कम्मो (कहानी) : आचार्य मायाराम पतंग
Kammo (Hindi Story) : Acharya Mayaram Patang
मैडम, आप मुझे बंगालन काहे बुलाती हैं। मैं बंगालन नहीं हूँ ।"
"अच्छा, तो क्या कहूँ ?" मालकिन ने पूछा।
"मेरा नाम है कामिनी, आप कम्मो बुला सकती हैं।" मैंने कहा तो मालकिन मेरे पास आ गई। बोली, "बंगालन कहने से तेरा क्या बिगड़ गया री ! जरा जल्दी से सफाई कर, आज शाम को मेरी सासू माँ आनेवाली हैं। उनके आगे अपनी जुबान कम ही खोलना और हाँ, घर की कोई भी बात मत बताना, समझी।" मैं कुछ बोली नहीं पर सोचती रही। ऐसी क्या बात है, जो मैडम छिपाने को कह रही हैं। मैं सफाई करती रही।
शाम छह बजे बाबूजी आए। उनके साथ एक बुढ़िया थी - साफ- सुथरी, गोरी-चिट्टी । दरवाजा खोलते ही मैंने नमस्ते की। मैं समझ गई, ये मालकिन की सासू माँ हैं। सोफे पर बैठते ही उन्होंने कमरे में चारों ओर नजर घुमाई, फिर मेरी ओर देखकर बाबूजी से पूछा, “ये कौन है ?"
बाबूजी ने कहा, “ये बेचारी बंगालन लड़की है। घर के काम लिए रखी है।"
बुढ़िया बोली, “क्यों? तेरी बहू के क्या हाथ टूट गए हैं ? दो कमरे का घर भी साफ नहीं कर सकती ?"
बाबूजी घबरा गए, "ये और भी काम में हाथ बँटा देती है।"
"और क्या करती है ? क्या रसोई में भी घुसा लिया इसे ? तुमने तो धर्म भ्रष्ट कर लिया। अब मेरा भी ईमान बिगाड़ोगे क्या ? पता नहीं कौन है ये काली-कलूटी।"
मुझे बहुत बुरा लग रहा था, पर चुप ही रही । मालकिन ने चुप रहने को पहले ही कह दिया था, फिर बाबूजी भी डर रहे थे। धीरे से बोले, “रसोई में कुछ नहीं करवाते । बस सफाई करती है, कपड़े धो देती है । बेचारी बँगलादेश से आई है । "
"बँगलादेश से आई है तो मुसलमान होगी । इसे वापस छोड़ के आ, जहाँ से भी लाया है। तुझे पता नहीं, तेरा दिमाग खराब कर दिया है। लुगाई ने । हमारे मोहल्ले में जितने रिक्शेवाले हैं, उनमें जितने बँगलादेशी हैं, सारे मुसलमान। जितने हिंदू हैं, सारे बिहारी।" लगातार वो बोलती रहीं । बाबूजी बोले, “अब रात को कहाँ छोडूंगा। कल सुबह वापस भेज दूँगा। बेचारी लड़की...!"
बुढ़िया फिर बोलती रही, "बेचारी - बेचारी क्यों कह रहा है ? जितने कबाड़ी आते हैं, सब बँगलादेशी । कोई लोहे की, प्लास्टिक की चीज पड़ी रह जाए, सब उठा ले जाते हैं। पाइप को ही काट ले गए थे। तू इसे अभी छोड़कर आ ।"
बुढ़िया की बात सुनकर मुझ से चुप न रहा गया। मैंने कहा, "अम्माँजी, सुनो न ! मैं बँगलादेशी हूँ, न बंगालन और न ही कुजात हूँ।"
अम्माँजी के कान खड़े हुए, "अच्छा, तो तू नवाबजादी कौन है ? इतने बड़े बाप की बेटी है तो घरों में नौकरी क्यों करने आई है ?" मन तो कर रहा था, सब कथा सुना दूँ। मैं कुछ सोचकर चुप रह गई । पर बुढ़िया तो चुप रहनेवाली थी नहीं। बोलती रही, "अरे इसमें तो ऐंठ भी है। ऐंठ वाली नौकरानी तो टिकेगी भी नहीं । तू इसे सुबह छोड़ आना । यहाँ काम ही क्या है, जो इसके बिना पड़ा रह जाएगा।" बाबूजी बोले, "ठीक है। सुबह छोड़ आऊँगा । अब हाथ-मुँह धोओ। खाओ पियो, आराम करो। "
उस समय बात रुक गई, पर मन में तो चलती ही रही। मैं भी यहाँ कल ही तो आई थी। इनकी किसी भी हालत का मुझे पता भी नहीं था । नही और कुछ जानकारी थी। मुझे तो वर्मा एजेंसी वालों ने इन बाबूजी के साथ भेजा था। यह भी नहीं बताया था कि पगार क्या मिलेगी, काम क्या करना है।
पहले मैं जहाँ काम कर रही थी, वहाँ भी मालिक और मालकिन बात-बात पर मारते थे। कभी-कभी तो डंडे से भी पीटते थे । गाली तो हर बात पर देते थे। मैं वर्माजी से बार-बार कहती थी कि मुझे यहाँ से निकालो, इसलिए मैं फौरन इनके साथ आ गई। वर्माजी से क्या बात तय हुई, वह भी मैंने नहीं पूछा। वर्माजी एजेंसी चलाते हैं, मेरी जैसी लड़कियों को काम दिलाते हैं। मुझे उनके पास मेरे गाँव की ही एक महिला लेकर आई थी। उसने मुझे बड़ी-बड़ी बातें कहकर बहका लिया। गाँव से चार मील दूसरे गाँव में पढ़ने जाती थी। पाँचवीं पास कर चुकी थी । मैं बड़े स्कूल में पढ़ने के लिए कहीं शहर जाना चाहती थी। मेरे निर्धन माता-पिता मुझे पढ़ाना नहीं चाहते थे। मेरी तीन बहनें मुझ से बड़ी थीं। तीनों नहीं पढ़ी थीं। तीनों का विवाह भी नहीं हुआ था। मेरे पिताजी चाय के बाग में मजदूरी करते थे। तीनों बहनों को भी वहीं काम पर लगाना चाहते थे, परंतु मेरी माँ उन्हें भेजना नहीं चाहती थी। वह भी तो पहले वहीं काम कर चुकी थी । उसे वहाँ के साथी मजदूरों पर विश्वास नहीं था । विदेशी मालिकों पर तो बिल्कुल भी नहीं। मुझे रतिया (गाँव की महिला) ने यही समझाया था।
'तेरी तीन बहनें घर पड़ी हैं, तू भी यहीं पड़ी रहेगी। इनका विवाह नहीं हो सका । तेरा भी नहीं होगा। इसी गाँव में बूढ़ी होकर मर जाएगी। इस गाँव से बाहर बहुत बड़ी दुनिया है। तरह-तरह के लोग हैं, तरह-तरह के रहन-सहन । अनेक प्रकार के भोजन बनाने और खाने के तरीके। फिर तुम तो पढ़ी-लिखी हो। शहर में जाने को तुम्हारा मन नहीं करता क्या? मैं तो अनपढ़ हूँ, शहर में रहती हूँ। दो-चार साल में ही गाँव आती हूँ। अच्छे-अच्छे कपड़े पहनती हूँ । जब आती हूँ, परिवार के लिए भी कपड़े और शहर की अनेक वस्तुएँ दे जाती हूँ । यहाँ जंगल में क्या है ? वही चावल हैं, सुबह खाओ, शाम खाओ या मत खाओ।'
उसने मुझे और भी बहुत सारे सब्जबाग दिखाए। मन में लालच जगाए। मैं बहकावे में आ गई और उनके साथ दिल्ली आने को तैयार हो गई। कई दिन मुझे उन्होंने अपने घर पर रखा। जब कोई पूछ लेता, 'ये लड़की कौन है ?' तो बताती, 'हमारे गाँव की है। कहीं अच्छी सी नौकरी खोज रही हूँ। अच्छे घर की है, ऐसी-वैसी जगह थोड़े ही भेजूँगी ।' मैं उनकी बात से मन-ही-मन बहुत खुश होती। फिर एक दिन वो मुझे वर्मा एजेंसी पर ले आई। बोली, 'वर्माजी ! मैं तो इसके लिए कोई अच्छी जगह तलाश रही थी। पर चलो आप ही को सौंप रही हूँ । अब इसका ध्यान आप को ही रखना है और मेरा भी ।'
मैं फिर सोचने लगी, इन चाचीजी का ध्यान रखने का क्या मतलब है ? वर्मा अंकल इनका ध्यान कैसे रखेंगे ? तब मेरी समझ में आ ही नहीं सकता था। बहुत बाद में समझ में आया कि चाची ने मुझे वर्माजी को बेच दिया था। वर्माजी मुझे जहाँ नौकरी पर भेजते, मेरी तय पगार का कुछ हिस्सा वर्माजी को मिलता और कुछ उस कथित चाची को । ध्यान रखने का मतलब था कि उनका हिस्सा पूरा मिले, समय पर मिले और नियमित मिले।
पता तो मुझे चल गया कि मैं जाल में फँस चुकी हूँ, परंतु कुछ कह नहीं पाई। अपने घर जाने को किराया नहीं था। एक महीने मेहनत के बाद कुल हजार रुपए पगार होती। दो सौ वर्मा के, दो सौ चाची के, बाकी छह सौ भी वर्मा मुझे देते नहीं थे। हर छह महीने में मिलेंगे, यह कहते थे। तुम्हारे हिस्से के बैंक में जमा हैं। जब घर भेजना हो तो ले लेना। कल से इस नए घर में आ गई। यहाँ सिर मुँड़ाते ही ओले पड़ गए।
अगले दिन मालकिन की सासू माँ ने सुबह से फिर चिल्लाना शुरू किया, "नाश्ता करके इस काली को छोड़कर आ । तेरी बहू पे इतना भी काम नहीं होता। न बाल न बच्चे और काम ही क्या है ? तू तो नौ बजे तक काम पर चला जाता है, शाम को आता है, ये सारे दिन क्या भाड़ झोंकती है ? सारे दिन पलंग पर पड़ी टी.वी. देखती रहती है। " बाबूजी बोले, "अरी माँ, इसीलिए तो इसे ले आया । एक से दो भली । काम का काम हो जाएगा और सारे दिन अकेलापन भी नहीं रहेगा।" अम्मा कहाँ चुप रहनेवाली थीं। बोलीं, “क्या राजा रानी है ? रानी का दिल लगाने के लिए इसे लाया है। क्या इसे पगार नहीं देगा ?"
बाबूजी ने कहा, "अम्माँ! मैं आपको बाद में बताऊँगा। अभी आप नहाओ - धोओ।" मालिक ने मुझे संकेत कर दिया कि मैं वहाँ से हट जाऊँ। मैं फटाफट झाडू लेकर बाहर बरामदे में चली गई। परंतु मेरे कान और ध्यान वहीं लगा रहा। मैं सोच रही थी कि बुढ़िया तो माननेवाली है नहीं। हो सकता है, मुझे अभी वापस वर्मा एजेंसी जाना पड़ेगा।
बाबूजी ने अपनी माँ को धीरे से बताया, “अम्माँ! अपनी बहू को मत बताना। वर्मा पर मेरे दस हजार रुपए उधार थे। सालभर से चक्कर काट रहा था । न ब्याज मिल रहा था न मूल। जब मैं बहुत पीछे पड़ा तो",
"तो क्या उसने अपनी लड़की तुझे दे दी ?" अम्माँ चीखी। मैं दरवाजे के और पास आकर सुनने लगी।
"बोल, बोल, क्या किया उस कुत्ते वर्मा ने या तू जबरन उसकी लड़की उठा लाया ? चुप क्यों है ? सच बता"
बाबूजी के गले में थूक अटक गया। भर्राए गले से हल्की सी आवाज सुनाई पड़ी।
"अम्माँ ! वर्मा की लड़की नहीं है ये ।"
"फिर वर्मा का इससे क्या मतलब ?" अम्माँ की आवाज अब भी ऊँची ही थी। बाबूजी सकपका गए ।
"अम्माँ! मैं बताना नहीं चाह रहा था। वर्मा घरों में कामवाली सप्लाई करता है ।"
"और पगार? कामवाली की पगार कौन देता है ?" बाबूजी की आवाज आई, "पगार तो जिनके यहाँ काम करती हैं, वो ही देते हैं । मेरे दस हजार रुपए के बदले उसने मुझे दस महीने के लिए ये कामवाली लड़की दी है। बस काम करेगी और यहीं रहेगी। इससे पहले उसे वापस कर दूँगा तो मेरी रकम डूब जाएगी ।"
अम्माँ फिर चिल्लाई, "अच्छा! तो तू इसे खरीदकर लाया है। कल को यह बीमार हो गई, मर गई या भाग गई तो क्या होगा ?" माँ की बात सुनकर बाबूजी सचमुच घबरा गए, बोले, "भगवान् करे ऐसा न हो, मेरी तो रकम ही मारी जाएगी।"
इधर मेरे तो पाँवों के नीचे की जमीन ही खिसक गई। मेरे सिर में हथौड़े से चलने लगे। सिर चकराने लगा। मुझे बेच दिया गया है। मुझे कोई पगार नहीं मिलेगी। इस घर में मेरे साथ कितना भी अन्याय हो, मुझे यहीं रहना होगा । अम्माँ की आवाज फिर आई, "एक और बात पर तूने विचार नहीं किया नालायक ! अगर इसके माँ-बाप पुलिस में शिकायत कर दें और पुलिस इसे खोजते हुए तेरे घर छापा मारे तो तू क्या जवाब देगा ? कामवाली भी जाएगी और रकम भी। बदनामी भी होगी और सजा भी होगी।"
बाबूजी तो कहीं खो गए, गुमसुम हो गए, परंतु मुझे एक आशा की किरण दिखाई देने लगी। किसी तरह निकलने का अवसर मिल जाए तो मैं ही पुलिस में रिपोर्ट कर दूँ। वर्मा और बाबूजी दोनों जेल में चक्की पीसेंगे, परंतु न तो मुझे यह पता है कि मैं यहाँ किस कॉलोनी में हूँ ? न पुलिस थाने की जानकारी है। मन में यह भी शंका है कि पुलिसवाले मेरी बात पर भरोसा करेंगे या नहीं। कहीं मुझे पुलिसवाले ही पकड़ लें और इज्जत लूट लें तो क्या होगा ? अभी तक तो मैं सुरक्षित हूँ। अंत में किसी मौके की तलाश में रहना और तब तक चुपचाप इसी घर में काम करते रहने में ही मैंने अपनी भलाई समझी। यह भी सावधानी रखना जरूरी था कि मैंने उनकी बात सुन ली है। मैं चुपचाप अपने काम में लग गई। क्रोध तो मुझे चाची पर आ रहा था, जो बहकाकर मुझे यहाँ तक लाई ।
बाबूजी डर तो गए थे। वर्मा के पास जाकर उन्होंने अपनी रकम वापस माँगी और मुझे वापस करने की बात रखी। पर वर्मा ने इनकार कर दिया । यह अनुमान मैंने बाबूजी की इस बात से लगाया, क्योंकि वो अम्माँ से कह रहे थे, “क्या करें, बिका हुआ माल वापस नहीं होता।"
अम्माँ बोली, "कोई बात नहीं, किसी और को तो बेचा जा सकता है।" बाबूजी घबराए, "यह काम मैं नहीं कर सकता। हम फँस जाएँगे। किसी तरह दस महीने काट लें और फिर वर्मा जाने"
अम्माँ ने मुझे बुलाया, "ऐ छोरी ! इधर आ। सच-सच बता, तू कौन है, कहाँ की है ? वर्मा के पास कैसे पहुँची ?"
मुझे लगा सहानुभूति से, डर से, प्यार से या जैसे भी अम्माँ पूछ रही है तो सारी बात बता देने में ही भलाई है।
"अम्माँजी ! मैं बँगलादेशी नहीं हूँ, असम की हूँ। नीच जाति की नहीं हूँ, ठाकुर हूँ। मेरी तीन बड़ी बहनें हैं, भाई नहीं है । पाँचवीं कक्षा तक पढ़ी हूँ । कमाने के लिए गाँव की एक चाची के साथ दिल्ली आ गई। उसने मुझे वर्मा के यहाँ मिलवाया। वर्मा के पास मेरे जैसी तीस-चालीस लड़कियाँ और बड़ी उम्र की औरतें हैं । वह हमें घरेलू कामवाली बनाकर काम के लिए भेजता है। कल ही मैं बाबूजी के साथ आई हूँ। जो काम आप बताएँगी, मैं वही करूँगी। मेरी पगार मुझे एक हजार रुपए मासिक बताई गई है। खाना और कपड़ा जो आप देंगे, वही लूँगी।" अम्माँ ने टोका, "लेकिन पगार तो तुझे मिलेगी नहीं, वो तो तेरा वर्मा पहले ही ले चुका है।” मैंने धीरज धरकर बात बढ़ाई, “वो देखी जाएगी। आपके घर मैं सुरक्षित तो हूँ । मालकिन और मालिक आप की इज्जत करते हैं। मैं भी आपकी पोती की तरह हूँ । आपकी सेवा करूँगी और आपका आशीर्वाद मिलेगा तो सब ठीक हो जाएगा।"
अम्माँ को मैंने पहली नजर में बहुत कठोर और क्रूर समझा था, पर मेरी कहानी से अम्माँ की सहानुभूति जाग गई । अम्माँ ने गाँव और गरीबी देखी थी। अम्माँ बोली, “क्या नाम तेरा कम्मो ! मैंने भी अपनी पाँच बेटी ब्याही हैं। मेरा पोता-पोती नहीं हुआ। तूने मुझे दादी कहा है तो मैं पोती की पूरी मदद करूँगी। अपनी चाची से बात कर, तू अपने गाँव जाना चाहे तो किराया मैं दूँगी । अगर रहना चाहे तो आराम से रह । कोई काम-काजी जरूरतमंद लड़का मिल जाए तो तेरी शादी करवा दूँगी। कई संस्थाएँ गरीब कन्याओं के सामूहिक विवाह कराती हैं। उसी में तेरा भी ब्याह अच्छे से संपन्न हो जाएगा।"
"मैं बोली, “जब मुझे दादी मिल गई, परिवार मिल गया तो यहीं आपकी सेवा करूँगी, अपने गाँव कुछ बनकर ही जाऊँगी।"