जूठे बर्तन (लघुकथा) : डॉ. महिमा श्रीवास्तव

Joothe Bartan (Hindi Laghukatha) : Dr. Mahima Shrivastava

आज सुमित्राजी बहुत प्रसन्न है। उनकी नई नवेली बहू का पूरे मुहल्ले में गुणगान हो रहा है। बहू ने हाल ही में डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की है। देखने में एकदम गुड़िया जैसी है।

सुमित्रा जी को अपना जमाना याद आता है। वे एम.ए.पास कुशाग्र बुद्धि कन्या थीं। ससुराल आ घर गृहस्थी के सैंकङों कार्यों में उलझ कर रह गईं।

सबसे बुरा उन्हें तब लगता जब खाना खा बच्चे बड़े अपने जूठे बरतन उनकी ओर खिसका देते। स्वयं उनके पिता प्रगतिशील विचारों के थे।अपनी संतानों में उनने कभी लड़के-लड़की का भेद ना किया। सबको अपने अपने कार्य करने के निर्देश थे।

सुमित्रा जी के विचारों में व्यवधान आया।उनका पुत्र खाने के लिए पुकार रहा था। आज खाना बहू ने बनाया था। सबने तृप्त हो खाया। खाने के बाद पति ने बहू को आवाज़ लगा कर कहा- " मीता, बरतन समेट लो। सुमित्रा जैसे नींद से जागी।"

अपने स्वर को भरसक कठोर बना कर बोलीं- " नहीं, आज से सब अपने अपने जूठे बरतन सिंक में रखेंगे। मीता यह काम नहीं करेगी।"

सबको जैसे सांप सूंघ गया। इधर भले ही अपने लिए ना सही, बहू के लिए ही सही, विरोध का स्वर उठा पाने के दर्प से सुमित्रा जी का सौम्य मुख दमक रहा था।

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