कंचन माटी (पंजाबी कहानी) : देवेन्द्र सत्यार्थी

Kanchan Maati (Punjabi Story) : Devendra Satyarthi

‘कंचन मर जानी, माटी खानी!—अरी ओ, खबरदार जो तूने कभी माटी डाली मुँह में!’ इधर देवयानी की माँ की यह फटकार और उधर कंचन नदी के नाव-घाट की ओर से आती हुई बतखों की आवाज कैं-कैं, कैं-कैं! इधर डूबते सूरज की पीली-पीली धूप में बच्चे गा रहे हैं—

भूरी बतख! सफेद बतख!
मेरी बतख कहाँ गई?
बुढि़या के घर
उठ बुढि़या दरवाजा खोल
कैं-कैं, कैं-कैं...

मेरी कहानी आवाजों के इस पुल से गुजर सकती है, पर मैं न तो सोफिया की कहानी सुना रहा हूँ, न मंडल माँझी की, न प्रभात फेरीवाले बैरागी बाबा की, न डाक बाबू मुनीर हुसैन की बीवी चमनबानो की। मैं तो देवयानी की इस कंचन के साथ जी बहला रहा हूँ, जो मेरे पास ही तुतली जबान में गा रही है—

हला समंदल दोमी चंदल,
बोल मेली मछली तितना पानी।

क्या किसी ने मछली को भी तुतली जबान में गाते सुना। कंचन भी तो मछली है। झील की मछली या नदी की? शायद मन की मछली को बुलाया जा रहा है और किसी ने यह भी तो कहा है कि मछलियाँ बहुत दूर तक साथ देती हैं। कभी-कभार बीच में ही छोड़ जाती हैं।

बाढ़ का पानी तो कभी का उतर चुका है। बस अब तो सूखे आँसू बह रहे हैं।

एक हाथ में माटी, दूसरे में कहानी और कहानी के बीज सदा माटी से फूटते हैं।...और कंचन मेरी गोद से उतरकर भाग गई और घर के चमेलीवाले दरवाजे से उसकी आवाज सुनाई देने लगी—

महला थाल हतमताल
मेली माँ ते लंबे वाल

कंचन को गाते देखकर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि यह तो देवयानी ही ठोड़ी पर हाथ रखे अपने बचपन में लौटकर गा रही है।

कंचन को कैसे समझाऊँ, अरी तेरी माँ के बाल तो सचमुच लंबे थे, पर वह काली सीढि़योंवाली उस सफेद इमारत में तुझे जन्म देकर स्वयं वहाँ से लौटकर न आ सकी।

दरअसल यह उस गीली लकड़ी की कहानी है, जो जलती तो है, पर धुआँ छोड़ती-सी। कड़वा धुआँ।

मेरी लड़की देवयानी। काश तुमने कंचन नदी की इस गीली रेत पर अपनी इस नन्ही-मुन्नी कंचन के पैरों के निशान देखे होते।

तिलिया बेताली त्या तले
थन्दा पानी पी मले

चर-चर, चर-चर!—जैसे चिडि़या इस बात से इनकार कर रही है कि वह ठंडा पानी पीकर ही मरती आई है।

यह भरा-पूरा घर, बस, एक देवयानी के न होने से कितना उजाड़ नजर आता है और सामने की दीवार पर देवयानी की जो तसवीर लगी है, शायद यह कलाकार का ही चमत्कार है कि जब मैं गंभीर होकर देखता हूँ तो वह मुसकराने लगती है। और जब मैं मुसकराकर देखता हूँ तो वह पता नहीं क्यों गंभीर हो जाती है।

कंचन की मोतियों की माला की-सी मुसकान मुझे देवयानी की उस नटखट हँसी की याद दिला देती है, जब एक दिन रमन ब्रह्मचारी बचपन में उसे साँझ पड़े गाय-बैलों के नीचे कुचले जाने से बचा लाए थे और अब मन में यह विचार आता है कि अगर रमन ब्रह्मचारी जीवन के किसी मोड़ पर मिल जाएँ तो मैं उन्हें सीने से लगाकर इतना कहूँ कि जिसे एक दिन आप जान पर खेलकर बचा लाए थे, उसे हम न बचा सके। पता नहीं वे रमन ब्रह्मचारी भी कहाँ होंगे!

मैं अपना सिर हाथों में थामे देवयानी की तसवीर देख रहा हूँ और मुझे यह बात याद आए बिना नहीं रहती कि वह बचपन में कई बार मेरे साथ कुट्टी कर देती थी, जैसे अब कभी-कभार कंचन कर देती है। वह तो जमकर लड़ाई कर बैठती थी, जिसमें आँधी भी आती और तूफान भी। देवयानी की माँ पंच बनकर हमारा मेल करा देती, जैसे अब वह कंचन के मामले में पंच बन जाती है।

मुझे तो देवयानी की याद भुलाए नहीं भूलती। जैसे वही मेरी पूरी दुनिया हो। चमनबानो मेरे मुँह से देवयानी की कहानी सुनते-सुनते कहती है—यह कहानी तो कुम्हार के चक्के पर तैयार होनेवाली सुराही की तरह है।

चमनबानो की अपनी कहानी भी तो किसी सुराही की तरह गीली माटी से ही तैयार हुई है। उसकी आपबीती पर मैं जितना विचार करता हूँ, उतना ही गर्त की झील में उतर जाता हूँ कि वह अब तक माँ नहीं बन सकी।

एक बार चमनबानो को कब्र में उतारा जा रहा था, जब मौत के फरिश्ते को अपनी भूल का पता चल गया। वह चमनबानो, जिसे कब्र में जाना था, वह तो कई बच्चोंवाली चमनबानो थी। कंचन नदी के उस पार और जब गली की स्त्रियाँ कहा करती हैं कि यह हमारी चमनबानो, जो कब्र से जिंदा होकर चली आई, तब तक कब्र में नहीं जा सकती, जब तक इसकी गोद न भर जाए।

न जाने अँधेरे में कौन सी किरण किस जन्म-जली की कहानी लिख रही है। आज भी देवयानी की आटोग्राफ-बुक का वह पन्ना खुला पड़ा है, जिस पर मैंने ही लिखना तो चाहा था कुछ और, पर काँपते हाथों और डूबते मन से लिखा गया—नारी तो उस नदी के समान है, जो माटी खाती तो है कहीं और, बिखेरती है कहीं और, और यह माटी कहाँ फसल को लहलहा दे, कहाँ उसे खा जाए, यह तो जलधारा के बढ़ते निशान ही बता सकते हैं। बेचारी धरती माँ का भाग्य ही कुछ ऐसा है कि आँसुओं की नदी का यह दाग इस के भगीरथ के बेटे और पोतों से तो क्या, इस नदी के किनारों पर बसी हुई अनगिनत जातियों से भी अभी मिटाया नहीं जा सका।

दरअसल देवयानी की फोटोग्राफ-बुक पर कुछ लिखने को जब मैंने कलम उठाई, तो सोचा—क्यों न आज उपनिषद् की वही सुनहरी सूक्ति लिखकर देवयानी को सावधान कर दूँ—री देख, निंदा को सदा अमृत और स्मृति को विष समझना। पर इसके विपरीत जो लिख गया, उसकी स्याही अभी नहीं सूखने पाई थी कि...

मुझे याद है। मैं चौंक पड़ा, जब मैंने देखा कि देवयानी ने मेरा लिखा ‘नारी’ तो काट दिया है और उसके ऊपर ‘जिंदगी’ लिख दिया है। साथ ही उसने कुछ ऐसी भंगिमा से मेरी ओर देखा, मानो कह रही हो—लो, अब देखो।

दरअसल मैं चौंका नहीं था, बल्कि देवयानी ने मेरी कलम काटकर अपनी जो कलम चला दी थी, मैं उसी पर फूल उठा था।

शायद देवयानी ने मुझे यह पहला मौका दिया था कि सँभलकर मैं सोचूँ, आखिर उसने मुझे कहाँ सँभाला, कहाँ सँवारा। वह कौन सी बात रही है कि मैं उसके या वह मेरे सदा से ही, क्या दाएँ, क्या बाएँ, क्या आगे, क्या पीछे, सदा साथ ही लगी रही है? कुछ सँभालती सी रही है, कुछ सँवारती सी भी, और जब मैं कुछ लिखते-लिखते थक जाता, तो वह निकट खड़ी हो या कहीं दूर से ही बोल उठी हो—क्यों बस, थक गए? आखिर जिंदगी तो नदी की तरह है न। भला कभी आपने यह भी सोचा कि यदि नदी रुक जाए तो क्या होगा?

आज देवयानी के सवाल को याद करते हुए सोचता हूँ, यदि सचमुच नदी रुक जाए, तो इस तरह भी और उस तरह भी, किसी तरह भी ठीक नहीं है। उधर बाढ़ है तो इधर रेत-ही-रेत।

नदी रुकी हो, पर उसके जल-प्रवाह को भी कोई रोक सका है? वह उधर बहे, चाहे इधर।

पतझड़ कितने क्यों न आए हों, बसंत भी तो उतने ही आकर रहे।

संकोच और भय के इस भँवर-जाल के बावजूद ये प्यार की कहानियाँ तो आगे ही आगे बढ़ती रही हैं।

फूलों की घाटी में दुःख की चट्टानें गिरती रहीं, पर फूल तो चट्टानों पर भी खिलते हैं।

पहलौठी की कंचन बिटिया को जन्म देकर देवयानी अँगनाई की माटी से सदा के लिए विदा हो गई। मानो कंचन नदी का कोई टापू डूब गया हो, या कंचनजंघा की उषा फिर से रास्ता भूलकर असीम अंधकार में खो गई हो।

देवयानी की माँ गम में डूबी रहती है और उसके चेहरे की लिखावट यह कहती प्रतीत होती है—हाय, उस माटीखानी को तो माटी ही खा गई।

मुँह-जोर नदी बही चली जाती है। मेरी आँखों में वह डूबते दिल की-सी झाँकी घूम जाती है। मानो नाव-घाटवाली श्मशान-भूमि की ओर किसी की अरथी जा रही हो। देवयानी किताब फेंककर खिड़की में जा पहुँची हो और अरथी को देखने में लीन हो गई हो। जैसे किसी को मारकर अरथी में दुबककर जाना, डोली में नई-नवेली दुलहन की लजीली विदा उसकी नजर में एक बराबर हों।

मुझे याद है। उस रोज काली सीढि़योंवाली उस सफेद इमारत में देवयानी की आँखों में श्रद्धा की आभा थी और सिर उसकी हथेलियों पर टिका था, जब उसने फुसफुसाते स्वर में कहा—जब मुझे दौरा पड़ा तो उस समय किसी और ने नहीं, इसी सोफिया ने मेरी देखभाल की थी, जो रात भर जागती रही।...और मैं पास बैठा सोचता रहा—देवयानी को चाय देते समय सोफिया के हाथ क्यों काँप उठे थे। उसने घबराकर उसकी ओर क्यों देखा। मेरे मना करने के बावजूद उसने उसका तकिया क्यों नीचा कर दिया था?

और आज इतने दिनों बाद मैं सर्द आह भरकर कहता हूँ—सोफिया, तुम यह क्यों नहीं बताती कि देवयानी का अंतिम बोल क्या था। कहानी की अँगनाई में खड़ी होकर कुछ तो कहो, सोफिया। जूही की गंध तो तुम्हें भी उतनी ही अच्छी लगती है, जितनी देवयानी को लगती थी।

चर-चर, चर-चर! मानो चिडि़या मेरे ही मन की बात पूछ रही हो—सोफिया, तुम खामोश क्यों हो?

चंदन-चौकी की गुडि़या कंचन के सहेलपन को बाट जोहती रहती है। वह मन-चहेती गुडि़या को उठाकर ही खिलौने से बनाए मंदिर मैं बिठा देती है और जब खेल-खेल में वह मंदिर गिर पड़ता है, तो वह चकित सी खड़ी रहती है। मैं कलम-कागज मेज पर रखकर मन-ही-मन कहता हूँ—यह तो देवयानी ही गुडि़या बनकर गोद में खेलने आ गई है। वही उभरी हुई, कुछ पूछती सी, बड़ी-बड़ी आँखें। वही सुतवाँ नाक। वही मुसकान, दीये की लौ की तरह काँपती सी। वही आँखों की भाषा, दुबकती सी, चमकती सी और वही लंबे बाल। हाँ,

एक फर्क जरूर है। उसे तो नीली साड़ी पसंद थी। उसकी इस कंचन बिटिया के मन में फिरोजी फ्राक बस गई है।

आज न जाने कब से बैठा सोच रहा हूँ कि कंचन आए तो मैं उसे बतख सुनाऊँ, जो कंचन नदी में बार-बार चोंच डुबोती रही और आखिर अपना सपना गँवा बैठी।

वह कहानी चमनबानो ने सुनी तो उसने हँसकर कहा, ‘‘जब दुनिया से मेरी डोली उठेगी, तो मैं यह कहानी हूरों को सुनाऊँगी, जो जन्नत के दरवाजे पर मेरी राह देख रही होंगी’’ मैं उसकी बात पर मुसकरा भी न सका। मैं लिखने के लिए कागज पर झुकते हुए यह सोचकर उदास हो गया कि गली के बच्चे, ‘‘चमनो ताई कब्र से आई’’ कहकर चमनबानो को क्यों छेड़ते हैं। कंचन तुतलाती जबान में कहती है, ‘‘चमनो ताई तबल छे आई!’’

चमनबानो खुश होकर कहती—रंग हँसते भले, घर बसते भले। पर उसका सारा सुघड़ापा धरा-का-धरा रह जाता है। वह कंचन के साथ बात करते-करते सिसकियों में खो जाती है। उस समय मुझे वैरागी बाबा का ध्यान आए बिना नहीं रहता, जो किसी की कलाई पकड़कर न तो रोने के पक्ष में कुछ कहते हैं, न रोने के विरुद्ध। सदा भटकती गाय को घेरकर घर लाने के अंदाज में ज्ञान-ध्यान पर तान तोड़ते हैं।

जब वैरागी बाबा हमारी खिड़की के सामने से दिल का गुबार निकालते गुजर जाते हैं, तो यों लगता है कि कबीर आज भी है—

माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहि।
इक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूँगी तोहि॥

मैं मन के कबीर से कहता हूँ—क्यों कबिरा, क्या तुमने, बस अब तक इतना ही गुना है। माटी भी क्या किसी को रौंदती है?

भुखिया के मारे विरहा बिसरिगा, भूलि गई कजरी कबीर!...और कभी गुरुदेव की अमर वाणी सुनने को मिली—कतो अजाना रे जानाइले तुमि, कतो घरे दिले ठाई! (कितने अपरिचितों से तुमने मेरा परिचय कराया, कितने घरों में ठौर दिलाई!) और देवयानी के हाथ सहने से ऐसा लगता था कि मैं तो यात्रा में भी घर का सा आनंद ले रहा हूँ।

मछली को तो नदी ही तैरना सिखाती है, वह उलटी धार तैरे चाहे सीधी धार। पर इस घर से जो सुगंध कुछ बरस पहले उड़ गई, लौटती नहीं दीखती।

उन काली सीढि़यों से उतरती-सी आवाज कहती महसूस होती—कभी आपने यह सोचा कि यात्रा के पुण्य-प्रताप से आपकी आधी कथा कंचन हो गई, उस नेवले की देह के समान और जब यात्रा का आँचल हाथ से छूट गया तो आप कथा के नाव-घाट के होकर रह गए, मानो आपका विचार हो कि यहाँ की कथा-गोष्ठियों के पुण्य-प्रताप से शेष कथा भी कंचन हो जाएगी।

मैं मन-ही-मन झेंपकर कहता हूँ—मैंने कब चाहा था कि मेरी आधी कथा भी कंचन हो जाए।

कलम खामोश है और शब्दों की गली में अँधेरा-ही-अँधेरा है। बतख तो तैरती हुई ही अच्छी लगती है जैसे कलम लिखती हुई और मैं लिखता ही रहता हूँ। आगे की कहानी पीछे की कहानी।

सोफिया! तुम वह बात बता क्यों नहीं देतीं?

मुझे यह बात बताने का तो तुम्हें उतना ही पुण्य मिलेगा, जितना देवयानी का कन्यादान करने से मिला था। स्वयं देवयानी को पहली बार सागर देवता को नारियल भेंट करने से।

तुम यह क्या गुनगुना रही हो, सोफिया? तुम्हारे गीत की कसम! अब तो मुझे वह बात बता ही डालो।

यह किसके आँसुओं का गीत है? भूरी और सफेद बतखें एक साथ कैं-कैं कर उठती हैं। क्या तुम उसी समय वह बात बताओगी, जब ये सारी बतखें खामोश हो जाएँगी।

कंचन की आवाज को तो गम छू तक नहीं सका। चमनबानो उसे रात के मछुओं की कहानी सुना रही है, जो भोर होते ही घर लौट आते हैं।

कहानी, होती तो गीत, अंधा और बहरा ही नहीं गूँगा भी रह जाता। काला फूल, सफेद फूल। तुम कौन सा फूल लेकर बात बताओगी, सोफिया?

पहचान के लिए दूरी बहुत जरूरी है। कहीं वह मरजानी माटीखानी अपनी पहचान कराने के लिए ही तो हम से दूर नहीं चली गई।

यह विचार चट्टान के सीने में फटते बारूद की तरह मेरे दिल में तूफान उठाता रहता है और मन-ही-मन कहता हूँ—क्या मेरी वह यात्रा टल न सकती थी?

अँगनाई से देवयानी की माँ की आवाज सुनाई देती है—रोज दूर पार ऐसी लड़की जन्मे, जैसी यह कंचन है। तीन बार गिरी आज और चार नील पड़ गए। कोई इससे पूछे—क्यों री बता—मरी, क्या करेगी इन बतखों का?

कंचन की तो बात में हीरे जड़े हैं, देवयानी की माँ! और तुम्हें यही शिकायत है कि यह एक जगह टिककर क्यों नहीं बैठती! मैं कहता हूँ, कंचन इतनी सयानी है कि अकेली घर से दूर नहीं जाती। नाव में बैठने का इसे उतना ही शौक है, जितना उस मरी को था। बेदिली से ही देवयानी की माँ भर्राए हुए कंठ से मेरा वाक्य पूरा कर देती हो।

मैं परेशान होकर नाव-घाट पर जा बैठता हूँ तो मंडल काका नाव बाँधते हुए ज्ञान बघारते हैं—नाव खेते-खेते हाथ रह गए। मछलियाँ पकड़ते-पकड़ते जाल टूट गए। लहरों का सीना दलते-दलते नाव का पैंदा घिस गया और किनारा अब भी दूर है। नाव और काल में यही तो अंतर है। नाव चलती है तो लहरों पर आवाज होती है और काल चलता है तो एकदम दबे पाँव।

हाँ, काका! मैं श्मशान-भूमि से लौटती स्त्रियों का विलाप सुनकर कहता हूँ, काल चलता है तो दबे पाँव।

मेरे सिर के ऊपर से कोई पक्षी चीखता हुआ गुजर जाता है। मैं किसी को कैसे बताऊँ कि मेरी कैफियत उस घायल पक्षी से किसी तरह कम नहीं, जो सूनी दोपहर में गिरता-पड़ता उड़ने का जतन किए जा रहा हो।

मंडल काका मानो कंचन की आत्मा में झाँकते हुए कहते हैं—कंचन ससुराल जाएगी तो बहुत सा दान-दहेज पाएगी। इसकी बाँहों के तिल यही तो कह रहे हैं।

मैं काका की बात अनसुनी करते हुए लाल माटी के ढलवाँ रास्ते पर फाख्ता को उड़ते देखकर कहता हूँ—जब देवयानी के कच्चे-पक्के दिन थे, तो उसकी माँ उसे समझाया करती थी कि पत्थर का निशाना बनाकर फाख्ता को घायल नहीं करना चाहिए। अब मैं किस से पूछूँ कि कहीं देवयानी ने किसी फाख्ता को तो नहीं मार डाला?

हर कहानी को पतझड़ के जंगल से गुजरना होता है। सोफिया चुपके-चुपके ही सही, उस दिन की बात जरूर बता डालो।

चर-चर, चर-चर—मानो चिडि़या मेरे कान में वह बात कहने को उत्सुक हो, जो तुमने अब तक छिपा रखी है, सोफिया।

कागज-कलम मेज पर रखकर मैं खिड़की में बैठे-बैठे चिडि़या को ध्यान से देखने लगता हूँ।

कंचन को चिडि़या का बहुत ध्यान है। कटोरी में ठंडा पानी भरकर चंदन-चौकी रख देती है और चिडि़या चुपके से आकर पानी पीने लगती है। और कंचन टकटकी लगाए खड़ी रहती है। मैं मन-ही-मन कहता हूँ—बात बन रही है।

चिडि़या उड़कर कंचन के कंधे पर आ बैठती है। कंचन उसे पकड़ने लगती है और चिडि़या उड़कर मेरे कंधे पर आ बैठती है। कंचन मेरी ओर लपकती है। चिडि़या फुर्र से उड़ जाती है और घोंसले में जा बैठती है। यह खेल इसी प्रकार देर तक चलता रहता है।

कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि कंचन सोते-सोते बड़बड़ाती सी पूछती है—ठंडा पानी पिओगी, तिलिया?

यह कोई साधारण बात नहीं है सोफिया। चिडि़या को कंचन से उतना ही प्रेम हो गया है, जितना कंचन को चिडि़या से। इसीलिए तो कंचन हथेली पर ठोड़ी टेके बड़े प्यार से चिडि़या की ओर देखती रही। चिडि़या उसके सिर पर आ बैठती है, और कंचन उसे पकड़ने का जतन न करते हुए चुपचाप बैठी रहती है। देवयानी की माँ कहानी की अँगनाई से झाँकती सी कुछ कहना चाहती है तो नन्ही-मुन्नी कंचन की मुसकान लोककथा की राजकुमारी की तरह बोलती सुपारी और हँसती लवंग बन जाती है।

अब के कंचन ने पहली बार पाँचवीं दीवाली का पहला दीया जलाया तो मन-ही-मन मैंने कहा—दीये से दीया जलाने की तरह एक कहानी के दीये से दूसरी मुँड़ेर का दिया भी तो जलाया जा सकता है।

दीवाली से अगले दिन तुम हमें मिलने आई। मैंने कहा—सोफिया उस दिन भला उजाला भीतर आ रहा था या अँधेरा बाहर की ओर जा रहा था?

—अच्छा तो सुनिए—तूने अनुकंपा भरे स्वर में मानो, मेरे हठ से तंग आकर कहना शुरू किया—देवयानी ने यही कहा था कि कंचन को यह पता न चलने देना कि वह बिना माँ की बिटिया है।

शायद वह कुछ और भी कह रही थी, सोफिया! पर तुम अपने दुपट्टे से डबडबाई आँखें पोंछती हुई रोती कंचन को चुप कराने की खातिर अपनी गोद में लेकर दूसरे कमरे में चली गई थीं।

शायद देवयानी यही कहना चाहती थी कि वह केवल तीन वर्ष का अवकाश और चाहती है। मानो यमराज के फैसले से उसने रजामंदी जाहिर कर दी और कह रही हो—यह इस जग की रीत है। मेरे न होने के बावजूद कंचन नदी इसी तरह बहती रहेगी और ये रेशम के कीड़े भी इसी तरह सुनहरे-रुपहले जाल बुनते रहेंगे। नदी लेती है, नदी देती है और कंचन भी तो नदी है।

सोफिया मुझे वह दिन याद है, जब देवयानी की माँ तुम से कह रही थी—मैं क्यों उस मरी की बातों में आ गई! न तो मैंने सात सुहागिनों से उड़द की दाल दलवाई, जिससे पितरों के लिए बड़े पकाए जाते। न मुझ कर्मजली को यह ध्यान रहा कि कंचन नदी की माटी मँगवा लूँ, जिसके बिना कुलदेवता की पूजा का फल नहीं मिलता। न कुएँ की पूजा की गई, न नाव-घाट की। इतना अशुभ एक ओर और वह मामूली सा शुभ दूसरी तरफ कि भाँवरें जरूर अग्नि देवता की साक्षी में ली गईं। हाँ, तो इतना अशुभ उस मामूली से शुभ को काट गया। और उस रोज तुम्हारे जाने के बाद देवयानी की माँ को उदास छोड़कर मैं कंचन की उँगली पकड़ नाव-घाट पर जा पहुँचा।

वहाँ वैरागी बाबा मिल गए, जो जलधारा की सीध में बगुलों की डार को उड़ते देखकर बोले—ये तो भगवान् के जीव हैं। भगवान् ने मछलियाँ खानेवाले ये बगुलेभगत बनाए। यह और बात है कि अब तक न तो किसी मछली ने और न ही किसी बगुलाभगत ने वैराग्य लेने का जतन किया। रमन ब्रह्मचारी की तरह।

और अपना नाम बताकर वैरागी बाबा ने एक झटके से भूत और वर्तमान की खोई हुई कडि़याँ किसी बाजीगर की तरह जोड़ दीं।

मैंने भर्राई आवाज में कहा—क्षमा कीजिए, वैरागी बाबा! आपका वरदान मेरे निर्बल हाथों में न समा सका। आपने अपने उस रूप की पहचान इतनी देर में क्यों कराई?

और मंडल काका अपने बेटे की बात ले बैठे, ‘‘कल रात मैंने फिर दीपक की आत्मा को मशाल लिये भटकते देखा। कंचन नदी की उस मझधार में, उसी जगह, ठीक उसी जगह, जहाँ आज से बीस-बाइस बरस पहले उसकी दुलहन डूब गई थी और फिर गम की ताब न लाते हुए, सीने पर पत्थर बाँधकर वह नाव से कूद गया था।’’

कंचन हमारे पास बैठी रेत पर अटपटी आकृतियाँ बना रही थी।

और कहानी की अँगनाई में चमनबानो का चेहरा उभरा। उसने कंचन को प्यार करते हुए रोना शुरू कर दिया। देवयानी की माँ के चकित होने पर स्वयं ही कहने लगी—हमारे डाकबाबू लोगों के घरों में खुशखबरी की चिट्ठियाँ बाँटते-बाँटते बूढ़े हो गए। पर हमारे घर ऐसी किसी चिट्ठी का कोई डाकबाबू अब तक नहीं आया।

और जब कंचन पूछती है, ताई त्यों लोई, मैं क्या जवाब दूँ, सोफिया?

यह तो चमनबानो भी मानती है कि आँसुओं की नदी न हो तो इस गम की चट्टान को सिर पर उठाए कभी न भूल सकें। वह अकसर देवयानी की माँ को समझाने बैठ जाती—सुन रही हो, देवयानी की माँ! देवयानी के ब्याह के मौके पर उसकी पोशाक की गोट में जरूर कान पड़ गया होगा, जिसका तुम लोगों ने ध्यान नहीं रखा। वह बेचारी देवयानी की माँ ऐसा महसूस करने लगती है, मानो वह कान स्वयं उसी के हाथों पड़ा हो।

चमनबानो का हर समय कंचन के साथ चिपके रहना तो मेरी समझ में नहीं आता। वह कंचन को कई बोल सिखाती रहती है। कंचन तुतली जबान से कहती है—तमनो ताई तबल छे आई, अल्ला मियाँ ती तित्थी लाई।

मैं सोचता रह जाता हूँ कि चमनबानो अल्लाह मियाँ की कौन सी चिट्ठी लाई होगी।

देवयानी की माँ के पास बैठी चमनबानो सौ-सौ बतियाँ बनाती चली जाती है और घूम-फिरकर इस बात पर तान तोड़ती है—अगर कंचन एक बार भी भूल से ‘तमनो ताई तबल छे आई’ की जगह ‘तमनो ताई तबल को भाई’ कह डाले, तो हमारे घर भी वह चिट्ठी जरूर आ जाए।

सवेरे-सवेरे डाकबाबू मुनीर हुसैन घर के सामने से गुजरते हैं, तो कंचन को आवाज दिए बिना नहीं रहते। खिड़की के पास मुँह लाकर वह प्यारी आवाज में कहते हैं—हमारे घर यह चिट्ठी कब आएगी? क्यों, कुछ तो बोल, कुछ तो बोल।

चर-चर, चर-चर! मानो चिडि़या पूछ रही हो—कौन सी चिट्ठी? कंचन नदी को कहीं माटीखानी कहते हैं, तुम्हारी तरह और कहीं इसे सदा सुहागिन कहते हैं।

कंचन मेरा हाथ छुड़ाकर भाग गई और दरवाजे से उसकी आवाज सुनाई देने लगी—

हाथी घोड़ा पालकी
जय तनैयालाल की
हाथी फिले दाम दाम
जिछता हाथी उछता नाम
बदला बलाती आएँगे।
दुदन मछाल लाएँगे।

मैंने उसके पास जाकर कहा—कंचन, ससुरालजानी। मिठाईखानी। ऐसे नहीं, ऐसे बोलते हैं—बगुला बराती आएँगे, जुगनू मशाल लाएँगे।

बाहर से रोज की तरह आवाज आई—हमारे घर वह, वीरांवाली चिट्ठी कब आएगी? कंचो, कुछ तो बोल, कुछ तो बोल।

डाकबाबू की आवाज भूरी और सफेद बतखों की आवाजों में डूब गई और वे डाकघर की ओर चले गए।

कंचन ने हर रोज की तरह अपना सवाल दोहराया—दात बाबू त्या बोला?

कहानी की अँगनाई में तुम आज फूट-फूटकर क्यों रो रही हो, सोफिया? मुझे मालूम है, तुम्हारे आँसू आपबीती के नहीं हैं।

आज सवेरे-सवेरे कंचन ने आकर कहा—मेली तिलिया त्यों नहीं दागती?

मैंने घोंसले से चिडि़या को उड़ाने के लिए बाँहें फैलाकर कहा—हुश!

चिडि़या घोंसले से न उड़ी तो मैंने घूमकर देखा, चिडि़या तो फर्श पर पड़ी थी।

मैंने कहा—ओह! यह तो दम तोड़ रही है और मेरा कलेजा धक् से रह गया। कंचन कटोरी में घड़े का ठंडा पानी ले आई, पर चिडि़या के मुँह में पानी की बूँद टपकाने पर भी चिडि़या ने आँखें न खोलीं तो कंचन घबराकर बोली—इस तो गलम-गलम दूध त्यों न पिलाया?

मैंने अँगनाई की ओर मुँह किए रुलाई भरी आवाज में कहा—दौड़कर आओ, देवयानी की माँ, दौड़कर जल्दी।

देवयानी की माँ चिडि़या को उस दशा में देखकर सहम गई। मानो उसने अँगनाई में पंजों के बल चलते यमराज की परछाईं देख ली हो। वह कुछ रुककर डूबती सी आवाज में बोली—हाय राम! यह भी गई। गोया देवयानी का यह रूप भी न रहा। क्योंजी, आज कौन सा दिन है? वही दिन, वही महीना और ठीक वही समय। देवयानी भी तो ठीक इसी समय गई थी जैसा कि सोफिया बताती है। क्योंजी, आखिर क्या बात है? क्या इसमें भगवान् की कोई लीला है?

मैं खामोश खड़ा रहा। मानो अँधेरे में कोई राह नजर न आ रही हो।

यह चक्र तो इसी तरह चलता रहेगा, सोफिया।

देवयानी गई तो चिडि़या आई। चर-चर, चर-चर! जून बदली तो बोली भी बदली। बोली बदली तो कहानी भी बदली।

उसने क्या कुछ कहना चाहा था और मैं क्या कुछ सुनने से रह गया, छोड़ो। अपने मन की न जाने कितनी बातें कही ही कहाँ गई हैं।

कंचन नदी के नाव-घाट पर मैंने मंडल काका के न जाने कितने अछूते बोल सुनकर भी अनसुने कर दिए। इस कंचन को छोड़ सोफिया! यह तो माटीखानी है। कंचन नदी ने भी अपने किनारे न जाने कितनी माटी समेट रखी है।

मैंने अपनी बात मंडल काका को बताई तो वह उसी समय उठकर मेरे साथ चल पड़े।

उन काली सीढि़यों से उतरती सी आवाज एक बार फिर मेरे कान के पास आकर मुझसे कहने लगी—आधी कंचन देहवाले नेवले, तुम कब तक कथा के नाव घाट पर बैठे रहोगे?

और जब हम लाल कपड़े में लिपटी हुई चिडि़या को लिये चमेलीवाले दरवाजे से निकले तो देवयानी की माँ की खामोशी बोझिल लग रही थी। धुंध में से झाँकते उसके चेहरे की झुर्रियों की जगह कोमल चिह्न उन दिनों की याद दिला रही थीं, जब नन्ही-मुन्नी देवयानी उसकी गोद में बैठकर दूध पिया करती थी। उसने डूबती सी आवाज में कहा—उस दिन वह मरी चमेलीवाले दरवाजे से उठी। और सब तो साथ थे, बस आप और मंडल काका ही साथ नहीं थे। किसी और को बुलाने की जरूरत नहीं।

कंचन सो गई थी। मैंने कहा—जल्दी-जल्दी कदम उठाओ, देवयानी की माँ। कहीं ऐसा न हो कि कंचन जाग उठे और हमारे साथ चलने की जिद करे।

और अभी हम चंद कदम चले होंगे कि अचानक धुंध में से डाकबाबू का चेहरा उभरा और फिर डाकबाबू ने कहा—वह चिट्ठी आ गई, जिसका मुझे इंतजार था।

मैंने कहा—देवयानी की माँ, डाकबाबू के नाम चिट्ठी आ गई। चर-चर, चर-चर! लो फिर आ गई चिडि़या। जून बदली तो बोली भी बदली। बोली बदली, पर कहानी नहीं बदली। कहानी तो खुद कंचन माटी है। देवयानी कहा करती थी कि कहानी की भी आँखें होती हैं। कभी कहानी हमें देखती है, कभी हम कहानी को। और देवयानी तो यह भी कहा करती थी, देवयानी की माँ की कहानी के कान भी होते हैं, जिससे वह दूसरों की ही नहीं, खुद अपनी आवाज भी सुनती रहती है। आग, हवा, पानी, कथा-कहानी। कंचन माटीखानी। नदी लेती है, नदी देती है। नदी तो सदा बहती रहती है।

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