Kalam Ka Sipahi (Biography Premchand) : Amrit Rai

क़लम का सिपाही (प्रेमचन्द की जीवनी) : अमृत राय

अध्याय : 3

चुनार के मिशन स्कूल से निकलकर मुंशीजी, जिनकी उम्र उस समय बीस साल थी, साल-भर के अन्दर ही फिर बनारस पहुँचे और किसी नए काम की तलाश शुरू हुई।

क्वींस कॉलेज में बेकन साहब प्रिन्सिपल थे। शिक्षा विभाग में बड़ा असर रखते थे, एक ग़रीब नौजवान को हीले से लगाना उनके लिए मुश्किल बात न थी। नवाब के बारे में उनका ख़याल भी अच्छा था। सीधा, सच्चा, ज़हीन, मेहनती लड़का है। मगर बहुत ग़रीब है।

बेकन साहब ने यहाँ-वहाँ दो-एक ख़त लिखे और मुंशीजी की नियुक्ति 2 जुलाई, 1900 को बहराइच के जिला स्कूल में पाँचवें मास्टर के पद पर हुई। वेतन बीस रुपए महीना । सरकारी नौकरी का सिलसिला शुरू हुआ। चुनार की मास्टरी, मुदर्रिसी के इस लम्बे ड्रामे का रिहर्सल थी।

बहराइच में मुंशीजी को ज़्यादा दिन नहीं रहना पड़ा। ढाई महीने बाद ही उनकी बदली परताबगढ़ के लिए हो गई । 21 सितम्बर से उन्होंने परताबगढ़ के जिला स्कूल में फर्स्ट एडीशनल मास्टर का काम सम्हाला वेतन वही बीस, जो कि घर की ज़रूरतों के लिए काफ़ी न था । रुपया बराबर घर भेजना पड़ता था। चाची अपने बेटे के साथ वहीं रहती थीं । परताबगढ़ में उन लोगों को अपने साथ रखने का सवाल नहीं पैदा होता था क्योंकि मुंशीजी ख़ुद ताले के ठाकुर साहब की हवेली के एक कमरे में रहते थे। उनके दो लड़कों को पढ़ाते थे और उन्हीं के यहाँ रहते थे। ट्यूशन से अब भी छुटकारा न था । लेकिन यह ट्यूशन और ट्यूशनों जैसा न था क्योंकि ताला के वह ठाकुर साहब बिलकुल घर के लड़के की तरह उनको मानते थे। और उनका भी सम्बन्ध अपने शिष्यों से गुरु-शिष्य का न होकर दोस्ती का ही ज़्यादा था । इस तरह परताबगढ़ में मुंशीजी की ज़िन्दगी काफ़ी इत्मीनान से गुज़र रही थी। न कहीं जाते थे न आते थे। घर से स्कूल और स्कूल से घर।

मिलने-जुलनेवालों में पहला नम्बर बाबू राधाकृष्ण का था, जो आगे चलकर अवध चीफ कोर्ट के जज हुए। उनसे मुंशीजी की बहुत बनती थी । बराबर अपनी नई चीज़ें उन्हें सुनाते थे। बाबू राधाकृष्ण साहित्यरसिक तो जैसे थे ही, ख़ुद भी शेर कह लेते थे।

पंडित जयराम शास्त्री संस्कृत के पंडित थे, वहीं ठाकुर साहब की हवेली पर वह भी रहते थे, बराबर का साथ था पर सांस्कृतिक पृष्ठभूमि बिल्कुल भिन्न होने के कारण उनके साथ मुंशीजी की मैत्री साहित्यिक मैत्री का रूप न ले पाती थी, जैसी कि बाबू राधाकृष्ण के साथ थी।

अपना खाना मुंशीजी कभी ख़ुद ही पका लेते थे, मगर ज़्यादातर तो लड़कों के साथ हवेली पर ही उनका खाना भी होता ।

पढ़ना-लिखना, यही उनकी ज़िन्दगी थी। और पढ़ने से ज़्यादा वह लिखते थे। अक्सर रात को बड़ी देर तक लिखते रह जाते।

लड़कों की और उनकी उम्र में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ न था, पर लड़के उनका बड़ा अदब करते और वह भी उनको बड़ी मुहब्बत से पढ़ाते, ख़ासकर अंग्रेज़ी और उर्दू । लड़कों से ज़्यादा मेहनत न करवाते ।

परताबगढ़ का पानी भी उनको रास आ गया था। जब तक रहे एक बार भी बीमार नहीं पड़े । प्रसन्न थे, सन्तुष्ट थे, लिखने-पढ़ने में दिन बीत रहे थे। लेकिन अब यह सिर्फ़ गोरखपुर जैसा पढ़ने का चस्का न था बल्कि एक ऐसे आदमी का पढ़ना था जो कि अपने भीतर एक नई थरथरी महसूस कर रहा था। अब से सात बरस पहले तेरह साल के एक लड़के ने अपने किसी मामा से बदला लेने के लिए उनकी छीछालेदर को नाटक की शक्ल दी थी। बात आई- गई हो गई थी। लेकिन अब वह अपनी रगों में एक नई ही सुरसुराहट और अपने दिल में एक नई ही तड़प महसूस कर रहा था जो अपने लिए ज़बान मांगती थी। मगर वह ज़बान उस चीज़ को दे तो कैसे दे ?

पिछले बरसों में उसने न जाने कितना कुछ पढ़ा था लेकिन उसमें ज़्यादातर राजा-रानी के क़िस्से थे, तलिस्म और ऐयारी के किस्से थे। पढ़ने में वह बहुत अच्छे लगते थे मगर लिखना वह कुछ और चाहता था। उस तरह के क़िस्से फिर से लिखकर क्या होगा। ठीक है उनसे दिलबहलाव होता है मगर सवाल यह है कि हम आख़िर कब तक इसी तरह दिलबहलाव करते रहेंगे। इस तरह तो इतिहास के पन्नों से हमारा नाम भी मिट जाएगा। ज़रा अपने समाज की हालत भी तो देखो - कैसी मुर्दे की नींद सो रहा है ! उसका दिल बहलाने की ज़रूरत है कि झकझोरकर उसको जगाने की ? न जाने कब से सो रहा है इसी तरह। क्या क़यामत तक सोता रहेगा! यह तो मौत है सरासर ! अगर कुछ लिखना ही है तो ऐसा कुछ लिखो जिससे यह मौत और ग़फलत की नींद कुछ टूटे, यह मुर्दनी कुछ दूर हो। कितनी बुरी हालत है हमारे हिन्दू समाज की । नहीं समझा जाता । एक आदमी के छू जाने से दूसरे आदमी की जात चली जाती है। यह क्या ज़िन्दा क़ौमों के लक्षण हैं?

यह सब इन्हीं बड़े-बड़े तिलकधारी ब्राह्मणों की, पुजारियों, महन्तों, मठाधीशों की कारस्तानी है। कहने को चतुर्वेदी हैं, त्रिवेदी हैं, यह हैं, वह हैं, लेकिन हैं निरे लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर, एक वेद की भी शक्ल जो उन्होंने देखी हो, बस अपने तर माल से काम, हलुआ- पूरी उड़ाये जाओ, चैन की बंसी बजाए जाओ! भांग-बूटी छानो, जितनी मन चाहे शराब लूँढाओ सुन्दर-सुन्दर रमणियों को लेकर विहार करो, मन्दिर के भीतर रंडी-पतुरिया नचाओ - इससे बड़ी भक्ति, धर्म, उपासना और क्या है! पतुरिया नचाने से भगवान भरस्ट नहीं होते, चमार पासी उनका दर्शन कर ले तो भगवान भरस्ट हो जाते हैं! वैसे कहने को वह पतितपावन हैं! महंतजी की तिजोरी में बन्द !

छोड़ो इन मरदूद पंडों-महंतों को, एक नज़र इस ग़रीब औरत जात पर भी तो डालो। क्या मट्टी पलीद की है बेचारियों की ! कहने को कह दिया- जहाँ नारियों की पूजा होती है वहाँ देवता वास करते हैं। लेकिन कोई पूछे कि आपने किसी तरह का कोई अधिकार नारियों को दिया? बराबरी का दर्जा न देते लेकिन कुछ तो ऐसे अधिकार देते कि नारी पुरुष के अत्याचारों से अपनी रक्षा कर सकती। वह सब कुछ नहीं । उसकी सच्ची स्थिति दासी के अलावा और कुछ नहीं है। स्वामी अच्छा मिला तो वाह-वाह, बुरा मिला तो रोये अपनी तक़दीर को! कुछ कर नहीं सकती। हर हालत में वह किसी न किसी पुरुष की आश्रित है, अपने पैरों पर खड़े होने का उसको अधिकार नहीं है। शिक्षा का भी अधिकार उसे नहीं है-पुरुष की बराबरी जो करने लग जाएगी! शूद्र और नारी के कान में वेद का स्वर पड़ने से पातक लगता है! उसे अशिक्षित रक्खो, निपट असहाय रक्खो, घर की चहारदीवारी में बन्द करके रक्खो । उसका उपयोग इतना है कि वह भोग्या है, रमणी है और अगर इससे बढ़कर कोई उपयोग है तो यही कि वह जननी है। वह एक खेत है जिससे सन्तान की, पुरुष की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी की प्राप्ति होती है! उसका अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं है, उसकी अपनी किसी इच्छा को समाज मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है, इसीलिए तो कन्या और गौ का स्थान एक है - चाहे जिसके साथ बाँध दो! पाँच साल की लड़की का ब्याह पचास साल के बुड्ढे के साथ हो सकता है। लड़की ने पति का मुँह भी न देखा हो तो क्या, ब्याह का मतलब भी वह समझती हो तो क्या, पति के मरने पर (या उसके द्वारा छोड़ दिए जाने पर) जब वह एक बार विधवा हो गई तो हो गई, उसका कोई उपचार नहीं है। उसे फिर विधवा के समान ही सारी ज़िन्दगी रहना है यानी अपनी सारी प्राकृतिक इच्छाओं को मारकर मुर्दे की तरह ज़िन्दा रहना है। ऐसा ही समाज का विधान है और उसमें किसी प्रकार की छूट नहीं है। अगर कभी किसी समय वह कमज़ोरी दिखलाती है यानी प्रकृति के तकाज़ों के आगे झुकने पर मजबूर होती है - किसी आदमी से प्यार करने लगती है या गर्भवती हो जाती है या किसी के साथ भाग जाती है - तो फिर समाज उसका मुँह भी देखना पाप समझता है। फिर वह समाज के लिए मरे के समान है और बहुत बार तो मौत के घाट उतार भी दी जाती है। उस दंड व्यवस्था में रत्ती भर क्षमा नहीं है। ऐसा सब अप्राकृतिक विधान न होता तो छिपे छिपे समाज में इतना सब पाप पनपता कैसे! कितनी ही विधवाएँ और समाज की सतायी हुई स्त्रियाँ कोठों पर पहुँच जाती हैं। समाज यह सब अपनी आँखों के आगे होते देखता है लेकिन तो भी उसके कान पर जूँ नहीं रेंगती। अपनी ज़िम्मेदारियों की तरफ़ से कितना बेख़बर लेकिन बेकसों को सताने के लिए कितना शेर । करेगा-धरेगा कुछ नहीं लेकिन किसी से कोई ग़लती हो भर जाए, कच्चा ही चबा जाएगा ! विधवाओं पर तो उसकी विशेष कृपा है-उस दुखियारी स्त्री की दूसरी बहनें ही उस पर चौकीदारी करती हैं और ग़रीब औरत अगर कहीं दुर्भाग्य से अपनी लीक से जौ भर भी डिग गई तो फिर उसकी ख़ैरियत नहीं। पहले तो वह औरतें ही उसे अपने तानों से छेद-छेदकर मार डालेंगी और अगर इतने से वह नहीं मरी तो फिर उसका और कुछ उपाय किया जाएगा।

इस तरह की कितनी कहानियाँ नवाब की आँखों के आगे से गुज़र चुकी थीं और हर बार गुस्से से उसकी आँखें जलने लगी थीं। वही सब अनमेल ब्याह की कहानियाँ, विधवा स्त्री की दुर्दशा की कहानियाँ, समाज को खोखला करनेवाली लेन-देन और दूसरी कुरीतियों की कहानियाँ - जिनके चलते कितने ही ग़रीब माँ-बाप अपनी बेटी के हाथ पीले भी नहीं कर पाते और इसी दुःख में घुल- घुलकर मर जाते हैं- अब उसके भीतर मचल रही थीं। रास्ता नया था। वह समझ न पाता था किधर बढ़े, कैसे बढ़े। लेकिन वही उसके भीतर की माँग थी । महज़ दिलबहलाव की चीजें वह नहीं लिखेगा। वह ऐसी कहानियाँ लिखेगा जिन्हें पढ़कर इस मुर्दा समाज में कुछ हरकत पैदा हो। क़िस्सागोई का फ़न वह उन पुरानी किताबों से सीखेगा मगर बात अपनी कहेगा। देश की बड़ी-बड़ी बातें वह क्या जाने मगर औरत जात के साथ, नीच कहलानेवाली जातों के साथ जो बेइंसाफ़ियाँ उसकी आँखों के सामने होती हैं, जमाने के मक्कार, धोखेबाज, लोभी, लम्पट, दुराचारी लोगों की जिस तरह समाज में तूती बोलती है, उन सब की तरफ़ से वह कैसे आँखें मूँद ले !

आर्य समाज का इस समय काफ़ी दौरदौरा था । प्रचारक लोग घूमते रहते। जगह-जगह सभाएँ होतीं, जलसे होते, सनातनी पंडितों से शास्त्रार्थ होते। बाल-विवाह की बुराइयाँ बतलाई जातीं, अनमेल ब्याह की खराबियाँ बतलाई जातीं, विधवा-विवाह के शास्त्रीय प्रमाण जुटाये जाते, क़रारदाद की निन्दा की जाती। यह सवाल कुल दूसरा है कि इन बातों में कितना हिस्सा ज़बानी जमाख़र्च था और कितने पर ख़ुद अगुआ लोग अमल करने को तैयार थे। बातें ज़्यादा थीं, अमल कम। जो लोग मंच पर खड़े होकर धुआँधार व्याख्यान देते थे और शादी में लेन-देन की प्रथा को बुरा कहते थे, ख़ुद चोरी-चोरी वही काम करते थे, लेते भी थे और देते भी थे। विधवाओं की दुर्दशा पर आठ-आठ आँसू रोते थे लेकिन ख़ुद इसके लिए तैयार न थे कि किसी विधवा से ब्याह कर लें या अपने बेटे का ब्याह कर दें या कि अपनी विधवा बेटी का ब्याह फिर से करने का साहस अपने भीतर पा सकें। होता ज़्यादातर वही था जो सदा से होता आया था, मगर बातें बड़ी-बड़ी होती थीं। यही चीज़ घुन की तरह आर्य समाज के आन्दोलन को खा गई और सनातन धर्म की चूलें न हिलीं । लेकिन फिर भी यह एक नई जागृति थी, इक्का-दुक्का आदर्शवादी कभी कुछ कर भी गुज़रता था। ऐसी हालत में फिर भला कैसे मुमकिन था कि नौजवान मुंशीजी का मन इस जागृति की ओर न खिंचता। ख़ुद अपनी ज़िन्दगी में उसने जो कुछ भोगा था, गाँव-घर, टोले-पड़ोस में इस तरह के जो क़िस्से होते देखे थे, सुने थे, उन सब के आधार पर वह इस नई चीज़ की तरफ़ झुका और सच्चे मन से झुका । अच्छे-बुरे तो हर आन्दोलन में होते हैं, इसके लिए किसी आन्दोलन को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। बातों के शेर ज़्यादा होते हैं, ज़िन्दगी में उस चीज़ को बरतनेवाले मुट्ठी भर । यह तो हमेशा का क़िस्सा है। हर आन्दोलन में यही होता है। देखना यह है कि जो कुछ ये लोग कहते हैं, उसमें सार है या नहीं। दूर जाने की क्या ज़रूरत है, सबसे पहले तो ख़ुद उसकी ज़िन्दगी में उनका प्रमाण मौजूद था। आख़िर क्या पड़ी थी मुंशी अजायब लाल को जो बेटी-बेटे के रहते हुए बुढ़ौती में जाकर दुबारा ब्याह किया? सेहत भी आपकी माशा अल्ला थी, रोज़ गिलसिया भर दारू न चढ़ाते तो चलना-फिरना दूभर हो जाता, लेकिन शादी करने से बाज न आए। ताज्जुब है अज़ीज़ों में किसी ने समझाया भी नहीं कि भैया यह क्या करते हो, क्यों अपने गले की यह फाँसी मोल लेते हो । भगवान के दिए तुम्हारे दो बच्चे हैं, अब तुम्हें और क्या चाहिए। राम का नाम लो और इस हरकत से बाज आओ, इसमें सिवाय ख्वारी के और कुछ हाथ न लगेगा । न किसी ने समझाया न ख़ुद आपको अक़्ल आई। अजी छोड़ो भी, ऐसी भी क्या हवस कि उस पर इनसान काबू न रख सके, उम्र भी तो आपकी मुलाहिजा फ़रमाइए, पचास साल का आपका सिन है और आप चले हैं फिर ब्याह रचाने! है कुछ इन्तहा इस अहमकपने की ! ज़रा कोई पूछे उनसे, आपसे तो दो बरस भी बीवी के बिना नहीं रहा गया और आप जाकर एक नई बीवी ब्याह लाए, समाज ने ज़रा भी कनौतियाँ नहीं खड़ी कीं, लेकिन अगर किसी औरत ने ऐसी ही उम्र में पहुँचकर दुबारा शादी की होती तो आपका समाज उसे ज़िन्दा रहने देता? इस उम्र की बात तो जाने दीजिए, आप तो भरी जवानी में बेवा लड़की को शादी नहीं करने देते। उसे संयम का पाठ पढ़ाते हैं। सारा संयम, सारा इन्द्रिय - निग्रह उसी के लिए है, आपके लिए कुछ नहीं है? भूख बस आपको लगती है, औरत को भूख नहीं लगती? आपसे तो उस बुढ़ौती में भी दो बरस नहीं रहा गया और जवान औरत सारी ज़िन्दगी अपनी पहाड़ जैसी जवानी लिये बैठी रहे । वह क्या काठ की बनी है, पत्थर की बनी है ! मगर ख़ैर, आपको किसी ने ब्याह करने से रोका नहीं और आपने ब्याह किया। हुआ वह जो होना था। आप ख़ुद तो सिधार गए लेकिन मेरे पैर में सदा के लिए चक्की बाँध गए। सदा-सदा के लिए मैं खूँटे से बँध गया । क्या-क्या तमन्नाएँ थीं, घूमने की, फिरने की, दुनिया देखने की - सब धरी की धरी रह गईं। अभी एक ही पैर में चक्की थी दूसरा पैर आज़ाद था। लेकिन वह भी आपसे न देखा गया, दूसरे पैर की चक्की का भी इन्तज़ाम आप ख़ुद ही कर गए। बतलाइए नवीं में पढ़ता था मैं, क्या जल्दी थी मेरी शादी की ? वह भी कोई शादी की उम्र है ? और शादी भी कैसी औरत से रूप-रंग, शिक्षा - संस्कार- हर चीज़ से कोरी। कोई उसके साथ निबाह करे भी तो कैसे। लड़ाका ऊपर से । ज़िन्दगी नास हो गई। जो उम्र दुनिया देखने में, ज़िन्दगी के नए तजुर्बे हासिल करने में खर्च होनी चाहिए थी, वह बैल की तरह काम करने में, घर के आए दिन के झगड़े चुकाने में ख़र्च हो गई। एक दिन के लिए मैंने नहीं जाना ज़िन्दगी में सुकून या इत्मीनान किस चीज़ को कहते हैं।

यह ठीक है कि उसकी तबीयत बहुत घुमक्कड़ नहीं थी लेकिन तो भी कुछ कुछ घूमने-फिरने की इच्छा तो हर आदमी के दिल में होती है। और जब वह चीज़ उतनी भी न मिली तो उसका दर्द, उसकी खीझ होनी स्वाभाविक थी। और शायद ज़िन्दगी-भर बनी रही - बावजूद इसके कि धीरे-धीरे, वक़्त बीतने के साथ-साथ, परेशानियों के भँवर में पड़कर घर पर बने रहना उसका अभ्यास और उसके स्वास्थ्य की विवशता बन गई। इस चीज़ का एक हल्का-सा परिचय उस ख़त से मिलता है जो उन्होंने 12 दिसम्बर सन् 29 को अपने एक नौजवान भतीजे रामजी के पास भेजा था। रामजी डाकखाने में काम करते थे । वह उनकी नौकरी के शुरू-शुरू के दिन थे। ऐसा कुछ मौका आया कि उनके महकमे के लोग अपने कुछ आदमियों को काम के सिलसिले में देश के बाहर भेजना चाहते थे। कोई ज़बर्दस्ती न थी । कोई अगर जाना चाहे तो जा सकता था। रामजी ख़ुद कुछ तय न कर पाते थे, लिहाज़ा उन्होंने मशविरे के लिए आपके पास लिखा । उसका जवाब देते हुए आपने अंग्रेज़ी में लिखा- तुम्हारा ख़त पाकर खुशी हुई। काम के सिलसिले में तुम बाहर जाने के लिए नाम लिखाओ, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है । शर्त यही है कि इससे तुम्हारी तरक़्क़ी के रास्ते खुलते हों। खाने और मकान के साथ साठ रुपए महीना बुरा नहीं है। तुम अगर पाँच बरस भी रह गए तो क़रीब तीन हज़ार रुपए बचा लोगे, जिसकी यहाँ कोई उम्मीद नहीं है। इसके अलावा यह भी है कि तुम्हें नए-नए देश और नए-नए लोगों को देखने के मौके मिलेंगे और तुम जब घर लौटोगे तो ज़िन्दगी की एक ज़्यादा अच्छी समझ के मालिक होगे ।....

रामजी गए नहीं, घर के लोगों ने जाने नहीं दिया, लेकिन आज भी ज़िक्र निकलने पर उनको मुंशीजी के ख़त का यही जुमला बार-बार याद आता है और बड़ी हसरत के साथ याद आता है। वही हसरत शायद मुंशीजी के दिल में थी जब कि उन्होंने वह बात लिखी थी, कुछ ऐसी बात कि बेटे, मैं तो कहीं जा-आ न सका लेकिन अगर तुमको इस चीज़ का मौक़ा मिल रहा हो तो उसे हाथ से मत जाने दो! मतलब यह कि आर्यसमाज जिन बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ रहा था - जैसा भी लड़ रहा था - उन सब बुराइयों का भुगतान वह ख़ुद अपनी ज़िन्दगी में कर रहा था। बाप ने बुढ़ौती में ब्याह किया और अपनी बेवा छोड़ गए, एक लड़के के साथ, जिनकी परवरिश की जिम्मेदारी उसे ढोनी पड़ी और ऐसी उम्र में ढोनी पड़ी जब कि हर शख़्स कुलाँचें लगाना चाहता है। ख़ुद उसकी शादी बचपन में कर दी गई, एक निहायत अनमेल, फूहड़ शादी जिसको निबाहने की जिम्मेदारी और निबाह न पाने की ख़लिश उसे झेलनी पड़ी। वह तो ख़ुद एक ज़िन्दा मिसाल था हिन्दू समाज की जहालत का। लिहाजा आर्यसमाज में उसकी दिलचस्पी पूरी थी। जलसों में तो ख़ैर जाते ही थे, शायद वह आर्यसमाज के बाज़ाब्ता सदस्य भी थे। परताबगढ़ का हाल तो पक्का नहीं मालूम लेकिन इसके कुछ ही साल बाद हमीरपुर में वह आर्यसमाज के बाक़ायदा मेम्बर थे। 6 फ़रवरी, 1913 को मझगवाँ से मुंशी दयानरायन निगम को भेजे गए एक ख़त में और बहुत-सी बातों के साथ उन्होंने लिखा था- अब रहा रुपयों का ज़िक्र । मुझे इस वक़्त चन्दा ज़रूरत नहीं है। मगर मेरे ज़िम्मे हमीरपुर आर्यसमाज के दस रुपए बाक़ी हैं। बार-बार तक़ाज़ा हुआ है मगर अपनी तिही-दस्ती ने इजाज़त न दी कि अदा कर दूँ। आप अगर afford कर सकें तो बराहेरास्त मेरे नाम से हमीरपुर आर्यसमाज के सेक्रेटरी के नाम दस रुपए का मनीआर्डर कर दें।... यहाँ अब जलसा भी अनक़रीब होनेवाला है। ....

जिस जलसे का इस ख़त में ज़िक्र है, शायद उसी में मौलवी महेश प्रसाद को जाने का और मुंशी प्रेमचन्द से पहली बार मिलने का इत्तफ़ाक़ हुआ था। वह लिखते हैं : ‘सन् 1912 में प्रेमचन्दजी हमीरपुर जिले में शिक्षा विभाग के सब- डिप्टी-इंस्पेक्टर थे। महोबा में रहते थे। मुझे ठीक याद नहीं कि मई का महीना था या जून का जब कि मुझे आर्यसमाज के एक प्रचारक के रूप में महोबा जाना पड़ा था। उस समय मुझे उन्हीं के यहाँ ठहरना पड़ा था। उनके जरिए ही मुझे ईसाइयों के उस काम के बारे में बहुत कुछ जानकारी हासिल हुई थी जो उस समय महोबे में ही नहीं बल्कि हमीरपुर ज़िले में भी हो रहा था। उन्होंने बताया था कि हमारी सामाजिक बुराइयों का ही फल है कि महोबा और बुन्देलखंड की दूसरी जगहों में हिन्दुओं के अनेक लड़की-लड़के ईसाइयों के घरों में पहुँच गए हैं।'

मुंशीजी के लिए यह सिर्फ़ कहने की एक बात न थी बल्कि सीने पर बैठा हुआ एक बोझ था और उन्होंने इन्हीं दिनों 'ख़ून सफ़ेद' नाम की कहानी लिखी । कहानी यह है कि जादोराय का लड़का साधो परिस्थिति के चक्र में पड़कर पादरियों के साथ चला जाता है। कई बरस उन्हीं के साथ रहता है। वह लोग उसको ईसाई बना लेते हैं। फिर एक रोज़ उसको अपने घर की, अपने माँ- बाप की सुध आती है और वह किसी दूर-दराज जगह से अपने घर पहुँचता है। माँ-बाप तो अब भी उसके माँ-बाप हैं लेकिन बीच में बिरादरी आकर खड़ी हो हो गयी है जो दुबारा हिन्दू बन जाने के बाद भी पूरी तरह उसको अपने बीच लेने के लिए तैयार नहीं है। नतीजा होता है कि वह शाप के से स्वर में यह कहता हुआ कि 'जिनका ख़ून सफ़ेद है, उनके बीच में रहना व्यर्थ है' फिर वहीं चला जाता है जहाँ से आया था । कहानी कुछ ख़ास अच्छी नहीं है लेकिन हाँ, उससे इस बात का पता ज़रूर चलता है कि मुंशीजी का मन किस तरह बन रहा था। मन की इस बनावट में आर्यसमाज के अलावा कुछ हाथ शायद उस सोशल रिफ़ार्म लीग का भी था जो रानाडे और गोखले के नेतृत्व में काफ़ी महत्त्वपूर्ण काम कर रही थी। उसका भी उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों को दूर करना था, वही कुरीतियाँ जिनके चलते उसके पैरों में चक्की के ये मोटे-मोटे पाट बँध गए थे, वर्ना वह भी चिड़ियों की तरह आज़ाद होता।

नहीं तो वह यहाँ ताबगढ़ में पड़ा था और वहाँ घर पर लमही में उसकी दूसरी माँ, पिता की बढ़ौती की शादी की बेवा, और ख़ुद उसकी बीवी बैठी थी जिससे उसकी शादी पन्द्रह साल की उम्र में हुई थी। उनकी परवरिश की जिम्मेदारी पूरी थी लेकिन सुख एक भी नहीं, उल्टे आए दिन की कलह । चलो उस सबसे तो बचा हुआ हूँ यहाँ पर! पढ़ता हूँ, पढ़ाता हूँ, जो जी में आता है दो अक्षर गोद लेता हूँ। मेरे सुख के लिए यही बहुत काफ़ी है। लेकिन यह सब मन को बहलाने की बातें हैं। असल चीज़ यह है कि उसको अपनी ज़िन्दगी उखड़ी हुई मालूम होती थी और अब वह यह भी समझने लगा था कि इसकी जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति पर नहीं बल्कि समाज के पिछड़ेपन और उसकी कुरीतियों पर है। इसके लिए अपनी ताक़त भर कुछ न कुछ करना होगा। किसी के हाथ में कोई हथियार है, किसी के हाथ में कोई । कुछ लोग व्याख्यान देने में निपुण होते हैं, वह घूम-घूमकर अपने व्याख्यानों से लोगों को जगाते फिरते हैं। कुछ लोग संगठन करने की कला जानते हैं, वह इस बिखरे हुए समाज को संगठन की डोर में बाँधकर लोगों के दिमाग़ों के बन्द खिड़की-दरवाज़े खोलते हैं। मुझसे वह चीजें नहीं बन सकतीं। पर मेरे हाथ में क़लम है। लोग क़िस्से-कहानियाँ पढ़ना भी बहुत पसन्द करते हैं। मैं अपने क़िस्सों- कहानियों से लोगों को उनके समाज के असली रूप को उनकी आँखों के सामने लाऊँगा और उन्हें सोचने के लिए मजबूर करूँगा । इतना अगर मैं कर सका तो समझूँगा कि मेरी ज़िन्दगी अकारथ नहीं गई । अपनी क़ौम की, जाति की, देश की सेवा करने से बड़ी बात और क्या है। जीने को तो सभी जीते हैं, कोई आराम से कोई तकलीफ़ से। कोई शाही टुकड़े खाता है, कमख़ाब पहनता है और महलों में रहता है। कोई जौ की रोटी और बथुए का साग खाकर और फटी मिर्जई पहनकर अपनी चूती हुई मड़ैया में अपनी ज़िन्दगी के दिन गुजार देता है। वह सबकी अपनी-अपनी बात है, दुनिया को उस सबसे कुछ सरोकार नहीं। जो मालदार है वह किसी का घर नहीं भर देता और जो दरिद्र है वह किसी का कुछ छीन नहीं लेता। दुनिया तो सिर्फ़ एक बात जानती है, उसी काँटे से वह सबको तोलती है- उसकी ख़ातिर कौन कितना जिया या नहीं जिया । अपने लिए तो जानवर भी जी लेता है, जो दूसरों के लिए जिये, वही असल आदमी है। करोड़पति मर जाता है, कुत्ता भी नहीं भूँकता। और ज़िन्दगी-भर चीथड़ा लगाकर घूमनेवाले सच्चे वैरागी की समाधि पर लोग सिजदे करते हैं, फूल और बताशे चढ़ाते हैं। दुनिया अपने ऊपर की गई भलाई को कभी नहीं भूलती। और फिर यह तो किसी पर भलाई करने की बात नहीं है । जिस मिट्टी में मेरा जन्म हुआ उसका झाड़-झंखाड़ साफ़ करने की जिम्मेदारी मेरी भी तो है। न सही मैं कहीं का महात्मा लेकिन अपनी बिसात-भर काम तो हर शख़्स कर सकता है। सेतुबन्ध बनाते समय वह गिलहरी जो अपने मुँह में एक तिनका लेकर पहुँची थी, भगवान रामचन्द्र ने उसकी भी कुछ कम कद्र न की थी। आराम और आसाइश की ज़िन्दगी पा लेना मुश्किल हो सकता है लेकिन नामुमकिन नहीं है। मगर सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आराम और आसाइश लेकर आदमी करे भी क्या ? उस रास्ते तो जो गया खो गया। मैं उस रास्ते नहीं जाऊँगा । सच कहता हूँ, वैसी कोई तमन्ना मेरे दिल में नहीं है। मेरे लिए तो यही अपनी सीधी-सादी ज़िन्दगी सबसे अच्छी है, न ऊधो के लेने न माधो के देने में, दुनिया की हाय हाय से कोई मतलब। अपने घर बैठो, मोटा-झोटा जो मिल जाए खा लो और कोने में बैठकर अपना काम करो। इससे अच्छा कुछ भी नहीं है।

बहुत लोगों से मिलने-जुलने की आदत उसे कभी न थी । किताबें ही उसकी सबसे अच्छी साथी थीं। जो वक़्त पढ़ाने से बचता वह अपने पढ़ने और लिखने में खर्च होता। लेकिन अब एक फ़िक्र उसे सताने लगी थी- यही कि अब उसे ट्रेनिंग पास कर लेना चाहिए | ज़िन्दगी भर अब यही मास्टरी करनी है, ट्रेनिंग हासिल किए बिना काम न चलेगा। बहुत अच्छा होता कि सारा समय लिखने-पढ़ने को दिया जा सकता लेकिन सिर्फ़ किताबें लिखकर तो रोटी नहीं चल सकती। उसके लिए तो कुछ न कुछ करना ही होगा। और जब कुछ न कुछ करना ही है तो फिर उसमें सबसे अच्छी यही मास्टरी है। और मास्टरी के लिए ट्रेनिंग ऐन ज़रूरी है। उस वक़्त सूबे का सबसे पहला और अकेला ट्रेनिंग कालेज इलाहाबाद में था । परताबगढ़ ख़ुद इलाहाबाद ज़िले की तहसील था और दोनों के बीच सिर्फ़ बत्तीस मील की दूरी थी। लिहाज़ा नवाब ने इलाहाबाद ट्रेनिंग लेने का निश्चय किया और लगभग दो बरस परताबगढ़ में रहने के बाद महकमे से दो साल की छुट्टी लेकर इलाहाबाद पहुँचा और 6 जुलाई, 1902 को ट्रेनिंग कालेज की प्रेपेरेटरी क्लास में दाख़िल हुआ। एंट्रेन्स पास लोग एक साल इसी क्लास में पढ़ते थे और दूसरे साल जूनियर क्लास में। जूनियर और सीनियर क्लास के प्यूपिल टीचर साथ-साथ पढ़ते थे। नाटे क़द (पाँच फुट चार इंच ) और इकहरे जिस्म का यह चौड़ी-चौड़ी हड्डियोंवाला मज़बूत नौजवान जल्दी ही सबकी नज़रों पर चढ़ गया। उसकी वेशभूषा बहुत सादी थी यानि पाजामा और अचकन या खुले गले का लम्बा कोट, सर पर साफ़ा । और जिस तरह वेशभूषा सादी थी उसी तरह उसकी आदतें और उसका स्वभाव भी सीधा-सच्चा और बनाबट से परे था। उसकी आवाज़ बुलन्द थी और शरीर में बल की भी कमी न थी - पंजा खोलने पर उँगलियों को मोड़ना मामूली आदमी के लिए आसान बात न थी । खामख़ाह किसी से दबना भी उसने न सीखा था लेकिन इस सब के बावजूद वह सबसे बहुत झुककर, अदब के साथ, और मुहब्बत से मिलता। होस्टल में लड़ना-झगड़ना तो दरकिनार उसको कभी किसी से असभ्य या रूखे ढंग से बात करते भी नहीं देखा गया। नौकरों के साथ भी बहुत अच्छी तरह पेश आता था।

पढ़ने का उसको मर्ज़ था और पढ़ते-लिखते वक़्त वह अक्सर अपना कमरा भीतर से बन्द कर लिया करता था। खेलकूद में भी वह जी खोलकर हिस्सा लेता था लेकिन उसके असल प्राण अपने लिखने-पढ़ने में बसते थे।

और इन्हीं दिनों उनका एक छोटा उपन्यास 'असरारे मआबिद ' ( देवस्थान रहस्य) बनारस के एक साप्ताहिक उर्दू पत्र 'आवाज़-ए-ख़ल्क' में 8 अक्तूबर, 1903 से धारावाहिक छपना शुरू हुआ। और इसे एक अनोखा संयोग ही कहना चाहिए कि जिस अक्तूबर को उनकी पहली रचना रोशनी में आई, उसी 8 अक्तूबर को तैंतीस साल बाद उनकी आँखें इस दुनिया की रोशनी पर बन्द हुईं !

इस उपन्यास में एक महन्त जी और उनके चेले-चपाटों की पोल खोली गई है। नाच-गाने की महफ़िल जमी हुई है।

'रात का वक़्त । अभी इस काली बला की पहली ही मंजिल है। दूर से मीठे सुरों की आवाज़ सुनाई पड़ती है। मालूम होता है कि कोई कोकिल- कंठी, गौर वर्णा, सुन्दरी प्रेमिका ख़ूब दिल तोड़-तोड़कर गा रही है (रँगीले बलम काहे करो चतुराई) दर्शकों को भाव बता-बताकर लुभा रही है। तारीफ़ों की बौछार हो रही है, सदकों की भरमार हो रही है। वाह-वाह की सदा बुलन्द है, हर शख़्स का दिल खुर्सन्द1 है। महफ़िल के लोग संगीत की चौराब से मखमूर हैं, जलसे के श्रीमंत अंगूरी शराब से चूर हैं। महफ़िल का चिराग़ दिल की तड़प के मारे बेक़रार है, परवाना उस पर जान से निसार है। तमाम नेचर मदहोश है, दीवार भी हमातन-गोश2 है।

1. आनन्दित, 2. उत्कर्ण

यह आवाज़ श्री महादेव लिंगेश्वरनाथ के मन्दिर से आ रही है।

'इस वक़्त श्रीमान् बाबा त्रिलोकीनाथ माथे पर लाल चन्दन का टीका लगाए, पीले रेशम की भड़कीली मिर्जई डाटे बैठे हैं। गले में अनमोल मोतियों की एक मोहनमाला पड़ी हुई है। सिर पर एक जड़ाऊ टोपी अजीब शान से रखी हुई है। उनके ख़ूनी दाँतों ने बेचारे बेगुनाह पान के बीड़ों का ख़ून इतना ज़्यादा किया है कि ख़ून की लाली कातिलों के गले का हार होकर बार-बार उनकी तरफ़ उँगली दिखा रही है और चूँकि ये जल्लादी दाँत ख़ून करने के आदी हो गए हैं, उन्हें बिना किसी बेगुनाह के ख़ून से हाथ रँगे चैन नहीं... यह जो आप महंत के माथे पर लाल निशान देख रहे हैं, यह चन्दन के निशान नहीं बल्कि इस बात को सिद्ध कर रहे हैं कि हज़रत ने न्याय और धर्म का ख़ून कर डाला है। आप जो इनके गले में मोहनमाला देख रहे हैं, यह असल में लोभ फंदा है जो आपको ख़ूब कसकर जकड़े हुए है। सिर पर तिरछी रखी हुई टोपी आपकी अक़्ल के तिरछेपन को ज़ाहिर कर रही है। आपके शरीर पर रंग-बिरंगी मिर्जई नहीं है, बल्कि अन्धविश्वासियों को सब्ज़ बाग़ दिखाने का यंत्र है जो आपके हृदय के अन्धकार और भीतरी कालेपन के ऊपर पर्दे की तरह पड़ा हुआ है, या बुद्धुओं को लाल दरवाज़ा दिखाने का औज़ार है जो भीतर की, कालिमा को संन्यास और वैराग्य के पर्दे में छिपा रहा है, या धोखे की टट्टी है जो भक्तों को जाल में फँसाने के लिए फैलाई गई है।'

पूत के पाँव पालने में, मुंशीजी का भरपूर रंग इसी पहली चीज़ में मौजूद है - वही पैनी सामाजिक दृष्टि, वही बात कहने का फड़कता हुआ अन्दाज़ । सरशार को मुंशीजी जिस तरह घोलकर पी गए थे, वही अब उनके लिखने में उतर आया था। सरशार के क़िस्से जिस तरह गली-कूचे, मेले-ठेले, यहाँ-वहाँ, सब जगह रुकते-ठहरते और उनकी तसवीर उतारते हुए चलते हैं, वही चीज़ यहाँ है, समाज के विभिन्न अंगों की वही सजीव, चित्रमय पकड़, अन्तर इतना ही है और वह बड़ा अन्तर है) कि मुंशीजी में विद्रोही तत्त्व अधिक है। मगर ढंग उन्होंने सोलह आने सरशार का ही अपनाया है।

यह देखिए औरतों की एक टोली शिवरात्रि के मेले में जा रही है-

'तमाम औरतें कपड़े-लत्ते से लैस हैं, नाक-चोटी से दुरुस्त, ज़ेवरों से गोंडनी की तरह लदी हुई, मारे ज़ेवरों के जिस्म पर तिल रखने की जगह नहीं। आज वह कीमती जोड़े निकाले गए हैं जो धराऊँ कहलाते हैं और जो शादी-ब्याह के वक़्त बड़े ठाट-बाट से पहने जाते हैं। उनमें हरेक बेजोड़ है, कोई छाँटने काबिल नहीं। कस्तूरी में बसी हुई चोटियाँ, जो स्नान करने के बाद कंधों पर बिखेर दी गई हैं, उनकी सुन्दरता को और भी बढ़ाती हैं। हरेक स्त्री के सुन्दर और सुकुमार हाथों में एक बहुत अच्छा पीतल का कमंडल लटक रहा है जिसमें पूजा का सामान है।

ये चंचल जवान औरतें आपस में हँसती- बोलती, दिल्लगी-मज़ाक़ करती चली जा रही थीं। आपस में छेड़-छाड़ भी होती थी, बोली- ठोली भी मारी जाती थी, सख़्त बातें भी कही जाती थीं, ताने- तिश्ने की भी नौबत आ जाती थी, फिर मिलाप हो जाता था। इसी बीच एक बुड्ढे महाशय मिले। उनकी चाल-ढाल उन तीखे बुड्ढों सी थी जो आजकल लखनऊ में ख़ाक छानते फिरते हैं या उन मुहम्मदशाही नौजवान आशिकमिज़ाजों की-सी जो गलियों में नज़रें लड़ाया करते थे। सफ़ेद दाढ़ी लहरें मारती हुई। एक कुबानुमा टोपी सर पर, कामदानी का अँगरखा बदन पर। आपने जो इन परियों को देखा तो आँखों में दीदार का शौक़ पैदा हुआ और मुँह में पानी भर आया....'

कहीं तालाब किनारे रंगीन तबीयत के नौजवान आँखें सेंक रहे हैं, कहीं भँगेड़ियों की टोली बैठी है, भंग घोटी जा रही है और भंग की शान में कसीदे पढ़े जा रहे हैं, कहीं तवायफ़ महंतजी को चपतिया रही है और कहीं उसके हवाली- मवाली उसके सिर चखौतियाँ कर रहे हैं, कहीं धूर्त स्वामीजी सुनार के बेटे को वशीकरण का जंतर-मंतर दे रहे हैं और कहीं उस तवायफ़ के हवाली - मवाली उसके नक़ली कंठे को असली करके बेचने की तिकड़म में लगे हैं, कहीं मियाँ-बीवी में तकरार हो रही है और बीवी मियाँ के साथ न जाने के लिए तरह-तरह के छल-छंद कर रही है, कहीं टोले- पड़ोस की औरतें झूठमूठ टेसुए बहा रही हैं- सब कुछ बेहद जानदार, बेहद दिलचस्प, और उन सब पर इत्मीनान के साथ रुकता-ठहरता क़िस्सा बिलकुल सरशार के रंग में आगे बढ़ता है, कथानक ढीला है या कमज़ोर है इसकी मुंशीजी को रत्ती भर चिन्ता नहीं है।

(साभार : हंस प्रकाशन और राजकमल प्रकाशन)

(अधूरी रचना)

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