कर्बला (नाटक) : प्रेमचंद

Karbala (Play) : Premchand

नाटक के पात्र

पुरुष

हुसैन-हज़रत अली के बेटे और हज़रत मोहम्मद के नवासे । इन्हें फ़र्ज़न्दे-रसूल,शब्बीर,भी कहा गया है।

अब्बास-हज़रत हुसैन के चचेरे भाई ।

अली अकबर-हजरत हुसैन के बड़े बेटे ।

अली असगर-हजरत हुसैन के छोटे बेटे ।

मुस्लिम-हज़रत हुसैन के चचेरे भाई ।

जुबेर-मक्का का एक रईस ।

वलीद-मदीना का नाज़िम ।

मरवान-वलीन का सहायक अधिकारी ।

हानी-कूफ़ा का एक रईस ।

यजीद-खलीफा ।

नुहाक,शम्स,सरजन रूमी-यजीद के मुसाहिन ।

जियाद-बसरे और कू के का नाज़िम ।

साद-यज़ीद की सेना का सेनापति ।

अब्दुल्लाह,वहब,कसीर,मुख्तार,हुर,जहीर,हबीब आदि हजरत हुसैन के सहायक ।

हज्जाज, हारिस, अशअस, कीसे, वलाल आदि यज़ीद के सहायक ।

साहसराय-अरब-निवासी एक हिन्दू ।

मुआबिया-यज़ीद का बेटा ।

स्त्रियाँ

जैनब-हुसैन की बहन ।

शहरबानू-हुसैन की स्त्री।

सकीना-हुसैन की बेटी।

क़मर-अब्दुल्लाह की स्त्री।

तौबा-फा की एक वृद्धा स्त्री।

हिन्दा-यजीद की बेगम ।

क़ासिद-सिपाही, जल्लाद आदि ।

पहला अंक

पहला दृश्य

{समय-नौ बजे रात्रि। यजीद, जुहाक, शम्स और कई दरबारी बैठे हुए हैं। शराब की सुराही और प्याला रखा हुआ है।}

यजीद– नगर में मेरी खिलाफ़त का ढिंढोरा पीट दिया गया?

जुहाल– कोई गली, कूचा, नाका, सड़क, मसजिद, बाजार, खानक़ाह ऐसा नहीं है, जहां हमारे ढिंढोरे की आवाज न पहुंची हो। यह आवाज़ वायुमंडल को चीरती हुई हिजाज, यमन, इराक, मक्का-मदीना में गूंज रही है और, उसे सुनकर शत्रुओं के दिल दहल उठे हैं।

यजीद– नक्क़ार्ची को खिलअत दिया जाये।

जुहाक– बहुत खूब अमीर!

यजीद– मेरी बैयत लेने के लिए सबको हुक्म दे दिया गया?

जुहाक– अमीर के हुक्म देने की जरूरत न थी। कल सूर्योदय से पहले सारा शाम बैयत लेने को हाजिर हो जायेगा।

यजीद– (शराब का प्याला पीकर) नबी ने शराब को हराम कहा है। यह इस अमृत-रस के साथ कितना घोर अन्याय है! उस समय के लिये निषेध सर्वथा उचित था, क्योंकि उन दिनों किसी को यह आनंद भोगने का अवकाश न था। पर अब वह हालत नहीं है। तख्त पर बैठे हुए खलीफ़ा के लिए ऐसी नियामत हराम समझने से तो यह कहीं अच्छा है कि वह खलीफ़ा ही न रहे। क्यों जुहाक, कोई कासिद मदीने भेजा गया?

जुहाक– अमीर के हुक्म का इंतजार था।

यजीद– जुहाक, कसम है अल्लाह की; मैं इस विलंब को कभी क्षमा नहीं कर सकता। फौरन कासिद भेजो और वलीद को सख्त ताकीद लिखो कि वह हुसैन से मेरे नाम पर बैयत ले। अगर वह इनकार करें, तो उन्हें कत्ल कर दे। इनमें जरा भी देर न होनी चाहिए।

जुहाक– या मौला! मेरी अर्ज़ है कि हुसैन क़बूल भी कर लें, तो भी उनका जिंदा रहना अबूसिफ़ियान के खानदान के लिये उतना ही घातक है, जितना किसी सर्प को मारकर उसके बच्चे को पालना। हुसैन जरूर दावा करेंगे।

यजीद– जुहाक, क्या तुम समझते हो कि हुसैन कभी मेरी बैयत क़बूल कर सकते हैं? यह मुहाल है, असंभव है। हुसैन कभी मेरी बैयत न लेगा, चाहे उसकी बोटियां काट-काटकर कौवों को खिला दी जाये। अगर तक़दीर पलट सकती है, अगर दरिया का बहाव उलट सकता है, अगर समय की गति रुक जाये पर हुसैन दावा नहीं कर सकता। उसके बैयत लेने का मतलब ही यही है कि उसे इस जहान से रूखसत कर दिया जाये। हुसैन ही मेरा दुश्मन है। मुझे और किसी का खौफ़ नहीं, मैं सारी दुनिया की फ़ौजों से नहीं डरता, मैं डरता हूं इसी निहत्थे हुसैन से। (प्याला भरकर पी जाता है) इसी हुसैन ने मेरी नींद, मेरा आराम हराम कर रखा है। अबूसिफ़ियान की संतान हाशिम के बेटों के सामने सिर न झुकाएगी। खिलाफ़त को मुल्लाओं के हाथों में फिर न जाने देंगे। इन्होंने छोटे-बड़े की तमीज उठा दी। हरएक दहकान समझता है कि मैं खिलाफ़त की मसनद पर बैठने लायक हूं, और अमीरों के दस्तर्खान पर खाने का मुझे हक है। मेरे मरहूम बाप ने इस भ्रांति को बहुत कुछ मिटाया, और आज खलीफ़ा शान व शौकत में दुनिया के किसी ताजदार से शर्मिंदा नहीं हो सकता। जूते सीनेवाले और रूखी रोटियां खाकर खुदा का शुक्रिया अदा करने वाले खलीफों के दिन गए।

जुहाक– खुदा न करे, वह दिन फिर आए।

अब्दुलशम्स– इन हाशिमियों से हमें उस्मान के खून का बदला लेना है।

यजीद– ख़जाना खोल दो और रियाया का दिल अपनी मुट्ठी में कर लो। रुपया खुदा के खौंफ को दिल से दूर कर देता है। सारे शहर की दावत करो। कोई मुज़ायका नहीं, अगर ख़जाना खाली हो जाये। हर एक सिपाही को निहाल कर दो और, अगर रियायतें करने पर भी कोई तुमसे खिंचा रहे, तो उसे कत्ल कर दो। मुझे इस वक्त रुपए की ताकत से धर्म और भक्ति को जीतना है।

{हिंदा का प्रवेश}

यजीद– हिंदा, तुमने इस वक्त कैसे तकलीफ की?

हिंदा– या अमीर! मैं आपकी खिदमत में सिर्फ इसलिए हाज़िर हुई हूं कि आपको इस इरादे से बाज़ रखूं। आपको अमीर मुआविया की कसम, अपने दीन की, अपनी नजात को, अपने ईमान को यों न खराब कीजिए। जिस नवी से आपने इस्लाम की रोशनी पाई, जिसकी जात से आपको यह रुतबा मिला, जिसने आपकी आत्मा को अपने उपदेशों से जगाया, जिसने आपको अज्ञान के गढ्ढे से निकालकर आफ़ताब के पहलू में बिठा दिया, उसी खुदा के भेजे हुए बुजुर्ग के नवासे का खून बहाने के लिए आप आमादा है!

यजीद– हिंदा, खामोश रहो।

हिंदा– कैसे खामोश रहूं। आपको अपनी आंखों से जहन्नुम के गार में गिरते देखकर खामोश नहीं रह सकती। आपको मालूम नहीं रसूल की आत्मा स्वर्ग में बैठी हुई आपके इस अन्याय को देखकर आपको लानत दे रही होगी और, हिसाब के दिन आप अपना मुंह उन्हें न दिखा सकेंगे। क्या नहीं जानते, आप अपनी नजात का दरवाजा बंद कर रहे हैं।

यजीद– हिंदा, ये मजहब की बातें मजहब के लिये हैं, दुनिया के लिये नहीं। मेरे दादा इस्लाम इसलिये कबूल किया था कि इससे उन्हें दौलत और इज्जत हाथ आती थी। नजात के लिये वह इस्लाम पर ईमान नहीं लाए थे, और न मैं ही इस्लाम को नजात का जामिन समझने को तैयार हूं।

हिंदा– अमीर, खुदा के लिये यह कुवाक्य मुंह से न निकालो। आपको मालूम है, इस्लाम ने अरब से अधर्म के अंधेरे को कितनी आसानी से दूर कर दिया। अकेले एक आदमी ने काफ़िरों का निशान मिटा दिया। क्या खुदा की मरजी बिना यह बात हो सकती थी? कभी नहीं। तुम्हें मालूम है कि रसूल हुसैन को कितना प्यार करते थे? हुसैन को वह कंधों पर बिठाते और अपनी नूरानी डाढ़ी को उनके हाथों से नुचवाते थे। जिस माथे को तुम अपने पैरों पर झुकाना चाहती हो, उसके रसूल बोसे लेते थे। हुसैन से दुश्मनी करके तुम अपने हक़ में कांटे बो रहो हो। खिलाफत उसकी है, जिसे पंच दे; यह किसी की मीरास नहीं है। तुम खुद मदीने जाओ, और देखो, कौन किस पर खिलाफ़त का बार रखती है। उसके हाथों पर बैयत लो। अगर कौम तुमको इन रुतबे पर बैठा दे, तो मदीने में रहकर शौक से इस्लाम का खिदमत करो। मगर खुदा के वास्ते यह हंगामा न उठाओ। (जाती है।)

यजीद– सरजून रूमी की बुला लो।

{ सरजून आकर आदाब बजा लाता है। }

यजीद– आपके वालिद मरहूम की खिदमत जितनी वफ़ादारी के साथ की, उसके लिये मैं आपका शुक्रगुजार हूं। मगर इस वक्त मुझे आपकी पहले से कहीं ज्यादा जरूरत है। बसरे की सूबेदारी के लिए आप किसे तजबीज करते हैं?

रूमी– खुदा अमीर, को सलामत रखे। मेरे खयाल में अब्दुल्लाह बिन जियाद से ज्यादा लायक आदमी आपको मुश्किल से मिलेगा। जियाद ने अमीर मुआविया की जो खिदमत की, वह मिटाई नहीं जा सकती। अब्दुल्लाह उसी बाप का बेटा और खानदान का उतना ही सच्चा गुलाम है। उसके पास फ़ौरन कासिद भेज दीजिए।

यजीद– मुझे जियाद के बेटे से शिकायत है कि उसने बसरेवालों के इरादों की मुझे इत्तिला नहीं दी और मुझे यकीन है कि बसरेवाले मुझसे बग़ावत कर जायेंगे।

रूमी– या अमीर, आपका जियाद पर शक करना बेज़ा है। आपके मददगार आपके पास खुद-ब-खुद न आएंगे। वह तलाश करने से, मिन्नत करने से रियासत करने से आएंगे। आप ही आप वे लोग आएंगे, जो आपकी जात से खुद फायदा उठाना चाहते हैं। इस मंसब के लिये जियाद से बेहतर आदमी आपको न मिलेगा।

यजीद– सोचूंगा। (शराब का प्याला उठाता है।) जुहाक! कोई गीत तो सुनाओ। जिसकी मिठास उस फ़िक्र को मिटा दे, जो इस वक्त मेरे दिल और जिगर पर पत्थर की चट्टान की तरह रखी हुई है।

जुहाक– जैसा हुक्म।

{ डफ बजाकर गाता है। }

गाना

सफ़ी थक के बैठे दवा करनेवाले,
उठे हाथ उठाकर दुआ, करनेवाले।
वफ़ा पर हैं। मरते वफ़ा करनेवाले।
ज़फ़ा कर रहे हैं ज़फ़ा करनेवाले।
बचाकर चले खाक से अपना दामन,
लहद पर जो गुजरी हवा करनेवाले।
किसी बात भी तक कायम नहीं है,
ये जालिम, सितमगर, दगा करनेवाले।
तअज्जुब नहीं है, जो अब जहन दे दें,
ये जिच हो गए हैं दवा करनेवाले।
समझ ले कि दुश्वार है राजदारी,
किसी का किसी से गिला करनेवाले
अभी है बुतों को खुदाई का दावा,
खुदा जाने और क्या करनेवाले।

दूसरा दृश्य

{ रात का समय– मदीने का गवर्नर वलीद अपने दरबार में बैठा हुआ है। }

वलीद– (स्वागत) मरवान कितना खुदगरज आदमी है। मेरा मातहत होकर भी मुझ पर रोब जमाना चाहता है। उसकी मर्जी पर चलता, तो आज सारा मदीना मेरा दुश्मन होता। उसने रसूल के खानदान से हमेशा दुश्मनी की है।

{कासिद का प्रवेश}

कासिद– या अमीर, यह खलीफ़ा यजीद का खत है।

वलीद– (घबराकर) खलीफ़ा यजीद! अमीर मुआविया को क्या हुआ?

कासिद– आपको पूरी कैफ़ियत इस खत से मालूम होगी।

(खत वलीद के हाथ में देता है।)

वलीद– (खत पढ़कर) अमीर मुआविया की रूह को खुदा जन्नत में दाखिल करे। मगर समझ में नहीं आता कि यजीद क्योंकर खलीफ़ा हुए। क़ौम के नेताओं की कोई की कोई मजलिस नहीं हुई, और किसी ने उनके हाथ पर बैयत नहीं ली। महीने-भर में यह खबर फैलेगी तो गजब हो जायेगा। हुसैन यजीद को कभी खलीफ़ा न मागेंगे।

कासिद– (दूसरा खत देकर) हुजूर इसे भी देख ले।

वलीद– (खत लेकर पढ़ता है) ‘‘वलीद, हाकिम मदीना को ताक़ीद की जाती है कि इस खत को देखते ही हुसैन मेरे नाम पर बैयत न ले, तो उन्हें कत्ल कर दें, और उनका सिर मेरे पास भेज दें।’’ (सर्द सांस लेकर फ़र्श पर लेट जाता है।)

कासिद– मुझे क्या हुक्म होता है?

वलीद– तुम जाकर बाहर ठहरो (दिल में) खुदा वह दिन न लाए कि मुझे रसूल के नवासे के साथ यह घृणित व्यवहार करना पड़े। वलीद इतना बेदीन नहीं है। खुदा रसूल को इतना नहीं भूला है मेरे हाथ गिर पड़े इसके पहले कि मेरी तलवार हुसैन की गर्दन पर पड़े। काश, मुझे मालूम होता है अमीर मुआविया की मौत इतनी नज़दीक है, उसकी आंखें बंद होते ही मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा, तो पहले ही इस्तीफा देकर चला जाता। मरवान की सूरत देखने को जी नहीं चाहता, मगर इस वक्त उसकी मर्जी के खिलाफ। काम करना अपनी मौत को बुलाना है। वह रत्ती-रत्ती खबर यजीद के पास भेजेगा। उसके सामने मेरी कुछ भी न सुनी जायेगी। ऐसा अफ़सर, जो मातहतों से डरे, मातहत से भी बदतर है। जिस वजीर का गुलाम बादशाह का विश्वासपात्र हो, उसके लिये जंगल से ऊँट चराना उससे हजार दर्जे बेहतर है कि वह वजीर की मसनद पर बैठे।

(गुलाम को बुलाता है)

गुलाम– अमीर क्या हुक्म फ़र्माते हैं?

वलीद– जाकर मरवान को बुला ला।

गुलाम– जो हुक्म।

(जाता है।)

वलीद– (दिल में) हुसैन कितना नेक आदमी है। उसकी जबान से कभी किसी की बुराई नहीं सुनी। उसने कभी किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया। उससे मैं क्योंकर बैयत लूंगा।

(मरवान का प्रवेश)

मरवान– इतनी रात गए मुझे आप न बुलाया करें। मेरी जान इतनी सस्ती नहीं है कि बागियों को इस पर छिपकर हमला करने का मौका दिया जाये।

वलीद– तुम्हारा बर्ताव ही क्यों ऐसा हो कि तुम्हारे ऊपर किसी कातिल की तलवार उठे। अभी-अभी कासिद मुआबिया की मौत की खबर लाया है, और यजीद का यह खत भी आया है। मुझे तुमसे इसकी बाबत सलाह लेनी है।

(खत देता है)

मरवान– (खत पढ़कर) आह! मुआबिया, तुमने बेवक्त वफ़ात पाई। तुम्हारा नाम तारीख में हमेशा रोशन रहेगा। तुम्हारी नेकियों को याद करके लोग बहुत दिनों तक रोएंगे। यजीद ने खिलाफत अपने हाथ में ले ली, यह बहुत ही मुनासिब हुआ। मेरे ख़याल में हुसैन को इसी वक्त बुलाना चाहिए।

वलीद– तुम्हारे खयाल में बैयत ले लेंगे?

मरवान– गैरमुमकिन। उनसे बैयत लेना उन्हें कत्ल करने को कहना है। मगर अभी मुआबिया के मरने की खबर मशहूर न होनी चाहिए।

वलीद– इस मामले पर गौर करो।

मरवान– गौर की जरूरत नहीं, मैं आपकी जगह होता, तो बैयत का जिक्र ही न करता। फौरन कत्ल कर डालता। हुसैन के जिंदा रहते हुए यजीद को कभी इतमीनान नहीं हो सकता। यह भी याद रखिए कि मुआबिया के मरने की खबर फैल गई, तो न हमारी जान सलामत रहेगी, न आपकी। हुसैन से आपका कितना ही दोस्ताना हो, लेकिन वही हुसैन आपका जानी दुश्मन हो जायेगा।

वलीद– तुम्हें उम्मीद है कि वह इस वक्त यहाँ आएंगे। उन्हें शुबहा हो जायेगा।

मरवान– आपके ऊपर हुसैन का इतना भरोसा है, तो इस वक्त भी आएंगे। मगर आपकी तलवार तेज और खून गर्म रहना चाहिए। यही कारगुजारी का मौका है। अगर हम लोगों ने इस मौके पर यजीद की मदद की, तो कोई शक नहीं कि हमारे इक़बाल का सितारा रोशन हो जायेगा।

वलीद– मरवान, मैं यजीद का गुलाम नहीं, खलीफ़ा का नौकर हूं, और खलीफ़ा वही है, जिसे क़ौम चुनकर मसनद पर बिठा दे। मैं अपने दीन और ईमान का खून करने से यह कही बेहतर समझता हूं कि कुरान पाक की नकल करके जिंदगी बसर करूं।

मरवान– या अमीर, मैं आपको यजीद के गुस्से से होशियार किए देता हूं। मेरी और आपकी भलाई इसी मैं है कि यजीद का हुक्म बजा लाएं। हमारा काम उनको बंदगी करना है, आप दुविधा में न पड़ें। इसी वक्त हुसैन को बुला भेजें।

(गुलाम को पुकारता है)

गुलाम– या अमीर, क्या हुक्म है?

मरवान– जाकर हुसैन बिन अली को बुला ला। दौड़ते जाना और कहना कि अमीर आपके इंतजार में बैठे हैं।

(गुलाम चला जाता है)

तीसरा दृश्य

(रात का वक्त– हुसैन अब्बास मसजिद में बैठे बातें कर रहे हैं। एक दीपक जल रहा है।)

हुसैन– मैं जब ख़याल करता हूं कि नाना मरहूम ने तनहा बड़े-बड़े सरकश बादशाहों को पस्त कर दिया, और इतनी शानदार खिलाफत कायम कर दी, तो मुझे यकीन हो जाता है कि उन पर खुदा का साया था। खुदा की मदद के बग़ैर कोई इंसान यह काम न कर सकता था। सिकंदर की बादशाहत उसके मरते ही मिट गई, क़ैसर को बादशाहत उसकी जिंदगी के बाद बहुत थोड़े दिनों तक कायम रही, उन पर खुदा का साया न था, वह अपनी हवस की धुन में क़ौमों को फ़तह करते हैं। नाना ने इस्लाम के लिए झंड़ा बुलंद किया, इसी से वह कामयाब हुआ।

अब्बास– इसमें किसको शक हो सकता है कि वह खुदा के भेजे हुए थे। खुदा की पनाह, जिस वक्त हज़रत ने इस्लाम की आवाज उठाई थी, इस मुल्क में अज्ञान का कितना गहरा अंधकार छाया हुआ। वह खुदा की ही आवाज़ थी, जो उनके दिल में बैठी हुई बोल रही थी, जो कानों में पड़ते ही दिलों में गुजर जाती थी। दूसरे मजहब वाले कहते है, इस्लाम ने तलवार की ताकत से अपना प्रचार किया। काश, उन्होंने हज़रत की आवाज सुनी होती! मेरा तो दावा है कि कुरान में एक आयत भी ऐसी नहीं है, जिसकी मंशा तलवार से इस्लाम का फैलाना हो।

हुसैन– मगर कितने अफ़सोस की बात है कि अभी से कौम ने उनकी नसीहतों को भूलना शुरू किया, और वह नापाक, जो उनकी मसनद पर बैठा हुआ है, आज खुले बंदो शराब पीता है।

(गुलाम का प्रवेश)

गुलाम– नबी के बेटे पर खुदा की रहमत हो। अमीर ने आपको किसी बहुत जरूरी काम के लिये तलब किया है।

अब्बास– यह वक्त वलीद के दरबार का नहीं है।

गुलाम– हुजूर, कोई खास काम है।

हुसैन– अच्छा तू जा। हम घर जाने लगेंगे तो उधर से होते हुए जायेगें।

(गुलाम चला जाता है)

अब्बास– भाई! मुझे तो इस बेवक्त की तलबी से घबराहट हो गई है। यह वक्त वलीद के इजलास का नहीं है। मुझे दाल में कुछ काला नजर आता है। आप कुछ कयास कर सकते हैं कि किसलिये बुलाया होगा।

हुसैन– मेरा दिल तो गवाही देता है कि मुआबिए ने वफ़ात पाई।

अब्बास– तो वलीद ने आपको इसलिए बुलाया होगा कि आपसे यजीद की बैयत ले।

हुसैन– मैं यजीद की बैयत क्यों करने लगा। मुआबिया ने भैया इमाम हसन के साथ कसम खाकर शर्त की थी कि वह अपने मरने के बाद अपनी औलाद में किसी को खलीफ़ा न बनायेगा। हुसैन के बाद खिलाफत पर मेरा हक है। अगर मुआबिया मर गया है, और यजीद को खलीफ़ा बनाया गया है, तो उसने मेरे साथ और इस्लाम के साथ दग़ा की है। यजीद शराबी है, बदकार है, झूठा है, बेदीन है, कुत्तों को गोद में लेकर बैठता है। मेरी जान भी जाये, तो क्या, पर मैं उसकी बैयत न अख्तियार करूंगा।

अब्बास– मामला नाजुक है। यजीद की जात से कोई बात बईद नही। काश, हमें मुआबिया की बीमारी और मौत की खबर पहले ही मिल गई होती!

(गुलाम का फिर प्रवेश)

गुलाम– हुजूर तशरीफ नहीं लाए, अमीर आपके इंतजार में बैठे हुए हैं।

हुसैन– तुफ़ है मुझ पर! तू वहां पर गया भी कि रास्ते से ही लौट आया? चल, मैं अभी आता हूं। तू फिर न आना।

गुलाम– हुजूर, अमीर से जाकर जब मैंने कहा कि वह अभी आते हैं, तो वह चुप हो गए, लेकिन मरवान ने कहा कि वह कभी न आएंगे, आपसे दावा कर रहे हैं। इस पर अमीर उनसे बहुत नाराज हुए और कहा– हुसैन कौल के पक्के हैं, जो कहते हैं, उसे पूरा करते हैं।

हुसैन– वलीद शरीफ़ आदमी है। तुम जाओ, हम अभी आते हैं।

(गुलाम चला जाता है।)

अब्बास– आप जायेंगे?

हुसैन– जब तक कोई सबब न हो, किसी की नीयत पर शुबहा करना मुनासिब नहीं।

अब्बास– भैया, मेरी जान आप पर फ़िदा हो। मुझे डर है कि कहीं वह आपको कैद न कर ले।

हुसैन– वलीद पर मुझे एतबार है। आबूसिफ़ियान की औलाद होने पर भी वह शरीफ और दीनदार है।

अब्बास– आप एतबार करें, लेकिन मैं आपको वहां जाने की हरगिज सलाह न दूंगा। इस सन्नाटे में अगर उसने कोई दग़ा की, तो कोई फर्याद भी न सुनेगा। आपको मालूम है कि मरवान कितना दग़ाबाज और हरामकार है। मैं उसके साए से भी भागता हूं। जब तक आप मुझे, यह इतमीनान न दिला दीजिएगा कि दुश्मन यहां आपका बाल बांका न कर सकेगा, मैं आपका दामन न छोड़ूगा।

हुसैन– अब्बास, तुम मेरी तरफ से बेफ़िक्र रहो, मुझे हक़ पर इतना यकीन है, और मुझमें हक की इतनी ताकत है कि मेरी बात और वलीद तो क्या, यजीद की सारी फ़ौज भी मुझे नुकसान नहीं पहुंचा सकती। यकीन है कि मेरी एक आवाज पर हजारों खुदा के बंदे और रसूल के नाम पर मिटने वाले दौड़ पड़ेंगे और, अगर कोई मेरी आवाज न सुने, तो भी मेरी बाजुओं में इतना बल है कि मैं अकेले उनमें से एक सौ को जमीन पर सुला सकता हूं। हैदर का बेटा ऐसे गीदड़ों से नहीं डर सकता। आओ, जरा नाना की कब्र की जियारत कर लें।

(दोनों हज़रत मुहम्मद की कब्र के सामने खड़े हो जाते हैं, हाथ बांधकर दुआ पढ़ते हैं, और मसजिद से निकलकर घर की तरफ चलते हैं।)

चौथा दृश्य

(समय– रात। वलीद का दरबार। वलीद और मरवान बैठे हुए हैं।)

मरवान– अब तक नहीं आए! मैंने आपसे कहा न कि वह हरगिज नहीं आएंगे।

वलीद– आएंगे, और जरूर आएंगे। मुझे उनके कौल पर पूरा भरोसा है।

मरवान– कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि उन्हें अमीर की वफ़ात की खबर लग गई हो, और वह अपने साथियों को जमा करके हमसे जंग करने आ रहे हों।

(हुसैन का प्रथम वलीद सम्मान के भाव से खड़ा हो जाता है, और दरवाजे पर आकर हाथ मिलाता है। मरवान अपनी जगह पर बैठा रहता है।)

हुसैन– खुदा की तुम पर रहमत हो। (मरवान को बैठे देखकर) मेल फूट और प्रेम द्वेष से बहुत अच्छा है। मुझे क्यों याद किया हैं?

वलीद– इस तकलीफ के लिये माफ़ कीजिए, आपको यह सुनकर अफ़सोस होगा कि अमीर मुआबिया ने वफ़ात पाई।

मरवान– और खलीफ़ा यजीद ने हुक्म दिया है कि आपसे उनके नाम की बैयत ली जाये।

हुसैन– मेरे नजदीक यह मुनासिब नहीं है कि मुझ-जैसा आदमी छुपे-छुपे बैयत ले। यह न मेरे लिए मुनासिब है, और न यजीद के लिए काफी। बेहतर है, आप एक आम जलसा करें, और शहर के सब रईसों और आलिमों को बुलाकर यजीद की बैयत का सवाल पेश करें। मैं भी उन लोगों के साथ रहूंगा, और उस वक्त सबके पहले जवाब देने वाला मैं हूंगा।

वलीद– मुझे आपकी सलाह माकूल होता है। बेशक, आपके बैयत लेने से वह नतीजा न निकलेगा, जो यजीद की मंशा है। कोई कहेगा कि आपने बैयत ली, और कोई कहेगा कि नहीं। और, इसकी तसदीक करने में बहुत वक्त लगेगा। तो जलसा करूं?

मरवान– अमीर, मैं आपको खबरदार किए देता हूं कि इनकी बातों में न आइए। बग़ैर बैयत लिए इन्हें यहां से न जाने दीजिए, वरना इनसे उस वक्त तक बैयत न ले सकेंगे, जब तक खून की नदी न बहेगी। यह चिनगारी की तरह उड़कर सारी खिलाफ़त में आग लगा देंगे।

वलीद– मरवान, मैं तुमसे मिन्नत करता हूं, चुप रहो।

मरवान– हुसैन, मैं खुदा को गवाह करके कहता हूं कि मैं आपका दुश्मन नहीं हूं। मेरी दोस्ताना सलाह यह है कि आप यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए ताकि आपको कोई नुकसान न पहुंचे। आपस का फ़साद मिट जाये और हजारों खुदा के बंदो की जानें बच जाएं। खलीफ़ा आपके बैयत की खबर सुनकर बेहद खुश होंगे, और आपके साथ ऐसे सलूक करेंगे कि खिलाफ़त में कोई आदमी आपकी बराबरी न कर सकेगा। मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि आपकी जागीरें और वजीफ़े दोचंद करा दूंगा और आप मदीने में इज्जत के साथ रसूल के कदमों से लगे हुए दीन और दुनिया में सुर्खरू होकर जिंदगी बसर करेंगे।

हुसैन– बस करो मरवान, मैं तुम्हारी दोस्ताना सलाह सुनने के लिए नहीं आया हूं। तुमने कभी अपनी दोस्ती का सबूत नहीं दिया, और इस मौके पर तुम्हारी सलाह को दोस्ताना न समझकर दगा समझू, तो मेरा दिल और मेरा खुदा मुझसे नाखुश न होगा। आज इस्लाम इतना कमजोर हो गया है कि रसूल का बेटा यजीद को बैयत लेने के लिए मजबूर हो!

मरवान– उनकी बैयत से आपको क्या एतराज है!

हुसैन– इसलिए कि वह शराबी झूठा, दग़ाबाज, हरामकार और जालिम है। वह दीन के आलिमों की तौहीन करता है। जहां जाता है, एक गधे पर एक बंदर को आलिमों के कपड़े पहनकर साथ ले जाता है। मैं ऐसे आदमी की बैयत अख्तियार नहीं कर सकता।

मरवान– या अमीर, आप इनसे बैयत लेंगे या नहीं?

हुसैन– मेरी बैयत किसी के अख्तियार में नहीं है।

मरवान– कसम खुदा की, आप बैयत कबूल किए बिना नहीं जा सकते। मैं तुम्हें यहीं कत्ल कर डालूंगा। (तलवार खींचकर बढ़ता है)

हुसैन– (डपटकर) तू मुझे कत्ल करेगा, तुझमें इतनी हिम्मत नहीं है! दूर रह। एक कदम भी आगे रखा, तो तेरा नापाक सिर जमीन पर होगा।

(अब्बास ३० सशस्त्र आदमियों के साथ तलवार खींचे हुए घुस आते हैं।)

अब्बास– (मरवान की तरफ झपटकर) मलऊन, यह ले; तेरे लिए दोज़ख का दरवाजा खुला हुआ है।

हुसैन– (मरवान के सामने खड़े होकर) अब्बास, तलवार म्यान में करो। मेरी लड़ाई मरवान से नहीं, यजीद से है। मैं खुश हूं कि यह अपने आका का ऐसा वफ़ादार ख़ादिम है।

अब्बास– इस मरदूद की इतनी हिम्मत कि आपके मुबारक जिस्म पर हाथ उठाए! क़सम खुदा की, इसका खून पी जाऊंगा।

हुसैन– मेरे देखते ही नहीं, मुसलमान पर मुसलमान का खून हराम है।

वलीद– (हुसैन से) मैं सख्त नादिम हूं कि मेरे सामने आपकी तौहीन हुई। खुदा इसका अंजाम मुझे दे।

हुसैन– वलीद, मेरी तक़दीर में अभी बड़ी-बड़ी सख्तियां झेलनी बदी हैं। यह उस माके की तमहीद है, जो पेश आने वाला है। हम और तुम शायद फिर न मिलें इसलिए रुखसत। मैं तुम्हारी मुरौवत और भलमनसी को कभी न भूलूंगा। मेरी तुमसे सिर्फ इतनी अर्ज है कि मेरे यहां से जाने में जरा भी रोकटोक न करना।

(दोनों गले मिलकर विदा होते हैं। अब्बास और तीसों आदमी बाहर चले जाते हैं।)

मरवान– वलीद, तुम्हारी बदौलत मुझे यह जिल्लत हुई।

वलीद– तुम नाशुक्र हो। मेरी बदौलत तुम्हारी जान बच गई, वरना तुम्हारी लाश फर्श पर तड़पती नज़र आती।

मरवान– तुमने यजीद की खिलाफत यजीद से छीनकर हुसैन को दे दी। तुमने आबूसिफ़ियान की औलाद होकर उसके खानदान से दुश्मनी की। तुम खुदा की दरगाह में उस क़त्ल और खून के जिम्मेदार होगे, जो आज को ग़फलत या नरमी का नतीजा होगा।

(मरवान चला जाता है)

पाँचवाँ दृश्य

(समय– आधी रात। हुसैन और अब्बास मसजिद के सहन में बैठे हुए हैं।)

अब्बास– बड़ी ख़ैरियत हुई, वरना मलऊन ने दुश्मनों का काम ही तमाम कर दिया था।

हुसैन– तुम लोगों की जतन बड़े मौक़े पर आई। मुझे गुमान न था कि ये सब मेरे साथ इतनी दगा करेंगे। मगर यह जो कुछ हुआ, आगे चलकर इससे भी ज्यादा होगा। मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि हमें अब चैन से बैठना नसीब न होगा। मेरा भी वही हाल होनेवाला है, जो भैया इमाम हसन का हुआ।

अब्बास– खुदा न करे, खुदा न करे।

हुसैन– अब मदीने में हम लोगों का रहना कांटे पर पांव रखना है। भैया; शायद नबियों की औलाद शहीद होने ही के लिये पैदा होती है। शायद नबियों को भी होनहार की खबर नहीं होती, नहीं तो क्या नाना की मसनद पर वे लोग बैठते, जो इस्लाम के दुश्मन हैं, और जिन्होंने सिर्फ अपनी ग़रज पूरी करने के लिये इस्लाम का स्वांग भरा है। मैं रसूल ही से पूछता हूं कि वह मुझे क्या हुक्म देते हैं? मदीने ही में रहूं या कहीं और चला जाऊँ? (हज़रत मुहम्मद की कब्र पर आकर) ऐ खुदा, यह तेरे रसूल मुहम्मद की खाक है, और मैं उनकी बेटी का बेटा हूं। तू मेरे दिल का हाल जानता है। मैंने तेरी और तेरे रसूल की मर्जी पर हमेशा चलने की कोशिश की है। मुझ पर रहम कर और उस पाक नबी के नाते, जो इस कब्र में सोया हुआ है, मुझे हिदायत कर कि इस वक्त मैं क्या करूं?

(रोते हैं, और क़ब्र पर सिर रखकर बैठ जाते हैं। एक क्षण में चौंककर उठ बैठते हैं।)

अब्बास– भैया, अब यहां से चलो। घर के लोग घबरा रहे होंगे।

हुसैन– नहीं अब्बास, अब मैं लौटकर घर न जाऊंगा। अभी मैंने ख्वाब देखा कि नाना आए हैं, और मुझे छाती से लगाकर कहते है– ‘‘बहुत थोड़े दिनों में तू ऐसे आदमियों के हाथों शहीद होगा, जो अपने को मुसलमान कहते होंगे, और मुसलमान न होंगे। मैंने तेरी शहादत के लिये कर्बला का मैदान चुना है, उस वक्त तू प्यासा होगा, पर तेरे दुश्मन तुझे एक बूंद पानी न देंगे। तेरे लिये यहां बहुत ऊंचा रुतबा रखा गया है, पर वह रुतबा शहादत के बग़ैर हासिल नहीं हो सकता।’’ यह कहकर नाना गायब हो गए।

अब्बास– (रोकर) भैया, हाय भैया, यह ख्वाब या पेशीनगोई?

(मुहम्मद हंफ़िया का प्रवेश)

मुहम्मद– हुसैन, तुमने क्या फ़ैसला किया?

हुसैन– खुदा की मर्जी है कि मैं कत्ल किया जाऊं।

मुहम्मद– खुदा की मरजी खुदा ही जानता है। मेरी सलाह तो यह है कि तुम किसी दूसरे शहर चले जाओ, और वहां से अपने कासिदों को उस जवार में भेजो। अगर लोग तुम्हारी बैयत मंजूर कर लें, तो खुदा का शुक्र करना, वरना यों भी तुम्हारी आबरू क़ायम रहेगी। मुझे खौफ़ यही है कि कहीं तुम ऐसी जगह न जा फंसो, जहां कुछ लोग तुम्हारे दोस्त हों, और कुछ तुम्हारे दुश्मन। कोई चोट बगली घूंसों की तरह नहीं होती, कोई सांप इतना कातिल नहीं होता, जितना आस्तीन का, कोई कान इतना तेज नहीं होता, जितना दीवार का, और कोई दुश्मन इतना ख़ौफनाक नहीं होता, जितनी दग़ा। इससे हमेशा बचते रहना।

हुसैन– आप मुझे कहां जाने की सलाह देते हैं?

मुहम्मद– मेरे ख़याल में मक्का से बेहतर कोई जगह नहीं है। अगर क़ौम ने तुम्हारी बैयत मंजूर की, तो पूछना ही क्या? वर्ना पहाड़ियों की घाटियां तुम्हारे लिये क़िलों का काम देंगी, और थोडे-से मददगारों के साथ तुम आजादी से जिंदगी बसर करोगे। खुदा चाहेगा, तो लोग बहुत जल्द यजीद के बेजार होकर तुम्हारी पनाह में आएंगे।

हुसैन– अजीजों को यहां छोड़ दूं?

मुहम्मद– हरगिज नहीं। सबको अपने साथ ले जाओ।

हुसैन– यहां की हालत से मुझे जल्द-जल्द इत्तिला देते रहिएगा।

मुहम्मद– इसका इतमीनान रखो।

(मुहम्म्द हुसैन से गले मिलकर जाते हैं।)

अब्बास– भैया, अब तो घर चलिए, क्या सारी रात जागते रहिएगा?

हुसैन– अब्बास, मैं पहले ही कह चुका कि लौटकर घर न जाऊंगा।

अब्बास– अगर आपकी इजाज़त हो, तो मैं भी कुछ अर्ज करूं: आप मुझे अपना सच्चा दोस्त समझते हैं या नहीं?

हुसैन– खुदा पाक की क़सम, तुमसे ज्यादा सच्चा दोस्त दुनिया में नहीं है।

अब्बास– क्यों न आप इस वक्त यजीद की बैयत मंजूर कर लीजिए? खुदा कारसाज है, मुमकिन है, थोड़े दिनों में यजीद खुद ही मर जाये, तो आपको खिलाफत आप-ही-आप मिल जायेगी। जिस तरह आपने मुआबिया के जमाने में सब्र किया, उसी तरह यजीद को भी सब्र के साथ काट दीजिए। यह भी मुमकिन है कि थोड़े ही दिनों में यजीद से तंग लोग बगावत कर बैठे, और आपके लिये मौका निकल आए। सब्र सारी मुश्किलों को आसन कर देता है।

हुसैन– अब्बास, यह क्या कहते हो? अगर मैं खौफ़ से यजीद को बैयत क़बूल कर लूं, तो इस्लाम का मुझसे बड़ा दुश्मन और कोई न होगा। मैं रसूल को, वालिद को, भैया हसन को क्या मुंह दिखाऊंगी! अब्बाजान ने शहीद होना कबूल किया, पर मुआबिया की बैयत न मंजूर की। भैया ने भी मुआबिया की बैयत को हराम समझा, तो मैं क्यों खानदान में दाग़ लगाऊं? इज्जत की मौत बेइज्जती की जिंदगी से कहीं अच्छी है।

अब्बास– (विस्मित होकर) खुदा की कसम, यह हुसैन की आवाज नहीं रसूल की आवाज़ है, और ये बातें हुसैन की नहीं, अली की हैं। भैया! आपको खुदा ने अक्ल दी है, मैं तो आपका खादिम हूं, मेरी बातें आपको नागवार हुई हों, तो माफ़ करना।

हुसैन– (अब्बास को छाती से लगाकर) अब्बास, मेरा खुदा मुझसे नाराज हो जाये, अगर मैं तुमसे जरा भी मलाल रखूं। तुमने मुझे जो सलाह दी, वह मेरी भलाई के लिये दी। इसमें मुझे जरा भी शक नहीं। मगर तुम इस मुग़ालते में हो कि यजीद के दिल की आग मेरे बैयत ही से ठंडी हो जायेगी, हालांकि यजीद ने मुझे कत्ल करने का यह हीला निकाला है। अगर वह जानता कि मैं बैयत ले लूंगा, तो वह कोई और तदबीर सोचता।

अब्बास– अगर उसकी यह नीयत है, तो कलाम पाक की कसम, मैं आपके पसीने की जगह अपना खून बहा दूंगा, और आपसे आगे बढ़कर इतनी तलवारें चलाऊंगा कि मेरे दोनों हाथ कटकर गिर जायें।

(जैनबू, शहरबानू और घर के अन्य लोग आते हैं।)

जैनब– अब्बास, बातें न करो। (हुसैन से) भैया, मैं आपके पैरों पड़ती हूं। आप यह इरादा तर्क कर दीजिए, और मदीने में रसूल की कब्र से लगे हुए जिंदगी बसर कीजिए, और अपनी गर्दन पर इस्लाम की तबाही का इल्जाम न लीजिए।

हुसैन– जैनब ऐसी बातों पर तुफ़ है। जब तक ज़मीन और आसमान कायम है, मैं यजीद की बैयत नहीं मंजूर कर सकता। क्या तुम समझती हो कि मैं गलती पर हूं?

जैनब– नहीं भैया, आप ग़लती पर नहीं है। अल्लाहताला अपने रसूल के बेटे को गलत रास्ते पर नहीं ले जा सकता, अगर आप जानते हैं कि ज़माने का रंग बदला हुआ है। ऐसा न हो, लोग आपके खिलाफ़ उठ खड़े हों।

हुसैन– बहन, इंसान सारी दुनिया के ताने बर्दाश्त कर सकता है, पर अपने ईमान का नहीं। अगर तुम्हारा यह ख़याल है कि मेरी बैयत न लेने से इस्लाम में तफ़र्खा पड़ जायेगा, तो यह समझ लो कि इत्तिफ़ाक कितनी ही अच्छी चीज़ हो, लेकिन रास्ती उससे कहीं अच्छी है। रास्ती को छोड़कर मेल को कायम रखना वैसा ही है, जैसा जान निकल जाने के बाद जिस्म क़ायम रखना। रास्ती क़ौम की जान है, उसे छोड़कर कोई क़ौम बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सकती। इस बारे में मैं अपनी राय कायम कर चुका, अब तुम लोग मुझे रुखसत करो। जिस तरह मेरी बैयत से इस्लाम का बक़ार मिल जायेगा, उसी तरह मेरी शहादत से उसका बक़ार कायम रहेगा। मैं इस्लाम की हुरमत पर निसार हो जाऊंगा।

शहरबानू– (रोकर) क्या आप हमें अपने कदमों से जुदा करना चाहते हैं?

अली अकबर– अब्बाजान, अगर शहीद ही होना है, तो हम भी वह दर्जा क्यों न हासिल करें?

मुस्लिम– या अमीर, हम आपके क़दमों पर निसार होना ही अपनी जिंदगी का हासिल समझते हैं। आप न ले जायेंगे, तो हम जबरन आपके साथ चलेंगे।

अली असगर– अब्बा, मैं आपके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़ता था। आप यहां छोड़ देंगे, तो मैं नमाज कैसे पढ़ूंगा?

जैनब– भैया, क्या कोई उम्मीद नहीं? क्या मदीने में रसूल के बेटे पर हाथ रखनेवाला, रसूल की बेटियों की हुरमत पर जान देनेवाला, हक़ पर सिर काटने वाला कोई नहीं है? इसी शहर से वह नूर फैला, जिससे सारा जहान रोशन हो गया। क्या वह हक़ की रोशनी इतनी जल्द गायब हो गई? आप यहीं से हिजाज़ और यमन की तरफ़ कासिदों को क्यों नहीं रवाऩा फ़रमाते?

हुसैन– अफ़सोस है जैनब, खुदा को कुछ और ही मंजूर है। मदीने में हमारे लिये अब अमन नहीं है। यहां अगर हम आजादी से खड़े हैं, तो यह वलीद की शराफत है; वरना यजीद की फ़ौजों में हमको घेर लिया होता। आज मुझे सुबह होते-होते यहां से निकल जाना चाहिए। यजीद को मेरे अजीजों से दुश्मनी नहीं, उसे खौफ़ सिर्फ़ मेरा है। तुम लोग मुझे यहां से रुखसत करो। मुझे यकीन है कि यजीद तुम लोग को तंग न करेगा। उसके दिल में चाहे न हो, मगर मुसलमान के दिल में ग़ैरत बाकी है। वह रसूल की बहू-बेटियों की आबरू लुटते देखेंगे, तो उनका खून जरूर गर्म हो जायेगा।

जैनब– भैया, यह हरगिज़ न होगा। हम भी आपके साथ चलेंगी। अगर इस्लाम का बेटा अपनी दिलेरी से इस्लाम का वकार कायम रखेगा, तो हम अपने सब्र से, जब्त से और बरदाश्त से उसकी शान निभाएंगे। हम पर जिहाद हराम है, लेकिन हम मौका पड़ने पर मरना जानती हैं। रसूल पाक की कसम, आप हमारी आँखों में आँसू न देखेंगे, हमारे लबों से फ़रियाद न सुनेंगे, और हमारे दिलों से आह न निकलेगी। आप हक़ पर जान देकर इस्लाम की आबरू रखना चाहते हैं, तो हम भी एक बेदीन और बदकार की हिमायत में रहकर इस्लाम के नाम पर दाग़ लगाना नहीं चाहती।

(सिपाहियों का एक दस्ता सड़क पर आता दिखाई पड़ता है)

हुसैन– अब्बास, यजीद के आदमी हैं। वलीद ने भी दगा दी। आह! हमारे हाथों में तलवार भी नहीं! ऐ खुदा मदद!

अब्बास– कलाम पाक की क़सम, ये मरदूद आपके करीब न पाएंगे।

जैनब– भैया, तुम सामने से हट जाओ।

हुसैन– जैनब घबराओ मत, आज मैं दिखा दूंगा कि अली का बेटा कितनी दिलेरी से जान देता है।

(अब्बास बाहर निकल कर फ़ौज के सरदार से)

ऐ सरदार, किसकी बदनसीबी है कि तू उसके नज़दीक जा रहा है?

सरदार– या हज़रत, हमें शहर में गश्त लगाने का हुक्म हुआ है कि कहीं बाग़ी तो जमा नहीं हो रहे हैं।

हुसैन– अब देर करने का मौका नहीं है। चलूं, अम्माजान से रुखसत हो लूं। (फ़ातिमा की क़ब्र पर जाकर) ऐ मादरेजान, तेरा बदनसीब बेटा– जिसे तूने गोद में प्यार से खिलाया था, जिसे तूने सीने से दूध पिलाया था– आज तुझसे रुखसत हो रहा है, और फिर शायद उसे तेरी जियारत नसीब न हो (रोते हैं।)

(मदीने के सब नगरवासियों का प्रवेश)

सब०– ऐ अमीर, आप हमें कदमों से क्यों जुदा करते है? हम आपका दामन न छोड़ेंगे। आपके कदमों से लगे हुए गुरबत की खाक छानना इससे कहीं अच्छा है कि एक बदकार और जालिम खलीफ़ा सख्तियां झेले। आप नबी के खानदान के आफ़ताब हैं। उसकी रोशनी से दूर होकर हम अंधेरे में खौफ़नाक जानवरों से क्योंकर अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें हक़ और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी जान बचा सकेंगे? कौन हमें एक और दीन की राह सुझाएगा? कौन हमें अपनी नसीहतों का अमृत पिलाएगा? हमें अपने कदमों से जुदा न कीजिए।

(रोते है।)

हुसैन– मेरे प्यारे दोस्तों, मैं यहां से खुद नहीं जा रहा हूं। मुझे तकदीर लिए जा रही है। मुझे वह दर्दनाक नजारा देखने की ताब नहीं है कि मदीने की गलियां इस्लाम और रसूल के दोस्तों के खून से रंगी जायें। मैं प्यारे मदीने को उसे उस तबाही और खून से बचाना चाहता हूं। तुम्हें मेरी यही आखिरी सलाह है कि इस्लाम की हुरमत क़ायम रखना, माल और जर के लिये अपनी कौम और अपनी मिल्लत से बेवफाई न करना, खुदा के नज़दीक इससे बड़ा गुनाह नहीं है। शायद हमें फिर मदीने के दर्शन न हों, शायद हम फिर सूरतों को देख न सकें। हां, शायद फिर हमें बुजुगों की सूरत देखनी नसीब न हो, जो हमारे नाना के शरीक और हमदर्द रहें, जिनमें से कितनों ही ने मुझे गोद में खेलाया है। भाइयों, मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं है कि उस रंज और ग़म को जाहिर कर सकूं, जो मेरे सीने में दरिया की लहरों की तरह उठ रहा है। मदीने की तरह उठा रहा है। मदीने की खाक से जुदा होते हुए जिगर के टुकड़े हुए जाते हैं। आपसे जुदा होते आँखों में अँधेरा छा जाता है, मगर मजबूर हूं। खुदा की और रसूल की यह मंशा है कि इस्लाम का पौधा मेरे खून से सींचा जाये, रसूल की खेती रसूल की औलाद के खून से हरी हो, और मुझे उनके सामने सिर झुकाने के सिवा और कोई चारा नहीं।

नागरिक– या अमीर, हमें अपने क़दमों से जुदा न कीजिए। हाय अमीर, हाय रसूल के बेटे, हम किसका मुंह देखकर जिएंगे। हम क्योंकर सब्र करें, अगर आज न रोएं तो फिर किस दिन के लिये आंसुओं को उठा रखे? आज से ज्यादा मातम का और कौन दिन होगा?

हुसैन– (मुहम्मद की क़ब्र पर जाकर) ऐ रसूल-खुदा, रुखसत। आपका नवासा मुसीबत में गिरफ्तार है। उसका बेड़ा पार कीजिए।

सब लोग छोड़के पहले ही सिधारे;
मिलता नहीं आराम नवासे को तुम्हारे।
खादिम को कोई अमन की अब जा नहीं मिलती;
राहत कोई साहत मेरे मौला, नहीं मिलती।
दुख कौन-सा और कौन-सी ईज़ा नहीं मिलती;
है आप जहां, राय वह मुझको नहीं मिलती;
दुनिया में मुझे कोई नहीं और ठिकाना;
आज आखिरी रुखसत को गुलाम आया है नाना!
बच जाऊं जो, पास अपने बुला लीजिए नाना;
तुरबत में नवासे को छिपा लीजिए नाना!

(भाई की क़ब्र पर जाकर)

सुन लीजिए शब्बीर की रुखसत है बिरादर,
हज़रत को तो पहलू हुआ अम्मा का मयस्सर।
कब्र भी जुदा होंगी यहां अब तो हमारी;
दखें हमें ले जाये कहां खाक हमारी!


मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ एक चिउंटी की भी जान खतरे में पड़े। अपने अजीजों से, अपनी मस्तूरात से, अपने दोस्तों से यही सवाल है कि मेरे लिये जरा भी गम न करो, मैं वहीं जाता हूं, जहां खुदा की मर्जी लिए जाती है।

अब्बास– या हज़रत, ख़ुदा के लिये हमारे ऊपर यह सितम न कीजिए। हम जीते-जी आपसे जुदा न होंगे।

जैनब– भैया, मेरी जान तुम पर फिदा हो। अगर औरतों को तुमने छोड़ दिया, तो लौटकर उन्हें जीता न पाओगे। तुम्हारी तीनों फूल-सी बेटियां ग़म से मुरझाई जा रही है। शहरबानू का हाल देख ही रहे हो। तुम्हारे बगैर मदीना सूना हो जायेगा, और घर की दीवारें हमें फाड़ खायेंगी। हमारे ऊपर इस बदनामी का दाग़ न लगाओ कि मुसीबत में रसूल की बेटियों ने अपने सरदार से बेवफ़ाई की। तुम्हारे साथ के फ़ाके यहां के मीठे लुकमों से ज्यादा मीठे मालूम होंगे। जिस्म को तकलीफ़ होगी, पर दिल को तो इतमीनान रहेगा।

अली अक०– अब्बा, मैं इस मुसीबत का सारा मजा आपको अकेले न उठाने दूंगा। इसमें मेरा भी हिस्सा है। कौन हमारे नेत्रों की चमक देखेगा? किसे हम अपनी दिलेरी के ज़ौहर दिखाएंगे? नहीं, हम यह ग़म की दावत अकेले न खाने देंगे।

अली अस०– अब्बा, मुझे अपने आगे घोड़ों पर बिठाकर रास मेरे हाथों में दे दीजियेगा। मैं उसे ऐसा दौड़ाऊँगा कि हवा भी हमारी गर्द को न पहुंचेगी।

हुसैन– हाय, अगर मेरी तक़दीर की मंशा है कि मेरे जिगर के टुकड़े मेरी आंखों के सामने तड़पें, तो मेरा क्या बस है। अगर खुदा को यही मंजूर है कि मेरा बाग मेरी नज़रों के सामने उजाड़ा जाये, तो मेरा क्या चारा है। खुदा गवाह रहना कि इस्लाम की इज्जत पर रसूल की औलाद कितनी बेदरदी से कुरबान की जा रही है!

छठा दृश्य

(समय– संध्या। कूफ़ा शहर का एक मकान। अब्दुल्लाह, कमर, वहब बातें कर रहे हैं।)

अब्दु०– बड़ा गजब हो रहा है। शामी फौज के सिपाही शहरवालों को पकड़-पकड़ जियाद के पास ले जा रहे हैं, और वहां जबरन उनसे बैयत ली जा रही है।

कमर– तो लोग क्यों उसकी बैयत कबूल करते हैं?

अब्दु०– न करें, तो करें। अमीरों और रईसों को तो जागीर और मंसब की हवस ने फोड़ लिया। बेचारे गरीब क्या करें। नहीं बैयत लेते, तो मारे जाते हैं, शहरबदर किए जाते हैं। जिन गिने-गिनाए रईसों ने बैयत नहीं ली, उन पर भी संख्ती करने की तैयारियां हो रही हैं। मगर जियाद चाहता है कि कूफ़ावाले आपस ही में लड़ जाएं। इसीलिए उसने अब तक कोई सख्ती नहीं की है।

कमर– यजीद को खिलाफ़त का कोई हक तो है नहीं,

महज तलवार का जोर है। शरा के मुताबिक हमारे खलीफ़ा हुसैन हैं।

अब्दु०– वह तो जाहिर ही है, मगर यहां के लोगों को जो जानते हो न। पहले तो ऐसा शोर मचाएंगे, गोया जाने देने पर आमादा हैं, पर ज़रा किसी ने लालच दिखलाया, और सारा शोर ठंडा हो गया! गिने हुए आदमियों को छोड़कर सभी बैयत ले रहे हैं।

कमर– तो फिर हमारे ऊपर भी तो वहीं मुसीबत आनी है।

अब्दु०– इसी फिक्र में तो पड़ा हूं। कुछ सूझता ही नहीं।

कमर– सूझता ही क्या है। यजीद की बैयत हर्गिज मत कबूल करो।

अब्दु०– अपनी खुशी की बात नहीं है।

कमर– क्या होगा?

अब्द०– वजीफ़ा बन्द हो जायेगा।

कमर– ईमान के सामने वजीफ़े की कोई हस्ती नहीं।

अब्दु०– जागीर ज्यादा नहीं, तो परवरिश तो हो ही जाती है। वह फौरन छिन जाएंगी। कितनी मेहनत से हमने मेवों का बाग लगाया है। यह कब गंवारा होगा कि हमारी मेहनत का फल दूसरे खायें। कलाम पाक की कलम, मेरे बाग पर बड़ों-बड़ों को रश्क है।

कमर– बाग के लिए ईमान बेचना पड़े, तो बाग की तरफ़ आंख उठाकर देखना भी गुनाह है।

अब्दु०– क़मर, मामला इतना आसान नहीं है, जितना तुमने समझ रखा है। जायदाद के लिए इंसान अपनी जान देता है, भाई-भाई दुश्मन हो जाते हैं, बाप-बेटों में, मियां बीवी में तिफ़ाक पड़ जाता है। अगर उसे लोग इतनी आसानी से छोड़ सकते, तो दुनिया जन्नत बन जाती है।

कमर– यह सही है, मगर ईमान के मुकाबले जायदाद ही की नहीं, जिंदगी की भी कोई हस्ती नहीं। दुनिया की चीजें एक दिन छूट जाएंगी, मगर ईमान हो हमेशा साथ रहेगा।

अब्दु०– शहरबदर होना पड़ा। तो यह मकान हाथ से निकल जाएगा। अभी पिछले साल बनकर तैयार हुआ है। देहातों में, जंगल में बुद्दुओं की तरह मारे-मारे घूमना पड़ेगा। क्या जला-वतनी कोई मामूली चीज है?

कमर– दीन के लिए लोगों से सल्तनतें तर्क कर दी हैं, सिर कटाए हैं, और हंसते-हंसते सूलियों पर चढ़ गए हैं। दीन की दुनिया पर हमेशा जीत रही है, और रहेंगी।

अब्दु०– वहब अपनी अम्माजान की बातें सुन रहे हो?

वहब– जी हां, सुन रहा हूं, और दिल में फ़ख्र कर रहा हूँ कि मैं ऐसी दीन-परवर मां का बेटा हूं। मैं आपसे सच अर्ज करता हूं कि कीस, हज्जाज, हुर, अशअस जैसे रऊसा को बेयत क़बूल करते देखकर मैं भी नीम राजी हो गया था, पर आपकी बातों ने हिम्मत मजबूत कर दी। अब मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूं।

अब्दु०– वहब, दीन हम बूढ़ों के लिए है, जिन्होंने दुनिया के मज़े उठा लिए। जवानों के लिए दुनिया है। तुम अभी शादी करके लौटे हो, बहू की चूड़िया भी मैली नहीं हुई। जानते हो, वह एक रईस की बेटी है। नाजों में पली है, क्या उसे भी खानावीरानी की मुसीबतों में डालना चाहते हो? हम और कमर को हज करने चले जायेंगे। तुम मेरी जायदाद के वारिस हो, मुझे यह तसकीन रहेगा कि मेरी मिहनत रायगां नहीं हुई। तुमने मां को नसीहत पर अमल किया, तो मुझे बेहद सदमा होगा। पहले जाकर नसीमा से पूछो तो?

वहब– मुझे अपने ईमान के मामले में किसी से पूछने की जरूरत नहीं। मुझे यकीन है कि खिलाफत के हकदार हज़रत हुसैन हैं। यजीद की बायत कभी न कबूल करूंगा, जायदाद रहे या न रहे, जान रहे या न रहे।

कमर– बेटा, तेरी माँ तुझ पर फिदा ही, तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया। आज मेरी जैसी खुशनसीब मां दुनिया में न होगी। मगर बेटा, तुम्हारे अब्बाजान ठीक कहते हैं, नसीमा से पूछ लो, देखो, वह क्या कहती है। मैं नहीं चाहती कि हम लोगों की दीन-परवरी के वाइस उसे तकलीफ ही, और जंगलों की खाक छाननी पड़े। उसकी दिलजोई करना तुम्हारा फ़र्ज है।

वहब– आप फरमाती हैं, तो मैं उससे भी पूछ लूंगा। मगर में साफ़ कहें देता हूं कि उसकी रजा का गुलाम न बनूंगा। अगर उसे दीन के मुकाबले में ऐश व आराम ज्यादा पसन्द है, तो शौक से रहे, लेकिन मैं बैयत की जिल्लत न उठाऊंगी।

(दरवाजा खोलकर बाहर चला जाता है।)

सातवां दृश्य

(अरब का एक गांव– एक विशाल मंदिर बना हुआ है, तालाब है, जिसके पक्के घाट बने हुए हैं, मनोहर बगीचा, मोर, हिरण, गाय आदि पशु-पक्षी इधर-उधर विचर रहे हैं। साहसराय और उनके बंधु तालाब के किनारे संध्या-हवन, ईश्वर-प्रार्थना कर रहे हैं।)

गाना (स्तुति)

हरि, धर्म प्राण से प्यार हो।
अखिलेष, अनंत विधाता हो, मंगलमय, मोहप्रदाता हो;
भय-भंजन शिव जन-त्राता हो, अविनाशी अद्भुत ज्ञाता हो।
तेरा ही एक सहारा हो;
हरि धर्म प्राण से प्यारा हो।
बल, वीर्य, पराक्रम त्वेष रहे, सद्धर्म धरा पर शेष रहे;
श्रुति-भानु, एकांत-वेश रहे, धन-ज्ञान-कला-युत देश रहे।
सर्वत्र प्रेम की धारा हो;
हरि, धर्म प्राण से प्यारा हो।
भारत तन-मन-धन से सारा हो, उसकी सेवा सब द्वारा हो;
निज मान-सम्मान दुलारा हो, सबकी आंखों का तारा हो।
जीवन-सर्वस्व हमारा हो;
हरि, धर्म प्राण से प्यारा हो।


(साहसराय प्रार्थना करते हैं।)

भगवान्, हमें शक्ति प्रदान कीजिए कि सदैव अपने व्रत का पालन करें। अश्वत्थामा की संतान का, निरंतर सेवामार्ग का अवलंबन करें, उनका रक्त सदैव दोनों की रक्षा में बहता रहे, उनके सिर सदैव न्याय और सत्य पर बलिदान होते रहें। और, प्रभो! वह दिन आए कि हम प्रायश्चित-संस्कार से मुक्त होकर तपोभूमि भारत को पयाम करें, और ऋषियों के सेवा-सत्कार में मग्न होकर अपना जीवन सफल करें। हे नाथ, हमें सद्भुद्धि दीजिए कि निरंतर कर्म-पथ पर स्थिर रहें, और उस कलंक-कालिमा को, जो हमारे आदि पुरुष ने हमारे मुख पर लगा दी है, अपनी सुकीर्ति से धोकर अपना मुख उज्जवल करें। जब हम स्वदेश यात्रा करें, तो हमारे मुख पर आत्मगौरव का प्रकाश हो, हमारे स्वदेश-बंधु सहर्ष हमारा स्वागत करें, और हम वहां पतित बनकर नहीं, समाज के प्रतिष्ठित अंग बनकर जीवन व्यतीत करें।

(सेवक का प्रवेश)

सेवक– दीनानाथ, समाचार आया है, अमीर मुआबिया के बेटे यजीद ने खिलाफ़त पर अधिकार कर लिया।

साहस०– यजीद ने खिलाफत पर अधिकार कर लिया! यह कैसा! उसका खिलाफ़त पर क्या स्वत्व था? खिलाफ़ात तो हज़रत अली के बेटे इमाम हुसैन को मिलनी चाहिए थी।

हरजसराय– हां, हक तो हुसैन ही का है। मुआबिया से पहले से इसी शर्त पर संधि हुई थी।

सिंहदत्त– यजीद की शरारत है। मुझे मालूम है, वह अभिमानी, तामसी और विलासी-भोगी मनुष्य है। विषय वासना में मग्न रहता है। हम ऐसे दुर्जन की खिलाफ़त कदापि स्वीकार नहीं कर सकते।

पुण्यराय– (सेवक से) कुछ मालूम हुआ, हुसैन क्या कर रहे हैं?

सेवक– दीनबंधु, वह मदीना से भागकर मक्का चले गए हैं।

सिंह०– यह उनकी भूल है, तुरंत मदीनावासियों को संगठित करके यजीद के नाजिम का वध कर देना चाहिए था, इसके पश्चात अपनी खिलाफत की घोषणा कर देनी थी। मदीना को छोड़कर उन्होंने अपनी निर्बलता स्वीकार कर ली।

रामसिंह– हुसैन धर्मनिष्ठ पुरुष है। अपने बंधुओं का रक्त नहीं बहाना चाहते।

ध्रुवदत्त– जीव हिंसा महापाप है। धर्मात्मा पुरुष कितने ही संकट में पड़े, किन्तु अहिंसा-व्रत को नहीं त्याग सकता।

भीरुदत्त– न्याय-रक्षा के लिये हिंसा करना पाप नहीं। जीव-हिंसा न्याय हिंसा से अच्छी है।

साहस०– अगर वास्तव में यजीद ने खिलाफ़त का अपहरण कर लिया है, तो हमें अपने व्रत के अनुसार न्याय-पक्ष ग्रहण करना पड़ेगा। यजीद शक्तिशाली है, इसमें संदेह नहीं, पर हम न्याय-व्रत का उल्लंघन नहीं कर सकते। हमें उसके पास दूत भेजकर इसका निश्चय कर लेना चाहिए कि हमें किस पथ पर अनुसरण करना उचित है।

सिंहदत्त– जब यह सिद्ध है कि उसने अन्याय किया, तो उसके पास दूत भेजकर विलंब क्यों किया जाये? हमें तुरंत उससे संग्राम करना चाहिए। अन्याय को भी अपने पक्ष का समर्थन करने के लिये युक्तियों का अभाव नहीं होता।

हरजसराय– मैं पूछता हूं, अभी समर की बात क्यों की जाये। राजनीति के तीनों सिद्धांतो की परीक्षा कर लेने के पश्चात् ही शस्त्र ग्रहण करना चाहिए। विशेषकर इन समय हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि हम आत्मगौरव की दुहाई देते हुए रण-क्षेत्र में कूद पड़े। शस्त्र-ग्रहण सर्वदा अंतिम उपाय होना चाहिए।

सिहदत्त– धन आत्मा की रक्षा के लिये ही है।

हरजसराय– आत्मा बहुत ही व्यापक शब्द है। धन केवल धर्म की रक्षा के लिये है।

रामसिंह– धर्म की रक्षा रक्त से नहीं होती शील, विनय, सदुपदेश, सहानुभूति, सेवा, ये सब उसके परीक्षित साधन हैं, और हमें स्वयं इन साधनों की सफलता का अनुभव हो चुका है।

सिंहदत्त– राजनीति के क्षेत्र में ये साधन उसी समय होते हैं, जब शस्त्र उनके सहायक हों। अन्यथा युद्ध-लाभ से अधिक उनका मूल्य नहीं होता।

साहसराय-– हमारा कर्त्तव्य अपनी वीरता का प्रदर्शन अथवा राज्य प्रबन्ध की निपुणता दिखाना नहीं, न हमारा अभीष्ट अहिंसा-व्रत का पालन करना है। हमने केवल अन्याय को दमन करने का व्रत धारण किया है, चाहे उसके लिये किसी उपाय का आलंबन करना पड़े। इसलिए सबसे पहले हमें दूतों द्वारा यजीद के मनोभाव का परिचय प्राप्त करना चाहिए। उसके पश्चात् हमें निश्चय करना होगा कि हमारा कर्त्तव्य क्या है। मैं रामसिंह और भीरुदत्त से अनुरोध करता हूँ कि ये आज ही शाम को यात्रा पर अग्रसर हो जायें।

दूसरा अंक

पहला दृश्य

(हुसैन का क़ाफ़िला मक्का के निकट पहुंचता है। मक्का की पहाड़ियां नजर आ रही हैं। लोग काबा की मसजिद द्वार पर स्वागत करने को खड़े हैं।)

हुसैन– यह लो, मक्का शरीफ़ आ गया। यही वह पाक मुकाम है, जहां रसूल ने दुनिया में क़दम रखे। ये पहाड़ियां रसूल के सिजदों से पाक और उनके आंसुओं से रोशन हो गई हैं। अब्बास, काबा को देखकर मेरे दिल में अजीब-सी धड़कन हो रही है, जैसे कोई गरीब मुसाफिर एक मुद्दत के बाद अपने वतन में दाखिल हो।

(सब लोग घोड़ों से उतर पड़ते हैं।)

जुबेर– आइए हज़रत हुसैन, हमारे शहर को अपने क़दमों से रौशन कीजिए।

(हुसैन सबसे गले मिलते हैं।)

हुसैन– मैं इस मेहमानबाजी के लिए आपका मशकूर हूं।

जुबेर– हमारी जानें आप पर निसार हों। आपको देखकर हमारी आंखों में नूप आ गया है, और हमारे कलेजे ठंडे हो गए है। खुदा गवाह है, आपने रसूल पाक की का हुलिया पाया है। आइए, काबा हाथ फैलाए आपका इंतजार कर रहा है।

(सब लोग मसजिद में दाखिल होते हैं। स्त्रियां हरम में जाती हैं।)

अली असगर– अब्बा, इन पहाड़ों पर से तो हमारा घर दिखाई देता होगा?

हुसैन– नहीं बेटा, हम लोग घर से बहुत दूर आ गए हैं। तुमने कुछ नाश्ता नहीं किया?

अली अ०– मुझे भूख नहीं है। पहले मालूम होती थी, लेकिन अब गायब हो गई।

हुसैन– तो तुम यहीं रहो कि तुम्हें भूख ही न लगे।

हबीब– या हजरत, आप भी जरा आराम फ़रमा लें। हमारी बहुत दिनों से तमन्ना है कि आपके पीछे खड़े होकर नमाज़ पढ़े।

(जुबेर और अब्बास को छोड़कर सब लोग वजू करने चले जाते हैं।)

हुसैन– क्यों जुबेर, यहां के लोगों के क्या खयालात हैं?

जुबेर– कुछ न पूछिए, मुझे यहां की क़ैफियत बयान करते शरम आती है। यो जाहिर में तो सब-के-सब आप पर निसार होने के लिए कसम खाएंगे, बैयत लेने को भी तैयार नजर आएंगे, मगर दिल किसी का भी साफ़ नहीं।

हुसैन– क्या दग़ा का अंदेशा है?

जुबेर– यह तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि कोई ऐसी बात देखने में नहीं आई, लेकिन इधर-उधर की बातों में पता चलता है कि इनकी नीयत साफ नहीं अजब नहीं कि यजीद दौलत और जागीर का लालच देकर इन्हें मिला ले। उस वक्त ये जरूर आपके साथ दगा कर जायेंगे। मैं तो आपको यही सलाह दूंगा कि आप मदीने वापस जाएं।

हुसैन– मुझे तो इनकी तरफ़ से दग़ा का गुमान नहीं होता। दग़ा में एक झिझक होती है, जो यहां किसी के चेहरे पर नज़र नहीं आती। दग़ा उसी तरह शक पैदा कर देती है, जैसे हमदर्दी एतबार पैदा करती है।

जुबेर– मगर आपको यह भी मालूम होगा कि दग़ा गिरगिट कभी अपने असली रंग में नहीं दिखाई देती। वह हाथों का बोसा लेती हैं, पैरों-तले आंखें बिछाती है और बातों से शक्कर बरसाती है।

अब्बास– दोस्त बनकर सलाह देती है, खुद किनारे पर रहती हैं, पर दूसरों को दरिया में ढकेल देती है। आप हंसती हैं, पर दूसरों को रुलाती है, और अपनी सूरत को हमेशा जाहिद के लिबास में छिपाए रहती हैं।

जुबेर– खुदा पाक की कसम, आप मेरी तरफ इशारा कर रहे है। अगर आप जानते कि मैं हज़रत हुसैन की कितनी इज्जत करता हूं, तो मुझ पर दगा का शक न करते। अगर मैं यजीद का दोस्त होता, तो अब तक दौलत से माला-माल हो जाता। अगर खुद बैयत की नीयत रखता, तो अब तक खामोश न बैठा रहता। आप मुझ पर यह शुबहा करके बड़ा सितम कर रहे हैं।

हुसैन– अब्बास, मुझे तुम्हारी बातें सुनकर बड़ी शर्म आती हैं। जुबेर सबसे अलग विलग रहते हैं। किसी के बीच में नहीं पड़ते। एकांत में बैठने वाले आदमियों पर अक्सर लोग शुबहा करने लगते हैं। तुम्हें शायद यह नहीं मालूम है कि दग़ा गोशे से सोहबत को कहीं ज्यादा पसंद करती है।

(हबीब का प्रवेश)

हबीब– या हज़रत, मुझे अभी मालूम हुआ कि आपके यहां तशरीफ लाने की खबर यजीद के पास भेज दी गई है, और मरवान यहां का नाजिम बनाकर भेजा जा रहा है।

हुसैन– मालूम होता है, मरवान हमारी जान लेकर ही छोड़ेगा। शायद हम जमीन के पर्दे में चले जाएं, तो वहां भी हमें आराम न लेने देगा।

अब्बास– यहां उसे उसकी शामत ला रही है। कलाम पाक की कसम, वह यहां से जान सलामत न ले जाएगा। काबा में खून बहाना हराम ही क्यों न हो, पर ऐसे रूह-स्याह का खून यहां भी हलाल है।

हबीब– वलीद माजूल कर दिया गया। यहां का आलिम मदीने जा रहा है।

हुसैन– वलीद की माजूली का मुझे सख्त अफ़सोस है। वह इस्लाम का सच्चा दोस्त था। मैं पहले ही समझ गया था कि ऐसे नेक और दीनदार आदमी के लिये यजीद के दरबार में जगह नहीं है। अब्बास, वलीद की माजूली मेरी शहादत की दलील है।

हबीब– यह भी सुना गया है कि यजीद ने अपने बेटे को, जो आपका खैर-ख्वाह है, नज़रबंद कर दिया है। उसने खुल्लम-खुल्ला यजीद की बेइंसाफ़ी पर एतराज़ किया था। यहां तक कहा था कि खिलाफत पर कोई हक नहीं है। यजीद यह सुनकर आग-बबूला हो गया। उसे कत्ल करना चाहता था, लेकिन सभी रूमी ने बचा लिया।

अब्बास– ऐसे जालिम का कत्ल कर देना ऐन सबाब है।

हुसैन– अब्बास, यह खुदा की मंशा की दूसरी दलील है। यह उसकी बदनसीबी है कि तकदीर ने उसे मेरी शहादत का वसीला बनाया है। अपने बेटे को क़ैद करने से किसी को खुशी नहीं हो सकती। जो आदमी अपने बेटे की जबान से अपनी तौहीन सुने, उससे ज्यादा बदनसीब दुनिया में कौन होगा?

जुबेर– मेरे खयाल में अगर आप कूफ़े की तरफ जायें, तो वहां आपको मददगारों की कमी न रहेगी।

हबीब– या हज़रत, मैं कूफ़ा के करीब का रहने वाला हूं, और कूफियों की आदत से खूब वाकिफ़ हूं। दग़ा उनकी ख़मीर में मिली हुई है। आप उनसे बचे रहिएगा। वे आपके पास अपनी बैयत के पैगाम भेजेंगे। उनके क़ासिद-पर-कासिद आएंगे, और आपको चैन न लेने देंगे। उनके खतों से ऐसा मालूम होगा कि सारा मुल्क आप पर फ़िदा होने के लिए तैयार है। पर आप उनकी बातों में हर्गिज नहीं आइएगा। भूलकर भी कूफ़ा की तरफ़ रूख न कीजिएगा। मेरी आपसे यही अर्ज है कि काबा से बाहर क़दम न रखिएगा, जब तक आप यहां रहेंगे, आप सब बलाओं से बचें रहेंगे, कूफ़ावाले वफ़ादारी से उतना ही महरूम हैं, जैसे चिड़ियां दूध से।

हुसैन– मैं कूफ़ावालों से खूब वाकि़फ हूं। तुमने और भी ख़बरदार कर दिया, इसके लिए मैं तुम्हारा मशकूर हूं।

हबीब– मैं यही अर्ज करने के लिए आपकी खिदमत में हाज़िर हुआ हूं। अगर वे लोग रोते हुए आकर आपके पैरों पर गिर पड़े तो भी आप ठुकरा दीजिएगा। इसमें शक नहीं कि वे दिलेर हैं, दीनदार हैं, मेहमानेबाज है, पर दौलत के गुलाम हैं। इस ऐब ने उनकी सारी खूबियों पर परदा डाल दिया है। वज़ीफे और जागीर के लालच और वजीफ़े तथा जागीर की जब्ती का खौफ़ उनसे ऐसे क़ौल करा सकता है जिसकी इंसान से उम्मीद नहीं की जा सकती।

हुसैन– हबीब, मैं तुम्हारी सलाह को हमेशा याद रखूंगा।

जुबेर– हबीब, तुमने कूफ़ियों के बारे में जो कुछ कहा, वह बहुत कुछ दुरुस्त है, लेकिन तुम हज़रत हुसैन के दोस्त हो, तुमने कहने में कोई खौफ़ नहीं कि मक्कावाले भी इस मामले में कूफ़ावालों ही के भाई-बंद है। इसके क़ौल और फ़ेल का भी कोई ऐतबार नहीं। कूफ़े की आबादी ज्यादा है, वे अगर दिल से किसी बात पर आ जायें, तो यजीद के दांत खट्टे कर सकते हैं। मक्का की थोड़ी सी आबादी वफ़ादार भी रहे, तो उससे भलाई की उम्मीद नहीं हो सकती। शाम की दो हज़ार फौज़ इन्हें घेर लेने को काफ़ी है। भलाई या बुराई किसी खास मुल्क या कौम का हिस्सा नहीं होती। वही सिपाही जो एक बार मैदान में दिलेरी के जौहर दिखाती हैं, दूसरी बार दुश्मन को देखते ही भाग खड़ी होती है। इसमें सिपाही की खता नहीं; उसके फ़ेल की जिम्मेदारी उसके सरदार पर है। वह अगर दिलेर है, तो सिपाही में दिलेरी की रूह फंक सकता है; कम-हिम्मत है, तो सिपाही की हिम्मत को पस्त कर देगा। आप रसूल के बेटे हैं, आपको भी खुदा ने वही अक्ल और कमाल अता किया है। यह क्योंकर मुमकिन है कि आपकी सोहबत का उन पर असर पड़े। कूफ़ा तो क्या, आप हक को भी रास्ते पर ला सकते हैं। मेरे खयाल में आपको किसी से बदगुमान होने की ज़रूरत नहीं।

अब्बास– जुबेर, सलाह कितनी माकूल हो, लेकिन उसमें गरज की बू आते ही उसकी मंशा फ़ौत हो जाती है।

हुसैन– अगर तुम्हारा इरादा यहां लोगों से बैयत लेने का ही, तो शौक से लो, मैं ज़रा भी दखल न दूंगा।

जुबेर– या हज़रत, मेरा खुदा गवाह है कि मैं आपके मुकाबले में अपने ख़िलाफ़त के लायक नहीं समझता। मैं यदीज की बैयत न करूंगा। लेकिन खुदा मुझे नजात न दे, अगर मेरे दिल में आपका मुक़ाबला करने का ख्याल भी आया हो।

हबीब– या इमाम, अगर तकलीफ न हो, तो सहन में तशरीफ़ लाइए। अजान हो चुकी। लोग आपकी राह देख रहे हैं।

(सब लोग नमाज पढ़ने जाते हैं।)

दूसरा दृश्य

(यजीद का दरबार– यजीद, जुहाक़, मुआबिया, रूमी, हुर और अन्य सभासद् बैठे हुए हैं। दो वेश्याएँ शराब पिला रही हैं।)

यजीद– तुममें से कोई बता सकता है, जन्नत कहां है?

हुर– रसूल ने तो चौथे आसमान पर फ़रमाया।

शम्स– मैं चौथें-पांचवें आसमान का क़ायल नहीं? ख़ुदा का फ़जल और करम ही जन्नत है।

रूमी– खुदा ही निगाह कबरिस्तान नहीं है कि वहां मुर्दे दफ़न हो। जन्नत वहीं होगी, जहां लाशें दफ़न की जाती होंगी।

यजीद– उस्ताद, तुम भी चूक गए, फिर जोर लगाना। अब की जुहाक़ की बारी है। कहिए शेखजी, जन्नत कहां है?

जुहाक– बतलाऊं? इस शराब के प्याले में।

यजीद– पते पर पहुंचे, पर अभी कुछ कसर है। जरा और जोर लगाओ।

जुहाक– उस प्याले में, जो किसी नाज़नीन के हाथ में मिले।

यदीज– लाना हाथ। बस, वही जन्नत है। मए-गुलफाम हो, और किसी नाजनीन का पंजए– मरजान हो। इस एक जन्नत पर रसूल की हजारों जन्नतें कुर्बान है। अच्छा, बताओ, दोजख कहां हैं?

हुर– या खलीफ़ा, आपको दीन-हक की तौहीन मुनासिब नहीं।

यदीज– हुर, तुमने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया। आंखों की कसम है, तुम मेरी मजलिस में बैठने के काबिल नहीं हो। सारा मज़ा खाक में मिला दिया। यजीद के सामने दीन का नाम लेना मना है। दीन उन मुल्लाओं के लिए है, जो मसजिदों में पड़े हुए गोस्त की हड़्डियों को तरसते हैं; दीन उनके लिए है, जो मुसीबतों के सबब से जिंदगी से बेज़ार है, जो मुहताज है, बेबस है, भूखों मरते हैं, जो गुलाम हैं, दुर्रे खाते हैं। दीन बूढ़े मरदों के लिए, रांड औरतों के लिये, दिवालिए सौदागरों के लिये हैं। इस ख़याल से उनके आँसू पोंछते हैं, दिल को तसकीन होती है। बादशाहों के लिए दीन नहीं है। उनकी नजात रसूल और खुदा के निगाह– करम की मुहताज नहीं। उनकी नजात उनके हाथों में है। दोस्तों, बतलाना, हमारा पीर कौन है?

जुहाक– पीर मुगां (साकी)

यजीद– लाना हाथ। हमारा पीर साकी है, जिसके दस्तेकरम से हमें यह नियामत मयस्सर हुई है। अच्छा, कौन मेरे ख़याल के जवाब देता है, दोखज कहां है?

शम्स– किसी सूदखोर की तोंद में।

यजीज– बिलकुल ग़लत।

रूमी– खलीफ़ा के गुस्से में।

यजीद– (मुस्कराकर) इनाम के क़ाबिल जवाब है, मगर गलत।

कीस– किसी मुल्ला की नमाज में, जो जमीन पर माथा रगड़ते ताकता रहता है कि कहीं से रोटियां आ रही है या नहीं।

यजीद– वल्ला, खूब जवाब है, मगर ग़लत।

जुहाक– किसी नाजनीन के रूठने में।

यजीद– ठीक-ठीक, बिल्कुल ठीक। लाना हाथ। दिल खुश हो गया– (वेश्याओं से) नरगिस, इस जवाब की दाद तो, जुहरा, शेखजी के हाथों में बोसा दो। वह गीत गाओ, जिसमें शराब की बू हो, शराब का नशा हो, शराब की गर्मी हो।

नरगिस– आज खलीफ़ा से कोई बड़ा इनाम लूंगी। (गाती है)

हां खुले साक़ी दरे-मैखाना आज,
खैर हो, भर दे मेरा पैमाना आज।
नाज करता झूमता मस्ताना बार,
अब आता है, सूए-मैखाना आज।
बोसए-लब हुस्न के सदके में दे,
ओ बुते तरसा हमें तरसा न आज।
इश्के-चश्मे-मस्त का देखो असर,
पांव पड़ता है मेरा मस्ताना आज।
मेरे सीरो की इलाही खैर हो,
है बहुत मुजतर दिले दीवाना आज।
मुहतसिब काडर नहीं, ‘बिस्मिल’ तुम्हें,
सूए-मसजिद जाते ही रंदाना आज।

[एक कासिद का प्रवेश]

क़ासिद– अस्सलाम अलेक या इनाम, बिन जियाद ने मुझे कूफ़ा से आपकी खिदमत में भेजा है।

यजीद– खत लाया है?

क़ासिद– खत इस खौफ से नहीं लाया कि कहीं रास्ते में बाग़ियों के हाथ गिरफ्तार न हो जाऊं।

यज़ीद– क्या पैगाम लाया है?

क़ासिद– बिन जियाद ने गुजारिश की है कि यहां के लोग हुजूर की बैयत कबूल नहीं करते, और बगावत पर आमादा हैं। हुसैन बिन अली को अपनी बैयत लेने को बुला रहे हैं। तीन क़ासिद जा चुके हैं मगर अभी तक हुसैन आने पर रजामंद नहीं हुए, अब शहर के कई रऊसा खुदा जा रहे हैं।

यजीद– बिन जियाद से कहो, जो आदमी मेरी बैयत न मंजूर करे, उसे कत्ल कर दें। मुझसे पूछने की जरूरत नहीं।

रूमी– दुश्मन के साथ मुतलिक रियायत की जरूरत नहीं। जियाद को चाहिए कि तलवार का इस्तेमाल करने में दरेग़ न करे।

हुर– मुझे खौफ़ है कि बगावत हो जायेगी।

रूमी– सजा और सख्ती यही हुकूमत के दो गुर हैं। मेरी उम्र बादशाहत के इंतजाम ही में गुजरी है, इससे बेहतर ओर कारगर कोई तदवीर न नज़र आई। खुदा को भी अपना निज़ाम क़ायम रखने के लिए दोज़ख की जरूरत पड़ी। दोज़ख का ख़ौफ ही दुनिया को आबाद रखे हुए है। उसका रहम और इंसाफ फ़कीरों और बेकसों की तसक़ीन के लिए है। ख़ौफ की सल्तनत की बुनियाद है। नरमी से सल्तनत को बक़ार मिट जाता है। जियाद से कहना, कत्ल करो, और इस तरह कत्ल करो कि देखने वालों के दिल थर्रा जाये। तीरों से छिदवाओ, कुत्तों से नुचवाओ, जिंदा खाल खिंचवाओ, लाल लोहे से दाग़ दो। जो हुसैन का नाम ले, उसकी ज़बान तालू से खींच ली जाये। वह सजा नहीं, जो सख्त न हो।

यजीद– मैं इस हुक्म की ताईद करता हूं। जा, और फिर ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिये मेरे आराम में बाधा न डालना।

[कासिद का प्रस्थान]

हुसैन का कूफ़ा आना मेरे लिए मौत के आने से कम नहीं। क़सम है आंखों की, वह कूफ़ा न आने पाएगा, अगर मेरा बस है।

शम्स– ताज्जुब यही है कि कूफ़ावालों ने तीन क़ासिद भेजे, और हुसैन जाने पर राजी नहीं हुए।

यजीद– तैयारियां कर रहा होगा। वलीद अगर मेरे चाचा का बेटा न होता, तो मैं अपने हाथों से उसकी आँखें निकाल लेता। उसने जानबूझकर हुसैन को मक्का जाने दिया। मदीना ही में कत्ल कर देता, तो मुझे आज इतनी परेशानी क्यों होती? कौन जाकर उसे गिरफ्तार कर सकता है?

हुर– मैं इस खिदमत के लिये हाजिर हूं।

यजीद– अगर तुम यह काम पूरा कर दिखाओ, तो इसके लिए मैं तुम्हें एक सूबा दूंगा, जिस पर जन्नत भी फ़िदा हो। मेरी फ़ौज से एक हज़ार चुने हुए आदमी ले लो, और आफ़ताब निकले, तो तुम्हें यहां से बीस फुर्सख पर देखे।

हुर– इंशाअल्लाह?

यज़ीद– जैसे शिकारी शिकार की तलाश करता है, उसी तरह हुसैन की तलाश करना। बीहड़ रास्ते, अंधेरी घाटियां, घने जंगल, रेतीले मैदान, सब छान डालना। दिल फ़िक्र नहीं, पर रात को अपनी आँखों से नींद को यों भगा देना, जैसा कोई दीनदार आदमी अपने दरवाजे से कुत्ते को भगाता है।

हुर– हुक्म की तामील करूंगा। (स्वगत) यजीद बदकार, बेदीन है, शराबी है; मगर खिलाफत को संभाले हुए तो है। हुसैन की बैयत मुसलमानों में दुश्मनी पैदा कर देगी, खून का दरिया बहा देगी और खिलाफ़त का निशान मिटा देगी। खिलाफ़त क़ायम करना व देखना मेरा पहला फ़र्ज है, खलीफ़ा कौन और कैसा हो, यह बाद को देखा जाएगा।

[हुर का प्रस्थान]

यजीद– नरगिस, रिंदों में एक जाहिद था, वह जिसका, अब कोई मस्त करने वाली गज़ल गाओ। काश सल्तनत की फिक्र न होती, तो तुम्हारे हाथों शराब के प्याले पीता उम्र गुजार देता।

नर०– खौफ़ से कांपती हुई बुलबुल मस्ताना ग़जलें नहीं गा सकती। शाख पर है, तो उड़ जाएगी, क़फस में है, तो मर जाएगी। मैंने खौफ़ से गुलशन को आबाद होते नहीं, वीरान देखा है। मेरा वतन कूफ़ा है और मैं कूफियों को खुद जानती हूँ। उन पर सख्तियां करके आप हुसैन को बुला रहे हैं। हुसैन कूफ़े में दाखिल हो गए, तो फिर आप हमेशा के लिए इराक से हाथ धो बैठेंगी। कूफ़ा वाले रियासतों से, जागीरों से, वजीफों से, थपकियों से काबू में आ सकते है। सख्ती से नहीं। अगर एतबार न हो, तो मुझ पर अपनी ताकत आजमा लो। अगर तुम्हारी दसों उंगलियां दस तलवारें हो जायें, तो भी आप मेरे मुंह से एक सुर भी नहीं निकलवा सकते। कूफ़ा मुसीबत में मुब्तिला है, मैं यहां नहीं रह सकती।

[प्रस्थान]

तीसरा दृश्य

[कूफ़ा की अदालत– क़ाजी और अमले बैठे हुए है। काज़ी के सिर पर अमामा है, बदन पर कबा, कमर में कमरबंद, सिपाही नीचे कुरते पहने हुए हैं। अदालत से कुछ दूर पर मसजिद है मुकद्दमें में पेश हो रहे हैं। कई आदमी एक शरीफ़ आदमी की मुश्कें कसे लाते हैं।]

क़ाज़ी– इसने क्या खता की है?

ए० सि०– हुजूर, यह आदमी मसजिद में खड़ा लोगों से कह रहा था कि किसी को फौज में न दाखिल होना चाहिए।

क़ाज़ी– गवाह है?

ए० आ०– हुजूर, मैंने अपने कानों सुना है।

का०– इसे ले जाकर कत्ल कर दो।

मुल०– हुजूर, बिलकुल बेगुनाह हूं। ये दोनों सिपाही मेरी दुकान से कपड़े उठाए लाते थे। मैंने छीन लिया, इस पर इन्होंने मुझे पकड़ लिया। हुजूर मेरे पड़ोस के दुकानदारों से पूछ लें। बेगुनाह मारा जा रहा हूं। मेरे बाल-बच्चे तबाह हो जायेंगे।

का०– इसे यहां से हटाओ।

मुल०– (चिल्लाकर) या रसूल, तुम कयामत के लिये मेरा और इस कातिल का फैसला करना।

[दोनों सिपाही उसे ले जाते हैं। मसजिद की तरफ़ से आवाज़ आती है।]

‘‘या खुदा, हम बेकस तेरी बारगाह में फ़रियाद करने आए हैं। हमें जालिम के फंदे से आजाद कर।’’

[चार सिपाही १५-२० आदमियों की मुश्कें कसे कोड़े मारते हुए लाते हैं।]

का०– इन पर क्या इंलजाम है?

ए० सि०– हुजूर, ये उन आदमियों में से हैं, जिन्होंने हुसैन के पास क़ासिद भेजे थे।

का०– संगीन जुर्म है। कोई गवाह?

ए० सि०– हुजूर, कोई गवाह नहीं मिलता। शहरवालों के डर के मारे कोई गवाही देने पर राजी नहीं होता।

का०– इन्हें हिरासत में रखो, और जब गवाह मिल जायें, तो फिर पेश करो।

(सिपाही उन आदमियों को ले जाते हैं। फिर दो सिपाही एक औरत की दोनों कलाइयां बांधे हुए लाते हैं।)

का०– इस पर क्या इलजाम है?

ए० सि०– हुजूर, जब हम लोग मुलजिमों को गिरफ्तार कर रहे थे, जो अभी गए हैं, तो इसने खलीफ़ा को जालिम कहा था।

का०– गवाह?

ए० औरत– हुजूर खुदा इसका मुंह न दिखाए, बड़ी बदजबान है।

का०– इसका मकान जब्त कर लो, और इसके सर के बाल नोच लो।

मु०औ०– खुदाबंद, मेरी आंखें फुट जायें, जो मैंने किसी को कुछ कहा हो। यह औरत मेरी सौत है। इसने डाह से मुझे फंसा दिया है। खुदा गवाह है कि मैं बेक़सूर हूं।

का०– इसे फौरन् ले जाओ।

एक युवक– (रोता हुआ) या क़ाजी, मेरी मां पर इतना जुल्म न कीजिए। आप भी तो किसी मां के बच्चे हैं। अगर कोई आपकी मां के बाल नोंचवाता, तो आपके दिल पर क्या गुजरती?

का०– इस मलऊन को पकड़कर दो सौ दुर्रे लगाओ।

[कई सिपाही आदमियों के गोल बांधे हुए लाते हैं।]

का०– इन्होंने खुदा के किस हुक्म को तोड़ा है?

ए० सि०– हुजूर, ये सब आदमी सामनेवाली मसजिद में खड़े होकर रो रहे थे।

का०– रोना कुफ्र है, इन सबों की आँखें फोड़ डाली जाये।

[सैकड़ों आदमी मसजिद की तरफ से तलवारें और भाले लिए दौड़े आते हैं, और अदालत को घेर लेते हैं।]

सुलेमान– कत्ल कर दो इस मरदूद मक्कार को, जो अदालत के मसनद पर बैठा हुआ अदालत का खून कर रहा है।

भूसा– नहीं, पकड़ लो। इसे जिंदा जलाएंगे।

[कई आदमी क़ाजी पर टूट पड़ते हैं।]

का०– शरा के मुताबिक मुसलमान पर मुसलमान का खून हराम है।

सुले०– तू मुसलमान नहीं! इन सिपाहियों में से एक भी न जाने पाए।

ए० सि०– या सुलेमान, हमारी क्या खता है! जिस आक़ा के गुलाम हैं, उसका हुक्म न मानें, तो रोटियां क्योंकर चलें?

भूसा– जिस पेट के लिए तुम्हें खुदा के बंदों का ईजा पहुंचानी पड़े, उसको चाक कर देना चाहिए।

[सिपाहियों और बागियों में लड़ाई होने लगती है।]

सुले०– भाइयों, आपने इन जालिमों के साथ वहीं सलूक किया, जो वाजिब था, मगर भूल न जाइए कि जियाद इसकी इत्तला यजीद को जरूर देगा, और हमें कुचलने के लिए शाम से फ़ौज आएगी। आप लोग उसका मुकाबला करने को तैयार है?

[एक आवाज]

‘‘अगर तैयार नहीं हैं तो हो जायेंगे।’’

सुले०– हमने अभी तक यजीद की बैयत नहीं कबूल की, और न करेंगे। इमाम हुसैन की खिदमत में बार-बार क़ासिद भेजे गए, मगर वह तशरीफ नहीं लाए। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिए?

हानी– इसमें चंद खास आदमी खुद जायें और उन्हें साथ लाएं।

मुख्तार– हम लोगों ने रसूल की औलाद के साथ बार-बार ऐसी दगा की है कि हमारा एकबार उठ गया। मुझे खौफ़ है कि हज़रत हुसैन यहां हर्गिज न आएंगे।

सुले०– एक बार आखिरी कोशिश करना हमारा फर्ज है। हम लोग चल कर उनसे अर्ज करें कि हम कत्ल किए जा रहे हैं, लूटे जा रहे हैं, हमारी औरतों की आबरू भी सलामत नहीं। हमारी मुसीबत की कहानी सुनकर हुसैन को जरूर तरस आएगा, उनका दिल इतना सख्त नहीं हो सकता।

मुख्तार– मगर वह आपकी मुसीबतों पर तरस खाकर आएं, और तुमने उनकी मदद न की, तो सब-के-सब रूस्याह कहलाओगे। हमने पहले जो दवाएं की हैं, उनका फल पा रहे हैं, और फिर वही हरकत की, तो हम दुनिया और दीन में कहीं भी मुंह न दिखा सकेंगे। खूब सोच लो, आखिर तक तुम अपने इरादे पर क़ायम रह सकोगे। अगर तुम्हारे दिल हामी भरे, तो मैं दावे से कह सकता हूँ कि उन्हें खींच लाऊंगा। लेकिन अगर तुम्हारे दिल कच्चे हैं, तो तुम अपनी जानें निसार करने को तैयार नहीं हो, अगर तुम्हें खौफ़ है कि तुम लालच के शिकार बन जाओगे, तो तुम उन्हें मक्के में पड़े रहने दो।

हज्जाम– खुदा की कसम, हम उनके पैरों पर अपनी जानें निछावर कर देंगे।

हारिस– हम अपनी बदनामी का दाग़ मिटा देंगे।

मुख्तार– खुदा की हाजिर जानकार वादा करो कि अपने कौल पर क़ायम रहोगे।

[कई आदमी एक साथ]

‘‘अल्लाहोअकबर! हम हुसैन पर फ़िदा हो जायेंगे।’’

सुले०– तो मैं उनकी खिदमत में खत लिखता हूं।

[खत लिखता है।]

हज्जाज– इतना जरूर लिख देना कि हम आपके नाना मुहम्मद मुस्तफा का वास्ता देकर आपसे अर्ज़ करते हैं कि हमारे ऊपर कीजिए।

हारिस– यह और लिख देना कि हम बेशुमार अर्ज़िया आपकी खिदमत में भेज चुके, और आप तशरीफ न लाए। अगर आप अब भी न आए, तो हम कल कयामत के रोज़ रसूल के हुजूर में आपका दामन पकड़ेंगे।

हज्जाम– और कहेंगे या ख़ुदा, हुसैन ने हम पर फिर जुल्म किया था। क्योंकि हम पर जुल्म होते देखकर वह खामोश बैठे रहे, तो उसे वक्त आप क्या जवाब देंगे, और रसूल को क्या मुंह दिखाएंगे।

कीस– मेरी क़बीले में एक हज़ार जवान हैं, जो हुसैन के इंतजार में बैठे हुए हैं।

हज्जाम– शायद शाम तक जियाद कुछ आदमी जमा कर ले।

हारिस– अभी वह खामोश रहेगा। यजीद की फ़ौज आ जायेगी, तब हमारे ऊपर हमला करेगा।

शिमर– क्यों न लगे हाथ उसका भी खातमा कर दें, किस्सा पाक हो।

हारिस– वाह, अब तक यहां बैठा होगा?

सुले०– मैंने सारी दास्तान लिख दी। कौन इस खत को ले जायेगा।

शिमर– मैं हाजिर हूं।

सुले०– किसके पास ऐसी सांड़नी है, जो थकान न जानती हो, जो इस तरह दौड़ सकती हो, जैसे जियाद लूट के माल की तरफ?

एक युवक– मेरे पास एक सांड़नी है, जो तीन दिन में इस खत का जवाब ला सकती है। वह खिदमत बजा लाने का हक मेरा है, क्योंकि मुझसे ज्यादा मजलूम और कोई न होगा, जिसकी मां के बाल काजी के हुक्म से अभी-अभी नीचे गए हैं।

सुले०– बेशक, तुम्हारा हक सबसे ज्यादा है। यह खत लो, और इसके पहले कि हमारा पसीना ठंडा हो, मक्का की तरफ़ रवाना हो जाओ।

[युवक चला जाता है।]

आइए, हम लोग मस्जिद में नमाज अदा कर लें। खत का जवाब तीन दिन में आएगा। हज़रत हुसैन के आने में अभी एक महीने की देर है। जियाद भी शायद उसके पहले नहीं लौट सकता। ये दिन हमें तैयारियों में सर्फ़ करने चाहिए, क्योंकि यजीद की खिलाफत का फैसला कूफ़ा में होगा या तो वह खिलाफत के मसनद पर बैठेगा, या जाहिलों की इबादत का मजार बनेगा। अगर कूफ़ा ने खिलाफ़त को नबी के खानदान में वापस कर दिया, तो उसका नाम हमेशा रोशन रहेगा।

[सब जाते है।]

चौथा दृश्य

[स्थान– काबा, मरदाना बैठक। हुसैन, जुबेर, अब्बास मुसलिम अली असगर आदि बैठे दिखाई देते हैं।]

हुसैन– यह पांचवी सफ़ारत है। एक हज़ार से ज्यादा खतूत आ चुके हैं। उन पर दस्तखत करने वालों की तादाद पन्द्रह हजार से कम नहीं है।

मुस०– और सभी बड़े-बड़े कबीलों के सरदार है। सुलेमान, हारिस, हज्जाज, शिमर, मुख्तार, हानी, ये मामूली आदमी नहीं हैं।

जुबेर– मैं तो अर्ज कर चुका कि मुसल्ल ईराक आपकी बैयत कबूल करने के लिये बेकरार है।

हुसैन– मुझे तो अभी तक उनकी बातों पर एतबार नहीं होता। खुदा जाने, क्यों मेरे दिल में उनकी तरफ से दग़ा का शुबहा घुसा हुआ है। मुझे हबीब की बातें नहीं भूलती, जो उसने चलते-चलते कही थी।

मुस०– गुस्ताखी तो है, पर आपका उन पर शक करना बेजा है। आखिर आप उनकी वफ़ादारी का और क्या सबूत चाहते हैं? वे कसमें खाते हैं, वादे करते हैं, साफ़ लिखते हैं कि आपकी मदद के लिये बीस हज़ार सूरमा तैयार बैठे हैं। अब और क्या चाहिए?

जुबेर– कम-से-कम मैं तो ऐसे सबूत पाकर पल की भी देर न करता।

अब्बास– मुझे तो इन कूफ़ियों पर उस वक्त भी एतबार न आएगा, अगर उनके बीसों हजार आदमी यहाँ आकर आपकी बैयत की कसम खा लें। अगर वह कुरान शरीफ़ हाथ में लेकर कसमें खायें, तो भी मैं उनसे दूर भागूं।

[तारिक आता है।]

तारिक– अस्सलाम अलेक या हुसैन।

हुसैन– खुदा तुम पर रहमत करे। कहां से आ रहे हो?

तारिक– कूफ़ा के मजमूलों ने अपनी फ़रियाद सुनाने के लिये आपकी खिदमत में भेजा है। आफ़ताब डूबते चला था, और आफ़ताब डूबते आया हूं, और आफ़ताब निकलने के पहले यहां से जाना है।

मुस०– हवा पर आए हो या तख्तए-सुलेमान पर? कसम है पाक रसूल की कि मैं उस घोड़े के लिये पांच हज़ार दीनार पेश करता हूं।

तारिक– हुजूर, घोड़ी नहीं, सांड़नी है, जो सफ़र में खाना और थकना नहीं जानती।

(हुसैन के हाथ में खत देता है)

हुसैन– (खत पढ़कर) आह, कितना दर्दभरा खत है। जालिमों ने दिल निकालकर रख दिया है। यह कितना गजब का जुमला है कि अगर आप न आएंगे, तो हम आक़वत में आपसे इंसाफ़ का दावा करेंगे। आह! उन्होंने नाना का वास्ता दिया है। मैं नाना के नाम पर अपनी जान को यों फ़िदा कर सकता हूं, जैसे कोई हरीस अपना ईमान फ़िदा कर देता है। इतना जुल्म! इतनी सख्ती! दिन-दहाड़े लूट! दिन-दहाड़े औरतों की बेआबरूई! जरा-जरा-सी बातों पर लोगों का कत्ल किया जाना! अब्बास, अब मुझे सब्र की ताब नहीं है। मैं अपनी बैयत के लिये हर्गिज न जाता, पर मुसीबतजदों की हिमायत के लिये न जाऊं, यह मेरी ग़ैरत गंवारा नहीं करती।

मुस०– या बिरादर, आप इसका कुछ ग़म न करें, मैं इसी कासिद के साथ जाऊंगा और वहां की कैफ़ियत की इत्तिला दूंगा। मेरा खत देखकर आप मुनासिब फ़ैसला कीजिएगा।

हुसैन– तब तक यजीद उन गरीबों पर खुदा जाने क्या-क्या सितम ढाए। उसका अजाब मेरी गर्दन पर होगा। सोचो, जब कयामत के दिन वे लोग फ़रियादी होंगे, तो मैं नाना को क्या मुंह दिखाऊंगा। जब वह मुझसे पूछेंगे कि तुझे जान इतनी प्यारी थी कि तूने मेरे बंदों पर जुल्म होते देख, और खामोश बैठा रहा, उस वक्त मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा। मुसलिम, मेरा जी चाहता है कि मैं भी तुम्हारे साथ चलूं।

मुस०– मुझे तो इसका यक़ीन है कि सुलेमान– जैसा आदमी कभी दग़ा नहीं कर सकता।

जुबेर– हर्गिज़ नहीं।

मुस०– पर मैं यही मुनासिब समझता हूं कि पहले वहां जाकर अपनी इत्मीनान कर लूं।

मुस०– बच्चों को ग़ैव का इल्म होता है। इसका फैसला अली असगर पर छोड़ दिया जाये। क्यों बेटा, मैं भी मुसलिम के साथ जाऊं, या उनके खत का इंतजार करूं।

अली अस०– नहीं अब्बाजान, अभी मुसलिम चाचा ही को जाने दाजिए। आप चलेंगे, तो कई दिन तैयारियों में लग जायेंगे। ऐसा न हो, इतने दिनों में वे बेचारे निराश हो जायें।

अब्बास– बेटा, तेरी उम्र दराज हो। तूने खूब फैसला किया। खुदा तुझे बुरी नजर से बचाए।

हुसैन– अच्छी बात है, मुसलिम, तुम सबेरे रवाना हो जाओ। अपने साथ गुलाम लेते जाओ। रास्ते में शायद इनकी ज़रूरत पड़े। मैं कूफ़ावालों के नाम यह खत लिख देता हूं, उन्हें दिखा देना। इंशा अल्लाह, हम तुमसे जल्दी ही मिलेंगे। वहां बड़े एहतियात से काम लेना, अपने को छिपाए रखना, और किसी ऐसे आदमी के घर उतरना, जो सबसे एतबार के लायक हो। मेरे पास एक खत रोजाना भेजना।

मुस०– खुदा से दुआ कीजिए कि वह मेरी हिदायत करे। मैं बड़ी भारी जिम्मेदारी लेकर जा रहा हूं। सुबह की नमाज पढ़कर मैं रवाना हो जाऊंगा। तब तक तारिक की सांड़नी भी आराम कर लेगी।

[हुसैन खत लिखकर मुसलिम को देते हैं। मुसलिम दरवाजे की तरफ़ चलते हैं।]

हुसैन– (मुसलिम के साथ दरवाजे तक आकर) रात तो अंधेरी है।

मुस०– उम्मीद की रोशनी तो दिल में है।

हुसैन– (मुसलिम से बगलगीर होकर) अच्छा भैया, जाओ, मेरा दिल तुम्हारे साथ रहेगा। जो कुछ होने वाला है, जानता हूं। इसकी खबर मिल चुकी है। तकदीर से कोई चारा नहीं, नहीं जानता, यह तकदीर क्या है! अगर खुदा का हुक्म है, तो छुपकर, सूरत बदलकर, दग़ाबाजों की तरह क्यों आती है। खुदा क्या साफ़ और खुले एक अल्फाज़ में अपना हुक्म नहीं भेजता। अपने बेकस बच्चों का शिकार टट्टी की आड़ से क्यों करता है। जाओ, कहता हूं, पर जी चाहता है, न जाने दूं। काश, तुम कह देते कि मैं न जाऊंगा। मगर तक़दीर ने तुम्हारी जबान बन्द कर रखी है। अच्छा, रूखसत। उम्मीद है कि अल्लाह हम दोनों को एक साथ शहादत का दर्जा देगा।

[मुसलिम बाहर चला जाता है। हुसैन आंखें पोंछते हुए हरम में दाखिल होते हैं।]

जैनब– भैया, आज फिर कोई क़ासिद आया था क्या?

हुसैन– हां जैनब, आया था। यजीद कूफ़ावालों पर बड़ा जुल्म कर रहा है। मेरा वहां जाना लाजिमी है। अभी तक मैंने मुसलिम को वहां भेज दिया है, पर खुद भी बहुत जल्द आना चाहता हूं।

जैनब– आपके एकाएक क्यों अपनी राय बदल दी? कम-से-कम मुसलिम के खत के आने का इंतजार कीजिए। मैं तो आपको हरगिज न जाने दूंगी। आपको वह ख्याब याद है, जो आपने रसूल की कब्र पर देखा था?

हुसैन– हां, जैनब, खूब याद है, इसी वजह से मैं जाने की जल्दी कर रहा हूं। उस ख्वाब ने मेरी तक़दीर को मेरे सामने खोलकर रख दिया। तक़दीर से बचने की भी कोई तकबीर है? ख़ुदा का हुक्म भी टल सकता है। खिलाफ़त की तमन्ना को दिल से मिटा सकता हूं, पर ग़ैरत को तो नहीं मिटा सकता, बेकसों की इमदाद से तो मुंह नहीं मोड़ सकता।

शहर०– आप जो कुछ करते हैं, इसमें खुदा और तक़दीर को क्यों खींच लाते हैं। जब आपको मालूम है कि कूफ़ा में लोग आपके साथ दग़ा करेंगे, तो वहां जाइए ही क्यों? तकदीर आपको खींच तो न ले जाएगी? बेकसों की इमदाद जरूर आपका और आप ही का नहीं, हर एक इंसान का फर्ज है, लेकिन आपके कुन्बे की भी तो कोई खबर लेने वाला हो? इंसान पर दुनिया से पहले खानदान का हक होता है।

हुसैन– ज़रा इस खत को पढ़ लो तब कहो कि मैंने जो फैसला किया है, वह मुनासिब है या नहीं। (शहरबानू के हाथ के खत देकर) देखा! इससे क्या साबित होता है? लेकिन जितने आदमियों ने इस पर दस्तखत किए हैं, उसके आधे भी मेरे साथ हो जायेंगे, तो मैं यजीद का काफ़िया तंग कर दूंगा। इस्लाम की खिलाफ़त इतना आला रुतबा है कि उसकी कोशिश में जान दे देना भी जिल्लत नहीं। जब मेरे हाथों में एक स्याहकार बैदीन आदमी को सजा देने का मौक़ा आया है, तो उससे फ़ायदा न उठाना पहले सिरे की पस्तहिम्मती है। घर में आग लगते देखकर उसमें कूद पड़ना नादानी है, लेकिन पानी मिल रहा हो, तो उनसे आग को न बुझाना उनसे भी बड़ी नादानी है।

सकीना– मगर अब्बाजान, अब तो मुहर्रम का महीना आ रहा है। फूफ़ीजान की बहुत दिनों से आरजू थी कि इस महीने में यहां रहती।

हुसैन– तुम लोगों को ले जाने का मेरा इरादा नहीं है।

जैनब– भैया, ऐसा भी हो सकता है कि आप वहां जायें, और हम यहां रहें! खुदा जाने, कैसी पड़े, कैसी न पड़े।

सकीना– अब्बाजान दिल्लगी करते हैं, आप लोग सच समझ गई।

कुलसूम– और कोई चले, चाहे न चले, मैं तो ज़रूर ही जाऊंगी। मेरे दिल से लगी हुई है कि एक बार यजीद को खूब आड़े हाथों लेती।

सकीना– मैं अपनी फतह का कसीदा लिखने के लिए बेताब हूं।

शहर०– आप समझते हैं कि हमारे साथ रहने से आपको तरद्दुद होगा, पर मैं पूछती हूं, आपको वहां फंसाकर दुश्मनों ने इधर हमला कर दिया, तो हमारी हिफा़जत की फिक्र आपको चैन लेने देगी?

जैनब– असग़र हुड़क-हुड़ककर जान दे देगा।

सकीना– हम अपने ऊपर इस बदनामी का दाग़ नहीं लगा सकती कि रसूल के बेटे ने तो इस्लाम की हिमायत में जान दी, और बेटियां हरम में बैठी रहीं।

हुसैन– (स्वगत) शहरबानू ने मार्के की बात कही, अगर दुश्मनों ने हरम पर हमला कर दिया, तो हम वहां बैठे-बैठे क्या कर लेंगे? इन्हें यहां छोड़ देना अपने किले की दीवार में शिग़ाफ़ कर देने से कम खतरनाक नहीं। (प्रकट) नहीं, मैं तो लोगों पर जब्र नहीं करता, अगर चलना चाहती है, तो शौक़ से चलो।

पांचवां दृश्य

[यजीद का दराबर। मुआबिया बेड़ियां पहने हुए बैठे हुआ है। चार गुलाम नंगी तलवारें लिए उसके चारों तरफ़ खड़े हैं। यजीद के तख्त के करीब सरजून रूमी बैठा हुआ है।]

मुआ०– (दिल से) नबी की औलाद पर यह जुल्म! मुझी से तो इसका बदला लिया जायेगा। बाप का कर्ज़ बेटे ही की तो अदा करना पड़ता है! नगर मेरे खून से इस जुलम का दाग़ न मिटेगा। हर्गिज नहीं, इस खानदान का निशान मिट जायेगा। कोई फातिहा पढ़ने वाला भी न रहेगा। आह! नबी की औलाद पर यह जुल्म! जिनके क़दमों की खाक आंखों में लगानी चाहिए थी। तबाही के सामान हैं। ऐ रसूक पाक, मैं बेगुनाह हूं, (प्रकट) आप जानते हैं। मौलाना रूमी के वालिद का मुझे कब तक इंतजार करना पड़ेगा।?

रूमी– आते ही होंगे। जियाद से कुछ बातें हो रही हैं।

मुआ०– वालिद मुझसे चाहते हैं कि मैं इस मार्के में शरीक हो जाऊं, लेकिन अगर जालिमों के हाथ से अख़्तियार छीनने के लिये, हक़ की हिमायत के लिये यह पहलू अख़्तियार किया जाता, तब सबसे पहले मेरी तलवार म्यान से निकलती, सबसे पहले मैं जिहाद का झंड़ा उठाता, पर हक़ का खून करने के लिये मेरी तलवार कभी बाहर न निकलेगी, और मेरी जबान उस वक्त तक मलामत करती रहेगी, जब तक वह तालू से खींच न ली जाये। नबी की मसन्द पर (जिसने दुनिया को हिदायत का चिराग दिखलाया, जिसने इसलामी क़ौम की बुनियाद डाली) उस शख्स को बैठने का मजाज नहीं है, जो दीन को पैरों चले कुचलता हो, जो इंसानियत के नाम को दाग़ लगाता हो, चाहे वह मेरा बाप ही क्यों न हो। इस्लाम का खलीफ़ा होना चाहिए, जिस पर इंसानियत को गरूर हो, जो दीनदार हो, हक़परस्त हो, बेदार हो, बेलौस हो, दूसरों के लिये नमूना हो, जो ताकत से नहीं, फ़ौज से नहीं, अपने कमान से, अपने सिफ़ात से दूसरों पर अपना वक़ार जमाए।

[यजीद, जुहाक़, जियाद, शरीक, शम्स, आदि आते हैं।]

यजीद– आप लोग देखिए, यह मेरा सपूट बेटा है, जो अपने बाप को कुत्ते से भी ज्यादा नापाक समझता है। मेरी फूलों की सेज में यहीं एक कांटा है, मेरा नियामतों के थाल में यही एक मक्खी है। आप लोग इसे समझाएं, इसे क़याल करें, इसीलिए मैंने इसे यहां बुलाया है। इसको समझाए कि खलीफ़ा के लिये दीनदारी से ज्यादा मुल्कदारी की जरूरत है। दीन मुल्लाओं के लिये है, बादशाहों के लिये नहीं। दीनदारी और मुल्कदारी दो अलग-अलग चीजें हैं, और एक ही जात में दोनों का मेल मुमकिन नहीं।

मुआ०– अगर हुकूमत करने के लिये दीन और हक़ का खून करना जरूरी है, तो मैं गद्दारी करने को उससे बेहतर समझता हूं। मुल्कदारी की मंशा इंसाफ और सच्चाई की हिफ़ाजत करना है, उसका खून करना नहीं।

यजीद– आप लोग सुनते हैं इसकी बातें। यह मुझे मुल्कदारी का सबक सिखा रहा है। इसके सिर से अभी सौदा नहीं उतरा। इसे फिर वहीं ले जाओ। ऐसे आदमी को आजाद रखना खतरनाक है, चाहे वह तख्त का वारिस ही क्यों न हो। बाज हालतें ऐसी होती हैं, जब इंसान को अपने ही से बचाना जरूरी होता है। दीवाने के न रोके, तो वह अपना गोश्त काट खाता है। (गुलाम मुआबिया को ले जाता है) जियाद, अब तुम अपनी दास्तान कहो, जब तक तुम मुझे इसका यकीन न दिला दोगे कि तुम कूफ़ा से अपनी जान से खौफ़ से नहीं, मेरे फायदे के ख्याल से आए हो, मैं तुम्हें मुआफ़ न करूंगा। ऐसे नाजुक मौके पर जब शहर में बग़ावत का हंगामा गर्म हो सल्तनत के हर एक मुलाजिम– चाहे वह सूबे का आमिल हो या शाही महल का दरबान– यही फर्ज है कि वह अपनी जगह पर आखिर तक खड़ा रहे, चाहे उसका जिस्म तीरों से छलनी क्यों न हो जाये।

जियाद– या खलीफ़ा, मैं अपने फ़र्ज से वाकिफ हूं, पर मैं यह अर्ज करने के लिये हाजिर हुआ हूं कि इस वक्त रियाया पर सख्ती करने से हालत और भी नाजुक हो जायेगी। जब सल्तनत को किसी दूसरे मुद्दई का खौफ हो, तो बादशाह को रियाया के साथ नरमी के बर्ताव करके उसे अपना दोस्त बना लेना मुनासिब है। बिगड़ी हुई रियाया तिनके की तरह है, जो एक चिनगारी से जल उठती है। मेरी अर्ज है कि हमें इस वक्त रियाया का दिल, अपने हाथ से कर लेना चाहिए, उसकी गरदनें एहसानों से दवा देनी चाहिए, ताकि वह सिर न उठा सके।

यजीद– मेरी फौज़ बागियों का सिर कुचलने के लिये काफी है।

रूमी– नाजुक मौके पर अगर कोई चीज सल्तनत को बचा सकती है, तो वह सख्ती है। शायद और किसी हालत में सख्ती की इतनी ज्यादा जरूरत नहीं होती।

जुहाक– बादशाह की रियाया उसकी ज़ौजा की तरह है। ज़ौजा पर हम निसार होते हैं, उसके तलबे सहलाते हैं, उसकी बलाएं लेते हैं, लेकिन जब उसे किसी रकीब से मुखातिब होते देखते हैं, तो उस वक्त उसकी बलाएं नहीं लेते। हमारी तलवार म्यान से निकल आती है, और या तो रकीब की गर्दन पर गिरती है या बीवी की गर्दन पर, या दोनों की गरदनों पर।

रूमी– बेशक, कूफ़ा को कुचल दो, कूफ़ा को कोफ्त कर दो।

यजीद– कूफ़ा को कोफ्त में डाल दो। यहां से जाते-ही-जाते फौजी कानून जारी कर दो। एक हजार आदमियों को तैयार रखो। जो आदमी जरा भी गर्म हो, उसे फौरन कत्ल कर दो। सरदारों को एकबारगी गिरफ्तार कर लो, यहां तक कि कोई शायर शेर न पढ़ने पाए, मसजिदों में खुतबे न होने पाएं, मक्तबों में कोई लड़का न जाने पाए। रईसों को खूब जलील करो। जिल्लत सबसे बड़ी सज़ा है।

[एक कासिद आता है]

शम्स– कहां से आते हो?

कासिद– खलीफ़ा को मेरा सलाम हो, मुझे मक्का के अमीर ने आपकी खिदमत में यह अर्ज करने को भेजा हैं कि हुसैन का चचेरा भाई मुसलिम कूफ़ा की तरफ़ रवाना हो गया है।

यजीद– कोई खत भी लाया है?

कासिद– आंमिल ने खत इसलिये नहीं दिया कि कहीं मुझे दुश्मन गिरफ्तार न कर लें।

यजीद– जियाद, तुम इसी वक्त कूफ़ा चले जाओ। तुम्हें मेरे सबसे तेज घोड़े को ले जाने का अख्तियार है। अगर मेरा काबू होता, तो तुम्हें हवा के घोड़े पर सवार करता।

जियाद– खलीफ़ा पर मेरी जान निसार हो, मुझे इस पर मुहिम पर जाने से मुआफ रखिए। जुहाफ या शम्स को तैनात फरमाएं।

यजीद– इसके मानी यह है कि मैं अपनी एक आंख फोड़ लूं।

रूमी– आखिर तुम क्या चाहते हो?

जियाद– मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि इस मौके पर रियाया के साथ मुलायमियत का बर्ताव किया जाये, सरदार को जागीरें दी जायें, उनके वजीफे बढ़ाए जायें, यतीमों और बेवाओं की परवरिश का इंतजाम किया गया। मैंने कूफ़ावालों की खसलत का गौर से मुताला किया है, वे हयादार नहीं है, दिलेर नहीं है, दीनदार नहीं हैं। चंद खास आदमियों को छोड़कर, सब-के-सब लोभी और खुदगर्ज है। बात पर अड़ना नहीं जानते, शान पर मरना नहीं जानते, थोड़े से फायदे के लिये भाई-भाई का गला काटने पर आमादा हो जाते हैं। कुत्तों को भगाने के लिये लाठी से ज्यादा आसान हड्डी का एक टुकड़ा होता है। सब-के-सब उस पर टूट पड़ते हैं और एक दूसरे की भंभोड़ खाते हैं। खलीफ़ा का खजाना दस-बीस हजार दीनारों के निकल जाने से खाली न हो जायेगा, पर एक कौम हमारे हाथ आ जायेगी। सख्ती कमजोर के हक में वही काम करती है, जो ऐंठन तिनके के साथ। हम ऐंठन के बदले हवा के झोके से तिनकों को बिखेर सकते हैं, फौज से फ़ौज कुचली जा सकती है, एक कौम नहीं।

रूमी– मैं तो हमेशा सख्ती का हामी रहा, और रहूंगा।

शरीक– कामिल हकीम वह हैं, जो मरीज के मिजाज के मुताबिक दवा में तबदीली करता रहे। आपने उस हकीम का किस्सा नहीं सुना, जो हमेशा फ़स्द खोलने की तजवीज किया करता था। एक बार एक दीवाने का फ़स्द खोलने गया। दीवाने ने हकीम की गर्दन इतने जोर से दबाई की हकीम साहब की जूबान बाहर निकल आई। मुल्कदारी के आईने मौंके और जरूरत के मुताबिक बदलते रहते हैं।

यजीद– जियाद, मैं इस मुआमले में तुम्हें मुख्तार बनाता हूं। मुझे भी कुछ-कुछ आदेश हो रहा है कि कहीं हुसैन के बाद कूफ़ावालों को लुभा न लें। तुम जो मुनासिब समझो, करो। लेकिन याद रखो, अगर कूफ़ा गया, तो तुम्हारी जान उसके साथ जायेगी। यह शर्त मंजूर है।

जियाद– मंजूर है।

यजीद– हुर को ताकीद कर दो कि बहुत नमाज न पढ़े, और मुसलिम को इस तरह तलाश करे, जैसे कोई बखील अपनी खोई मुर्गी को तलाश करता है। तुम्हारी नरमी कमजोरों की नरमी नहीं होनी चाहिए, जिसे खुशामद कहते हैं। उसमें हुकूमत की शान कायम रखनी चाहिए। बस, जाओ।

[जियाद शरीक और कासिद चले जाते हैं।]

जुहाक– नरगिस को बुलाओ, ज़रा ग़म ग़लत करे। (गुलाब के हाथ से शराब का प्याला लेकर) यह मेरी फ़तह का जाम है।

रूमी– मुबारक हो, (दिल में) जियाद तुम्हें डूबा देगा, तब नरमी का मज़ा मालूम होगा।

(नरगिस जुहाक की पीठ पर बैठी हुई आती है।)

यजीद– शाबाश नरगिस, शाबाश, क्या खूब खच्चर है। इसकी कोई तशवीह। (उपमा) देना शम्स।

शम्स– मुर्ग के सिर पर ताज है।

रूमी– लीद पर मक्खी बैठी हुई है।

नरगिस– (गर्दन पर से कूदकर) लाहौल-विला-कूवत।

यजीद– वल्लाह, इस तशबीह से दिल खुश हो गया। नरगिस, बस इसी बात पर एक मस्ताना ग़जल सुनाओ। खुदा तुम्हारे दीवानों को तुम पर निसार करे।

नरगिस गाती है–

शबे-वस्ल वह रूठ जाना किसी का,
वह रूठे को अपने मनाना किसी का।
कोई दिल को देखे न तिरछी नज़र से,
खता कर न जाए निशाना किसी का।
अभी थाम लोगे तुम अपने जिगर को,
सुनो, तो सुनाएं फसाना किसी का।
जरा देख ले चल के, सैयाद, तू भी
कि उठता है अब आब-दाना किसी का।
वह कुछ सोचकर हो लिए उसके पीछे,
जनाजा हुआ जब रवाना किसी का।
बुरा वक्त जिस वक्त आता है ‘बिस्मिल’,
नहीं साथ देता जमाना किसी का।

[परदा गिरता है]

छठा दृश्य

(संध्या का समय। सूर्यास्त हो चुका है। कूफ़ा का शहर– कोई सारवान ऊँट का गल्ला लिए दाखिल हो रहे है।)

पहला– यार गलियों से चलना, नहीं तो किसी सिपाही की नज़र पड़ जाये, तो महीनों बेगार झेलनी पड़े।

दूसरा– हाँ-हाँ, वे बला के मूजी है। कुछ लादने को नहीं होता, तो यों ही बैठ जाते हैं, और दस-बीस कोस का चक्कर लौट आते हैं। ऐसा अंधेर पहले कभी न होता था। मजूरी तो भाड़ में गई, ऊपर से लात और गालियां खाओ।

तीसरा– यह सब महज पैसे आँटने के हथकंडे हैं। न-जाने कहां के कुत्ते आ के सिपाहियों में दाखिल हो गए। छोटे-बड़े एक ही रंग में रंगे हुए है।

चौथा– अमीर के पास फरियाद लेकर जाओ, तो उल्टे और बौछार पड़ती है। अजीब मुसीबत का सामना है। हज़रत हुसैन जब तक न आएंगे, हमारे सिर से ये बला न टलेगी।

[मुसलिम पीछे से आते हैं।]

मुस०– क्यों यारों, इस शहर में कोई खुदा का बंदा ऐसा है, जिसके यहां मुसाफिरों के ठहरने को जगह मिल जाये?

पहला– यहां के रईसों की कुछ न पूछो। कहने को दो-चार बड़े आदमी हैं, मगर किसी के यहां पूरी मजूरी नहीं मिलती। हां, जरा गालियां कम देते हैं।

मुस०– सारे शहर में एक भी सच्चा मुसलमान नहीं है?

दूसरा– जनाब, यहां कोई शहर के काजी तो हैं नहीं, हां, मुख्तार की निस्बत सुनते हैं कि बड़े दीनदार आदमी है। हैसियत तो ऐसी नहीं, मगर खुदा ने हिम्मत दी है। कोई गरीब चला जाये, तो भूखा न लौटेगा।

तीसरा– सुना है, उनकी जागीर जब्त कर ली गई है।

मुस०– यह क्यों?

तीसरा– इसीलिये कि उन्होंने अब तक याजीद की बैयत नहीं ली।

मुस०– तुममें से मुझे कोई उनके घर तक पहुंचा सकता है?

चौथा– जनाब, यह ऊँटनियों के दुहने का वक्त है; हमें फुरसत नहीं, सीधे चले जाइए, आगे लाल मसजिद मिलेगी, वहीं उनका मकान है।

मुस०– खुद तुम पर रहमत करे। अब चला जाऊंगा।

[परदा बदलता है। मसजिद के क़रीब मुख्तार का मकान]

मुस०– (एक बुड्ढे से) यही मुख्तार का मकान हैं न?

बुड्डा– जी हां, ग़रीब ही का नाम मुख्तार है। आइए, कहां से तशरीफ़ ला रहे हैं?

मुस०– मक्के शरीफ़ से।

मुख०– (मुसलिम के गले से लिपटकर) मुआफ कीजिएगा। बुढ़ापे की बीनाई शराबी की तोबा की तरह कमजोर होता है। आज बड़ा मुबारक दिन है। बारे हज़रत ने हमारी फ़रियाद सुन ली। खैरियत से हैं न?

मुस०– (घोड़े से उतरकर) जी हां, सब खुदा का फ़जल है।

मुख०– खुदा जानता है, आपको देखकर आँखें शाद हो गई। हज़रत का इरादा कब तक आने का है?

मुस०– (खत निकालकर मुख्तार को देते हैं) इसमें उन्होंने सब कुछ मुफ़स्सल लिख दिया है।

मुस०– (खत को छाती और आंखों से लगाकर पढ़ता है) खुशनसीब कि हज़रत के कदमों से यह शहर पाक होगा। मेरी बैयत हाजिर है, और मेरे दोस्तों की तरफ से भी कोऊ अंदेशा नहीं।

[गुलाम को बुलाता है।]

गुलाम– जनाब ने क्यों याद फरमाया?

मुख०– देखो, इसी वक्त हारिस, हज्जाम सुलेमान, शिमर, क़ीस, शैस और हानी के मकान पर जाओ और मेरा यह रुक्का दिखाकर जवाब लाओ।

गुलाम– रुक्का लेकर चला जाता है।

[गुलाम रुक्का लेकर चला जाता है।]

पहले मुझे ऐसा मालूम होता था कि हज़रद का कोई क़ासिद आएगा, तो मैं शायद दीवान हो जाऊंगा, पर इस वक्त आपको सामने देखकर भी खामोश बैठा हुआ हूं। किसी शायर ने सच कहा है– ‘जो मजा इन्तजार में देखा, वह नहीं वस्लेयार में देखा।’ जन्नत का खयाल कितना दिलफ़रेब है, पर शायद उसमें दाख़िल होने पर इतनी खुशी न रहे। आइए, नमाज़ अदा कर लें। इसके बाद कुछ आराम फ़रमा लीजिए। फिर दम मारने की फुरसत न मिलेगी।

दोनों मकान के अंदर चले जाते हैं। परदा बदलता है।

(मुसलिम और मुख्तार बैठे हुए हैं।)

मुस०– कितने आदमी बैयत लेने के लिये तैयार हैं?

मुख०– देखिए, सब अभी आ जाते हैं। अगर यजीद की जानिब से जुल्म और सख्ती इसी तरह होती रही, तो हमारे मददगारों की तादाद दिन-दिन बढ़ती जायेगी। लेकिन कहीं उसने दिलजोई शुरू कर दी, तो हमें इतनी आसानी से कामयाबी न होगी।

[सुलेमान का प्रवेश]

सुले०– अस्सामअलेक हज़रत मुसलिम, आपको देखकर आंखें रोशन हो गई; मेरे कबीले के सौ आदमी बैयत लेने की हाजिर हैं और सब-के-सब अपनी बात पर मिटने वाले आदमी हैं।

मुस०– आपको खुदा नजात दे। इस आदमियों से कहिए, कल जामा मसजिद में जमा हों। आपका खत पढ़कर भैया को बहुत रंज हुआ। उन्होंने तो फैसला लिया था कि रसूल के मजार पर बैठे हुए जिंदगी गुजार दें, पर आपके आखिरी खत ने उन्हें बेक़रार कर दिया। सायल की हिमायत से वह कभी नहीं मुंह मोड़ सकते।

[शैस, कीस, शिमर, साद और हज्जाज का प्रवेश]

शैस– अस्सामअलेक हज़रत, आपको देखकर जिगर ठंडा हो गया।

कीस– अस्सलामअलेक आपके क़दमों से हमारे वीरान घर आबाद हो गए।

हल्लाज– अस्सामअलेक, आपको देखकर हमारे मुर्दा तन में जान आ गई।

मुस०– (सबसे गले मिलकर) हज़रत इमाम ने मुझे यह खत देकर आपकी खिदमत में भेजा है।

[शिमर खत लेकर ऊंची आवाज से पढ़ता है, और सब लोग सिर झुकाए सुनते हैं।]

शैस– हमारे ज़हे नसीब, मैं तो अभी दस्तख्वान पर था। खबर पाते ही आपकी ज़ियारत करने दौड़ा।

हज्जाज– मैं तो अभी-अभी बसरे से लौटा हूं, दम भी न मारने पाया था कि आपके तशरीफ़ लाने की खबर पाई। मेरे कबीले के बहुत से आदमी बैयत लेने को बाहर खड़े हैं।

मुस०– उन्हें कल जामा मसजिद में बुलाइए।

शिमर– वह कौन-सा दिन होगा कि मलऊन यजीद के जुल्म से नज़ात होगी।

शैस– हज़रत हुसैन ने हम गरीबों की आवाज़ सुन ली। अब हमारे बुरे दिन न रहेंगे।

कीस– हमारी किस्मत के सितारे अब रोशन होंगे। मेरी दिली तमन्ना है कि जियाद का सिर अपने पैरों के नीचे देखूं।

शिमर– मैंने तो मिन्नत मानी है कि मलऊन जियाद के मुंह में कालिख लगाकर सारे शहर में फिराऊं।

कीस– मैं तो यजीद की नाक काटकर उसकी हथेली पर रख देना चाहता हूं।

[हानी, कसीर और अशअस का प्रवेश।]

हानी– या बिरादर हुसैन, आप पर, खुदा की रहमत हो।

कीस– अल्लाहताला आप पर साया रखे। हम सब आपकी राह देख रहे थे।

मुस०– भाई साहब ने मुझे यह खत देकर आपकी तसकीन के लिए भेजा है।

[हानी ख़त लेकर आंखों से लगाता है, और आंखों में ऐनक लगाकर पढ़ता है।]

शिमर– अब जियाद की खबर लूंगा।

कीस– मैं तो यजीद की आंखों में मिर्च डालकर उसका तड़पना देखूंगा।

मुस०– आप लोग भी कल अपने कबीलेवालों को जामा मसजिद में बुलाएं। कल तीन-चार हज़ार आदमी आ जाऐंगे?

शैस– खुदा झूठ न बुलवाए, तो इसके दसगुने हो जायेंगे।

हानी– नबी की औलाद की शान और ही है। वह हुस्न, वह इख़लाक, वह शराफत कहीं नज़र ही नहीं आती।

कीस– यजीद को देखो, खासा हब्शी मालूम होता है।

हज्जाम– जियाद तो खासा सारवान है।

मुस०– तो कल शाम को जामा मसजिद में आने की ठहरी।

शिमर– तो हम लोग चलकर अपने कबीलों को तैयार करें, ताकि जो लोग इस वक्त यहां न हों, वे भी आ जायें।

[सब लोग चले जाते हैं]

मुस०– (दिल में) ये सब कूफ़ा के नामी सरदार हैं। हमारी फतह जरूर होगी और एक बार तकदीर को जक उठानी पड़ेगी। बीस हजार आदमियों की बैयत मिल गई, तो फिर हुसैन को खिलाफ़त की मसनद पर बैठने से कौन रोक सकता है, जरूर बैठेंगे।

सातवाँ दृश्य

[कूफ़ा के चौक में कई दुकानदार बातें कर रहे हैं।]

पहला– सुना, आज हज़रत हुसैन तशरीफ लेनेवाले हैं।

दूसरा– हां, कल मुख्तार के मकान पर बड़ा जमघट था। मक्का से कोई साहब उनके आने की खबर लाए हैं।

तीसरा– खुदा करे, जल्द आवें। किसी तरह इन जालिमों से पीछा छूटे। मैंने बैयत तो यजीद की ले ली है, लेकिन हज़रत आएंगे, तो फौरन फिर जाऊंगा।

चौथा– लोग कहते थे, बड़ी धूमधाम से आ रहे है। पैदल और सवार फौजें हैं। खेमे वगैरह ऊँटों पर लदे हुए हैं।

पहला– दुकान बढ़ाओ, हम लोग भी चलें। तकदीर में जो कुछ बिकना था, बिक चुका। आकबत की भी तो कुछ फिक्र करनी चाहिए (चौंककर) अरे बाजे की आवाजें कहां से आ रही हैं?

दूसरा– आ गए शायद।

[सब दौड़ते हैं। जियाद का जलूस सामने से आता है। जियाद मिंबर पर खड़ा हो जाता है।]

कई आवाजें– मुबारक हो, मुबारक हो, या हज़रत हुसैन!

जियाद– दोस्तों, मैं हुसैन नहीं हूं। हुसैन का अदना गुलाम रसूल पाक के कदमों पर निसार होने वाला नाचीज खादिम बिन जियाद हूं।

एक आवाज– जियाद है, मलऊन जियाद है।

दूसरा– गिरा दो मिंबर पर से; उतार दो मरदूद को।

तीसरा– लगा दो तीर का निशाना। ज़ालिम की जबान बन्द हो जाय।

चौथा– खामोश, खामोश। सुनो, क्या कहता है?

जियाद– अगर आप समझते हैं कि मैं जालिम हूं, तो बेशक मुझे तीर का निशाना बनाइए, पत्थरों से मारिए, क़त्ल कीजिए, हाजिर हूं। जालिम गर्दन जदनी है और जो जुल्म बर्दाश्त करे, वह बेग़ैरत है। मुझे ग़रूर है कि आप गै़रत है, जोश है।

कई आवाजें– सुनो, सुनो, खामोश।

जियाद– हां, मैं ग़ैरत से, ग़रूर से नहीं डरता, क्योंकि यही वह ताक है, जो किसी कौम को जालिम के हाथ से बचा सकती है। खुदा के लिए उस जुल्म की नाकदारी न कीजिए, जिसने आपकी ग़ैरत को जगाया। यही मेरी मंशा थी, यही यजीद की मंशा थी, और खुदा का शुक्र कि हमारी तमन्ना पूरी हुई। अब हमें यकीन हो गया है कि हम आपके ऊपर भरोसा कर सकते हैं। जालिम उस्ताद की भी कभी-कभी जरूरत होती है। हज़रत हुसैन जैसा पाक-नीयत दीनदार बुजुर्ग आपको यह सबक न दे सकता था। यह हम जैसा कमीना, ख़ुदगरज़ आदमियों ही का काम था। लेकिन अगर हमारी नीयत खराब होती, तो आप आज मुझे यहां खड़े होकर उन रियायतों का एलान करते न देखते, जो मैं अभी-अभी करने वाला हूं। इन एलानों से आप पर मेरे क़ौल की सच्चाई रोशन हो जायेगी।

कई आवाजें– खामोश, खामोश, सुनो-सुनो।

जियाद– खलीफा, यजीद का हुक्म है कि कूफ़ा और बसरा का हरएक बालिग मर्द पांच सौ दिरहम सालाना खजाने से पाए।

बहुत-सी आवाजें– सुभानअल्लाह, सुभानअल्लाह।

जियाद– और कूफ़ा व बसरे की हरएक बालिग औरत दो सौ दिरहम पाए, जब तक उस का निकाह न हो।

बहुत-सी आवाजेंन– सुभानअल्लाह, सुभानअल्लाह।

जियाद– और हरएक बेवा को सौ दिरहम सलाना मिलें, जब तक उसकी आंखें बंद न हो जायें, वह दूसरा निकाह न कर ले।

बहुत-सी आवाजें– सुभानअल्लाह, सुभानअल्लाह।

जियाद– यह मेरे हाथ में खलीफ़ा का फ़रमान है। देखिए, जिसे यकीन न हो। हरएक यतीम को बालिग होने तक सौ दिरहम सलाना मुकर्रर किया गया है। हर एक जवान मर्द और औरत को शादी के वक्त एक हजार दिरहम एकमुश्त खर्च के लिए दिया जायेगा।

बहुत-सी आवाजें– खुदा खलीफा यजीद को सलामत रखे। कितनी फैयाजी की है।

जियाद– अभी और सुनिए, तब फैसला कीजिए कि यजीद जालिम है या रियाया-परवर? उसका हुक्म है कि हरएक कबीले के सरदार को दरिया के किनारे की उतनी जमीन अता की जाय, जितनी दूर उसका तीर जा सके।

बहुत-सी आवाजें– वहम यजीद की बैयत मंजूर करते हैं। यजीद हमारा खलीफा है।

जियाद– नहीं, यजीद बैयत के लिए आपकी रिश्वत नहीं देता। बैयात आपके अख्तियार में हैं। जिसे जी चाहें दीजिए। यजीद हुसैन से दुश्मनी करना नहीं चाहता। उसका हुक्म है कि नदियों के घाट पर महसूल मुआफ कर दिया जायें।

बहुत-सी आवाजें– हम यजीद को अपनी खलीफ़ा तसलीम करते हैं।

जियाद-नहीं-नहीं, यजीद कभी हुसैन के ह़क को जायल न करेगा। हुसैन मालिक है, फ़ाज़िल हैं, आबिद हैं, जाहिद हैं, यजीद को इनमें से कोई सिफ़र रखने का दावा नहीं। यजीद में अगर कोई सिफ़त है, तो यह कि वह जुल्म करना जानता है, खासकर नाजुक वक्त पर, जब माल और जान की हिफ़ाजत करने वाला कोई न हो, जब सब अपने हक और दावे पेश करने में मशरूफ हों।

बहुत-सी आवाजें– जालिम यजीद ही हमारा अमीर है। दिल से उसकी बैयत कबूल करते हैं।

जियाद– सोचिए, और गौर से सोचिए। अगर खिलाफ़त के दूसरे दावेदारों की तरह यजीद भी किसी गोशे में बैठे हुए बैयत की फिक्र करते, तो आज मुल्क की क्या हालत होती? आपकी जान व माल की हिफाजत कौन करता? कौन मुल्क को बाहर के हमलों से और अन्दर की लड़ाइयों से बचाता? कौन सड़कों और बंदरगाहों को डाकुओं से महफूज रखता? कौन कौम की बहू-बेटियों की हुरमल का जिम्मेदार होता? जिस एक आदमी की जात से कौम और मुल्क को नाजुक मौके पर कितने फायदे पहुंचे हों, और जिसने खलीफ़ा चुने जाने का इंतजार न करके ये बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियां सिर पर ले ली हों, क्या वह इसी काबिल है कि उसे मलऊन और मरदूद कहा जाय, उसे सारे बाजार में गालियां दी जाये?

एक आवाज– हम बहुत नादिम हैं। खुदा हमारा गुनाह मुआफ करे।

शिमर– हमने खलीफ़ा यजीद के साथ बड़ी बेइंसाफी की है।

जियाद– हां, आपने जरूर बेइंसाफी की है। मैं यह बिला खौफ़ कहता हूं, ऐसा आदमी इससे कहीं अच्छा बर्ताव के लायक रखा। हुसैन की इज्जत यजीद के और मेरे दिल में उससे जरा भी कम नहीं है, जितनी और किसी के दिल में होगी। अगर आप उन्हें अपना खलीफा तसलीम करते हैं, तो मुबारक हो। हम खुश, हमारा खुदा खुश। यजीद सबसे पहले उनकी बैयत मंजूर करेगा, उसके बाद मैं हूंगा। रसूल पाक ने खिलाफत के लिए इंतखाब की शर्त लगा दी है। मगर हुसैन के लिए इसकी कैद नहीं।

कीस– है। यह कैद सबके लिए एक-सा है।

जियाद– अगर है, तो इंतखाब का बेहतर और कौन मौका होगा। आप अपनी रजा और रग़बत से किसी का लिहाज और मुरौवत किए बगैर जिसे चाहें, खलीफ़ा तसलीम कर लें। मैं कसरत राय को मानकर यजीद को इसकी इत्तला दे दूंगा।

एक तरफ से– हम यजीद को खलीफ़ा मानते हैं।

दूसरी तरफ से– हम यजीद की बैयत कबूल करते हैं।

तीसरी तरफ से– यजीद, यजीद, यजीद।

जियाद-खामोश, हुसैन को कौन खलीफ़ा मानता है?

[कोई आवाज़ नहीं आती।]

जियाद– आप जानते हैं, यजीद आबिद नहीं।

कई आवाजें– हमें आबिद की जरूरत नहीं।

जियाद– यजीद आलिम नहीं, फ़ाजिल नहीं हाफ़िज नहीं।

कई आवाजें– हमें आलिम फ़ाजिल की जरूरत नहीं,

हज्जाज– कितना फैयाज़ है।

शिमर– किसी खलीफ़ा ने इतनी फैयाजी नहीं की।

शैस– आबिद कभी फैयाज नहीं होता।

अशअस– अभी, कुछ न पूछो, मसजिद के मुल्लाओं को देखो, रोटियों पर जान देते हैं।

जियाद– अच्छा, यजीद को आपने खलीफ़ा तो मान लिया, लेकिन हैजाज, मिस्र, यमन के लोग किसी और को खलीफ़ा मान लें, तो?

ब० अ०– हम खलीफ़ा यजीद के लिए जान दे देंगे। जियाद– बहुत मुमकिन है कि हजरत हुसैन ही को वे लोग अपना खलीफा बनाए, तो आप अपना कौल निभाएंगे?

ब० आ०– निभाएंगे। यजीद के सिवा और कोई खलीफ़ा नहीं हो सकता। बैयत लेने के लिये भेजा है और शायद खुद भी आ रहे हैं। यजीद को गोशे में बैठकर, खुदा की याद करना इससे कहीं अच्छा मालूम होगा कि वह इस्लाम में निफ़ाक की आग भड़काएं। अभी मौका है, आप लोग खूब गौर कर लें।

शिमर– हमने खूब गौर कर लिया है।

हज्जात– हुसैन को न जाने क्यों खिलाफ़त की हवस है। बैठे हुए खुदा की इबादत क्यों नहीं करते?

कीस– हुसैन मदीनावालों के साथ जो सलूक करेंगे, वह अभी हमारे साथ नहीं कर सकते।

शैस– उनका आना बला का आना है।

जियाद– अगर आप चाहते हैं कि मुल्क में अमन रहे, तो खबरदार, इस वक्त एक आदमी भी जामा मसजिद में न जाये। हुसैन आए, हमारे सिर आँखों पर। हम उनकी ताजीम करेंगे, उनकी खिदमत करेंगे, लेकिन उन्हें खिलाफ़त का दावा पेश करते देखेंगे, तो मुल्क में अमन रखने के लिए हमें आपकी ज़रूरत होगी। यही आपकी आजमाइश का वक्त होगा, और इसी में पूरे उतरने पर इस्लाम की जिंदगी का दारमदार है।

[मिंबर पर से उतर आता है।]

शैस– बड़ी गलती हुई कि हुसैन को खत लिखा।

शिमर– मैं तो अब जामा मसजिद न जाऊंगा।

कीस– यहां कौन जाता है।

शैश– काश, इन्हीं रियायतों का चंद रोज पहले एलान कर दिया गया होता, तो खत लिखने की नौबत ही क्यों आती।

शिमर– दीन की फिक्र मोटे आदमी करें, यहां आदमी दुनिया की फिक्र काफी है।

[सब जाते हैं।]

आठवां दृश्य

[नौ बजे रात का समय। कूफ़ा की जामा मसजिद। मुसलिम, मुख्तार, सुलेमान और हानी बैठे हुए हैं। कुछ आदमी द्वार पर बैठे हुए हैं।]

सुले०– अब तक लोग नहीं आए?

हानी– अब जाने की कम उम्मीद है।

मुस०– आज जियाद का लौटना सितम हो गया। उसने लोगों को वादों के सब्ज बाग दिखाए होंगे।

सुले०– इसी को तो सियामत का आईन कहते हैं।

मुस०– इन जालिमों ने सियासत को ईमान से बिल्कुल जुदा कर दिया है। दूसरे खलीफ़ों ने इन दोनों को मिलाया था। सियासत को दग़ा से पाक कर दिया था।

मुख०– हजरत मुसलिम, अब आप अपनी तकरीर शुरू कीजिए, शायद लोग जमा हो जायें।

[मुसलिम मिंबर पर चढ़कर भाषण देते हैं]

‘‘शुक्र है उस पाक खुदा का, जिसने हमें आज दीन इस्लाम के लिए एक ऐसे बुजुर्ग को खलीफ़ा चुनने का मौका दिया है, जो इस्लाम का सच्चा दोस्त…।’’

[बहुत से आदमी मसजिद में घुस पड़ते हैं।]

पहला– बस हज़रत मुसलिम, जबान बंद कीजिए।

दूसरा– जनाब, आप चुपके से मदीने की राह लें। यजीद हमारे खलीफ़ा हैं और यजीद हमारा इमाम है।

सुले०– मुझे मालूम है कि जियाद ने आज तुम्हारी पीठ पर खूब हाथ फेरे हैं, और हरी-हरी घास दिखाई है, पर याद रखो, घास के नीचे जाल बिछा हुआ है।

[बाहर से ईंट और पत्थर की वर्षा होने लगती है।]

एक आ०– मारो-मारो, यह कौम का दुश्मन है।

सुले०– जालिमी, यह खुदा का घर है। इसकी हुरमत का तो खयाल रखो।

दू० आ०– खुदा का घर नहीं; इस्लाम के दुश्मनों का अड्डा है।

तीसरा– मारो-मारो, अभी तक इसकी जबान बंद नहीं हुई।

[सुलेमान जख्मी होकर गिर पड़ते हैं। मुसलिम बाहर आकर कहते हैं।]

‘‘ऐ बदनसीब कौम, अगर तू इतनी जल्दी रसूल की नसीहतों को भूल सकती है और तुझमें नेक और बद की तमीज नहीं रही, अगर तू इतनी जल्द जुल्म और जिल्लत को भूल सकती है, तो तू दुनिया में कभी सुर्खरू न होगी।’’

एक आ०– इस्लाम का दुश्मन है।

दूसरा– नहीं-नहीं, हजरत हुसैन के चचेरे भाई हैं। इनकी तौहीन मत करो।

तीसरा– इन्हें पकड़कर शहर की किसी अंधेरी गली में छोड़ दो। हम इनके खून से हाथ न रंगेगे।

[कई आदमी मुसलिम पर टूट पड़ते हैं और उन्हें खींचते हुए ले जाते हैं, और साथ ही परदा भी बदलता है।]

मुस०– (दिल में) जालिमों ने कहां लाकर छोड़ दिया। कुछ नहीं सूझता। रास्ता नहीं मालूम। कहां जाऊं? कोई आदमी नज़र नहीं आता कि उससे रास्ता पूछूं।

[हानी आता हुआ दिखाई देता है।]

मुस०– ऐ खुदा के नेक बंदे, मुझे यहां से निकलने का रास्ता बता दो।

हानी– हज़रत मुसलिम! क्या अभी आप यहीं खड़े हैं?

मुस०– आप हैं, हानी? रसूल पाक की कसम, इस वक्त तन में जान पड़ गई। मुझे तो कई आदमियों ने पकड़ लिया, और यहां छोड़कर चल दिए।

हानी– वे मेरे ही आदमी थे। मैंने वहां की हालत देखी, तो आपको वहां से हटा देना मुनासिब समझा। मैंने उन्हें तो ताकीद की थी कि आपको मेरे घर पहुंचा दें।

मुस०– पहले आपके आदमी होंगे, अब नहीं हैं। जियाद की तकरीर ने उन पर भी असर किया है।

हानी– खैर, कोई मुजायका नहीं, मेरा मकान करीब है; आइए। हम सियासत के मैदान में जियाद से नीचा खा गए। उसने यह खबर मशहूर कर दी कि हुसैन आ रहे हैं। इस हीले से लोग जमा हो गए, और उसे उनको फ़रेब देने का मौका मिल गया।

मुस०– मुझे तो अब चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नज़र आता है।

हानी– जियाद की तकरीर ने सूरत बदल दी। जिन आदमियों ने हजरत के पास खत भेजने पर जोर दिया था, वे भी फ़रेब में आ गए।

[सुलेमान और मुख्तार आते हैं। सुलेमान के सिर पर पट्टी बंधी हुई है।]

मुख०– शुक्र है, आप खैरियत से पहुंच गए। जियाद के आदमी आपको तलाश करते फिरते हैं।

मुस०– हानी, ऐसी हालत में यहां रहकर मैं आपको खतरे में नहीं डालना चाहता। मुझे रुखसत कीजिए। रात को किसी मसजिद में पड़ा रहूंगा।

हानी– मुआज अल्लाह, यह आप क्या फ़रमाते हैं! यह आपका घर है। मैं और मेरा सब कुछ हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार है।

[शरीक का प्रवेश]

शरीक– अस्सलाम अलेक या हजरत मुसलिम है। मैं भी हुसैन के गुलामों में हूं।

हानी– हज़रत मुसलिम, आपने शरीफ का नाम सुना होगा। आप हज़रत अली के पुराने खादिम हैं, और उनकी शान में कई कसीदे लिख चुके हैं।

मुस०– (शरीक से गले मिलकर) ऐसा कौन बदनसीब होगा, जिससे आपका कलाम न देखा गया हो।

शरीक मैं हज़रत का खादिम और नबी का गुलाम हूं। बसरेवालों की फ़रियाद लेकर यजीद के पास गया था। वहां मालूम हुआ कि आप मक्का से रवाना हो गए हैं। मैं जियाद के साथ ही इधर चल पड़ा कि शायद आपकी कुछ खिदमत कर सकूं। यजीद ने अब सख्ती की जगह नरमी और रियायत से काम लेना शुरू किया है और, आज जियाद की तकरीर का असर देखकर मुझे यकीन हो गया है कि यहां के लोग हज़रत हुसैन से जरूर दगा कर जायेंगे। हमें भी फरेब का जवाब फरेब से ही देना लाजिम है।

मुस०– क्योंकर?

शरीक– इसकी आसान तरकीब है। मैं जियाद को अपनी बीमारी की खबर दूंगा। वह यहां मेरी मिजाज-पुरसी करने जरूर आवेगा, आप उसे कत्ल कर दीजिए।

मुस०– अल्लाहताला से फरमाया है कि मुसलमान को मुसलमान का खून करना जायज नहीं।

शरीक– अगर अल्लाहताला ने यह भी तो फरमाया है कि बेदीन को अमन देना साँप को पालना है।

मुस०– पर मेरी इंसानियत इसकी इजाजत नहीं देती।

शरीक– बेदीन को क़त्ल करना ऐन सवाब है। जिहाद में इंसानियत को दखल नहीं, हक का रास्ता डाकुओं और लुटेरों से खाली नहीं है। और उनका ख़ौफ है, तो इस रास्ते पर कदम ही न रखना चाहिए। आप इस मामले को सोचिए।

[बाहर से आदमियों का एक गिरोह हानी का दरवाजा तोड़कर अंदर घुस जाता है।]

एक आ०– इन्हीं ने हुसैन को खत लिखा था। पकड़ लो इन्हें।

मुस०– (सामने आकर) यहां से चले जाओ।

दू० आ०– यही हजरत मुसलिम हैं। इन्हें गिरफ्तार कर लो।

मुस०– हां, मैं ही मुसलिम हूं। मैं ही तुम्हारा खतावार हूं। अगर चाहते हो, तो मुझे कत्ल करो। (कमर से तलवार फेंककर) यह लो, अब तुम्हें मुझसे कोई खौफ़ नहीं है। अगर तुम्हारा खलीफ़ा मेरे खून से खुश हो, तो उसे खुश करो। मगर खुदा के लिये हुसैन को लिख दो कि आप यहां न आएं। उन्हें खिलाफत की हवस नहीं है। उनकी मंशा सिर्फ आपकी हिमायत करना था। वह आप पर अपनी जान निसार करना चाहते थे।

उनके पास फ़ौज नहीं थी, हथियार नहीं थे, महज आपके लिए अपनी बात दे देने का जोश था, इसीलिए उन्होंने अपने गोशे को छोड़ना मंजूर किया। अब आपको उनकी जरूरत नहीं है, तो उन्हें मना कर दीजिए कि यहां मत आओ। उन्हें बुलाकर शहीद कर देने से आपको नदामत और अफसोस के सिवा और कुछ हाथ न आएगा। उनकी जान लेनी मुश्किल नही; यहीं की कैफ़ियत देखकर वह इस सदमे से खुद भी मर जायेंगे। वह इसे आपका कसूर नहीं, अपना कसूर समझेंगे कि वही उम्मत, जो मेरे नाना पर जान देती थी, अगर आज मेरे खून की प्यासी हो रही है, तो यह मेरी खता है। यह गम उनका काम तमाम कर देगा। आपका और आपके अमीर का मंशा खुद-व-खुद पूरा हो जायेगा। बोलो, मंजूर है? उन्हें लिख दूं कि आपने जिनकी हिमायत के लिये शहीद होना कबूल किया था, वह अब आपको शहीद करने की फिक्र में है। आर इधर रुख न कीजिए।

[कोई नहीं बोलता]

खामोशी नीम रज़ा है। आप कहते हैं कि यह कैफ़ियत उन्हें लिख दी जाये।

कई आवाजें– नहीं, नहीं इसकी जरूरत नहीं।

मुस०– तो क्या आप यहीं उनकी लाश को अपनी आंखों के सामने तड़पती देखना चाहती है?

एक आ०– मुआजअल्लाह, हम हजरत हुसैन के कातिल न होगे।

मुस०– ऐसा न कहिए, वरना रसूल को जन्नत में भी तकलीफ होगी। आप अपनी खरज के गुलाम हैं, दौलत के गुलाम हैं। रसूल ने आपको हमेशा सब्र और संतोष की हिदायत की। आप जानते हैं, वह खुद सादगी से जिंदगी बसर करते थे। आपको पहले खलीफ़ा का हाल मालूम है, हजरत फ़ारूक के हालात से भी आप वाक़िफ हैं। अफसोस! आप उस रसूल को भूल गए, जो तवहीद के बाद इस्लाम का सबसे पाक वसूल हैं, वरना आप वसीकों और जागीरों के जाल में फंस जाते। आपने एक पल के लिये भी ख़याल नहीं किया कि वे जागीरें और वसीके किसके घर से आएंगे। दूसरों से, जो कई पुश्तों से जबरन रुपए वसूल करके आपको वसीके दिए जायेंगे। आपको खुश करने के लिये दूसरों को तबाह करने का बहाना हाथ आ जायेगा। आप अपने भाइयों के हक छीनकर अपनी हवस की प्यास बुझाना चाहते हैं। दीन-परवरी नहीं है, यह भाई-बंदी नहीं है, उसका कुछ और ही नाम है।

कई आवाजें– नहीं-नहीं, हम हराम का माल नहीं चाहते।

मुस०– मैं यजीद का दुश्मन नहीं हूं। मैं जियाद का दुश्मन नहीं हूं; मैं इस्लाम का दोस्त हूं। जो आदमी इस्लाम को पैरों से कुचलता है, चाहे वह यजीद हो, जियाद हो, या खुद हुसैन हो। उसका दुश्मन हूं। जो शख्स कुरान की और रसूल की तौहीन करता है, वह मेरा दुश्मन है।

कई आ०– हम भी उसके दुश्मन हैं। वह मुसलमान नहीं, काफ़िर है।

मुस०– बेशक, और कोई मुसलमान– अगर वह मुसलमान हैं, काफ़िर को खलीफ़ा न तस्लीम करेगा, चाहे वह उसका दामन हीरे व जवाहिर से भर दे।

कई आ०– बेशक, बेशक।

मुस०– उससे एक सच्चा दीनदार आदमी कहीं अच्छा खलीफ़ा होगा, चाहे वह चिंथड़े ही पहने हुए हो।

कई आ०– बेशक, बेशक

मुस०– तो अब आप तसलीम करते हैं कि खलीफा उसे होना चाहिए, जो इस्लाम का सच्चा पैरा हो, वह नहीं, जो एक का घर लूटकर दूसरे का दिल भरता हो।

कई आ०– बेशक, बेशक।

मुस०– किसी मुसलमान के लिये इसमें बड़ी शरम की बात नहीं हो सकती कि वह किसी को महज दौलत या हुकूमत की बदौलत अपना इमाम समझे। इमाम के लिये सबसे बड़े शर्त क्या है? इस्लाम का सच्चा पैरो होना। इस्लाम की दौलत को हमेशा हक़ीर समझा है। वह इस्लाम की मौत का दिन होगा, जब यह दौलत के सामने सिर झुकाएगा। खुदा हमको और आपको वह दिन देखने के लिए जिंदा न रखे। हमारा दुनिया से मिट जाना इससे कहीं अच्छा है। तुम्हारा फर्ज है कि बैयत लेने से पहले तहकीक कर लो, जिसे तुम खलीफ़ा बना रहे हो, वह रसूल की हिदायतों पर अमल करता है या नहीं। तहक़ीक करो, वह शराब तो नहीं पीता।

कई आ०– क्या तहक़ीक़ करना तुम्हारा काम है। जांच करों कि तुम्हारा खलीफ़ा जिनाकार तो नहीं?

कई आ०– क्या यजीद जिनाकार है?

मूस०– यह जांच करना तुम्हारा काम है। दर्याफ्त करो कि वह नमाज पढ़ता है, रोजे रखता है, आलिमों की इज्जत करता है, खजाने को बेजा इस्तेमाल तो नहीं करता? अगर इन बातों के लिए जांच किए बगैर तुम महज जागीरों और वसीकों की उम्मीद पर किसी की बैयत कबूल करते हो, तुम तो कयामत के रोज खुदा के सामने शर्मिंदा होंगे। जब वह पूछेगा कि तुमने इंतखाब के हक का क्यों बेजा इस्तेमाल किया, जो तुम कैसे क्या जवाब दोगे? जब रसूल तुम्हारा दामन पकड़कर पूछेंगे कि तुमने उसकी अमानत को, जो मैंने तुम्हें दी थी, क्यों मिटा दिया उन्हें कौन-सा मुंह दिखाओगे?

कई आ०– हमें जियाद ने धोखा दिया। हम यजीद की बैयत से इनकार करते है।

मुस०– पहले खूब जांच लो। मैं किसी पर इलजाम नहीं लगाता। कौन खड़ा हो कर कह सकता है कि यजीद इन बुराइयों से पाक है।

कई आ०– हम जांच कर चुके।

मुस०– तो तुम्हें किसकी बैयत मंजूर है?

शोर– हुसैन की! रसूल के नवासे की।

मुस०– उनके बारे में तुमने उन बातों की जांच कर ली? तुम्हें यकीन है कि हुसैन उस बुराइयों से पाक है?

कई आ०– हमने जांच कर ली। हुसैन में कोई बुराई नहीं। हम हुसैन को अपना खलीफा तस्लीम करते है। जियाद ने हमें गुमराह कर दिया था।

एक आदमी– पहले जियाद को कत्ल कर दो।

दु० आ०– बेशक, उसी ने गुमराह किया था।

मुस०– नहीं तुम्हें रसूल का वास्ता है। मोमिन पर मोमिन का खून हराम है।

[सब आदमी वहीं बैठ जाते हैं, और मुसलिम के हाथों पर हुसैन की बैयत करते हैं।]

नवाँ दृश्य

[दोपहर का समय। हानी का मकान शरीक एक चारपाई पर पड़े हुए है। मुसलिम और हानी फ़र्श पर बैठे हैं।]

शरीक– जियाद अब आता ही होगा। मुसलिम, तलवार को तेज रखना।

हानी– मैं खुद उसे क़त्ल करता, पर जईफ़ी ने हाथों में कूबत बाकी नहीं रखी।

शरीक– इसमें पसोपेशे की मुतलक जरूरत नहीं। हक की हिमायत के लिये, इस्लाम की हिमायत के लिये, कौम की हिमायत के लिये, अगर खून का दरिया बहा दिया जाये, तो उसमें फरिश्ते वजू करें। औलिया की रूहें उसमें नहाएंगी। जो हाथ हक की हिमायत में न उठे, वह अंधी आँखों से, बुझे हुए चिराग से, दिन के चांद से भी ज्यादा बेकार है। इस्लाम की खिदमत को इससे बेहतर मौका आपको फिर न मिलेगा– शायद फिर कभी किसी को न मिलेगा। कूफ़ा और बसरा पर कब्जा करके यजीद की बड़ी-से-बड़ी फ़ौज का मुकाबला कर सकते हैं। यजीद की खिलाफ़त इस्लाम को दुनियादारी और इस्लाम की तरफ ले जायेगी और हुसैन की खिलाफ़त हक और सच्चाई की तरफ। क्या यह आपको मंजूर है कि यजीद के हाथों इस्लाम तबाह हो जाये।

[जियाद आता है, और मुसलिम बग़ल की कोठरी में छिप जाते हैं।]

जियाद– अस्सलामअलेक या शरीक, तुम्हारी हालत तो बहुत खराब नजर आती है।

हानी– कल से आँखें नहीं खोली। सारी रात कराहते गुजरी है।

शरीक– खुदा फरमाता है– हक के वास्ते जो तलवार उठाता है, उसके लिये जन्नत का दरवाजा खुला हुआ हुआ है।

जियाद– शरीक, शरीक! कैसी तबीयत है?

शरीक– शौक कहता था कि हां, हसरत यह कहती थी, नहीं; मैं इधर मुश्किल में था, कातिल उधर मुश्किल में था।

हानी– आँखें खोलो। अमीर तुम्हारी मुलाकात को आए हैं।

शरीक– सल्ब की कूबत, तड़पने की, तड़पता किस तरह; एक दिल में दूसरा खंजर कफ़े कातिल में था।

जियाद– क्या रात भी यहीं इनकी हालत थी?

हानी– जी हां, यों ही बकते रहे।

शरीक– गले पर छुरी क्यों नहीं फेर देते, हकीकत पर अपनी नजर करनेवाले।

जियाद– किसी हकीम को बुलाना चाहिए।

शरीक– कौन आया है, जियाद!

हुजूम-आरजू से बढ़ गई बेताबियां दिल की;

अरे ओ छिपानेवाले, यह हिजाबें जां सितां कब तक।

जियाद– तुम्हारे घरवालों को खबर दी जाये?

शरीक– मैं यहीं मरूंगा, मैं यहीं मरूंगा।

मेरी खुशी पर आसमां हंसता है, और हंसे न क्यों;

बैठा हूं जाके चैन से दोस्त की वज्में-नाज में।

जियाद– खुदा किसी गरीब को बेवतनी में मरीज न बनाए। हानी, मैंने सुना है, मुसलिम मक्के से यहां आए हैं। खलीफ़ा ने मुझे सख्त ताकीद की है कि उन्हें गिरफ्तार कर लूं। आप शहर के रईस हैं, उनका कुछ सुराग मिले, तो मुझे तो इत्तिला दीजिएगा। मुझे आपके ऊपर पूरा भरोसा है। आप समझ सकते हैं कि उनके आने से मुल्क में कितना शोर-शर पैदा होगा। कसम है कलाम-पाक की इस वक्त जो उनका सुराग लगा दे, उसका दामन जवाहारात से भर दूं। मैं इस फिक्र में जाता हूं। आप भी तलाश में रहिए।

[चला जाता है]

शरीक– हजरत मुसलिम, आप से आज जो गलती हुई है, उस पर आप मरते दम तक पछताएंगे और आपके बाद मुसलमान कौम इसका खमियाजा उठाएगी। तुम कयास नहीं कर सकते कि तुमने इस्लाम को आज कितना बड़ा नुकसान पहुंचाया है। शायद खुदा को यही मंजूर है कि रसूल का लगाया हुआ बाग यजीद के हाथों बरबाद हो जाये।

मुस०– शरीक, मैंने कभी दगा नहीं की, और मुझे यकीन है कि हजरत हुसैन मेरी इस हरकत को कभी पसंद न करते। इस्लाम का दरख्त हक के बीच से उगा है। दगा से उसकी आबपाशी करने में अंदेशा है कि कहीं दरख्त सूख न जाये। हक पर कायम रहते हुए अगर इस्लाम का नामोनिशान दुनिया से मिट जाय, तो भी इससे कहीं बेहतर है कि उसे जिंगा रहने के लिए दग़ा का सहारा लेना पड़े। (हानी से) भाई साहब को इत्तिला दे दूं कि यहां १८ हजार आदमियों ने आपकी बैयत कबूल कर ली है।

हानी– जरूर। मेरा गुलाम इस खिदमत के लिए हाजिर है।

मुस०– (दिल में) यह गैरमुमकिन है कि इतने आदमी बैयत लेकर फिर उसे तोड़ दें। कल मुझे चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा नज़र आता था। आज़ चारों तरफ रोशनी नज़र आती है। मेरी ही तहरीक हुसैन यहां आने के लिए राजी हुए। खुदा का शुक्र है कि मेरा दावा सही निकला, और मेरी उम्मीद पूरी हुई।

दसवाँ दृश्य

[संध्या का समय। जियाद का दरबार]

जियाद– तुम लोगों में ऐसा एक आदमी भी नहीं है, जो मुसलिम का सुराग़ लगा सके। मैं वादा करता हूं कि पांच हजार दीनार उसकी नज़र करूंगा।

एक दर०– हुजूर, कहीं सुराग नहीं मिलता। इतना पता तो मिलता है कि कई हजार आदमियों ने उनके हाथ पर हुसैन की बैयत की है। पर वह कहां ठहरे हैं, इसका पता नहीं चलता।

[मुअक्किल का प्रवेश]

मुअ०– हुजूर को खुदा सलामत रख, एक खुशखबरी लाया हूं। अपना ऊंट लेकर शहर के बाहर चारा काटने गया था। कि एक आदमी को बड़ी तेजी से सांड़नी पर जाते रखा। मैंने पहचान लिया, वह सांड़िनी हानी की थी। उनकी खिदमत में कई साल रह चुका हूं। शक हुआ कि यह आदमी इधर कहां जा रहा है। उसे एक हीले से रोककर पकड़ लिया। जब मारने की धमकी दी, तो उसने कबूल किया कि मुसलिम का खत लेकर मक्के जा रहा हूं। मैंने वह खत उससे छीन लिया, यह हाजिर है। हुक्म हो, तो कासिद को पेश करूं।

जियाद– (खत पढ़कर) कसम खुदा की, मैं मुसलिम को जिंदा न छोड़ूंगा। मैं यहां मौजूद रहूं और १८ हजार आदमी हुसैन की बैयत कबूल कर लें। (कासिद से) तू किसका नौकर है?

कासिद– अपने आका का।

जियाद– तेरा आका कौन है?

कासिद– जिसने मुझे मिस्त्रियों के हाथ से खरीदा था।

जियाद– किसने तुझे खरीदा?

कासिद– जिसने रुपये दिए।

जियाद– किसने रुपये दिए?

कासिद– मेरे आका ने।

जियाद– तेरा आक़ा कहां रहता है?

कासिद– अपने घर में।

जियाद– उसका घर कहां है?

कासिद– जहां उसके बुजुर्गो ने बनवाया था।

जियाद– कसम खुदा की, तू एक ही शैतान है। मैं जानता हूं कि तुझ जैसे आदमी के साथ कैसा बर्ताब करना चाहिए। (जल्लाद से) इसे ले जाकर कत्ल कर दे।

मुअ०– हुजूर, मैं खूब पहचानता हूं कि यह सांड़नी हानी की है।

जियाद– अगर तू मुसलिम का सुराग लगा दे, तो तुझे आजाद कर दूं, और पांच हजार दीनार इनाम दूं।

मुअ०– (दिल में) ये बड़े-बड़े हाकिम बड़ी-बड़ी थैलियां हड़प करने ही के लिए है। अक्ल खाक नहीं होती। जब सांड़नी मौजूद है, तो उसके मालिक का पता लगाना क्या मुश्किल है? आज किसी भले आदमी का मुंह देखा था। चल कर सांडनी पर बैठ जाता हूं और उसकी नकेल छोड़ देता हूं। आप ही अपने घर पहुंच जाएगी। वहीं मुसलिम का पता लग जाएगा।

(चला जाता है)

जियाद– (दिल में) अगर वह सांड़नी हानी की है, तो साफ जाहिर है कि वह भी इस साजिश में शरीक है। मैं अब तक उसे, अपना दोस्त समझता था। खुदा, कुछ नहीं मालूम होता कि कौन मेरा दोस्त है, और कौन दुश्मन। मैं अभी उसके घर गया था। अगर शरीक भी हानी का मददगार है, तो यही कहना पड़ेगा कि दुनिया में किसी पर भी एतबार नहीं किया जा सकता।

ग्यारहवाँ दृश्य

[१० बजे रात का समय। जियाद के महल के सामने सड़क पर सुलेमान, मुखतार और हानी चले आ रहे हैं।]

सुले०– जियाद के बर्ताव में अब कितना फर्क नज़र आता है।

मुख०– हां, वरना हमें मशविरा देने के लिये क्यों बुलाता।

हानी– मुझे तो खौफ़ है कि उसे मुसलिम की बैयत लेने की खबर मिल गई है। कहीं उसकी नीयत खराब न हो।

मुख०– शक और ऐतबार साथ-साथ नहीं होता। वरना वह आज आपके घर न जाता।

हानी– उस वक्त भी शायद भेद लेने ही के इरादे से गया हो। मुझे गलती हुई कि अपने कबीले के कुछ आदमियों को साथ न लाया, तलवार भी नहीं ली।

सुले०– यह आपका वहम है।

[जियाद के मकान में वे सब दाखिल होते हैं। वहां कीस, शिमर, हज्जात आदि बैठे हुए हैं।]

जियाद– अस्सामअलेक। आइए, आप लोगों से एक खास मुआमले में सलाह लेनी है। क्यों शेख हानी, आपके साथ खलीफ़ा यजीद ने जो रियायतें की, क्या उनका यह बदला होना चाहिए था कि आप मुसलिम को अपने घर में ठहराएं, और लोगों को हुसैन की बैयत करने पर आमादा करें? हम आपका रुतबा और इज्जत बढ़ाते हैं, और आप हमारी जड़ खोदने की फिक्र में हैं?

हानी– या अमीर, खुदा जानता है, मैंने मुसलिम को खुद नहीं बुलाया, वह रात को मेरे घर आए, और पनाह चाही। यह इंसानियत के खिलाफ था कि मैं उन्हें घर से निकाल देता। आप खुद सोच सकते हैं कि इसमें मेरी क्या खता थी।

जियाद– तुम्हें मालूम था कि हुसैन खलीफ़ा यजीद के दुश्मन हैं?

हानी– अगर मेरा दुश्मन भी मेरी पनाह में आता, तो मैं दरवाजा न बंद रखता।

जियाद– अगर तुम अपनी खैरियत चाहते हो, तो मुसलिम को मेरे हवाले कर दो। वरना कलाम पाक की कसम, फिर आफताब की रोशनी न देखोगे।

हानी– या अमीर, अगर आप मेरे जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर डालें, और उन टुकड़ों को आग में डालें, तो भी मैं मुसलिम को आपके हवाले न करूंगा। मुरौवत इसे कभी क़बूल नहीं करती कि अपनी पनाह में आने वाले आदमी को दुश्मन के हवाले किया जाए। यह शराफत के खिलाफ है। अरब की आन के खिलाफ है। अगर मैं ऐसा करूं, तो अपनी ही निगाह में गिर जाऊंगा। मेरे मुंह पर हमेशा के लिए स्याही का दाग़ लग जायेगा और आनेवाली नस्ल मेरे नाम पर लानत करेंगी।

कीस– (हानी को एक किनारे ले जाकर) हानी, सोचो, इसका अंजाम क्या होगा? तुम पर, तुम्हारे खानदान पर, तुम्हारे कबीले पर आफत आ जाएगी। इतने आदमियों को कुर्बान करके एक आदमी की जान बचाना कहां की दानाई है?

हानी– कीस, तुम्हारे मुंह से ये बातें जेबा नहीं देती? मैं हुसैन के चचेरे भाई के साथ कभी दग़ा न करूंगा, चाहे मेरा सारा खानदान कत्ल कर दिया जाये।

जियाद– शायद तुम अपनी जिंदगी से बेजार हो गए हो।

हानी– आप मुझे मकान पर बुलाकर मुझे कत्ल की धमकी दे रहे हैं। मैं कहता हूं कि मेरा एक कतरा खून इस आलीशान इमारत को हिला देगा। हानी बेकस, बेजार और बेमददगार नहीं है।

जियाद– (हानी के मुंह पर सोंटे से मारकर) खलीफा का नायब किसी के मुंह से अपनी तौहीन न सुनेगा, चाहे वह दस हजार कबीले का सरदार क्यों न हो।

हानी– (नाक से खून पोंछते हुए) जालिम! तुझे शर्म नहीं आती कि एक निहत्थे आदमी पर वार कर रहा है। काश मैं जानता कि तू दग़ा करेगा, तो तू यों न बैठा रहता।

सुले०– जियाद! मैं तुम्हें खबरदार किये देता हूं कि अगर हानी को कैद किया, तो तू भी सलामत न बचेगा।

[जियाद सुलेमान को मारने उठता है, लेकिन हज्जाज उसे रोक लेता है।]

जियाद– तुम लोग बैठे मुँह क्या ताक रहे हो, पकड़ लो इसे बुड्ढे को। (बाहर की तरफ शोर मचता है।) यह शोर कैसा है?

कीस– (खिड़की से बाहर की तरफ झांककर) बागियों की एक फौज इस तरफ बढ़ती चली आ रही है।

जियाद– कितने आदमी होंगे?

कीस– कसम खुदा की, दस हजार से कम नहीं है।

जियाद– (सिपाही को बुलाकर) हानी को ले जाओ और उसे कोठरी में बन्द कर दो, जहां कभी आफताब की किरणें नहीं पहुँचती।

सुले०– जियाद मैं तुम्हें खबरदार किए देता हूं कि तुझे खुद न उसी कोठरी में कैद होना पड़े।

[सुलेमान और मुख्तार बाहर चले जाते हैं।]

कीस– बागियों की एक फौज बड़ी तेजी से बढ़ती चली आ रही है। बीस हजार से कम न होगी। मुसलिम झंडा लिए हुए सबके आगे हैं।

जियाद– दरवाजे बंद कर लो। अपनी-अपनी तलवारें लेकर तैयार हो जाओ। कसम खुदा की, मैं इस बगावत का मुकाबला जबान से करूंगा। (छत पर चढ़कर बागियों से पूछता है।) तुम लोग शोर क्यों मचाते हो?

एक आ०– हम तुझसे हानी के खून का बदला लेने आए हैं।

जियाद– कलाम पाक की कसम, जीते-जागते आदमी के खून का बदला आज तक कभी किसी ने न लिया। अगर मैं झूठा हूं, तो तुम्हारे शहर का काजी तो झूठ न बोलेगा। (काजी को नीचे बुलाकर) बागियों से कह दो, हानी जिंदा है।

काजी– या अमीर! मैं हानी को जब तक अपनी आंखों से न देख लूं, मेरी जबान से यह तसदीक न होगी।

जियाद– कलाम पाक की कसम, मैं तमाम मुल्लाओं को वासिल जहन्नुम कर दूंगा। जा, देख आ, जल्दी कर।

[काजी नीचे जाता है, और क्षण भर में लौट आता है।]

काजी– ऐ कूफा के बाशिंदों! मैं ईमान की रू से तसदीक करता हूं कि शेख हानी जिंदा है। हां, उनकी नाक से खून जारी है।

मुस०– बढ़े चलो। महल पर चढ़ जाओ। क्या कहा, जीने नहीं है? जवां मरदों को कभी जीने का मुहताज नहीं देखा। तुम आप जीने बन जाओ।

जियाद– (दिल में) जालिम एक दूसरे के कंधों पर चढ़ रहे हैं। (प्रकट) दोस्तों, यह हंगामा किसलिए है? मैं हुसैन का दुश्मन नहीं हूँ। मुसलिम का दुश्मन नहीं हूं, अगर तुमने हुसैन की बैयत कबूल की है, तो मुबारक हो। वह शौक से आए। मैं यजीद का गुलाम नहीं हूं। जिसे कौन का खलीफ़ा बनाए उसका गुलाम हूं, लेकिन इसका तसफिया हंगामें से न होगा, इस मकान को पस्त करने से न होगा, अगर ऐसा हो, तो सबसे पहले इस पर मेरा हाथ उठेगा। मुझे कत्त करने से भी फैसला न होगा, अगर ऐसा हो, तो मैं अपने हाथों अपना सिर कलम करने को तैयार हूं। इसका फैसला आपस की सलाह से होगा।

मुस०– ठहरो, बस, थोड़ी कसर और है। ऊपर पहुंचे कि तुम्हारी फतह है।

सुले०– ऐ! ये लोग भागे नहीं जाते हैं? ठहरो-ठहरो, क्या बात है?

एक सि०– देखिए, कीस कुछ कह रहा है।

कीस– (खिड़की से सर निकालकर) भाइयो, हम और तुम एक शहर के रहनेवाले। क्या तुम हमारे खून से अपनी तलवारों की प्यास बुझाओगे? तुममें से कितने ही मेरे साथ खेले हुए हैं। क्या यह मुनासिब है कि हम एक दूसरे का खून बहाएं! हम लोगों ने दौलत के लालच से, रुतबे के लालच से और हुकूमत के लालच से यजीद की बैयत नहीं कबूल की है, बल्कि महज इसलिए कि कूफ़ा की गलियों में खून के नाले न बहें।

कई आ०– हम जियाद से लड़ना चाहते हैं, अपने भाइयों से नहीं।

मुस०– ठहरो-ठहरो। इस दग़ाबाज की बातों में न आओ।

सुले०– अफ़सोस, कोई नहीं सुनता। सब भागे चले जाते हैं। वह कौन बदनसीब है, जिसके आदमी इतनी आसानी से बहकाए जा सकते हैं।

मुस०– मेरी नादानी थी कि इन पर एतबार किया।

सुले०– मैं हजरत हुसैन को कौन-सा मुंह दिखाऊंगा। ऐसे लोग दग़ा देते जा रहे हैं, जिनको मैं तकदीर से ज्यादा अटल समझता था। कीस गया, हज्जाज गया, हारिश गया, शीश ने दग़ा की, अशअस ने दग़ा दी। जितने अपने थे, सब बेगाने हो गए।

मुख०– अब हमारे साथ कुल तीस आदमी और रह गए।

[यजीद के सिपाही महल से निकलते हैं। खुदा, इन मूजियों से बचाओ। हजरत मुसलिम, मुझे अब कोई ऐसा मकान नज़र नहीं आता, जहां आपकी हिफ़ाजत कर सकूं। मुझे यहां की मिट्टी से भी दग़ा की बू आ रही है]

कसीर– गरीब का मकान हाजिर है।

मुख०– अच्छी बात है। हजरत मुसलिम, आप इनके साथ जायें। हमें रुखसत कीजिए। हम दो-चार ऐसे आदमियों का रहना जरूरी है, जो हजरत हुसैन पर अपनी जान निसार कर सकें। हमें अपनी जान प्यारी नहीं, लेकिन हुसैन की खातिर उसकी हिफ़ाजत करनी पड़ेगी।

[वे दोनों एक गली में गायब हो जाते हैं।]

बारहवाँ दृश्य

[९ बजे रात का समय। मुसलिम एक अंधेरी गली में खड़े हैं, थोड़ी दूर पर एक चिराग़ जल रहा है। तौआ अपने मकान के दरवाज़े पर बैठी हुई है।]

मुस०– (स्वागत) उफ्! इतनी गरमी मालूम होती है कि बदन का खून आग हो गया। दिन-भर गुजर गया, कहीं पानी का एक बूंद भी न नसीब हुआ। एक दिन, सिर्फ एक दिन पहले, २० हज़ार आदमियों ने मेरे हाथों पर हुसैन की बैयत ली थी। आज किसी से एक बूंद पानी मांगते हुए खौफ़ होता है कि कहीं गिरफ्तार न हो जाऊं। साए पर दुश्मन का गुमान होता है। खुदा से अब मेरी दुआ है कि हुसैन मक्के से न चले हों। आह कसीर! खुदा तुम्हें जन्नत में जगह दे। कितना दिलेर, कितना जांबाज! दोस्त की हिमायत का पाक फर्ज इतनी जवांमरदी से किसने पूरा किया होगा! तुम दोनों बाप और बेटे इस दग़ा और फरेब की दुनिया में रहने के लायक न थे। तुम्हारी मज़ार पर हूरे फातिहा पढ़ने आएंगी। आह! अब प्यास के मारे नहीं रह जाता। दुश्मन की तलवार से मरना इतना खौफ़नाक नहीं, जितना प्यास से तड़प-तड़पकर मरना। चिराग़ नज़र आता है। वहां चलकर पानी मांगू, शायद मिल जाये। (प्रकट) ऐ नेक बीबी, मेरा प्यास के मारे बुरा हाल है, थोड़ा-सा पानी पिला दो।

तौआ– आओ, बैठो, पानी लाती हूं।

[वह पानी लाती हैं, और मुसलिम पीकर, दीवार से लगकर बैठते हैं।]

तौआ– ऐ खुदा के बंदे, क्या तूने पानी नहीं पिया?

मुस०– पी चुका।

तौआ– तो अब घर जाओ। यहां अकेले पड़ा रहना मुनासिब नहीं है। जियाद के सिपाही चक्कर लगा रहे हैं, ऐसा न हो, तुम्हें सुबहे में पकड़ लें।

मुस०– चला जाऊंगा।

तौआ– हां बेटा, जमाना खराब है, अपने घर चले जाओ।

मुस०– चला जाऊंगा।

तौआ– रात गुजरती जाती है। तुम चले जाओ, तो मैं दरवाजा बंद कर लूं।

मुस०– चला जाऊंगा।

तौआ– सुभानअल्लाह! तुम भी अजीब आदमी हो। मैं तुमसे बार-बार घर जाने को कहती हूं, और तुम उठते ही नहीं। मुझे तुम्हारा यहां पड़ा रहना पसंद नहीं। कहीं कोई वारदात हो जाये। तो मैं खुदा के दरगाह में गुनहगार बनूं।

मुस०– ऐ नेक बीबी, जिसका यहां घर ही न हो, वह किसके घर चला जाये। जिसके लिए घरों के दरवाजे नहीं, सड़के बंद हो गई हों, उसका कहां ठिकाना है। अगर तुम्हारे घर में जगह और दिल में दर्द हो, तो मुझे पनाह दो। शायद मैं कभी इस नेकी का बदला दे सकूं।

तौआ– तुम कौन हो?

मुस०– मैं वही बदनसीब आदमी हूं, जिसकी आज घर-घर तलाश हो रही है। मेरा नाम मुसलिम है।

तौआ– या हजरत, तुम पर मेरी जान फिदा हो। जब तक तौआ जिंदा है, आपको किसी दूसरे घर जाने की जरूरत नहीं। खुशनसीब के मरने के वक्त आपकी जियारत हुई। मैं जियाद से क्यों डरूं? जिसके लिए मौत के सिवा और कोई आरजू नहीं। आइए, आपको अपने मकान के दूसरे हिस्से में ठहरा दूं, जहां किसी का गुजर नहीं हो सकता। (मुसलिम तौआ के साथ जाते हैं) यहां आप आराम कीजिए, मैं खाना लाती हूं।

[बलाल का प्रवेश]

बलाल– अम्मा, आज जियाद वे लोगों की खताएं माफ कर दीं, सबको तसल्ली दी, और इतमीनान दिलाया कि तुम्हारे साथ कोई सख्ती न की जायेगी। हज़रत मुसलिम का न जाने क्या हाल हुआ।

तौआ– जो हुसैन का दुश्मन है, उसके कौल का क्या ऐतबार!

बलाल– नहीं अम्मा, छोटे-बड़े खातिर से पेशे आए। उसकी बातें ऐसी होती हैं कि एक-एक लफ़्ज दिल में चुभ जाता है। हज़रत मुसलिम का बचना अब मुझे भी मुश्किल जान पड़ता है। अब खयाल होता है, उनके यहां आने से पहले हम लोगों में निफ़ाक पैदा हो गया। जियाद ने वादा किया है कि जो उन्हें गिरफ्तार करा देगा, उसे बहुत कुछ इनाम-इकराम में मिलेगा।

तौआ– बेटा, कहीं तेरी नीयत तो नहीं बदल गई। खुदा की क़सम, मैं तुझे कभी दूध न बख्शूंगी।

बलाल– अम्मा, खुदा न करे, मेरी नीयत में फर्क आए। मैं तो सिर्फ बात कह रहा था। आज सारा शहर जियाद को दुआएं दे रहा है।

[तौआ प्याले में खाना लेकर मुसलिम को दे आती है।]

बलाल– हजरत हुसैन तशरीफ न लाएं, तो अच्छा हो। मुझे खौफ़ है कि लोग उनके साथ दग़ा करेंगे।

तौआ– ऐसी बातें मुंह से न निकाल। हाथ-मुंह धो ले। क्या तुझे भूख नहीं लगी, या जियाद ने दावत कर दी?

बलाल– खुदा मुझे उसकी दावत से बचाए। खाना ला।

[तौआ उसके सामने खाना रख देती है, और फिर प्याले में कुछ रखकर मुसलिम को दे आती है।]

बलाल– यह पिछवाड़े की तरफ बार-बार क्यों जा रही हो अम्मा?

तौआ– कुछ नहीं बेटा! यों ही एक जरूरत से चली गई थी।

बलाल– हज़रत मुसलिम पर न जाने क्या गुजरी।

[खाना खाकर चारपाई पर लेटता है, तौआ बिस्तर लेकर मुसलिम की चारपाई पर बिछा आती है।]

बलाल– अम्मा, फिर तुम उधर गई, और कुछ लेकर गई। आखिर माज़रा क्या है? कोई मेहमान तो नहीं आया है?

तौआ– बेटा मेहमान आता, तो क्या उनके लिए यहां जगह न थी?

बलाल– मगर कोई-न-कोई धात है। क्या मुझसे भी छिपाने की ज़रूरत है?

तौआ– तू सो जा, तुझसे क्या।

बलाल– जब तक बतला न दोगी, तब तक मैं न सोऊंगा।

तौआ– किसी से कहेगा तो नहीं?

बलाल– तुम्हें मुझ पर भी एतबार नहीं?

तौआ– कसम खा।

बलाल– खुदा की कसम है, जो किसी से कहूं।

तौआ– (बलाल के कान में) हज़रत मुसलिम हैं।

बलाल– अम्मा, जियाद को खबर मिल गई, तो हम तबाह हो जायेंगे।

तौआ– खबर कैसे हो जायेगी। मैं तो कहूंगी नहीं। हां, तेरे दिल की नहीं जानती। करती क्या, एक तो मुसाफिर, दूसरे हुसैन के भाई। घर में जगह न होती, तो दिल में बैठा लेती।

बलाल– (दिल में!) अम्माँ ने मुझे यह राज बता दिया, बड़ी गलती की मैंने जिद करके पूछा, मुझसे गलती हुई। दिल पर क्योंकर काबू रख सकता हूं। एक वार से बादशाहत मिलती हो, तो ऐसा कौन हाथ है, जो न उठ जायेगा। एक बात से दौलत मिलती हो, जिंदगी के सारे हौसले पूरे होते हों, तो वह कौन जुबान है, जो चुप रह जायेगी। ऐ दिल, गुमराह न हो, तूने सख्त कसमें खाई हैं। लानत का तौक गले में न डाल। लेकिन होगा तो वही, जो मुकद्दर में हैं। अगर मुसलिम की तकदीर में बचना लिखा है, तो बचेंगे, चाहे सारी दुनिया दुश्मन हो जाये। मरना लिखा है, तो मरेंगे, चाहे सारी दुनिया उन्हें बचाए।

[उठकर तौआ की चारपाई की तरफ देखता है, और चुपके-से दरवाजा खोलकर चला जाता है।]

तौआ– (चौंककर उठ बैठती है।) आह! जालिम मां से भी दग़ा की। तुझे यह भी शर्म नहीं आई कि हुसैन का भाई मेरे मकान में गिरफ्तार हो, आकबत के दिन खुदा को कौने-सा मुंह दिखाएंगा। एक कसीर था कि अपनी और अपने बेटे की जान अपने मेहमान पर निसार कर दी, और एक बदनसीब मैं हूं कि मेरा बेटा उसी मेहमान को दुश्मनों के हवाले करने जा रहा है।

[बाहर शोर सुनाई देता है। मुसलिम तौआ के कमरे में आते हैं।]

मुस०– तौआ, यह शोर कैसा है?

तौआ– या हजरत! क्या बताऊं, मेरा बेटा मुझसे दग़ा कर गया। वह बुरी सायत थी कि मैंने अपने घर में आपको पनाह दी। काश अगर मैंने उस वक्त बेमुरौवती की होती, तो आप इस खतरे में न पड़ते। अगर कभी किसी मां को बेटा जनने पर अफ़सोस हुआ है, तो वह बदनसीब मां मैं हूं। अगर जानती कि यह यों दग़ा करेगा, तो जच्चेखाने में ही उसका गला घोंट देती।

मुस०– नेक बीबी, शर्मिंदा न हो। तेरे बेटे की खता नहीं, सब कुछ वही हो रहा है, जो तकदीर में था, और जिसकी मुझे खबर थी। लेकिन दुनिया में रहकर इंसाफ, इज्जत और ईमान के लिए प्राण देना हर एक बच्चे मुसलमान का फर्ज है। खुदा नबियों के हाथों हिदायत के बीज बोता है, और शहीदों के खून से उसे सींचता है। शहादत वह आला-से-आला रुतबा है जो कि खुदा इंसान को दे सकता है। मुझे अफ़सोस सिर्फ यह है कि जो बात एक दिन पहले होनी चाहिए थी, वह आज खुदा के बंदों के खून बहाने के बाद हो रही है।

[जियाद के आदमी बाहर से तौआ के घर में आग लगा देते हैं, और मुसलिम बाहर निकलकर दुश्मनों पर टूट पड़ते हैं।]

एक सिपाही– तलवार क्या है, बिजली है। खुदा बचाए।

[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर जाता है।]

दूसरा सिपाही– अब इधर चला, जैसे कोई मस्त शेर डकारता हुआ चला आता हो। बंदा तो घर का राह लेता है, कौन जान दे।

(भागता है।)

तीसरा सिपाही– अर…र…र…या हजरत, मैं गरीब मुसाफिर हूं, देखने आया था कि यहां क्या हो रहा है।

[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है]

चौथा सिपाही– जहन्नुम में जाये ऐसी नौकरी। आदमी आदमी से लड़ता है कि देव से। या हज़रत, मैं नहीं हूं, मैं तो हजूर के हाथों पर बैयत कतरने आया था।

[मुसलिम का हाथ पकड़ता है, और वहीं गिर पड़ता है।]

पांचवा सिपाही– किधर से भागें, कहीं जगह नहीं मिलती। या हजरत, अपनी बूढ़ी मां का अकेला लड़का हूं। जान बख्शें, तो हुजूर की जूतियां सीधी करूंगा।

[तलवार पकड़ते ही गिर पड़ता है। सिपाहियों में भगदड़ पड़ जाती है।]

कीस– जवानो, हिम्मत न हारो, तुम तीन सौ हो। कितने शर्म की बात है कि एक आदमी से इतना डर रहे हो।

एक सिपाही– बड़े बहादुर हो, तो तुम्हीं क्यों नहीं उससे लड़ आते? दुम दबाए पीछे क्यों खड़े हो? क्या तुम्हीं को अपनी जान प्यारी है!

कीस– हजरत मुसलिम, अमीर जियाद का हुक्म है कि अगर आप हथियार रख दें, तो आपको पनाह दी जाये। (सिपाहियों से) तुम सब छतों पर चढ़ जाओ, और ऊपर से पत्थर फेंको।

मुस०– ऐ खुदा और रसूल के दुश्मन, मुझे तेरी पनाह की जरूरत नहीं है। मैं यहां तुझसे पनाह मांगने नहीं आया हूं, तुझे सच्चाई के राह पर लाने आया हूं।

(एक पत्थर सिर पर आता है) ऐ गुमराहो! क्या तुमने इस्लाम से मुंह फेरकर शराफत और इंसानियत से भी मुंह फेर लिया। क्या तुम्हें शर्म नहीं आती कि तुम अपने रसूल पाक के अजीज पर पत्थर फेंक रहे हो। हमारे साथ तुम्हारा यह कमीनापन!

[तलवार लेकर टूट पड़ते और गाते हैं।]

कूचे में रास्ती के हम अब गदा हुए हैं,
क्या खौफ़ मौत का है, हक़ पर फ़िदा हुए हैं।
ईमां है अपना मुसलिक, मकरोदग़ा से नफ़रत,
दुनिया से फेरकर मुंह नकशे-वफ़ा हुए हैं।
क्या उन पे हाथ उठाऊं, जो मौत से हैं खायफ,
जो राहें-हक़ से फिरकर सरफे दग़ा हुए हैं।
दुनिया में आके इक दिन हर शख्स को है मरना,
जन्नत है, उनकी, जो यां वकफ़े जफ़ा हुए हैं।

कीस– कलामे पाक की कसम, हम आपसे फरेब न करेंगे। अगर हम आपसे झूठ बोलें, तो हमारी नजात न हो।

मुस०– वल्लाह! मुझे जिंदा गिरफ्तार करके जियाद के तानों का निशाना न बना सकेगा।

कीस– (आहिस्ते से) यह शेर इस तरह काबू में न आएगा। इसका सामना करना मौत का लुकमा बनना है। यहां गहरा गड्ढा खोदो। जब तक वह औरों को गिराता हुआ आए, तब तक गड्ढा तैयार हो जाना चाहिए। यहां अंधेरा है, वह जोश में इधर आते ही गिर जायेगा।

एक सि०– जियाद पर लानत हो, जिसने हमें शेर से लड़ने के लिये भेजा था। या हजरत, रहम, रहम!

दू० मि०– खुदा खैर करे। क्या जानता था, यहां मौत का सामना करना पड़ेगा। बाल-बच्चों की खबर लेने वाला कोई नहीं।

[मुसलिम गड्ढे में गिर पड़ते हैं।]

मुस०– जालिमों, आखिर तुमने दग़ा की।

कीस– पकड़ लो, पकड़ लो, निकलने न पाए। कत्ल न करना। जिंदा पकड़ लो।

अशअस– तलवार का हकदार मैं हूं।

कीस– जिर्रह मेरा हिस्सा है।

अश०– खुद उतार लो, साद को देंगे।

मुस०– प्यास! बड़े जोरों की प्यास है। खुदा के लिये एक घूंट पानी पिला दो।

कीस०– अब जहन्नुम के सिवा यहां पानी का एक कतरा भी न मिलेगा।

मुस०– तुफ़ है तुझ पर जालिम, तुझे शरीफ़ों की तरह जबह करने की भी तमीज नहीं। मरने वालों से ऐसी दिल-खराश बातें की जाती हैं? अफ़सोस!

अश०– अब अफसोस करने से क्या फायदा? यह तुम्हारे फेल का नतीजा है।

मुस०– आह! मैं अपने लिए अफ़सोस नहीं करता। रोता हूं हुसैन के लिए जिसे मैंने तुम्हारी मदद के लिए आमादा किया। जो मेरी ही मिन्नतों से अपने गोशे पर निकलने को राजी हुआ। जबकि खानदान के सभी आदमी तुम्हारी दग़ाबाजी का खौफ़ दिला रहे थे, मैंने ही उन्हें यहां आने पर मज़बूर किया। रोता हूं कि जिस दग़ा ने मुझे तबाह किया, वह उन्हें और उनके साथ उनके खानदान को भी तबाह कर देगी। क्या तुम्हारे ख़याल में यह रोने की बात नहीं है? तुमसे कुछ सवाल करूं?

अश०– हुसैन की बैयात के सिवा और जो सवाल चाहे कर सकते हो।

मुस०– हुसैन की मेरी मौत की इत्तिला दे देना।

अश०– मंजूर है।

[कई सिपाही मुसलिम को रस्सियों से बांधकर ले जाते है।]

तेरहवां दृश्य

[प्रातःकाल का समय। जियाद का दरबार। मुसलिम को कई आदमी मुश्क कसे लाते हैं]

मुस०– मेरा उस पर सलाम है, जो हिदायत पर चलता है, आकबत से डरता है, और सच्चे बादशाह की बंदगी करता है।

चोबदार– मुसलिम! अमीर को सलाम करो।

मुस०– चुप रह। अमीर, मेरा मालिक, मेरा इमाम हुसैन है।

जियाद– तुमने कूफ़ा में आकर कानू के मुताबिक कायम की हुई बादशाहत को उखाड़ने की कोशिश की, बागियों को भड़काया और रियासत में निफ़ाक पैदा किया?

मुस०– कूफ़ा-कानून के मुताबिक न कोई सल्तनत कायम थी, न है। मैं उस शख्श का कासिद हूं, जो चुनाव के कानून से, विरासत के कानून से और लियाकत से अमीर है। कूफ़ावालों ने खुद उसे अमीर बनाया। अगर तुमने लोगों के साथ इंसाफ किया होता, तो बेशक, तुम्हारा हुक्म जायज था। रियाया की मर्जी और सब हकों को मिटा देती है। मगर तुमने लोगों पर वे जुल्म किए कि कैसर ने भी न किए थे। बेगुनाहों को सजाएं दीं, जुरमानें के हीले से उनकी दौलत लूटी, अमन रखने के हीले से उनके सरदारों को कत्ल किया। ऐसे जालिम हाकिम को, चाहे वह किसी हक के बिना पर हुकूमत करता हो, हुकूमत करने का कोई हक नहीं रहता, क्योंकि हैवानी ताकत कोई हक़ नहीं है। ऐसी हुकूमत को मिटाना हर सच्चे आदमी का फर्ज़ हैं और जो इस फ़र्ज से खौफ़ या लालच के कारण मुंह मोड़ता है, वह इंसान और खुदा दोनों ही की निगाहों में गुनाहगार है। मैंने अपने मकदूर-भर रियाया के तेरे पंजे से छुड़ाने की कोशिश की और मौका पाऊंगा, तो फिर करूंगा।

जियाद– वल्लाह, तू फिर इसका मौका न पाएगा। तूने बग़ावत की है। बगावत की सजा कत्ल है। और दूसरे बागियों की इबरत के लिये मैं तुझे इस तरह कत्ल कराऊंगा, जैसे अब तक न किया गया होगा।

मुस०– बेशक। यह लियाकत तुझी में है।

जियाद– इस गुस्ताख को ले जाओ, और सबसे ऊंची छत पर क़त्ल करो।

मुस०– साद, तुमको मालूम है कि तुम मेरे कराबतमंद हो?

साद– मालूम है।

मुस०– मैं तुमसे कुछ वसीयत करना चाहता हूं।

साद– शौक से करो।

मुस०– मैंने यहां कई आदमियों से कर्ज लेकर अपनी जरूरतों पर खर्च किए थे। इस कागज़ पर उनके नाम और रकमें दर्ज हैं। तुम मेरा घोड़ा और मेरे हथियार बेचकर यह कर्ज अदा कर देना, वरना हिसाब के दिन मुझे इन आदमियों से शर्मिदा होना होगा।

साद– इसका इतमीनान रखिए।

मुस०– मेरी लाश को दफ़न करा देना।

साद– यह मेरे इमकान में नहीं है।

[जल्लाद आकर मुसलिम को ले जाता है।]

अश०– था अमीर, मुसलिम क़त्ल हुए अब बगावत का कोई अंदेशा नहीं। अब आप हानी की जानबख्शी कीजिए।

जियाद– कलाम पाक की क़सम, अगर मेरी नजात भी होती हो, तो हानी को नहीं छोड़ सकता।

अश०– लोग बिगड़ खड़े हों, तो?

जियाद– जब कौम के सरदार मेरे तरफ़दार हैं, तो रियाय की तरफ से कोई अंदेशा नहीं। (जल्लाद को बुलाकर) तूने मुसलिम को कत्ल किया?

जल्लाद– अमीर के हुक्म की तामील हो गई। खुदावंद किसी को इतनी दिलेरी से जान देते नहीं देखा। पहले नमाज पढ़ा, तब मुझसे मुस्कराकर कहा– ‘तू अपना काम कर’।

जियाद– तूने उसे नमाज क्यों पढ़ने दिया? किसके हुक्म से?

जल्लाद– गरीबपरवर, आखिर नमाज के रोकने का अजाब जल्लादों के लिए भी भारी है। जिस्म को सिर से अलग कर देना इतना बड़ा गुनाह नहीं है जितना किसी को खुदा की इबादत से रोकना।

जियाद– चुप रह नामाकूल। तू क्या जानता है, किसको क्या सज़ा देनी चाहिए। ग़ैरतमंदों के लिये रूहानी ज़िल्लत क़त्ल से कहीं ज्यादा तकलीफ देती है। खैर, अब हानी को ले जा और चौराहे पर कत्ल कर डाल।

एक आ०– खुदावंत, यह खिदमत मुझे सुपुर्द हो।

जियाद– तू कौन है।

आ०– हानी का गुलाम हूं। मुझ पर उसने इतने जुल्म किए है कि मैं उनके खून का प्यासा हो गया हूं। आपकी निगाह हो जाये, तो मेरी पुरानी आरजू पूरी हो। मैं इस तरह क़त्ल करूंगा कि देखने वाले आंखें बंद कर लेंगे।

जियाद– कलाम पाक की कसम, तेरा सवाल जरूर पूरा करूंगा।

[गुलाम हानी को पकड़े हुए ले जाता है। कई सिपाही तलवारें लिए साथ-साथ जाते हैं।]

गुलाम– (हानी से) मेरे प्यारे आका मैंने जिंदगी भर आपका नमक खाया, कितनी ही खताएं कीं, पर आपने कभी कड़ी निगाहों से नहीं देखा। अब आपके जिस्म पर किसी बेहर्द कातिल का हाथ पड़े, वह मैं नहीं देख सकता। मैं इस हालात में भी आपकी खिदमत करना चाहता हूं। मैं आपकी रूह को इस जिस्म की कैद से इस तरह आजाद करूंगा कि जरा भी तकलीफ न हो। खुदा आपको जन्नत दे, और खता माफ करे।

  • कर्बला (नाटक) (भाग-2) : प्रेमचंद
  • भूमिका और कथानक : कर्बला (नाटक) : प्रेमचंद
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