काली बेगम : आनंद प्रकाश जैन
Kali Begum : Anand Prakash Jain
सन् 1763 की छठी नवंबर को पटना का किला भी अंग्रेजों ने मीर कासिम के हाथों से छीन लिया। फिर उन्होंने रोहतासगढ़, दाऊदनगर, सरसराम और नदी कर्मनाशा तक उसका पीछा किया। बंगाल का वह समृद्धिशाली नवाब कटवा और उधवानाला के युद्धों में अपनी धन-संपत्ति, साथियों का विश्वास और अपने देशवासियों की स्वाधीनता गँवाकर फिर किसी स्थान पर, अपने पैरों तले मिट्टी जमाने के लिए भटकने निकल पड़ा था ।
उस समय अवधपति शुजाउद्दौला ही एक ऐसी शक्ति थी, जिसके नीचे इस प्रकार भटकनेवालों को ठौर दिखाई देती थी। इन ठौर पाने वालों में स्वयं दिल्ली का बादशाह शाह आलम भी था। वह लखनऊ शुजाउद्दौला दिल्लीश्वर का वजीर कहलाता था ।
मीर कासिम और शुजाउद्दौला में व्यवहार चला और शुजाउद्दौला ने कुरान की जिल्द पर लिखकर अपनी प्रतिज्ञा भेजी कि मीर कासिम उसका भाई है। वह उसे आश्रय देगा, उसकी सहायता करेगा, और समय आया तो उसके लिए अपना रक्त भी बहा देगा। चारों ओर से विश्वासघात की क्रूर मार से पिटे मीर कासिम ने इस पर विश्वास किया और एक बार फिर बंगाल को अंग्रेजों से मुक्त कराने का स्वप्न लिये वह शुजाउद्दौला की फैली हुई हथेली के नीचे आ गया।
इस उत्साह के साथ आमंत्रित अतिथि का अग्रिम स्वागत करने के लिए शुजाउद्दौला लखनऊ से इलाहाबाद आया। कुछ बहुमूल्य रत्नाभूषण एक तश्तरी में सजाकर मीर कासिम ने मेजबान की अभ्यर्थना की। शुजाउद्दौला ने उन रत्नों को एक हाथ से उठाकर क्षण भर के लिए निरखा-परखा और फिर वापस तश्तरी में डालता हुआ बोला, “इसे कहते हैं इत्तफाक ! बंगाल के नवाब के लिए हम लखनऊ से जिस तोहफे को लाए हैं, यह तोहफा उस पर चार चाँद लगा देगा।"
यह ऐसा समय था, जब एक-दूसरे की एक-एक हरकत से एक-एक भेंट से उसके मन के भावों को पढ़ने की आवश्यकता थी । सर्वत्र राजनीति का चक्र अपनी समस्त कुटिलताओं के साथ चल रहा था। शुजाउद्दौला उसके लिए क्या तोहफा लखनऊ से लाया है, यह जानने के लिए मीर कासिम व्यग्र हो उठा । फिर भी मन की उत्सुकता छिपाते हुए बोला, "क्यों न हो! हसीन लखनऊ का तोहफा भी हसीन नहीं होगा तो हुस्न और कहाँ होगा?"
लेकिन रफ्ता रफ्ता रात अपनी काली चादर समेटे चली आई और शुजा ने अपना तोहफा पेश नहीं किया। मीर कासिम मन ही मन डरने लगा। कहीं यह भी एक भाग्य का व्यंग्य हुआ तो ?
नवाबों की रातें कभी बदमजा नहीं गुजरतीं। अब तो वैसे भी दो नवाब एक जगह ही आकर मिल गए थे। एक-दूसरे की अगवानी में एक सम्मिलित महफिल जमी। पहले लखनऊ के खूबसूरत भांडों ने मीर कासिम की शान और खुशामद में कसीदे पढ़े, फिर कुछ गुलामों ने बीच महफिल जरदोजी के काम का एक नफीस पिटा हुआ कालीन जाकर खड़ा किया। कालीन बहुमूल्य था । शुजा ने मीर कासिम की ओर दो उँगलियों से आदाब अर्ज करते हुए कहा, "यह है लखनऊ का तोहफा ।"
इस तोहफे को देखकर मीर कासिम का अंतर जलभुनकर कबाब हो गया। फिर भी उसने अपने भावों पर संयम रखा और प्रकट में हँसते हुए बोला, “हसीन है! लखनऊ के नवाब की शान को दोबाला करता है। "
"आप तो जर्रानवाजी करते हैं, शुजा ने कहा, "यह कहाँ है, हुस्न तो इसके भीतर है।" यह कहकर उसने इशारा किया और गुलामों ने कालीन का सिरा पकड़कर खींचना शुरू किया। लिपटा खड़ा हुआ कालीन जमीन से एक बित्ता ऊपर उठा और खुलता चला गया। फिर मीर कासिम की आश्चर्य से फटी आँखों ने देखा कि कालीन गुलामों के हाथों में ही रह गया। और जहाँ वह लिपटा हुआ खड़ा था, वही कयामत का शृंगार किए साक्षात् सौंदर्य किसी हसीन नाजनीन के पैरों की उँगलियों पर थिरक- थिरककर नाचता हुआ घूम रहा था । बाई ओर से तबले पर थाप पड़ी और दो तोड़ नाचकर मीर कासिम की ओर हाथ बढ़ाए वह सुंदरी एकदम थम गई। धीरे से उसने माथे तक हाथ उठाया और मीर कासिम को अभिवादन किया।
"वल्लाह!" मीर कासिम का बदन हिल गया, “माशाअल्लाह, क्या अंदाज है !"
"यह सब आपकी नजर है, " शुजा ने दोबारा दो उँगलियों को ऊपर उठाते हुए कहा, "यह लखनऊ की रोशनी है, जिसे हम इलाहाबाद उठा लाए हैं।" फिर वह नर्तकी की ओर संकेत करके बोला, "रोशन, हमारे सम्मानित मेहमान तुम्हारा सितार सुनेंगे।"
अनिंद्य सुंदरी ने आज्ञा पालन करने के अंदाज में सिर झुकाया और मीर कासिम ने देखा कि साजिंदों के पास बैठते ही फूलों की रस्सी के सहारे बँधा एक सितार हवा में तैरता हुआ आया और रोशन के सामने रख दिया गया। शुजा ने खुशी से तालियाँ बजाई और मीर कासिम ने उसका साथ दिया।
सितार की धुन उठनी शुरू हुई। हवा में तैरते स्वरों ने जैसे साकार रूप धारण कर लिया और नन्हीं- नन्हीं पायलों की रुनझुन वातावरण में मुखरित होने लगी। मीर कासिम को लगा कि वक्त के छोटे-छोटे पैर चारों दिशाओं में थिरकने लगे हैं और अंतरिक्ष में जाकर विलीन हो गए हैं। उन पैरों में मेहंदी लगी हुई है, जो रह-रहकर कुमकुमों की रोशनी में चमक जाती है। सहसा वायु-पथ में असंख्य सफेद-सफेद नुकीले काँटे खड़े हो जाते हैं और वक्त के ये पैर उन पर भी नाचते चले जाते हैं। कुछ ही देर में जहाँ मेहंदी की बिंदियों की खूबसूरत कतारें बनी हुई थीं, वहीं से रक्त की बूँदों का आकार बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है...
मीर कासिम का स्वप्न अचानक टूट गया। सितार बंद हो गया था, मीर की आँखों में खून की बूँदों का चिह्न पानी के कतरों के रूप में रह गया था और शुजा कह रहा था, "लखनऊ में एक भी ऐसा शख्स नहीं, जो इस लड़की का सितार सुनकर रो न पड़ता हो। लोग लखनऊ को नजाकत का शहर कहते हैं। हम देखना चाहते थे कि बंगाल की आँखों में कितना दम हैं। और हमने वह भी देख लिया। "रोशन!" शुजा ने पुकारा और मीर कासिम के दिए हुए समस्त अलंकार पास ही खड़े गुलाम के हाथों में थमी तश्तरी से लेकर उसने रोशन के ऊपर वारफेर कर डाले, "यह तुम्हारा ईनाम है हम तुम्हें बंगाल की नजर करते हैं। "
अलंकार अपनी मुट्ठी में लेकर रोशन ने सिर झुकाकर मुट्ठी को माथे से लगा लिया। इलाहाबाद में ही शरणागत नवाब की रंगीन रात का प्रबंध किया गया। चारों ओर इत्र- फुलेल की खुशबू महक रही थी, परदों के पीछे अविराम मधुर संगीत बज रहा था, शीशों के गोलों के पीछे कुमकुमों की रोशनी मचल रही थी। इस वैभव की छाया के बीच बंगाल का निर्वासित नवाब अपने तोहफे के सज-धजकर पेश होने का इंतजार कर रहा था।
कुछ ही देर में उसके बेकरार इंतजार में दरवाजे का परदा हिला और उसके पीछे से पायलों की ध्वनि से वातावरण झंकृत हो उठा। मीर कासिम के होंठ किसी अलक्ष्य भाव से सिकुड़ गए, वह मुड़ा और सागर की रंगीन सुरा अपने जाम में उड़ेलकर उसे भर लिया। रोशन जब अंदर आई तो उसने देखा कि लालपरी मीर कासिम के गले से नीचे उतर रही है। रोशन के देखते-देखते उसने दूसरा जाम भी भर लिया और गटागट पी गया।
आँखों पर पड़े दुपट्टे के पार से रोशन को दिखाई दे रहा था - चाँदी का एक पलंग, जिस पर फूलों की लड़ियों की चादर सजी थी, दूसरी ओर मेवों की तश्तरियाँ, तीसरी तरफ एक कदे आदम शीशा लगा था और सामने थे पारदर्शक मीना और सागर, जिनमें से अंगूरी झाँक रही थी ।
एक हाथ में जाम और एक में सागर पकड़े बंगाल के बिगड़े हुए नवाब ने बड़े अंदाज से झुककर कहा, "खुशामदीद !"
रोशन के कोमल स्वर होंठों पर थिरके, “कनीज गुलाम है।"
मीर कासिम हँस दिया, "तुम्हें देखा तो एक और नाजनीन याद आ गई। उसका नाम था जहाँआरा। हमने उसे लखनऊ से कलकत्ते बुलवाया था। दो साल हो गए। तुम्हारी और उसकी सूरत बहुत मिलती- जुलती है। क्या तुम्हारा उससे कोई रिश्ता है?"
कुछ क्षण रोशन खामोश रही। फिर संतप्त स्वर में बोली, "वह मेरी बहन है। अब वह नवाब साहब के हरम में है और अपने दिन काट रही है। "
"बहुत खूब!" मीर कासिम ने बिना प्रभावित हुए भावनाशून्य होकर कहा, "अपना दुपट्टा तो हटाओ, रोशन! शायद तुम्हें खुद नहीं पता कि तुम कितनी हसीन हो । दुपट्टा तुमसे ज्यादा तो हसीन नहीं ।"
रोशन ने झुका हुआ सिर ऊपर उठाया और उसका रेशमी दुपट्टा कंधे से खिसककर जमीन पर बिछे कालीन पर गिर पड़ा। मीर कासिम ने सागर और मीना को एक तिपाई पर रखा और बोला, "लेकिन जहाँआरा तुमसे कहीं अधिक हसीन थी । "
रोशन चौंकी और उसने तड़पकर मीर कासिम की ओर देखा । मीर कासिम ने यह अंतिम वाक्य बोला हैं, उससे उसका अर्थ क्या है? उसे जहाँआरा क्यों याद आ रही है? क्या वह रोशन को अकारण ही अपमानित कर रहा है?
एक क्षण चुप रहकर मीर कासिम ने अपने दोनों हाथों को पीठ पीछे किया। फिर वह बोला, “जहाँआरा इसीलिए तुमसे ज्यादा खूबसूरत थी, क्योंकि वह हमारी जवानी के दिनों में हमारे रू-ब-रू आई थी। और तुम? तुम तब आई हो, जब वक्त की मार से हमारे परकैंच हो गए हैं। हम अब बूढ़े हो हैं। दो साल के भीतर ही भीतर हमारे ऊपर बचपन, जवानी, बुढ़ापा सबकुछ आ चुका है। हमें समझ ही नहीं आ रहा कि हम तुम्हारी इस सुंदरता का उपयोग कैसे करें।"
अब रोशन के विस्मित होने की बारी थी। वह एक वेश्या थी और नहीं जानती थी कि वासना के अतिरिक्त पुरुष के निकट नारी का और क्या मूल्य हो सकता है। उसने आजिजी के साथ कहा, "कनीज हर खिदमत के लिए तैयार है।"
मीर कासिम ने फिर एक जाम भरा और होंठों से लगाकर उसे एक साँस में खाली कर गया, "हमने तुम्हारा सितार वादन सुना। हमें महसूस हुआ कि हिंदुस्तान की सरजमीं पर लंबे-लंबे काँटे उग आए हैं और तुम्हारे जैसी हजारों हसीनाओं का हुस्न उन पर नाच नाचकर लहूलुहान हुआ जा रहा है। कलकत्ता और पटना के बाजारों में आज फिरंगी का बूट लोगों की छातियों को रौंदता चला जा रहा है। सैकड़ों सुंदरियों ने उनके अत्याचारों से घबराकर खुदखुशी कर अपनी जान दे दी है, जुलाहों ने अपने अँगूठे काट डाले हैं कि कहीं उनके बुने हुए कपड़े फिरंगियों के गोदामों में बेगार न चले जाएँ। रोशनी, तुम जो आज इस रूप के साथ हमारे सामने पेश हुई हो, हमारी समझ के बाहर है कि इसका इस्तेमाल हम कैसे करें। सच में हम बुढ़ा गए हैं। पी-पीकर अपनी जवानी जैसे वापस बुलाना चाहते हैं, जो अब तक वापस आने में नाकामयाब रही है।"
रोशन काँप उठी। वह जो कुछ सुन रही थी, वह सुनने की उसे कतई उम्मीद नहीं थी । उसने विनम्रता के साथ कहा, “जहाँपनाह, आप आराम फरमाएँ । शायद आपके दुश्मनों की तबीयत खराब है। "
मीर कासिम फिर एक फीकी हँसी हँसा, "रोशन, तुम्हारे जैसी सुंदरी को अपनी पहुँच के भीतर पाकर भी जिसका दिल उछालें न भरे, वह आदमी यकीनन रोगी ही है। लेकिन रोगी की सबसे बड़ी चाहत उसकी उम्मीद है, और हमने अभी तक उस उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। मीरजाफर ने फिरंगी की मदद से कलकत्ता पर फिर से कब्जा कर लिया है, लेकिन फिरंगी की कंपनी और मीरजाफर के सिपाही भाड़े के हैं। उन्हें भारी इनाम का लालच दिया गया था। अब वह इनाम इकराम की रकम जाफर कहाँ से लाएगा?"
रोशन को राजनीति की इस नीरस चर्चा में कोई रस नहीं था। फिर भी जिस व्यक्ति को वह कामवासना से उन्मत्त देखना चाहती थी, उसके भीतर उसने अपनी जन्मभूमि के प्रति अनुराग को देखा, तो उसके भीतर जीवन के प्रति मोह की एक किरण अवश्य उदित हुई। अपनी हैसियत से जरा आगे बढ़कर उसने कहा, “नवाब साहब के हरम में जिंदगी की खुशियों से दूर जहाँआरा ने भी अभी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है। "
मीर कासिम ने एक क्षण के लिए रोशन की आँखों में देखा । "हमें ताज्जुब है कि शुजाउद्दौला ने तुम्हारे जैसा हसीन तोहफा कैसे हमारी नजर कर दिया! रोशन, सच बताओ, तुम हमसे क्या लेने आई हो?"
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जिस मीर कासिम ने अंग्रेजों की मदद लेकर मीरजाफर के हाथों बंगाल की गद्दी छीनी, फिर वह अंग्रेजों से लड़-भिड़कर बंगाल से निर्वासित हो गया था। उसी मीर कासिम ने इस प्रकार की रहस्यपूर्ण चर्चा करके रोशन के अंदर के भेद को निकाल लिया और शुजाउद्दौला की कुटिलता से भी बच निकला। रोशन की नजरें सहसा भारी क्षोभ और लज्जा से नत हो गई। वह घुटनों के बल फर्श पर बैठ गई और कंपित स्वर में बोली, "कनीज आपकी लौंडी है।"
मीर कासिम पर उसकी इस बात का कोई असर न हुआ। वह बोला, “हमारी भेंट के रत्नाभूषण, हमारी कनीज को पुरस्कार में देकर शुजाउद्दौला ने अच्छी पूँजी लगाई। लेकिन काँटे में रोटी का टुकड़ा फँसाकर मछली पकड़ने का यह तरीका अब बहुत पुराना हो गया है। रोशन, हमारे जैसे लुटे-पिटे आदमी के लिए तो तुम्हारे जैसा खाली काँटा ही बहुत था। उसमें रोटी का टुकड़ा लगाने की जरूरत ही कहाँ थी?"
रोशन की आँखों के सामने मेवों की तश्तरियाँ, सागर और मीना व कदेआदम शीशा फूलों की सेज पर चढ़-चढ़कर हजारों शक के साथ घूमने लगे। वह दौड़कर मीर कासिम के कदमों से लिपट गई - " कनीज गुनाहगार है। माफी के काबिल नहीं, मगर... मगर रहम चाहती है।"
मीर कासिम ने अपने हाथ छाती से बाँध लिये। "रोशन, हमारे पैर छोड़ दो। आज हमारी हालत ऐसी नहीं कि हम किसी को सजा दे सकें। एक जमाना था, जब हमने कसूरवारों को रोंगटे खड़े करनेवाली सजाएँ दी थीं। अब तो हम ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं कि हम किसी को प्यार भले ही दे सकते हैं, लेकिन सजा कतई नहीं दे सकते। तुम स्वयं अपनी आँखों से हमारे शरीर के अंदर के खून को देखो। "
रोशन अदब के साथ अलग होकर खड़ी हो गई। उसने नजरें उठाकर ऊपर देखा। उसने देखा कि मीर कासिम का एक बाजू नंगा था और उसके ऊपर चढ़ी एक काली काली जोंक धीरे-धीरे मोटी होती जा रही थी । रोशन भयाग्रस्त हो चिल्ला उठी, “जहाँपनाह! "
मीर कासिम हँसा । "उस सजा में भी कितना मजा है, जिसमें सजा पाने वाला, स्वयं सजा देनेवाले के दर्द से चीख उठे। तुम सिर्फ इसलिए घबरा रही हो कि यह जोंक बंगाल के उस नवाब का खून चूस रही है, जिसके देशवासी उसे खुदगर्ज और मक्कार समझते हैं। लेकिन क्या तुम अपनी नजरें पसारकर उन सफेद जोंकों को देख सकती हो, जो अकार-प्रकार में इससे कहीं अधिक बड़ी हैं और धीरे-धीरे हिंदुस्तान की सरजमीं से चिपटती जा रही हैं? वे जो खून निरंतर चूस रही हैं, वह तंदरुस्त और रतनजोश की तरह लाल हैं और यह जोंक जो खून चूस रही है वह...।" यह कहकर मीर कासिम ने उस जोंक को अपनी बाँह से उतारा और रोशन के सामने उसे निचोड़ डाला । उसमें से कुछ लाल-पीला पदार्थ निकलकर पास रखे पीकदान में गिर पड़ा।
रोशन ने दोनों हाथों से अपनी आँखें ढाँप लीं और उस सेज पर मूर्च्छित-सी अवस्था में गिर पड़ी, जो शुजाउद्दौला ने उसकी विलास-क्रीड़ा के लिए तैयार करवाई थी।
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इस योजना के अनुसार वह खूबसूरत लड़की अगले दिन गुप्तचरों के पहले दस्ते के साथ पटना के लिए रवाना हो गई।
पटना में अभी तक मेजर आदम की छावनी ने पड़ाव डाल रखा था। अवध में आश्रय लेनेवाले मीर कासिम को किस प्रकार वहाँ से खींचकर कलकत्ता लाया जा सकता है, यही मेजर आदम के सामने उस समय बड़ी समस्या बनी हुई थी। यह प्रश्न तो तय नहीं हो पा रहा था, उलटे जब भी वह अवसर देखता, हिंदुस्तानी सेना के नायकों को लताड़ देता था । उनका असिस्टेंट एक नौजवान लेफ्टिनेंट गिल्बर्ट था । मेजर आदम ने इस युवक को अपने असिस्टेंट के रूप में केवल इसलिए चुना था कि वह शांत स्वभाव और गंभीर व्यक्ति था। यही नहीं, वह मशीन की तरह अपने अफसरों की आज्ञा का पालन भी करता था।
इसी अंग्रेज युवक ने एक दिन बहुत से छोटे-मोटे आज्ञापत्रों के साथ मेजर के सामने एक प्रार्थना-पत्र रखा। इस पत्र में हिंदुस्तानी टुकड़ी के किसी नायक ने सेना के मनोरंजन के लिए रोशन नाम की किसी नर्तकी के लिए स्वीकृति माँगी थी। उसे देखते ही मेजर आदम का पारा चढ़ गया।
"कितनी वाहियात बात है। जब तक मीर कासिम हाथ नहीं आ जाता, किसी को मनोरंजन में वक्त बरबाद करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं।"
"क्या मैं कुछ कह सकता हूँ, सर!" गिल्बर्ट ने सिर झुकाकर पूछा।
"ओह, यस! व्हाय नॉट?" मेजर ने आश्चर्य से उस युवक की ओर देखा, जो कभी किसी काम में हस्तक्षेप नहीं करता था ।
गिल्बर्ट ने अपनी बात सामने रखते हुए कहा, "सर, हिंदुस्तानी सेनाओं की संख्या बहुत बड़ी है। हम लोगों के पास मनोरंजन के काफी साधन हैं। हिंदुस्तानी सिपाही यह देखकर जल-भुन जाते हैं। उनके भीतर पहले से ही काफी असंतोष व्याप्त है। हमें चाहिए कि हम उनका ध्यान बटाए रखें, नहीं तो खाली दिमाग शैतान की दुकान वाली बात हो जाएगी।"
"ओह, तुम्हारी सलाह गौर करने लायक है, " मेजर आदम ने गिल्बर्ट के भावनाशून्य चेहरे की ओर देखकर कहा, " फिर भी किसी बाहरी व्यक्ति की नापजोख होना अत्यंत आवश्यक है। तुम खुद जाओ और देखो कि इस डांसर की ओर से कोई बदगुनामी तो होने नहीं जा रही है। तुम्हारी रिपोर्ट सही साबित होगी, उसके बाद ही हम इसकी इजाजत देंगे। "
मेजर आदम की आज्ञा सुनकर सेनानायक को साथ ले गिल्बर्ट पटना की घुमावदार गलियों को पार करता हुआ एक दुमंजिला मकान के सामने पहुँचा । ये लोग खटाखट जीना चढ़कर ऊपर जा पहुँचे। सबसे पहले सामने रोशन से ही सामना हुआ। इस तरह अचानक अपने सामने दो फौजियों को देख वह घबरा गई। एक हाथ छाती पर रखकर दूसरे से उसने फौजियों को आदाब फरमाया ।
फिर उसने जो अपनी निगाहें उठाई, तो सामने खड़े गिल्बर्ट से यकायक उसकी नजरें मिलीं। उसके रूप-वैभव को देखकर क्षण भर को गिल्बर्ट स्तंभित रह गया। उसके मुँह से जो केवल दो शब्द निकले, उनमें रोशन के सौंदर्य की व्याख्या छिपी थी, वे शब्द थे - "दी ब्लैक क्वीन (काली बेगम ) ! "
हिंदुस्तानी सेनानायक खुश था, "हमारे साहब ने तुम्हारी दरखास्त पर गौर किया। हमारे छोटे साहब को भी तो कुछ अपना कमाल दिखाओ । यदि तुमने इन्हें खुश कर दिया तो तुम्हें काम पर रख लिया जाएगा और तुम्हें भारी पगार भी मिलेगी।"
रोशन ने सिर झुकाया और कुछ क्षणों के बाद तबले की थाप के साथ रोशन ने सितार के तारों में अपने भावों को उँडेलना शुरू कर दिया। जब उसके अंतिम स्वरों के साथ उसकी हिचकियाँ निकलीं, तो हिंदुस्तानी सेनानायक अपने साफे से आँखों की नमी पोंछता हुआ अपने छोटे साहब की ओर घूमा, और उनसे कहा, "माफ करना साहब, मैं जरा भावुक हो गया था।" लेकिन उसने गौर किया कि छोटे साहब के गाल पहले से ही भीगे हुए थे और अब भी आँसुओं के दो बड़े-बड़े डोरे लुढ़ककर बहने को तैयार हैं। उसने उनका कंधा झकझोर कर उनका ध्यान बटाते हुए कहा, "हुजूर, आप रो रहे हैं?"
रोशन सितार को वहाँ से हटाने में व्यस्त थी। नायक की बात उसके कानों तक पहुँची, तो उसने चौंककर गिल्बर्ट की ओर देखा और वह घबराकर भागती सी वहाँ आई । बनावटी भाव-भंगिमा मुँह पर लाती हुई वह बोली, "क्यों, साहब को कोई तकलीफ तो नहीं?"
गिल्बर्ट तुरंत सँभल गया। उसने जल्दी से अपना रूमाल जेब से निकालकर अपने आँसू पोंछ डाले और बोला, “ओह नो! तुम्हारा आर्ट बहुत अच्छा है। रुला देता है, लेकिन बहुत अच्छा है। यकीनन तुम ब्लैक क्वीन हो। "
इस अंग्रेज युवक की ऐसी खिसियानी भाव-भंगिमा देखकर वह अभिभूत हो गई। जब सेना के समक्ष उसे ले जाने को आश्वासन देकर वे नीचे उतरे, तो रोशन ने छज्जे से झाँककर नीचे देखा। उसने महसूस किया कि जाते-जाते गिल्बर्ट ने भी पीछे मुड़कर उसकी ओर चोर नजरों से देखा था, जैसे अपने अंतर के अनेक मोती वहाँ छोड़ आया था।
बूढ़े हो चले मेजर आदम ने जब गिल्बर्ट के मुँह से ब्लैक क्वीन की बातें सुनीं, तो वह खूब हँसे और बोले, "तब तो हिंदुस्तान पसंद करने लायक जगह है। हम भी जरूर उस ब्लैक क्वीन का दीदार करना चाहेंगे।"
गिल्बर्ट के साथ गए उस हिंदुस्तानी सेना नायक द्वारा पटना स्थित अंग्रेजी और हिंदुस्तानी सेनाओं तक ब्लैक क्वीन की ख्याति दो दिन के अंदर-अंदर फैल गई। वह एक ऐसी डकैत के रूप में मशहूर हो गई, जो लोगों के दिल के खजाने को बरबस उनकी आँखों की राह बाहर खींच लेती थी।
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तीसरे दिन पहली बार हिंदुस्तानी सेनाओं के सामने मैदान में मंच बनाकर काली बेगम के नृत्य का आयोजन हुआ। मंच गोल था और इस तरह से बना हुआ था कि उसके चारों ओर बैठे सिपाही इस नृत्य का आनंद उठा रहे थे। कुमकुमों की रोशनी को शीशों की मदद से मंच पर फेंकने का कुशल प्रबंध किया गया था। यह पूरी व्यवस्था गिल्बर्ट ने की थी । यद्यपि यह पूरा प्रबंध हिंदुस्तानी फौज के लिए ही था, फिर भी अंग्रेजी सेनाओं के स्तंभ भी अपने दिलों को काबू नहीं कर पाए थे।
नृत्य आरंभ हुआ और समाप्त भी हो गया और इस बीच समय की गति जैसे रुक गई थी। चारों ओर सिपाहियों का कोलाहल था और वे सब जैसे काली बेगम को घोलकर पी जाना चाहते थे। उधर गिल्बर्ट संगीनधारी सिपाहियों की मदद से रोशन को लेकर मेजर आदम के खेमे के निकट वाले खेमें तक ले आया ।
वहाँ पहुँचाकर वह उससे बोला, "मेरी बधाई स्वीकार करो। "
पलंग पर रखे तकिए पर सिर रखे निढाल हुई काली बेगम अदा से बोली, “रोने वालों की बधाई मुझे क्यों स्वीकार होगी?'' अचकचाकर गिल्बर्ट टूटी-फूटी हिंदुस्तानी में अपने भाव व्यक्त करने के लिए शब्द टटोलता हुआ बोला, "आँसू बड़ी अच्छी चीज है। दिल के बोझ को हल्का कर देती है। इंग्लैंड में हमारी एक प्रेमिका थी। हम उसे 'व्हाइट क्वीन' (सफेद बेगम ) कहता था । वह बड़ा अच्छा वायलिन बजाती थी। तुम्हारा सितार सुनते-सुनते हमें ऐसा लगा कि हम उसका वायलिन सुन रहे हैं। हमारा आँसू आ गया। "
"और इसीलिए आपने मुझे 'काली बेगम' का खिताब दे डाला?" हँसती हुई रोशन ने कहा ।
गिल्बर्ट ने अपने आँसुओं का जो कारण बताया, उससे रोशन की हँसी बंद हो गई। उसने कहा, "इंग्लैंड से खबर आया है। हमारा बेगम तपेदिक से मर गया। हमें उसकी याद आ गई। तुम्हारी सूरत में हमें अपना बेगम दिखाई दिया। "
रोशन को दुःख हुआ। वह समझती थी कि अपने क्रूर पंजे फैलाए हुए यह सफेद गिद्ध, जो आसमान से भारतभूमि पर मांस के लालच में उतर आए हैं, ये किसी मानवी संबंध को नहीं समझते। आज पहली बार एक अंग्रेज के प्रति उसके दिल में हल्की-सी करुणा का भाव उदय हुआ। उसने कहा, "साहब, मुझे आपके साथ हमदर्दी है। अफसोस है।"
“डैम इट!” गिल्बर्ट ने कहा, "हमदर्दी और अफसोस अब बहुत पुराना बात हो गया है। खुद हमको अपने से हमदर्दी या अफसोस नहीं होता। अगर हमें अपने से हमदर्दी और अफसोस होता तो हम इस वक्त हिंदुस्तान में नहीं होता। अगर ऐसा होता तो जब हमारी जान वहाँ खिंच रहा था तब हम इंग्लैंड में होता। "
यह सुनकर काली बेगम के मुख पर क्षण भर के लिए एक घृणा का भाव आया और मिट भी गया । उसने कहा, "साहब, यहाँ भी आप कोई शबाब का काम तो कर नहीं रहे हैं। अगर आपको अपनी प्रेमिका से सच्चा इश्क होता, तो आपको इंग्लैंड में ही होना चाहिए था, यहाँ नहीं। "
गिल्बर्ट ने एक क्षण रोशन के मुख को निहारा। उसे देखकर उसका भोला चेहरा दयनीय हो उठा। वह बोला, “हमारा इश्क सच्चा था। अगर हम आजाद होता तो हम जरूर इंग्लैंड में होता। लेकिन हमारा किस्मत तो हमारा नहीं था। जब हमें भरती किया गया था तो हमसे कहा गया था कि सात समुंदर पार हिंदुस्तान में ईसा मसीह का मजहब और ईमान कायम करने के लिए अंग्रेजी सेनाएँ हिंदुस्तान जा रही हैं। जब हम यहाँ पहुँच गया तो संगीनों ने हमारे वापस जाने का रास्ता रोक लिया। हमें अपने को किस्मत के सुपुर्द करना पड़ा।"
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रोशन विस्मित हो गिल्बर्ट का मुँह ताकती रह गई। उसका एक-एक बोल उसके कानों में जैसे उसके अंतर के कपाट खोल रहा था। वह सोच रही थी कि क्या उसके सामने सचमुच एक गिद्ध का बच्चा नहीं खड़ा है? क्या उसके सामने खड़ा हुआ प्राणी जीते-जागते दिल के साथ मनुष्य की संतान है? यदि ऐसा है तो वह बोली, “तब यहाँ संगीनें चलाकर आप लोग जो दिल रखनेवालों की छातियाँ फाड़ देते हैं, यह भी क्या कोई मजबूरी है? गले में क्रॉस लटकाकर आप अनेक हिंदुस्तानी ललनाओं को विधवा बना देते हैं। क्या यह भी किसी जन्नत की सीढ़ी हैं? ओह, आप लोगों को क्या पता कि हिंदुस्तान में विधवाओं का जीवन मृत्यु से भी बदतर होता है।" आवेश में यह सब कहते-कहते काली बेगम की आँखों से आँसू लुढ़कने लगे ।
उन आँसुओं को देखकर खेमे का परदा थामे खड़ा गिल्बर्ट हिल गया - "ओह!" उसके मुँह से निकला और वह अपना रूमाल हाथ में लिये आगे बढ़ा।
सहसा काली बेगम का आँसुओं से भीगा चेहरा झटके के साथ ऊपर उठा और वह देशकाल भूलकर गरज उठी, “आप लोग राक्षसी काम करते हैं और मानवीय भावनाओं की बातें करते हैं! हम सुख से जी रहे थे, हँस रहे थे, खेल रहे थे। क्यों आए हैं आप हमारे इस देश में, हमारे नंदनवन को उजाड़ने के लिए?"
गिल्बर्ट जहाँ-का-तहाँ खड़ा ही रह गया। रूमाल लिए बढ़ा हुआ उसका हाथ जैसे जड़ हो गया। उसे विश्वास नहीं हुआ कि इस सुंदर प्रतिमा के भीतर इतना गुबार भरा है। इसे ही उसने भावनाओं में बहकर 'काली बेगम' के खिताब से नवाजा था। ऐसे वातावरण में वह अपनी उस मजबूरी की व्याख्या नहीं कर पाया, जो उसके जैसे सैकड़ों अनिच्छुक युवकों को संगीनों से सजाकर इंग्लैंड से हिंदुस्तान ले आई थी। उसके मुँह से इतना ही निकला-
"आपकी भावना बहुत बड़ी है। यह दुनिया ऐसी जगह हैं, जहाँ आदमी जब मोहब्बत चाहता है, तो उसे संगीन मिलती है और वह जब संगीन का उपयोग करता है तो उसे मोहब्बत याद आती है। हम आपको कैसे बताएँ कि संगीन के पीछे भी एक और संगीन होती है ! इन संगीनों का लंबा सिलसिला मजहब, तहजीब, दिमागी बनावट, सामाजिक बराबरी की हसरतों के जोर से चलता है। ऊँचे बैठे कुछ लोग अपनी बराबर अपनी खुदगर्जी के लिए इस आग में ईंधन डालने का काम करते रहते हैं। ओह, ऐसा सारा गोरखधंधा हम कैसे बयान करें? हम सोचता गया, और सोचता गया, हमने अपने को चारों ओर से मजबूर पाया। हम काम करता है, लेकिन ऐसे जैसे एक लोहे का मशीन काम करता है।"
काली बेगम नागिन की तरह फुफकार उठी-"तुम लोग उसे काम कहते हो! जल्लाद भी अपने काम को काम ही कहता है। हमारे जुलाहों ने इसलिए अपने अँगूठे काट डाले कि तुम लोग कुछ काम कर रहे थे! सैनिकों के वेष में हमारे सीधे-सादे किसान इसलिए तुम्हारी तोपों की आग से भुन गए कि तुम लोगों की मशीन चल रही थी? हमारी मातम लोगों की संगीनें इसलिए घुस गई कि उन संगीनों के पीछे कुछ और संगीनों की ताकत थी? और तुम, तुमने जो किसी खूबसूरत नाजनी को काली बेगम का खिताब दिया है, वह सिर्फ तुमने दिया है, क्योंकि हुस्न पर केवल तुम्हारा ही अधिकार है और मजबूरी अल्लाह की देन है ! छि: है तुम पर और तुम्हारे काम पर! "
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गिल्बर्ट आँखें फाड़े अपनी समस्त ध्यानशक्ति एकाग्र करके काली बेगम के मुँह से निकलने वाले एक-एक शब्द को पी रहा था । सुनते-सुनते वह तड़प गया। उसने आगे बढ़कर रूमाल काली बेगम की गोद में रख दिया और हल्के से शब्दों में बोला, "बेगम, मैं बहुत ज्यादा हिंदुस्तानी नहीं जानता। तुम्हारी बातों को फैलाकर उत्तर नहीं दे पा रहा हूँ। लेकिन मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सोच-समझकर लंबा विचार करके ही कहा है। हो सके तो अकेले में बैठकर इस पर विचार करना । तब तक मैं तुम्हारी बातों को समझने की कोशिश करूँगा। अगर इंग्लैंड में भी इनसान रहते हैं और हिंदुस्तान में भी, सो इनसान एक है और इनसानियत एक अलग चीज है।"
जाते हुए गिल्बर्ट को संबोधन करती हुई काली बेगम भावावेश में बोली, "तुम लोग मेरा देश छोड़कर चले जाओ, और फिर इनसानियत की बातें करो। तब तुम्हें लगेगा कि तुम्हारी प्रेमिका वापस लौट आई है । "
जाता हुआ गिल्बर्ट रुक गया। उसने मुड़कर एक निगाह काली बेगम के तमतमाए हुए मुख की ओर देखा और तेजी से बाहर निकल गया।
रोशन अपनी बाँहों में मुँह लेकर न जाने क्यों फफक-फफककर रो पड़ी।
इसी प्रकार न जाने कितना समय गया कि रात की नीरवता को भंग करता हुआ एक भयंकर सन्नाटा चारों ओर वायुमंडल में गूँज उठा। चौंककर रोशन ने सिर उठाया और वह दौड़कर खेमे के बाहर आ गई। उसने देखा कि दूर छावनी में बड़ी भारी आग लगी हुई है।
धीमे कदमों से रोशन वापस अंदर आकर अपने पलंग पर बैठ गई। उसका साज-सिंगार पहले की तरह ही ज्यों-का-त्यों था । आँखें फाड़कर वह मानो अंधकार में रोशनी की तरह चमकते हुए गिल्बर्ट के कहे शब्दों में से अर्थ खोजने लगी।
थोड़ा सा समय और बीता और रोशन को सुनाई दिया कि उसके खेमे के बाहर बहुत से बूटों का मार्च हो रहा था। करीब आता हुआ उसका स्वर तेज होता जा रहा था और अगले ही क्षण में उसके खेमे का दरवाजा खुल गया। रोशन ने देखा, दरवाजे पर स्वयं मेजर आदम अपनी पूरी वरदी में खड़ा था ।
मेजर आदम चिल्लाकर बोला, "दरवाजे पर पहरा देनेवाला सिपाही बोलता है कि तुम में और गिल्बर्ट में कोई भारी फिसाद हुआ था । वह जहाँ से पागल हुआ-सा गया और राइफल उठाकर छावनी में पहुँचा। उसने मैंगनीज में आग लगा दिया और खुदखुशी कर लिया। क्या किया था तुमने उस पर ?"
रोशन रोमांचित-सी उठकर खड़ी हो गई। उसके मुँह से यह सब सुनकर एक भी अक्षर नहीं निकल सका।
मेजर बुरी तरह झल्लाकर फिर चिल्लाया, “व्हाट डिड यू डू अपोन हिम, ओ ब्लैक विच? (तुमने उस पर क्या जादू किया, ओ काली चुड़ैल ?)
काली बेगम इस सारे व्यापार का रहस्य नहीं समझ पाई। केवल गिल्बर्ट के इस भयानक अंत से उसके अंतर पर जैसे किसी ने जोर के साथ एक घूँसा जड़ दिया था। वह पलंग से नीचे गिर पड़ी और फूट- फूटकर रोने लगी।
"इसे पकड़ लो!" मेजर ने सिपाहियों को इशारा किया। “इसका कोर्ट मार्शल होगा।"
अगले दिन सारी काली और गोरी फौजों की एक परेड हुई। सबको अटेंशन की मुद्रा में करके, एक काली दीवार के सहारे काली बेगम को खड़ा कर दिया गया। मेजर आदम ने हुक्म दिया और एक साथ छह गोलियाँ उसके कोमल शरीर को पार कर गई। अंतिम क्षण में उसके मुँह से केवल यह निकला- " गिल्बर्ट तुम्हारी प्रेमिका आ रही है।" और कटे वृक्ष की तरह वह वहीं भूमि पर गिर पड़ी।