कलं आज भी बहती है (कहानी) : बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य
Kalang Aaj Bhi Bahti Hai (Assamiya Story in Hindi) : Birendra Kumar Bhattacharya
सोने की कलं-चांदी की कलं- प्रवाह की लहर-लहर में नाचती है । चांदी दमकती है, चांद झांकता है, रात को केतकी चिड़िया पुकारती है । किनारे की रेत चांदनी की मस्ती में थिरकती है। ओसकणों से कोमल धरती शीतल हो जाती है । शीतल-सी धरती के आस-पास के वनों में हजारों शाल हंसा करते हैं। धरती के एक ओर दूर गांवों के घर पुकारते हैं । इधर पास में फैली सड़क नगर की खोज में दौड़ पड़ती है।
बीच-बीच में मुड़-मुड़कर चक्कर काटती कलं का पानी सड़क पर मचलता हुआ बहता है। मनिस के घाट सुबह-शाम लोगों की बातों से मुखर हो उठते हैं। सुबह कलं में ग्रामीण लोग नहाते हैं । शाम को घड़ों की डुबकियां लगती हैं । भरी दोपहरी में अतीत गुनगुनाता है। कैसा है वह मादक स्वर?
मोर पारे-पारे रजार राजचकी, हेजार बाहु रे बल?
कलङर पारटे देले देवालय मनिसर गढ़नर धन ।
कलङर कलीका बर
तारे तलते गदाधर हेजार घर।
कलं आजिओ बय, अतीत पिछते थै ।
(यानी मेरे किनारे राजा का राजसिंहासन है, जिसमें हजार भुजाओं का बल है।
कलं के तट पर देवालय-मंदिर है, जिससे मनिस को कमाई की रकम मिले।
कलं का काला वटवृक्ष-
जिसके तले गदाधर हेजार के घर हैं -
कलं आज भी बहती है, अतीत को पीछे छोड़ती हुई ।)
बूढ़े ठगीराम के मन में बार-बार भावनाओं की तरंगें उठती हैं - कलं आज भी बहती है। बचपन से आज अड़सठ साल की उम्र तक वह कलं का रंग-ढंग देखता आया है। ऐसा कोई दिन, कोई महीना नहीं, जब कलं की बात कभी न कभी उसको याद न आयी हो । दो दिन कहीं बाहर जाने पर भी, रह-रहकर याद आती घाट के पास की सुपारी-पान की वह बाड़ी। मां-बाप-भाई की याद आती, और याद आती अड़ोस-पड़ोस के सैकड़ों ग्रामवासियों का दिन भर आना-जाना, काम-धाम । साथ ही नाती-पोतों के जमाने तक जिसे देखता आया है, जिसे पाता आया है, जिसे ढो लाया है, जिसमें डुबकियां लगायी हैं, याद आता है कलं का वह सुबह-शाम का पानी । पानी के चारों ओर कलं की हहराती हवाओं का शरीर शीतल करने वाला स्पर्श याद आता : सुबह हल ले गांव की लंबी, टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से चलते समय जंगल से झांककर दिखायी दे, फिक से हंसकर फिर जंगलों की ओट में हो जाती वह कलं।
हल से जमीन जोतकर वह उसमें रस-संचारकरता । जल्दी-जल्दी उसमें बीज बोया जाता, और कार्तिक बिहु के आने के साथ-साथ बोये गये धान के पौधे लहराने लगते । कलं-तट की जमीन के मधुर सुवास से दिशाएं महक उठतीं । लक्ष्मी अगहनी हवाओं की लहर-लहर में नाचने लगती। ग्रामवासी लक्ष्मी को बटोरकर अपने-अपने खलिहानों में भर लेते । आनंद के मारे घर-घर में, हर नामघर में, मेजि जलाये जाते, भोज होते : भोग के बीच मनिस की जिंदगी रंग-रस से भरपूर हो जाती । नौजवान ठगीराम हंस पड़ता, नाचता, गीत गाता।
बचपन से जवानी तक उसकी समूची जिंदगी मधुर-मधुर स्मृतियों से भरी हुई है। कलं-तट के आम-जामुन-कटहल, लेतेकु- पनियल आदि फलों के जायके याद करके उसकी लालची जीभ से लार टपकती रहती । मुट्ठी भर बासी भात खाकर गाय चराने के लिए जाते समय वह हमेशा देखता जाता, किसकी बाड़ी में आम पके हैं, किसके पेड़ में जामुन । भैंस की पीठ पर सवार होकर कभी-कभी भैंस चराता, कभी-कभी रेल से बाप के साथ नगांव शहर को जाता और कभी...
बचपन इसी तरह से निकल गया। फिर कलं में बाढ़ की भांति उसके शरीर में बाढ़ की एक लहर आयी। शरीर-मन नयी उमंग से नाच उठे। दाव लेकर बांस की झाड़ियों में बांस काटने के लिए जाने पर भी थकावट की कोई परवाह किये बगैर वह एकांत मन से गीत गाने लगता :
बांहरे आगलै चाइनो पठियालों, बांहर कोन डालि पोन?
शपथ दि सुधिलो कोवा, प्राणेश्वरी, तोमार मरमियाल कोन?
(यानी- बांस के सिरे पर नजर डाली, बांस की सीधी डाली है कौन? शपथ देकर पूछा, बताओ प्राणेश्वरी, तुम्हारा प्यारा है कौन?)
सिर्फ बांस काटने में क्यों, गाय चराने जाते हुए, रात को पेपा बजाते हुए, घाट पर जाकर नदी में डुबकी लगाते हुए, अपने आप मन में जाने कितने सारे गीत उभर आते, कितने सारे गीत उभरते-उभरते मन ही में विलीन हो जाते । भरा हुआ चेहरा, गठा बदन, होंठों पर सरल, स्वस्थ मुस्कान लिये ठगीराम जिधर निकलता, उधर ही युवतियों का दिल जीत लेता। किशोरियों की बैठक में, पनघट पर पदुमी, सोनपाही आदि को दिन में एक-न-एक बार वह जरूर दिख जाता। कलं को गवाह रखकर वे मुहब्बत के सपनीले बेल-बूटे काढ़तीं, किसी-किसी को उनमें कुछ उलझन भी हो जाती।
मगर ठगीराम तो ऐसा नौजवान न था जो उलझन में पड़ता । रूप-रंग में जैसा सुंदर था, मन भी वैसा ही साफ था। गांव में जो सबसे खूबसूरत किशोरी थी, उसी को वह फंदे में फंसाने की ठान चुका था । नाम था उसका सोनपाही । सोनपाही के आते, जाते, नहाते, घड़ा भरते, कहीं निर्जन जगह देखते ही वह झट से घिरते बादल की भांति सोनपाही के सामने आ निकलता । कभी कलं के घाट पर, कभी राह के सिरे पर तो किसी दिन भावना-घर में । और सोनपाही को वह तरह-तरह से चिढ़ाता।
इशारों-इशारों में तरह-तरह से पूछता - "ओ री सोनपाही, भला इतनी जल्दबाजी में किसके यहां चली? जरा हमसे भी तो बात करती जा !"
सोनपाही गुस्से से चेहरा लाल कर कहती - "बदमाश, बेशर्म कहीं का ! आते-जाते राह में भूत जैसा जहां-तहां आ धमकता है।"
ठगीराम हंसता हुआ कहता- “अरी सोनपाही, तुझे देखे बिना दिन भर दिल कैसा कैसा तो करता है। अच्छा ही नहीं लगता, समझी न?”
"उंह, मरा कहीं का । हंसी-मजाक करने की भला और कोई जगह नहीं मिली?” यह कहकर गुस्से, लाज, अभिमान और शायद किसी अनजान प्राणमय आनंद में मुस्काती, रंग-बिरंगे आवेग के रूप-रंग दिखाती सोनपाही धीरे-धीरे उसकी आंखों से ओझल हो जाती। ठगीराम फिर किसी दूसरी ओर तेजी से गीत गाता चल पड़ता -
बर धान लेचिया, बानिबि केतिया, डलार आगत उरिब तुंह
तोमाक खुजिबलै गलो हेंतेन लाहरी, मइ हलों दुखीयार पो।
(यानी - बर धान (शाली धान) लच्छों में है, उसे कूटेगी कब ? डाला (बांस का गोल सूप) के सामने उड़ेगा भूसा, तुम्हें ढूंढ़ने हम जाते प्रिये ! पर क्या करें हम हैं बेटे गरीब के ।)
.... दिन बीतते गये । एक दिन नदी-घाट पर सोनपाही सचमुच पूछ बैठी - "अरे ओ ठगी, तू जो हरदम मुझे राह-घाट में जहां-तहां परेशान करता है, तू क्या मुझसे शादी करेगा?"
ठगी ने दुष्टता से रूठने के लहजे में कहा – “उह ! भला सुनो न इसकी बात ! न जाने तेरी आंखें किस छकड़ा नौजवान पर हैं।”
“दुत् ! अरे ! गोसांई की शपथ, बता न, बता जरा !"
“क्या सचमुच कह रही है ?” ठगी ने आशा से पूछा ।
"कलं को गवाह मानकर कह रही हूं।"
“करूंगा।” उसने सिर्फ एक ही शब्द कहा। और कहकर झट नन्हें बछड़े जैसा खुशी के मारे कूदता-लपकता सोनपाही की आंखों से ओझल हो कहीं निकल गया।
दो महीने बाद उनकी शादी हो गयी। शादी के बाद भी वह सोनपाही को परेशान करने से बाज नहीं आता । मां-बाप के घर पर न होने पर मौका देखकर वह घर के अंदर घुस जाता और सोनपाही को चिढ़ाता हुआ गाता-
चाउल छिटा मारि पार बंदी करों, शालत बंदी करों हाती।
बर घरर भितरत मइनाक बंदी करों, देहे करे उजनि-भाटी ॥
(यानी - चावल बिखेरकर कबूतर को बंदी बनावें- हाथीशाल में बंदी बनायें हाथी, बड़े घर के अंदर मैना (प्राया) को बंदी बनावे, देह में मची उथल-पुथल ।)
सोनपाही रंग और गुस्से से अधीर हो चेहरे के आकाश से तुरंत धूप-बारिश शुरू कर देती । ठगीराम खुशी से झूमकर खुले दिल से तालियां बजा-बजाकर हंसता रहता।
उनके जमाने में यौवन का मौसमखुला होता था, प्यार में कोई मैल नहीं, हास औरसंभोग की एक धारा-सी बहती। एक-दूसरे को छोड़कर रहने की बात वे सोच भी नहीं सकते थे।
इसी तरह हंसी-खुशी के बीच जिंदगी के तीस अगहन निकल गये। ठगीराम आधी जिंदगी पार कर आया, कलं तट पर खिले एजार' फूल उसके प्यार में, उसकी हंसी में, उसकी नजरों में नाचते रहते । उसके कोप से अधीर-अस्थिर हो झर-झर पड़ते। कलं के जल में डुबकियां लगा-लगाकर नित्य आनंद के सपने देखा करते ।
पर अचानक एक दिन कलं का रूप बदल गया। उसके परिवार में मौत की आंधी चल पड़ी। उसके बाप, मां, बड़ा भाई- सभी हैजे से चल बसे । सिर्फ एक ही परिवार में नहीं, गांव के सैकड़ों परिवारों में, समीप के भी गांवों में हैजा फैलने की बात उन सबने सुनी । कलं का शीतल जल जहर-सा बन गया । राह-बाट निर्जन-से हो गये, सबके घरों में रुदन का हाहाकार गूंजने लगा। ठगीराम ने घर-घर जाकर जिसकी जितनी हो सकी, मदद की । शवों को श्मशान ले जाकर चिता पर चढ़ाने से लेकर शहरी डाक्टरों से सुई दिलवाने के इंतजाम तक सबमें अगुवाई में जुट गया।
एक दिन शाम को दूर के एक गांव से शहरी डाक्टर मणि बरा को साथ ले कलं के किनारे-किनारे होकर आते-आते उसे काफी रात हो गयी। घर पहुंचकर डाक्टर को बैठक में एक चटाई पर बिठाकर वह अंदर गया। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा।...
“सोनपाही !”
कोई जवाब नहीं।
"ओ माली !” उसने लड़के को पुकारा।
फिर भी कोई आवाज नहीं।
हो क्या गया? एक बार पीछे की ओर निकलकर पीछे के आंगन से बड़ी ऊंची आवाज में उसने पुकारा - "अरे ओ, तुम सब कहां चले गये रे?"
दो-तीन बार चीखने-पुकारने के बाद किसी ने कहीं से आवाज दी। कुछ देर रुककर उसने समझ लिया कि आवाज सोनपाही की ही है । आखिर सोनपाही मरी नहीं है, जिंदा है, समझकर उसके दिल में चैन आया। चूल्हे में आग सुलगाकर उसने एक ढिबरी जला ली और चाय के लिए पानी चढ़ा दिया। फिर डाक्टर के स्वागत-सत्कार के लिए उस कमरे में गया।
डाक्टर को बड़ी थकावट लग रही थी। इसलिए वह चटाई पर ही ऊंघने लगा था। ठगी ने सोचा, बेचारा थकान के मारे परेशान हो गया है, कुछ देर सो ले। और वह बाहर दरवाजे के पास जाकर देखने लगा कि सोनपाही आ रही है या नहीं। कुछ देर बाद ही सोनपाही आ पहुंची।
उसे सुध-बुध खोयी हुई-सी आती देख ठगी ने प्यार से पूछा- “अरे, तुझे क्या हो गया, आधी उम्र गुजर गयी, फिर भी डर नहीं गया मन से?" इस काल-संध्या के अंधकार में उसने पत्नी के चेहरे की ओर देखते हुए गर्व-भरी हंसी हंस दी।
पर सोनपाही उसे देखते ही - "अरे ओ, अब कहां मरेंगे जाकर ओ...” कहती हुई जोर-जोर से चीखने लगी। यह देखकर ठगी ने उससे पूछा, “क्या हो गया?"
"और होगा क्या? मौजादार का वह टेकेला आकर हमारे मणिपुरी बैलों को खोल ले गया।” कहती हुई सोनपाही रोने लगी।
“आया कब था वह टेकेला?" ।
"दोपहर को।” सोनपाही सिसकने लगी। ठगी को झट गुस्सा चढ़ आया। मगर वह गुस्सा करे भी तो आखिर किस पर करे? दो साल का लगान दे नहीं पाया था, इसलिए मौजादार ने पहले ही नोटिस दिया था । वास्तव में टेकेला कभी भी कुर्की लेकर आ धमकेगा, इसका डर उसे पहले से ही था । इसी कारण शहर के किसी वकील से या उधार देने वाले किसी महाजन से कुछ रुपया उधार लाने के लिए जाने की बात तय भी कर चुका था, पर तभी चारों ओर हैजे की बीमारी फैल गयी।
इस महामारी के बीच मौजादार का कारिंदा कुर्की लेकर आ जायेगा, उसने सपने में भी न सोचा था। मौजादार इतने पत्थरदिल हो नहीं सकते । आखिर वे भी तो इंसान हैं । लोगों के संकट में क्या उनका दिल जरा भी नहीं रोता? मगर उसकी आशा बेकार सिद्ध हुई । उसकी खेती के आधार उन बैलों को भी मौजादार का कारिंदा लेकर चला गया।
गुस्से के मारे उसका दिल विद्रोही हो उठा ।हिसाब करने पर दो साल का लगान कुल तीस रुपये होता है । उसी के लिए भला बैलों को क्यों खोल ले गया? क्यों? उसकी समझ में नहीं आता था कि किस आधार पर यह शासन चल रहा है? आज कुर्क कर बैलों को ले जाने के कारण उसकी खेती का जरिया ही खत्म हो गया। नये बैल खरीदने की भला ताकत उसकी है?
उसके सामने अंधेरा छा गया। क्षण भर में उसका दिल विषाद से भर गया। कलं की हवाओं में मानो कहीं वेदना की ध्वनि-सी गूंजने लगी हो।
ढिवरी की रोशनी में ठगीराम के भोजन-घर के फर्श पर उतना उजाला नहीं हो पाया था।
हमेशा शहरी उजाले में रहने वाले मणि बरा को ऐसी मद्धिम रोशनी पसंद नहीं आयी। तिस पर हैजे से लोग मर रहे थे। शाम को ही धीरे-धीरे रात की छाती में सारी दुनिया सिमटी जा रही थी, उसके साथ ही विषाद का करुण स्वर भी बजने लगा था। देहाती चिड़ियों की चह-चह, दूर से आती किसी की चीख, सियार की बोली आदि मिलकर डाक्टर को लग रहा था, मानो सब एक अनंत क्रंदन में बदल गये हों।
कौर मुंह में डालते हुए ठगीराम ने कहा- “डाक्टर, सुन रहे हैं, आज एक बड़ी दुर्घटना हो गयी।”
डाक्टर ने सोचा, हैजे की बीमारी से मरने वाले किसी आदमी के बारे में कहेगा, इसलिए धीरे से पूछा - "आखिर हुआ क्या?"
ठगीराम ने लंबी सांस लेकर अपने मणिपुरी बैलों को खोल ले जाने की करुण कहानी सुनायी। खेती की उपज से बची रकम से उसने वह बैलों की जोड़ी खरीदी थी। नये बैल, उम्र भी कम थी, इसीलिए गांव के ही एक आदमी से साठ रुपये कर्ज लेकर उसने बैल खरीदे थे। पर आखिर क्या हो, जमा-पूंजी का एक भी पैसा न बचा। और तो और, दूसरे साल धान बेच कर उसे कर्ज चुकाना पड़ा। इसी कारण दो साल लगान नहीं दे पाया। मौजादार ने कारिंदा भेजकर एक महीने पहले कुर्की का नोटिस जारी किया। उसके बाद ही यह दुर्घटना हुई । साथ ही ठगीराम ने डाक्टर से मौजादार की निर्ममता की बात बतायी।
डाक्टर ने ठगीराम की ओर क्षण भर देखकर कुछ सोचा, फिर कहा- “अब अगर कहीं से रुपया मिल जाये तो बैलों को छुड़ा पाओगे या नहीं?"
ठगी को अचरज हुआ। फिर भी कहा, “हां, छुड़ा पाऊंगा। अगर ऐसे न हो तो नीलाम में भी ले सकूँगा।”
"तब रुपया मैं दूंगा।” कहकर खाना खा, डाक्टर हाथ धोने गया । ठगीराम और ज्यादा विस्मित हुआ। गांव से शहर जाने के दिन डाक्टर उसे साथ ले गया और वहां से लौटते समय ठगीराम के हाथ सौ रुपये का एक नोट भेज दिया।
लौटते समय कलं-तट पर घड़े में पानी भरती हुई सोनपाही से भेंट हुई । क्षण भर में उसके दिल में खुशी लौट आयी।
परंतु पहले की जिंदगी फिर वापस नहीं आयी। खुशी-खुशी साल भर खेती करने के बाद अचानक बाढ़ आ गयी । कलं का विकराल रूप देख लोगों के होश उड़ गये । बाढ़ में घर-बार डूब गये । खलिहान में धान सड़ गया। बहुत-से लोगों के मवेशी बह गये । सबके दिल निराशा से भर गये।
ठगीराम का मकान भी पानी में डूब गया । मगर वह निराश न था, सोनपाही आदि को ले वह ऐसी जगह चला गया जहां बाढ़ का पानी नहीं चढ़ा था। अपने बैलों को भी किसी तरह खदेड़ ले गया। थोड़ी-सी सूखी जगह मिलते ही ठगीराम ने पास के गांव में जाकर लोगों से मदद मांगी और बांस, फूस आदि जुटाकर एक छोटी-सी झोंपड़ी डाल ली। वहीं नये ढंग से उसका नया घर बस गया। उसका काम देखकर बाढ़ में पड़े लोगों में उत्साह जागा। वे लोग भी एक-एक झोंपड़ी डालकर वहीं बस गये।
दिनों-दिन लोगों की तादाद बढ़ते रहने के कारण खाने-पीने की बड़ी समस्या खड़ी हो गयी । कलं की बाढ़ का पानी तब तक भी उतरा न था। पास के गांव के लोगों ने जहां तक बन पड़ा चावल आदि देकर मदद की, मगर इस तरह ज्यादा दिन काम चलना कठिन हो गया।
लगभग पंद्रह दिन बाद बाढ़ के पानी की छाती पर एक नाव दिखायी पड़ी। देखते ही लोगों ने चिल्लाकर नाव वालों को पुकारा । धीरे-धीरे नाव पास आ पहुंची।
उस नाव से पहले उतरे डाक्टर मणि बरा और शहर के कुछ नौजवान । डाक्टर ने ठगीराम को देखते ही हंसकर कहा - "मैं फिर आ गया।"
परेशान-सा होकर ठगीराम ने डाक्टर को प्रणाम कर कहा - "क्या चावल-वावल कुछ लाये हैं ?" डाक्टर ने कहा- “हां ।” अब लोगों के मुंह में पानी आ गया । डाक्टर ने ठगीराम से पूछा- “क्या यहां किसी को बीमारी-वीमारी हुई है ?"
ठगीराम ने कहा- “नहीं।”
डाक्टर की चिंता कुछ कम हुई । कुछ नौजवानों को चावल बांटने में लगाकर किसे, कहां, किस ओर से जाना है, इस बारे में सलाह देकर डाक्टर ने अचानक कहा- “चलो ठगी दादा, तुमसे कुछ बात करनी है।"
दोनों धीरे-धीरे चलकर थोड़ी ऊंची जगह जाकर बैठ गये।
कलं की बाढ़ में बहकर आये एक लट्टे को पकड़कर डाक्टर ने कहा- “कलं इस बार बहुत गुस्से में है।"
ठगीराम ने हामी भरी । कलं के तट पर वह लगभग तीस साल से रहता आया है। सिर्फ रहता ही नहीं, इसी के तट पर उसकी जिंदगी की सारी घटनाएं घटी हैं । कलं के उस पार वह कभी-कभी शहर भी जाया करता है। मगर वह शहर की बातें नहीं समझता। शहर की चाल-चलन अलग है । शहरी लोगों की बातों में मिलावट रहती है। उनकी कलम से जहर निकलता है। कलं के तट पर लौटे बगैर उसके दिल में चैन नहीं आता।
उसकी भावनाओं की तल्लीनता को भंग करते हुए डाक्टर ने कहा- “तुम लोगों के इस सुंदर गांव में सिर्फ एक बार आकर ही मेरा मन रम गया था । पर इस बार आज-कल करते-करते ही चौदह दिन निकल गये। देखता हूं, कलं ने तुम लोगों पर गजब ढा दिया है। मेरे आने में काफी देर हो गया, क्या करें।"
"मगर देर क्यों हुई आखिर?” ठगीराम ने सरल भाव से पूछा।
"सरकारी कर्मचारियों से लड़-झगड़कर भी चावल और कपड़े जल्द जुटा नहीं पाया । आखिर करें क्या? यहां कोई मरा है?"
"मरे तो नहीं है। मगर ये सरकारी कर्मचारी भला सामान देते क्यों नहीं? हमारे दुखों का क्या उन्हें पता नहीं ?"
"नहीं, वे विदेशी हैं, भला हमारे लोगों के बारे में क्या समझेंगे?” सुनकर ठगी स्तब्ध-सा रह गया। राजा ही अगर प्रजा का दुख न समझे तो समझेगा कौन? उसका संदेह खत्म नहीं हुआ, पृछा- “आप लोगों को इतना चावल कहां मिला?”
"घर-घर से, दुकान-दुकान से मांगकर लाये हैं।"
"शहर के लोग हमारे बारे में क्या कहते हैं?"
डाक्टर इस सरल-से प्रश्न के जवाब में हंस पड़ा। फिर बोला- "तुम्हें बहुत-सी बातों का पता नहीं है। गावों के लोग शहरों के बारे में नहीं जानते, शहरों के लोगों को गांवों के बारे में पता नहीं । पर एक बात सच है, इंसान की तकलीफ देखने पर इंसान का दिल पसीजे बिना रह नहीं पाता।"
ठगीराम को इंसानियत का यह संवाद बड़ा ही अच्छा लगा। कम से कम देश के लोग उन्हें यों ही मर जाने के लिए नहीं छोड़ेंगे।
डाक्टर इसी बीच पानी में बहता हुआ अधभीगे सन का एक मुट्ठा पकड़कर ऊपर ले आया और बोला - "शायद किसी के घर की छप्पर से निकलकर आया होगा?”
नहीं, यह सन का मुट्ठा शायद किसी ने अपने घर की छत छाने के लिए रखा होगा। देखते ही पता चल जाता है।" यह कहने के साथ-साथ ठगीराम को याद आया कि एक घर बनाने में कितनी मुसीबत होती है । सन काटकर लाने से लेकर नये घर में गृह-प्रवेश करने तक कितनी तकलीफें झेलनी पड़ती हैं, इसका अंत नहीं। गांववालों को वैसे घर फिर बनाने में कितनी मुसीबत होगी । साल भर उनका और कोई काम नहीं होगा। यहां तक कि खेती-बाड़ी भी नहीं।
"खेती!” कहकर ठगी ने एक लंबी सांस ली।
डाक्टर चौंक उठा।
हैजा हो, बाढ़ हो, खेती-बारी हो या न हो, राजा का लगान तो देना ही होगा। बाढ़ से जान बंचाकर भागे लोगों के टूटे घरों के दरवाजे पर कारिंदा आकर खड़ा हो गया । कुर्की में किसी के गहने, किसी की लोटा-थाली, किसी की गाय-बकरी जबरदस्ती लेकर गांववालों को सर्वहारा । बना दिया गया। ठगीराम के बैलों को भी फिर ले गये। ठगीराम गुस्से से आगबबूला हो गया। "हमारे दुखों में ये कुत्ते झांकने भी नहीं आते, मगर लगान वसूल करते समय साहब से लेकर कारिंदे तक सभी छलांग मारकर पहुंच जाते हैं । इन्हें तो...” कहता हुआ वह दांत पीसने लगा। गांव के लोगों ने उसकी बात पर हामी भरी । मगर चारा क्या था?
मन में गुस्सा लिये ठगीराम एक दिन डाक्टर के यहां पहुंचा । डाक्टर दोपहर को खाना खाकर सोने जा रहा था, पूछा - "क्या हुआ है, ठगी दादा?"
ठगीराम ने गांव के लोगों की दुर्दशा के बारे में बताया । डाक्टर उसकी बातें ध्यान से सुनता रहा । फिरहंसते हुए कहा- “विदेशी राजा हमारी तकलीफ समझता ही नहीं, ठगीराम !"
ठगीराम के मन का क्षोभ उबल पड़ा, बोला- “ऐसे राजा के अधीन रहने की अपेक्षा मर जाना अच्छा है । न बैल रहे, न भैंस । अब खेती कैसे करें? और तो और, साल भर के बिहु उत्सव के दिन पहनने के लिए लड़कियों के कानों का थुरिया भी नहीं रहा।” क्षण भर रुक कर वह फिर कहने लगा, “हम तो ऐसे ही मारे गये, डाक्टर बाबू ! आप लोग कोई उपाय निकालिए न !"
डाक्टर ने क्षण भर सोचा, फिर धीरे-धीरे बोला- “तुम लोग एक सभा बुलाओ। उस सभा में बुदराम वकील को भी बुलाओ। और वहां अपने दुख-तकलीफ के बारे में एक प्रस्ताव पास करके सरकार के यहां भेजो । ऐसा ही कुछ करके देखो, देखा जाये क्या होता है ?"
असहयोग का जमाना था। कई ओर सभा-समितियां हो रही थीं। अखबार आदि में तरह-तरह के प्रस्ताव प्रकाशित हो रहे थे। इसी कारण डाक्टर ने ठगीराम को ऐसी सलाह दी।
ठगीराम को मनचाहा मिल गया । बोला- “सभा में आपको भी आना पड़ेगा, डाक्टर बाबू ! जानते ही हैं, हम पिछड़े गरीब, और अनपढ़ लोग हैं। आप नहीं आयेंगे तो आपको सैकड़ों लोगों का शाप लगेगा। सभा की खबर मैं आपको दे जाऊंगा।"
डाक्टर के कपाल पर चिंता की रेखाएं खिंच उठीं।
सभा हो गयी । सरकार को प्रस्ताव भी भेजे गये, पर कोई फल नहीं हुआ। सिर्फ मौजादार ने ठगीराम को बुलाकर कहा - "तेरा नाम सरकार के खाते में चढ़ गया है । जमाना बहुत बुरा है । तूने क्या सुना नहीं, झुंड के झुंड लोगों को पकड़-पकड़कर जेल में डाला जा रहा है ? जरा होशियारी से काम करना।"
ठगीराम ने विस्मय से पूछा- “भला मुझे जेल क्यों ले जायेंगे?"
"मीटिंग करने के कारण । स्वराज की मीटिंग करना मना है, ” मौजादार ने बताया।
"लेकिन बाबूजी, हमने तो सिर्फ लगान की मीटिंग की थी।"
बड़ी-बड़ी आंखें दिखाकर मौजादार बोला- “लगान की मीटिंग औरस्वराज की मीटिंग एक ही बात है।"
उस दिन ठगीराम घर लौटते समय पहले जैसी सामान्य मानसिकता लिये वापस नहीं हो पाया। खेती न कर पाने के कारण गांव वालों के मन में राग-द्वेष, क्रोध-असंतोष का तूफान चल रहा था। सबकी जुबान से अंग्रेजी राज-प्रशासन के विरुद्ध गाली-गलौज, अभिशाप निकलने लगे थे। ऐसी स्थिति में ठगीराम के मन में क्या करे, क्या न करे का द्वंद्व चलता रहा। जिधर नजर जाती उसी ओर लगता कि अंधेरा धरती को घेरे हुए है । कलं का उपद्रव भी घट गया था। नदी में पहले जैसा प्रवाह न था । सूखे की बीमारी में पड़ा छोटा बछड़ा जैसे बड़ी कठिनाई से चल पाता है, कलं भी मानो उसी तरह धीरे-धीरे बह रही थी।
घर पहुंचते ही उसने देखा, डाक्टर तल्लीनता से बैठा कोई अखबार पढ़ रहा है। और सोनपाही बैठी बटा में तामोल काट रही है । उसने पूछा - "आप? आप कब आये?"
डाक्टर ने ठगीराम के मुरझाये चेहरे की ओर देखकर हंसते हुए कहा- “ठगी दादा, एक बहुत जरूरी काम के लिए आया हूं। हाथ-मुंह धोकर कुछ खा-पी लो। फिर बैठकर बातें करेंगे।"
रात को काफी देर तक उनकी बैठक चली । स्वराज के बारे में बातचीत हुई । असम में चारों ओर गांवों में जो सभाएं हो रही थीं, जो जुलूस निकाले जा रहे थे, उनके बारे में डाक्टर जैसे परीकथा सुनाता गया । बीच में भारतवर्ष का एक छोटा-सा मानचित्र निकालकर, जगहों के नामों पर उंगलियां रखकर, पहले नगांव शहर दिखाया । उसके बाद गुवाहाटी, कलकत्ता, पटना, इलाहाबाद, पंजाब, बंबई और मद्रास के गांव-गांव में हो रही सभाओं और जुलूसों का वर्णन किया । वर्णन के अंत में जोरहाट, गुवाहाटी आदि स्थानों के आंदोलनों के बारे में एक संक्षिप्त आभास दिया। फिर हंसकर कहा- "इस बार हमारी बारी है, हम कलं-तट पर रहने वालों की।” फिर नक्शे में खींची गयी एक रेखा दिखलाकर डाक्टर ने कहा - "कलियाबर से नगांव, नगांव से गुवाहाटी।”
ठगीराम विस्मित हुआ । सोनपाही भी बीच-बीच में आकर बातचीत सुन रही थी। उनका बेटा माली भी पास बैठा बातचीत सुन रहा था। वे दोनों भी डाक्टर की बातों से विस्मित थे।
"हमें क्या करना होगा, डाक्टर बाबू?"
"जुलूस निकालना होगा। कलियाबर से युवक-युवती, बूढ़े-बूढ़ियां सबको नारे लगाते हुए पहले नगांव की ओर, फिर नगांव से गुवाहाटी तक जाना होगा।” डाक्टर ने कहा - "गुवाहाटी में समूचे असम के लोग इकट्ठा होंगे।”
"उससे क्या होगा?”
"क्या होगा? गोरों के राज्य की नींव हिल उठेगी। किसानों का जोश देखकर उनका जी दहल उठेगा । स्वराज की बाट खुल जायेगी ।" डाक्टर ने जवाब दिया।
"क्या हमें लगान से माफी मिलेगी?”
डाक्टर ने ठगीराम की बांहों पर थपकी देते हुए कहा - "सब कुछ इन बांहों पर निर्भर करता है । पहले काम करें, उसके बाद फल मांगेंगे।"
कलियाबर के किसानों के जुलूसों के मारे कलं-तट की सड़कें कांप उठीं। ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है', 'साम्राज्यवाद का नाश हो', और महात्मा गांधी की जय' आदि नारों के कंपन से कलं का वायुमंडल नाच उठा । कलं-तट युगों के बाद रण-नाद से मुखरित हो उठा। उस दिन किसी के घर चूल्हा नहीं जला। युवतियों के घड़े खाली पड़े रहे, चरवाहे मवेशियों को बांधकर दौड़ पड़े। सड़कों के किनारे-किनारे जनता का हुजूम । नारों पर नारे। नयी भावना से लोगों के मन-प्राण आंदोलित हो उठे थे । घरों से लोग निकलकर गांवों में जुड़े, गांवों से शहरों में जुड़े और नगरों से जिला-प्रांतों में मिलकर एक अपूर्व जन-प्रवाह बन गया। कलं के प्राण मानो पंछी बनकर गुवाहाटी की ओर उड़ चले । कलं की भाषा हवा बनकर तिरने लगी। कलं की आशा जाग उठी। गांव-गांव में लोग जाग उठे। गांव-गांव में स्वराज के हजारों सैनिक निकल आये। गुवाहाटी में स्वराज के नेताओं का हुंकार गूज उठा। धीरे-धीरे कदम बढ़े, फिर कदम धीरे-धीरे प्रचंड धारा में बदल गये। जनता का जीवन नये तेज से नाच उठा। ..क़लं जाकर लोहित से मिली, लोहित के तट पर नये इंसान का जन्म हुआ। सोने का लोहित, चांदी का लोहित, धारा की लहर-लहर में नाच उठा । ठगीराम के अंतर में नूतन स्पंदन जागा, गुवाहाटी में समवेत अपार जनता की आशा का उसे अनुभव हुआ।...
सारी राह चलते-चलते डाक्टर स्वराज के बारे में उसे बताता गया। भारत की छाती पर निकले हजारों जुलूसों का लक्ष्य क्या है, वह कथा सुनाता गया। सारी जनता के जीवन-स्रोत मानो आज एक हैं। आज कलं और लोहित में मानो कोई अंतर नहीं रह गया है। स्वराज के संगम में मानो दोनों मिल गये हैं।
बात ठगीराम की समझ में आ गयी। गांव-गांव में लोगों को दुख है, लगान देते-देते सर्वहारा बन जाने वाले सिर्फ वे ही नहीं, कलं से दूर के, पास के, इधर-उधर के चारों ओर के लोग आज जर्जर हैं, इसी कारण वे चाहते हैं स्वराज !
इस बार ठगीराम को जन-लोहित में नयी जीवन-धारा मिल गयी।
लोहित बहता रहा । और दस अगहन बीते । पर हर अगहन में लोगों का धान घटता ही गया । गाय-भैंस खरीदने के लिए पैसा न रहा । लगभग हर आदमी गले तक उधार में फंस गया । मगर राज-शासन के लगान में कमी नहीं हुई । ठगीराम का परिवार और बड़ा हुआ । माली की शादी हुई, बहू आयी और ठगीराम की अपनी भी एक बच्ची हुई । माली की बहू के आने की कहानी ठगीराम की भांति सुंदर नहीं थी। और हो भी आखिर कैसे ? पहले जैसा न धन रहा है, न धान । न वे सोने के कनफूल ही रहे, न वैसी लड़कियां ही रहीं। सभी चीजों की मोहकता और गुण घट गये। सुबह-शाम खाना-नाश्ता आदि न मिलने के कारण मालो कभी-कभी पत्नी को मारता-पीटता और कभी मां-बाप को गालियां देते-देते पुरखों की खबर लेता । पुराने दिन, पुराने धर्म-कर्म, सब मिट गये । ठगीराम और सोनपाही के मन में दुख के बादल घिर आये। ...पहले जैसे कुर्की, जमीन की नीलामी, काबुली और महाजनों के उत्पीड़न चलते ही रहे।
ठगीराम अब भी डाक्टर के पास जाया करता । बुदराम वकील अब पहले जैसा नहीं रहा । गांव की सभा में बुलाने पर भी नहीं आता । सिर्फ डाक्टर ही उससे सदा हंसकर वातें करता, दवा-दारू देता, सभा-समिति बुलाने का सुझाव देता, और स्वराज के बारे में नयी-नयी बातों की चर्चा करता।
यौवन बीता, उसका अफसोस नहीं, मगर जिंदगी में सुख नहीं, बाल-बच्चों के लिए धन-दौलत न रहा । सोनपाही की केरूमणि भी कुर्की में दे देनी पड़ी। फिर भी उसके मन की आशा मिटी नहीं थी। फिर कभी अच्छे दिन लौटेंगे, जमीन पर पहले जैसी खेती-बाड़ी होगी, बैलों की कीमत घटेगी, लगान-माफी मिलेगी, कलं-तट की जमीन फिर अनाज से भरी-पूरी हो जाएगी । आशा तो बड़ी सुन्दर है । पर वह कब फलेगी ? राज-शासन का दिल कब बदलेगा ? फिर कब खेती करने के लिए उन्हें स्वराज मिलेगा? कब?...
एक दिन अगहन में धान की दंवरी खत्म होते ही अचानक नगर से डाक्टर आ पहुंचा। लोगों ने उसे बिठाकर लगान के बारे में पूछा। गांव वालों ने साफ बता दिया, अब तो रुका नहीं जाता । लगान-माफी का आवेदन दिये आज दस साल हो गये, कहां, राज-शासन की नींद तो खुली ही नहीं। नहीं, नहीं, इस तरह से नहीं चलेगा। सिर्फ आशा के भरोसे रहने से कुछ नहीं होगा। लगान-बंदी आंदोलन चलाना होगा।
डाक्टर की बात पर लोगों ने हामी भरी । उस दिन शाम को अपनी जेब से भारतवर्ष का नक्शा निकालकर डाक्टर ने नगांव, गुवाहाटी, कलकत्ता, बंबई, पंजाब आदि स्थानों को उंगली से दिखा-दिखाकर बताया कि किसान आंदोलन कहां-कहां हो रहा है । ठगीराम को पुराने जुलूस की याद आयी । उस याद से उसका दिल फिर नयी आशा से भर उठा !
सही है, लगान देना बंद करना होगा । डाक्टर संतोष से हंस पड़ा।
कलं-तट की जनता फिर अंगड़ाई लेकर उठ खड़ी हुई। फिर कलं की भूमि पर स्वराज-सेना का जन्म हुआ । रण-दुंदुभि बज उठी। कलं-तट सूना हो गया। सिर्फ सोनपाही और उसके जैसी गृहिणियां ही घर में रह गयीं । खलिहानों में धान खत्म-से हो गये थे, धन भी राज-शासन ने हर लिया था। और इस बार कलं-तटवासी किसानों को ले गया। ठगीराम, माली जैसे कितने ही बाप-बेटे साथ ही कैद हुए और सरकारी जेलखाने में लूंस दिये गये। राज-शासन के कारिंदों ने पुलिस-मिलिट्री मंगवाकर जबर्दस्ती लगान वसूल किया । ठगीराम के घर की बहू के उपहार में मिले गहने-बर्तन भी कारिंदों को सौंप देने पड़े।
कलं-तट पर पहले की रंग-भरी धुनें अब सुनायी नहीं देती थीं। बिहु-संक्रांति में लोग पहले जैसे रंग-तमाशे नहीं करते थे। चारों ओर उदासी छा गयी थी।
जेल से निकलकर गांव आने पर लोगों का टूटा मन देख ठगीराम फिर निराश हो गया।
पत्नी के सूने कान देख माली भी रोने लगा।
बाप-बेटे के दिल उदास देख सोनपाही बेचैन हो उठी। सोचा, इस दुनिया में अब धर्म नहीं रह गया, अधर्म का राज छा गया है। अफसोस करने से पेट नहीं भरता । शायद ईश्वर का ही अभिशाप है। सिर्फ उनकी वह नन्हीं बेटी कांचनमती उस समय सुख-दुख की बातें ठीक से समझ नहीं पा रही थी।
फिर भी ठगीराम निराश नहीं हुआ। कलं-तट जैसे-जैसे सूना होता गया, उसके अंतर में माली, उसकी बहू, बेटी और उन्हीं जैसे गांव के दूसरे युवक-युवतियों को लेकर चिंता जाग उठी। आगे उनका क्या होगा? खेती करने के लिए बैल-भैंस नहीं, रुपये-पैसे नहीं । अनेक लोगों के यहां जो थोड़ा-सा धान होता है, उससे साल भर का खाना पूरा नहीं पड़ता । मायाराम ओजा जैसे लोगों के दुष्कर्म और ज्यादा बढ़ गये। मायाराम पक्का मकान बनाकर धनी गांववालों से कुछ पैसे कमा लेता था। उसी से गुजारा चलता । खेती-बाड़ी में उसका मन न था, और जमीन भी नहीं थी। परंतु गांव के लोगों के पास जब धन-धान न रहा, तब पक्का मकान बनवाने वाले भी न रहे । साथ ही मायाराम के भी बुरे दिन आ गये । लाचार होकर वह एक टोकारी बजाता हुआ गीत गा-गाकर भीख मांगता फिरने लगा। मायाराम को देखकर ठगीराम आहे भरता । ऐसे गुणी लड़के की भला यह क्या हालत हो गयी ! ओह !...
फिर भी खेती तो करनी हो होगी, जैसे भी हो । दूसरे के बैलों से हल जोतकर माली और वह मिलकर खेती किया करते, पर पहले के बराबर जमीन पर खेती भी नहीं कर पाते थे और धान भी कम मिलता । फिर भी खेती तो करनी पड़ेगी। ठगी और माली बैठे कभी-कभी डाक्टर के बारे में चर्चा किया करते । क्या वह फिर कभी गांव में आयेगा? “सुना है, सरकार ने उसे भी जेल में डाल दिया है। हे प्रभु, हमारा साथ देने के कारण बेचारेको कितनी तकलीफें झेलनी पड़ी !”
और कई अगहन निकल गये । धन-धान और घटे । इसी बीच माली का भी एक लड़का जन्मा । नाती को पाकर ठगी-सोनपाही का प्यार बढ़ने की बजाय उल्टा ही हुआ। लड़कों के लिए ही जमाना बुरा आ गया, तो फिर नाती-पोतों को कौन पूछे ? दिन-ब-दिन कपड़े-लत्ते, तेल-नमक आदि की कीमतें बढ़ती जा रही थीं। अकसर तेल-नमक के अभाव में खाना ही नहीं बनता था।
सोनपाही एक दिन अलाव के पास बैठी दुखों की चर्चा कर रही थी, तभी बाहर से किसी ने आवाज लगायी- “ठगी दादा !” ठगीराम ने आवाज पहचानी । डाक्टर था। उस दिन तेल-नमक न होने के कारण उनके यहां रसोई नहीं बनी थी।
डाक्टर ने अंदर आते ही पूछा - "कैसे हो?"
ठगीराम कुछ न बोला। सिर पर हाथ रखे बैठा रहा। सोनपाही ने डाक्टर के लिए एक पीढ़ा बढ़ा दिया। डाक्टर ने बैठकर कहा - "ठगीराम, यह सिर पर हाथ रखकर बैठने का समय नहीं है । देश मिलिट्री से भर गया है। चीजों की कीमतें आग हो रही हैं। सरकार के नाश के अलावा और कोई चारा नहीं है। हम भी निकले हैं, तुम्हें भी निकलना है। सबको निकलने के लिए कहो।”
डाक्टर की बातों का लहजा देखकर ठगीराम-सोनपाही चकित रह गये । इसी बीच माली और उसकी बहू भी वहां आ खड़े हुए थे। सिर्फ ठगी की छोटी बेटी कांचनमती अंदर चाय का पानी गर्म कर रही थी।
डाक्टर ने कहा- "बंबई में स्वराज की सभा हुई थी। तय किया गया है कि चाहे जैसे भी हो इस बार फिरंगियों को हमें देश से खदेड़ना ही है । करेंगे या मरेंगे।"
ठगीराम चुप रहा । माली ने डाक्टर से पूछा - "उन्हें हम कैसे खदेड़ेंगे?"
डाक्टर माली के चेहरे की ओर क्षण भर एकटक देखता रहा । फिर बोला- “मुझसे क्यों पूछते हो? अपने से ही पूछो । जमीन तुम्हारी है, देश तुम्हारा है । तुम लोग अगर किसी को थाने बनाकर कचहरी लगाकर रहने दो, तभी कोई यहां रह सकता है, नहीं तो नहीं।"
"मगर क्या वे हमारी बातें मानेंगे?" माली ने फिर पूछा।
"नहीं मानेंगे? मानेंगे क्यों नहीं? देश में पुलिस-मिलिट्री वाले हैं ही कितने ? वे एक हों, तो तुम लोग हजार होओगे। हर दिशा में निकल जाओ, थानों पर कब्जा करो। स्वराज की स्थापना तभी होगी। तभी अपनी इच्छा के अनुसार खेती कर सकोगे।” डाक्टर उत्तेजना के लहजे में कहता गया।
माली ने कुछ क्षण ठगीराम की ओर देखकर पूछा- “बाबा, क्या करना चाहते हो?"
ठगीराम ने तेज आवाज में कहा – “करना क्या है ? आज अगर विदेशी को खदेड़ते नहीं तो कल खाओगे क्या?” इतना कहकर डाक्टर की ओर देखते हुए बोला - "डाक्टर बाबू, इस राज-शासन से बिना लड़े चारा नहीं है । अकाल में तो मर नहीं सकते ! क्या करना है, हमें बताइए । सिर्फ मैं ही नहीं, हमारे परिवार के सभी लोग लड़ेंगे।”
डाक्टर के चेहरे पर नये संकल्प की आभा खिल उठी । ठगी के घर के अलाव के चारों ओर एक नया प्रकाश फैल गया। सबके चेहरे गंभीर थे, सबके चेहरों पर एक महान कर्तव्य का उत्तरदायित्व था।...
पांच शव ! अंधेरी रात । पहले शव के पास खड़े हो डाक्टर ने लिखा - "मालीराम, ठगीराम का बेटा, स्थान कलियाबर, नगांव थाने पर झंडा फहराते हुए पुलिस की गोली से मरा ।” मृत्यु-वाहिनी द्वारा शव को हटाया गया। “उम्र छब्बीस साल, पांच हजार लोगों के जुलूस का नेतृत्व कर रहा था।"
इसके बाद मृत्यु-वाहिनी के दो नौजवान शव को उठा ले गये।
दूसरे शव के पास खड़े हो डाक्टर ने क्षण भर उसके चेहरे को अच्छी तरह से देखा, फिर धीरे-धीरे कहा- “मालीराम की पत्नी, उम्र बीस साल । फिरंगी मिलिट्री वाले जब बलात्कार कर रहे थे तब इसने एक सिपाही को छुरा घोंपकर मार डाला । उससे क्रोधित हो कैप्टेन ब्रिस्टल ने गोलियां चलायीं।”
इसके बाद शव को मृत्यु-वाहिनी वाले ले गये।
तीसरे शव के पास खड़े हो डाक्टर ने देखा, एक छोटा-सा बच्चा है । उम्र चौदह साल के लगभग होगी। बहुत नजदीक से टार्च की रोशनी में चेहरा देखकर डाक्टर के रोंगटे खड़े हो गये। “अरे ! यह तो सूर्य है ।” धीमे स्वर में डाक्टर ने कहा।
अचानक अंधेरे में से आवाज आयी - “क्या है, डाक्टर बाबू ?" डाक्टर बोला- “यह तो मेरा ही लड़का है।"
मृत्यु-वाहिनी के एक लड़के ने कहा - "वह हमारा सदस्य था। पिछली रात को शहर से साइकिल पर कामपुर का पुल पार करते वक्त मिलिट्री की गोली से मरा है।"
डाक्टर की आंखों से टप-टप आंसू झरने लगे। फिर भी वह लिखता गया- “डा.मणि बरा का लड़का, उम्र चौदह साल । दसवीं कक्षा का विद्यार्थी, मिलिट्री की गोलियों से मृत्यु ।”
चौथे और पांचवें शव के नाम डाक्टर ने किसी तरह से लिखे, वे कलियाबर के किसान थे।
तब भी सुबह होने में काफी देर थी । मृत्यु-वाहिनी के लड़कों ने पूछा- “शवों को जलायें या दफना दें?”
जलाने पर मिलिट्री की नजर पड़ सकती है । और तब बात भयंकर हो जायेगी- “नहीं, दफनाना ही अच्छा रहेगा।” डाक्टर की आंखों से तब भी आंसू बह रहे थे। मगर ठगीराम की राय? कहते-कहते अचानक रुक गया। तभी डाक्टर की पीठ पर हाथ रखकर किसी ने कहा, "डाक्टर बाबू ! आप जो कर रहे हैं वही अच्छा है । जलाने पर शत्रु को हमारा सुराग मिल जायेगा । दफना देना ही अच्छा रहेगा।" आवाज ठगीराम की थी। ठगीराम की स्थिर आवाज से दुखी डाक्टर के प्राणों को कुछ सांत्वना मिली।
रात के आखिरी पहर में कलं-तट पर सारे शवों को जमीन में गाड़ दिया गया। शहीदों की मरण-भूमि पर धीरे-धीरे नये दिन की रक्तरंजित प्रकाश-रेखा फैल गयी।
ठगीराम और डाक्टर दोनों ने शहीदों को शयन-भूमि पर घुटने टेककर अंजुरी-अंजुरी फूल चढ़ाये, इसके बाद पांच धूपबत्तियां जलायी गयीं।
ठगीराम ने आंसू बहाते हुए कहा- “हमारे आबाल-वृद्ध-वनिता सबने हमारे लिए खून बहाया है। हमारे शरीर का रक्त खौल रहा है । अब हमारे मरने की बारी है । आइए, हम सभी आज यहां आकर संकल्प लें- करेंगे या मरेंगे।"
लाल सूरज के पहले प्रकाश ने आकर शहीद-स्थल के फूलों को प्रकाशित कर दिया। मृतकों को मृत्यु-वाहिनी ने सलामी दी, फिर वे वहां से हट गये।...
पांच अगहन और निकल गये। ठगीराम के परिवार में कांचनमती, सोनपाही और नतिन बच गये । शेष दोनों शहीद हो गये।
अचानक एक दिन आधी रात को गांव के नामघर में घंटा बज उठा । ठगीराम जाग पड़ा, पूछा, क्या हुआ?”
सोनपाही ने बताया- “क्यों, कल नगर के उस आदमी ने यह बात नहीं बतायी थी कि आज स्वराज आने वाला है ? वह स्वराज का समारोह हो रहा है।"
ठगीराम उठ पड़ा। बूढ़े की उम्र अड़सठ साल से भी ज्यादा हो गयी थी, तिस पर स्वराज की लड़ाई में चोट खाकर उसकी कमर में दर्द हो गया था। फिर भी स्वराज के नाम पर वह उठ बैठा । कांचनमती और नन्हीं नातिन को जगाया। बाहर अलाव जलाकर वह पत्नी, बेटी और नातिन को स्वराज की कहानी सुनाने लगा। कलियाबर के उस विशाल जन-समावेश के दिन से शुरू कर लगान-बंदी आंदोलन, और मालीराम आदि के संग्राम की कहानी सुनाते-सुनाते ठगीराम की आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे।
कांचनमती ने ठगीराम से पूछा- “तब तो बाबा, अब से हमें सुख मिलेगा।”
ठगीराम बोला- “हां ! मिलेगा बेटी, अब से लगान माफी मिलेगी, बैल-भैंस की कीमतें घटेंगी। कपड़े-लत्ते, नमक-तेल आदि की कीमतें कम होंगी, औरहम खुशी से खेती-बाड़ी कर सकेंगे?"
फिर बूढ़े ने कहा- “अब तो मुझे अकेले खेती के काम में लगना होगा । फिर भी जरूर करूंगा, अगर धान मिले तो खेती कौन नहीं करेगा?"
मालीराम की याद आते ही सोनपाही की आंखों से आंसू बहने लगे।
और तीन अगहन बीते । कहां, लगान भी तो नहीं घटा, गाय-बैल की कीमतें भी नहीं घटीं । ठगीराम आदि का मन भी बुझ-सा गया। इतनी लड़ाई के बाद भी कुछ नहीं हुआ। “हाय-हाय ! हमारे बेटे-बेटियों-बहुओं ने यों ही जानें दीं।"...घर-घर में दुख-कष्ट बढ़ते ही गये। ज्यादातर घरों में गाय-बैल नहीं हैं, धान के खलिहान खाली हैं । तिस पर खाने वालों की तादाद बढ़ गयी। ठगीराम को अब खुद ही खोज-ढूंढकर खाना पड़ता है। मगर मांगने पर देने वाला कौन है ? ज्यादातर लोगों की वही हालत है।...
मायाराम ओजा ने एक दिन उसके आंगन में बैठे-बैठे कहा - "भैया, करें भी आखिर तो क्या करें? हमारे गांव के साठ-बासठ नौजवान खेती-बाड़ी न कर पाने के कारण बेकार बैठे हैं । जमीन भी नहीं, बैल-भैंसें भी नहीं, क्या करें? मेरे ही तीन लड़के हैं, जानते हो, सात पुरखों ने भी जो काम कभी नहीं किया था, वैसे कामों में जुटे हैं।" कहते-कहते धीमे से ठगीराम के कानों में कहा- “चोरी करने में लगे हैं, समझे । तुमसे क्या छिपाना?"
ठगीराम ने तुरंत मायाराम के बेटों को बुलवाया । समझाते हुए कहा - "बेटो, यह गंदी आदत छोड़ दो। हम किसान के बेटे हैं, खेती-बाड़ी में जुट जाओ।" उन लड़कों ने ठगीराम को प्रणाम कर कहा - "काका, यह बात क्या हम नहीं समझते? पर करें क्या? जमीन भी नहीं, गाय-बैल भी नहीं ! लाचार होकर नगर के धनी-महाजनों के यहां चोरी-चोरी करने लगे हैं।” ठगीराम ने कहा - "बेटो, चोरी-चोरी करना उचित नहीं है। वे भी तो आखिर हमारे ही देश के आदमी हैं।"
लड़कों ने इस बार सीधे जवाब दिया- "इन्हें लूटकर खाये बगैर कोई चारा नहीं है। चाहे जो भी हो..."
ठगीराम का अंतर विषाद से भर गया । क्या करना है, क्या नहीं करना है, इन्हीं बातों को सोचते-विचारते बूढा हर रोज गांव वालों से घर-घर जाकर चर्चा करता । सब लोग कहते - "स्वराज की लड़ाई लड़कर भला हमें क्या फायदा हुआ? न लगान घटा, और न चीजों की कीमतें ही कम हुईं।" कोई-कोई कहते- “हमें जमीन दें, चोरी-बटमारी अपने आप खत्म हो जायेगी।”
ठगीराम निराश मन से घर लौटता । वह फिर इन बातों पर सोचने-विचारने लगा।
अचानक एक दिन डाक्टर आया। ठगीराम को मानो मनचाहा मिल गया। उसे बिठा कर धीरे-धीरे सारी बातें बताने के बाद आखिर में पूछा- “बताइए तो डाक्टर बाबू, क्या यही स्वराज है ? क्या इसी के लिए हमारे बच्चों ने अपने जीवन का बलिदान किया था?”
एक पल बाद डाक्टर ने अचानक कहा- “नहीं, यह स्वराज नहीं है, दादा ! स्वराज होने में अभी कुछ दिन और लगेंगे।"
ठगीराम का चेहरा पीला पड़ गया, बोला- “स्वराज कब होगा, डाक्टर बाबू? गांव-गांव में अकाल पड़ा है । सारे नौजवान लाचार होकर चोर बन रहे हैं । क्या करें हम? उन्हें भी कुछ कह नहीं पाता । न अपना ही कुछ भला कर सका, न दूसरों का।"
डाक्टर ने जवाब दिया- “फिर भी हमारे लड़कों ने जो कुछ किया है, उस काम को हमें पूरा करना है । दूसरे जो कुछ भी कहें, हम स्वराज के लिए आजीवन लड़ते रहेंगे।"
डाक्टर के चेहरे की ओर देखकर, ठगीराम को जरा-सा प्रकाश दिखायी पड़ा । अचानक डाक्टर कह उठा- “हमें फिर स्वराज के लिए सभा जुटानी होगी।"
ठगीराम ने पूछा – “कहां बुलानी है सभा?"
डाक्टर ने जवाब दिया- “यहीं, कलं के तट पर । उस शहीद भूमि के पास । हमें सभा बुलानी ही होगी, नहीं तो..." डाक्टर का चेहरा अचानक कठोर हो गया । “तीस साल से हमारे देश पर अमीरों का शासन चल रहा है । गरीब-दुखिया की कहीं कोई सुनवाई नहीं।” फिर कुछ क्षण रुककर कहा- "तुम डरो मत दादा, इस बार हम जरूर जीतेंगे । एक दुश्मन तो गया, ये दुश्मन भी जायेंगे जरूर।”
ठगीराम के हृदय में फिर आशा का सपना जाग उठा।
नवीन स्वराज की सभा में समूचे असम के अनेक लोग आकर कलं-तट पर जुटे । सभा हुई। नया संकल्प लिया गया, स्वराज के नये आंदोलन का शुभारंभ हुआ।
सभा के बाद शहीद-भूमि पर घुटने टेककर सब ने शपथ ली - जब तक किसानों को आजादी नहीं मिलती, जब तक लगान-माफी नहीं मिलती, जब तक गांव के लड़कों को जमीन नहीं मिलती, तब तक हमारा स्वराज का आंदोलन समाप्त नहीं होगा । जब तक दो वक्त आराम से खाने-पीने की व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक हमारा संग्राम जारी रहेगा। तब तक अपने मां-बाप, भाई-बहन आदि के द्वारा आरंभ किये गये अधूरे कामों को पूरा करने का प्रयास हम करते रहेंगे।
ठगीराम को नयी राह मिली । ढलती उम्र में भी उसके शरीर में स्वराज का रक्त बिना बहे न रहा। उसने सोचा, उसके मर जाने पर बेटी-नाती आदि का क्या होगा? गांव की हालत अगर ऐसे ही दिन-पर-दिन बिगड़ती रही तो फिर वे जिंदा कैसे रह पायेंगे? जीतें या हारें, हम मरते दम तक लड़ेंगे। स्वराज के लिए लड़ेंगे। अपने गांव की उन्नति करने वाला भला हमारे सिवा और कौन है?
ठगीराम डाक्टर से विदा लेकर सभा के समाप्त होने पर उस चांदनी रात को, हाथों में लाठी लिये कलं के घाट पर उतर गया। अचानक उसे सुनायी पड़ा :
कलङस न चले नाओ मोर भैयाइ ऐ, राइजर न चले पाओं,
संधिया आंधारत बंति न जले बुकु शुदा शुदा पाओं ॥
(यानी-अरे भैया, कलं में नाव नहीं चलती। जनता के कदम नहीं चलते । शाम के अंधेरे में दीपक नहीं जलता, दिल सूना-सूना-सा लगता है।)
ठगीराम ने अधीर होकर पुकारा - “मायाराम भाई, जरा इधर सुनते जाना।"
मायाराम पास की एक झोंपड़ी से निकलकर धीरे-धीरे पास आया।
"भाई, अब से यह गीत न गाना ।”
"क्यों?” मायाराम ने पूछा।
“जनता के कदमों को भी चलाना होगा, कलं में नाव भी चलानी होगी । मैं जो कहता हूं, सुनो । नहीं तो हमारे गांव की उन्नति होने वाली नहीं है।" ठगीराम ने कलं के पानी में अपनी लाठी जोर से पटकी।
मायाराम ने कोई जवाब नहीं दिया। ठगीराम ने फिर कहा - "भाई, आज तीस साल बाद यह बात समझ में आ गयी है कि अपने स्वराज को हमें खुद ही ले आना पड़ेगा।"
मायाराम ने पूछा- “कैसे?”
कुछ जवाब न देकर उसे शहीदों की मजारों तक ले जाकर ठगीराम बोला - “हमारे बेटे-बेटियां यहीं हैं । इनके गीत क्यों नहीं गाते, भाई?"
मायाराम का शरीर रोमांचित हो उठा। “भैया, यहीं माली आदि को दफनाया गया था न?”
"हां, भाई । उनकी शपथ दे रहा हूं। अब वेदना के गीत न गाओ। नहीं तो उनकी आत्माओं को चैन नहीं मिलेगा।” ठगीराम बोला।
मायाराम ने मजार पर से मुट्ठी-भर धूल उठाकर सिर पर चढ़ायी । ठगीराम की आंखों में आंसू उमड़ आये।
ठगीराम कलं के तट पर से होकर चांदनी में धीरे-धीरे कदम बढ़ाता गया। साथ ही उसे अपने विगत पूरे जीवन की कहानी याद आ गयी । कलं की रेत पर, कलं के तट पर उसके जीवन के अड़सठ साल गुजरे हैं। गांव के लोगों के सुख-दुख की गवाह रही है यह कलं । कितने युगों से यह कलं बहती आयी है, कितने युगों तक बहती रहेगी। गांव की छाती पर हजारों ठगीराम आयेंगे, हजारों ठगीराम जायेंगे, पर कलं-तट की जमीन पर नये किसान जरूर जागेंगे । बाप के बाद बेटे आयेंगे, बेटों के बाद नाती अपने हाथों में हल पकड़ेंगे । उसकी जिंदगी के पिछले तीस सालों में लक्ष्मी नहीं आयी है। मगर बेटों-नातियों की जिंदगी में और कितने ही तीस अगहन आरहे हैं । उनके अगहनों में लक्ष्मी का आगमन हो इसके लिए हमें प्रयास करना होगा, जब तक शरीर में होश बाकी है, जब तक शरीर में प्राण है । जीवन तो एक नहीं, सौ कलं-जैसी निरंतर बहने वाली जल-धाराओं का प्रवाह है यह कलं-तट का जीवन !
तब बूढ़े के अंतर में एक नवीन भावी आनंद का सपना जगमगा उठा।
सोने की कलं, चांदी की कलं, धारा की लहर-लहर में नाचती है। कलं आज भी बहती जाती है - अतीत को पीछे छोड़कर ...
(कलं=ब्रह्मपुत्र की एक धारा का नाम; कार्तिक बिहु=असम के तीन बिहु पर्वों में एक, जिसमें तुलसी के बिरवे के नीचे दीपक आदि जलाये जाते हैं और प्रार्थना की जाती है; मेजि=माघबिहु के समय जलायी जाने वाली फूस की झोंपड़ी; पेपा=एक तरह की शहनाई; भावना-घर=वह स्थान जहां शंकरदेव-माधवदेव तथा उनके शिष्यों आदि द्वारा रचित नाटकों का मंचन होता है; मौजादार=किसी मौजा वा अंचल का भू-राजस्व उगाहने वाला अधिकारी; थुरिया=एक तरह का कनफूल; टोकारी=एक तरह का छोटा इकतारा)