कागज के टुकड़े (कहानी) : हिमांशु जोशी

Kaagaj Ke Tukde (Hindi Story) : Himanshu Joshi

“मन्नू देख!” उँगली नचाती हुई शम्मी बोली।

“मैं भी तो मेले गया था शम्मी। मैं भी तो लाया। देख, मेरी मैमनियाँ!” इठलाते हुए कहा।

रुई की सफेद बड़ी मैमनियाँ, शम्मी की कागजी छोटी मुर्गी के सामने पहाड़-सी लगने लगी। उसे देखते ही उसकी भोली-भाली आकृति खिसिया आई। फिर भी मुँह बनाती हुई बोली—“मेली मुलगी चौंच से तेली मैमनियाँ को खा जाएगी, खा!”

“खा जाएगी! कैसे खा जाएगी? मेरी मैमनियाँ पाँव रखेगी तो तेरी मुर्गी चूँ बोल जाएगी।” मैमनियाँ का पाँव मुर्गी के सीने पर यों ही रखा ही था कि सच ही शम्मी की मुर्गी चूँ बोल उठी।

क्रोध से वह सहसा तमतमा उठी। घूरकर मेरी ओर देखती हुई रुँधी आवाज में बोली—“देख, अभी लाई...। लछीद भय्या से माँग कल...।” भागती हुई वह गली के मोड़ से ओझल हो चली। मन्नू अपराधी की तरह हाथ बाँधे, सिर झुकाए खड़ा रहा।

हाँफती हुई कुछ ही क्षणों में वह लौटकर भी आ गई। अकड़कर, कुछ ऐंठकर बोली—“अब देख...!”

चीनी मिट्टी का बड़ा शेर मेरी मैमनियाँ के सामने उसने झटके से रख दिया। बेचारी मैमनियाँ शेर के आगे बड़ी दयनीय-सी लग रही थी। मैं भी निरुत्तर, निरुपाय देखता रहा। शेर के सामने मैमनियाँ की वही हालत थी, जो शम्मी के सामने अब मेरी।

“बोल अब!” ताना मारती हुई वह फिर बोली।

“मैं...मैं!”

“मिमियाता क्या है, मैमनियाँ की तलह! तुम दोनों को अब खा जाएगा, मेला...छेल...।”

वह कह रही थी कि तभी ऊपर से आवाज आई—“शमियाँ...ओ... शमियाँ...!!”

सब कुछ छोड़कर वह दौड़ती हुई ऊपर भागी। लेकिन, मैं देखता रहा। मेरी मैमनियाँ अब मर जाएगी। शेर खा लेगा। फिर किसके साथ खेलूँगा? और कहीं वह मुझे भी खा गया तो...? नहीं, नहीं। यह कभी भी न होगा! कभी भी नहीं...।

सामने नाली पर गिरी ईंट दीखी। उसे ही दोनों हाथों में थाम लिया। आव देखा न ताव! मरते-जीते शेर पर चोट मार ही दी।

पलकें जब खुलीं तो आश्चर्य का ठिकाना न रहा। धरती पर शेर धराशायी था।

तभी शम्मी भी सीढ़ियों से उतरकर नीचे आ पहुँची। देखते ही चिल्ला उठी—“हाय दय्या! अम्मी जान लछीद भय्या का छेल...अम्मी जान...अम्मी जान...।” फूट-फूटकर वह रो पड़ी।

मैं निश्चेष्ट देखता रहा। अपराध मेरा था। पर अब क्या करता? “शम्मी, रो न! रोती क्यों है शम्मी?...शेर तुझे भी खा जाता तो फिर तू क्या करती? इसीलिए तो मैंने मार...दिया...।” लेकिन, वह कब सुनने वाली थी! उसी तरह जोर-जोर से रोती रही। तभी कुछ सोचता हुआ फिर बोला—“शम्मी! मैमनियाँ को भी मार दूँ फिर...?” वही ईंट मैमनियाँ पर भी फेंक दी! वह भी ढुलक पड़ी। लेकिन, शम्मी का रोना रुका नहीं। उसे रोते देख अनायास मेरी पलकें छलक आईं। सुबुक-सुबुक कर मैं भी रोने लगा।

मुझे रोते देख शम्मी को न जाने क्या सूझा। आँसू पोंछती हुई बोली—“बोल, मेले छेल को क्यों माला तूने?”

“मैमनियाँ को भी तो मार दिया...।” रोते-रोते मैंने कहा।

शम्मी सहसा खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली कुछ भी नहीं। कुट्टी करके चली गई।

वर्षों बाद यही घटना जब शम्मी को, नहीं शमीम को सुनाई तो उसी नन्ही शम्मी की तरह मुँह बनाती हुई बोली—“जानते हो, तुमने पत्थर से मेरा शेर मारा! पत्थर को काटने के लिए फिर मैं क्या लाने वाली थी?”

उत्सुकता से मैंने देखा।

“छैनी! कादर मियाँ के घर से।”

“छैनी! तुम कैसे चलातीं उसे?”

“अच्छी तरह।”

“तुम्हारी नन्ही हथेलियाँ दुखती नहीं शम्मी?” मन्नू की तरह भोले भाव से मनोहर कह रहा था।

मुसकराती हुई शम्मी सिर हिलाकर कहती जा रही थी—“नहीं, कभी भी नहीं।”

उसी शमीम का खत आया आज—पाकिस्तान से। कितने दिन, कितने वर्ष, कितने युगों बाद! न जाने किधर कहाँ से! विश्वास नहीं होता। शम्मी का खत भी कभी आ सकता है, सपने में भी न सोचा था। उसे क्या पता—“मैं किधर, कहाँ हूँ! जिंदा भी हूँ या मर चुका! फिर वह क्यों भेजने लगी मुझे खत! सब अजीब-अजीब सा ही तो लगता है यह। लिखती है—हाथ दु:खते हैं, सीने में दर्द होता है। सब कुछ पाकर भी लगता है, कुछ खो चुकी हूँ। सोचती हूँ खुदकुशी कर लूँ। मर जाऊँ। लेकिन उसके लिए भी तो अब साहस नहीं...।”

कागज के फटे टुकड़ों की ओर अपलक देखता रहा। अभी आवेश में आकर जिसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले थे।

...शमीम...शमीम ही तो थीं न वह? वह भी क्या थी? एक कसक, एक काँटा, दीवार पर ठुकी कील की तरह, जो स्मृति-पटल पर गड़ चुकी। निकाले निकलती नहीं। भूले भूलती नहीं। उदासी लिये एक अजीब आकृति आँखों पर तैरने लगती है। सोचते ही दिल बेचैन हो उठता है। जैसे कोई मसल रहा हो!

...लिखती है ‘आज खुदकुशी कर लूँ।’ इतना भी नहीं जानती कि उसे मरे तो अब एक जमाना गुजर चुका है।

...लीडर बनी वह। समाज-सेविका बनी। दुनिया की भलाई का भार सिर पर लादे, न जाने क्या-क्या बनती रही। लेकिन, अंत में आज कहाँ पहुँची? उस दुर्गम चट्टान की चोटी पर, जिसके आगे राह नहीं। चाह नहीं। छिछली खाई के अलावा कुछ भी तो नहीं है।

लोग कहते—शमीम होनहार है। क्यों न हो! बाँस के खूँट पर बाँस ही तो उगता है। फिर वह अब्बा जान से कम क्यों होने लगी? रात-दिन गरीबों की सेवा में लगी रहती है। सब के दुःख देखती है। खाना-पीना तक भूलकर सभा-सोसाइटियों में उलझी रहती है। तरह-तरह की बातें तरह-तरह के लोगों के मुँह से निकलती रहतीं।

तब शायद लाहौर में मेरी रिसर्च के आखिरी और दंगों की शुरुआत के दिन थे। छिटपुट घटनाएँ आती रहतीं। लेकिन मैं निश्चिंत था। शम्मी को लिख जो दिया था। तभी सहसा एक दिन घर से खत आया। लिखा था, जल्दी चले आओ। सब घर में चिंतित हैं।’

लेकिन, घर पहुँचने पर पाया—कोई भी चिंतित नहीं हैं। कुछ भी नहीं है वहाँ। घर भी नहीं। घरवाले भी नहीं। केवल खँडहर। केवल जली इमारतों के ढेर मुँह छिपाए सिसक रहे हैं।

शमीम के होते हुए यह क्या हुआ? नहीं, नहीं...शम्मी जिंदा होगी तो सब कुछ सही-सलामत होगा। नहीं तो कुछ भी नहीं। कुछ भी नहीं...।

उसके घर की ओर अंतिम आशा लेकर लपका। दरवाजे पर पहुँचते ही एकाएक ठिठक गया। देखा—मेज पर कागजों के ढेर में कुहनियाँ टिकाए वह सोई है। खिड़की से सूरज की पीली किरणें झाँक रही हैं। उजियाला हो आया है, लेकिन लालटेन अभी तक भी जल रही है। शायद सारी रात जलती रही हो।

...सारा सामान कमरे में अस्त-व्यस्त बिखरा पड़ा है। ढेर-सी छुरी-कटारें, बंदूकें घास-कूड़े की तरह एक कोने में रखी हुई हैं। जिनमें कुछों पर सफेद-लाल चिटें चिपकी हुई हैं—पचास-चालीस। सारी रात क्या यह इन्हीं का हिसाब लगा रही होगी? किसके लिए? क्यों? माथे पर घन की-सी चोट पड़ी। सिर झन्ना आया। आँखों पर विश्वास ही न हुआ। मल-मलकर फटी आँखों से देखता रहा। शम्मी और यह!! सपने में भी न विचारा था।

(समाज, अप्रैल 1959 से)

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