Kalam Ka Sipahi (Biography Premchand) : Amrit Rai
क़लम का सिपाही (प्रेमचन्द की जीवनी) : अमृत राय
(क़लम का सिपाही प्रेमचन्द की पहली मुकम्मल जीवनी है जो जीवनी साहित्य में क्लासिक का दर्जा पा चुकी है। अमृतराय की लिखी इस किताब को 1963 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार और 1971 में सोवियतलैंड नेहरु पुरस्कार मिला।)
दक्षिण के एक हिन्दी प्रेमी, चन्द्रहासन, प्रेमचन्द से मिलने काशी आए। पता लगाकर शाम के वक़्त उनके मकान पर पहुँचे। बाहर थोड़ी देर ठहरकर खाँ-खूँ करने पर भी कोई नज़र न आया तो दरवाज़े पर आए और झाँककर भीतर कमरे में देखा। एक आदमी, जिसका चेहरा बड़ी-बड़ी मूँछों में खोया हुआ-सा था, फ़र्श पर बैठकर तन्मय भाव से कुछ लिख रहा था। आगंतुक ने सोचा, प्रेमचन्द जी शायद इसी आदमी को बोलकर लिखाते होंगे। आगे बढ़कर कहा—मैं प्रेमचन्द जी से मिलना चाहता हूँ। उस आदमी ने झट नज़र उठाकर ताज्जुब से आगंतुक की ओर देखा, क़लम रख दी, और ठहाका लगाकर हँसते हुए कहा—खड़े-खड़े मुलाक़ात करेंगे क्या! बैठिए और मुलाक़ात कीजिए...
बस्ती के ताराशंकर नाशाद मुंशीजी से मिलने लखनऊ पहुँचे। उन दिनों वह अमीनुद्दौला पार्क के सामने एक मकान में रहते थे। मकान के नीचे ही नाशाद साहब को एक आदमी मिला, धोती-बनियान पहने। नाशाद ने उससे पूछा—मुंशी प्रेमचन्द कहाँ रहते हैं, आप बतला सकते हैं? उस आदमी ने कहा—चलिए, मैं आपको उनसे मिला दूँ।
वह आदमी आगे-आगे चला, नाशाद पीछे-पीछे। ऊपर पहुँचकर उस आदमी ने नाशाद को बैठने के लिए कहा और अन्दर चला गया। ज़रा देर बाद कुर्ता पहनकर निकला और बोला—अब आप प्रेमचन्द से बात कर रहे हैं...
पटने में एक साहित्यिक गोष्ठी है। मुंशीजी को उसका सभापति बनाया गया है। आज वह पटना आने वाले हैं। बहुत से लोग उनके स्वागत को स्टेशन पर पहुँचे हुए हैं लेकिन मज़े की बात यह है कि उनमें से किसी ने उनको पहले देखा नहीं है, बस एक तसवीर देखी है, उसी का सहारा है।
एक्सप्रेस आयी। देख लिया। कहीं नहीं।
पंजाब मेल आयी। देख लिया। कहीं नहीं।
इतवार की शाम को बैठक थी और सबेरे छः बजे के क़रीब एक और एक्सप्रेस आती थी। अब बस यही आख़िरी आसरा था।
ट्रेन आयी, लगी और चली गई। सैकड़ों आदमी उतरे और चढ़े पर प्रेमचन्द नहीं आए, नहीं आए। गोष्ठीवालों के प्राण नहों में समा गए—अब कहाँ जाएँगे, कैसे लोगों को मुँह दिखाएँगे।
उदास, क्षुब्ध, मुसाफ़िरखाने की तरफ़ बढ़े। देखा, सीढ़ी के पास एक अधेड़ सज्जन, जिनके बाल कुछ सफ़ेद हो चले थे और जो सफ़र की थकावट से कुछ खिन्न-से हो रहे थे, गुमसुम खड़े हैं और कुली उनका ट्रंक सर पर और बिस्तर हाथ में लिए पूछ रहा है—बाबू कहाँ चलें?
इस मुसाफ़िर को उन लोगों ने कल रात ही को पंजाब मेल से उतरते देखा था, मगर पहचानते कैसे...
कोई विशेषता जो नहीं है उसमें।
अपने आस-पास ऐसा एक भी चिह्न वह नहीं रखना चाहता जिससे पता चले कि वह दूसरे साधारण जनों से ज़रा भी अलग है। कोई तिलक-त्रिपुंड से अपने विशेषत्व की घोषणा करता है, कोई रेशम के कुर्ते और उत्तरीय के बीच से झाँकने वाले अपने ऐश्वर्य से, कोई अपनी साज-सज्जा के अनोखेपन से, कोई अपनी किसी ख़ास अदा या ढब से, यहाँ तक कि एक यत्न-साधित, सतर्क सरलता भी होती है जो स्वयं एक प्रदर्शन या आडम्बर बन जाती है, शायद सबसे अधिक विरक्तिकर—देखो इतना बड़ा, इतना नामी आदमी होकर मैं कितनी सादगी से रहता हूँ! प्रेमचन्द की सरलता सहज है। उसमें कुछ तो इस देश की पुरानी मिट्टी का संस्कार है, कुछ उसका नैसर्गिक शील है, संकोच है, कुछ उसकी गहरी जीवनदृष्टि है और कुछ उसका सच्चा आत्मगौरव है जो किसी तरह के आत्म-प्रदर्शन या विज्ञापन को उसके नज़दीक घटिया बना देता है। नहीं, वह कस्तूरी मृग नहीं है जिसे अपने भीतर की कस्तूरी का पता न हो। उसे पता है कि उसके भीतर ऐसा भी कुछ है जो मूल्यवान है, उसका अपना है, नितान्त अपना, मौलिक, विशेष। वही उसका मोती है, मानिक है। कोई इस मोती-मानिक को उसके उपयुक्त रत्नजटित-मंजूषा में रखता है, यह आदमी उसे टीन के बकस में रखता है—इसलिए नहीं कि वह उसकी क़दर कम करता है बल्कि इसलिए कि बहुत ज़्यादा करता है। टीन के बकस में वह मोती ज़्यादा सुरक्षित है। वहाँ से कौन उसे चुरा सकता है, किसका ध्यान जाएगा उस पर! इसीलिए तो उटंगी धोती और मैली-सी एक फतुही पहने, तीसरे दर्जे के मुसाफ़िरख़ाने में बैठा हुआ-सा, टीन के बकस में अपना वह मोती जतन से छिपाए वह इतनी बेफ़िक्री से आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, सबका नाम-गाम पूछता है, उनके सुख-दुख, हारी-बेगारी, सूखे-बूड़े, रोज़ी-रोज़गार की बातें करता है और कोई हँसी की बात हो तो इतने ज़ोर से ठहाका लगाता है कि आस-पास बैठे हुए लोग चौंक पड़ते हैं और दीवारें हिल जाती हैं। शायद उसकी इस बेलौस हँसी में कहीं एक हल्की-सी चुहल भी छिपी हुई है—देखा, कैसा बुद्धू बनाया इन सबों को! कोई भाँप भी नहीं सका कि मेरे पास इस टीन के बकस में ऐसा एक मोती भी था जिससे दुनिया ख़रीदी जा सकती थी!
उसके ख़मीर में बच्चों जैसी शरारत का भी ख़ासा एक पुट है, जो अक्सर उसके लिखने में उभर आता है, इसलिए कभी-कभी लगता है कि अपनी इस सादगी में शायद उसे लुका-छिपी के खेल का भी कुछ मज़ा मिलता है!
जिस नितान्त साधारण, बँधी-टकी दिनचर्या से उसकी ज़िन्दगी का साँचा बना था, उसको देखते हुए शायद उस मोती के पानी को, उसकी चमक को बराबर बनाए रखने का दूसरा कोई उपाय भी न था। यह गहरी निश्छल सादगी शायद एक कवच थी जो प्रकृति ने स्वयं उसको बनाकर दिया था ताकि उस मोती की चमक कभी मन्द न हो—वैसे ही जैसे बादाम की मीठी गिरी को बनाए रखने के लिए उस पर एक कड़ा खोल चढ़ाना पड़ा।
ज़रा देखिए यह अन्दाज़ जिसमें मुंशीजी अपने एक दोस्त को अपने हालात नोट करा रहे हैं—
"तारीख़ पैदाइश सम्वत् 1937। बाप का नाम मुंशी अजायब लाल। सुकूनत मीज़ा मढ़वाँ, लमही, मुत्तसिल पांडेपुर, बनारस। इब्तदाअन् आठ साल तक फ़ारसी पढ़ी, फिर अंग्रेज़ी शुरू की।
बनारस के कालेजिएट स्कूल से एंट्रेंस पास किया। वालिद का इंतक़ाल पन्द्रह साल की उम्र में हो गया, वालिदा सातवें साल गुज़र चुकी थीं। फिर तालीम के सीग़े में मुलाज़िमत की। सन् 1901 में लिटरेरी ज़िन्दगी शुरू की...
फिर छः सतरें इसके बारे में कि कब कौन किताब लिखी, क़िस्सा ख़तम पैसा हजम! और जब आत्मकथा लिखने पर आए तो पहले सब को आगाह कर दिया—
"मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खण्डहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौक़ीन हैं, उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी।"
यानी कि जिसे आना हो, समझ-बूझकर आए!
और सच तो यह है कि अगर ऐसी कुछ बात ही न आ पड़ती तो शायद उस व्यक्ति ने अपने बारे में इतना भी न लिखा होता। कोई पूछता तो शायद वह कह देता : मेरी ज़िन्दगी में ऐसा है ही क्या जो मैं किसी को सुनाऊँ। बिलकुल सपाट, समतल ज़िन्दगी है, वैसी ही जैसी देश के और करोड़ों लोग जीते हैं। एक सीधा-सादा, गृहस्थी के पचड़ों में फँसा हुआ, तंगदस्त, मुदर्रिस, जो सारी ज़िन्दगी क़लम घिसता रहा, इस उम्मीद में कि कुछ आसूदा हो सकेगा मगर न हो सका। उसमें क्या है जो मैं किसी को सुनाऊँ। मैं तो नदी किनारे खड़ा हुआ नरकुल हूँ, हवा के थपेड़ों से मेरे अन्दर भी आवाज़ पैदा हो जाती है। बस इतनी सी बात है। मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है उन हवाओं का है जो मेरे भीतर बजीं। मेरी कहानी तो बस उन हवाओं की कहानी है, उन्हें जाकर पकड़ो। मुझे क्यों तंग करते हो!
अध्याय : 1
बनारस से आज़मगढ़ जानेवाली सड़क पर, शहर से क़रीब चार मील दूर, एक छोटा-सा गाँव है, लमही, मौज़ा मढ़वाँ । पन्द्रह-बीस घर कुर्मियों के, दो-एक कुम्हार, एकाध ठाकुर, तीन-चार मुसलमान (जिनमें पुरुषों में मथुरा और स्त्रियों में रमदेई, सुनरी और कौसिलिया-जैसे नाम हैं!) और नौ-दस घर कायस्थों के-यही इस गाँव की कुल आबादी है।
यों तो इक्का-दुक्का कायस्थ भी अपने हाथ से हल चला लेते हैं लेकिन बस इक्का-दुक्का। खेती-किसानी कुर्मियों का काम है। कायस्थों की शान में इससे बट्टा लगता है। वे यहाँ के अकेले पढ़े-लिखे लोग हैं और अपनी इसी क़ाबिलियत के बल पर अभी कुछ बरस पहले तक गाँव पर राज करते रहे हैं। मगर अब, कुछ तो कुर्मियों में शिक्षा के साथ अपने अधिकारों की चेतना के कारण और कुछ कायस्थों की आपसी फूट के कारण, उनके राज्य की चूलें हिल गई हैं और उनका दबदबा काफी कम हो गया है। ताहम आज भी सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा वर्ग कायस्थों का ही है। उनमें वकील हैं, मुख्तार हैं, पेशकार और अहलमद हैं, मुहर्रिर हैं, स्टाम्पफ़रोश हैं, पटवारी हैं, स्कूल के मुदर्रिस हैं। कहना न होगा कि उन्होंने भी जमाने के साथ तरक़्क़ी की है, क्योंकि एक वक़्त था कि उनमें यहाँ-वहाँ बस एक-दो डाकमुंशी और ज़्यादातर डाकिये थे।
मगर वह पुरानी बात है।
सुनते हैं कि अब से कोई दो सौ बरस पहले एक कोई लाला टीकाराम थे। वह क्या थे, कहाँ थे, कहाँ जिये, कहाँ मरे-यह सब कुछ भी ठीक नहीं मालूम। लेकिन सम्भव है कि वह लमही के पास ऐरे नामक गाँव के रहे हों क्योंकि इतना मालूम है कि उनकी तीसरी पुश्त में मुंशी गुरसहाय लाल पटवारी होकर ऐरे से लमही आए ।
लाला टीकाराम के दो बेटे थे, लाला मनियार सिंह और लाला महराज सिंह | मनियार सिंह शायद नावल्द मर गए । महराज सिंह के दो बेटे (बेटियाँ कितनी हुईं नहीं मालूम क्योंकि बेटियों के बारे में शजरा ख़ामोश है!)-राम लाल और मैकू लाल। मैकू लाल के छ: बेटे हुए जिनमें से चौथे गुरसहाय लाल थे। यही गुरसहाय लाल पटवारी मुक़र्रर होकर लमही आए। उनके साथ ही उनके भतीजे हरनरायन लाल आए और फिर इन्हीं दो लोगों से वह सारे कायस्थ घराने पैदा हुए जो इस वक़्त लमही में मौजूद हैं।
मुंशी गुरसहाय लाल के चार बेटे हुए-कौलेश्वर लाल, महाबीर लाल, अजायब लाल और उदितनरायन लाल ।
मुंशीजी ठेठ कायस्थ और ठेठ पटवारी आदमी थे। पढ़े-लिखे उतना ही थे जितना कि पटवारी के लिए ज़रूरी था मगर चालबाज़ी में किसी से जौ भर घटकर न थे। आने के साथ ही उन्होंने अपना मकान बनवाने के लिए गाँव के एक छोर पर ज़मीन हासिल की और एक बड़ा-सा कच्चा मकान बनवाया।
पटवारी में अगर अक़्ल हुई तो उसे गाँव का राजा ही समझना चाहिये एक तरह से-जैसे चाहे स्याह-सफ़ेद करे, कोई उसका हाथ पकड़नेवाला नहीं ! धीरे-धीरे मुंशी गुरसहाय लाल के पास साठ बीघे की अपनी आराज़ी हो गई जो उन्होंने अपने दूसरे बेटे महाबीर लाल के नाम लिखवा दी । यों भी घर में खाने-पीने की बात कहना ज़रूरी है क्योंकि मुंशी गुरसहाय लाल बहुत लती पीनेवाले थे। पैसा ज़रूरत भर घर में था ही, गाँव में ही हौली थी, दो आने की एक बोतल मिलती थी, और वही दो आने का सेर-भर कलिया।
पैसा तो उन्होंने ठर्रे की उन बोतलों में शायद कुछ ख़ास नहीं उड़ाया लेकिन, हाँ, नशे की हालत में वह अपनी बीवी की कुटम्मस अक्सर किया करते थे जैसा कि शराबी आम तौर पर करते हैं।
लड़कों को अपनी माँ के साथ बाप का यह बुरा बर्ताव बहुत खलता लेकिन भीतर-ही-भीतर सुलगकर बुझ जाते । एक महाबीर ही ऐसे थे जिनमें इतना दम-खम था कि चाहते तो एक बार पिल पड़ते। अपने नाम के अनुरूप वही अपने सब भाइयों में सबसे हट्टे-कट्टे, लम्बे-तड़ंगे, हैकल जवान थे। उनके बारे में कहा जाता है कि जब गाँव में कोई बैल नाथना होता और कोई उसको बस में न कर पाता तो महाबीर का आवाहन किया जाता । महाबीर फ़ौरन धोती का फेटा कसकर कमर में बाँधते हुए मौके पर पहुँच जाते। पाँच-सात दस मिनट तक बैल से उनकी कुश्ती होती, फिर वह बैल को ज़मीन पर गिराकर उसके ऊपर चढ़ बैठते और चढ़े बैठे रहते जब तक कि उसको नाथने की क्रिया पूरी न हो जाती, मज़ाल थी कि मिनक जाए !
यह भी कुछ उनके नाम का ही प्रताप था कि महाबीर अपनी माँ के अनन्य भक्त थे। अजायब लाल भी अपनी माँ को प्यार करते ही होंगे लेकिन वह शरीर से और फलत: मन से भी दुर्बल थे। महाबीर अक्खड़ किसान थे, शरीर और दोनों से मज़बूत शायद इसीलिए बाप ने अपनी कुल साठ बीघे आराजी महाबीर के ही नाम लिखवाई थी, क्योंकि जोरू और ज़मीन के बारे में मशहूर है कि ये दोनों उसी आदमी के पास रहती हैं जिसका शरीर ताक़तवर और लाठी मज़बूत होती है।
महाबीर लाल अपने बाप के चहेते थे सही, लेकिन जब मुंशी गुरसहाय लाल अपनी बीवी को पीट चलते और वह बेचारी बेज़बान गाय की तरह चुपचाप पिटती रहती तो महाबीर से अपनी माँ की यह दुर्दशा देखी न जाती और वह गुस्से से काँपते हुए जाकर दोनों हाथों से अपने बाप की गर्दन दबोच लेते और दाँत पीसकर कहते-मन करता है.....
मगर ख़ैर, वैसी कोई दुर्घटना नहीं हुई और मुंशी गुरसहाय लाल जब भी मरे अपनी मौत मरे। लेकिन हाँ, महाबीर उनको पकड़कर बाहर घसीट ज़रूर ले जाते। आए दिन यह नाटक घर में हुआ करता लेकिन मारपीट बन्द नहीं हुई और इसी तरह पटवारगिरी करते, ठर्रा पीते और बीवी को धुनकते हुए मुंशी गुरसहाय लाल पचपन-साठ की उम्र तक जिये।
और जब वह मरे तो पट्टीदारों ने, ख़ासकर मुंशी हरनरायन लाल ने जो अपने चाचा के साथ ही ऐरे से लमही आए थे और जिन्हें शायद मन ही मन इस बात का मलाल था कि पटवारगिरी ख़ुद उनको क्यों नहीं मिली (जिसके तुफ़ैल में आज यह साठ बीघे आराजी महाबीर लाल के नाम लिखी हुई थी और जो ग़रीब की आँखों में काँटे की तरह गड़ रही थी) महाबीर लाल को पट्टी पढ़ाना शुरू किया कि अगर तुम अपनी ज़मीन से इस्तीफ़ा दे दो तो आज अपने बाप की जगह पटवारी बन सकते हो।
महाबीर लाल के बड़े भाई कौलेश्वर लाल तीस बरस के होकर पहले ही इस दुनिया से सिधार चुके थे और पटवारगिरी के सीग़े में उन दिनों ऐसा कुछ कायदा था कि बेटा अगर पटवारियान पास हो तो बाप की गद्दी पर पहला हक़ उसी का होता था। महाबीर लाल यों ही कुछ सटर-पटर पढ़े थे और पटवारियान पास करना तो दूर रहा, उसके पास फटके तक नहीं थे। लेकिन पट्टीदारों ने जब पट्टी पढ़ाई तो महाबीर लाल को, जिनकी अक़्ल भी उतनी ही मोटी थी, यह बात जँच गई और फिर उन्होंने किसी से पूछा न जाँचा, गए और अपनी साठ बीघे ज़मीन से इस्तीफ़ा दे आए। मुंशी हरनरायन लाल की आँख का काँटा दूर हो गया। पटवारगिरी न मिलनी थी न मिली।
अब चारों भाइयों के बीच बस छ: बीघा ज़मीन बची जो मुंशी गुरसहाय लाल अपने पोते यानी महाबीर के बेटे बलदेव लाल के नाम अलग से लिख गए थे । । खेती-किसानी के नाम से पूरे ख़ानदान में अब बस इतनी ही ज़मीन बच रही थी। सब लड़के खेती से लग जाएँ, यह शायद मुंशी गुरसहाय लाल का मंशा भी न था। कायस्थ की जात नौकरी के लिए है। और फिर पैसा भी तो नौकरी में ही मिलता है, खेती में तो बस ग़ल्ला हाथ आता है। खेती के लायक शरीर भी भगवान ने एक को ही दिया था, महाबीर को। तो फिर ठीक है, एक बेटा खेती करेगा, बाक़ी तीनों नौकरी करेंगे। दोनों हाथ में लड्डू रहेगा । अनाज भी इफ़रात पैदा होगा और पैसा भी इफ़रात आएगा ।
महाबीर खेत में लग गए और बाकी तीनों यानी कौलेश्वर, अजायब और उदितनारायन ने इतना पढ़ लिया कि नौकरी कर सकें, थोड़ी-सी उर्दू-फारसी और थोड़ी-सी अंग्रेज़ी ।
यह एक संयोग ही था कि भाइयों में सबसे बड़े कौलेश्वर लाल डाकमुंशी बने। फिर क्या कहना था, कुछ रोज़ बाद उन्होंने अजायब लाल को भी डाकमुंशी बनवा दिया। फिर अजायब लाल ने वही नेकी अपने से छोटे उदितरायन के साथ की और इस तरह तीनों भाई देखते-देखते डाकमुंशी बन गए। कहना मुशिकल है कि क्यों सब भाइयों को एक के बाद एक डाकमुंशियाने का ही छुतहा रोग लगा । कुछ तो शायद इसलिए कि इस काम में दूसरे किसी महकमे से कम घिसाई करनी पड़ती थी और कुछ शायद इसलिए कि यह काम साफ़-सुथरा था। ऊपरी आमदनी की गुंजाइश तो नहीं के बराबर थी मगर इज़्ज़त काफ़ी थी। आँख कान जो भी समझिये, डाकमुंशी गाँव का एक ख़ास आदमी था। उसी की मार्फत गाँववालों का सम्बन्ध बाहर की दुनिया से रहता था। कमाने के लिए लोग बाहर जाते ही रहते। कभी उनकी चिट्ठी आती और जब बहुत दिन न आती तो यहाँ से उनको चिट्ठी भेजनी होती । कभी कुछ रुपया मनीआर्डर से आता। डाकमुंशी इस सब का हाकिम था और जहाँ अब से सौ बरस पहले सारे गाँव में दो ही चार आदमी अपने दस्तख़त बना सकते रहे हों, डाकमुंशी का काम लिफ़ाफ़ा-पोस्टकार्ड बाँटने से ही ख़त्म न हो ता था, बहुत बार चिट्ठियाँ भी उसी को लिखनी पड़ती थीं। भलमंसी का यही तक़ाज़ा था और इसके एवज़ में गाँव के लोग थोड़ी-बहुत जौ-मटर, साग-सब्जी, रस-गुड़ भी पहुँचा दिया करते थे।
मुंशी अजायब लाल ने यों भी तबीयत नेक पाई थी। लीक पकड़कर चलनेवाले आदमी थे लेकिन उस लीक पर अगर उनकी जात से किसी का कुछ भला होता हो तो उसमें कभी पीछे न रहते । घर-बाहर सब जगह वह अपनी बिसात-भर दूसरों की मदद करते। वैसे बिसात ही कितनी थी, दस रुपए पर नौकर हुए थे, चालीस तक पहुँचते-पहुँचते रिटायर हो गए।
उनके बड़े भाई कौलेश्वर लाल जवानी में ही मर गए थे। उनकी विधवा स्त्री अपने बच्चे को लेकर बहुत दिन घर पर ही रहीं । लेकिन फिर उनके साथ भी वही हुआ जो सच या झूठ हमारे समाज में प्राय: हर विधवा युवती के साथ होता है। रिश्ते के एक भतीजे को लेकर उनकी बदनामी हुई, महाबीर लाल की पत्नी ने अभूतपूर्व मनोयोग से अपनी जेठानी के चारित्रिक स्खलन का अनुसन्धान और प्रचार किया-यहाँ तक कि बेचारी गाँव छोड़कर चुनार चली गईं और वहाँ दो-एक सेठों की लड़कियों को पढ़ाकर (थोड़ी-बहुत कैथी वह जानती थीं) अपनी ज़िन्दगी के दिन काटने लगीं।
उनके लड़के मोती लाल को भी अपने पिता की ही आयु मिली। वह भी अपनी स्त्री की गोद में एक साल का बेटा और तीन लड़कियाँ छोड़कर तीस बरस की ही उमर में इस दुनिया से उठ गए। मुंशी अजायब लाल ने अपनी उस छोटी कमाई में से बरसों अपनी इस भतीज-बहू को पाँच रुपया महीना दिया । इसी तरह अपने चाचा ईश्वरीलाल की विधवा स्त्री को भी, जिन्हें सब करियई चाची कहते थे, उन्होंने आजीवन दो रुपया महीना दिया।
उनके छोटे भाई उदितनरायन लाल, जिन्हें मुंशी अजायब लाल ने ही मुंशी बनवाया था, डाकखाने का रुपया ग़बन करने के जुर्म में पकड़े गए। उनको छुड़ाने के लिए बहुत कोशिश-पैरवी हुई मगर बेकार, और उन्हें सात बरस की सज़ा हो गई। सरकारी रक़म, एक हज़ार रुपया, बड़ी-बड़ी मुश्किलों से घरवालों ने भरी। अब सवाल उनके बाल-बच्चों की परवरिश का था। मुंशी अजायब लाल इसमें भी सबसे आगे-आगे रहे। उदितनरायन के घर में उनकी पत्नी थी, एक लड़का था और दो लड़कियाँ । लड़का जगतनरायन सबसे बड़ा था और बिलकुल आवारा था। घर से भाग गया और सदा के लिए लापता हो गया। बड़ी लड़की की शादी उदितनरायन कर चुके थे, वह अपने घर रहती थी। छोटी लड़की अभी छोटी थी । उदितनरायन सज़ा काटकर घर आए ज़रूर लेकिन शर्म के मारे उनकी आँख न उठती थी और फिर जो वह ग़ायब हुए तो ऐसे कि दुबारा किसी ने उनका मुँह न देखा । उनके बाल-बच्चों की देख-रेख मुंशी अजायब लाल ने ज़िन्दगी भर की, छोटी लड़की का ब्याह भी उन्हीं ने किया।
उनके व्यक्तित्व में असाधारण कुछ भी न था, बस इतना था कि आदमी भले थे, छल-कपट से दूर रहते थे। उनके माँ-बाप के बारे में जो कुछ पता चलता है उससे मालूम होता है कि उनकी प्रकृति में अपने पिता से अधिक अपनी माँ का अंश था जो कि एक शान्त, साध्वी स्त्री थीं। उन्होंने कभी अपनी पत्नी के साथ वैसा दुर्व्यवहार नहीं किया जैसा उनके पिता अपनी पत्नी के साथ आए दिन किया करते थे। मामूली पढ़े-लिखे आदमी थे। गीता और शास्त्र भी देखे थे। पर धार्मिक अनुष्ठानों में उन्हें ज़्यादा विश्वास न था। कहते थे, उनमें ढोंग ज़्यादा है, तत्त्व कम। धर्म का मतलब वह सदाचार समझते थे, जिसे उन्होंने शक्ति-भर अपने जीवन में बरता । कभी किसी से झगड़े नहीं, हाँ छोटा-मोटा भला बहुतों का किया। अपने नातेदारों में जगदम्बा के पिता बृजकिशोर लाल और बिन्देसरी के पिता रजपाल लाल को अपनी कोशिश से चिट्ठीरसाँ बनवाया और ज़रूरत पड़ने पर लोगों को रुपए-पैसे देने में भी अपनी औकात भर कंजूसी नहीं की । हमेशा नज़र नीची करके चले। गाँव की बहू-बेटियों को अपनी बहू-बेटी समझा। कभी किसी झगड़े में अगर लोगों ने उनको पंच बनाया तो बिना इसका या उसका मुँह देखे अपनी बेलौस राय दी। और वैसा ही आदर भी उनको अपने समाज में मिला।
संयोग से पत्नी भी उनको अपने अनुरूप ही मिली। देखने में जितनी सुन्दर, स्वभाव की उतनी ही कोमल । सुन्दर इतनी कि शायद इतनी सुन्दर स्त्री परिवार में फिर कभी नहीं आई-ख़ूब गोरी, मँझोला क़द, भरा हुआ छरहरा शरीर, आँखें बड़ी नहीं पर सुन्दर, उठी हुई सुडौल नाक, लम्बे-लम्बे बाल, मीठी आवाज़ । काशी विश्वविद्यालय के पास एक गाँव है करौंदी, वहीं की लड़की थीं। पिता शायद किसी ज़मींदार के कारिन्दा थे । सुन्दर, भरे-तगड़े। लेकिन बस यह शरीर ही था उनके पास जो कारिन्दा बनने के योग्य था, आत्मा बिलकुल दूसरे ही साँचे में ढली थी। जिस कारिन्दे की तबीयत में नेकी हो, शराफ़त हो, सच्चाई हो, घुलावट हो, वह भी कोई कारिन्दा है ! इतना ही नहीं, यह भी सुना जाता है कि वह साहित्यिक रुचि के आदमी थे और शायद कुछ किताबें भी उन्होंने लिखीं जिन्हें दुनिया की रोशनी देखना नसीब न हुआ । कहते हैं कि उनकी बेटी आनन्दी ने अपना रूप-रंग-स्वभाव सब कुछ उन्हीं से पाया था। उन्हें कभी किसी से झगड़ा करते नहीं देखा गया और न वह दूसरी औरतों की तरह इधर की बात उधर लगाने में या टोले-पड़ोसवालों की निन्दा में ही रस लेती थीं। शीलवती, घरेलू स्त्री थीं, अपने पति के समान ही सदा हर किसी की सहायता के लिए तत्पर । ख़ुद भी मामूली ही पढ़ी-लिखी थीं, बस थोड़ी-सी कैथी, पर उतनी उन्होंने अपनी भतीज-बहू को भी सिखला दी।
घर के काम-काज में वह ज़रूर यकता थीं। खाना बहुत अच्छा पकाती थीं और सीने-पिरोने में भी बेजोड़ थीं। उनके हाथ की बखिया में जो सफ़ाई थी, वह तो फिर देखी ही नहीं गई।
लेकिन एक दुःख उनको बड़ा था। उनके बच्चे नहीं जीते थे। दो लड़कियाँ हुईं और दोनों जाती रहीं। तब लमही की औरतों ने शोर मचाया कि आनन्दी का अपने मैके जाना ठीक नहीं है, वहाँ भूत लगते हैं!
अब यह चाहे भूत की बात हो चाहे मात्र संयोग, तीसरी लड़की जो आनन्दी को, लमही में पैदा हुई, जिसका नाम सुग्गी रखा गया, वह ज़िन्दा रही और उसके छः-सात बरस बाद लमही के उसी कच्चे पुश्तैनी मकान में जो मुंशी गुरसहाय लाल ने बनवाया था, सावन बदी 10 संवत् 1937, शनिवार 31 जुलाई, सन् 1880 को उस लड़के का जन्म हुआ जिसे बाद को दुनिया ने प्रेमचन्द के नाम से जाना । लड़का खूब ही गोरा चिट्टा था। सब बहुत ख़ुश थे। पिता ने हुलसकर उसका नाम रखा धनपत और ताऊ ने नवाब।
बस एक बात खटक रही थी। लड़का तेतर था यानी तीन लड़कियों की पीठ पर हुआ था, और ऐसी सन्तान के बारे में लोगों का विश्वास है कि वह माँ-बाप में से किसी को खाये बिना नहीं रहती ! नवाब ने ऐसी बुभुक्षा का तत्काल कोई परिचय न दिया लेकिन इसमें सन्देह नहीं कि यह भी प्रकृति का एक अच्छा व्यंग्य था। जिस लड़के को आगे चलकर आजीवन समाज की मुर्दा रूढ़ियों से जूझना था, वह स्वयं एक मुर्दा रूढ़ि की छाया में पैदा हुआ ।
अध्याय : 2
बेचारी माँ दो लड़कियाँ गँवा चुकी थी और अब बस यही दो बचे थे, सुग्गी और नवाब। सुग्गी नवाब से छ:-सात साल बड़ी थी । उसको भी माँ कुछ कम प्यार नहीं करती थी, लेकिन नवाब में तो जैसे उसके प्राण ही बसते थे। कुछ तो शायद इसलिए भी कि वह सबसे छोटा था और लड़का था। माँ को हरदम यही डर लगा रहता कि कोई उसके बेटे को नज़र लगा देगा, कुछ जादू-टोना कर देगा। लड़का चंचल था भी, जिसे 'टोनहा' कहते हैं, हरदम झाड़-फूँक करवाती रहती, राई-नोन से नज़र उतरवाती रहती-और डिठौना तो नवाब को पाँच-छ: साल की उम्र तक लगाया जाता रहा। माँ का बस चलता तो वह कभी बेटे को अपने आँचल से अलग न होने देती ।
इस तरह बचपन के कुछ वर्ष, माँ के प्यार की शीतल छाँह में बहुत ही मधुर बीते। माँ के लाड़ले थे और शरारत कहिए या चुहल, उनकी घुट्टी में पड़ी थी। आए दिन कुछ-न-कुछ हुआ करता और घर पर उलाहना पहुँचता। एक रोज़ ऐसा हुआ लड़के नाई नाई खेल रहे थे। नवाब को शरारत सूझी, उसने ललान के ही एक लड़के रामू की हजामत बनाते-बनाते बाँस की कमानी से उसका कान काट लिया। कान कटा तो ख़ैर नहीं, मगर ख़ून ज़रूर भलभल-भलभल बहने लगा। रामू रोता-पीटता अपनी माँ के पास पहुँचा। माँ ने बेटे के कान से ख़ून बहते देखा तो आगबबूला हो गई और एक हाथ से रामू को पकड़े झनकती पटकती नवाब की माँ के पास उलाहना देने पहुँची । नवाब ने जैसे ही उसकी आवाज़ सुनी, खिड़की के पास दुबक गया। माँ ने दुबकते हुए उसको देख लिया और पकड़कर चार झापड़ रसीद किए। पूछा-रामू का कान तूने क्यों काटा? नवाब ने निहायत भोलेपन से जवाब दिया-पता नहीं कैसे कट गया, मैं तो उसकी हजामत बना रहा था !
फ़सल के दिनों में किसी के खेत में घुसकर ऊख तोड़ लाना, मटर उखाड़ लाना-यह तो रोज़ की बात थी। इसके लिए खेतवालों की गाली भी खानी पड़ती थी, लेकिन लगता है कि उन गालियों से ऊख और मीठी, मटर और मुलायम हो जाती थी! लमही चूँकि सदा से बहुत ग़रीब गाँव रहा है, इसलिए कोई इस चीज़ को दरगुज़र भी न करता था और अक्सर इस बात का उलाहना आता। घर में डाँट-फटकार भी होती लेकिन एक-दो रोज़ के बाद फिर वही रंग-ढंग ।
ढेला चलाने में भी नवाब बहुत मीर थे, टिकोरे पेड़ में आते और उनकी चाँदमारी शुरू हो जाती। ऐसा ताककर निशाना मारते कि दो-तीन ढेलों में आम ज़मीन पर नज़र आता । पेड़ का रखवाला चिल्लाता ही रह जाता और नवाब की मंडली आम बीन-बटोरकर चम्पत हो जाती। और सबसे ज़्यादा मज़ा तो निशानेबाज़ी में तब आता जब आम पकना शुरू हो जाते । तेज़ आँखें सब आम के पेड़ों को ताके रहतीं और जहाँ किसी डाल में कोई कोंपल दिखा नहीं कि ढेलेबाजी शुरू। मजाल है कि दो-तीन चक्कों में वह नीचे न आ जाए । रखवाला चिल्लाता है तो चिल्लाने दो, गाली देता है, देने दो, हमें आम से मतलब है कि उसकी गाली से! जब तक अपना लाठी-डंडा लेकर वह आएगा, हम कहीं के कहीं होंगे! अपनी मंडली में नवाब का निशाना मशहूर था, इस मामले में वह अपनी टोली के सारे लड़कों का सरताज था। आज तक लोग उसका बखान करते हैं-वैसे ही जैसे उनके गुल्ली-डंडे का । सुनते हैं उनका टोल अच्छी तरह जमकर बैठ जाता था तो गुल्ली डेढ़ सौ गज की ख़बर लेती थी। लेकिन वह ज़रा बाद की बात है, अभी तो हाथ में इतना दम न था ।
घर के सामने, जहाँ अब मुंशीजी का बनवाया हुआ अपना मकान है, एक बहुत ही पुराना, बहुत ही बड़ा इमली का पेड़ था। उसके नीचे लाला ( महाबीर लॉल) की मड़ैया तो थी ही, खेलने के लिए भी ख़ूब जगह थी, साफ़-सुथरी । वहाँ इमली के चियों और महुए के कोइनों से खेल होता और कबड्डी की पाली जमती।
इसी तरह बचपन के सुहाने दिन बीत रहे थे, कभी लमही में तो कभी पिता के साथ कहीं और । उस कहीं और में ही एक जगह कज़ाकी नाम का एक डाक-हरकारा उसकी ज़िन्दगी में आया और हमेशा के लिए अपनी याद और अपना दाग़ छोड़ गया :
'मेरी बाल-स्मृतियों में कज़ाकी एक न मिटनेवाला व्यक्ति है। आज चालीस साल गुज़र गए (कहानी सन् 1926 में लमही में बैठकर लिखी जा रही है जब कि मुदर्रिसी के तेईस तूफ़ानी सालों की बेतहाशा भागमभाग के बाद लेखक उस ज़िन्दगी को अलविदा कहकर फिर अपने बचपन के परिवेश में लौट आया है, कुछ सुस्ता रहा है और पुरानी स्मृतियाँ धीमी-धीमी बयार की तरह आकर उसको सहला रही हैं) लेकिन कज़ाकी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है। मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आज़मगढ़ की एक तहसील में था। कज़ाकी जात का पासी था, बड़ा ही हँसमुख, बड़ा ही साहसी, बड़ा ही ज़िन्दादिल । वह रोज़ शाम को डाक का थैला लेकर आता, रात-भर रहता और सबेरे डाक लेकर चला जाता। शाम को फिर उधर से डाक लेकर आ जाता। ज्योंही चार बजते, व्याकुल होकर, सड़क पर आकर खड़ा हो जाता और थोड़ी देर में कज़ाकी कंधे पर बल्लम रखे, उसकी झुनझुनी बजाता, दूर से दौड़ता हुआ आता दिखलाई देता। वह साँवले रंग का, गठीला, लम्बा जवान था। शरीर ऐसा साँचे में ढला हुआ कि चतुर मूर्तिकार भी उसमें कोई दोष न निकाल सकता। उसकी छोटी-छोटी मूँछें उसके सुडौल चेहरे पर बहुत ही अच्छी मालूम होतीं। मुझे देखकर वह और तेज़ दौड़ने लगता, उसकी झुनझुनी और ज़ोर से बजने लगती और मेरे हृदय में और ज़ोर से ख़ुशी की धड़कन होने लगती । हर्षातिरेक में मैं भी दौड़ पड़ता और एक क्षण में कज़ाकी का कन्धा मेरा सिंहासन बन जाता.... संसार मेरी आँखों में तुच्छ हो जाता और जब कज़ाकी मुझे कंधे पर लिये हुए दौड़ने लगता, तब तो ऐसा मालूम होता मानो मैं घोड़े पर उड़ा जा रहा हूँ।
थैला रखते ही वह हम लोगों को लेकर किसी मैदान में निकल जाता, कभी हमारे साथ खेलता, कभी बिरहे गाकर सुनाता और कभी कहानियाँ सुनाता । उसे चोरी और डाके, मारपीट, भूत-प्रेत की सैकड़ों कहानियाँ याद थीं.....।
उसकी कहानियों के चोर और डाकू सच्चे योद्धा होते थे जो अमीरों को लूटकर दीन-दुखी प्राणियों का पालन करते थे....'
उस वक़्त नवाब क़रीब छः साल के थे। आठवें साल में उनकी पढ़ाई शुरू हो गई थी, ठीक वही पढ़ाई जिसका कायस्थ घरानों में चलन था, उर्दू-फारसी । लमही से मील सवा मील की की दूरी पर एक गाँव है लालपुर। वहीं एक मौलवी साहब रहते थे जो पेशे से तो दर्जी थे मगर मदरसा भी लगाते थे।
मुंशी जी ने अपनी कहानी 'चोरी' में उस जमाने को ख़ूब डूब-डूबकर याद किया है :
'हाय बचपन, तेरी याद नहीं भूलती! वह कच्चा, टूटा घर, वह पुआल का बिछौना, वह नंगे बदन, नंगे पाँव खेतों में घूमना, आम के पेड़ों पर चढ़ना-सारी बातें आँखों के सामने फिर रही हैं। चमरौधे जूते पहनकर उस वक़्त जितनी ख़ुशी होती थी, अब फ्लेक्स के बूटों से भी नहीं होती, गरम पनुए रस में जो मज़ा था वह अब गुलाब के शर्बत में भी नहीं, चबेने और कच्चे बेरों में जो रस था वह अब अंगूर और खीरमोहन में भी नहीं मिलता।
मैं अपने चचेरे भाई हलधर1 के साथ दूसरे गाँव में एक मौलवी साहब के यहाँ पढ़ने जाया करता था। मेरी उम्र आठ साल थी, हलधर ( वह अब स्वर्ग में निवास कर रहे हैं) मुझसे दो साल जेठे थे। हम दोनों प्रातः काल बासी रोटियाँ खा दोपहर के लिए मटर और जौ का चबेना लेकर चल देते थे। फिर तो सारा दिन अपना था। मौलवी साहब के यहाँ कोई हाज़िरी का रजिस्टर तो था नहीं! और न ग़ैरहाज़िरी का जुर्माना ही देना पड़ता था। फिर डर किस बात का । कभी तो थाने के सामने खड़े सिपाहियों की क़वायद देखते, कभी किसी भालू या बन्दर नचानेवाले मदारी के पीछे-पीछे घूमने में दिन काट देते, कभी रेलवे स्टेशन की ओर निकल जाते और गाड़ियों की बहार देखते । गाड़ियों के समय का जितना ज्ञान हमको था उतना शायद टाइम टेबिल को भी न था । रास्ते में शहर के एक महाजन ने एक बाग़ लगवाना शुरू किया था, वहाँ एक कुआँ खुद रहा था। वह भी हमारे लिए दिलचस्प तमाशा था । बूढ़ा माली हमें अपनी झोपड़ी में बड़े प्रेम से बैठाता था। हम उससे झगड़-झगड़कर उसका काम करते। कहीं बाल्टी लिये पौधों को सींच रहे हैं, कहीं खुरपी से क्यारियाँ गोड़ रहे हैं, कहीं कैंची से बेलों की पत्तियाँ छाँट रहे हैं। उन कामों में कितना आनन्द था। माली बाल प्रकृति का पंडित था, हमसे काम लेता पर इस तरह मानो हमारे ऊपर कोई एहसान कर रहा है। जितना काम वह दिन-भर में करता, हम घंटे-भर में निबटा देते।
(1. असल नाम बलभद्र । महाबीर लाल के छोटे लड़के, बलदेव लाल के छोटे भाई । जवानी में ही मर गए । मसूढ़े में सुपारी फँस गई। वही नासूर बन गई।)
कभी-कभी हम हफ़्तों ग़ैरहाज़िर रहते पर मौलवी साहब से ऐसा बहाना कर देते कि उनकी चढ़ी हुई त्योरियाँ उतर जातीं। उतनी कल्पना-शक्ति आज होती तो ऐसा उपन्यास लिख मारता कि लोग चकित रह जाते। अब तो यह हाल है कि बहुत सिर खपाने के बाद कोई कहानी सूझती है। ख़ैर, हमारे मौलवी साहब दर्जी थे। मौलवीगीरी केवल शौक़ से करते थे। हम दोनों भाई अपने गाँव के कुर्मी कुम्हारों से उनकी खूब बड़ाई करते थे या कहिए कि हम मौलवी साहब के सफ़री एजेंट थे। हमारे उद्योग से जब मौलवी साहब को कुछ काम मिल जाता था, हम फूले नहीं समाते । जिस दिन कोई अच्छा बहाना न सूझता, मौलवी साहब के लिए कोई न कोई सौगात ले जाते। कभी सेर-आध सेर फलियाँ तोड़ लीं तो कभी दस-पाँच ऊख, कभी जौ या गेहूँ की हरी-हरी बालें ले लीं। इन सौगातों को देखते ही मौलवी साहब का क्रोध शान्त हो जाता। जब इन चीज़ों की फ़सल न होती तो हम सज़ा से बचने का कोई और ही उपाय सोचते । मौलवी साहब को चिड़ियों का शौक़ था। मकतब में श्यामा, बुलबुल, दहियल और चंडूलों के पिंजरे लटकते रहते थे। हमें सबक़ याद हो या न हो पर चिड़ियों को याद हो जाते थे। हमारे साथ ही वह भी पढ़ा करती थीं। इन चिड़ियों के लिए बेसन पीसने में हम लोग ख़ूब उत्साह दिखाते थे। मौलवी साहब सब लड़कों को पतिंगे पकड़ लाने की ताकीद करते रहते थे। इन चिड़ियों को पतिंगों से विशेष रुचि थी। कभी-कभी हमारी बला पतिंगों ही के सिर चली जाती थी। उनका बलिदान करके हम मौलवी साहब के रौद्र रूप को प्रसन्न कर लिया करते थे।'
भगवान को प्रसाद चढ़ाए बिना कब वरदान मिला है और गुरु की सेवा बिना किसे विद्या आई है। पुराना कायदा तो कम-से-कम यही था । और भी बहुत-सी ख़िदमतें अंजाम देनी होती होंगी, मसलन बकरी के वास्ते हरी हरी पत्तियाँ तोड़ लाना, बाज़ार जाकर सौदा-सुलुफ़ ले आना-और हुक्का तर करने का तो जैसे ज़िक्र ही बेकार है, उसके बिना कभी किसी को कुछ भी आया है !
पढ़ाई का तरीक़ा वही पुराना रहा होगा जो कि बाद के तमाम नए प्रयोगों के बावजूद शायद सबसे अच्छा था यानी रटन्त । गणित के मास्टर साहब पहाड़ा रटाते थे और दर्जे-भर के लड़के झूम-झूमकर समवेत गायन की तरह पहाड़ा रटते थे–सात के सात, सात दुनी चौदह, सात तियाँ इक्कीस ... संस्कृत के पंडित जी गच्छति गच्छतः गच्छन्ति, रामः रामौ रामा रटाते थे और मौलवी साहब आमदनामा लेकर माझी और मजहूल, हाल और मुस्तक़बिल, अम्र और नही के तमाम सींगों में सैकड़ों मज़दरों और मुज़ारों की गिरदान करवाते थे-आमद आमदन्द आमदी आमदेद आमदम आमदेम । गोयद गोयन्द गोयी गोद गोयम गोयेम । ( क्या अजब कि यह चीज़ मौलवी साहब के दहियलों और चालों की ज़बान पर लड़कों से पहले चढ़ जाती थी!) जब आमदनामा पक्का हो जाता तब सादी के गुलिस्ताँ-बोस्ताँ और करीमा-मामुक़ीमा की बारी आती। फ़ारसी पढ़ाने का यह कायदा आज सैकड़ों साल से दुनिया में चल रहा है। नवाब ने भी इसी क़ायदे से फ़ारसी पढ़ी और चुहलबाजियाँ तो जो होनी थीं, होती रहीं, ताहम ऐसा लगता है कि मौलवी साहब ने नवाब की फ़ारसी की जड़ काफ़ी मज़बूत कर दी। उर्दू के बारे में कहा जाता है कि उर्दू पढ़ाई नहीं जाती, घलुए में आती है; पढ़ाई तो फ़ारसी जाती है। जो भी बात हो, इसमें शक नहीं कि इन मौलवी साहब ने उनकी फ़ारसी की बुनियाद ख़ूब पक्की कर दी थी, कि उस पर यह महल खड़ा हो सका। प्राइवेट तौर पर जब इंटर और बी. ए. करने की नौबत आई, उस वक़्त नवाब राय को यह तय करने में एक मिनट नहीं लगा कि एक विषय ज़रूर फ़ारसी होना चाहिए ।
इस तरह थोड़ा-बहुत पढ़ते और सारे दिन मटरगश्ती करते, खेलते-कूदते, मज़े में दिन बीत रहे थे।
और इन्हीं दिनों की बात है कि उन्होंने और हलधर ( बलभद्र ) ने मिलकर घर से एक रुपया उड़ाया था। अब ज़रा उसकी दास्तान उन्हीं से सुनिए :
'.....मुँह-हाथ धोकर हम दोनों घर आए और डरते-डरते अन्दर क़दम रखा। अगर कहीं इस वक़्त तलाशी की नौबत आई तो फिर भगवान ही मालिक है। लेकिन सब लोग अपना-अपना काम कर रहे थे। कोई हमसे न बोला। हमने नाश्ता भी न किया, चबेना भी न लिया, किताब बग़ल में दबायी और मदरसे का रास्ता लिया।
बरसात के दिन थे। आकाश पर बादल छाये हुए थे। हम दोनों खुश-खुश मकतब चले जा रहे थे... हज़ारों मंसूबे बाँधते थे, हज़ारों हवाई क़िले बनाते थे। यह अवसर बड़े भाग्य से मिला था। इसलिए रुपए को इस तरह ख़र्च करना चाहते थे कि ज़्यादा से ज्यादा दिनों तक चल सके। उन दिनों पाँच आने सेर बहुत अच्छी मिठाई मिलती थी और शायद आध सेर मिठाई में हम दोनों अफर जाते लेकिन यह ख़याल हुआ कि मिठाई खाएँगे तो रुपया आज ही ग़ायब हो जाएगा। कोई सस्ती चीज़ खानी चाहिए जिसमें मज़ा भी आए, पेट भी भरे और पैसे भी कम खर्च हों। आख़िर अमरूदों पर हमारी नज़र गई। हम दोनों राज़ी हो गए। दो पैसे के अमरूद लिये। सस्ता समय था, बड़े-बड़े बारह अमरूद मिले, हम दोनों के कुर्तों के दामन भर गए। जब हलधर ने खटकिन के हाथ में रुपया रखा तो उसने सन्देह से देखकर पूछा-रुपया कहाँ पाया लाला ? चुरा तो नहीं लाए ?
जवाब हमारे पास तैयार था। ज़्यादा नहीं तो दो-तीन किताबें पढ़ ही चुके थे। विद्या का कुछ कुछ असर हो चला था। मैंने झट से कहा-मौलवी साहब की फ़ीस देनी है। घर में पैसे न थे तो चाचा जी ने रुपया दे दिया।'
मदरसे पहुँचे।
'हम अभी सबक़ पढ़ ही रहे थे कि मालूम हुआ, आज तालाब का मेला है, दोपहर से छुट्टी हो जाएगी। मौलवी साहब मेले में बुलबुल उड़ाने जाएँगे। यह ख़बर सुनते ही हमारी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। बारह आने तो बैंक में जमा ही कर चुके थे, साढ़े तीन आने में मेला देखने की ठहरी। ख़ूब बहार रहेगी। मज़े से रेवड़ियाँ खाएँगे, गोलगप्पे उड़ाएँगे, झूले पर चढ़ेंगे, और शाम को घर पहुँचेंगे। लेकिन मौलवी साहब ने एक कड़ी शर्त यह लगा दी थी कि सब लड़के छुट्टी के पहले अपना-अपना सबक़ सुना दें। जो सबक़ न सुना सकेगा, उसे छुट्टी न मिलेगी। नतीजा यह हुआ कि मुझे तो छुट्टी मिल गई पर हलधर क़ैद कर लिये गए। और कई लड़कों ने भी सबक़ सुना दिए थे, वे सभी मेला देखने चल पड़े। मैं भी उनके साथ हो लिया। पैसे मेरे ही पास थे इसलिए मैंने हलधर को साथ लेने का इन्तज़ार न किया। तय हो गया था कि वह छुट्टी पाते ही मेले में आ जाएँ और दोनों साथ-साथ मेला देखें। मैंने वचन दिया था कि जब तक वह न आएँगे एक पैसा भी खर्च न करूँगा लेकिन क्या मालूम था कि दुर्भाग्य कुछ और ही लीला रच रहा है। मुझे मेला पहुँचे एक घंटे से ज्यादा गुज़र गया, हलधर का कहीं पता नहीं। क्या अभी तक मौलवी साहब ने छुट्टी नहीं दी, या रास्ता भूल गए? आँखें फाड़ फाड़कर सड़क की ओर देखता था। अकेले मेला देखने में जी भी नहीं लगता था। यह संशय भी हो रहा था कि कहीं चोरी खुल तो नहीं गई और चाचाजी हलधर को पकड़कर घर तो नहीं ले गए। आख़िर जब शाम हो गई तो मैंने कुछ रेवड़ियाँ खाईं और हलधर के हिस्से के पैसे जेब में रखकर धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में ख़याल आया, मकतब होता चलूँ। शायद हलधर अभी वहीं हों, मगर वहाँ सन्नाटा था। हाँ, एक लड़का खेलता हुआ मिला। उसने मुझे देखते ही ज़ोर से क़हक़हा मारा और बोला-बच्चा, घर जाओ तो कैसी पड़ती है! तुम्हारे चचा आए थे। हलधर को मारते-मारते ले गए हैं। अजी, ऐसा तानकर घूँसा मारा कि मियाँ हलधर मुँह के बल गिर पड़े। यहाँ से घसीटते ले गए हैं। तुमने मौलवी साहब की तनख़्वाह दे दी थी, वह भी ले ली। अभी कोई बहाना सोच लो, नहीं तो बेभाव की पड़ेगी।
मेरी सिट्टी-पिट्टी भूल गई, बदन का लहू सूख गया। वही हुआ जिसका मुझे शक हो रहा था। पैर मन-मन भर के हो गए। घर की ओर एक-एक क़दम चलना मुश्किल हो गया । देवी-देवताओं के जितने नाम याद थे, सभी की मानता मानी-किसी को लड्डू, किसी को पेड़े, किसी को बताशे । गाँव के पास पहुँचा तो गाँव के डीह का सुमिरन किया क्योंकि अपने हलके में डीह ही की इच्छा सर्व प्रधान होती है।
यह सब कुछ किया लेकिन ज्यों-ज्यों निकट आता दिल की धड़कन बढ़ती जाती थी। घटाएँ उमड़ी आती थीं। मालूम होता था आसमान फटकर गिरा ही चाहता है। देखता था-लोग अपने-अपने काम को छोड़-छोड़ भागे जा रहे हैं, गोरु भी पूँछ उठाए घर की ओर उछलते कूदते चले जाते हैं। चिड़ियाँ अपने घोंसले की ओर उड़ी चली आती थीं, लेकिन मैं उसी मन्द गति से चला जाता था, मानो पैरों में शक्ति नहीं। जी चाहता था, ज़ोर का बुखार चढ़ आए, या कहीं चोट लग जाए, लेकिन कहने से धोबी गधे पर नहीं चढ़ता। बुलाने से मौत नहीं आती, बीमारी का तो कहना ही क्या। कुछ न हुआ और धीरे-धीरे चलने पर भी घर सामने आ ही गया। अब क्या हो? हमारे द्वार पर इमली का एक घना वृक्ष था, मैं उसी की आड़ में छिप गया कि ज़रा और अँधेरा हो जाए तो चुपके से घुस जाऊँ और अम्माँ के कमरे में चारपाई के नीचे जा बैठूं। जब सब लोग सो जाएँगे तो अम्माँ से सारी कथा कह सुनाऊँगा । अम्माँ कभी नहीं मारतीं । जरा उनके सामने झूठ-मूठ रोऊँगा तो वह और भी पिघल जाएँगी। रात कट जाने पर फिर कौन पूछता है। सुबह तक सब का गुस्सा ठंडा हो जाएगा। अगर ये मंसूबे पूरे हो जाते तो इसमें सन्देह नहीं कि मैं बेदाग़ बच जाता। लेकिन वहाँ तो विधाता को कुछ और ही मंजूर था। मुझे एक लड़के ने देख लिया और मेरे नाम की रट लगाते हुए सीधे मेरे घर में भागा। अब मेरे लिए कोई आशा न रही। लाचार घर में दाख़िल हुआ तो सहसा मुँह से एक चीख़ निकल गई, जैसे मार खाया हुआ कुत्ता किसी को अपनी ओर आता देखकर भय से चिल्लाने लगता है। बरोठे में पिता जी बैठे थे। पिता जी का स्वास्थ्य इन दिनों कुछ ख़राब हो गया था। छुट्टी लेकर घर आए हुए थे। यह तो नहीं कह सकता उन्हें शिकायत क्या थी, पर वह मूँग की दाल खाते थे और संध्या समय शीशे के गिलास में एक बोतल में से कुछ उँडेल-उँडेलकर पीते थे। शायद यह किसी तजुर्बेकार हक़ीम की बताई हुई दवा थी । दवाएँ सब बसानेवाली और कड़वी होती हैं। यह दवा भी बुरी ही थी, पर पिता जी न जाने क्यों इस दवा को ख़ूब मज़ा ले-लेकर पीते थे। हम जो दवा पीते हैं तो आँखें बन्द करके एक ही घूँट में गटक जाते हैं, पर शायद इस दवा का असर धीरे-धीरे पीने में ही होता हो। पिता जी के पास गाँव के दो-तीन और कभी-कभी चार-पाँच और रोगी भी जमा हो जाते, और घंटों दवा पीते रहते थे। रोगियों की मंडली जमा थी, मुझे देखते ही पिता ने लाल-लाल आँखें करके पूछा-कहाँ थे अब तक ?
मैंने दबी जबान से कहा-कहीं तो नहीं।
'अब चोरी की आदत सीख रहा है? बोल, तूने रुपया चुराया कि नहीं?'
मेरी ज़बान बन्द हो गई। सामने नंगी तलवार नाच रही थी। शब्द भी निकलते हुए डरता था।
पिता जी ने ज़ोर से डाँटकर पूछा-बोलता क्यों नहीं? तूने रुपया चुराया कि नहीं?
मैंने जान पर खेलकर कहा-मैंने कहाँ...
मुँह से पूरी बात भी न निकल पाई थी कि पिता जी विकराल रूप धारण किए, दाँत पीसते, झपटकर उठे और हाथ उठाए मेरी ओर चले। मैं ज़ोर से चिल्लाकर रोने लगा ऐसा चिल्लाया कि पिताजी भी सहम गए। उनका हाथ उठा ही रह गया। शायद समझे कि जब अभी से इसका यह हाल है तब तमाचा पड़ जाने पर कहीं इसकी जान ही न निकल जाए। मैंने जो देखा कि मेरी हिकमत काम कर गई, तो और भी गला फाड़-फाड़कर रोने लगा। इतने में मंडली के दो-तीन आदमियों ने पिताजी को पकड़ लिया और मेरी ओर इशारा किया कि भाग जा! बच्चे बहुधा ऐसे मौके पर और भी मचल जाते हैं, और व्यर्थ मार खा जाते हैं। मैंने बुद्धिमानी से काम लिया।
लेकिन अन्दर का दृश्य इससे कहीं भयंकर था। मेरा तो ख़ून सर्द हो गया। हलधर के दोनों हाथ एक खम्भे से बँधे थे, सारी देह धूल-धूसरित हो रही थी, और वह अभी तक सिसक रहे थे। शायद वह आँगन भर में लोटे थे। ऐसा मालूम हुआ कि सारा आँगन उनके आँसुओं से भीग गया है। चाची हलधर को डाँट रही थीं, और अम्माँ बैठी मसाला पीस रही थीं। सबसे पहले मुझ पर चाची की निगाह पड़ी। बोलीं-लो, वह भी आ गया। क्यों रे, रुपया तूने चुराया था कि इसने ?
मैंने नि:शंक होकर कहा-हलधर ने।
अम्मा बोलीं-अगर उसी ने चुराया था, तो तूने घर आकर किसी से कहा क्यों नहीं?
अब झूठ बोले बग़ैर बचना मुश्किल था। मैं तो समझता हूँ कि जब आदमी को जान का ख़तरा हो, तो झूठ बोलना क्षम्य है। हलधर मार खाने के आदी थे, दो-चार घूँसे और पड़ने से उनका कुछ न बिगड़ सकता था। मैंने मार कभी न खाई थी। मेरा तो दो चार घूँसों में ही काम तमाम हो जाता। फिर हलधर ने भी तो अपने को बचाने के लिए मुझे फँसाने की चेष्टा की थी। नहीं तो चाची मुझसे यह क्यों पूछतीं-रुपया तूने चुराया या हलधर ने? किसी भी सिद्धान्त से मेरा झूठ बोलना इस समय स्तुत्य नहीं, तो क्षम्य ज़रूर था। मैंने छूटते ही कहा-हलधर कहते थे किसी से बताया, तो मार ही डालूँगा ।
अम्माँ-देखा, वही बात निकली न! मैं तो कहती ही थी कि बच्चा की ऐसी आदत नहीं, पैसा तो वह हाथ से छूता ही नहीं लेकिन सब लोग मुझी को उल्लू बनाने लगे।
हल.-मैंने तुमसे कब कहा था कि बतलाओगे, तो मारूँगा?
मैं-वहीं तालाब के किनारे तो!'
थोड़ी-सी पढ़ाई थी, ढेरों उछल-कूद | चिबिल्लेपन की इन्तहा नहीं। कभी बन्दर भालू का नाच है तो कभी आपस में ही घुड़दौड़ हो रही है। रामू, रघुनाथ पिरथी, पदारथ, बाँगुर, गोवर्धन और और भी न जाने कितने, पूरी फौज थी। तीन महीने मुवातिर आमों की ढेलेबाज़ी चलती। इतने कच्चे आम खाये जाते कि फ़सल भर चोपी लग-लगकर मुँह फदका रहता। आम में जाली पड़ जाती तो फिर पना भी शुरू हो जाता। किसी के यहाँ से नमक आता, किसी के यहाँ से जीरा, किसी के यहाँ से हींग, किसी के यहाँ से नई हँडिया के लिए पैसा । फिर कोई हँडिया लाने चला जाता, बाक़ी लोग बाँस की पत्ती बटोरने में लग जाते। पास ही बँसवारी थी। फिर आग सुलगाई जाती, आम भूने जाते । पना बनाने का पूरा एक शास्त्र था और इस शास्त्र के दो एक ही आचार्य थे। उनमें नवाब नहीं थे। पर हाँ, हिस्सा लेने में सबसे आगे रहते थे। यह तो गर्मी का नक्शा था। जाड़े के दिनों में ढेरों ऊख तोड़ लाए। उसी में यह भी बाज़ी लगी हुई है कि ऊख की चेप कौन सबसे बड़ी निकाल सकता है! कभी कोल्हाड़े में चले गए जहाँ गुड़ बन रहा होता, वहाँ पनुए रस से (जो खोई को फिर से पानी में भिगोकर तैयार किया जाता है) तबीयत तर की या कच्चा गुड़ लेकर दाँत से उसके लड़ने का मज़ा देखा। गुड़ से मुंशीजी को बेहद प्रेम है। गुड़ मिठाइयों का बादशाह है। सारी ज़िन्दगी गुड़ का यह प्रेम इसी तरह बना रहा। खाने के साथ थोड़ा सा गुड़ ज़रूरी था ।
गुड़ की चोरी का एक निहायत दिलचस्प क़िस्सा, अपने बचपन का, मुंशीजी ने 'होली की छुट्टी' में सुनाया है-
'अम्माँ तीन महीने के लिए अपने मैके या मेरी ननिहाल गई थीं और मैंने तीन महीने में एक मन गुड़ का सफाया कर दिया था। यही गुड़ के दिन थे। नाना बीमार थे, अम्माँ को बुला भेजा था। मेरा इम्तिहान पास था, इसलिए मैं उनके साथ न जा सका... जाते वक़्त उन्होंने एक मन गुड़ लेकर एक मटके में रखा और उसके मुँह पर एक सकोरा रखकर मिट्टी से बन्द कर दिया। मुझे सख़्त ताकीद कर दी कि मटका न खोलना। मेरे लिए थोड़ा सा गुड़ एक हाँडी में रख दिया था। वह हाँडी मैंने एक हफ़्ते में सफ़ाचट कर दी। सुबह को दूध के साथ गुड़, दोपहर को रोटियों के साथ गुड़, तीसरे पहर दानों के साथ गुड़, रात गुड़ । यहाँ तक जायज़ ख़र्च था, जिस पर अम्माँ को भी कोई एतराज न हो सकता। मगर स्कूल से बार-बार पानी पीने के बहाने घर में आता और दो-एक पिंडियाँ निकालकर रख लेता। उसकी बजट में कहाँ गुंजाइश थी। और मुझे गुड़ का कुछ ऐसा चस्का पड़ गया कि हर वक़्त वही नशा सवार रहता। मेरा घर में आना गुड़ के सिर शामत आना था। एक हफ़्ते में हाँडी ने जवाब दे दिया। मगर मटका खोलने की सख़्त मनाही थी और अम्माँ के घर आने में अभी पौने तीन महीने बाक़ी थे। एक दिन तो मैंने बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे सब्र किया लेकिन दूसरे दिन एक आह के साथ सब जाता रहा और मटके की एक मीठी चितवन के साथ होश रुखसत हो गया।'
फिर तो इस दो अंगुल की जीभ ने क्या-क्या नाच नचाया है-
‘अपने को कोसता, धिक्कारता-गुड़ तो खा रहे हो मगर बरसात में सारा शरीर सड़ जाएगा, गन्धक का मलहम लगाए घूमोगे, कोई तुम्हारे पास बैठना भी न पसंद करेगा! कसमें खाता, विद्या की, माँ की, स्वर्गीय पिता की, गऊ की, ईश्वर की ... '
कुछ भी काम न आया, तो 'बड़े भक्तिभाव से ईश्वर से प्रार्थना की-भगवान्, यह मेरा चंचल लोभी मन मुझे परेशान कर रहा है, मुझे शक्ति दो कि उसको वश में रख सकूँ। मुझे अष्टधातु की लगाम दो जो उसके मुँह में डाल दूँ!'
मगर सब बेसूद । कोठरी में ताला लगाकर एक बार उसकी चाबी दीवार की संधि में डाल दी जाती है और दूसरी बार कुएँ में फेंक दी जाती है, मगर तब भी रिहाई नहीं मिलती और वह मन भर का मटका पेट में समा जाता है !
इस तरह की दिलचस्पियों की नवाब को कुछ कमी न थी । कभी दो-चार लोग जाकर पोखरी से मछली मार लाए और भूनकर खा गए। और कभी इमली के नीचे चटाचट गोली की चोटें होतीं, चिये से ताक-जूस, चित-पट होता जो कि तक़दीर के चित-पट से रत्ती भर घटकर नहीं था क्योंकि उसमें भी बाज़ाब्ता खज़ाने जीते और हारे जाते, कोई दरिद्र हो जाता, कोई मालामाल हो जाता-मतलब यह कि दिलचस्पी के सामानों की कुछ कमी न थी, और हाँ, दादी से कहानी सुनी जाती और झगड़ा होता कि कहानी कहते समय दादी का मुंह भैया (बलभद्र) की तरफ़ क्यों हो जाता है।
इस तरह माँ और दादी के लाड़-प्यार में लिपटे हुए दिन बड़ी मस्ती में बीत रहे थे जबकि आसमान से इस बच्चे का इतना सुख न देखा गया और उसी साल माँ ने बिस्तर पकड़ लिया। मुंशी अजायब लाल की ही तरह वह भी संग्रहणी की पुरानी मरीज़ थीं। इस बार का हमला जानलेवा साबित हुआ। मुंशी अजायब लाल उन दिनों इलाहाबाद में थे और वहीं नवाब की माँ बीमार पड़ीं। छः महीने बीमार रहीं। नवाब तब आठवें साल में चल रहा था और उसकी बहन सुग्गी चौदह-पन्द्रह की थी। उसी साल उसका ब्याह मिर्ज़ापुर के पास लहौली नाम के गाँव में हुआ था। गौना भी हो गया था। माँ के मरने के आठ-दस रोज़ पहले आईं। दादी भी आईं जो कि लमही में रहती थीं। नवाब माँ के सिरहाने बैठा पंखा झलता रहता और उसके चचेरे बड़े भाई बलदेव लाल, जो बीस बरस के नौजवान थे और एक अंग्रेज़ के यहाँ टेनिस की गोली उठाने पर नौकर थे, दवा-दारू के इन्तज़ाम में रहते। काफ़ी इलाज हुआ लेकिन व्यर्थ।
नवाब के आठवें साल में वह चल बसीं और उसी दिन वह नवाब जिसे माँ पान के पत्ते की तरह फेरती थी, डिठौना लगाकर घर से निकलने देती थी और आँचल में छिपाए फिरती थी, कभी सर्दी से कभी गर्मी से, कभी सिहानेवालों की डीठ से, देखते-देखते सयाना हो गया। अब उसके सर पर तपता हुआ नीला आकाश था, नीचे जलती हुई भूरी धरती थी, पैरों में जूते न थे, बदन पर साबित कपड़े न थे, इसलिए नहीं कि यकबयक पैसे का टोटा पड़ गया बल्कि इसलिए कि इन सब बातों की फ़िक्र रखनेवाली माँ की आँखें मुँद गई थीं। बाप यों भी कब माँ की जगह ले पाता है, उस पर से वह काम के बोझ से दबे रहते। उनके पैर में चक्कर तो जैसे था ही, हर साल दो साल छ: महीने में उनका तबादला होता रहता, कभी बाँदा तो कभी बस्ती, कभी गोरखपुर तो कभी कानपुर, कभी इलाहाबाद तो कभी लखनऊ, कभी जीयनपुर तो कभी बड़हलगंज, किसी एक जगह जमकर रहने न पाते, ऊपर से काम का बोझ, ख़ासी परेशान ज़िन्दगी थी। बेटे को उनके साथ की, उनकी दोस्ती की भी ज़रूरत हो सकती है-इसके लिए न तो उनके पास समझ थी और न समय। 'कज़ाकी' में लेखक ने शायद अपनी ही बात बच्चे के मुँह से कहलवाई है-
'बाबूजी बड़े गुस्सेवर थे। उन्हें काम बहुत करना पड़ता था, इसी से बात-बात पर झुंझला पड़ते थे। मैं तो उनके सामने कभी आता ही न था, वह भी मुझे कभी प्यार न करते थे। घर में वह केवल दो बार घंटे घंटे भर के लिए भोजन करने आते थे, बाक़ी सारे दिन दफ़्तर में लिखा करते थे। उन्होंने बार-बार एक सहकारी के लिए अफ़सरों से विनय की थी, पर इसका कुछ असर न हुआ था। यहाँ तक कि तातील के दिन भी बाबूजी दफ़्तर ही में रहते थे ।... बाबूजी मुझे प्यार तो कभी न करते थे, पर पैसे ख़ूब देते थे। शायद अपने काम में व्यस्त रहने के कारण, मुझसे पिंड छुड़ाने के लिए इसी नुस्खे को सबसे आसान समझते थे।' प्यार, दोस्ती, संग-साथ नवाब को जो कुछ मिलता अपनी माँ से मिलता, भले पैसे का नाम सुनते ही उनकी त्योरियाँ बदल जाती हों । सो माँ अब नहीं रही। माँ जैसा ही कुछ प्यार बड़ी बहन से मिलता था, वह अपने घर चली गई। नवाब की दुनिया घर के नाते सूनी हो गई। पिताजी का तो वही हाल था। थके-माँदे शाम को घर लौटते और बोतल लेकर बैठ जाते । पीते अपनी मात्रा भर ही थे, मगर हर शाम पीते थे। एक छोटी-सी गिलसिया थी, वही उनका नपना था।'
सूनी दुनिया में बराबर कौन रह सकता है। ज़िन्दगी ख़ुद उसे भरने का उपाय कर देती है, जैसे कि हर घाव वह भर देती है । बुड्ढे स्मृतियों की बैसाखी लेकर चलने लगते हैं और गुज़रे वक़्तों के प्रेत आकर उनकी दुनिया को भर देते हैं। नवाब तो अभी बच्चा था, बहुत ही शरीर, बहुत ही खिलंदरा, और सारी ज़िन्दगी उसके सामने पड़ी थी।
पत्नी के मरने के कुछ ही दिन बाद मुंशी अजायब लाल बीमार पड़े। ठीक होने भी न पाए थे कि फिर तबादले का हुक्म आया। नई जगह, सूने घर में नवाब को ले जाना पागलपन होता, इसलिए नवाब को फिर लमही में ही रखने की ठहरी। इलाहाबाद से चलने लगे तो उन्होंने बलदेव से भी साथ आने को कहा। पर बलदेव साथ नहीं आए। कुछ ही वक़्त बाद उनके साहब की, जो डाक-तार विभाग का कोई बड़ा अफ़सर था, इन्दौर की बदली हुई। वह बलदेव लाल को भी, जो मुंशी अजायब लाल के चले जाने के बाद उसी के यहाँ रहते थे, अपने साथ इन्दौर लेता गया और उन्हें तार का लाइन्समैन बनवा दिया। वह पन्द्रह बरस इन्दौर में रहे आए और घर का मुँह नहीं देखा । बाद को अपने छोटे भाई बलभद्र को भी उन्होंने अपने पास बुलाकर अपने ही समान लाइन्समैन बनवा दिया पर बलभद्र कच्ची उम्र में ही चल बसे।
नवाब की अब फिर अपनी वही पुरानी दुनिया थी-वही मौलवी साहब और वही खेत-मैदान, ऊख-मटर, आम-इमली, दौड़-भाग, गुल्ली-गोली। फ़र्क़ बस इतना था कि सर पर अब और भी कोई न था, माँ तो कभी किसी काम के लिए रोकती भी थीं, डाँटती भी थीं, दादी तो बस लाड़ करती थीं, कुछ तो शायद इसलिए भी कि माँ अभी हाल में ही मरी थी, उस ग़म को बच्चा अगर खेल-कूद में भूल जाए.....
लिहाज़ा जैसे-जैसे समय बीतता गया, उम्र के साथ-साथ आवारागर्दी भी बढ़ती गई। दो बरस बाद पिता ने फिर ब्याह कर लिया था, लेकिन उससे नवाब का अकेलापन न घटना था न घटा और वह अलग अपनी दुनिया में घूमता रहा, खेलता रहा, दादी से कहानी सुनता रहा। किसी क़दर वह एक जंगली पौधे की बाढ़ थी, बिलकुल निर्बाध, उन्मुक्त । इसे उसका अच्छा पहलू कह सकते हैं। लेकिन कुछ बुरा पहलू भी था-बारह-तेरह बरस की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते उसे सिगरेट-बीड़ी का चस्का लग चुका था और अपने ही शब्दों में उन बातों का ज्ञान हो गया था जो कि बच्चों के लिए घातक हैं। बिना माँ के बच्चे का ऐसा ही हाल होता है । न हो, तो अचरज की बात है। पता नहीं माँ का प्यार किस रहस्यपूर्ण ढंग से बच्चे का परिष्कार किया करता है। दोनों में से किसी को पता नहीं चलता पर वह छाया अपना काम करती रहती है। वह प्यार छिन जाए, सर पर से वह हाथ हट जाए तो एक ऐसी कमी महसूस होती है जो बच्चे को अन्दर से तोड़ देती है। और उसके साथ ही बहुत से साँचे, बहुत-सी मूर्तियाँ जाती हैं जिनको बनाने में बरसों लगे थे।
यह कमी कितनी गहरी, कितनी तड़पानेवाली रही होगी जो सारी ज़िन्दगी यह आदमी उससे उबर नहीं सका और वह टीस बराबर पहाड़ों से टकरानेवाली सारस की आवाज़ की तरह उसकी नसों में गूँजती रही। बार-बार उसने ऐसे पात्रों की सृष्टि की जिनकी माँ सात-आठ साल की ही उम्र में जाती रही और फिर दुनिया सूनी हो गई । 'कर्मभूमि' में अमरकान्त कहता है :
'ज़िन्दगी की वह उम्र जब इंसान को मुहब्बत की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है, बचपन है। उस वक़्त पौधे को तरी मिल जाए तो ज़िन्दगी भर के लिए उसकी जड़ें मज़बूत हो जाती हैं। उस वक़्त ख़ुराक न पाकर उसकी ज़िन्दगी खुश्क हो जाती है। मेरी माँ का उसी जमाने में देहान्त हुआ और तब से मेरी रूह को ख़ुराक नहीं मिली। वही भूख मेरी ज़िन्दगी है ।'
दूसरी माँ के आ जाने से बात कुछ नहीं बदली, उलटे उसका अकेलापन और बढ़ गया क्योंकि अब वह दादी के साथ लमही में नहीं बल्कि अपनी नई माँ के साथ गोरखपुर में रह रहा था और पिता को बेटे की ओर ध्यान देने का और भी कम समय मिल रहा था। शायद अपनी कुछ उसी मनोदशा को उन्होंने 'कर्मभूमि' में यों व्यक्त किया है :
‘समरकान्त ने मित्रों के कहने-सुनने से दूसरा विवाह कर लिया था। उस सात साल के बालक ने नई माँ का बड़े प्रेम से स्वागत किया, लेकिन उसे जल्द मालूम हो गया कि उसकी नई माँ उसकी ज़िद और शरारतों को उस क्षमादृष्टि से नहीं देखती जैसे उसकी माँ देखती थी। वह अपनी माँ का अकेला लाड़ला था। बड़ा ज़िद्दी, बड़ा नटखट । जो बात मुँह से निकल जाती, उसे पूरा करके ही छोड़ता। नई माताजी बात-बात पर डाँटती थीं। यहाँ तक कि उसे माता से द्वेष हो गया। जिस बात को वह मना करतीं, उसे अदबदाकर करता । पिता से भी ढीठ हो गया। पिता और पुत्र में स्नेह का बन्धन न रहा।'
यह मन:स्थिति ठीक वह थी जिसमें नवाब के बिलकुल बहक जाने का पूरा सामान था, लेकिन प्रकृति जैसे अपने और तमाम जंगली फूल-पौधों को नष्ट होने से बचाती है जिनकी सेवा टहल के लिए कोई माली नहीं होता, उसी तरह इस आवारा छोकरे को भी बचा रही थी । उसको बचाने के लिए उसने ढंग भी ऐसा ही अख़्तियार किया जो उसकी प्रतिभा के अनुकूल था।
बस एक हल्का-सा मोड़ दे दिया आवारागर्दी अब भी चल रही थी-मगर मोटी-मोटी किताबों के पन्नों में, जिनका रस छन-छनकर उसके भीतर के क़िस्सागो को ख़ुराक पहुँचा रहा था। जो भूख उसके भीतर न जाने कब से, शायद जन्म से ही पल रही थी, जिसे दादी की कहानियों ने और उकसा दिया था, अब नवाब ख़ुद उसके लिए ख़ुराक जुटा रहा था और इस तरह फिर वह आवारागर्दी आवारागर्दी न रह गई, गुल्ली-डंडे और मटरगश्ती की जगह तलिस्म और ऐयारी की मोटी-मोटी किताबों ने ले ली, ऐसी कि पूरी एन्साइक्लोपीडिया समझ लीजिए। एक आदमी तो अपने साठ वर्ष के जीवन में उनकी नक़ल भी करना चाहे तो नहीं कर सकता, रचना तो दूर की बात है।' यह मौलाना फ़ैज़ी के 'तलिस्मे होशरुबा' की तारीफ़ है जिसके पच्चीसों हज़ार पन्ने तेरह साल के नवाब ने दो-तीन बरस के दौरान में पढ़े और और भी न जाने कितना कुछ चाट डाला जैसे रेनाल्ड की 'मिस्ट्रीज आफ़ द कोर्ट आफ़ लंडन' की पच्चीसों किताबों के उर्दू तर्जुमे, मौलाना सज्जाद हुसेन की हास्य-कृतियाँ, ‘उमरावजान अदा' के लेखक मिर्ज़ा रुसवा और रतननाथ सरशार के ढेरों क़िस्से। उपन्यास ख़त्म हो गए तो पुराणों की बारी आई। नवलकिशोर प्रेस ने बहुत से पुराणों के उर्दू अनुवाद छापे थे, उन पर टूट पड़े।
कोई पूछे कि इतनी सब किताबें इस लड़के को मिलती कहाँ थीं?
'रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दूकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले लेकर पढ़ता था । मगर दूकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दूकान से अंग्रेज़ी पुस्तकों की कुंजियाँ और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और उसके मुआवज़े में दूकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में मैंने सैकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे।'
ग़रज़ कि बाद में, बहुत बाद में, कुछ दोस्तों ने उन्हें किताबी कीड़ा का जो लक़ब दिया था, उसका यह पूर्वाभास था। इससे हल्का एक पूर्वाभास तो अब से तीन बरस पहले मिला, जब पिता जी की शादी के मौके पर नवाब ने लोगों की दिल-बस्तगी के लिए या बैतबाज़ी की प्रतियोगिता में, जो कि कायस्थों की शादी में न तब कोई अनहोनी चीज़ थी न अब है इतनी ग़ज़लें सुनाई थीं कि घराती-बराती सब दंग रह गए। उस वक़्त नवाब मिशन स्कूल में आठवीं जमात में पढ़ते थे जो तीसरा दर्ज़ा कहलाता था। लेकिन गोरखपुर वह शायद उसके भी दो बरस पहले पहुँच गए थे और उनकी अंग्रेज़ी पढ़ाई रावत पाठशाला में शुरू हुई। उन दिनों उनकी नई माँ के भाई विजयबहादुर भी वहीं रहते थे। उनसे नवाब की बहुत बनती थी, उम्र भी लगभग एक ही थी । अक्सर दोनों बालेमियाँ के मैदान में निकल जाते और पतंगों के पेंच देखते। नई माँ का पहला बच्चा गुलाबराय तब डेढ़-दो साल का था और मुमकिन है कि उसकी आमद ने घर से नवाब का लगाव और कम कर दिया हो । यहीं लगभग दो बरस बाद उनके दूसरे बच्चे महताब का जन्म हुआ।
जहाँ तक नवाब की बात है, उसको घर से यों ही बहुत कम मतलब था और अब तो उसके पास होश उड़ा देनेवाले तलिस्मों की अलग अपनी एक दुनिया थी, और हातिमताई और चहार दरवेश जैसे संगी-साथी थे जिनके संग-संग वह कभी भेस बदलकर अँधेरे तहख़ानों में घुसता था और अक्सर जंगलों व रेगिस्तानों में भटकता फिरता था।
पढ़ाई का यह हाल था तो कैसे मुमकिन था कि कुछ लिखने का भी ख़याल नवाब के दिल में न आता, जब कि बीज पहले से ही मौजूद था। लेकिन बड़े आश्चर्य की और काफ़ी गहरे आशय की बात है कि तेरह साल का नवाब जब लिखने बैठा तो उसने तलिस्म और ऐयारी की राह नहीं पकड़ी, बावजूद उन सैकड़ों किताबों के जिन्हें वह घोलकर पी चुका था और जो निश्चय ही उसके दिमाग़ पर छाई रही होंगी। कोई ताक़त जो ख़ुद उससे बड़ी थी उसका हाथ पकड़कर उसे सामाजिकता के उस रास्ते पर ले गई जिसे भविष्य में उसका अपना ख़ास रास्ता बनना था, जिसे अपने पैरों से रौंद-रौंदकर उसने पक्का किया, जिस पर उसके पैरों के गहरे निशान हैं जो जल्द मिटनेवाले नहीं हैं। शुरू की कुछ कहानियों में सामाजिकता के साथ-साथ कहानी के ढाँचे में यह तलिस्मी-ऐयारी रंग भी थोड़ा-बहुत बोला मगर उसकी पहली रचना, जो उसका परिचय-पत्र था, इस चीज़ से क़तई पाक है।
वह रचना, उसकी पहली रचना, जिसे शायद चिराग़ अली के सिपुर्द कर दिया गया, अपने तरह की एक बेजोड़ चीज़ थी जिस पर शायद किसी अच्छे लेखक को भी शर्म न आती । उसके रचे जाने की कहानी ख़ुद मुंशीजी ने बहुत रस ले-लेकर कही है :-
'मेरे एक नाते के मामू1 कभी कभी हमारे यहाँ आया करते थे। अधेड़ हो गए थे लेकिन अभी तक बिन ब्याहे थे। पास में थोड़ी-सी ज़मीन थी, मकान था, लेकिन घर के बिना सब कुछ सूना था। इसीलिए घर पर जी न लगता था, नातेदारियों में घूमा करते थे और सबसे यही आशा रखते थे कि कोई उनक ब्याह करा दे। इसके लिए सौ दो सौ खर्च करने को भी तैयार थे। क्यों उनका विवाह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था। अच्छे ख़ासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूँछें, औसत क़द, साँवला रंग। गाँजा पीते थे, इससे आँखें लाल रहती थीं। अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे। शिवजी को रोज़ाना जल चढ़ाते थे और मांस- मछली नहीं खाते थे।
(1. नाम छिपा गए हैं। सुनते हैं कि यह मुंशी रूपनारायन नाम के एक सज्जन थे, विजयबहादुर फुफेरे भाई।)
आख़िर एक बार उन्होंने भी वही किया जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं- एक चमारिन के नयन- बाणों से घायल हो गए। वह उनके यहाँ गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी। जवान थी, छबीली थी, मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा। बातों बातों में उससे छेड़ छाड़ करने लगे। वह इनके मन का भाव ताड़ गई, ऐसी अल्हड़ न थी, और नखरे करने लगी। केशों में तेल भी पड़ने लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो। आँखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आई और काम में ढिलाई भी शुरू हुई। कभी दोपहर को आई और झलक दिखाकर चली गई, कभी साँझ को आई और एक तीर चलाकर चली गई। बैलों को सानी-पानी मामू साहब ख़ुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते। युवती से बिगड़ते क्योंकर, वहाँ तो अब प्रेम उदय हो गया था। होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी, मगर अब की गजी की साड़ी न थी, ख़ूबसूरत सी सवा दो रुपए की चुंदरी थी। होली की त्योहारी भी मामूल से चौगुनी कर दी और यह सिलसिला यहाँ तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गई।
एक दिन संध्या समय चमारों ने आपस में पंचायत की। बड़े आदमी हैं तो हुआ करें, क्या किसी की इज्ज़त लेंगे? एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आँख उठाकर न देखा ( हालाँकि यह सरासर ग़लत था) और एक यह हैं कि नीच जात की बहू बेटियों पर भी डोरे डालते हैं। समझाने- बुझाने का मौक़ा न था। समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उलटे और कोई मामला खड़ा कर देंगे। इनके क़लम घुमाने की तो देर है । इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक़ देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए। इज़्ज़त का बदला ख़ून से ही चुकता है, लेकिन मरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो ही सकती है।
दूसरे दिन शाम को जब चम्पा मामू साहब के घर आई तो उन्होंने अन्दर का द्वार बन्द कर दिया। महीनों के असमंजस, हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यावहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाए, कुल मरजाद रहे या जाए, बाप-दादा का नाम डूबे या उतराय!
उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बन्द हुए, उधर उन्होंने खटखटाना शुरू किया। पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई असामी मिलने आया होगा, किवाड़ बन्द पाकर लौट जाएगा, लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबड़ाये। जाकर किवाड़ों की दराज से झाँका, कोई बीस- पच्चीस चमार लाठियाँ लिये, द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की कोशिश कर रहे थे। अब करें तो क्या करें, भागने का कोई रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते। समझ गए कि शामत आ गई। आशिकी इतनी जल्द गुल खिलाएगी यह क्या जानते थे, नहीं इस चमारिन पर दिल को आने ही क्यों देते। उधर चम्पा इन्हीं को कोस रही थी- तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज़्ज़त लुट गई। घरवाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे। कहती थी, अभी किवाड़ न बन्द करो, हाथ-पाँव जोड़ती थी, मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था। लगी मुँह में कालिख कि नहीं?
मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आए थे। कोई पक्का खिलाड़ी होता तो सौ उपाय निकाल लेता, लेकिन मामू साहब की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गई। बरौठे में थर-थर काँपते हनुमान चालीसा का पाठ करते हुए खड़े थे। कुछ न सूझता था।
और उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था, यहाँ तक कि सारा गाँव जमा हो गया। बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ, सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने आ पहुँचे। इससे ज़्यादा मनोरंजक और स्फूर्तिवर्द्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द और एक औरत को साथ घर में बन्द पाया जाए ! बढ़ई बुलाया गया, किवाड़ फाड़े गए और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले। चम्पा आँगन में खड़ी रो रही थी। द्वार खुलते ही भागी। कोई उससे नहीं बोला। मामू साहब भागकर कहाँ जाते? वह जानते थे, उनके लिए भागने का रास्ता नहीं है। मार खाने के लिए तैयार बैठे थे। मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी। जिसके हाथ जो कुछ लगा-जूता, छड़ी, छाता, लात, घूँसा, सभी अस्त्र चले। यहाँ तक कि मामू साहब बेहोश हो गए और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझकर छोड़ दिया। अब इतनी दुर्गत के बाद वह बच भी गए तो गाँव में नहीं रह सकते और उनकी ज़मीन पट्टीदारों के हाथ आएगी।
एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे। ज्योंही चलने-फिरने लायक हुए, हमारे यहाँ आए। अपने गाँववालों पर डाके का इस्तगासा दायर करना चाहते थे।
अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखाई होती तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती, लेकिन उनका वह दमखम था। मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देख बिगड़ना और रोब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा? अब तो मेरे पास उन्हें नीचा दिखाने के लिए काफ़ी मसाला था।
आखिर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनाई। सब के सब ख़ूब हँसे । मेरा साहस बढ़ा। मैंने उसे साफ़- साफ़ लिखकर वह कापी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया।'
फिर भला मामू साहब कैसे टिक जाते, अपना बोरिया- बक़चा उठाया और चलते बने।
नवाब तब तक शरीर से दुर्बल थे और अब शायद पहली बार उन्हें अपने भीतर की इस नई शक्ति की चेतना हुई जो मारपीट कर सकने से कहीं ज़्यादा भयंकर थी! जो काम लाठी-डंडे से नहीं हो सकता वह काम यह क़लम कर सकता है। मैं कमज़ोर हूँ तो क्या, यह एक बड़ा हथियार मुझे मिल गया ! अब कोई मुझे सताकर तो देखे मैं उसकी कैसी मिट्टी पलीद करता हूँ! ऐसी मार मारूँगा कि पानी भी माँगते नहीं बनेगा।
किसी की खिल्ली उड़ाकर उसका पानी जितनी अच्छी तरह उतारा जा सकता है, उतना किसी और तरह नहीं ।
यह एक अच्छी चीज़ मिली । मैं क्या जानता था। अब मैं इसी को अपनी ढाल-तलवार बनाऊँगा।
यह नवाब के साहित्यिक जीवन का पहला पाठ था, जिसे वह कभी नहीं भूला और न शायद एक बार मामू साहब की छीछालेदर करने से उसका जी भरा क्योंकि चालीस बरस बाद 'गोदान' की सिलिया और मातादीन के रूप में चम्पा और मामू साहब फिर जी उठे ।
इससे बिलकुल अलग इसी जमाने का एक स्मरणीय जीवन अनुभव वह है जिसकी कहानी उन्होंने बरसों बाद, बड़ी हसरत के साथ 'रामलीला' में कही। कहते हैं-
'इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बन्दरों के भद्दे चेहरे लगाए, आधी टाँगों का पाजामा और काले रंग का ऊँचा कुर्ता पहने आदमियों को दौड़ते, हू-हू करते देखकर अब हँसी आती है... लेकिन एक ज़माना वह था जब मुझे भी रामलीला में आनन्द आता था। आनन्द तो बहुत हल्का शब्द है, उन्माद कहना चाहिए। संयोगवश उन दिनों मेरे घर से - बहुत थोड़ी दूरी पर रामलीला का मैदान था (शायद बाले मियाँ या लाल डिग्गी का मैदान - अ.) और जिस घर में लीला-पात्रों का रूप-रंग भरा जाता था, वह तो मेरे घर से बिलकुल मिला हुआ था। दो बजे दिन से पात्रों की सजावट होने लगती थी... उनकी देह में रामरज पीसकर पोती जाती, मुँह में पाउडर लगाया जाता और पाउडर के ऊपर लाल, हरे, नीले रंग की बुँदकियाँ लगाई जाती थीं। सारा माथा, भवें, गाल, ठोढ़ी बुँदकियों में रच उठती थीं। एक ही आदमी इस काम में कुशल था। वही बारी-बारी से तीनों पात्रों का शृंगार करता था। रंग की प्यालियों में पानी लाना, रामरज पीसना, पंखा झलना मेरा काम था।
निषाद- नौका- लीला का दिन था। मैं दो बार लड़कों के बहकाने में आकर गुल्ली-डंडा खेलने लगा था। शृंगार देखने न गया। विमान भी निकला, पर मैंने खेलना न छोड़ा। मुझे अपना दाँव लेना था। अपना दाँव छोड़ने के लिए उससे कहीं बढ़कर आत्मत्याग की ज़रूरत थी जितना मैं कर सकता था। अगर दाँव देना होता तो मैं कब का भाग खड़ा होता, लेकिन पदाने में कुछ और ही बात होती है। ख़ैर, दाँव पूरा हुआ। अगर मैं चाहता तो धाँधली करके दस पाँच मिनट और पदा सकता था, इसकी काफ़ी गुंजाइश थी, लेकिन अब इसका मौक़ा न था । मैं सीधे नाले की तरफ दौड़ा। विमान जल तट पर पहुँच चुका था। मैंने दूर से देखा-मल्लाह किश्ती लिये आ रहा है। दौड़ा, लेकिन आदमियों की भीड़ में दौड़ना कठिन था। आख़िर जब मैं भीड़ हटाता, प्राणपण से आगे बढ़ता घाट पर पहुँचा, तो निषाद अपनी नौका खोल चुका था। मेरी कितनी श्रद्धा थी। अपने पाठ की चिन्ता न करके उन्हें पढ़ा दिया करता था, जिसमें वह फेल न हो जाएँ। मुझसे उम्र ज्यादा होने पर भी वह नीची कक्षा में पढ़ते थे। लेकिन वही रामचन्द्र नौका पर बैठे इस तरह मुँह फेरे चले जाते थे मानो मुझसे जान-पहचान ही नहीं। नक़ल में भी असल की कुछ न कुछ बू आ ही जाती है।
रामलीला समाप्त हो गई थी। राजगद्दी होनेवाली थी, पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चन्दा कम वसूल हुआ था। रामचन्द्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था। न घर ही जाने की छुट्टी मिलती थी, न भोज का ही प्रबन्ध होता था। चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था, बाक़ी सारे दिन कोई पानी को भी नहीं पूछता। लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों की त्यों थी । मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचन्द्र ही थे। घर पर मुझे खाने की कोई चीज़ मिलती, वह लेकर रामचन्द्र को दे आता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनन्द मिलता था, उतना आप खा जाने में कभी न मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता ।
चलते समय भी रामचन्द्र जी को कुछ नहीं मिला, जब कि आबादीजान तवायफ़ को ख़ुदा जाने क्या-क्या मिला था।
मेरे पास दो आने पैसे पड़े हुए थे। मैंने पैसे उठा लिये और जाकर शरमाते शरमाते रामचन्द्र को दे दिए। उन पैसों को देखकर रामचन्द्र को जितना हर्ष हुआ, वह मेरे लिए आशातीत था। टूट पड़े, मानो प्यासे को पानी मिल गया। वही दो आने पैसे लेकर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुईं। केवल मैं ही उनके साथ क़स्बे के बाहर तक पहुँचाने आया।'
बचपन की अबोध ममता और वैसी ही अबोध कातरता....
लेकिन अब हम उस दौर की चौखट पर पहुँच गए हैं जब कि नवाब का बचपन, अपनी कड़वी - मीठी स्मृतियों के साथ, बड़ी तेज़ी से पीछे छूटता जा रहा है। अभी उसकी उम्र चौदह साल है, बचपन के बीत जाने की उम्र नहीं है, केवल वयःसंधि है। पर यह सब अब थोड़े दिनों का खेल है। माँ को मरे छः साल बीत चुके हैं। इस बीच उसने बहुत कुछ देखा है, सहा है, सीखा है और अकाल- प्रौढ़ता, जो कुछ तो उसकी प्रतिभा का ऋण शोध है और कुछ उसकी परिस्थितियों का, उनका दरवाज़ा खटखटा रही है।
इस बार मुंशी अजायब लाल गोरखपुर में बहुत लम्बे टिक गए थे, इतना शायद इसके पहले और कहीं भी रहने का मौक़ा नहीं मिला था, लगभग चार साल। इस बीच नवाब ने मिशन स्कूल से आठवाँ दर्ज़ा ज्यों-त्यों पास कर लिया था। ज़हीन थे मगर स्कूली किताबों में जी न लगता था क्योंकि तलिस्मी कहानियों की वजह से होश उड़ा रहता था और जो मज़ा हातिमताई की संगत था वह भला मास्टर साहब की संगत में कहाँ । लस्टम-पस्टम पास हो जाते थे लेकिन हाँ, हिसाब एक मुस्तकिल हौआ था जिसके नाम से ग़रीब का हलक सूखता था।
ख़ैर, तो नवाब ने आठवाँ पास कर लिया और तभी मुंशी अजायबलाल की बदली जमनिया की हो गई। उनकी सेहत पिछले दिनों बहुत गिर गई थी और बराबर गिरती जा रही थी। दूसरी पत्नी से उनका पहला लड़का गुलाब तब दो-तीन साल का था । और दूसरा, महताब, हाल में ही पैदा हुआ था। नवाब को नवें दर्जे में नाम लिखाना था जो कि बनारस में ही सम्भव था। पिताजी ने पूछा, कितना ख़र्चा लगेगा? नवाब ने कहा- पाँच रुपया दे दिया कीजिएगा .... मगर पाँच रुपए में भला क्या होता। बड़ी मुश्किल का सामना था। तो भी पढ़ने की धुन बराबर बनी हुई थी -
'पाँव में जूते न थे। देह पर साबित कपड़े न थे। महँगी अलग-दस सेर के जौ थे। स्कूल से साढ़े तीन बजे छुट्टी मिलती थी। काशी के क्वींस कालेज में पढ़ता था। हेडमास्टर ने फ़ीस माफ़ कर दी थी। इम्तहान सिर पर था और मैं बाँस के फाटक पर एक लड़के को पढ़ाने जाता था। जाड़ों के दिन थे। चार बजे पहुँचता था। पढ़ाकर छ: बजे छुट्टी पाता। वहाँ से मेरा घर देहात में पाँच मील पर था। तेज़ चलने पर भी आठ बजे से पहले घर न पहुँच सकता। और प्रातः काल आठ ही बजे फिर घर से चलना पड़ता था, नहीं वक़्त पर स्कूल न पहुँचता । रात को खाना खाकर कुप्पी के सामने पढ़ने बैठता और न जाने कब सो जाता। फिर भी हिम्मत बाँधे हुए था।'
अब तक बचपन मर चुका था - यानी लड़के के कंधे पर शादी का जुआ रखने का वक़्त आ गया था। पिता लड़के को अँधरा के पुल का बारह आनेवाला चमरौधा जूता और चार आने गज का नया कपड़ा न पहना सके, लेकिन उसकी शादी तो कर ही सकते हैं! पन्द्रह बरस तब शादी के लिए ऐसी कम उम्र भी न समझी जाती थी। गाँव में न जाने कितने थे जिनकी शादी इसी उम्र में हुई थी, मुंशी अजायबलाल कैसे अपने बेटे की न करते, लोग नाम न धरते! सेहत भी ठीक चल रही थी, अपने जीते जी लड़के को खूँटे से बाँध देने का ख़याल भी, मुमकिन है, दिल में रहा हो। सम्भव है पत्नी ने बार-बार आग्रह किया हो कि लड़का अब सयाना हुआ, उसका ब्याह कर देना चाहिए। बहू घर में ले आने का मोह किसे नहीं होता। पूरब में जल्दी ब्याह कर देने का चलन भी है। पक्की बात इतनी ही है कि यह शादी लगाई नवाब के नाना साहब ने थी, नाना साहब यानी मुंशी अजायबलाल के नए ससुर साहब । यह भी मुमकिन है कि नाना साहब ने अपने किसी मित्र का भला करने के विचार से या अन्य किसी कारण से यह सम्बन्ध स्थिर किया हो । जो भी बात रही हो, यह विवाह बस्ती जिले की मेंहदावल तहसील में बस्ती शहर से दस मील दूर रमवापुर सरकारी गाँव के एक छोटे-मोटे ज़मींदार के घर ठीक हुआ। बड़े आदमी हैं। लड़की बहुत अच्छी है। सब बहुत ख़ुश थे, नवाब सबसे ज्यादा । मारे उत्साह के, मंडप छाने के लिए बाँस भी ख़ुद उसी ने काटे । ख़ुशी उसके भीतर छलकी पड़ रही थी और शायद बाँस की जड़ पर कुल्हाड़ी चलाते समय वह कुछ गुनगुना भी रहा था। पिछले बरसों में उसने जो सैकड़ों किताबें पढ़ी थीं उनमें कितने ही शाही लकड़हारे आए थे, अपनी प्रेमिका की तलाश में भिखमंगों का भेस बनाए जंगलों और रेगिस्तानों की खाक छानते हुए सुन्दर राजकुमार आए थे, एक से एक सुन्दरी राजकुमारियाँ आई थीं जिनके आगे चाँद भी शरमाता था। वही सब चीजें उसने पढ़ी थीं, वही तसवीरें उसके मन में थीं। उसका दिल किलोलें कर रहा था और हवा में जंगली गुलाबों की और रातरानी की ख़ुशबू थी। नहीं, अब वह ऐसा नादान नहीं था, उसे सब पता था कि शादी क्या चीज़ होती है, कितनी रंगीन, कैसी ख़ूबसूरत । उसने अपनी इतिहास की किताबों में और अपने राजा-रानी के क़िस्सों में पढ़ा था कैसे एक सुन्दरी की चितवन पर सल्तनतें लुट गईं, ख़ून की नदियाँ बह गईं, इसी बात के लिए कि शहजादा उस माहे-ज़बीं से, उस चन्द्रमुखी से शादी करना चाहता था। उसके तमाम सपने, जिन पर पिछले साल डेढ़ साल में जमाने की थोड़ी-बहुत धूल पड़ गई थी, एक बार फिर जवान हो गए और उसके हाथ की कुल्हाड़ी और भी तेज़ी से चलने लगी।
शादी हुई, शादी में ख़ूब चुहलबाज़ी भी हुई, नंगे- नंगे मज़ाक़ भी हुए जो अक्सर इस मौक़े पर होते हैं, ख़ासकर पूरब में, और नवाब ने ख़ूब रस ले-लेकर तुर्की-ब-तुर्की उनका जवाब भी दिया, फिर बिदाई हुई और नवाब (!) अपनी शीरीं अपनी लैला को ऊँट - गाड़ी पर बिठाकर (हाँ, ऊँटगाड़ी! नियति कभी अधूरा व्यंग्य नहीं करती!) अपने घर ले चला। घर पहुँचकर उसने अपनी बीवी की सूरत जो देखी तो उसका ख़ून सूख गया। उम्र में वह नवाब से ज़्यादा थी, मगर वह तो ऐसी कोई बात नहीं, लैला भी तो मजनूँ से बड़ी थी ! काली थी, सुनते हैं, लैला भी तो काली थी !
मगर क़िस्सा और चीज़ है, ज़िन्दगी और चीज़ । यथार्थ का यह एक और गहरा धक्का था जो नवाब को लगा । देखते ही शक्ल से नफ़रत हो गई - भद्दी, थुलथुल, फूहड़ । इतना ही नहीं, उनके चेहरे पर चेचक के गहरे गहरे दाग़ थे और एक टाँग कुछ छोटी थी जिसके कारण ग़रीब को भचककर चलना पड़ता था। महीने में एकाध बार हबुआती भी ज़रूर थी, जब उन पर भूत-प्रेत आते थे। सुनते हैं दिमाग़ में कुछ ख़लल भी था क्योंकि लड़ाई होने पर अपने पति से कहती थी- हम तुम्हें गदहा छानने के पगहे से बँधवाकर मँगा लेंगे! ऐसे-ऐसे जादू-टोने हैं हमारे पास !
नाना साहब ने पन्द्रह साल के इस ख़ूबसूरत नवाब के लिए ऐसी उम्र में ज़्यादा, काली, भद्दी, थुलथुल, चेचकरू, अफ़ीम खानेवाली, भचककर चलनेवाली औरत ही क्यों चुनी, यह रहस्य उनके साथ ही चला गया। लेकिन इसमें शक नहीं कि जिस-जिस ने देखा उसके मुँह से एक सर्द आह निकल गई। कहाँ नवाब, कहाँ यह औरत का कार्टून! यहाँ तक कि मुंशी अजायब लाल से भी नहीं रहा गया और उन्होंने हिम्मत बटोरकर अपनी पत्नी से कह दिया- लालाजी ने मेरे लड़के को कुएँ में ढकेल दिया। मेरा गुलाब-सा लड़का और उसकी यह बीवी! मैं तो उसकी दूसरी शादी करूँगा। पत्नी ने कहा- देखा जाएगा। ... और उनके लिए बात वहीं ख़त्म हो गई। लेकिन नवाब के लिए बात इतनी आसानी से कैसे ख़त्म होती । वह तो गाँठ जोड़कर उन्हें अपने साथ लाया था।
पर वही गाँठ अब चुनरी से छूटकर दिल में आ लगी थी। कौन जाने उस गाँठ में दो-एक गिरह सास - बहू के झगड़ों ने भी डाल दी हो जो आए दिन होते रहते थे। मुमकिन है नवाब जैसा आदमी उस स्त्री के साथ भी निबाह कर लेता, लेकिन वह ख़ुद अपनी लाश ढोने जैसी बात होती, और अब जब कि थोड़ा निर्वैयक्तिक ढंग से विचार कर सकना सम्भव है, यह शायद अच्छा ही हुआ कि मन और शरीर से इतनी बेमेल स्त्री के साथ निबाह करने का मौका नहीं आया। ज़िन्दा वह बहुत बाद तक रही, नवाब ने जब दूसरी शादी की तब तक उन्हें इस घर में दस बरस हो चुके थे, लेकिन नवाब का शायद कभी उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहा। वह कभी लमही रहतीं और कभी अपने मैके चली जातीं। पर नवाब को किसी बात से कोई मतलब न था । तीन-चार बरस तो वह ज़्यादातर लमही में ही रहीं पर जब नवाब ने अपनी नौकरी की ज़िन्दगी शुरू की और उन्हें अपने साथ नहीं ले गए तो वह भी मेंहदावल चली गईं और अधिकतर वहीं रहने लगीं। कभी-कभी लमही भी आ जाती थीं। कई बार इस बात की कोशिश हुई कि नवाब उन्हें अपने पास बुलाकर रखें। शायद इसी सिलसिले में एक बार यह बात भी उड़ी कि उन्हें लड़का हुआ है जिसका नाम उनके घरवालों ने रामयाद राय रखा है- कितना ठेठ मुँशियाना नाम पर कितना सार्थक! मुमकिन है, यह बात सिर्फ़ इसलिए उड़ाई गई हो कि नवाब पर और भी कुछ दबाव पड़े। लेकिन अगर यह बात सच भी हो कि वह स्त्री मैया के समान ही निर्दोष थी तो भी शायद इस मामले में प्रेमचन्द को मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र के समान दोषी ठहराना भी अन्याय होगा क्योंकि यह प्रसंग केवल दुःख का है-उस पुरानी, सामंती विवाह प्रणाली का और उससे भी अधिक उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों का जिन्होंने यह अनमेल सम्बन्ध स्थिर किया या उसके लिए सहमति दी। मुंशी अजायब लाल भी उसके नैतिक दायित्व से बच नहीं सके। बुढ़ौती में यह एक ज़बर्दस्त धक्का उनको लगा और कुछ अजब नहीं कि उसने उनके अन्त को और पास ला दिया हो क्योंकि वह शादी के डेढ़ बरस के भीतर ही, कई महीने की बीमारी के बाद, इस दुनिया से छप्पन बरस की अवस्था में सिधार गए, जब कि उनके पिता छिहत्तर बरस की आयु पाकर मरे थे और उनकी माँ भी अभी केवल चार-पाँच बरस पहले ही मरी थीं।
नवाब नवीं में थे जब उनका ब्याह हुआ। अगले साल यानी 1897 में उन्हें मैट्रिक का इम्तहान देना था। लेकिन उसी साल पिता बीमार पड़े और इस दुनिया से उठ गए। नतीजा यह हुआ कि नवाब उस साल इम्तहान नहीं दे पाए। उसके अगले साल नवाब ने मैट्रिक का इम्तहान दिया। सेकेंड डिवीजन पास हुए। जो भी मजबूरियाँ नवाब की रही हों, सेकेंड क्लास का नतीजा यह हुआ कि क्वींस कालेज में उसका प्रवेश पाना एक समस्या बन गया क्योंकि प्रवेश तो चाहे मिल भी जाता पर फ़ीस नियम के अनुसार केवल अव्वल दर्जेवालों की ही माफ़ हो सकती थी और फ़ीस देकर पढ़ने की स्थिति नवाब की नहीं थी।
'संयोग से उसी साल हिन्दू कालेज खुल गया। मैंने इस नए कालेज में पढ़ने का निश्चय किया। प्रिन्सिपल थे मिस्टर रिचर्डसन । उनके मकान पर गया। वह पूरे हिन्दोस्तानी वेश में थे। कुर्ता और धोती पहने, फ़र्श पर बैठे कुछ लिख रहे थे मगर मिज़ाज को तब्दील करना इतना आसान न था। मेरी प्रार्थना सुनकर - आधी ही कहने पाया था बोले कि घर पर मैं कालेज की बातचीत नहीं करता, कालेज में आओ। ख़ैर, कालेज में गया। मुलाक़ात तो हुई पर निराशाजनक । फ़ीस माफ़ न हो सकती थी। अब क्या करूँ? अगर प्रतिष्ठित सिफ़ारिशें ला सकता तो शायद मेरी प्रार्थना पर कुछ विचार होता, लेकिन देहाती युवक को शहर में जानता ही कौन था?
रोज़ घर से चलता कि कहीं से सिफ़ारिश लाऊँ पर बारह मील की मंजिल पार कर शाम को घर लौट आता । किससे कहूँ, कोई अपना पुछतर न था ।
कई दिनों के बाद एक सिफ़ारिश मिली। एक ठाकुर इन्द्रनारायण सिंह हिन्दू कालेज की प्रबन्धकारिणी सभा में थे। उनसे जाकर रोया। उन्हें मुझ पर दया आ गई, सिफ़ारिशी चिट्ठी दे दी। उस समय मेरे आनन्द की सीमा न थी ।
ख़ुश होता हुआ घर आया। दूसरे दिन प्रिन्सिपल ने मेरी तरफ़ तीव्र नेत्रों से देखकर पूछा-इतने दिनों कहाँ थे?
बीमार हो गया था।
क्या बीमारी थी?
मैं इस प्रश्न के लिए तैयार न था । अगर ज्वर बताता हूँ तो शायद साहब मुझे झूठा समझें । ज्वर मेरी समझ में हल्की-सी चीज़ थी जिसके लिए इतनी लम्बी गैरहाजिरी अनावश्यक थी। कोई ऐसी बीमारी बतानी चाहिए जो अपनी कष्टसाध्यता के कारण दया को भी उभारे। उस वक़्त मुझे और किसी बीमारी का नाम याद न आया। ठाकुर इन्द्रनारायण सिंह से जब मैं सिफ़ारिश के लिए मिला तो उन्होंने अपने दिल की धड़कन की बीमारी की चर्चा की थी। वह शब्द मुझे याद आ गया। मैंने कहा- पैलपिटेशन आफ हार्ट सर ! साहब ने विस्मित होकर मेरी ओर देखा और कहा- अब तुम बिलकुल अच्छे हो?
- जी हाँ ।
- अच्छा प्रवेशपत्र भरकर लाओ।
मैंने समझा, बेड़ा पार हुआ। फ़ार्म लिया, खानापूरी की और पेश कर दिया। उस समय साहब कोई क्लॉस ले रहे थे। तीन बजे मुझे फ़ार्म वापस मिला। उस पर लिखा था- इसकी योग्यता की जाँच की जाए।
यह नई समस्या उपस्थित हुई। मेरा दिल बैठ गया। अंग्रेज़ी के सिवा और किसी विषय में पास होने की मुझे आशा न थी, और बीजगणित और रेखागणित से तो रूह काँपती थी। जो कुछ याद था वह भी भूल-भाल गया था लेकिन दूसरा उपाय ही क्या था। भाग्य का भरोसा करके क्लास में गया और अपना फ़ार्म दिखाया। प्रोफ़ेसर साहब बंगाली थे। अंग्रेज़ी पढ़ा रहे थे। वाशिंगटन इर्विंग का रिप वान विंकिल था। मैं पीछे की कतार में जाकर बैठ गया और दो ही चार मिनट में मुझे ज्ञात हो गया कि प्रोफ़ेसर साहब अपने विषय के ज्ञाता हैं। घंटा समाप्त होने पर उन्होंने आज के पाठ पर मुझसे कई प्रश्न किए और मेरे फ़ार्म पर 'सन्तोषजनक' लिख दिया।
दूसरा घंटा बीजगणित का था, इसके प्रोफ़ेसर भी बंगाली थे। मैंने अपना फ़ार्म दिखाया। नई संस्थाओं में प्राय: वही छात्र आते हैं जिन्हें कहीं जगह नहीं मिलती। यहाँ भी वही हाल था। क्लासों में अयोग्य छात्र भरे हुए थे। पहले रेले में जो आया, वह भर्ती हो गया। भूख में सागपात सभी रुचिकर होता है। अब पेट भर गया था। छात्र चुन-चुनकर लिए जाते थे। इन प्रोफ़ेसर साहब ने गणित में मेरी परीक्षा ली और मैं फेल हो गया। फ़ार्म पर गणित के खाने में 'असन्तोषजनक' लिख दिया।
मैं इतना हताश हुआ कि फार्म लेकर फिर प्रिन्सिपल के पास न गया। सीधा घर चला गया। गणित मेरे लिए गौरीशंकर की चोटी थी। कभी उस पर न चढ़ सका...
ख़ैर, मैं निराश होकर घर तो लौट आया लेकिन पढ़ने की लालसा अभी तक बनी हुई थी। घर बैठकर क्या करता? किसी तरह गणित को सुधार कालेज में भर्ती हो जाऊँ, यही धुन थी। इसके लिए शहर में रहना ज़रूरी था।
संयोग से एक वकील साहब के लड़के को पढ़ाने का काम मिल गया। पाँच रुपया वेतन ठहरा। मैंने दो रुपए में अपना गुज़र करके तीन रुपए घर पर देने का निश्चय किया। वकील साहब के अस्तबल के ऊपर एक छोटी-सी कच्ची कोठरी थी। उसी में रहने की आज्ञा ले ली। एक टाट का टुकड़ा बिछा दिया, बाज़ार से एक छोटा-सा लैम्प लाया और शहर में रहने लगा। घर से कुछ बर्तन भी लाया। एक वक़्त खिचड़ी पका लेता और बर्तन धो- माँजकर लाइब्रेरी चला जाता। गणित तो बहाना था, उपन्यास आदि पढ़ा करता। पंडित रतननाथ दर का 'फ़साना आज़ाद' उन्हीं दिनों पढ़ा। 'चन्द्रकान्ता सन्तति' भी पढ़ी। बंकिम बाबू के उर्दू अनुवाद, जितने पुस्तकालय में मिले, सब पढ़ डाले।
जिन वकील साहब के लड़कों को पढ़ाता था, उनके साले मेरे साथ मैट्रिकुलेशन में पढ़ते थे। उन्हीं की सिफ़ारिश से मुझे यह पद मिला था। उनसे दोस्ती थी, इसलिए जब ज़रूरत होती, पैसे उधार ले लिया करता था। वेतन मिलने पर हिसाब हो जाता था। कभी दो रुपए हाथ आते, कभी तीन। जिस दिन वेतन के दो-तीन रुपए मिलते मेरा संयम हाथ से निकल जाता। प्यासी तृष्णा हलवाई की दूकान पर खींच ले जाती। दो-तीन आने पैसे खाकर ही उठता। उसी दिन घर जाता और ढाई रुपए दे आता। दूसरे दिन से फिर उधार लेना शुरू कर देता। लेकिन कभी-कभी उधार माँगने में भी संकोच होता और दिन का दिन निराहार व्रत रखना पड़ जाता।
इस तरह चार-पाँच महीने बीते। इस बीच एक बजाज से दो-ढाई रुपए के कपड़े लिए थे। रोज़ उधर से निकलता था। उसे मुझ पर विश्वास हो गया था। जब महीने दो महीने निकल गए और मैं रुपए न चुका सका तो मैंने उधर से निकलना ही छोड़ दिया। चक्कर देकर निकल जाता। तीन साल के बाद उसके रुपए अदा कर सका। उसी जमाने में शहर का एक बेलदार मुझसे कुछ हिन्दी पढ़ने आया करता था। एक बार मैंने उससे भी आठ आने पैसे उधार लिए थे। वह पैसे उसने मुझसे मेरे घर, गाँव में जाकर पाँच साल बाद वसूल किए। मेरी अब भी पढ़ने की इच्छा थी लेकिन दिन - दिन निराश होता जाता था। जी चाहता था, कहीं नौकरी कर लूँ। पर नौकरी कैसे मिलती है और कहाँ मिलती है, यह न जानता था । जाड़ों के दिन थे। पास एक कौड़ी न थी। दो दिन एक-एक पैसे का चबेना खाकर काटे थे। मेरे महाजन ने उधार देने से इनकार कर दिया था या संकोचवश मैं उससे माँग न सका था । चिराग़ जल चुके थे। मैं एक बुकसेलर की दुकान पर एक किताब बेचने गया। चक्रवर्ती गणित की कुंजी थी। दो साल हुए खरीदी थी। अब तक उसे बड़े जतन से रखे हुए था, पर आज चारों ओर से निराश होकर, मैंने उसे बेचने का निश्चय किया। किताब दो रुपए की थी, लेकिन एक पर सौदा ठीक हुआ। मैं रुपया लेकर दुकान से उतरा ही था कि एक बड़ी-बड़ी मूँछोंवाले सौम्य पुरुष ने, जो उस दुकान पर बैठे हुए थे, मुझसे पूछा- कहाँ पढ़ते हो?'
तक़दीर का खेल भी अजब अनोखा है। कहाँ तो कैसे-कैसे पापड़ बेल रहे थे, अगले वक़्त की रोटी का ठिकाना नहीं था, और कहाँ अब परोसी हुई थाली सामने रक्खी थी।
सवाल पूछनेवाले सज्जन चुनार के एक छोटे-से मिशन स्कूल के हेडमास्टर थे। उन्हें मैट्रिक पास एक मास्टर की तलाश थी। वेतन था अठारह रुपया। कहने-भर की देर थी, नवाब ने लपककर मंजूर कर लिया। जैसे दिन उसने देखे थे उनके सामने नवाब का यह कहना कुछ ग़लत नहीं था कि 'अठारह रुपए उस समय मेरी निराश व्यथित कल्पना की ऊँची से ऊँची उड़ान से भी ऊपर थे।'
यह सन् 1899 की बात है। पिता को मरे भी अब दो बरस हो रहे थे। घर पर बस उनकी नई माँ और उनका एक तीन साल का बच्चा था - बड़ा बच्चा, गुलाब, दो-ढाई बरस पहले जाता रहा था। खेती अव्वल तो थी ही कितनी, और फिर खानेवाले भी कुछ कम न थे। घर में भूनी भाँग नहीं थी और कमानेवाला अकेला नवाब। अपनी नई माँ से उसे बहुत सुख नहीं मिला, यह और बात है, लेकिन अब जब कि पिता की आँखें मुँद गई थीं, उनकी परवरिश की, अपनी बिसात-भर उनको आराम से रखने की जिम्मेदारी उसी की थी।
नवाब ने अगले ही रोज़ जाकर सब कुछ पक्का कर लिया और तीन-चार रोज़ के भीतर चुनार पहुँच गया, जो कि बनारस से चालीस मील दूर, मिर्ज़ापुर पास एक क़स्बा है।
छोटी-सी ख़ामोश जगह थी। नए-नए पहुँचे थे। मिज़ाज में कुछ शर्मीलापन भी था ही। पढ़ने का चस्का लग ही चुका था। किसी से ज़्यादा कुछ तलब न रखते थे, बस अपने काम से काम।
साथ में चाची के छोटे, सौतेले भाई विजयबहादुर भी थे। अपनी बहन के साथ ही वह भी आ गए थे और फिर यहीं रह गए। उम्र में वह नवाब से - चार- पाँच साल छोटे थे, पर दोनों में बहुत बनती थी, क्योंकि विजयबहादुर भी बहुत मिलनसार और मुहब्बती तबीयत के आदमी थे। ज़्यादा दिन जिन्दा नहीं रहे पर जब तक रहे नवाब के साथ ही रहे । जहाँ-जहाँ नवाब का तबादला हुआ वहाँ-वहाँ विजयबहादुर उनके साथ गए।
वेतन से पूरा नहीं पड़ता था इसलिए नवाब ने पाँच रुपए का एक ट्यूशन भी कर लिया था। लड़का घर आकर पढ़ जाता था। उस छोटी-सी जगह में नवाब की अंग्रेज़ी बहुत मशहूर हो गई थी।
नवाब को अपने पढ़ने-पढ़ाने से फ़ुर्सत न मिलती थी, घर का इन्तज़ाम विजयबहादुर के ज़िम्मे था । पैसे जो मिलते थे वह महीने के शुरू में ही ख़र्च हो जाते थे। फिर उधार पर चलता था । बोर्डिंग हाउस का बनिया था, उसी से रसद उधार ली जाती।
तभी की बात है, एक बार नवाब विजयबहादुर के साथ घर आए, यानी लमही । जाड़े के दिन थे । चार-पाँच दिन घर रहे। चलने लगे तो रास्ते के लिए चाची से रुपए माँगे। चाची ने कहा- रुपए सब ख़र्च हो गए।
बड़ी मुश्किल थी गाँव में उधार लेते भी तो किससे? लिहाज़ा मजबूर होकर अपना गरम कोट बेचने की ठानी।
गाड़ी के बहुत पहले दोनों गाँव से चल दिए और शहर आकर नवाब ने अपना कोट दो रुपए में बेचा, जो कि एक साल पहले बड़ी मुश्किलों से बनवाया था ! सूती पहनकर उस गरम कोट को बड़े जतन से रखा था और वह दो रुपए में बिक गया।
इस सब के बावजूद ज़िन्दगी जैसी कुछ थी, बहुत अच्छी थी।
एक रोज़ स्कूल की टीम का फुटबाल मैच मिलिटरी के गोरों की एक टीम से हुआ। गोरे शायद हार गए। स्कूल के लड़कों ने ज़ोर-ज़ोर से हिप हिप हुर्रे का लगाना शुरू किया। गोरे खिसियाए हुए तो थे ही, यह चीज़ उनको कटे पर नमक छिड़कने जैसी मालूम हुई। इन काले आदमियों की यह मज़ाल! एक गोरे ने किसी खिलाड़ी को बूट से ठोकर मार दी। मैच देखनेवालों में नवाब भी था। गोरे को बूट चलाते भी उसने देखा । जिस्म बहुत मज़बूत नहीं था तो क्या, दिल तो मज़बूत था, और फिर अपने ही मैदान पर खेल हो रहा था । चढ़ जवानी की उम्र, नवाब का खून खौल पड़ा - इसकी यह हिम्मत ! सिर्फ़ इसलिए कि हम काले हैं, हिन्दोस्तानी हैं! फिर क्या था, उसने आव देखा न ताव, झपटकर मैदान में गड़ी हुई एक झंडी उखाड़ ली और बेतहाशा उन पर पिल पड़ा। लड़कों ने जो उसको आगे आगे देखा तो खेलनेवाले और तमाशाई सब मैदान में कूद पड़े और उन गोरों की ऐसी पिटाई की कि उन्हें छठी का दूध याद गया, सारी अकड़ धरी रह गई ।
मैदान जब खाली हुआ तो स्कूलवालों को सबसे ज़्यादा ताज्जुब इस बात का हुआ कि इस मार्के में पहल उस शर्मीले नौजवान मुदर्रिस ने की थी जिसे खेलने से बहुत कम मतलब था और जो हमेशा अपनी क़िस्से-कहानी की किताबों में डूबा रहता था।
लेकिन उससे भी ज़्यादा ताज्जुब इस शर्मीले, घरघुसने नौजवान की दिलेरी पर उस वक़्त होता है जब साठ-पैंसठ बरस पहले के चुनार का नक्शा आँखों के सामने आता है। उग्र ने, जो हिन्दी के जाने-माने लेखक हैं और चुनार के ही रहनेवाले हैं, 'अपनी ख़बर' में उस वक़्त के चुनार की यह एक हल्की-सी झलक दी है-
'उन दिनों क़िलों की क़द्र थी, अतः चुनार में अंग्रेज़ आए। जब मैं पाँच-सात साल का था तब चुनार के किले में गोरा-तोपख़ाना पल्टन रहती थी। बहु दिनों तक चुनार में रिटायर्ड गोरे सपरिवार रहा करते थे। लोअर लाइन्स नामक अपनी एक बस्ती उन्होंने कालों के क़स्बे की पिछली सीमा पर बसा रखी थी ।... सन् 1905 में चुनार की पाँच-सात हज़ार की आबादी के सिरहाने दो-दो गिरजाघर थे। एक परेड ग्राउंड की क़ब्रगाह के पास जर्मन मिशनरियों का रोमन कैथलिक चर्च और दूसरा प्रोटेस्टैंट चर्च शहर के बीच में था। ईसाई या अंग्रेज़ों की संख्या शहर में चाहे जितनी रही हो, पर उनका प्रभाव कितना था, इसकी सूचना ये चर्च देते थे। मेरे स्वर्गीय पिता जिस मन्दिर में पूजन किया करते थे उसके चबूतरे पर खड़े होकर पाँच-सात की वय में, मैंने गोरे सोल्जरों तोपख़ाने की मार्च मज़े में देखी थी। क़िले से परेड ग्राउंड तक ये गोरे सिपाही मार्च करते हुए अक्सर जाया करते थे। मैदान में मिलिटरी बैंडवालों की परेड तो मुझे आज भी भूली नहीं है। कई प्रकार के बाजेवाले, सभी गोरे, ड्रम-ओह! - कितना बड़ा! इन बैंडवाले सिपाहियों के बीच में बाघम्बर धारण किए, हाथ में गदा जैसी कोई वस्तु हिलाता चलता था एक नाटा, गुट्ठल, सचमुच व्याघ्रमुख कोई दैत्यदेही गोरा! तब चुनारवालों को ये गोरे महाकाल के दामाद दसवें ग्रह जैसे लगते थे। अक्सर लोग इनकी छाया से भी दूर भागते थे। लोअर लाइन्स से गुज़रने वाले ग़रीब ग्रामीण चुनारियों को ये रिटायर्ड या सिपाही गोरे कारण- अकारण बेंतों से बुरी तरह सिटोह दिया करते थे। औरतें तो लोअर लाइंस में जाने की हिमाक़त कर ही नहीं सकती थीं। गरगो नदी पार से शहर को विविध वस्तु बेचने आनेवाली अहीरिनों, कोरिनों, चमारिनों को अक्सर उन्मत्त गोरे दौड़ा लेते थे, रगड़-सगड़ देते थे पशुवत् - रेप...'
झगड़ा मोल लेना ठीक बात नहीं है। अपने काम से काम रखना चाहिए। लेकिन आँखों के आगे सरीहन बेइंसाफी हो रही हो तो इनसान चुप भी कैसे रहे। ज़ुल्म देखकर उस आदमी को जैसे फिर किसी बात का होश नहीं रह जाता था और तैश खाकर, तिलमिलाकर कूद पड़ने के अलावा फिर और कुछ न सूझता ।
और यही चीज़ साल बीतने के पहले, पाँच ही छ: महीने बाद मुंशीजी के वहाँ से उखड़ जाने का कारण बनी । सुनते हैं कि वहाँ, उसी स्कूल में, एक इब्ने मौलवी साहब थे। स्कूल के अधिकारी उनके साथ कोई बेइंसाफी कर रहे थे जो मुंशीजी को बर्दाश्त नहीं हुई। उन्होंने बेधड़क मौलवी साहब का साथ दिया, खुलेआम, जमकर। बात बढ़ी। मुंशीजी भी मौलवी साहब के साथ निकाल दिए गए।
(साभार : हंस प्रकाशन और राजकमल प्रकाशन)