जंगल के जानवरों से दोस्ती : बिहार की लोक-कथा
Jungle Ke Janwaron Se Dosti : Lok-Katha (Bihar)
रनुआ-भनुआ बहुत घना जंगल था। उस जंगल में बहुत सारे ख़तरनाक जानवर रहते थे। जंगल से कुछ ही दूरी पर एक गाँव था। उस गाँव में धर्मदास नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह सबको धर्म की, ज्ञान की बातें बताता था। पर दुख की बात यह थी कि उसकी बात कोई समझना ही नहीं चाहता था। उसका एक छोटा बेटा था। उसका नाम था ज्ञानदेव। ज्ञानदेव के जन्म के कुछ ही सालों बाद उसकी माँ स्वर्ग सिधार गई। लोगों ने धर्मदास को उसकी मौत का कारण समझकर उसे गाँव से निकाल दिया। तभी से वह जंगल के किनारे एक झोपड़ी में रहने लगा। धर्मदास आस-पास के गाँवों में कमाने जाता तो उसका बेटा ज्ञानदेव अकेला ही घर में खेलता रहता।
जंगल में एक घास का मैदान था जो धर्मदास की झोपड़ी से ज़्यादा दूर था। एक दिन घोड़े का बच्चा कई अन्य जंगली जानवरों की तरह चरते-चरते उसकी झोपड़ी के पास आ गया। ज्ञानदेव ने उसे कुछ चने खिलाए। घोड़े को नया स्वाद मिल गया। यह बात उसने अपने पिता को बताई। अगले दिन धर्मदास एक बोरी चने ले आया। ज्ञानदेव घोड़े को बड़े चाव से चने खिलाता। दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई। ज्ञानदेव ने उसका नाम बादल रख दिया।
चने खा-खाकर बादल बड़ी तेज़ी से बड़ा होने लगा। वह अपने दूसरे साथियों से अधिक बलवान हो गया। वह ज्ञानदेव को अपनी पीठ पर बैठाकर दूर जंगल ले जाता। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे की भाषा समझने लगे। बादल ने ज्ञानदेव को बताया कि वह सब जानवरों की भाषा समझता है। उसने यह भी बताया कि कौन-सा जानवर क्या बात कर रहा है। ज्ञानदेव को इसमें बहुत मज़ा आ रहा था।
बादल के साथियों ने एक दिन उसकी शिकायत राजा से कर दी। उन सबने राजा से यह भी शिकायत की कि हमारी सारी बातें आदमी के उस बच्चे को बताता है। राजा को बादल का यह व्यवहार बिल्कुल पसंद नहीं आया। उसने उसे दरबार में पेश होने का हुक्म दिया। राजा के पूछने पर उसने कहा, “हाँ, वह मेरा दोस्त है।”
राजा ने कहा, “तुम जानते नहीं कि मनुष्य कभी हमारा दोस्त नहीं हो सकता। वह हमें बाँध कर अपने घर में रख लेता है। फिर हम पर सवारी करता है।”
बादल ने कहा, “पर मेरा दोस्त ऐसा नहीं है। वह मुझसे बहुत प्यार करता है। मैं ख़ुद ही उसे अपनी पीठ पर बैठाता हूँ। उसने ऐसा करने के लिए कभी नहीं कहा।”
घोड़ों के राजा ने पूछा, “क्या कारण है कि तुम अपने साथियों से बहुत ज़्यादा बड़े और बलवान हो गए। तुम सबको एक साथ मार भगा देते हो। इसी उम्र में तुम मुझसे भी तेज दौड़ने लगे हो। मैंने देखा है कि तुम हवा से बातें करते हो।”
“यह सब मेरे दोस्त ज्ञानदेव के कारण है। वह मुझे प्रतिदिन चने खिलाता है। मेरे बदन की प्यार से मालिश करता है।” बादल ने उत्तर दिया।
और तुम हमारी बिरादरी की सारी बातें उसे बताते हो।” राजा ने क्रोध में आकर कहा।
“मैं अपने घर की कोई बात नहीं बतात। केवल जंगल के जानवर क्या बात करते हैं, वही बताता हूँ। जंगल के पशु-पक्षियों की बोली उसे सिखाता हूँ। वह भी मुझे अच्छी बातें बताता है। अपनी भाषा भी मुझे सिखा रहा है। उसने मुझे बताया कि मनुष्य उतना बुरा प्राणी नहीं है जितना हम उसे समझते हैं।” — बादल ने नम्रतापूर्वक कहा।
“यदि वह इतना अच्छा है तो तुमने मुझे उससे मिलवाया क्यों नहीं।” राजा ने कहा।
“आपने पहले कभी ऐसा आदेश दिया ही नहीं। आप कहें तो मैं कल ही उसे आपके दरबार में हाज़िर कर दूँगा। उसे हमसे कोई भय नहीं। मैंने उसे बताया है कि घोड़े भी मनुष्य से दोस्ती करना चाहते हैं।” बादल बोला।
इस पर राजा ने कहा, “क्या तुम नहीं जानते कि पड़ोस का राजा हमारे कितने ही घोड़ों को पकड़ कर ले गया है। वह मार-मार कर उन्हें पालतू बना रहा है और उन्हें घास तक खाने को नहीं दे रहा है। इसीलिए तुम्हें उसकी बातों में नहीं आना चाहिए।”
“मेरा दोस्त ऐसा नहीं है। आप उससे मिलेंगे तो जान जाएँगे।” बादल ने कहा। “तो ठीक है, मैं एक बार उससे मिलता हूँ। यदि मुझे वह अच्छा नहीं लगा तो तुम्हें उससे दोस्ती तोड़नी पड़ेगी। यदि फिर भी तुम नहीं माने तो हम लोग यह स्थान हमेशा के लिए छोड़कर कहीं दूर चले जाएँगे।” राजा ने चेतावनी दी।
“मुझे स्वीकार है। पर मैं जानता हूँ ऐसी नौबत नहीं आएगी।”
अगले दिन बादल ज्ञानदेव को अपनी पीठ पर बैठाकर अपने राजा के पास ले आया। ज्ञानदेव ने अपने पिता से सीखी हुई कई अच्छी बातें राजा को बताई। उससे मिलकर राजा बहुत ख़ुश हुआ। उसने कहा, “तुम्हें केवल बादल ही नहीं, इसके दूसरे साथियों से भी दोस्ती करनी चाहिए।”
बादल को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। अब उसके बहुत सारे दोस्त बन गए। अब ज्ञानदेव का समय बहुत मज़े से कटने लगा। वह बादल की पीठ पर बैठकर दूर-दूर तक जंगल की सैर करता और नए-नए जानवरों के विषय में जानकारी जुटाता। नए-नए दोस्त बनाता।
बात-बात में बादल ने उसे बताया कि पड़ोस का राजा बहुत अत्याचारी है। इसीलिए हमारा राजा उससे घृणा करता है। तुम ऐसा कोई काम मत करना जो हमारे राजा को अच्छा न लगे।
ज्ञानदेव ने कहा, “ऐसा कभी नहीं होगा बल्कि मौक़ा मिला तो मैं पड़ोसी राजा को भी समझाने का प्रयास करूँगा कि वह अपने घोड़ों को अच्छी तरह से रखे और उन्हें ठीक से दाना-पानी दे।”
रात में ज्ञानदेव ने अपने पिता को घोड़ों के राजा के साथ हुई अपनी भेंट के बारे में बताया। उसने कहा कि एक आदमी के क्रूर व्यवहार के कारण घोड़े पूरी मानव जाति से ही घृणा करने लगे हैं।
धर्मदास ने कहा, “तुम चिंता मत करो। मैं कल ही उस राजा के दरबार में जाने वाला हूँ। यदि संभव हुआ तो मैं इस विषय में कुछ करने का प्रयास करूँगा।”
धर्मदास गाँव-गाँव जाकर ज्ञान बाँटते थे। बदले में जो कुछ भी मिलता, उससे उनका गुज़ारा भली-भाँति हो जाता था। कुछ लोग धर्मदास की बातों से चिढ़ते थे। उन्होंने राजा से शिकायत कर दी कि धर्मदास जनता को आपके विरुद्ध भड़काता है। राजा ने उसे दरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया। उसने धर्मदास को बोला, “सुना है तुम हमारी प्रजा को हमारे विरुद्ध भड़काते हो।”
धर्मदास ने अपने उत्तर में कहा, “राजन! मैंने कभी भी किसी को आपके विरुद्ध नहीं भड़काया। मैं तो बस इतना ही कहता हूँ कि अन्याय का साथ मत दो। अन्याय और अत्याचार का विरोध करो। भले ही वह राजा ही क्यों न हो। अत्याचार चाहे किसी मनुष्य पर हो, घोड़ा या किसी भी अन्य प्राणी पर हो, वह ग़लत है।
घोड़े का नाम सुनते ही राजा का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। वह बोला, “तो जो हमने तुम्हारे बारे में सुना था, ठीक ही सुना था। मैंने सुना है तुम्हारे बेटे की घोड़ों से बहुत अच्छी दोस्ती है।”
“मेरे बेटे के तो जंगल के सारे जानवर दोस्त हैं। वह प्यार करता है उनसे, किसी को सताता नहीं।” धर्मदास ने कहा।
“तुम मेरी प्रजा होकर ज़बान लड़ाते हो।” इतना कहकर धर्मदास को हिरासत में लेने का आदेश दिया और कहा कि इस पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया जाए।
इस बारे में जब ज्ञानदेव को पता चला, बहुत दुखी हुआ। परंतु वह कर ही क्या सकता था। उसने अपनी पीड़ा बादल को बताई।
बादल ने कहा, “तुम्हारे पिता को हमारे कारण दंड दिया जा रहा है। हम ही इस समस्या का कोई समाधान निकालेंगे।”
ज्ञानदेव चिंतित रहने लगा। एक दिन उसका मन बहलाने के लिए बादल उसे लेकर दूर जंगल में निकल गया। वहाँ उसका सामना एक शेर से हो गया। बादल ने अपने मित्र से कहा, “मैं तुम्हारी रक्षा के लिए लड़ने में पीछे नहीं हटूँगा।”
बादल ने ज्ञानदेव को एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ा दिया और कहा, “जब तक मैं न कहूँ इस पेड़ से उतरना मत। यहीं से तमाशा देखना।”
“मुक़ाबला करो। अभी से पीठ क्यों दिखा रहे हो” — इतना कहकर शेर उसके समीप आया ही था कि बादल ने एक ऐसी ज़ोरदार दुलत्ती मारी कि वह कई गज़ दूर जा गिरा। इस तरह से ज्यों ही मौक़ा मिलता बादल अचानक रुकता और शेर के समीप आते ही ज़ोरदार दुलत्ती जड़ देता। कुछ ही देर में शेर हाँफने लगा और वह बादल के एक वार का भी जवाब नहीं दे पाया। बादल अपनी टापों से उसे मारना ही चाहता था कि ज्ञानदेव ने उसे रोकते हुए कहा, “नहीं नहीं, इसे नहीं मारना चाहिए। शरणागत को कभी नहीं मारना चाहिए। मेरे पिताजी कहते हैं कि यह धर्म के विरुद्ध है।”
शेर ने हाथ जोड़कर कहा, “मुझसे ग़लती हो गई। मुझे अपनी शक्ति पर घमंड नहीं करना चाहिए था। ख़ैर! आज से मैं भी तुम्हारा दोस्त हूँ। किसी दिन मैं भी तुम्हारे काम आऊँगा।” इतना कहकर वह अपने रास्ते चलते बना।
कुछ दिन के बाद फिर तीनों एक स्थान पर मिल गए। बात-बात में अत्याचारी राजा की बात छिड़ गई। शेर ने कहा कि मैं उसे सबक सिखा सकता हूँ। फिर क्या था, तीनों ने मिल-बैठकर योजना बनाई।
एक दिन राजा जंगल में शिकार खेलने आया। योजना के अनुसार बादल ने घोड़े को कहा कि जब शेर उसे आस-पास आता दिखे तो राजा को गिरा देना। राजा के घोड़े को तो पहले से ही राजा पर ग़ुस्सा था। बिना वजह उस पर चाबुक चलाता रहता था।
ज्यों ही घोड़े की गुर्राहट सुनाई दी, घोड़ा वहीं रुक गया। शेर को समीप आता देख उसने राजा को ज़मीन पर गिरा दिया और स्वयं आकर बादल के पास खड़ा हो गया। शेर ने एक ही झटके में राजा का काम तमाम कर दिया।
जब राजधानी में अत्याचारी राजा की मौत का समाचार पहुँचा तो चारों ओर ख़ुशियाँ मनाई गई। युवराज बहुत ही दयालु स्वभाव का था। उसे राजा बना दिया गया। उसने सारे निरपराधों को क़ैद से आज़ाद कर दिया। धर्मदास के गुणों का आदर करते हुए उसने उन्हें राजपुरोहित बनने का निवेदन किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। ज्ञानदेव के कहने पर राजा ने जंगली जानवरों का शिकार करने पर रोक लगा दी और इस तरह से सब लोग सुखपूर्वक रहने लगे।
(साभार : बिहार की लोककथाएँ, संपादक : रणविजय राव)