काहे होत अधीर (कहानी) : उषा किरण खान

Kaahe Hot Adheer (Hindi Story) : Usha Kiran Khan

सोभन एक अच्छा नाविक था जबकि वह नाविक जाति का नहीं था। इस जलप्रांतर में केवट होने की जरूरत नहीं थी नाविक होने के लिए। नाव लग्गा से सबका नाता था। साल के कई माह, घास काटने, हाजत जाने तथा छोटे मोटे सौदा सुलुफ लाने के लिए नाव लग्गा की जरूरत थी। सभी को नाव चलाने आना ही था। पर सोभन बड़ी-बड़ी नावें चलाकर दूर गंतव्य तक सुरक्षित ले जाता था। गहरी नदी हो, भंवर पड़ रहे हों या धारा तेज हो बड़ी आसानी से पार कर लेता सोभन यही तो विशेषता थी कि उसे श्रेष्ठ नाविक माना जाता। पर सोभन को यह सुनना अच्छा नहीं लगता। वह संकोची किस्म का व्यक्ति था। एक बार उससे जूट लदी नाव पलट गई थी। नाव नदी के किनारे पलटी थी, सारी गांठे मिल गईं। पर सोभन उसे भूल नहीं पाता। हमें किस्सा सुनाता - ‘‘उत्फाल कोसिका के जब्बर मुंह से नाव निकाल लाये। नाव बड़ी थी जिन्सी, सत्तर गांठ पटुआ सोनापाट लदी थी। गांठ क्या था, टका की गड्डी। मालिक का बहुत काम निकल जायेगा। बहुत मंहगा बिकता है। पर नाव किनारे से तिरछी लग गई। उसको सीधा करने में चाल बिगड़ गई नाव उलट गई। रच्छ रहा कि मालिक उतर गये थे, नहीं तो अनहोनी हो जाती।’’

अधेड़ सोभन के कुछ खेत थे, कुछ और लोगों से बटाई लेकर धान मूंग उपजाते। दो बेटियां थीं और एक बेटा था। आंगन में घर, गोठूला था। घरनी होशियार थी सो कोठी (मिट्ठी के अन्न रखने वाले पात्र) बना कर चावल गेहॅूं मूंग वगैरह रखती। पिछवाड़े में साग, सब्जी, लत्ती फत्ती लगा रखा था। गाय-बैल और भैंस पाल रखा था जिसकी सेवा घरनी बड़ी बेटी के साथ मिलकर करती। सोभन बेफिक्र होकर मालिक के बाल बच्चों को लाने पहुंचाने नाव लेकर जाता। दिन अच्छे कट रहे थे कि एक भयंकर झटका इसे अवसन्न कर गया। घरनी को पिछवाड़े में सांप ने काट लिया, जब तक ओझा गुनी बुलायें जाते वह चल बसी। पूरा गांव सकते में आ गया। वैसे यह गांव छोटा सा था पर तीन चार जाति के दो धर्मों के मानने वाले थे। गांव के सारे स्त्री पुरूष बच्चे कच्चे श्मसान गये थे। सब की आंखों में आंसू थे। क्रियाकर्म खत्म होने के बाद सोभन की बुआ ने जो क्रिया कर्म में आई थी ने उसके गंजे माथे में तेल मलते हुए कहा- ‘‘बबुआ, दुलहिन तो सरंग (स्वर्ग) गई हम नरक भोग रहे हैं मर्त (मत्र्य) लोक में, साहेब का करिश्मा। अपने हाथ में कुछ नहीं। बबुआ, गोसाई साहेब कहते हैं, बीती ताहि बिसारि के आगे की सुधि ले। बुआ कबीरपंथी, सत-संगी थी सो कबीर रैदास कभी कभी तुलसी भी सुनकर याद रखती थी। कभी कभी उसे सुना अपना रौब भी जमा लेती थी।

‘‘सुन रहा है न जो हम कह रहे हैं?’’

‘‘जी, सुन रहे हैं।’’ - अन्यमनस्क सोभन ने कहा

‘‘तो सुन, बिहुन घरनी घर भूत का डेरा। अपनी सुरजी भी सयानी हुई, कुटुम गौना मांग रहा है, कितना दिन टालोगे उसे ससुरा भेजना ही पड़ेगा। कि नहीं?’’

‘‘हॅूं’’ - कहा सोभन ने।

‘‘बौआ चन्दन छोटकी रून्नू को कौन देखेगा? तुमको एक कौर भात टभका के कौन खिलायेगी?’’

‘‘तो हम क्या करें? हमको नहीं आता है कुछ भी।’’

‘‘इसीलिए तुमको बियाह करना होगा।’’

‘‘ई उमेर में, तीन बच्चा वाले से कौन करेगी बियाह?’’

‘‘एगो हमारी गोतनी की भतीजी है। हिरनी गांव की है उसका पुरूष मर गया है। दू ठो बच्चा है। जवाने है, उससे कहो तो बात चलायें। दू ठो पछलगवा है तो क्या होगा? बड़का बेटा अपने चन्दन के बराबर है बेटी अपनी छोटकी रूनू के बराबर। हिरनी वाली बहुत सुन्नर है। खूब गोरी रजपुतनी जैसी। ऊॅंची पूरी भरा भरा शरीर। कहो तो बात चलावें।’’

‘‘हम क्या कहें, तुम लोग जानो।’’ कह कर सोभन ने स्वीकृति दे दी महीना दिन के अन्दर सोभन उससे समध (संबंध) करके घर ले आया। सचमुच हिरनी वाली चांद सी सुन्दर और गोरी थी। शौकीन भी खूब थी। उसके आने के छः माह बाद बड़ी बेटी सुरजी गौने पर ससुराल चली गई। अब तक घर, की मालकिन वही थी। हिरनी वाली को चावल भरी कोठी, तरतीब का घर सेंत मेंत में मिल गया पर खाना पकाने की जहमत भी सर आ गई। जैसे तैसे खाना बना तो लेती पर सोभन चंदन कौन कहे अपने बेटे दिनेश को भी खाना अच्छा न लगता। वो तो गाय लगहर थी सो दूध से बच्चे तुष्ट हो जाते। सोभन को उसनवेली का यौवन और श्रृंगार मोहे रहते। वैसे भी वह शान्त व्यक्ति था। हिरनी वाली सज्जन स्त्री थी, किसी बच्चे को किसी प्रकार की प्रताड़ना नहीं देती। किसी की शरारत पर गुस्सा भी नहीं करती। बच्चे खेलते रहते तबतक ठीक था जब लड़ने लगते तब स्थिति अधिक अजीब हो जाती। न तो मां न पिता कोई बीच बचाव न करते। चंदन गाय भैंस की देखभाल करता पर दिनेश ने कभी उन्हें एक बाल्टी पानी भी नहीं पिलाया। दिन जैसे जैसे बीतते गये दिनेश शोख और फैशनेबुल होता गया। जबकि चन्दन पहले ही कंठीधारी था अब गले में रूद्राक्ष की माला भी धारण करने लगा। वह अधिक चुप्पा हो गया। समय अपनी चाल से चलता है। चंदन सुदर्शन युवक हो गया। वह गांव की खेती किसानी, पशुपालन में मन लगाता। दिनेश गॅंवई जत्थों के साथ दिल्ली पंजाब पैसे कमाने चला गया। कोसी में जानलेवा जल का प्रकोप हुआ। लोग विस्थापित होते, स्थापित होते तटबंध के बाहर भीतर करते रहे। खेती चैपट हो गई माल मवेशी बीमार पड़ने लगे। घर हर साल दह भंस जाता चैमासा में चंदन भी बंगाल की ओर काम करने जाता फिर चला आता। मड़ुआ मकई और मोटा धान थोड़ा बहुत उपजा लेता। बहुत जीवट का आदमी था। गाय बकरी अब भी पालता। पूरा परिवार कबीरपंथी वैष्णव था सो साग पात ही भोजन था। प्रकृति के प्रकोप को जैसे नहीं रोका जा सकता है वैसे ही शरीर की बाढ़ को भी कहाॅं रोक सकते हैं? सारे बच्चे बड़े हो गये सोभन के। यह तो भला हुआ कि हिरणी वाली के कोई संतान सोभन से नहीं हुई । पर दो पिछलगुआ बच्चे तो थे जिसका पूरा दायित्व सोभन पर अनायास आ पड़ा था।

गांव में एक शादी थी उसमें सोभन की पत्नी का चचेरा भाई आया था। सौजन्य में सोभन की मुलाकात हुई। सोभन के आंगन में चटाई पर आकर वह बैठे छुटकी ने लोटे में पानी दिया पीने को।

‘‘ये तुम्हारा मामू है बेटी आज सुधि आई है’’ - सोभन ने कहा छुटकी ने झुककर पैर छुए। हिरनी वाली शादी वाले घर में गाना गाने गई थी। सजधज कर गांव घूमने का मौका वह कभी न छोड़ती।

‘‘बिटिया तो बांस सी लम्बी हो गई पहुना’’ - मामू ने कहा

‘‘हॅं, हो तो गई है।’’

‘कहीं कुटुमैती लगाया क्या?’’

‘‘नः, कहां?’’

‘‘कुछ गुन सिखाये हैं कि कमठौनी रोपनी खाली?’’

‘‘गांव में इसकूल है न, बुचिया चौथा पास कर गई।’’

‘‘अच्छा!’’ - साले साहब ने उसांस छोड़ी।

‘‘काहे पूछ रहे हैं कुटुम, ई तो समझिये कि मालिक एक इसकूल खोल गये सो बच्चा बच्ची दू आखर पढ़ लेता है।’’

‘‘एगो लड़का है मैट्रिक पास, अभी अभी लोअर इसकूल में मास्टर लगा है। पक्का भितघर है खपड़ा से छवाया हुआ। एके ठो बेटा है छ गो बेटी के बाद, बड़ा लाड़ला है, ऊ औंठा छाप लड़की से शादी बियाह नहीं करेगा। एक से एक कुटमैती टाल देता है।’’

‘‘हमको एके बेर बुरबक समझ लिये हैं कुटुम? हम गरीब आदमी कहां से उनमें सकेंगें?’’ - सोभन बोले।

‘‘आपको आठ कट्ठा का घरारी है पांच बीघा जमीन है आप गरीब कहां हैं पाहुन? ई तो कोसिका महरानी का खेला है जादे दिन नहीं चलेगा। मैया धन-जन से भर देगी।’’

‘‘मोलम्मा न दीजिये। आजकल बुल्लेट से नीचे कोई बाते नहीं करता है।’’

‘‘ए महराज, बुलेट का जमाना गया अब हीरा होंडा मांगता है।’’

‘‘तब? काहे फालतू बात करते हैं?’’

‘‘एक तरकीब है पाहुन, लड़का की फूआ की एक बेटी है। बड़ी सुन्नर कड़क्का जवान। फूआ उसको जनम देकर मर गई। उसका बाप दूसरा बियाह कर लिया। जानते ही हैं मांएं मरे से बाप पितिया हो जाता है।’’ - सोभन ने उसे घूरकर देखा।

‘‘अह्ह, आपकी बात कुछ और है, आप देवता आदमी हैं। खैर, तो मामा मामी उस बच्ची को अपनी बच्ची के जैसा पाले। ऊ गोलट करने को तैयार हो जायेंगे। लड़िका खोज रहे हैं मुफ्ती।’’

‘‘आंए?’’ चौके सोभन।

‘‘हॅं पाहुन, अपना चन्दन से ऊ बुचिया का जोड़ी खूब फबेगा और अपनी चैथी पास छोटकी मास्टरनी बन जायेगी। बस।’’ - दोनों हाथ पटक कर ताली बजाई मामू ने। सोभन सोच में पड़ गये।

‘‘देखिये, हम हिम्मत न करेंगे। आप ही ...।’’ - सोभन ने कहा

‘‘बिल्कुल पाहुन, आप चुपचाप रहिये। हम बुचिया, बाबू के मामू हैं न! समय पर आपको ले चलेंगे।’’ - कहकर, सीकी की डलिया से दो टूक सुपारी उठाकर चलते बने। सोभन सोचते बैठे रहे। सांझ ढल रही थी। छोटकी लालटेन मांजकर, बत्ती साफकर जला गई, छप्पर की बत्ती में कड़ी फॅंसा गई।

‘‘बाबू हम शादी के घर जा रहे हैं, मैया और झुमकी वहीं हैं’’

‘‘जाओ। चन्दन को भेज देना।’’ - सोभन ने कहा और खाट गिरा कर लेट गया। सोचने लगा चन्दन की माई कितनी समझदार और गंभीर स्त्री थी। इसको कुछ सोचने का अवसर नहीं देती। हिरनी वाली बहुत अच्छी है पर समझदारी तो है ही नहीं। उससे कोई राय विचार लेना बेकार है। पर घरनी तो वहीं है, दामाद वही परिछेगी, पतोह इसी अंगना में उतरेगी। सोच ही रहा था कि चन्दन आ गया।

‘‘सांझे खटिया पर पड़ गये हो बाबू, मन मिजाज ठीक है न!’’ - बेटा चन्दन माथा छूकर वहीं चटाई पर बैठ गया।

‘‘सब ठीक है, तुम्हारा चचेरा मामू आया था उसी से गप शप कर रहे थे।’’

‘‘मामू बहुत भांजता है, माथा दुख रहा होगा।’’ - वह सर दबाने लगा

‘‘एक जरूरी बात कह रहा था छोटकी रूनू के वास्ते।’’

‘‘शादी के लिए न? क्या कहा?’’

‘‘एक मास्टर लडका बता रहा था।’’

‘‘वाह, बढ़िया पर खर्चा?’’

‘‘खर्चा तो पड़ेगा ही।’’

‘‘बाबू दूनू बैल ...।’’ - सोभन ने हाथ उठाकर चुप करा दिया।

‘‘चन्दन, मास्टर लड़का के बाबू की एक टुग्गर भगिनी है उसकी शादी अगर तुमसे हो जाय तो छोटकी रूनू को बिना तिलक दहेज के ले जा सकते हैं।’’ - कहकर बेटे की तरफ देखा सोभन ने। लालटेन की पीली हिलती डोलती रोशनी में चन्दन के चेहरे का परिवर्तित भाव बिला गया। क्षणांश में वह प्रकृतिस्थ हो गया।

‘‘छुटकी के लिए अच्छा घर वर हो जाय तो तैयार हो जाओ बाबू।’’

‘‘तुम तैयार हो?’’

‘‘तुम कहोगे और हम नठ जायेंगे?’’ - सोभन ने बेटे का घना काला केश सहलाया। कितना समझदार है मेरा बेटा, सचमुच चंदन है, अपनी मैया की तरह शीतल। अब वह साले साहब की राह तकने लगा। अभी हिरनी वाली को कुछ न कहा। वह हल्की इतनी है कि सारी बातें जाकर गांव की औरतों को कह देगी। कच्ची बात को ही फैलाकर नष्ट कर देगी। देर रात गये तीनों स्त्रियां लौटीं। खाना कठौता भर आ गया। सब मिलकर आंगन में बैठकर खा पीकर सो गये।

हफ्ते भर बाद साले साहब आ धमके। उनकी बांछे खिली हुई थीं, यह देख सोभन समझ गये कि बात बन जायेगी। गोहाल के तरफ बड़ी चैकी पर मांजे चन्दन के साथ सोने की व्यवस्था हुई। रूनू छुटकी ने स्वयं अपने हाथों से खाना बनाया मामू ने तारीफ कर कर के खाया। कुटुम्ब लड़का और घर वर देखने आने वाले थे। अब हिरनी वाली को भी पता चल गया। घर आंगन लीपपोत कर ठीक किया गया। कुटुम्ब आये बेटे के लिए बहू और भाजी के लिए दामाद उन्हें पसंद आ गये। उन्हें पता था कि ये सब कर्मठ लोग हैं कोसी के मारे हुए हैं। दो दिन बाद सोभन भी जाकर लड़की और लड़के से मिल आये। फूल पान चढ़ा दिया गया। गॅंवई धूमधाम से शादी हो गई। मास्टर साहब को टीम टाम पसंद नहीं था, नेटुआ नचाना भी गवारा न था। वे नौकरी करते हुए आगे की पढ़ाई भी कर रहे थे।

हिरनी वाली की आंगन खूब गुलजार हुई। उसकी खूबसूरत जवान बहू आ गई थी। बहू भी सास के नक्शेकदम पर चलने वाली थी। साज सिंगार में लगी रहती खाना पीना बनाना गोबर गोयठा करना संभलता नहीं। गोहाल के एक हिस्से को घेरकर आंगन की तरफ रूख कर किवाड़ लगा दिया गया था। वही घर चंदन और नयी दुलहिन का हो गया था। चंदन संकोची था पर दुलहिन मनचली थी। उसे लिपटाये रखती। सोभन निश्चिंत थे। एक बार बेटी दामाद अहोर बहोर कर गये थे। रूनू के चेहरे की रौनक देख साफ पता चलता कि वह प्रसन्न है, वह अब छुटकी नहीं रही। दामाद जी ने इन्टर पासकर लिया था। उनकी फुफेरी बहन यहां मजे में है यह देख वे आश्वस्त हुए। बहन के गुण अवगुण वे जान रहे थे। धीरे-धीरे कोसी ने बालुका राशि का ढेर लगा दिया। खेतों में अब उतना जल नहीं जमता। बालू के साथ फुलपांक भी कई जगह पड़ी। खेती का स्वभाव और तरीका बदल गया पर अब उपज होने लगी। चन्दन की गाय के एक बछड़े का बधिया, नाथ हो चुका था, सिलेब रंग का बछड़ा था जिस पर बहुत लोगों की निगाह थी। परंतु चन्दन ने उसका जोड़ा लगाना उचित समझा। वह सुदूर सोनपुर हाजीपुर के मेले में अपने ग्रामीणों के संग खरीदारी करने निकल गया। इधर दिनेश दीवाली की छुट्टी लेकर गांव आया। वह पंजाब में किसी फार्म हाउस में काम करता था। उसे आने जाने वालों से यहां का समाचार मिलता रहता। उसे पता था कि चंदन की शादी हुयी है। छुटकी ससुराल चली गई। डेढ़ साल बाद आ रहा था सो भैया बाबू के लिए कपड़े, झुनकी के लिए सिन्थेटिक साड़ी और माला मोती खरीद रहा था। नई भाभी के लिए भी कुछ न कुछ तो लेना ही था सो उसने काजल बिंदी पाउडर लिपस्टिक खरीद लिए। यह नहीं सोचा कि किसान की बीबी गांव में कहां यह श्रृंगार करती है। पता नहीं कैसी वेहाती मुच्चड़ होगी भौजी यहां तो पंजाब में एक नं0 होती है। यह सोचकर उत्साहहीन हो चला।

गांव पहुंचते ही मन बैठ गया। बिजली बत्ती और पक्की सड़क से सीधे, कीच-कादो, लालटेन की रोशनी में पहुंचकर अवसादग्रस्त हो गया। पहुंचा तब शाम ढल गई थी। गोहाल से घूरे का धुआं उठ रहा था, कई दालान पर लालटेने टंगी थीं जो हिल डुल कर रोशनी की मद्धिम वृत्त बना रही थीं, इसकी आंखे अब इन दृश्यों को भूल चुकी थीं। पीठ पर बड़ा-सा बैग और हाथ में अटैची लिए जूते मचमचाता हुआ आंगन में प्रवेश किया। ‘‘मैया, कहां हो?’’ - पुकारा दिनेश ने। मैया और झुमकी चटाई पर बैठी थीं, सोभन खाट पर लेटा था, एक आकृति साड़ी का हल्का घूंघट किये कोने में खड़ी थी। सोभन एक कहानी सुना रहा था सब चाव से सुन रहे थे। कहानी उन दिनों की थी जब सोभन नाविक हुआ करते थे। दिनेश की आवाज से सब चैंक गये।

‘‘अरे ई कोन फिरंगिया आ गया?’’ - हिरनी वाली ने बेटे के सर पर हाथ फेरते गद्गद् होकर कहा। दिनेश भैया के चरण छू रहा था। फिर सोभन की ओर बढ़ा। सोभन खाट पर उठ कर बैठ गया। सामने नीले रंग के छलमलाते ट्रैक सूट में दिनेश खड़ा था। उसने खाट पर बैठने का इशारा किया। तभी घूंघट वाली एक लोटा पानी लेकर खड़ी हो गई।

‘‘भैया, जूता उतारो, भौजी पैर धोने के लिए पानी लिए खड़ी है।’’ - गदबदे बदन वाली बहन झुमकी ने कहा।

‘‘ऐं?’’ - कहा दिनेश ने और जूते का फीता खोला मोजे उतारे। आंगन के किनारे क्यारी के पास लोटा लेकर पैर धो लिया।

‘‘गोर लागी भौजी’’ - कहकर दुलहिन का पैर छूने झुठा कि वो दो कदम पीछे हट कर मुंह ढांप कर हॅंसने लगी। उसकी महीन खिलखिलाहट मैया और बहिन की हॅंसी के नीचे दब गई पर दिनेश के दिल में सुरसुरी पैदा करने के लिए काफी थी।

‘‘तुम लोग बच्चे को खाने पीने के लिए पूछोगे कि हॅंसी ठिठोली में लगे रहोगे? थका मांदा आया हैं।’’ - सोभन ने गंभीर आवाज में उन्हें टोका।

‘‘पापा जी, हम रस्ता का कपड़ा उतार कुछ ढीला ढाला पहन लेते हैं।’’ - दिनेश कहकर अपनी अटैची बरामदे पर ले जाकर खोलने लगा। बहन पप्पा जी सम्बोधन सुन फिर हॅंसने लगी। भौजी और भैया उसका साथ दे रही थी। दिनेश ने लुंगी निकाली और कपड़े बदलने लगा। दुलहिन चौके की ओर चली गई। खाना पीना, गप्पें देर रात तक चलीं। कमरे से एक और खाट निकाल दी गई। सोते वक्त दिनेश ने पूछा

‘‘चन्दन भैया नहीं दिखाई पड़ रहा है।’’

‘‘बाछा का जोड़ा लगाने खगड़ा मेला गया है, नहीं पटेगा तो सोनपुर का रस्ता देखेगा।’’ - सोभन ने कहा।

‘‘तभी तो।’’ - सुबह आंखों पर तेज रोशनी पड़ी तब दिनेश की नींद खुली। वह हड़बड़ा कर उठ बैठा। आंगन लीपा पोता था। बाबू की खाट बरामदे पर थी। दुलहिन चूल्हे के पास थी। बाहर निकला तो देखा बाबू बछड़े और गाय को सानी खिला रहे हैं । मैया ट्यूबबेल चलाकर पानी भर रही है। झुमकी सामने खाली खेत में बकरी खुटेस (खूंटा गाड़) रही थी। वह ट्यूबवेल के पास आकर मुंह हाथ धोया। मैया का काम गोहाल वाला हो गया था। सोभन ने गोबर हटाया और हिरनी वाली ने खर्रा (कड़ा झाड़ू) से पूरा गोहाल बुहार दिया। बेटे के साथ आंगन आई उसे पता था, पहले यह चाय पीयेगा तब जंगल की ओर हाजत को जायगा। दुलहिन ने शीशे के गिलास में चाय थमाया। दिन में देखा भौजी गोरी न्यारी, स्वस्थ सुंदर युवती है। मन ही मन चन्दन भैया से जोड़ी लगाने लगा। चंदन खूबसूरत जवान है पर सधुआया हुआ है। पता नहीं इस हॅंसमुख बीबी ने उसे बदला है क्या? चाय पीकर लोटा ले जंगल की ओर निकल गया। लौटा तो नहा धोकर ही। दुलहिन ने पीढ़ा बैठने को दिया। थाली में चार पराठे आलू परवल का भुजिया परोस कर सामने रख दिया, स्टील के साफ धुले लोटे में पानी, नमक और मिरचा। मैया चुपचाप देख रही थी

‘‘भौजी, अॅंचार है तो दो न!’’ - दुलहिन ने एक फांक आम का मसाला भरा अॅंचार थाली में रखा।

‘‘मैया, वहां ऐसा भरा-भरा मोलायम अॅंचार कहां ? कच कच, वह भी रिफाइन तेल का। हम तो तरस गये।’’ - बोलते हुए खाने लगा

‘‘ऊॅंह, तब भी तो दू बरिस पर आया है। मैया बहिनियां की सुध आई? बाबू बूढ़ा हो रहा है सोचा?’ - मैया ने उलाहना दिया।

‘‘नहीं आये तो हमहीं न रह गये, न बरियाती गये न रूनुआ के कहार बने।’’

‘‘अब चुपचाप गांव में रहो। देखो भैया अकेले पड़ गया है। एक से दो भला।’’

‘‘भैया को तो भौजी मिल ही गई है खाई पीयी हुई।’’ - उसकी ओर कनछिया के देख रहा था । वह मुंह दबाकर हॅंसने लगी।

‘‘चैल (चुहल) न कर, भौजी घर धरूआर करेगी कि खेत पथार देदेगी?’’- तभी झुमकी एक बाल्टी कपड़ा धोकर आ गई। उसमें बाबू की लुंगी, दिनेश का टैªक सूट मौजा वगैरह था उसे आंगन की रस्सी पर फैलाती हुई बोली।

‘‘भैयो, भैया को बिना बियाहे जाने न देना।’’

‘‘चुप पहले तुम्हारा तो हो जाय।’’ - भैया ने बरजा। नाश्ते के बाद दिनेश ने अटैची खोली। बाबू के लिए लुंगी और गंजी लेकर आया था। भैया के लिए कमीज और मैया तथा झुमकी के लिए छापे की साड़ी थी। भौजी याद न रही। माला मोती नेलपॉलिश बिन्दी और लिपस्टिक भी था। जिसे मैया ने दुलहिन को बांट दिया। उसके इसी व्यवहार के कारण गांव भर के लोग कहते कि ऐसी सतमाय अपनी माय से भी सुत्थर होती है। दिनेश ने भौजी से कहा -

‘‘अरे एक दिन बाजार चलें अपना पसंद से साड़ी दिला देंगे । मेरा भाई बड़ा सीधा है कुछ न बोलेगा।’’ - दुलहिन ने किसी तरह की प्रतिक्रिया न दी।

जब तक चंदन बछड़ा खरीद कर लौटा दिनेश भौजी से खासा नजदीक हो चला। उतना जितना चुप्पा चंदन अबतक न हो सका। देर तक दोनों गप्पें कर रहे होते ।

रूनू अपने ससुराल में सुघड़ बहू के रूप में ख्यात थी, सो झुमकी के लिए एक अच्छा सा लड़का मिल गया। वह पढ़ा लिखा नहीं था, पर कर्मठ था। रूनु की तरह झुमकी भी खूबसूरत और सुघड़ थी, वर की मात्र मां थी, घर घरारी के अलावे मात्र दस कट्ठा खेत था। शादी में रूनू और सुरजी भी आई थीं। सुरजी कुछ देर से ही आ पाती। उसके पति पटना सदर में रहकर रिक्शा चलाते थे। सौम्य शिष्ट थे सो कमाई अच्छी हो जाती। कई घरों के बच्चों को स्कूल छोड़ते, ले आते। बच्चों के गार्जियन का भरोसा था उन पर। अब दसियों साल रिक्शा चलाने के बाद उनके पास पांच अपना रिक्शा हो गया था । अपनी कमाई से उन्होंने कुछ जमीनें भरना पर ले रखी थीं जिसमें धान मड़ुआ रोपने वे चौमासा में आते। बाकी समय सुरजी ही सास ससुर, गाय भैंस और तीन बेटों की देखभाल में लगी रहती। फुरसत ही नहीं होती कि नैहर ससुराल करे पर मन अपने बाबू, भाई के लिए हुड़कता। इस बार सबों से मिलना हो गया। भौजाई और भाई से घुल मिलकर बातें हुई। सुरजी को समझ में आ गया कि उसका चुप्पा भजनी भाई भोला है, युवती भौजाई को सुखी नहीं कर पा रहा है। सामने दिनेश जैसा छैलचिकनिया देवर है। जर्जर बाबू और बैलौस मैया के सामने दिनेश की शादी करने की बात रखी।

‘‘दिनेश भी फूट कर जवान हो गया है, कमाता भी है उसकी शादी कब करोगे?’’ - मैया हॅंस दी बेवकूफ की तरह बाबू ने बात को समझा। अपने चचेरे साले साहब को तलब किया। वे भी बुजुर्ग हो गये थे। बीड़ी फूंकते और खांसते हुए आये। सलाह मशविरा होने लगा। पूरी बीड़ी धूक के, मन भर खांस के मामू जी स्थिर हुए तो कहा -

‘‘सुरजी बेटी, एक ठो पेंच है?’’

‘‘क्या है मामू?’’ सुरजी ने पूछा, सब उनकी ओर देखने लगे।

‘‘दिनेश के लिए हमने कई जगह बिना पाहुन और दिदिया के कहे बात चलाई थी पर सबने इसके आस खास के बारे में पूछा। हम क्या बताते?’’ - सोभन की ओर देखा।

‘‘हमरा आस खास है कि नहीं?’’

‘‘आपका जमीन में आपका बेटा उसको बरोबर का हिस्सा देगा?’’

‘‘काहे नहीं?’’ - सोभन बोला

‘‘बाबू, तुम यह कैसे कह सकते हो?’’ - सुरजी बोली ।

‘‘हम बार-बार कहते हैं दिनेशवा से कि अपना बपहिया के गांव आना जाना करो, मानता नहीं। हिस्सा तो वहीं हैं।’’

- तमक कर हिरनी वाली बोली। उसका यह रूप सबने कभी पहले नहीं देखा था।

‘‘दिदिया, कोन गाम था दिनेश के बाबू का?’’ - बड़ी शाइस्तगी से पूछा मामू ने।

‘‘हाटी गांव। बाबा का नाम उचितलाल।’’ - कहकर हाथ जोड़कर ऊपर उठा आंखे बंद कर नमन किया हिरनी वाली ने।

‘‘तब तो कोई बात ही नहीं। हम साथ ले चलेंगे। दिनेश को।’’ - आश्वस्त हो मामू ने कमीज की जेब से बीड़ी माचिस निकाल सुलगा ली। घर से जाते वक्त सुरजी बाबू के पैर पकड़कर देरतक रोती रही। लग रहा था कि अब मिल पायगी या नहीं।

‘‘मैयो, दिनेश की शादी जल्दी करना और हमको बुलाना न भूलना। लाबा भुजाई में हम खोआ चान्दी का कंगना लेंगे।’’

‘‘काहे नहीं, बड़की तो तुम ही हो।’’ - हिरनी वाली ने गले लगाकर दो बूंद आंसू टपका दिया।

‘‘देखो, तुम घर में सबसे बड़ी हो, गंभीर रहो।’’ - रात में चन्दन ने दुलहिन से कहा।

‘‘अब कौन छोटी ननद लोग है? अब तो मैया बाबू हैं, उनसे छोटे ही हैं। आपसे भी छोटे हैं।’’ - हौले से हॅंसकर कहा और पति को बांहों से घेर लिया। चंदन ने उसके केश, गाल और माथे को प्यार से सहलाया। दोनों एक दूसरे से चिपट गये। गोहाल की तरफ किसी की पदचाप सुनाई दी। बछड़ा रंभाने लगा, स्वर आत्र्त था। चन्दन ने दुलहिन को छोड़ दिया।

‘‘पता नहीं गोहाल में कौनो जनावर घुस आया।’’ - पांच बैटरी का टॉर्च जला कर गोहाल की तरफ दौड़ा। दुलहिन अवाक् रह गई। मन, कोमल भाव, शरीर की ऐंद्रिक कामनाएं तिलमिला कर रह गई। छटपटा कर रह गई दुलहिन। थोड़ी देर में चन्दन आया।

‘‘कहीं कुछ नहीं दिखाई पड़ा पर धरती पर पैरों का निशान है। कहीं कोई मेरे बछड़े को चुराने तो नहीं आ गया है? मैं वहीं सोने जा रहा हॅूं, तुम कोठली बंद कर लो।’’ - चंदन ने कहा और एक चादर लेकर निकल गया जैसे कुछ हुआ ही न हो। अपनी स्त्री को उसके शरीर को जगाकर यॅूं चला जाना तकलीफदेह है यह भी न सोचा। वह रोने लगी पर उसका आंसू पोछने वाला कोई नहीं था। रोते रोते ही वह नींद के आगोश में चली गई। हौले से दिनेश कमरे में पहुंचा। चंदन ने जिसे शुरू किया था उस कृत्य को उसने पूर्ण किया और चलता बना। दुलहिन सब समझ कर भी अनजान बनी इन्द्रियसुख प्राप्त करती रही।

बरामदे में खाट पर लेटा सोभन दिनेश से पूछ बैठा - ‘‘इतनी देर से कहां गया था तू इतनी रात को?’’

‘‘कोई आदमी गोहाल की तरफ था पप्पा जी, उसी के पीछे गया था। दौड़कर भाग गया। फिर देखा कि भैया गोहाल में सोया है तो आ गया।’’ - सोभन जबाव सुन स्थिर हुआ।

अब दुलहिन तथा दिनेश की खिचड़ी पकने लगी थी।

‘‘अब हम और तुम एक हो गये हैं, शादी वादी नहीं करेंगे।’’ - दिनेश ने दुलहिन से कहा।

‘‘बिना शादी किये ऐसे कैसे रहेंगे?’’ - जवाब मिला

‘‘तुम मेरे साथ भाग चलो। हमलोग जलंधर के गाॅंव में रहेंगे। वहाॅं खूब सुख से रखेंगे तुमको। तुम भी पंजाबी औरतों की तरह सूट पहनना लिपिस्टक लगाना।’’ - हॅंसा दिनेश

‘‘धत्’’ - शरमा गई दुलहिन।

‘‘दुलहिन गोसांइ साहेब कहते हैं लोभ नहीं करना चाहिए, यह संसार माया है, कागज की पुड़िया।’’ - चंदन ने एक रात कहा।

‘‘माया ही संसार है, काहे नहीं गोर्साइं साहेब को कहते हैं।’’ - उसने कहा

‘‘हम उनकी बात मानते हैं, बतकट्टी काहें करेंगे। तुमको समझा रहे हैं।’’ - चंदन ने कहा

‘‘हम नहीं मानते हैं।’’ - दुलहिन आजकल जिरह करने लगी थी, चंदन ने उसकी बांह पकड़ अपनी ओर खींचा; वह छिटक कर दूर चली गई।

‘‘पप्पा जी, सोच रहे हैं कि जलंधर चले जायें। तीन महीना हो गया। तीन महीना की छुट्टी लेकर आये थे।’’ - दिनेश ने कहा सोभन से।

‘‘तुम्हारी शादी करना चाहते हैं हमलोग अभी मत जाओ। अगहनी काट कर लगन कर देंगे।’’ - सोभन ने आदेश-सा दिया.

‘‘हम आ जायेंगे, कुछ टका कमा लायें।’’ - हॅंसकर जबाव दिया

‘‘वर देखने आयेंगे तब’ किसको देखेंगे?’’

‘‘फोटो दिखा देना पप्पा।’’

‘‘अरे, क्या कहता है?’’ - सब हॅंसने लगे पर उसकी बात मान ली दूसरे दिन दिनेश जैसे आया था वैसे ही निकल गया। काफी दिन चढ़ जाने पर भी कहीं दुलहिन नजर नहीं आई थी। हिरनी वाली कोना अॅंतरा झांक चुकी। वह घबड़ा गई। सबसे बड़ी घबराहट चौका बर्तन संभालने की थी। वह खेत की मोड़ पर खड़ी थी कि कहीं घास काटने तो नही चली गई कि दो लड़के मोटर साईकिल से आते दीखे। लड़के ने मोटरसाईकिल रोक दी।

‘‘काकी, दिनेश भाई और चन्दन भौजी को बस पर चढ़कर शहर जाते देखा है। भौजी की तबियत ठीक है न?’’ - हिरनी वाली का कलेजा बैठ गया। ये क्या किया दिनेसवा। चुपचाप वहां से आंगन आई। बरामदे पर माथा हाथ देकर बैठ गई। सोभन ने देखा तो पूछा - ‘‘माथा पर हाथ देकर काहे बैठी हो?’’ कई बार पूछने पर भी हिरनी वाली कुछ न बोली। आंखों से आंसू बहने लगे चुपचाप। सोभन पहली बार इसे ऐसे रोते देख रहा था वरना बेटियों की विदाई के वक्त के बाद कभी रोती नहीं यह। वह खाट पर से उठकर धीमे कदमों से आकर निकट बैठ गया। कंधे पर हाथ धरकर मुस्कुराया। दिनेश चला गया सो घर सूना लगता है। इसीलिए रो रही हो?’’

‘‘नहीं।’’ - आंसू पोछकर बोली। तभी आंगन में दो तीन उम्र दराज औरतों ने प्रवेश किया

‘‘सोभन भाई, दुलहिन की तबियत खराब है क्या जो दिनेश के साथ शहर भेजे हो?’’ - यह गांव की बेटी कलबतिया थी

‘‘चंदन काहे न साथ गया?’’ - एक वृद्धा भौजाई थी।

‘‘हिरनीवाली दुलहिन साथ चली जाती।’’ - तीसरी स्त्री थी। सोभन और हिरनी वाले चुपचाप सुनते रहे। वे यूं ही बकती चली गई।

‘‘ये क्या हुआ हिरनीवाली, दिनेश तुमसे पूछ कर ले गया है - दुलहिन को?’’ - पहली बार हिरनीवाली ने सोभन को खुले बरामदे में बांहों से घेर लिया। उसकी छाती में मुंह गड़ा कर हिलक हिलक कर रोने लगी। गोहाल के कोने में खडा चंदन सब देख सुन रहा था । उस पर क्या बीत रही थी, उसने किसी को न बताया। कुछ गड़बड तो थी पर दिनेश और दुलहिन इतना बड़ा कदम उठा लेंगे इसकी आशा न थी। वह पलटकर गोहाल की ओर गया। घूरा में आग लगाकर तख्त पर बैठकर सोचने लगा। सांझ ढल गई थी। अॅंधेरा पसर रहा था। मनस्वी चंदन का कर्तव्यबोध जागा। वह उठा दोनों लालटेनें साफ कर रोशनी कर दी। एक आंगन की ओलती में दूसरा गोहाल में टांग आया। आंगन के बरामदे पर मेया बाबू शोकमग्न बैठे थे। घर में सन्नाटा पसरा था। लालटेन के हिलते डोलते वृत्तों के घेरे में सबकुछ रहस्यमय लग रहा था। उसने देर तक दोनों को देखा; वे उदास पत्थर के बुत लग रहे थे।

‘‘मैयो, रोटी बना दे, भूख लगी है, उठ न।’’ - चंदन ने कहा हिरनी वाली लरजकर उठी, चंदन को अंकवार में पहली बार ऐसे भरा जैसे छः माह का घुटरून चलता बच्चा दूध मांगने पास आया हो।

‘‘चल मेरे बाबू, रोटी बनाती हॅूं।’’ - चंदन ने चूल्हे में आंच सुलगा दी। छप्पर के बांस में लटकी बाल्टी उतारी, उसमें दूध था; औंटाने चढ़ा दिया। मैया ने रोटी पकाई। तीनों जने दूध रोटी खाकर तृप्त हुए। जाते जाते मैया बाबू को कहा - ‘‘तुम्हारी पतोह हौलदिल है, दिनेश शहर बजार की चकमक का ब्योरा देता रहता था, उसका मन मचल गया होगा सो चली गई। इतना न सोचो।’’

‘‘बाबू, तुममें देव अंश है बेटा और वो छुतहर है।’’

- मैया ने भरे गले से कहा। पिता को सहारा देकर चंदन ने खाट पर लिटा दिया और पैर सहलाने लगा।

‘‘आया है सो जायेगा, राजा रंक फकीर

सबका अपना करमफल, काहे होत अधीर’’ - भरे गले से सोभन मंत्र की तरह पढ़ गया। चंदन ने लोटा में पानी भर खाट के नीचे रख दिया। मैया चटाई बिछाने लगी तो हाथ से लेकर कोने में खड़ा कर दिया। दूसरी खाट बाबू की खाट के बाजू में बिछा दी।

‘‘मैयो यहीं सोया कर, रात बिरात जरूरत हो तो बुलाना, हम तुरत आ जायेंगे।’’ - कहकर गोहाल की ओर चला गया। दूसरे दिन से कई बार औरतें मर्द आकर तरह-तरह की जिज्ञासायें करते। ये लोग चुप रहते। देखते सुनते एक दिन चंदन ने टोका -

‘‘साहेब का नाम लेते हैं सत्संग करते हैं, काहे बोल वचन से तकलीफ देते हैं लोगों को? सब अपना काम छोड़कर चले आते हैं।’’ - लोगों ने आना बंद तो कर दिया पर खेत में, धूर पर, कुंआ तालाब पर कौन रोक देगा। चंदन अपनी व्यथा किसे कहे? वह अपने आपको काम में झोंक कर ही चैन पाता। खेती करना, गाय भैंस पालना, पिता की सेवा करना रूचता। सोभन ने एक ही जीवन में कई युग देख लिए। नब्बे साल के ऊपर के हो चले। लोग बाग उनसे पुराने किस्से सुनने आते थे वे सब भी अब नहीं आते। इनके घर को अछूत की तरह समझने लगे थे। उन हिरनी वाली ने अपने आप को घरेलू काम में झोंक दिया था। गाय भैंस के लिए चारा काट कर लाती। गोबर चुनकर गोहाल बुहारती। गोयठा ठोकती और खाना भी बनाती। दोनों मां बेटा ने पूरा घर संभाल रखा था। हिरणी वाली जो कभी कोई काम नहीं करती उसे काम करते देख औरतें मजाक उड़ातीं। जब ट्यूब वेल पर पानी भरने जाती तो औरतें तमक कर कहतीं - ऊंह -

‘‘बेटी की माए रानी

बुढ़ारी भरे पानी’’

हिरनीवाली बिना कोई जबाव दिये पानी भरती रहती विघ्नसंतोषी औरतों का मन बुझ जाता। ऐसे ही छः माह बीत गये। एक सुबह मुंह अंधेरे दुलहिन सोभन के पांव के पास खाट की पाटी पर सिर रखकर धीमे धीमे रोती पायी गई। सोभन अर्धचेतनावस्था में आ गये थे। हिरनी वाली भी जग गई। दुलहिन मैले कुचैले कपड़ों में उजड़ी उपटी सी बेहाल थी।

‘‘अरी ओ कुकर्मी, तुझे हिम्मत कैसे हुई आने की?’’ दबी जुबान से दांत पीसा हिरनी वाली ने। सोभन ने हाथ उठाकर रोका तथा चंदन को बुला लाने का इशारा किया। चंदन स्वयं गुलगुल सुनकर आ पहुंचा। दुलहिन की दशा देख वह सन्न रह गया। मैया लगातार गाली बके जा रही थी। स्वाभाविक ही तो था।

‘‘मैयो, लौटकर घर आ गई है, बाकी बात बाद में; पहले इसको कपड़ा दो।’’ - हिरनी वाली ने उसकी ओर स्नेह से देखा उसी की एक साड़ी बलाउज और पेटीकोट पकड़ाया और कहा - ‘‘ले जाकर नहा धो ले। एक बाल्टी पानी ऐंठार पर है। देवता छूआ था सीथ (मांग-सिंदूर के लिए) तुम्हारा।’’ - वह उठी और कोने में चली गई। हाथ मुंह धो कपड़े बदल कांपती हुयी आई आकर फिर बैठ गई। बेहद दुबली दुलहिन के चेहरे से लेकर सारे शरीर में फफोले पड़े थे। वह बुखार से तप रही थी।

‘‘बाबू, ये क्या है? माता निकली है क्या?’’ - हिरनी वाली घबड़ा गई। चंदन ने देखा। हाथ पकड़कर उसे अपनी कोठरी में ले गया। उसे तेज बुखार था। तख्त पर चटाई बिछा लिटा दिया। तुरत गाय का धारोष्ण दूध लाकर मनुहार से पिलाया। दुलहिन को थोड़ी राहत मिली। वह भूखी थी।

‘‘साहेब बनगी सामी जी, छिमा करिये।’’ - हाथ जोड़कर रोने लगी।

‘‘वह सब छोड़ो, ई दसा कब से है?’’

‘‘खुजलाता था महिना दिन से, फोंका तो आज ही देखे हैं।’’

‘‘हम अभी डॉक्टर साहब के पास सेन्टर पर जाते हैं। तुम पड़ी रहो।’’ - वह आंगन की ओर आया।

‘‘मैया, माता नहीं निकली है। हम सेंटर पर से दवा लाते हैं। दूध पीकर सो गई है। हम रौनक से मोटरसाइ्रकिल लेकर जाते हैं । डॉक्टर साहब आ सकें तो ले आयेंगें।’’ - वह निकल गया हिरनी वाली मुंह ताकती रह गई। उसकी कोठरी में झांककर देखा तो वह बेफिक्री से सो रही थी मानो जमाने भर की नींद समाई हो। हिरनी वाली ने चाय बनाकर रोटी के साथ सोभन को खिला पिला दिया। गोहाल जाकर गाय भैंस और बछड़े को नमा (पानी पिला) दिया। चूल्हा जोड़कर भात और साग का झोल बनाकर रख दिया। इस सब काम में एक डेढ़ घंटा लग गया। सोभन कम्पाउंडर को साथ लाया। डॉक्टर साहब ने उसे देखने भेजा था। चंदन फिर कम्पाउंडर को सेन्टर पर छोड़ दिया। कुछ एंटीबायटिक दवा वगैरह दी गई और मलहम की दो ट्यूब।

‘‘पूरे शरीर में है सर फफोला।’’ - कम्पाउंडर ने कहा।

‘‘इसी लिए दो ट्यूब मलहम है समझे?’’ - चंदन की सेवा से सारे घाव सूख गये। दुलहिन होश में आ गई। परन्तु कानोंकान पूरे गांव में बात फैल गई कि चंदन बहू को कोई छूत की बीमारी लग गई है। घर में भी वातावरण बेहद बोझिल था। एक दिन चौका में हाथ बॅंटाने आने लगी दुलहिन तो सास ने झिड़क दिया, कहा कि पहले डॉक्टर से पक्का हो जाय कि तुम ठीक हो तो चूल्हा चौका छुओ। घर आंगन झाड़ो बुहारो, किनारे बैठी रहो। सोभन सूखकर कांटा हो गये थे। अब उनकी अंतिम घड़ी थी। वे पूरी तरह साकांक्ष थे; घर का भारीपन समझ रहे थे। हिरनीवाली का परिश्रम, चंदन का कर्तव्यबोध और दुलहिन का सहमापन सब दीख रहा था। एक दिन हिरनी वाली को पास बैठाकर समझाया - ‘‘बहू से पूछो दिनेश ने उसके साथ क्या किया कि इस तरह बीमार हो गई। फिर यहां तक यह अमरूख जनेना पहुंची कैसे?’’

‘‘मेरे सामने उस देहजरूआ का नाम न लें। यह औरत भी कम हरजाई नहीं है? काहे अपने सोना जैसा मरद को छोड़कर उस लुच्चा के साथ गई?’’

‘‘माफ कर दो, टुग्गर है।’’ - सोभन ने हाथ जोड़ लिये। हिरनी वाली ने उसके कांपते हाथों को पकड़ लिया।

‘‘काहे पाप चढ़ाते हैं, आप हमारे सिरपुरूष हैं।’’ - रोने लगी दुलहिन फिर से अपनी पुरानी रंगत पर आ गई थी, स्वस्थ सुंदर। गोहाल का सारा काम करने लगी। गोबर उठाना, सानी पानी देना, साफ सफाई, घूरे में चिनगारी लगाना। घास काटने भी जाने लगी। एकाध मनचलों ने शरारत करने की कोशिश की भी पर यह डरी नहीं, हॅंसिया जो हाथ में था। चौका से दूर थी सो चंदन को खिला पिला नहीं सकती थी। चंदन इससे एक शब्द भी नहीं बोलता।

उस दिन चंदन बाजार गया था, दुलहिन ने गोहाल में घूरा जलाकर धुंआ कर दिया था। फागुन का उतरता जाड़ा सिहरन पैदा कर रहा था। वह बैठकर आग सेंकने लगी। पीछे चैकी पड़ी थी, उस पर सर टेककर सो गई। गहरी नींद में थी दुलहिन कि उसे गोद में भर कर उठाने लगा जैसे कोई। यह छिलमिलाती हुई छिटककर दूर हो गई। अंधेरे में कुछ सूझ न रहा था। पकड़ने वाले ने पुनः उसे अॅंकवार में भर लिया - ‘‘मुझे माफी दे दो दुलहिन, तुमको बहुत सताया, मेरे कारण तुम रनेबने भटकी, इतनी तकलीफ हुई। अब ऐसा न होगा, अपना दिल खोलकर दिखायें क्या कि कितना पछताये।’’

चंदन की बाहों में दुलहिन अवश होती जा रही थी। तख्त पर चटाई बिछी थी जहां हौले से उसे सुलाया और बांहों में भरकर सो गया। आज सारे गिले शिकवे दूर हो गये, दोनों के आंसुओं की धारा ने सारे कलुष धो दिये। दूर कहीं सतसंग का समापन हो रहा था, खंजड़ी बजा कर समवेत स्वर में गा रहा था गाईन -

“सबका अपना करमफल काहे होत अधीर…”

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