं।

[खेमो के सामने आकर खड़ा हो जाता है।]

जैनब– (बाहर निकलकर) क्यों साद! हुसैन इस बेकसी से मारे जायें, और तुम खड़े देखते रहो? माल और दुनिया तुम्हें इतनी प्यारी है!

[साद मुंह फेरकर रोने लगता है।]

शिमर– तुफ् है तुम पर ऐ जवानों! एक प्यादा भी तुमसे नहीं मारा जाता! तुम अब नाहक डरते हो। हुसैन में अब जान नहीं है, उनके हाथ नहीं उठते, पैर थर्रा रहे हैं, आँखें झपकी जाती है, फिर भी तुम उनको शेर समझ रहे हो।

हुसैन– (दिल में) मालूम नहीं, मैंने कितने आदमियों को मारा, और अब भी मार सकता हूं, है तो मेरे नाना ही की उमत्त, हैं तो सब मुसलमान, फिर इन्हें मारूं, तो किसलिये? अब कौन है, जिसके लिये जिंदा रहूं? हाय, अकबर! किससे कहें, जो खूने-जिगर हमने पिया है, बाद ऐसे पिसर के भी कहीं बाप जिया है।

हाय अब्बास!

अब्बास–

गश आता है हमें प्यास के मारे,
उलफ़त हमें ले आई है फिर पास तुम्हारे।
इन सूखे हुए होठों से होठों को मिला के,
कुछ मशक में पानी हो, तो भाई पिला दो।
लेटे हुए हो रेत में क्यों मुंह को छिपाए?
ग़ाफिल हो बिरादर तुम्हें किस तरह जगाएं?
खुश हूंगा में, आगे जो अलम लेके बढ़ोगे,
क्या भाई के पीछे न नमाज आज पढ़ोगे?

लड़ते-लड़ते शाम हो गई, हाथ नहीं उठते। आखिरी नमाज पढ़ लूं। काश नमाज पढ़ते हुए सिर कट जाता, तो कितना अच्छा होता!

[हुसैन नमाज में झुक जाते है, अशअस पीछे आकर उनके कंधे पर तलवार मारता है। क़ीस दूसरे कंधे पर तलवार चलाता है। हुसैन उठते हैं, फिर गिर पड़ते हैं, फौज़ में सन्नाटा छा जाता है। सबके सब आकर उन्हें घेर लेते हैं।]

शिमर– खलीफा यजीद ने हुसैन का सिर मांगा था, कौन है यह फख हासिल करना चाहता है?

[एक सिपाही आगे बढ़कर तलवार चलाता है। मुसलिम की छोटी लड़की दौड़ी हुई खेमे से आती है, और हुसैन की पीठ पर हाथ रख देती है।]

नसीमा– ओ खबीस, क्या तू मेरे चचा का कत्ल करेगा?

[तलवार नसीमा के दोनों हाथों पर पड़ती है, और हाथ कट जाते हैं।]

[शीस तलवार लेकर आगे बढ़ता है, हुसैन का मुंह देखते ही तलवार उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती हैं।]

शिमर– क्यों, तलवार क्यों डाल दी?

शीस– उन्होंने जब आंखें खोलकर मुझे देखा, तो मालूम हुआ कि रसूल की आंखें हैं। मेरे होश उड़ गए।

कीस– मैं जाता हूं।

[तलवार लेकर जाता है, तलवार हाथ से गिर पड़ती हैं और उल्टे कदम कांपता हुआ लौट आता है।]

शिमर– क्यों, तुम्हें क्या हो गया?

क़ीम– यह हुसैन नहीं, खुद रसूल पाक हैं। रोब से मेरे होश गायब हो गए या खुदा जहन्नुम की आग में न डालियो।

शिमर– इनकी मौत मेरे हाथों लिखी हुई है। तुम सब दिल के कच्चे हो

[तलवार लेकर हुसैन के सीने पर चढ़ बैठता है।]

हुसैन– (आंखें खोलते हैं, और उसकी तरफ ताकते हैं।)

शिमर– मैं उन बुजदिलों में नहीं हूं, जो तुम्हारी निगाहों से दहल उठे थे।

हुसैन– तू कौन है?

शिमर– मेरा नाम शिमर है।

हुसैन– मुझे पहचानता है?

शिमर– खूब पहचानता हूं, तुम अली और फ़ातिमा के बेटे और मुहम्मद के नेवासे हो।

हुसैन– यह जानकर भी तू तुझे कत्ल करता है?

शिमर– मुझे जन्नत से जागीरें ज्यादा प्यारी हैं।

[तलवार मारता है, हुसैन का सिर जुदा हो जाता है।]

साद– रोता हुआ शिमर जियाद से कह देना, मुझे ‘रै’ की जागीर से माफ़ करें। शायद अब भी नजात हो जाय।

[अपने सीने में नेजा चुभा लेता है, और बेजान होकर गिर पड़ता है। फौज के कितने ही सिपाही हाथों में मुंह छिपाकर रोने लगते हैं। खेमों से रोने की आवाजें आने लगती हैं।]

।। समाप्त।।

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