जोदि (बांग्ला कहानी) : सुनील गंगोपाध्याय

Jodi (Bangla Story) : Sunil Gangopadhyay

बाहर बच्चों का बढ़ता हुआ शोर-शराबा सुनकर बेगम जहाँनारा इमाम कमरे से बाहर निकलकर बरामदे में आ खड़ी हुईं। बेगम की उम्र अब सत्तर वर्ष हो चुकी है, फिर भी अभी बढ़ी हुई उम्र के निशान चेहरे पर नहीं उभरे हैं। अभी भी उनका मुखमंडल मृसण, माखन सा मुलायम बना हुआ है। उनके शरीर का रंग सफेद कमल जैसा है और मुँह पर संध्याकालीन सूर्य की ईषत लाल आभा चमकती है । आज चूँकि उत्सव-त्योहार का दिन है, अतः उन्होंने एक स्वच्छ सफेद सिल्क की साड़ी पहन रखी है।

अचानक ही भारी बरसात शुरू हो गई है। आँगन में उनके अपने नाती नातिनों के अलावा मुहल्ले के जो तमाम लड़के-लड़कियाँ आतिशबाजी की फुलझड़ियाँ जला रहे थे, बम-पटाखे फोड़ रहे थे, वे सारे- के-सारे बरामदे में चढ़ आए । आँगन में ही एक बड़ी सी डलिया में बहुत सारी आतिशबाजी की चीजें रखी थीं, यकायक आई बारिश में सभी भीग गईं; इससे सभी बच्चों का मन दुःखी हो गया।

जहाँनारा बेगम की सबसे छोटी नातिन मिलि दौड़ी-दौड़ी आई और अपने नन्हे नन्हे हाथों से उसने बेगम को अँकवार में जकड़ लिया । गाल फुलाते हुए दुःखी स्वर में बोली, “अइया! (दादी माँ) मेरी फुलझड़ी में रोशनी जल ही नहीं रही है। यह बारिश बहुत पाजी है। एकदम गंदी कहीं की!"

जहाँनारा बेगम हँस पड़ी। बारिश देखकर उनका मन खुशी से भर गया है। आज पूरे दिन असहनीय गरमी रही है। शब-ए-बारात के शुभ दिन पर यह बारिश न हो तो किसी-न-किसी अमंगल की आशंका होने लगती है । आज की रात में बहिश्त (स्वर्ग) से फरिश्ते धरती पर उतरेंगे, उनके उतरने के पहले-पहल बारिश के पानी से धुलकर इस धरती का स्वच्छ और पवित्र हो जाना ही उचित है। जहाँनारा बेगम को जहाँ तक याद आती है, प्रायः प्रत्येक शब-ए-बारात की साँझ को उन्होंने बारिश होते देखी है।

उन्होंने मिलि के माथे पर हाथ फेरते- फेरते बड़े दुलार से कहा, " अब तक तुमने बहुत सारी आतिशबाजियाँ छोड़ लीं, बेटी! अब चलो, चलकर संदेश ( एक प्रिय मिठाई ) खाओ। क्या अभी भी तुम्हें भूख नहीं लगी?"

मिलि ने जवाब दिया—“नहीं, बिल्कुल नहीं। रेहाना ने तीन रंगीन रोशनियाँ जलाई हैं, मैंने अभी तक केवल एक ही जलाई है। "

जहाँनारा बेगम ने अपने एक दूसरे नाती को पास बुलाया और उससे कहा, “फिरोज! मिलि को दो- एक और रंगीन रोशनियाँ दो ।"

" अरे, इस तेज बारिश में भला दुकान पर वह कैसे जाएगा ?"

" छाता लेकर चला जाऊँगा । पैसा तो दो, अइया । "

आज के हँसी-खुशी के दिन बच्चे तो आनंद मनाएँगे ही। बारिश में भीगेंगे ही। कुछ-न-कुछ नियम- विरुद्ध करेंगे ही। इस उम्र में सबकुछ ठीक-ठीक बैठ जाता है। आज यदि कोई भी कुछ माँगे तो उससे इनकार करना ठीक नहीं है। उन्होंने कुछ जोर-जबरदस्ती से ही मिलि को गोद में उठा लिया । मिलि छूटने के लिए हाथ-पाँव फेंकने लगी। वह भी फिरोज वगैरह के साथ आतिशबाजी के सामान खरीदने दुकान पर जाना चाहती है । जहाँनारा बेगम ने समझाया - " तू मेरे साथ अंदर चलकर, मेरे करीब बैठकर ही जितना चाहो आतिशबाजी छुड़ाना।" फिर फिरोज से बोली, “फिरोज, तुम मेरा नाम बताकर कमरुद्दीन से बीस रुपए माँगकर ले जाना और ढेर सारी आतिशबाजी की चीजें लाकर मिलि को दे देना । "

मगर तभी (साँझ) की अजान ( नमाज के लिए अल्लाह का नाम पुकारना) की आवाज हवा पर तैरती चली आई। नए मुअज्जिन (अजान देनेवाले) का गला बड़ा सुरीला है। कुछ देर तक जहाँनारा बेगम ठिठकी खड़ी सुनती रहीं । आज का दिन बड़ा ही मनभावन सुंदर है।

मिलि को साथ लेकर जहाँनारा बेगम घर की दूसरी मंजिल पर चली आईं। सफेद रंग का यह महल काफी बड़ा है। अभी कुछ वर्षों पहले ही यह जगह काफी खुली हुई, एकांत थी । इस महल के ठीक पीछे ही धान के खेत दूर-दूर तक फैले थे । बाईं ओर एक पोखरी थी और दाहिनी ओर चौधरी लोगों का आम का बाग। परंतु अब तो कलकत्ता शहर अपनी लंबी लपलपाती जीभ बाहर की ओर बढ़ाता, चारों ओर से ग्रामीण अंचल को ग्रास बनाता, निगलता बढ़ा चला आ रहा है। बारासात ( बंगाल का एक शहर) तक तो पाताल रेल ही आ पहुँची है। चौधरी लोगों के आम के बगीचे को नेस्तनाबूद कर वहाँ अब टेलीफोन का कारखाना बना दिया गया है। दूसरी ओर की जो पोखरी थी, उसे पाट-पूटकर वहाँ कर्मचारियों के लिए छोटे-छोटे मकान बनाए जा रहे हैं।

आज से लगभग पाँच साल पहले जहाँनारा बेगम के पति का इंतकाल हो गया। पति काजी हसन हबीब महोदय बंगाल-पुलिस के डी.आई.जी. ( पुलिस उप महानिरीक्षक) पद से सेवानिवृत्त हुए थे। उसके बाद भी उनके पास कई गैर-सरकारी संस्थानों से अच्छे-अच्छे पदों पर सेवा करने के प्रस्ताव आए, किंतु उन्होंने किसी को मंजूर नहीं किया। पूरी जिंदगी पुलिस की सेवा में लगा देने के बाद अपने अंतिम समय में उन्हें बागवानी करने का बड़ा शौक हो आया । महल के सामने जो थोड़ी सी जमीन थी, उसी में नाना प्रकार के रंग-बिरंगे फूल, बेलें-पौधे लगाकर वे उसी में बराबर मशगूल रहते थे। उसी की मस्ती में डूबे रहते थे। सवेरा होते ही उठकर एक हाथ में खुरपी और दूसरे हाथ में पानी देने का हजारा लिये, वे फुलवारी में आ जुटते थे। ऐसे ही एक दिन सवेरे-सवेरे ही अपनी इसी प्यारी फुलवारी में अचानक हृदयगति रुक जाने (हार्ट-अटैक) से वे उन्हीं प्यारे फूलों पर ही लुढ़क पड़े थे।

उस दुर्दिन के बाद से ही इतने बड़े परिवार की नौका की पतवार जहाँनारा बेगम ही सँभालती चली आ रही हैं। उनके चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ हैं। अब तक सभी का विवाह हो चुका है। बड़ा लड़का लाहौर में नौकरी करता है। अब तो उसने वहीं पर एक मकान भी खरीद लिया है। उसकी दिली तमन्ना है कि माँ को कम-से-कम एक बार अपने पास ले जाए। इस घर से हवाई अड्डा कोई खास दूर नहीं है। हवाई जहाज से कुल दो घंटे में ही लाहौर पहुँचा जा सकता है, परंतु जहाँनारा बेगम तो पूरी जिंदगी में बस एक बार ही हवाई जहाज पर चढ़ी हैं - अपने पति के साथ अजमेर शरीफ की तीर्थयात्रा के दौरान वह हवाई यात्रा भी उन्हें ठीक से रास नहीं आई थी। कानों में भारी आघात लगा था। उसके बाद से फिर हवाई जहाज में चढ़ने की उनकी इच्छा नहीं होती। रेल से जाने पर लाहौर पहुँचने में डेढ़ दिन लग जाता है, लेकिन सही बात तो यह है कि यह मकान और इस परिवार को छोड़कर जहाँनारा बेगम को कहीं भी जाने की इच्छा नहीं होती।

मझली लड़की सेलिना लंदन में रहती है । वहाँ उसने सिलहट ( पहले असम अब बांग्ला देश का एक जिला) के रहनेवाले एक डॉक्टर से शादी कर ली है। अपने बाल-बच्चों के साथ वे दोनों परसों के दिन यहाँ आ पहुँचे हैं। सबसे छोटी बिटिया नीलोफर पिछले साल विधवा हो जाने के बाद से ही अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर माँ के पास ही आ गई है। बड़ी बेटी हमीदा बनारस में रहती है। वह इस वर्ष नहीं आ सकेगी। उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। बाकी सारे बेटे और उनकी बहुएँ सभी आ पहुँचे हैं। फलतः बहुत सारे लोगों से घर भर गया है।

छोटे बेटे सिराज ने एक हिंदू - कन्या से शादी कर ली थी। इस लड़के के लिए जहाँनारा बेगम को नानाप्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ा था। सिराज जब पाठशाला का एक साधारण विद्यार्थी था, तभी वह एक बार घर छोड़कर भाग गया था। बड़ी मुश्किल से किसी तरह ढूँढ़ने पर हरिद्वार में पाया गया था। जाँचने-पूछने पर मालूम हुआ कि उसने अकेले-ही-अकेले हिमालय की किसी चोटी पर चढ़ने का निश्चय किया था। जब महाविद्यालय में पढ़ाई करने पहुँचा तो वहाँ एक उग्रपंथी राजनीतिक के दल में शामिल हो गया। जिसका बाप स्वयं पुलिस का एक बड़ा अधिकारी था, वही प्रशासन के खिलाफ जहाँ-तहाँ सभाएँ करता जुलूस निकालता फिरता था । काजी हसन हबीब ने एक दिन इसी बात को लेकर अपनी औरत से कहा, “जहाँनारा बेगम ! बहुत संभव है कि एक दिन खुद मुझे ही तुम्हारे लड़के को गिरफ्तार कर जेल में हँस देना पड़े।" अपने पिता के हाथों तो सिराज को गिरफ्तार नहीं होना पड़ा, परंतु बिहार में किसान - आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने पर वहाँ गुंडों के हाथों बुरी तरह पीटे जाने पर तीन महीने चिकित्सालय में भरती रहकर किसी तरह प्राण बचा सका था।

विवाह के बाद सिराज काफी ठंडे दिमाग का हो गया है। वैसे अभी भी वह बाकायदा राजनीति करता है, लेकिन साथ ही एक उत्तरदायित्वपूर्ण नौकरी भी करता है । उसकी पत्नी दीपा 'बारासात महाविद्यालय' में पढ़ाती है। विवाह के बाद वे दोनों (पति-पत्नी) एक अलग मकान लेकर रहना चाहते थे, परंतु जहाँनारा बेगम इस पर एकदम खफा हो गईं। डाँटते हुए बोलीं, “तुम लोगों की यह सब मनमानी नहीं चलेगी। अपने इस महल में इतने सारे कमरे खाली पड़े हैं । इतने पर भी तुम्हें अलग से कमरा लेकर दूर जाकर रहने की इच्छा है। ऐसा हरगिज नहीं...!"

सिराज और दीपा की यही एकमात्र कन्या है - मिलि, जिसका पूरा नाम है मिलिता । जहाँनारा बेगम को यह नातिन बहुत ही पसंद है। बड़ी ही नटखट और शरारती लड़की है, मगर डाँट-डपट सुनकर बस खिलखिलाकर हँस पड़ती है। इधर कई दिनों से उसे सर्दी-खाँसी ने पकड़ लिया है, काफी कष्ट पा रही है । इस पर भी अगर आज कहीं बारिश में भीग गई। तो निश्चय ही बीमार पड़ जाएगी, इसी वजह से जहाँनारा बेगम उसे अपने पास रखना चाहती हैं। मिलि की माँ (दीपा ) एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए ढाका गई हुई है, दो दिन बाद ही लौट सकेगी।

अपने कमरे में आकर जहाँनारा बेगम ने मिलि के दोनों हाथों में नारियल से बने दो संदेश (बंगाल की प्रसिद्ध मिठाई) रख दिए। यह लड़की वैसे रसगुल्ला तो खाना पसंद ही नहीं करती, लेकिन नारियल से बनी मिठाइयाँ बहुत पसंद करती है।

इसके बाद जहाँनारा बेगम ने एक नन्ही-सी मेज पर 'कुरान शरीफ' खोलकर रखा और उसका पाठ करने बैठ गईं। शब-ए-बारात के दौरान बारंबार कुरान शरीफ का पाठ कर-करके मन को शुद्ध रखना पड़ता है। उधर बाहर बहुत जोरों से बारिश शुरू हो गई है। लड़के-लड़कियों का आतिशबाजी जलाने का तो सारा मजा ही खत्म हो गया है ।

कुरान शरीफ का एक पन्ना पढ़ते-पढ़ते ही जहाँनारा बेगम का मन गंभीर रूप से उसमें तल्लीन हो गया । धुर बचपन से ही वह माता-पिता से कुरान शरीफ का पाठ सुनती रहीं। उन्होंने खुद भी उसे खूब मनोयोग से पढ़ा है। उसकी बहुत सारी सूरा (कुरान का कोई अध्याय) तो उन्हें कंठस्थ हो गई हैं। फिर भी जितनी बार उन्हें पढ़ती हैं, उतनी बार वे और अच्छी, और अच्छी लगती हैं।

कुरान शरीफ की यह किताब उन्हें अब्बाजान ने खुद दी थी । यह कोई मामूली छपी हुई किताब नहीं है, बल्कि हाथों से लिखी-पांडुलिपि है। प्रत्येक पृष्ठ के किनारे सोने के पानी से रँगे हुए, अलंकृत हैं।

नारियल की दोनों मिठाइयाँ खा चुकने के बाद मिलि उनकी पीठ पर चढ़ गई और बोली, “ अइया! आप क्या पढ़ रही हैं ?"

जहाँनारा बेगम ने जवाब दिया- " मैं तो कुरान शरीफ पढ़ रही हूँ, बिटिया । तुम अपने खिलौने लेकर खेलो, मैं तब तक थोड़ा और पढ़ लूँ।”

मिलि ने दुलार भरे कुछ रूठे स्वर में कहा, " वे सब तो अभी तक कुज्जे- पटाखे वगैरह लेकर आए नहीं। अच्छा अइयाजी, आप मुझे कहानी सुनाइए । "

"ठीक है, सुनाती हूँ। तुम शांत होकर बैठो तो !"

"यह कौन सी किताब है ? इसमें क्या राजा-रानी की कहानी है ?"

“हाँ, वह भी है। पहले तुम मेरी पीठ से नीचे उतरकर मेरे करीब बैठो तो ! हाँ, ठीक है, यही तो मेरी अच्छी बिटिया है। अच्छा सुनो-

"'एक देश में नोमरूद नामक राजा रहता था । वह बड़ा ही घमंडी था, भयंकर रूप से नास्तिक और ईश्वर- विद्रोही था ।' "

"ईश्वर - विद्रोही का क्या मतलब है, अइया ?"

“ईश्वर है अल्लाह, भगवान्! जो इस अल्लाह से शत्रुता करता है, वही ईश्वर - विद्रोही कहलाता है । तो यह जो राजा नोमरूद था, वह सर्वशक्तिमान ईश्वर को तो मानता ही नहीं था, उलटे अपने को ही अल्लाह बतलाता था । उसका हुक्म था कि लोग उसे ही ईश्वर मानकर उसी की पूजा करें। सो उसके राज्य की सारी प्रजा उसी को अल्लाह समझकर उसकी पूजा- इबादत करती थी अथवा सब उसी की मूर्ति बनाकर उसे ही पूजते थे; लेकिन यह सब बहुत बुरी बात है। "

" क्यों? बुरी बात क्यों है ?"

" अरे, राजा कोई अल्लाह तो नहीं है। उसके अलावा भी सुनो; उसी राजा के राज्य में इब्राहिम नाम का एक नागरिक रहता था। उसने राजा की इन बातों को मानने से इनकार कर दिया। वह राजा की पूजा भी नहीं करता था । एक दिन राजा ने उसे पकड़वाकर अपने पास बुलवाया और उससे पूछा, 'तुम मेरी पूजा क्यों नहीं करते?' इब्राहिम ने जवाब दिया- 'मैं अपने अल्लाह के अलावा और किसी की भी इबादत नहीं करता । '

" इस पर राजा ने बड़े घमंड से कहा, 'मैं ही तो अल्लाह हूँ। फिर मेरी पूजा क्यों नहीं करते ?' इस पर इब्राहिम ने कहा..."

तभी दरवाजे के करीब जूते चरमराने की आवाज हुई। जहाँनारा बेगम ने मुँह फेरकर उधर देखा । उनका बेटा सिराज एक दंपती ( पति - पत्नी) के साथ इसी ओर आ रहा है। बेगम को किताब पढ़ने के लिए चश्मा लगाने की जरूरत पड़ती है, लेकिन पढ़नेवाले को इस चश्मे से दूर की चीजें दिखाई नहीं पड़तीं । दूर स्थित आदमियों को पहचाना नहीं जा सकता । अतः बेगम ने चश्मा उतारकर निहारा, तब पहचान पाईं कि सिराज के साथ दीपा के ही भाई और भाभी - जय और शाश्वती आए हुए हैं।

जहाँनारा बेगम जल्दी-जल्दी में खड़ी हों कि तभी जय और शाश्वती आगे बढ़ आए; आकर उन्होंने उनके पाँव छुए और कुशल-मंगल पूछी, "कैसी हैं मौसीजी ?"

जहाँनारा बेगम ने दोनों के सिर पर हाथ फेरकर उन्हें आशीष दिया, परंतु सिराज ने माँ को प्रणाम नहीं किया, वह कुछ फासले पर ही खड़ा रहा। उसे यह सब आडंबर पसंद नहीं है। दीपा के ये जय भाई साहब एक नामी परमाणु भौतिक वैज्ञानिक (न्यूक्लियर फिजिसिस्ट ) हैं । अभी पिछले साल उन्हें चीन देश की सरकार ने 'माओत्से तुंग स्मृति पुरस्कार' से सम्मानित किया है; लेकिन उनके आचार-व्यवहार में कहीं रत्ती भर भी अहंकार नहीं है। वे जब भी इस घर में आते हैं तो सबसे पहले जहाँनारा बेगम के पाँव छूते हैं।

जहाँनारा बेगम ने खुद ही उनका स्वागत किया, उन्हें मिठाइयाँ परोसकर उनके परिवार का कुशल-मंगल पूछा, समझा। शाश्वती ने कहा, "ओह मौसीजी ! आप तो कुरान शरीफ पढ़ रही थीं, हम लोगों ने बीच में ही आकर आपको परेशान कर दिया। अरे ओ चलो, हम लोग किसी दूसरे कमरे में चलकर बैठें। "

जय ने कहा, "मौसीजी! जैसा कि आप जानती ही हैं कि हर साल इस महीने हमारे घर पर देवी लक्ष्मी की पूजा होती है। अनेक पीढ़ियों से युग-जमाने से यह रस्म चली आ रही है। इस साल इस शुभ अवसर पर यहाँ दीपा नहीं है । मिलि को और बाकी सभी बच्चों को, मतलब कि आप सभी लोगों को माँ ने इस पूजा में निमंत्रण भेजा है। कृपया आप सभी लोग पधारिए, वैसे आपको तो पूजा में आने को मैं कह नहीं सकता..."

जहाँनारा बेगम ने कहा, “ठीक है। लेकिन तुम लोग अब रात का खाना खाकर ही जाओगे । शब-ए-बारात के दिन मेहमानों को बिना कुछ खिलाए जाने देना ठीक नहीं होता । "

जय ने जवाब दिया—“हाँ-हाँ, निश्चय ही खाकर ही जाएँगे। निचली मंजिल पर मांस राँधने की कितनी बढ़िया गंध आ रही थी।"

शाश्वती ने कहा, “आप लोगों के घर तो चावल के आटे से इतनी आश्चर्यजनक रोटी बनती है कि..."

सिराज ने मिलि को अपने पास बुलाया, “ओ मिलि ! इधर आओ, हमारे कमरे में चलो। "

मिलि ने कहा, “मैं अभी नहीं चलूँगी । यहाँ अइयाजी मुझे किताब पढ़कर बहुत अच्छी कहानी सुना रही हैं। " उन लोगों के वहाँ से हटते न हटते ही मिलि ने उत्सुकता से तुरंत पूछा, “हाँ, तो फिर क्या हुआ ?"

नातिन के इस उत्साह को देखकर जहाँनारा बेगम बहुत खुश हुईं और बड़े चाव से उन्होंने आगे की कहानी कहना शुरू कर दिया-

" अरे हाँ ! कहाँ तक कहा था ? अच्छा, नोमरूद राजा और इब्राहिम । तो नोमरूद की घमंड भरी बातों को सुनकर इब्राहिम ने कहा, ‘मैं किसी भी राजा को अल्लाह कबूल नहीं करता । मेरे विचार से अल्लाह केवल वही है, जो मनुष्य को प्राण दान कर सकता है और प्राण ले सकता है।"

राजा ने कहा, "अरे, यह तो मैं भी कर सकता हूँ। मेरी इस शक्ति को तू प्रत्यक्ष देखेगा। ठीक है देख !" उन्होंने तभी जेलखाने से दो कैदियों को पकड़ मँगवाया। उनमें से एक कैदी को दूसरे ही दिन फाँसी पर लटका दिया जाना था। राजा ने उसे फाँसी की सजा से मुक्त कर दिया और इब्राहिम से कहा, 'देखा, मैं प्राणदान भी कर सकता हूँ !' और उस दूसरे कैदी, जिसे न्यायालय के निर्णय के अनुसार दूसरे दिन ही दंड-मुक्त हो जाना था, रिहा हो जाना था, का सिर तलवार के एक वार से ही धड़ से अलग कर दिया। तब इब्राहिम से कहा, "देखा, मैं प्राण ले भी सकता हूँ !"

"तब फिर उस नागरिक ने क्या कहा ? "

" इब्राहिम ने अबकी बार असली बात कही, 'हे राजा ! मेरे अल्लाह तो प्रतिदिन सूर्य को आकाश की पूर्व दिशा से उगाते हैं। अब क्या तुम सवेरे-सवेरे पश्चिम दिशा से उगा सकोगे ?' उसकी इस बात पर राजा चुप रह गया । हारकर उसने अपना सिर झुका दिया। समझी बिटिया ! जो कोई भी अल्लाह की ताकत के संबंध में संदेह करता है, उस पर सवाल उठाता है..."

चौखट के पास फिर जूते चरमराने का शब्द उभरने लगा। जय और उसकी बहू को अपने कमरे में बिठाकर सिराज अकेला अकेला लौट आया है। पतलून के ऊपर आधी बाँह की कमीज पहने हुए अत्यंत स्वस्थ - बलिष्ठ वह युवक इस वक्त बहुत ही गंभीर जान पड़ा।

माँ के कमरे के अंदर दाखिल होते ही उसने जैसे हुकुम करने के सुर में कहा, "मिलि, तेरे मामाजी तुम्हें बुला रहे हैं, जाओ! जरा मिल तो आओ।"

कहानी सुनने का काम समाप्त हो चुका है। इसके अलावा अपने पिता की इस प्रकार की आवाज सुनते ही वह बहुत डर जाती है, इसी से मिलि दौड़ती हुई-सी वहाँ से भाग गई। तब माँ के ठीक सामने खड़े होकर सिराज ने कुछ कठोर आवाज में पूछा, “अम्मा ! क्या तुम मिलि को कुरान शरीफ पढ़ा रही थीं ? "

जहाँनारा बेगम एकदम से सकपका गईं। हड़बड़ाकर बोलीं, “नहीं तो। अरे मिलि के पटाखे वगैरह पानी में भीग गए थे, अत: तरह-तरह से माँग फरमाइशें कर रही थी, इसी से मैं उसे एक कहानी सुनाकर फुसलाए हुए थी । लेकिन बात क्या है ? ऐसे क्यों पूछता है रे, हुआ क्या ?"

"क्या हुआ का मतलब ?" माँ को जैसे धमकाते हुए सिराज ने कहा, “ दीपा के भइया - भाभी खुद आकर देख गए कि तुम मिलि को कुरान शरीफ पढ़ा रही हो । दीपा घर पर नहीं है, सो उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए तुम उसे इसलाम मजहब की शिक्षा दे रही हो । छिह - छिह अम्मा ! मैंने कई मर्तबा तुमसे कहा है कि इस प्रकार की हरकतें यहाँ नहीं चलेंगी। "

इस बार भी जहाँनारा बेगम ने अत्यंत सरल आश्चर्य भाव से पूछा, "यह तू क्या कह रहा है, सिजू बेटा ? अरे, मिलि तो इस खानदान की ही बेटी है। बाप-दादों की मजहबी कहानियाँ एकाध क्या नहीं जाने-समझेगी ? अरे, उसने तो खुद ही कहानी सुनाने के लिए मुझसे जिद-पर-जिद की थी । "

"देखो अम्मा ! दीपा के साथ मेरी जो शादी हुई, उसमें सबसे पहली शर्त ही यह थी कि हम में से कोई भी किसी पर अपने धर्म-विश्वास को जबरदस्ती नहीं लादेगा। जिस तरह दीपा से शादी करके मैं हिंदू नहीं बना, उसी तरह मुझसे शादी करके दीपा भी मुसलमान नहीं बनी है और हमारे बेटे-बेटियाँ भी जब तक सयाने नहीं हो जाते...“

"तो क्या मैंने कभी दीपा को मुसलमान बन जाने के लिए जोर-जबरदस्ती की है ?"

"नहीं, सच ही दीपा पर जोर-जबरदस्ती तुमने नहीं की, लेकिन मिलि को "अम्मा, आखिर यह बात तुम क्यों नहीं याद रख पातीं कि इस समय पूरे देश में धर्मांतरण करवाना गैर-कानूनी है। "

" इस तरह पागलों की तरह चिल्ला क्यों रहे हो, सिजू ? मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया है। "

सिराज की बातों में एक प्रकार का भाषण करने का जोश-सा उमड़ पड़ा था, उसे बीच में ही रोकते हुए अबकी कठोर स्वर में जहाँनारा बेगम ने कहा, "अरे, अब तुम चुप भी तो होओ। लगता है बड़े सर्वज्ञ, सबकुछ के केवल तुम्हीं जानकार रह गए हो ! यही बात है न ? सभा-मंचों और मैदानों में चीख-चिल्लाकर बोलते-बोलते क्या तुम समझने लगे हो कि वही बातें तुम मुझे भी सुनाओगे ? क्या तुम बता सकते हो कि दीपा बहू पर मैंने कभी किसी भी मामले को लेकर कोई जोर-जबरदस्ती की है ? मेरे इस घर में रहते हुए भी यदि वह हिंदू मत के अनुसार पूजा- अर्चना करना चाहती तो..."

“दीपा किसी भी प्रकार की पूजा-अर्चना में विश्वास ही नहीं करती, यह तुम अच्छी तरह जानती हो ।”

" न करने पर भी दीपा के नैहर में महालक्ष्मी, महासरस्वती की पूजा होती है, उन सब देवी-देवताओं के बारे में क्या वह कुछ नहीं जानती ? वह क्या अपनी बेटी को रामायण- महाभारत की कहानियाँ नहीं सुनाती ? मैं तो खुद भी रामायण-महाभारत की कहानी जानती हूँ। ऐसी हालत में मिलि भी कुरान शरीफ की कहानियाँ, विशाल सिंधु कहानियाँ क्यों नहीं जाने-समझे ? क्या धर्म बदले बिना किसी को किसी अन्य धर्म की बातें नहीं जाननी चाहिए ? सिजू ! क्या एक हिंदू लड़की से शादी करके तुम अंततः जोरू के गुलाम बन गए हो ?"

"अम्मा, अम्मा, तुम क्या सच में मुझ पर ऐसा आरोप सोच-समझकर लगा पा रही हो ?"

जहाँनारा बेगम को भी एकाएक जोर का गुस्सा चढ़ आया था। सिराज के घबराए हुए चेहरे को गौर से देखने पर अबकी वे धमक गईं। उन्होंने अनुभव किया, नहीं, सिराज के लिए ऐसी बातें कभी लागू नहीं हो सकतीं। दीपा से शादी रचा लेने पर भी वह अपनी ससुराल कभी जाना ही नहीं चाहता। वह कतई हिंदुवाई में नहीं फँसा । दरअसल अपने बचपन के पढ़ने-लिखने के दिनों से ही वह नास्तिक है। वह न तो रोजा रखता है, न ही नमाज पढ़ता है और दीपा के घर भी कभी पूजा-पाठ करने या उसमें हिस्सा लेने नहीं जाता।

वे अपनी जगह से उठीं और अपने लड़के के माथे पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोलीं, “अरे, सिजू ! क्यों बिना वजह माथा गरम कर रहे हो ? शब-ए-बारात ( मुसलमानों का एक त्योहार ) के दिन ऐसा नहीं करते, बेटे ! तेरी बिटिया को तो मैं महज राजा-रजवाड़ों की कहानी भर सुना रही थी । "

“लेकिन जय और शाश्वती दोनों ही देख गए कि तुम मिलि को कुरान शरीफ पढ़ना सिखा रही हो।"

"क्या उन्होंने खुद ऐसी बात कही है ?"

"नहीं, उन्होंने ऐसा कुछ कहा नहीं, लेकिन उन्होंने अपनी आँखों से देखा तो !”

"देख लेने से हुआ क्या ? मिलि यदि कुरान शरीफ पढ़ना सीखे भी, तो इसमें कौन सा दोष है ? सभी कुछ पढ़े- सीखे, जाने-समझे !”

"और अम्मा, तुमने आज शब-ए-बारात के उपलक्ष्य में उन्हें खाना खाने की दावत दी। वे खाकर जाने को तैयार भी हो गए। जबकि आज घर में बना है बड़ा गोश्त । वे खा भी लेंगे। किंतु क्या तुम कभी उनके घर जाकर लक्ष्मी- पूजा का प्रसाद खा सकोगी ? जहाँ कहीं ऐसी पूजा-अर्चना होती है, वहाँ तो कभी भूलकर भी पाँव धरने नहीं जाओगी। तो फिर तुमने क्यों हमारे घर के धार्मिक त्योहार की दुहाई देकर उन्हें खाना खाकर जाने को कहा ?"

“तो क्या उनसे ऐसा कहने में मुझसे कोई भूल हो गई है ? अरे बेटे ! आज के दिन किसी मेहमान को बिना खिलाए नहीं जाने दिया जाता।"

" संभवतः वे लोग भी अपने त्योहारों के दिन ऐसे ही व्यवहार की आशा रखते हैं। "

"अच्छी बात है। तुम जाकर जय और शाश्वती से कह दो-उनकी महालक्ष्मी पूजा के दिन मैं खुद जाऊँगी। दीपा यहाँ नहीं है तो क्या हुआ, मैं ही मिलि को साथ लेकर जाऊँगी।"

उनके घर ठीक नौ दिन बाद महालक्ष्मी पूजा का दिन आ गया। घर के कुल सात लड़के-लड़कियों को साथ में लेकर जहाँनारा बेगम रवाना हुईं। आज काफी अरसे बाद वे महल से बाहर निकली हैं। हाँ, वैसे कोई बहुत दूर नहीं जाना पड़ेगा। दीपा के पिताजी का घर यशोहर जिले के सातक्षिरा शहर में है । सिराजुल ने एक छोटी मोटरगाड़ी का इंतजाम कर दिया है। बारासात से सातक्षिरा मोटर से केवल एक घंटे का रास्ता है।

दोनों शहरों के बीच इच्छामती नामक नदी पड़ती है। अभी हाल में ही वहाँ एक बहुत ही अच्छा एकदम नए माने का पुल बना है। पुल के दोनों ओर खंभों की कतारों में झूलते गमलों में भाँति-भाँति की नागफनियों के पौधे लटक रहे हैं। सड़क और फूलों की कतारों के बीच में पैदल चलनेवालों के लिए सुंदर ऊँची-सी पगडंडी है। उन्नीस सौ सत्तावन में इस पुल का निर्माण कार्य आरंभ हुआ था, लेकिन उसके काफी वर्षों बाद तक यह पूरा हुए बगैर यों ही अधबना पड़ा रहा। हाँ, इसके पीछे एक विशेष कारण रहा है। चीन और भारत दोनों ही देश दो प्रकार के समाजवादी शासनों को लेकर परीक्षण-निरीक्षण कर रहे थे, फलतः उनमें एक स्पर्धात्मक प्रतिद्वंद्विता चल रही थी, पिछले कई सालों से। ये दोनों ही पड़ोसी देश बहुत विशाल हैं। इनकी जनसंख्या भी लगभग बराबर-बराबर है। इन दोनों देशों के इस प्रतिद्वंद्वितात्मक मन-मुटावपरक संघर्ष में अन्य दो महाशक्तियों ने खूब ईंधन का जुगाड़ किया है। परिणामतः इसी बीच दोनों देशों के बीच एक बार भयंकर लड़ाई भी हो चुकी है। अभी केवल चार साल पहले इन दोनों ही महान् देशों के राष्ट्राध्यक्ष कश्मीर में एक शिखर वार्त्ता कर अंततः एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचे हैं और तदनुरूप ऐसा निर्णय-सिद्धांत स्थिर किया है, जिसे एक साधारण बच्चा भी अच्छी तरह समझता है। ये दोनों देश यदि आगामी पचास सालों के लिए एक संधि स्वीकार कर लें और अपनी-अपनी सीमाओं से अपनी सेनाएँ हटा लें तो देश की प्रतिरक्षा के लिए जो भारी खर्च होता है, उसमें हजारों-हजारों करोड़ रुपए बरबाद होने से बच जाएँ । विकासशील देश यदि आसपास खड़े होकर कदम से कदम मिलाकर चलें तो बड़ी-बड़ी महाशक्तियाँ भी काँपने लगेंगी।

उस संधि के हो जाने के बाद से ही भारत में बड़े-बड़े राजपथ, सड़कें, बड़े-बड़े पुलों के निर्माण का कार्य बड़े जोर-शोर से शुरू हो गया है। कलकत्ते के पास गंगा नदी पर ही तीन-तीन बड़े पुल हैं। सिंधु - ब्रह्मपुत्र महानदी पर तो हर बीस-बीस मील के अंतर पर पुल बन गए हैं। बंबई - करांची का महाराजपथ तैयार हो गया है और इधर कलकत्ते से ढाका पहुँचने में रेलगाड़ी से बस चार घंटे का समय लगता है। इच्छामती नदी के पुल पर से जब मोटरगाड़ी गुजर रही थी, तब फजल ने उत्साहित होकर कहा, "दादी माँ, दादी माँ! देखो, उधर देखो, वहाँ तो आदमी लोग पाँव-पाँव पैदल नहीं चल रहे हैं, बल्कि रास्ता खुद ही चल रहा है। "

इस स्वयं चलनेवाले रास्ते को देखकर जहाँनारा बेगम भी अवाक् रह गईं। अपनी इस सत्तर वर्ष की उम्र में उन्होंने जाने कितना सारा परिवर्तन देखा-परखा ! सन् उन्नीस सौ छियालीस के दंगे में उनके सगे बड़े भाई ने प्राणों की आहुति दी थी। उस समय लोगों ने सोचा था कि भारतवर्ष का विभाजन होकर रहेगा। कलकत्ता या बारासात में फिर रहा नहीं जा सकेगा। कहीं-न-कहीं दूर अनजानी जगह पर जाना ही पड़ेगा। 'स्टेफोर्ड क्रिप्स कमीशन' असफल हो गया। उसके बाद ही तो माउंटबेटन आए उस समय जहाँनारा बेगम एक बहुत बड़े संयुक्त परिवार की गृहवधू थीं, फिर भी अच्छा लिखना पढ़ना जानती थीं। अखबार नियमित रूप से पढ़ती थीं। एक तरफ कांग्रेस और हिंदू महासभा, तो दूसरी तरफ से मुसलिम लीग के बराबर बढ़ते-चलते आंदोलन को देख उनका खून खौलने लगा था। धीरे-धीरे उन्होंने भी मन-प्राण से हिंदुओं से घृणा करना शुरू कर दिया था कि तभी अचानक गांधी और जिन्ना में समझौता हो गया। दोनों महापुरुषों ने साथ-साथ मिलकर घोषणा की, 'हम अंग्रेजों की चालबाजीपूर्ण दलील नहीं मानेंगे, किसी भी दशा में देश का बँटवारा नहीं होने देंगे।'

...शुरू-शुरू में पहले कुछेक साल तक थोड़ा झगड़ा-फसाद जरूर हुआ, लेकिन धीरे-धीरे सब थम गया, शांत हो गया। गांधी और जिन्ना ने एक साथ शपथ ली कि किसी भी प्रकार के राजनीतिक भाषण के समय या गणतंत्रात्मक चुनावों में वोट के समय कोई भी रंचमात्र भी धर्म की बातें नहीं चला सकेगा। भारतीय संविधान में भी यह बात दृढ़तापूर्वक रखी गई है। अब तो ऐसा दिखाई देता है कि मंदिर- मसजिद अथवा गिरजाघर वगैरह वीरान पड़े रहते हैं, विशेषकर कोई वहाँ जाता ही नहीं। सरकार की ओर से घोषणा की जा रही है कि उन सब जगहों को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में संरक्षित कर दिया जाएगा।

सोचते-सोचते जहाँनारा बेगम कुछ अन्यमनस्क हो गई थीं। फजल की बातें सुनकर बोलीं, “अरे, तुम लोग अभी अपने जीवन में और भी जाने कितना कुछ देखोगे। अभी तो देख रहे हो कि आदमी खड़ा हुआ है, रास्ता चल रहा है । हो सकता है, एक दिन देखोगे कि आदमी आकाश मार्ग से उड़ता चला जा रहा है, जैसा कि अरबी की आश्चर्यजनक कहानियों में था । "

थोड़ी देर चुप रहकर वे फिर बोलीं, “अरे प्यारे बच्चो, जरा सुनो तो! हम सब मिलि के मामा के घर महालक्ष्मी पूजा की दावत खाने जा रहे हैं। तो जरा यह तो बतलाओ कि क्या तुम सब जानते हो कि लक्ष्मी पूजा है क्या चीज ? बिटिया मिलि, जरा तुम ही बता दो न !"

मिलि ने उनकी गोद में सिर रखकर विनती की, “दादी माँ, तुम्हीं इसकी कहानी कहो। "

अतः जहाँनारा बेगम ने ही कहना शुरू किया - "हिंदू धर्म में महादेव शिव नामक देवता हैं। उनके चार बेटे- बेटियाँ हैं - गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती ।

फजल ने कहा, “हाँ-हाँ, दादी माँ । एक सूँड़वाले हाथी, जैसे व्यक्ति को हिंदू लोग कहते हैं गणेश भगवान् | ऐसी ही बात है न ?"

जहाँनारा बेगम की भौंहें तन गईं। उन्होंने उसे डाँटते हुए कहा, “फजल, तुम चुप रहो । मूर्खों की तरह बातें मत करो। अपने रिश्तेदार के घर जाकर इस प्रकार की बदतमीजी मत कर बैठना । "

सिराज चालक की बगल में बैठा है। वह सारी बातें चुपचाप सुन रहा है और मन-ही-मन मजे ले रहा है। फजल की बातों में उसे कुछ दोषपूर्ण चीज नहीं दिखाई पड़ी। उसके मतानुसार वास्तविक रूप में धार्मिक स्वतंत्रता तो तभी आएगी, जब एक धर्म के लोग दूसरों के धर्म की भी खुल्लम-खुल्ला आलोचना मुक्त भाव से कर सकेंगे।

यदि एक सूँड़वाले देवता के प्रसंग में फजल को हँसी आती है तो फिर जबरदस्ती उसकी हँसी को रोक देने का कोई उपयुक्त कारण नहीं हो सकता। जैसे कि शब-ए-बारात की वह कहानी सुनने के बाद रात में मिलि जब उसके साथ सो रही थी तो उसने पूछा था, " अब्बाजी, जब एक दुष्ट राजा ने एक भले आदमी का सिर यों ही काट दिया तो फिर अल्लाह ने उसे बचाया क्यों नहीं ? " तब सिराज ने उसे समझाया था, " आदमी जब आदमी को मारता है, तब उसके इस कार्य में बाधा डालने, उसे ऐसा करने से रोकने की शक्ति सामर्थ्य न किसी अल्लाह में है, न भगवान् में; समझी बिटिया ! यह बात तो आदमी को ही सीखनी पड़ेगी कि दूसरे आदमियों को इस तरह बिना किसी दोष- अपराध के नहीं मारना चाहिए।"

सिराज ने मन-ही-मन सोचा कि दीपा के मायके जाने पर फजल या दूसरे बच्चे महालक्ष्मी पूजा का सारा धूम- धड़ाका देखकर यदि उसका हँसी-मजाक उड़ाएँ तो खूब मजा आएगा । जरा देखा ही न जाए कि हमारे बच्चों के ऐसा करने पर उन लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती है ? यदि वे चिढ़ जाते हैं, गुस्सा होते हैं और कुछ खरी-खोटी सुनाते हैं तो सिराज खुद ही उनसे कहेगा कि आप लोगों ने मुसलमान लड़के-लड़कियों को बुलाया ही क्यों था ? इस निमंत्रण के लिए किसने आप लोगों को कसम खिलाई थी ? दीपा तो कभी भी इन सब बातों को लेकर माथा- पच्ची करती नहीं । इन सब विषयों की चिंता ही नहीं करती।

ढाका की विद्वत् गोष्ठी में भाग लेने के बाद दीपा सीधे अपने मायके सातक्षिरा चली आएगी। उसके मायके में उसकी सासजी स्वयं पधार रही हैं। यह खबर पाते ही दीपा ने राँगामाटी, काक्स बाजार का अपना दौरा अधूरा ही छोड़ दिया है और सीधे सातक्षिरा लौटकर आ रही है।

सातक्षिरा में दीपा के पिताजी का पीढ़ियों पुराना मकान है। मकान क्या है, पूरा राजप्रासाद-सा ही है। मुख्य द्वार पर नौबतखाना है, जहाँ शहनाई बज रही है।

जहाँनारा बेगम का कलेजा धक-धक कर रहा है। वे हृदय के अंतरतम से मूर्तिपूजा नापसंद करती हैं। अपने लड़के की बातों की प्रतिक्रिया में सहसा खुद ही यहाँ आना स्वीकार कर लेने के कारण आज उन्हें बेबसी में बाध्य होकर अपनी जुबान की रक्षा करने के लिए यहाँ आना पड़ा है। वैसे जब कच्ची उम्र थी, बचपन में हिंदुओं के मुहल्लों में उन्होंने ऐसी पूजा-अर्चना वगैरह करीब से देखी थी। पढ़ाई के दिनों में पाठशाला में अपनी हिंदू सहेलियों से उन्होंने हिंदू धर्म की कहानियाँ भी सुनी थीं। सत्रह वर्ष की उम्र हो जाने पर, सयानी हो जाने पर, फिर तब से आज तक कभी भी हिंदुओं की इस प्रकार की पूजा-अर्चना में वे नहीं गईं। अब तो इन्हें इस बात का भी कुछ पता नहीं कि ऐसे अवसरों पर इनके क्या नियम-विधान, आचार वगैरह हैं ? कब क्या करना चाहिए ? कौन जाने एक मिट्टी की मूर्ति के सामने प्रणाम करना पड़ेगा ! लेकिन यह काम तो मर जाने पर भी वे नहीं कर सकेंगी। अब इस उम्र में पहुँचकर आज अपने विश्वास को वे तिलांजलि नहीं दे सकेंगी। अपना आचार-नियम नहीं छोड़ सकेंगी।

ज्यों ही मोटर सदर दरवाजे पर पहुँची, त्यों ही जय दौड़ा-दौड़ा आया और स्वागत में कहने लगा- “ आइए, आइए मौसीजी, आपके आने की खबर सुनकर तो हम लोग अवाक् रह गए।"

जय सारी दुनिया में सफर करता रहता है। अपनी यात्राओं में तो वह अंग्रेजों की पोशाक पैंट-शर्ट पहने रहता है, परंतु आज उसने धुली हुई धोती और रेशमी कुरता पहना हुआ है, ललाट पर चंदन का टीका भी लगाए हुए है। इतना बड़ा वैज्ञानिक है वह, परंतु कुल परिवार की प्रथा का पालन पूरी तत्परता और होशियारी से करता है । सिराज की तरह गुस्सैल स्वभाव का नहीं है। अपनी सफेद साड़ी के आँचल को अच्छी तरह सँभालती हुई वह बाल-बच्चों को साथ लेकर एक-एक कदम बढ़ाती हुई आगे चलीं । उन्हें याद आया, हिंदुओं की इस पूजा में तो एक बड़ा सा मंडप होता है, जहाँ मिट्टी की प्रतिमा रखी होती है। आखिर वह मंडप यहाँ कहाँ है ?

जहाँनारा बेगम के मुँह की ओर देखते-देखते मानो उनकी आँखों में समाई भाषा को समझकर ही जय ने कहा, “मौसीजी ! इस साल हम लोग प्रतिमा गढ़वाकर नहीं ला सके। उसकी स्थापना नहीं कर पाए। हम सभी भाई घर से दूर बाहर-ही-बाहर रहते हैं, घर आने का मौका पाते ही नहीं। अब तो कह नहीं सकते कि अगले साल से पूजा भी हो पाएगी कि नहीं? इसी कारण इस वर्ष प्रतिमा की जगह मात्र घट स्थापन कर उसी की पूजा किसी तरह नमो- नमो करके अपना कर्तव्य निर्वाह भर कर लिया जा रहा है। "

उसकी बात सुनते ही बिना कुछ बोले-चाले ही जहाँनारा बेगम धम्म से जमीन पर बैठ गईं, फिर तुरंत ही वहीं पसर गईं। दूसरे ही क्षण बेहोश हो गईं। लगता है, अचानक ही इस्कीमिया रोग ने दिमाग में भयानक दर्द पैदा कर दिया है।

उनके बेहोश होते ही चारों ओर से भारी शोर-गुल, दौड़-धूप शुरू हो गई। 'डॉक्टर बुलाओ, डॉक्टर बुलाओ' की पुकार होने लगी । जहाँनारा बेगम को उठाकर घर के भीतरी हिस्से में ले जाया गया। इस सब भाग-दौड़ में सबसे ज्यादा सिराज ही व्यस्त हो गया। उसकी इस ससुराल में उसकी माँ कभी आई नहीं । आज पहली बार आई हैं, सो भी एक पूजा-त्योहार के दिन। अगर उनके साथ कोई बुरी दुर्घटना हो गई, तब तो...

करीब आधे घंटे के अंदर ही जहाँनारा बेगम को होश आ गया । परंतु अपनी इस कमजोरी को समझकर वे मारे लाज के गड़ गईं। भला ऐसा भी क्या ? रिश्तेदार के घर आने पर, वह भी उत्सव - त्योहार मनानेवाले घर में इस्कीमिया के रोग का झटका! इसके उठने के लिए और कोई समय नहीं बचा था क्या? अगर उनकी वजह से कहीं उनका पूजा-पाठ, उत्सव - त्योहार खराब हो जाता तो ? छिह - छिह ! उनके जीवन में ऐसी बुरी नाटकीय घटना कभी नहीं घटी।

जब सँभलकर उन्होंने अच्छी तरह आँखें खोलीं तो उन्हें अपनी छोटी पतोहू दीपा दिखाई पड़ी । चटक लाल रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए, भरे माथे पर उठे हुए घुँघराले बाल, माँग में लाल सिंदूर और ललाट पर बिंदी'" । जहाँनारा बेगम को याद आया - बचपन में हिंदुओं के मुहल्ले में जाने पर उन्होंने ऐसे ही अवसरों पर लक्ष्मी- सरस्वती की प्रतिमा देखी थी, हूबहू बंगाली - कन्याओं जैसी ही उनकी गढ़न थी । जरीदार चौड़ी पाड़ ( किनारी) की साड़ी पहनाई हुई, सिर के बाल दीपा के बालों की तरह, थोड़ा सा घूँघट निकाले हुए, दरअसल वे किसी देवी-देवता जैसी नहीं दिखाई पड़ती थीं, बल्कि देखने पर ठीक-ठीक बंगाली लड़की जैसी ही लगती थीं, लेकिन देखने में बहुत ही भली लगती थीं। बहुत ही अच्छा महसूस होता था ।

दीपा ने बड़ी घबराहट में पूछा, “अब कैसा लग रहा है, माँजी, तबीयत कैसी है ? क्या अभी भी बहुत दर्द हो रहा है ?"

जहाँनारा बेगम ने दोनों ओर सिर हिलाया । दीपा ने उनके पाँव के तलवों में तेल मलते-मलते कहा, "माँजी ! आप घबराइए नहीं। आपको कुछ भी नहीं हुआ है। डॉक्टर आकर देख गए हैं। "

जहाँनारा बेगम ने हलकी फुसफुसाहट भरी आवाज में पूछा, “मिलि कहाँ है ?"

दीपा ने बताया, "मिलि अभी तक तो आपके पास ही बैठी थी । अभी-अभी उठकर कहीं गई है। अभी बुला रही हूँ। माँजी ! क्या आप कुछ खाना पसंद करेंगी ? थोड़ा गरम-गरम दूध लाकर दूँ। जरा सा दूध पी लेंगी तो अच्छा लगेगा।"

धीरे-धीरे कोशिश करके जहाँनारा बेगम उठ बैठीं। यह किसका बिस्तरा है, कौन जाने? वे दीपा के मुँह को एकटक निहारती रह गईं। फिर उनके होंठों पर एक पतली सी मुसकराहट खेल गई। वह धीमे स्वर में, फुसफुसाते हुए कुछ लजाई लजाई सी बोलीं, “तुम लोगों की पूजा-अर्चना ठीक-ठाक ढंग से पूरी हो गई ? गरम-गरम चावल, केला और बतासे को मिलाकर तुम लोगों की पूजा का कोई प्रसाद बनाया जाता है न ? जब बच्ची थी, तब खाया था। बहुत ही स्वादिष्ट और भला लगता था । उसी प्रसाद में से क्या थोड़ा सा लाकर दे सकती हो?"

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