जज का फैसला (कहानी) : विष्णु प्रभाकर
Judge Ka Faisla : Vishnu Prabhakar
सवेरा होने पर हमारे सेकेंड क्लास के डिब्बे में काफी यात्री आ गए थे। जब गाड़ी स्टेशन से चली, तो वे सब मौन थे, परंतु मार्ग न जाने किस-किस सूत्र से होकर उन सबमें वार्त्तालाप आरंभ हो गया। बिहटा स्टेशन गुजर जाने पर सहसा एक प्रौढ़ सज्जन, जिनकी सघन श्वेत भौंहें चमकीले नयनों पर छज्जे की तरह छा रही थीं, बोले, ‘यहाँ पर एक बार बहुत भयंकर दुर्घटना हो गई थी। रेल-यात्रा के इतिहास में अनेक कारणों से वह अभूतपूर्व रहेगी। उसमें सौ से भी ऊपर यात्रियों की जानें गई थीं और उससे भी कुछ अधिक यात्री घायल हुए थे।’
इस पर नदी की तरह चर्चा ने अपना मार्ग बिल्कुल बदल लिया। यद्यपि हममें से कोई भी यात्री उस दुर्घटना का साक्षी नहीं था, तो भी कुछ लोगों ने ऐसी दूसरी दुर्घटनाओं को देखा था और उनका वर्णन करते-करते वे ऐेसे सहम रहे थे, जैसे वे दुर्घटनाएँ अभी घट रही हों। एक स्वस्थ और लंबे-तगड़े युवक ने जब दो आप-बीती रोमांचकारी घटनाएँ सुनाईं तो हम सब ठगे से उसे देखते रह गए। वह इंजीनियर था। एक बार वह चलती ट्रेन के नीचे आ गया था, यद्यपि उसका शरीर जख्मों से भर गया था तो भी उसके प्राण बच गए। कैसे बच गए, यह वह स्वयं भी नहीं जानता। जब वह गिरा तो उसने पाया कि गाड़ी स्टेशन में प्रवेश कर रही है। उसकी गति निरंतर धीमी हो चली है और उसने डिब्बे में चढ़नेवाली पैड़ी को कसकर पकड़ लिया है। इतना ही उसे स्मरण है, लेकिन दूसरी घटना बहुत भयंकर थी। पौड़ी-गढ़वाल से कोटद्वार लौटते समय उसकी बस ढाई सौ फुट नीचे खड्ड में जा पड़ी। दस व्यक्ति वहीं मर गए और पाँच अस्पताल में पहुँचकर चल बसे, पर वह कुछ जख्मों के साथ बच गया था। कैसे बच गया, यह पूछने पर वह इतना ही कह सका, ‘बस बच गया। अब आपके सामने बैठा हूँ।’
युवक की यह कहानी सुनकर हम सबको रोमांच हो आया और हमने उसे बहुत-बहुत बधाई दी। पर उसने शरारत से मुसकराकर कहा, ‘दोस्तो! मैंने मौत को ही नहीं छकाया, बीमा-कंपनी से हर्जाने के रुपए भी वसूल किए।’
इस पर कहकहा लगा और जब वह शांत हुआ तो दुर्घटना की चर्चा शुरू करनेवाले प्रौढ़ सज्जन, जो एक सेवा-निवृत्त जज थे, बोले, ‘अपने इंजीनियर मित्र की तरह मौत को छकाने का अवसर तो मुझे नहीं मिला, पर हाँ, इस दुर्घटना से संबंधित एक विचित्र मामले का न्याय मैंने अवश्य किया है।’
एक मित्र बोल उठे, ‘आपका मतलब विहटा रेल-दुर्घटना से है?’
‘जी हाँ।’
‘शायद इसमें कुछ षड्यंत्रकारियों का हाथ था। राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए सैकड़ों निर्दोष व्यक्तियों की जान ले लेना आजकल एक फैशन हो गया है।’
जज महोदय ने निहायत गंभीरता से गरदन हिलाकर कहा, ‘मित्रो! उस मामले का संबंध न तो किसी प्रकार की राजनीति से है और न दुर्घटना के कारणों से।’
‘तो?’
‘उसका संबंध मानव-चरित्र से है।’
इस पर इंजीनियर ने अनुमान लगाया, ‘ऐसे अवसरों पर कुछ शरारती लोग अपना उल्लू सीधा करने से नहीं चूकते। जब भले यात्री भयातुर हो इधर-उधर भागते हैं, तो वे दुस्साहसी सहायता करने की बात कहकर उन्हें लूट ले जाते हैं।’
‘आप ठीक कहते हैं,’ तीसरे भाई ने उनका अनुमोदन किया, ‘वे लोग घायलों और मुरदों तक की जेब कतरने से नहीं चूकते।’
इसके बाद चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें अर्थात् डिब्बे के हर यात्री ने अपनी उर्वर कल्पना-शक्ति का प्रयोग किया, लेकिन जज साहब ने सिर हिलाकर उन सबको गलत साबित कर दिया। आखिर जब सबके अनुमानों का खजाना खाली हो गया तो जज साहब ने कहना शुरू किया, ‘उस दुर्भाग्यपूर्ण रात्रि में जो यात्री सफर कर रहे थे उनमें एक महिला भी थी। अपूर्व सुंदरी! उस महिला के विवाह को यद्यपि पाँच वर्ष बीत चुके थे, तो भी वे नवविवाहित दुलहन की तरह लगती थीं। उसी तरह मोहिनी और लजीली। उनके लंबे-पतले नील नयन, पतले नासापुट, कोमल मुख, किंचित् नीले-भूरे सघन केश देखकर भूख मिटती। वे प्राचीन काल की उन सुंदरियों में से थीं, जिनके देखने मात्र से तिलक-पुष्प कुसुमित हो जाता और जब वे मृदु-मंद गति से मुसकरातीं तो चंपा के फूल विहँस उठते।
इन पाँच वर्षों ने उनके व्यवहार में जो कुछ अंतर डाला था, यही था कि अब वे कुछ नटखट भी हो चली थीं। लेकिन इसके कारण से अपने पति को और भी प्रिय हो गईं। इनके पति उस ट्रेन में उनके साथ थे। वे इंटर क्लास में थे और सहयात्रियों ने उनके लिए पूरा बर्थ छोड़ दिया था। क्योंकि उनमें से बहुतों को यह गलतफहमी हो गई थी कि वे अभी-अभी विवाह करके लौट रहे हैं। बहरलाल, उनकी जिंदगी एक रंगीन पैमाने की तरह थी, जो केवल उन्हीं को नहीं महका रही थी बल्कि आस-पासवालों को भी खुशबू से तर कर रही थी। वे प्यार के उन क्षणों को जी रहे थे, जिनकी याद बहुतों के जीवन का संबल होती है और गाड़ी उड़ी जा रही थी—खड़खड़ाती, चिल्लाती, धुआँ उगलती और अंधकार की छाती में प्रकाश का छुरा भोंकती।
छुरे की उपमा देने पर यात्री कुछ चौंके, पर कथासूत्र की उत्सुकता ने उन्हें मौन ही रखा और जज साहब एक क्षण बाहर झाँक फिर बोलने लगे। उन्होंने अब अपनी कोहनी खिड़की की पुश्त पर टिका दी, उनके मोटे होंठ कुछ इस तरह ऐंठने लगे, जिस तरह हमला करने से पूर्व मेढक खानेवाला साँप ऐंठता है। उसके दाँत तो होते हैं पर उनमें जहर नहीं होता। उन्होंने कहा, ‘रात हो गई थी और रेलगाड़ी पूरी गति से दौड़ रही थी। प्रायः सभी यात्री ऊँघने लगे, पर वह दंपती अब भी प्रेमालाप में व्यस्त था। पत्नी ने कई बार कहा, ‘अब सो जाइए।’
पति ने मुसकराकर जवाब दिया, ‘न जाने क्यों आज नींद भी तुमसे बातें करने को उत्सुक है।’
‘तो मैं सोती हूँ। सपनों में उससे बातें करूँगी।’ पत्नी खिलखिला पड़ीं।
पति बोला, ‘अब जो है, वह क्या सपने से कुछ भिन्न है? तुम स्वयं एक सपना हो।’
पत्नी हँस पड़ी, ‘स्वप्न एक भावना है, पर मैं सत्य हूँ। तुम्हारे सामने बैठी हूँ, तुम मुझे छू सकते हो।’
‘और इस तरह बातें चलती रहीं—प्रेमियों की निरर्थक बातें, आदि और अंत से हीन, पर जीवन को शक्ति और सुगंध से भरनेवाली। लेकिन कुछ भी हो, समय की शक्ति की किसने थाह ली है। आखिर उनकी पलकें भारी हो आईं, परंतु वे अलसाई-झुकी पलकें उन दो प्रेमियों के हृदयों को और भी मादकता से भरने लगीं। वे मर्मर-ध्वनि में फुसफुसाने लगे, तभी अचानक एक झटका लगा, वे बुरी तरह हिल आए। गाड़ी जैसे लड़खड़ाई, ‘शड़ाक्छू-शड़ाक्छू’ का अनवरत उठनेवाला शब्द कहीं टकराकर भयंकर वेग से चीखा, जैसे उस क्षण समय और गति में संघर्ष छिड़ गया। भीषण गड़गड़ाहट के साथ सबकुछ उथल-पुथल होने लगा। यात्री नींद में चीखे और जागने से पूर्व गिर पड़े। देखते-देखते समूचा वातावरण रौरव आर्तनाद और मर्मभेदी कराह से भर उठा। अंधकार ने उसकी भीषणता को और भी बढ़ा दिया। उस दंपती ने गिरते-गिरते अंतिम बार एक-दूसरे को पुकारा और फिर उस प्रलयंकारी गड़गड़ाहट में खो गए।
‘हम यात्रियों को लगा कि जैसे वह दुर्घटना अभी घट रही है। हमारे हृदय कराह उठे—धक्-धक्, लेकिन सौभाग्य से तब दिन का उजाला था।’
इंजीनियर ने साहस करके पूछा, ‘तो गाड़ी पटरी से उतर गई और वे दोनों मारे गए?’
‘मैंने अभी कहा था कि उस दुर्घटना में सौ से भी ऊपर व्यक्तियों की जानें गई थीं, पर वे दोनों उनमें नहीं थे।’
‘क्या?’ इंजीनियर ने चकित होकर पूछा, ‘क्या वे बच गए?’
‘जी हाँ, वे बच गए। पति महोदय के शरीर पर अनेक घाव आए, पर सभी आश्चर्यजनक रूप से साधारण, दूसरी ओर उनकी रूपसी पत्नी के घाव एक से एक बढ़कर असाधारण। क्या वर्णन करूँ, उनके दाहिने पैर की हड्डी टूट गई। मुख पर दाहिनी ओर, सिर से लेकर ठोड़ी तक मानो एक बड़ी दरार सी पड़ गई हो। इस दुर्घटना के दो दिन बाद जब पति महोदय को उठने-बैठने की आज्ञा मिली तो सबसे पहले उसने कहा, ‘पत्नी को देखना चाहूँगा।’
‘उसे मालूम हो चुका था कि वह जीवित है और जिले के बड़े अस्पताल में ले जाई गई है। लेकिन डॉक्टर ने उसे बताया, ‘मित्र, तुम्हें जल्दी नहीं करनी चाहिए। उनकी हालत अभी ठीक नहीं है।’
‘पति महोदय ने पूछा, ‘वह होश में तो है?’
‘जी हाँ! अब उन्हें होश आ गया है।’ अंतिम वाक्य उसने बहुत धीरे से कहा।
‘तो मुझे वहाँ ले चलिए। मैं उसे देखना चाहता हूँ। वह मेरी पत्नी है।’
‘जानता हूँ, मित्र!’ डॉक्टर ने यथाशक्ति अपने को संयत रखा और कहा, ‘यह भी जानता हूँ कि वे अच्छी हो जाएँगी। पर...’
‘पर क्या?’ उसने चीखकर पूछा, ‘क्या उसके अधिक चोट लगी है?’
‘यही समझ लीजिए, पर वे ठीक हो जाएँगी। अवश्य ठीक हो जाएँगी।’
‘यह सुनते ही उसका बाँध टूट गया और वह सिसकियाँ भरने लगा। डॉक्टर ने उसे हर तरह से सांत्वना दी, पर उसे शांति नहीं मिली। डॉक्टर ने अंत में कहा, ‘अभी कई दिन उसके चेहरे की पट्टी नहीं खुल सकती। आप देखकर क्या करेंगे?’
‘वह आँसुओं में बड़बड़ाया, ‘डॉक्टर, मैं उसका चेहरा नहीं, उसे देखना चाहता हूँ। उसे...’
‘और वह फिर सिसकियाँ भरने लगा और बार-बार अपनी पत्नी का नाम लेने लगा। डॉक्टर आखिर मनुष्य था। उसने कोशिश करके उसका तबादला उसी अस्पताल में करवा दिया, जहाँ उसकी पत्नी थी। शर्त यह थी कि वह पत्नी को देख सकेगा, परंतु बोलेगा नहीं। क्योंकि उसकी पत्नी को बताया गया था कि उसका पति अभी उठने लायक नहीं है।
‘आप कल्पना कर सकते हैं कि जब उसने अपनी घायल पत्नी को देखा होगा, तो उसकी क्या दशा हुई होगी।...उसका हृदय भयंकर तूफान की गति से दौड़ रहा था। वह रह-रहकर बात पीड़ित रोगी की तरह काँप उठता। उसने देखा; उसकी आँखों के आगे धुआँ सा उठा। पत्नी का एक पैर काट दिया गया है। पूरे सिर और मुँह पर पट्टियाँ बँधी हैं। वह देख नहीं सकती। वह धीरे-धीरे उसके पास पहुँचा, बहुत धीरे-धीरे। दरवाजे से उसके पलंग तक के कुछ गजों के फासले को पूरा करने में उसे एक पूरा युग लग गया। एक युग लंबे जितने क्षण तक वह खड़ा रहा फिर...फिर पुकारना चाहा—‘विमल...’
‘विमला उसकी पत्नी का नाम था, लेकिन वह पुकार नहीं सका। उसे एका-एक चक्कर आ गया और वह वहीं गिर पड़ा।
शीघ्रता से उन लोगों ने उसे वहाँ से हटा दिया। उसकी पत्नी कुछ नहीं जानती थी, कुछ जान भी न सकी। होश में आने के बाद से वह रह-रहकर फुसफुसा उठती, ‘उन्हें बुला दो...उन्हें बुला दो, वे कहाँ हैं? वे कहाँ हैं?’ पर उसका स्वर बड़ा क्षीण था और संघर्ष प्रायः गतिहीन।
‘अगले दिन उसके पति ने, जो एक ही रात में बूढ़ा हो गया था, बड़े डॉक्टर से पूछा, ‘क्या मेरी पत्नी ठीक हो जाएगी? मुझे साफ-साफ बता दीजिए।’
‘डॉक्टर ने आकंठ सहानुभूति भरकर कहा, ‘मिस्टर! आपकी पत्नी के प्राण तो बच जाएँगे, पर मुझे दुःख है, उसका एक पैर, एक आँख दोनों जाते रहेंगे, मुँह भी कुछ टेढ़ा हो जाएगा।’
‘मुँह भी कुछ टेढ़ा हो जाएगा!’ वह फुसफुसाया।
‘मुझे बहुत अफसोस है, मिस्टर! बहुत अफसोस है। चार दिन पूर्व आपकी पत्नी अपूर्व सुंदरी रही होंगी, पर अब...। अब आपको सब्र करना चाहिए।’
‘और डॉक्टर चला गया। वह कई क्षण आँखें फाड़े उसे जाते देखता रहा। बड़बड़ाता रहा—अपूर्व सुंदरी, सब्र, टेढ़ा मुख, एक पैर, एक आँख, अपूर्व सुंदरी! घंटों तक उसकी यही दशा रही। वह बार-बार मदोन्मत्त की तरह हँसा, बड़बड़ाया—अपूर्व सुंदरी, एक आँख, टेढ़ा मुख, अपूर्व सुंदरी!...फिर सिसकियाँ भरने लगा।
‘डॉक्टरों के लिए यह एक समस्या हो गई। उन्होंने सलाह करके उसे अस्पताल से मुक्त करने का निश्चय किया और जब बड़े डॉक्टर यह निश्चय सुनाने के लिए उसके पास पहुँचे, तो उनके अचरज का ठिकाना नहीं रहा—वह पूर्ण शांत था। उसने इस निश्चय का स्वागत किया। केवल जाने से पूर्व एक बार पत्नी को देखने की इच्छा प्रकट की।
‘और इस बार जब वह पत्नी के पास पहुँचा, तो न तो उसका दिल काँपा, न वह गिरा। इसके विपरीत वह दृढ़ता से उसके बिल्कुल पास जा खड़ा हुआ। फिर सहसा उसने हाथ उठाया, नर्स ने एकदम मना किया। वह रुक गया पर दूसरे ही क्षण उसने फिर हाथ उठाया, फिर गिरा लिया, पर तीसरी बार उसने दोनों हाथ उठाए। नर्स ने तीव्रता से रुकने का इशारा किया, पर इस बार वह नहीं रुका, बल्कि तेजी से आगे झपटा और उसके दोनों हाथ घायल पत्नी के गले पर जम गए।
‘क्षण भर में उस कमरे की दुनिया पलट गई। नर्सों का पागलों की तरह भय से चिल्लाते हुए भागना, उसका दाँत भींचकर शैतानी शक्ति से गला दबोचना, पत्नी की भयानक चीख और...और उसके बाद...’
‘उसके बाद उसने मृत पत्नी का एक सुदीर्घ क्षण तक चुंबन किया और फिर पसीने से तर हाँफते हुए अस्पताल के अधिकारियों और कर्मचारियों की भीड़ से कहा, ‘मैं अब कहीं भी चलने को तैयार हूँ।’
यहाँ आकर जज महोदय मौन हो गए। उनका भारी मुख आँसुओं और पीसने से तर था, पर हम सब जैसे एक दुःस्वप्न से जागे हों। हमारे हृदय आतंक से धड़क रहे थे और गाड़ी स्टेशन में प्रवेश कर रही थी। इस बार भी इंजीनियर ने साहस किया। एक सुदीर्घ निश्श्वास छोड़कर उसने कहा, ‘तो यह मामला था, जिसका आपको फैसला करना पड़ा?’
‘जी हाँ!’ जज ने शीघ्रता से उठते हुए कहा। उन्हें वहीं उतरना था।
एक सज्जन जो अपेक्षाकृत युवक थे और जिनकी आँखें आँसुओं से भरी थीं, बोले, ‘निस्संदेह आपने उसे मुक्त कर दिया होगा, क्योंकि वह...वह...’
परंतु वह आगे नहीं बोल सका, उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। जज ने उसे देखा और कहा, ‘अगर आप उस मुकदमे में जूरी होते तो क्या करते?’
‘निस्संदेह छोड़ देते!’ हम एक साथ बोल उठे।
जज के मुख पर एक विचित्र मुसकराहट फैल गई, बोले, ‘उस दिन की जूरी ने भी यही कहा था। पर मित्रो! मैं उसके साथ अन्याय नहीं कर सका। मैं जानता हूँ, मैंने बहुत से मुकदमों में अन्याय किया है, पर इस फैसले पर मुझे सदा गर्व रहेगा। मैंने उसे फाँसी की सजा दी थी।’
‘फाँसी!’ हम सब चीख उठे।
नीचे उतरते हुए जज ने इतना और कहा, ‘उसे जीवित रखना उसकी पवित्र भावना का अपमान होता।’
और फिर वे मुसाफिरों की भीड़ में खो गए।