काली कौमुदी (कहानी) : एस. के. पोट्टेक्काट
Kali Kaumudi (Malayalam Story in Hindi) : S. K. Pottekkatt
"अरे, जरा इन शख्सों को देख लें, जिन्हें हम हब्शी कहते हैं। इनका दिल सिर के भीतर होता है और बुद्धि छाती के अन्दर । ये मन में सहज ही उठने वाले विकारों के गुलाम हैं और स्वार्थ-लोलुप होते हैं। हंसने की सिद्धि के अलावा इनमें कोई भी मानवीय लक्षण नहीं। दया, कृतज्ञता, प्रेम आदि मानवीय कोमल भावनाएं तो इन बलिष्ठ लोगों में जरा भी नहीं होतीं । खानापीना, मैथुन और सोना, बस ये ही इनकी प्रवृत्तियां होती हैं।"
मोम्बासा के एक भारतीय दारोगा ने हब्शियों के संबंध में ऐसी ही संक्षिप्त बातें मुझे बतायी थीं। अफ्रीका के कई महीनों के निकट परिचय से मुझे भी यही महसूस हुआ था कि बातें सोलहों आने सच थीं। मुझे एक दफ़ा मध्य अफ्रीका के 'टुक्कुयु' नामक जगह के जेलखाने में जाने का मौका मिला था । वहाँ के जेल का जेलर मेरा एक मित्र था।
वहां चारों ओर तारों का घेरा बनाकर जेल बनाया गया था । कई सिपाही पहरे पर तैनात थे। जेल के अहाते में एक पेड़ के नीचे एक हब्शिन चिन्तामग्न बैठी थी। उसे देखते ही मुझे लगा था कि मानो वह अशोक-वृक्ष के नीचे बैठी सीता हो । उस कैदी की ओर सहज ही मेरा ध्यान केन्द्रित हो गया था ?
वह लम्बे कद की थी। उसका सिर मुड़ा हुआ था। वह काली-कलूटी और मोटी थी । वह हब्शियों की दृष्टि से भी कोई सुन्दर नहीं थी। वह युवती जरूर थी। गरम-ताजा युवती भी हम उसे कह सकते थे। उसकी काली-कजरारी आँखों की वासनामय दूर दृष्टियों ने ही मेरा ध्यान आकृष्ट किया था। उसकी निगाहें जेल के घेरे के उस पार के झुरमुटों में कहीं किसी की तलाश कर रही थीं। उसकी निगाहों में जैसे काली कौमुदी छिटक रही थी।
मैंने जेलर से उसके बारे में पूछा, तो उसने हौले-हौले उस कैदी का पूरा इतिहास मुझे बता दिया। उसकी पूरी दास्तान सुनने के बाद मुझे लगा कि मोम्बासा के दारोगा ने हब्शियों के बारे में जो बताया था, उसमें कुछ हेर-फेर करने की जरूरत थी।
उस बंदी हब्शिन की दास्तान मैं यहाँ लिख रहा हूँ।
उसका नाम 'ममाक्का' था। अपने पति को क़त्ल करने के जुर्म में उसे लंबी अवधि की सजा मिली थी। वह बुक्कुवा क्षेत्र के मुखिया की बेटी थी।
मुखिया की दुलारी बेटी होने के नाते उस क्षेत्र के सभी लोगों का आदरसम्मान उसे हासिल था ।
एक दिन फटा-पुराना मोजा पुरानी खाकी टोपी और लाल लुंगी पहने एक नौजवान बुक्कुवा में आया। उसके हाथ में एक देहाती वाद्य-यंत्र था, जिसके तारों को उँगली से दबाकर वह 'बू-क्डूंग-'बू-क्डूं' का स्वर निकाल रहा था। साथ ही वह पोपी शराब, झुरमुटों और औरतों की सृष्टि करने वाले खुदा के महत्त्व की बखान में गला फाड़कर गीत गा रहा था। गाते-बजाते वह नौजवान एक घर के आंगन में सीधे घुस गया। वहां आग जल रही थी और उसमें चूहों और कंदाओं को भूनकर घर के सदस्य खा रहे थे। उन्होंने भोजन के समय पहुंचने वाले उस नौजवान का मेहमान की तरह बड़े आदर के साथ स्वागत किया । उन्होंने पोंपी शराब में भिगोयी छालें और भूने हुए चूहे खाने को दिये।
उन्होंने मेहमान की दास्तान बड़े ताज्जुब के साथ सुनी। उसका नाम मनयांबा था। वह रोडेशिया का निवासी था। वह फौज में भर्ती हो गया था। फिर फौज से निकाल दिये जाने के बाद उसने कई ‘मुसुंगु' (गोरे लोगों) के यहाँ 'टोट्टो' (नौकर) की हैसियत से काम किया था।
"जरा मेरा यह मोजा देखें," उसने दायें पैर के नीले रंग के मोजे की ओर इशारा कर बताया, "इसे मुझे तोसन 'ब्वाना' (मालिक) ने दिया है।" (उसने यह नहीं बताया कि उसने उसकी चोरी की थी।) फिर बायें पैर के सफ़ेद मोजे को जरा ऊपर की तरफ खींचकर उसने फर्माया, "इसे मुझे 'सिड्गासिडगा ब्वाना' (भारतीय सिख मालिक) ने भेंट की है।"
जंगली बुढ़ियां, खूबसूरत युवतियाँ और नाक में उँगली डालकर घूमने वाले छोकरे अचरज और आदर के साथ उस आगंतुक को घेरकर खड़े हो गये । उनके लिए एक और बड़ा अचंभा तो अभी आने वाला ही था।
मनयांबा ने अपनी जेब से पुलिस की एक सीटी निकाली और उसे अपने मुंह में डालकर जोर से बजाया। सीटी की आवाज जंगलियों के कानों में गुदगुदी पैदा कर जंगल के कोने-कोने में मुखरित हो उठी। ऐसी विचित्र आवाज उन्होंने पहले कभी नहीं सुनी थी। हब्शिनों ने बाहर झांककर देखा । आसपास झोपड़ियों से भी हब्शी उस आवाज को सुनकर उत्सुकता से दौड़कर वहां आ पहुंचे।
मनयांबा ने एक बार फिर सीटी बजायी, काफ़ी लम्बी। अब तक आसपास की झोपड़ियों से बच्चे-बूढ़े सभी वहाँ आकर इकट्ठे हो गये थे और मनयांबा का मेजबान बूक्काना उनसे जरा हटकर खड़ा हो गया था। उसने जोर से चिल्लाकर कहा, “मनयांबा की सीटी पर नाचने के लिए सब लोग इधर आ जाओ!"
आग के चारों ओर हब्शी मर्द-औरतें खड़ी हो गयीं। मनयांबा पिप्पि–प्पी–पि प्पि प्पी सीटी बजाने लगा और हब्शी कुत्तों की तरह चिल्लाचिल्लाकर नाचने लगे।
उसी दिन से मनयांबा वहाँ का एक विशिष्ट मेहमान बन गया ।
मनयांबा एक बड़ा ही आलसी डरपोक नौजवान था। वह झुरमुट के अंदर घुसकर हरी घास पर लेट जाता । वह हमेशा अपना 'बू-क्डंग' बाजा या सीटी बजाता रहता । इस तरह अपना समय काटता। हब्शियों के लिए वह एक आराध्य बन गया था । शादीशुदा औरतें और कुंवारी लड़कियां लुक-छिपकर जंगल में उसे ढूंढ़कर उसके पास पहुँच जाती।
इस बीच गाँव के मुखिये की बेटी ममाक्का की शादी तय हो गयी। उस इलाके में इस विवाहोत्सव से उल्लास छा गया । बीस मील दूर स्थित ब्वाक्का नामक एक गांव के मुखिये कच्चासु के साथ ममाक्का की शादी हुई। पन्द्रह गायें और तीस बकरियां ममाक्का के पिता को लड़की के मूल्य के रूप में मिला । शराब, भोज और नाच-गान तीन दिन तक चलते रहे । फिर कच्चासु और उसके आदमी ममाक्का को अपने साथ ब्वाक्का ले गये।
कच्चासु को अपनी बीवी बहुत पसंद आयी । वह अच्छे स्वभाव की हृष्टपूष्ट लडकी थी। जंगल की खेती में वह उससे खुब मेहनत करवा सकता था। मगर फिलहाल उसने अपनी खूबसूरत बीवी को झोंपड़ी से बाहर निकालना ठीक नहीं समझा। पर कच्चासु की बदकिस्मती कि उसकी बीवी ने जबसे उसकी झोंपड़ी में पैर रखे थे, एकदम चुप्पी साध ली थी। उसने खाना-पीना भी छोड़ दिया था और बड़ी बेचैन दिखायी देती थी। पूछने पर किसी को वह कुछ बताती भी नहीं थी । पहाड़ के देवता की काठ की मूर्ति की तरह वह दिनरात चुपचाप बैठी रहती थी।
इससे कच्चासु बड़ा परेशान हो उठा। पन्द्रह गायें और तीस बकरियाँ देकर उसने ममाक्का को प्राप्त किया था। उसने ओझा-वैद्य को बुलाकर ममाक्का को दिखाया। ओझा-वैद्य ने भूत झाड़ने की पूरी कोशिश की। मगर कुछ लाभ नहीं हुआ । निद्रा-रोगी की तरह ममाक्का दिन-दिन कमजोर और दुबली होती गयी।
आखिर कच्चासु ने 'शौरियामूँगु' (खुदा की मर्जी यही होगी), सोचकर मन मारकर बैठ गया।
यों दिन गुजरते गये। इस बीच ब्वाक्का गाँव के नजदीक के पहाड़ की तराई के 'मट्टांबी' इलाके में एक आदमखोर शेर के बारे में खबर फैल गयी थी। मट्टांबी के सन्देश वाहक ढोल बजाने वाले कुप्पाप्पु को शेर ने मार डाला था । काने टुक्कुटुक्कु को भी शेर ने फाड़ डाला था। रात में जहाँ देखो वहीं हल्ला-गुल्ला होते और मशाल जलाकर लोक भागते-दौड़ते दिखायी देते या चाकू और भाला लिये झोंपड़ियों के सामने पहरा देते दिखायी देते ।
एक रात ब्वाक्का गांव में यह ख़बर फैलते ही कि मुखिये, मनाक्का के पति कच्चासु को आदमखोर शेर ने नदी के किनारे मार डाला था।
लोगों ने कच्चासु की खून से सनी लाश को लाकर झोंपड़ी के अंदर लिटा दिया। उसके शरीर पर कई घाव थे।
आदमखोर ने गांव के मुखिये को मार डाला था, यह खबर राजधानी में पहुँची, तो जाँच करने और आदमखोर को मार डालने के लिए डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर ने एक एशियाई दारोगा के साथ छः हथियारबंद 'अस्कारियों' (सिपाहियों) को ब्वाक्का गाँव में भेजा।
एशियाई दारोगा मिस्टर शेखर एक मलयाली था। उसने उन जगहों की जांच की, जहाँ-जहाँ शेर ने आदमियों को मारा था अन्त में वह नदी-तट पर पहुंचा, जहाँ शेर ने कच्चासु को मारा था । कच्चासु की लाश जिस जगह मिली थी, वहाँ शेर के पांवों के निशान थे। शेखर ने बड़े ध्यान से उन निशानों की जाँच की। वे शेर के पाँवों के ही निशान थे। फिर शेखर निशानों को देखते चला, तो निशान नदी के पानी के पास पहुंचकर अदृश्य हो गये। वहाँ और किसी प्राणी के पद-चिह्न नहीं थे।
"शेर कच्चासु को मारकर कहाँ चला गया ? क्या वह नदी में कूद पड़ा था !" शेखर के मन में यह सवाल उठा।
शेखर ने काफ़ी देर तक सोच-विचार किया, तो उसे कुछ शक हो गया। फिर वह कच्चासु की झोंपड़ी पर पहुंचा और उसने कच्चासु के भाइयों को बुलाकर उनसे पूछ-ताछ की।
भाइयों को जो-कुछ मालूम था, उन्होंने सब बता दिया। आखिर शेखर ने पूछा, "क्या झोपड़ी में और भी कोई है ?"
"नहीं । कच्चासु की बीवी, उसी रात यहाँ से चली गयी थी जिस रात उनको शेर ने मार डाला था।"
"वह कहाँ गयी ?"
"हमें पता नहीं । शायद वह अपने मां-बाप के यहाँ गयी हो।"
"तुम लोगों ने उसका पता नहीं लगाया ?"
"नहीं । वह एक गूंगी लड़की थी। वह जितने दिन यहाँ रही एक बात भी नहीं बोली।"
शेखर और अस्कारी उस रात गांव में ही रुक गये। शेखर को रात-भर नींद नहीं आयी । उनकी खोपड़ी को कई शंकाएँ परेशान कर रही थीं।
शेखर ने तड़के ही उठकर अस्कारियों को पुकारकर जगा दिया और उनको आदेश दिया, "हमें अभी बुक्कुवा गाँव के लिए रवाना होना है।"
बुक्कुवा जाकर कच्चासु की बीवी से भी पूछ-ताछ करने की गरज से ही शेखर वहां जा रहा था। शेखर को उस पर शक हो रहा था, क्योंकि वह अपने पति की मृत्यु के बाद एक दिन भी नहीं ठहरी थी?
रात होने के पूर्व ही वह बुक्कुवा पहुँच जाना चाहता था, क्योंकि रास्ते में अगर उसे कहीं रात में रुक जाना पड़ता, तो वहाँ के लोग भेरी बजाकर दारोगा के बुक्कुवा गाँव पहुँचने जाने की खबर दे देते। तब यह सम्भव था कि यह खबर पाकर ममाक्का कहीं छिप जाती।
राह दिखाने के लिए दारोगा शेखर कच्चासु के एक भाई को अपने साथ लेकर नदी पार कर जंगल के रास्ते से बुक्कुवा की ओर रवाना हुआ।
हाथियों, काले बाघों, भैंसों आदि जंगली हिंस्र पशुओं से भरे हुए अंधकारमय जंगलों और तराइयों को पारकर पुलिस-दल शाम होते-होते बक्कवा के नज़दीक पहुँच गया। तब अस्कारियों को एक जगह ठहराकर शेखर कच्चासु के भाई के साथ गाँव में घुसा। तभी उसे पगडंडी के पास ही एक झुरमुट के भीतर से सीटी बजने की आवाज़ सुनायी पड़ी, तो चकित रह गया कि यहां पुलिस की सीटी बजाने वाला कहाँ से आ गया ? जंगलियों के इस इलाके में पुलिस कहाँ से आ गयी ? शेखर ने झुरमुट के पास जाकर, झाँककर देखा ।
झुरमुट के अन्दर पैण्ट पहने एक हब्शी के साथ एक युवती घास पर लेटी हुई थी। हब्शी के मुंह में एक पुलिस की सीटी चमक रही थी।
"कूजा हाप्पा (इधर आओ) !" शेखर गरज उठा।
दोनों झट उठ खड़े हुए । तभी शेखर ने बगल से बिगुल उठाकर जोर से बजाया । उसके सिपाही तुरन्त दौड़कर उसके पास आ गये ।
"देखिए ! वही ममाक्का है !" युवती की ओर इशारा कर कच्चासु का भाई चिल्ला उठा।
"ममाक्का कौन ?" शेखर ने पूछा। "कच्चासु भैया की बीवी !"
"ओ ! वह यही औरत है ? और यह हब्शी कौन है ?"
"मुझे नहीं मालूम ।"
तभी शेखर ने देखा कि वह हब्शी भागने की कोशिश कर रहा था, तो उसने सिपाहियों को आदेश दिया कि वे उसे रस्सी से बाँध लें।
यों मनयांबा हिरासत में ले लिया गया ।
दस मिनट के अन्दर ही बुक्कुवा गाँव में शोर मच गया और सभी हब्शी वहाँ आ पहुँचे । वे पुलिस को देखकर बदहवास हो उठे। औरतें जोर-जोर से चिल्ला उठीं । कुत्ते भौंकने लगे।
शेखर ने मुखिया को बुलाकर उससे पूछा, “यह औरत कौन है ?"
"मेरी बेटी है।"
"यह कच्चासु की बीवी न ?"
"न्ड़ियोब्बाना (हाँ, हुजूर) !"
"और यह नौजवान कौन है ?"
"वह हमारा मेहमान है। दूर से आया है एक गायक है। यहां उसने अपना डेरा डाला है।"
“कहाँ ?"
"उसके लिए हमने वह छोटी-सी झोंपड़ी बनवा दी है।" कहकर मुखिया ने झुरमुटों के बीच खड़ी एक छोटी-सी झोंपड़ी को दिखाया। इशारा करके बताया।
"चलो, हम उस झोंपड़ी की तलाशी लेंगे।"
शेखर झोंपड़ी की ओर चल पड़ा।
शेखर ने झोंपड़ी में घुसकर तलाशी शुरू की। लेकिन वहाँ उस 'बूमक्डंग' बाजे के अलावा और कोई चीज नजर नहीं आयी। हाँ, उसने देखा, एक कोने में सूखी घास का एक ढेर पड़ा था। उसने घास हटाकर देखा, तो वह सन्न रह गया। वहाँ एक बड़ा शेर मुंह खोले पड़ा था। लेकिन जब शेर में कोई हरकत नहीं हुई, तो वह समझ गया कि वह जिन्दा शेर नहीं, महज़ शेर की खाल थी।
सिपाहियों ने उसे उठाकर शेखर को दिखाया। शेखर ने उसके एक-एक अंग को ध्यान से देखा। उसके आगे के पाँवों के नुकीले नखों में खून के निशान थे।
तब शेखर ने मनयांबा से पूछा, "क्यों कच्चासु को मारने वाला शेर तू ही है ? इस तरह तूने कितने लोगों की जाने ली हैं ? फौरन बता ?"
मनयांबा ने चूहे की तरह दुबककर ममाक्का के चेहरे की तरफ देखा।
फिर तो वहाँ एक ऐसा दृश्य दिखाई पड़ा, जिसकी शेखर ने कल्पना भी नहीं की थी।
ममाक्का एक शेरनी की तरह दहाड़ उठी, “कच्चासु की जान लेने वाली शेरनी मैं हूँ, मनयांबा नहीं !"
शेखर को सहसा उसकी बात पर यकीन नहीं हुआ। लेकिन ममाक्का ने पूरी घटना बिस्तार से बतायी, तो शेखर चकित होकर रह गया ।
शादी के बाद ब्वाक्का पहुँचकर ममाक्का को लगा कि वह मनयांबा से बिछुड़कर जीवित नहीं रह सकती। कच्चासु उसे एकदम पसन्द न आया था। वह रात-दिन मनयांबा के गानों और सीटी की धुनों को याद कर घुलने लगी। उसने खाना-पीना भी छोड़ दिया।
जब ओझा-वैद्य भी उसे ठीक न कर सके, तो कच्चासु ने अपना माथा ठोंककर सब्र कर लिया और अपनी बीवी को उसके हाल पर छोड़कर अपने काम में लग गया।
कच्चासु एक ओझा था। मट्टांबी के नरमेधों के लिए जिम्मेदार आदमखोर शेर दरअसल वही था । आधी-आधी रात में वह शेर की खाल ओढ़कर और कमर में एक कुठार ठूँसकर बाहर निकल जाता। ममाक्का यह देखकर सिहर जाती। उस रात मट्टांबी का कोई हब्शी आदमखोर शेर का शिकार हो जाता । दूसरे दिन लोग यह खबर सुनते कि एक हब्शी को आदमखोर शेर ने मार डाला।
कच्चासु झोंपड़ी की छत पर सूखी घासों से ढंककर वह शेर की खाल छिपाकर रखता था।
ममाक्का समझ गयी थी कि वह तब तक आजाद होकर मनयांबा के पास नहीं जा सकती, जब तक कच्चास जीवित रहेगा। एक शाम वह शेर की खाल ओढ़कर नदी-तट की ओर चल पड़ी। उसे मालूम था कि उस समय कच्चासु नदी-तट पर बाओबाब पेड़ के नीचे नियमित रूप से प्रेत-पूजा करता था।
बैठकर पूजा में तल्लीन कच्चासु ने आहट सुनकर, सिर उठाकर एक शेर को देखा, तो डर के मारे चिल्लाते हुए भागने को हुआ लेकिन औंधे मुंह गिर पड़ा। तब ममाक्का ने उस पर हमला कर दिया और शेर के नखों से उसे नोचकर कुठार से मार-मारकर उसकी हत्या कर दी।
कच्चासु का वध करने के बाद वह सिंहनी रेतीली भूमि पर चलकर तट पर गयी । वहां गांव की एक नाव खड़ी थी। वह झट नाव को पानी में उतार कर उस पर चढ़ गयी और नदी पार कर जंगल के रास्ते से बुक्कुवा गांव आधी रात में जा पहुंची। फिर शेर की खाल एक गुफा में छिपाकर सीधे मनयांबा की झोपड़ी के दरवाजे पर जाकर उसने उसको पुकारा।
उस रात वह उसकी झोपड़ी में ही रही। उसने मनयांबा को बताया कि कच्चासु मुखिये को आदमखोर शेर ने मार डाला था।
अगले दिन सुबह वह अपने मां-बाप के यहाँ गयी।
दारोगा उसको रस्सी से बँधवा कर राजधानी की अदालत में हाज़िर करने को चल पड़ा।
अदालत ने उससे पूछा, "तुम शेर की खाल क्यों बुक्कुवा से ढोकर ले गयी थी?"
बिना किसी झिझक के उसने जवाब दिया-"मेरे महबूब मनयांबा पर जो भी औरत डोरा डालने की कोशिश करती, उसकी कच्चासु की ही तरह हत्या करने के लिए।
यों ममाक्का की गिरफ्तारी और सजा से एक नये आदमखोर शेर के खतरे से बुक्कुवा गाँव की औरत की रक्षा हो गयी।
जेलर ने इस दास्तान को यों खतम कर दिया, "भूत की तरह चुपचाप रहने वाली इस युवती को जगाने की एक ही तरकीब है। क्या तुम देखना चाहोगे?"
जेलर ने अपनी जेब से सीटी निकाली और उसे हौले से बजाया। सीटी के बजते ही ममाक्का चौंक उठी और उसकी आँखें पूरी खुल गयीं। फिर वह एक उन्मादिनी की तरह सिर हिलाकर अट्टहास कर उठी।
"मामक्का को कितने सालों का दंड मिला है ?' मैंने जेलर से पूछा।
"दस वर्ष की," फिर चुपचाप बैठी झुरमुटों की ओर एकटक देखती, मोहब्बत की मारी उस काली कौमुदी की ओर देखते हुए जेलर ने कहा, "मगर मुझे लगता है कि यह औरत एक साल तक भी जिन्दा नहीं रहेगी। विरह-व्यथा से गलकर यह जरूर मर जाएगी।"