कच्चे रिश्तो की पक्की डोर (कहानी) : ज्योति नरेन्द्र शास्त्री

Kachche Rishton Ki Pakki Dor (Hindi Story) : Jyoti Narendra Shastri

दीपावली के दिन की खरीदारी करने भाई के साथ में हर बार की तरह बाजार गई हुई थी । बाजार की सजावट भी जैनेंद्र कुमार की बाजार दर्शन सिद्धांत की तरह काम करती है । तरह-तरह की वस्तुओं को इस आकर्षक अंदाज में सजाया जाता है कि कोई सामान नहीं लेना भी चाहता है वह भी चकाचौंध के वशीभूत होकर कुछ ना कुछ ले ही लेता है । बाजारीकरण का सीधा सा सिद्धांत है जो दिखता है वह बिकता है । सब लोग अपने-अपने पसंद और जरूरत का सामान ले रहे थे । त्यौहार का दिन था तो दुकानों पर भीड़ का होना स्वभाविक था । संयोगवश मैं जिस दुकान पर गई उस पर भीड़भाड कुछ ज्यादा ही थी तो मुझे थोड़ा इंतजार करना पड़ा । एक वृद्धा माई जिसकी उम्र तकरीबन 80 के वर्ष के करीब रही होगी जिनको मैं थोड़ा बहुत जानती थी वह अपने बेटे बहू से अलग रह रही थी , वह एक विधवा औरत थी ।

दीपावली की जरूरत का लगभग सब सामान लेने के बाद दुकानदार ने कहा माई आपने जो सामान बोला था सब दे दिया , अब और क्या चाहिए ? एक फूलमाला की तरफ इशारा करते हुए बोली फूल वाला हार चाहिए बेटा । इसका क्या करोगे माँ दुकानदार बोला ? बेटा नारायण के बिना लक्ष्मी की पूजा अधूरी होती है और मेरे नारायण यानी तुम्हारे बाबा तो है नहीं तो उनकी तस्वीर पर ये हार चढ़ाकर उनकी पूजा करुंगी । मेरी आंखें डबड़बा गई । लेकिन एक सवाल बारम्बार कचोट रहा था की रिश्ते कि नाजुक डोर के इस मजबूत रिश्ते को लोग बीच मझधार में क्यों छोड़ जाते हैं और किसके भरोसे और वह भी उम्र के इस पड़ाव पर जब हमे सबसे ज्यादा उसकी जरूरत होती है।

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