जो नहीं है : वही (कहानी) : आशापूर्ण देवी

Jo Nahin Hai : Vahi (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

गायत्री ने काफी देर तक अपने को आईने के सामने खड़े होकर निहारा...सामने से...पास से। आखिर उसके चेहरे में ऐसा क्या है ? ऐसी क्या खूबी है कि जिसके चलते उसे संसार के सारे मर्द उसकी ओर ललचायी नजर से देखते रहते हैं-कम-से-कम श्रीपति की तो यही धारणा है।
इस धारणा को क्या बदला नहीं जा सकता, जिसके चलते श्रीपति को न तो तनिक चैन है और न गायत्री को टुक आराम ?

अवश्य ही बदला जा सकता है ! मर्द जात की आँखों में सचमुच लुभावना बने रहने की इच्छा होने पर एक तरह के गौरव का बोध तो होता ही है। इस बात को स्वीकार करने पर अपनी हेठी जरूर होती है लेकिन इसे पूरी तरह झुठलाना भी गलत होगा। लेकिन गायत्री इस तरह का दावा करनेवाली सुन्दरी नहीं है और उसे इस बात का पूरा अहसास भी है।

क्या श्रीपति को इसकी जानकारी नहीं है ? वह कोई अन्धा तो नहीं?
तो फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो पति ऐसी सुन्दरी पत्नी के साथ घर-गृहस्थी चलाते हैं, उनके हृदय में जंगल की आग दहकती रहती है?
इस बात पर गायत्री को गुस्सा तो आता ही है, अपमान और दुख से भी वह सुलगती रहती है।

इस बेसिर-पैर की आग में जल-जलकर श्रीपति खाक हो जाएगा ? घर में किसी परिचित पुरुष के मिलने आते ही उसका सारा काम-काज ठप्प हो जाता है। चाहे वह काम कितना भी जरूरी क्यों न हो ? मिलने आने वाले आदमी की उम्र के बारे में भी कुछ विचार करने की सुध-बुध तक खो बैठता है, ऐसा सनकी है वह।

अभी उस दिन की ही तो बात है। वह अपनी आँखों की जाँच करवाने डॉक्टर के यहाँ जा रहा था कि इसी समय ममेरे बहनोई राजेन आ गये। अपनी बेटी के विवाह का निमन्त्रण-पत्र देने। श्रीपति वहीं रुक गया।

राजेन ठहरे बातूनी किस्म के आदमी। लड़कों के मोल-तोल और बाजार-भाव के बारे में कहते चले गये। रुकने का नाम नहीं और उठने की जरूरत नहीं। श्रीपति भी नहीं हिले। हालाँकि डॉक्टर के साथ मिलने का समय पहले से तय था।

आखिरकार श्रीपति का डॉक्टर के यहाँ जा पाना सम्भव न हुआ। भाड़ में जाएँ आँखें ? आँखों की पुतली को अपनी आँखों से अलग कर पाने का कोई चारा भी तो नहीं था उसके पास। और ऐसी स्थिति में जबकि एक जोडी बेहया और लालची आँखें 'उसे' निगल जाने को तैयार बैठी हों?

गायत्री के मैके के यहाँ से. उसके पिता और भाई को छोडकर इस घर में और किसी का प्रवेश एक तरह से मना है। ऐसा किसी लिखित कानून में तो नहीं है लेकिन अलिखित तौर पर इसका पालन होता रहा है। विवाह के बाद एक-से-एक नये चेहरे आ टपकते थे। अब कोई नहीं आता। उन लोगों ने जिस वजह से आना छोड़ दिया है वह है श्रीपति के चेहरे पर टँगी हुई गर्दन में धक्का मारकर बाहर निकाल देने वाली खामोश नोटिस।

यह सब सहती चली आयी है गायत्री। और यह बात सभी मन-ही-मन समझ गये थे। श्रीपति के मन में बैठी यह विषबुझी बात इस तरह से कभी उजागर नहीं हुई थी, जैसी कि कल हो गयी।
लेकिन आज भी उसी नाटक को दोहराया जा रहा है।

बात यह है कि अपनी स्कूली पढ़ाई के दौरान गायत्री की नृत्य और गीत में बड़ी साख थी। अपनी किशोरावस्था में उसने खूब नाचा था, खूब गाया था। वही गायत्री अब जैसे किसी कब्रगाह में दफन हो गयी थी। अब आठ साल के बाद एक अनजानी-सी मण्डली ने उसकी कब्र को खोदकर उसे फिर से निकालने का संकल्प लिया है।

इस मण्डली ने ढेर सारा काम पूरा कर लिया है और इसके सदस्य यह बता गये हैं कि वे कल फिर आएँगे...धरना देंगे। ये छोकरे गायत्री के मैके वाले मोहल्ले से हैं।

गायत्री की शादी के समय ये शोहदे हाफ पेण्ट पहनकर कंचे खेला करते थे। अब सब-के-सब बड़े क्या हो गये हैं, बड़े लायक हो गये हैं और उन्होंने एक समिति बना ली है। पता नहीं क्या नाम है बड़ा लम्बा-चौड़ा-सा...कोई सूखा राहत या बाढ़ पीड़ित कल्याण समिति बनी है। उसी समिति के तत्त्वावधान में 'भूखे लोगों की भूख' मिटाने का जोरदार अभियान शुरू किया गया है और रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है। पता नहीं, इसमें टिकट लगाकर क्या सफेद-स्याह होगा और खाक तमाशा होगा। टिकट से मिला पैसा दान-पुण्य के मद में जाएगा।

खैर, यहाँ तक तो ठीक था। रुपये उगाहने के लिए वे टिकट की एक गड्डी गायत्री को सौंप जाते तो इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। श्रीपति न तो गरीब है और न ही कंजूस । लेकिन बात इतने पर ही नहीं थमी। उनकी तो माँग ही कुछ और थी। वे गायत्री को चाहे थे। कहने लगे, गायत्री की आवाज चन्दे की मोटी रकम से कहीं ज्यादा कीमती है।

इसीलिए सारे आयोजन की कर्ता-धर्ता रेखा दीदी को भी वे सब साथ लिवा लाये थे और धरना देकर बैठ गये।

उनका प्रस्ताव सुनकर गायत्री पहले तो खूब हँसती रही। फिर बोली, "मैं अब गाना-बाना क्या गाऊँगी भला ! यह तो गनीमत है कि तुम लोगों ने नाचने को नहीं कहा। आखिर यह भी तो था तुम लोगों के प्रोग्राम में ? अब गाना-वाना सब भूल-भाल गयी हूँ रे !"

"यह क्या कह रही हैं आप? सीखी हुई चीज भी भला भूलता है कोई?"
"क्यों नहीं भूलता। बूढ़ी हो जाने पर सब भूल जाता है।"
लड़कों की मण्डली ठठाकर हँस पड़ी। “बूढ़ी और आप ? अगर आप बूढ़ी हैं तो फिर रेखा दी क्या हैं...स्थविर या कि भिक्षुणी?"
"रेखा दी?" रेखा दीदी की ओर ताककर गायत्री ने मुस्कराते हुए कहा, "रेखा दी की बात जाने भी दो। वे तो चिरतरुणी हैं।"

लम्बी-चौड़ी और चौकोर काया वाली रेखा दीदी एक की में किसी तरह खप गयी थी और अब तक हाँफ रही थीं। अब उनके बोलने की बारी थी, “ऐसा भला कैसे सम्भव है? लेकिन तेरी तरह बे-वक्त बुढ़ा तो नहीं गयी। और तू किसके गले मढ़ गयी रे ? हाँ। शादी तो हर किसी की होती है लेकिन सब तेरी तरह तो डूब नहीं जाते कि सारी दुनिया को भूलकर बस 'तुम और मैं' ही करते रहें।"
"ओह रेखा दी, तुम अपनी आदत से बाज नहीं आओगी ?"
"क्यों न कहूँ...सौ बार कहूँगी। मैं तेरी तरह रंग-ढंग बदलने वाली नहीं !" रेखा दी ने फिर नरम पड़ते हुए कहा, "अच्छा, यह सब छोड़... । अब चल तो सही।"
गायत्री यह सब सुनकर हँसती रही। बोली, "मैं साथ चलँ...क्या कह रही हो? और अभी, इसी वक्त...कहाँ ?" ।

"जहन्नुम में...और कहाँ ?" रेखा ऊँची पड़ी, “तेरी बात सुनकर तो देह में आग लग जाती है। इन लड़कों ने ठीक ही कहा था कि हमारे कहने से वह आएँगी भी? और तभी मैं मर-खपकर यहाँ तक आयी। और इस बार हम सब कसम खाकर आये हैं कि अगर बाल खींचते हुए घसीटकर भी तुझे ले जाना पड़े तो हम वैसा ही करेंगे।...तय है।"
बाहर कहीं निकलने के बारे में तो गायत्री सोच भी नहीं सकती थी।

श्रीपति की अनुपस्थिति में श्रीमती गायत्री का जवान लड़कों के झुण्ड के साथ भटकते रहना और उनकी समिति के दफ्तर जाना ? बाप रे ! इसके बाद वह अपने घर वापस लौट भी पाएगी? लेकिन इस कड़वे सच को सबके सामने वह बता नहीं सकती इसीलिए उसने मजाक करते हुए कहा, “भई, याद रखना कि इस घर के मालिक ठहरे वकील । तुम लोगों के नाम अनधिकार प्रवेश, बल-प्रयोग पूर्वक, लूट-मार और अपहरण जैसे मामलों में शामिल होने के लिए चार्ज शीट तैयार कर दिया जाएगा।"
“तू अपना वकील अपनी छाती से लगाये रख..." रेखा दी तनिक उत्तेजित होकर बोली, "हाथी-घोड़े बिला गये सब और मेढक पछे कितना पानी...। रेखा भट्टाचार्य हाई कोर्ट के जज तक को एक हाट में बेच सकती है तो दूसरे हाट से खरीद सकती है। विजय...त् जा गाड़ी स्टार्ट कर तो... | गायत्री चल...फटाफट...। मैं तुझे एक मिनट का समय दे सकती हूँ... । इतनी देर में साड़ी-वाड़ी बदल ले और चाहे तो जूड़ा कसे ले...बस !"

गायत्री जो भी बहाने ढूँढ-ढूँढ़कर जुटा रही थी वह रेखा दी की बातों की बाढ़ में तिनके की तरह बह जाते थे। घर से दो-तीन घण्टे के लिए बाहर निकलना इतना मुश्किल है-वह इस बात को मानने के लिए अभी और कभी तैयार न थी।

"तू भी एक नम्बर की घर-घुसरी हो गयी है रे ! तभी तो घर से बाहर निकलने की जरूरत है।"...रेखा ने आगे जोड़ा, "बड़ी भारी गिरस्थी है तेरी। मियाँ और बीवी...और उसका ऐसा रोना। अरे तुझे तो चौबीसों घण्टे नाचते रहना चाहिए...ता ता...धिन धिन... | और दूसरी तरफ मेरा घर...जहाँ सुलताना डाकू के चार-चार जेबी संस्करण हमेशा ठाँय...ठाँय और दिशंग...दिशंग करते रहते हैं...वहाँ भी में सिर उठाकर खड़ी हूँ और तेरे मुकाबले तो सचमुच बहत आजाद हूँ।"

गायत्री उससे और कहाँ तक जूझती? फिर भी उसने एक बार कोशिश कर देखा, "बात मियाँ-बीवी को लेकर ही तो है। जब वे घर पर आएँगे और देखेंगे कि पंछी पिंजरा छोड़कर उड़ गया तो वे बेहोश ही हो जाएँगे।"

"अरे जाने भी दे...बहुत सुन चुकी हूँ वह सब ! घर वापास आकर आँचल की हवा कर देना। एकबारगी ढेर सारा पुण्य कमा सकेगी। में कोई जान-बूझकर यह बात नहीं कह रही। लेकिन सच तो यह है कि तू शादी के बाद एकदम जाम हो गयी है। ये पति-वति...स्साले...किसी के नहीं होते और न तो अपनी बीवियों को प्यार ही करते हैं...समझ ले...हाँ...!" रेखा दी ने अपनी मोटी गर्दन किसी तरह घुमायी और कहा, “अरी कहाँ मर गयी तेरी बह नौकरानी ? अभी तलक तो यहीं चक्कर काट रही थी। अरी सुन जरा..."

एक चौदह-पन्द्रह साल की लड़की आकर खड़ी हो गयी।
“अच्छा, तू है...सुन ! तू क्या कहती है इसे...बहूरानी...राजमाता या भाभी श्री...? खैर, जो भी बोलती हो, मैं इसे दबोचकर ले जा रही हूँ। बाबू साहब जब घर पर आएँ तो कहना घर में कुछ डाकू जबरदस्ती घुस आये थे। उनके साथ उनकी सरदारनी रेखा बाई भी थी। वे सब उन्हें पकड़कर ले गये।"
"न...तुम्हारे साथ बहस कौन करे ? अरे बाबा...अब आज कुछ तय तो है नहीं...कल निकल पडेंगी तुम लोगों के साथ।"

“अरी ओ मोला...ले चल अब झटपट । तेरी कसम तो टूटने से बच गयी। कल से छोरियों को रिहर्सल भी दिलवाना है। चल...वही सब तय तमन्ना करें। किसको कैसे सजाना-धजाना है। और ये छोकरे सब...कम्बख्त अपने-अपने गलमुच्छों पर ताव देते फिरते हैं और यह कहकर मस्ती मारते हैं कि यह सब भार तो रेखा दी पर है। जैसे रेखा दी की ही सास मरी है।...और अब ले-देकर सिर्फ चार दिन हाथ में हैं।"

तो अब गायत्री क्या करे?
खैर, वह इस शर्त पर कार में बैठी कि उसे शाम के पाँच बजे तक घर जरूर पहुँचा दिया जाएगा।

"हाँ बाबा...हाँ...," रेखा दी ने चुटकी ली, "ओह...तेरा भी खम्भा बड़ा भारी हैरे...एकदम हिलता नहीं। मैं तो भगवान से यही मनाऊँगी कि अगले सात जनम तक किसी वकील के पल्ले न बँधना पड़े। क्या रोब है-दाब है !"
नौकरानी को हजार तरह से समझा-बुझाकर गायत्री घर से निकल पड़ी थी।

"आपको ले जाने में जितनी मेहनत करनी पड़ी है गायत्री दीदी...इसके मकाबले गन्धमादन पर्वत को उठा ले आना कहीं ज्यादा आसान होता." अपनी सफलता पर खुश होते हुए एक लड़के ने सस्ती चुहल की।

“वैसे वीर हनुमानों के दल की क्षमता का पता तो चला," गायत्री ने फीकी मुस्कान के साथ कहा। लेकिन उसके सीने के अन्दर जैसे बार-बार हथौड़ी पटकी जा रही थी। उसे विश्वास था कि वह श्रीपति के आने के पहले ही घर लौट आएगी।
लेकिन उसका यह विश्वास भी न जाने कब...कैसे जाता रहा!

ऐसा ही होता है। 'सूखा राहत' के दुख से द्रवित ये महामानव जिस तरह से चौकड़ी जमाये बैठे थे, उससे यह जान पाना मुश्किल न था कि वे सब अपने किसी दोस्त की शादी में बाराती बनकर बैठे हैं। सबके सब अपनी-अपनी परिकल्पनाओं में डूबे थे। हवाई मनसूबे...रंगारंग झाड़-फानूस जैसे ढेरों कार्यक्रम जिनकी कोई गिनती न थी। इसके बाद सब में कतर-ब्योंत । आखिरकार...शाम की काली छाया जब और गहरा गयी तो गायत्री को खयाल आया कि पाँच तो कब के बज गये...पंचानवे मिनट पहले।

गायत्री एकदम असहाय हो गयी। वह उठ खड़ी हुई लेकिन चलने को तैयार होने के बावजूद पता नहीं और कितनी देर होगी !

अगले दिन आने का वादा लेकर ही सबने उसे छोड़ा।
"घर पहुँचाने कौन जा रहा है ?" रेखा दी ने पूछा।
जवाब में किसी ने कहा, "अपने शिवाजी भाई गाड़ी लेकर तैयार हैं।"

शिवाजी। यह कौन है भला? गायत्री को ऐसे किसी आदमी के बारे में कुछ मालूम नहीं। क्या पता वह इन लोगों की उमर का है या इनसे बड़ा और बुजुर्ग है। जो भी हो, यह सब सोचकर गायत्री का कलेजा काँप गया। उसकी कहीं घनी मूंछ-दाढ़ी तो नहीं ? उसे मालूम है कि श्रीपति जब इन छोकरों को ही बर्दाश्त नहीं कर पाता तो इस शिवाजी भैया को कितना झेल पाएगा?

एक तो शिवाजी और ऊपर से भैया।
सोने पर सोहागा ! गायत्री ने बेचैनी भरे स्वर में पूछा, "क्यों, तुममें से कोई साथ क्यों नहीं चलता ? उस भले आदमी को क्यों मेरी खातिर परेशान कर रहे हो ?"

हाय रे अनजाने और अनदेखे ! गायत्री की बात खत्म होने के साथ ही बाहर से एक लड़का आया और सामने खड़ा हो गया। जिसे थोड़ी देर पहले भले आदमी का जामा पहनाया गया था उसने बताया कि जब तक काम पूरा नहीं हो जाता, उसे दिन में दो बार घर से ले आने और घर छोड़ आने का भार उसी पर है।

"आइए मैडम..." उसने कहा, “चिन्ता की कोई बात नहीं।"
उसने तो बेधड़क अन्दाज में गायत्री से निश्चिन्त होकर चलने का अनुरोध किया। लेकिन गायत्री की चिन्ता केवल उसकी भलमनसाहत को लेकर ही नहीं थी। बल्कि उस परेशानी को लेकर थी जो भद्रता की आड़ में सामने आती है।
रेखा दी का जीवन सचमुच कितना मुक्त है.? उससे तो केवल ईर्ष्या ही की जा सकती है।

उसके सामने गायत्री अपने जीवन के अपमानजनक पहलू पर भला खुलकर कैसे चर्चा कर सकती है ? उसे कैसे बता सकती है कि शिवाजी के साथ गाड़ी में अकेले जाने के प्रस्ताव को सुनकर उस पर जैसे आसमान ही टूटकर गिर पड़ा है।

नहीं, यह सब उसे नहीं बताया जा सकता। और आसमान के टूट पड़ने के भय को अपने मन से निकालकर वह बिना कुछ बोले कार में जा बैठी।

"कल आ रही है न तू ?" रेखा दी के इस सवाल को टाल जाना गायत्री के लिए बड़ा मुश्किल था। उसने बनावटी गुस्से के साथ कहा, “क्या होगा यहाँ आकर ? काम-काज तो कुछ होना नहीं है। ले-देकर वही अडडेबाजी। मैं कल नहीं आ रही।"

"न आने पर आपको यूँ ही बख्श दिया जाएगा ?" शिवाजी ने हँसकर कहा, "सूखा राहत के लिए जी-जान लड़ाने वालों को ठगना या ठेंगा दिखाना इतना आसान नहीं !"

गायत्री को कोई अच्छा-सा उत्तर नहीं सझ पड़ा। इसलिए वह चप ही रही। उसकी मानसिकता अभी इस तरह की नहीं थी कि शब्दों को ठीक से नाप-तौलकर और सहेजकर रख सके।

पता नहीं...आज भाग्य में क्या बदा है। और शाम भी कम्बख्त वहीं ढलती है जहाँ भूतराम का भय होता है।
गाड़ी से उतरते-न-उतरते ही वह श्रीपति के सामने खड़ी थी।

"रेखा दी खुद पहुँचा गयी," ऐसा ही कोई बहाना बनाकर वह आज की इस यात्रा को निरापद बना रखेगी...लेकिन इस बात की भी कोई गुंजाइश नहीं रही। हालाँकि यह भी सच था कि शिवाजी कोई दैत्य या दानव नहीं था। एक साधारण-सा युवक ही था। उम्र में गायत्री से दो-चार महीने छोटा ही होगा।

श्रीपति घर के सामने पैदल टहल रहा था। घर आते ही...उसने नौकरानी के मुँह से गायत्री के गायब होने की सभी कहानी सुन रखी थी। और इसके बाद पिछले दो घण्टों से वह पिंजरे में बन्द भूखे शेर की तरह चल रहा था। उसने न तो हाथ-मुँह ही धोया था और न जलपान ही किया था।

"इस छोकरे को यार बनाकर कहाँ से पकड़ लायी ?"
गायत्री कुछ समझ न पायी।
"एकदम लोटन कबूतर जैसा लग रहा था।"

गायत्री ने तब तक थोड़ा साहस बटोर लिया था...मन-ही-मन में। उसने तिनककर कहा, "यह क्या उल्टा-सीधा बके जा रहे हो! वह एक भला-सा लड़का, "हाँ, एकदम दूध-पीता बच्चा ही जान पड़ा। खैर...कहाँ से आ रही हो?"

'जहन्नुम से...' गायत्री के मन में आया कि यही कह दे लेकिन वह बोल न पायी। श्रीपति को कहाँ, कौन-सी बात खल गयी है, वही जाने। तभी उसने अपनी नाराजगी को छिपाते हुए कहा, "कुछ न पूछो। आज अचानक दोपहर को अच्छी-खासी मुसीबत गले आ पड़ी। पहले से न कुछ कहा, न कुछ बताया और रेखा दी आ टपकी...और फिर जबरदस्ती गले पड़ गयीं। ढेरों बहाने बनाये कि टल जाएँ पर वे टस-से-मस हों तब न...।"

"टालने की इच्छा हो और गले पड़ी मुसीबत न टले...मैं ऐसा नहीं मानता." श्रीपति का तेवर वैसा ही बना रहा, "आखिर माजरा क्या था...जरा मैं भी तो सन। अचानक रेखा दी के प्यार में ज्वार कहाँ से आ गया...बासी कढ़ी में उबाल की तरह। आखिर कोई बात तो होगी?"

गायत्री ने खिन्नता दिखायी।
"आखिर तुम किसकी इजाजत से दर्जन भर छोकरों के साथ हाय...हाय...करती हुई घर से बाहर निकल गयी ?" श्रीपति के स्वर में विषबुझा व्यंग्य था।

यह ठीक है कि श्रीपति इस तरह के कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करता था। और यह भी सही है कि ऐसा कुछ कहने का मौका भी गायत्री ने उसे कभी नहीं दिया। मौके-बे-मौके वह अपने मैके तक नहीं जाती। और न तो रास्ते पर आने-जाने वाले रेड़ीवाले या फेरीवाले को ही कभी बुलाती है।
"मैं ठहरी एक खरीदी हुई दासी...यह मैं नहीं जानती थी..." कहती हुई गायत्री खिड़की के सामने खड़ी हो गयी ताकि थोड़ी खुली हवा मिल सके।

“और नहीं तो क्या हो ? बस गज भर लम्बी जुबान चलाती रहती हो। तुम्हें पता है कि मैं ऐसे लफडे एकदम पसन्द नहीं करता। आखिर ऐसा क्या था कि रेखा दी को तुम्हारी ऐसी जरूरत पड़ गयी।...मैं भी तो सुनूँ ?"

गायत्री ने सब कुछ झेलते हुए एक गहरी साँस छोड़ते हुए कहा, "रेखा दी नहीं। मेरे मैके के इलाके के कुछ लड़के एक चैरिटी शो कर रहे हैं जिसमें मुझे गाना गाना है।" “अच्छा...सिर्फ गाना गाने के लिए?" एक कुटिल और काली मुस्कान के साथ श्रीपति ने कहा, "नाचने को नहीं कहा ? पूरे देश में और कोई गायिका नहीं मिली ? है न?"
"शायद मुझ-जैसी कोई गायिका नहीं मिली होगी...," गायत्री के चेहरे पर गर्व का भाव था।

लेकिन श्रीपति की मानसिकता ऐसी न थी कि वह इन बातों को हँसी में उड़ा दे। उसने मुँह विचका दिया और जहर उगल दिया, "रूप से रिझाना और गाने सुनाकर पैसे कमाना भले घर की बहू-बेटियों का काम नहीं...समझी ?"

"ऐसी उल्टी-सीधी बातें मत करो...समझ गये..." गायत्री ने भी उलटकर कहा, "वहाँ खड़ी नौकरानी मुँह बाये सब कुछ सुन रही है। और तुम यह किसे सुना रहे हो...? आजकल कौन नहीं यह सब करती है ?"

“जी हाँ...हर कोई करती है। फैशनेबुल घरों की दो-चार औरतों की बेहया हरकतें देख-देखकर तुम लोगों की आँखें चौंधिया गयी हैं...बस ! और यह बात गाँठ में बाँध लो और उन दुधमुंहे बच्चों को भी समझा दो कि यहाँ उनका खोटा सिक्का नहीं चलेगा।...स्सालों को और कोई जगह नहीं मिली।"
गायत्री ने संयत स्वर में कहा, “अब उनसे ऐसा कुछ कहा नहीं जा सकता। मैंने वादा किया है।"
"वादा किया है? अच्छा ! फिर तो ऐसा लगता है कि तुम्हारा दिमाग ही फिर गया है। कल आएँ तो दो-टूक जवाब दे देना कि मेरे पति को यह सब पसन्द नहीं।"
"ऐसा भी कभी कहा जा सकता है ?"

यह सुनकर तो श्रीपति के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह फूट पड़ा, “यह बात नहीं कही जा सकती कि पति को यह सब पसन्द नहीं ? घर की बहू हजार-पाँच सौ लोगों के सामने स्टेज पर ठुमके लगाएगी, गाने गाएगी तो सबको बड़ा अच्छा लगेगा यह सब ?"
"कोई अगर इसे बुरा बताए तो बुरा ही जान पड़ेगा। मैं तो इसमें कोई बुराई नहीं देखती।" गायत्री ने अपने मन-प्राण की सारी शक्ति को बटोरकर कहा।
"तुम भले न देखो। मैं तो देख रहा हूँ...समझी ! और अब ज्यादा जुबान मत चलाओ।"
लेकिन सिर्फ कह देने से ही बात बन सकती है कहीं ! ताश के खेल की तरह एक पत्ते के बाद दूसरा पत्ता फेंका जाता है।

अगर बीवी ऐसी खूबसूरत हो तो ! पति के कलेजे में हमेशा जलती रहनेवाली जंगली आग-सा श्रीपति की बात का एक दूसरा सिरा फिर सुलग उठा, "किसी भले आदमी के घर में आने के लिए अच्छा समय निकाल लिया है...स्सालों ने। दोपहर के सन्नाटे में। दूध पीते बच्चे हैं...हैं न। अभी तक दूध के दाँत नहीं टूटे। मेरे सामने आते...ऐसा मजा चखाता...कि याद रखते।"

"कैसे...जरा में भी तो सुनूँ...धक्का मारकर बाहर निकाल देते ?"
"जरूरत पड़ने पर वह भी करता। और गर्दन पकड़कर बाहर खदेड़ देना तो कुछ भी नहीं है, उन शोहदों का सही इलाज है...चाबुक।"

घुमा-फिराकर वह ऐसी ही बातें करता रहा। श्रीपति को होश नहीं था कि वह क्या कछ कहता जा रहा है। और आखिरी बात कहकर वह जो वाक्य जड़ देता था वह तो जैसे मर्म को और भी बुरी तरह छील देता था।

“पति को यह सब पसन्द नहीं," इस बात की रट लगानेवाली का सिर कैसे झुका दिया जाता है और ऐसी स्त्रियों का स्वभाव और चरित्र कितना ऊँचा होता है, श्रीपति को इस बारे में अच्छी तरह मालूम है। और उन्हें बस में करने का एक ही उपाय है...जूता।
और श्रीपति ने इसी से अपनी बात खत्म की। बात इस तरह खत्म की गयी थी कि गायत्री को आगे कुछ कहने का साहस नहीं हुआ।

आधी रात के बीत जाने पर भी वह जगी हुई थी और यह हिसाब लगा रही थी कि आधी बोतल स्पिरिट से देह की साड़ी अच्छी तरह भीग सकती भी है या नहीं? या फिर...एक मोटी-सी रस्सी का जुगाड़ कहीं से किया जा सकता है या नहीं।...या कि दोतल्ले वाली मुंडेर से नीचे फुटपाथ की दूरी कहीं बहुत ज्यादा तो नहीं। और अगर रात के दूसरे पहर में, किसी को अचानक मौत को गले लगाने का जी करे तो वह क्या खाए कि उसे मुक्ति मिले...ऐसा ही कोई शर्तिया आइडिया।

हालाँकि यह सारे फितूर पिछले दिन की परेशानी से जुड़े थे। और तब तक परेशान करते रहे थे जब तक कि नींद न आ जाए और दिमाग की नसों में खौलता खून जब तक ठण्डा न हो जाए।

सुबह नींद खुलने पर हाथ-मुँह धुलने और नित्य कर्म में कोई कोताही नहीं हुई। सिर पर काम भी कम नहीं। न तो कोई रसोइया है और न ही कोई नौकर। श्रीपति की अनर्थनैतिक असुविधाओं के चलते कोई अर्थनैतिक असुविधा नहीं है।

वह घर के सारे काम आषाढ़ के बादल वाले तेवर के साथ निपटा रही थी।...अब बरसी कि तब बरसी...उसने पूरी तरह सब कुछ तय कर रखा था...भाड़ में जाए यह दो कौडी की जिन्दगी। और इससे जुड़े तमाम सवाल। भले-बरे कल कह दंगी कि मेरा कहीं आना-जाना सम्भव नहीं...बस।

घर की नौकरानी...उसका साहस भी रातों-रात इतना बढ़ गया कि टपक पड़ी. "कल तो बाबू साहब ने बड़ा ही जुलुम ढाया भाभीजी पर। और कैसे नहीं ढाएँ ? इन मर्दो का शक बड़ा खराब है, भाभीजी ! तुम्हें मालूम नहीं, भाभी ! हम अपने ही घर की बात बताय रहे हैं...थोड़ा-सा भी शक हो गया तो मार-मार के पसली ढीली कर देत रहे। तुम लोगन तो बड़े घर की बहू-बेटी हो...तभी देह को कोई हाथ नहीं लगाता है।..."

अपमान का यह चूंट भी उसे खामोशी के साथ पीना पड़ा।
क्या करे वह ? विरोध करे...प्रतिवाद करे ? इससे तो उसे और भी अपमानित होना पड़ेगा।

सुबह से ही श्रीपति ने कुछ नहीं कहा है। गुस्से के चलते नहीं...बल्कि साहस की कमी की वजह से। उसने गायत्री के तेवर को भाँप लिया होगा। कल की झड़प सचमुच बड़ी तीखी हो गयी थी।
उसका जी बड़ा उखड़ा-उखड़ा-सा लग रहा था।
कम-से-कम उसके प्यार में कोई खोट तो न था। और जैसा था...सामने था।

कचहरी जाने के पहले उसने पता नहीं कहाँ से साहस बटोरा और बोला, “ये छोकरे आज भी तुम्हारा सिर खाने आएँगे। उनसे कह देना कि तबीयत खराब है...बस। अरी ओ सखिया...चल...अन्दर से दरवाजा बन्द कर ले।"
श्रीपति के चले जाने के बाद गायत्री ने नौकरानी से कहा कि वह खाना खा ले। इसके बाद वह अपने कमरे में जाकर बिछावन पर लेट गयी।
थोड़ी देर बाद, उसकी नींद तब टूटी जब नौकरानी ने पास आकर कहा, "भाभीजी...खाना तो खा लो।"

“मैंने कहा था न...त खा ले...!" इतना कहती हुई गायत्री उठ खड़ी हुई। तभी सामने आईने पर उसकी निगाह पड़ गयी। उसने आईने के सामने खड़े होकर काफी देर तक अपने को निहारा। बिलकुल पास से...मुड़कर...अगल से...बगल से।
आखिर उसके चेहरे में ऐसा क्या है ? ऐसी क्या खूबी है जिसके कारण श्रीपति मन-ही-मन सहमा रहता है ? उसे तनिक भी चैन नहीं।

इससे तो अच्छा था कि वह एक दुबली-पतली मरियल-सी औरत होती। श्रीपति को इस डर से छुटकारा तो मिलता कि सारी दुनिया उसकी तरफ आँखें फाड़े या मुँह बाये देख रही है। और खुद गायत्री भी निश्चिन्त रहती।
मान लिया कि उसे चेचक हो जाए और उसका चेहरा मोटे-मोटे भद्दे दाग से भर जाए...।
कड़...कड़...तकडंग...!
गायत्री की नितान्त अपनी दुश्चिन्ताओं के बीच तभी यह कैसा आघात हुआ।
कौन होगा ?
शिवाजी ही होगा।
इस समय उसके सिवा और कौन होगा ?

चेचक के दाग से कुरूप और हाड़-पंजर के रूप में कुत्सित हो जाने की तैयारी को स्थगित रखकर उसने जल्दी-जल्दी बालों पर कंघी फेरी और फिर पहनी हुई साड़ी उतारकर एक नयी डोरिया साड़ी निकाल ली। उसे पहनते-पहनते ही वह नीचे उतर आयी।

नौकरानी ने तब तक दरवाजा खोल दिया था।
सामने सिर्फ शिवाजी ही नहीं, रेखा दी भी खड़ी थी।
उन दोनों के सामने गायत्री को कहना था, 'मेरा जाना सम्भव नहीं। इसकी वजह यह है कि मेरे पति यह सब पसन्द नहीं करते।'
अगर उस समय गायत्री का गला भी काट दिया जाता तो क्या उसकी जुबान से यह बात निकलती।

गायत्री को देखा नहीं कि रेखा दी चालू हो गयी, “अच्छा...तो अब जाकर महारानी की नींद टूटी। वाह, क्या कहना है ! दरवाजे की कुण्डी हिलाते-हिलाते मेरी कलाई पर बल पड़ गये...हाय... । अब देखना है श्रीमती जी का चलने के बारे में क्या इरादा है ? चलोगी न !"

अच्छे बच्चे की तरह सिर हिलाकर एक भोली मुस्कान के साथ गायत्री ने कहा, "न जाने पर तुम लोग मेरी जान को थोड़े न बख्श दोगी? दोपहर के समय थोड़ा आराम कर लेती थी उससे भी हाथ धोना पड़ा। पता नहीं, कल कैसे लुटेरों का हमला हुआ?...कल रात घर लौटी तो देखा बीवी की गैरहाजिरी में मियाँ का मिजाज ही उखड़ा हुआ है। चाय नहीं पीनी, खाना नहीं खाऊँगा...तो...नहीं चाहिए...जरूरत नहीं...यही सब नखरे-तिल्ले... । आज तो मेरी किस्मत में मार ही लिखी है। और कुछ नहीं तो मुँह पर भडाम से दरवाजा ही बन्द हो जाएगा।"...गायत्री कह रही थी और हँस-हँसकर दोहरी भी हुई जा रही थी।

"चलो...जो नसीब में लिखा है...वह तो होकर रहेगा।"
गायत्री आगे बढ़ आयी और बोली, “सुखिया...दरवाजा बन्द कर ले....।"

लेकिन इसी बन्द दरवाजे को खुलवाकर क्या वह इस घर के अन्दर आ पाएगी? या कि यह दरवाजा इस जनम में फिर खुलेगा भी ? श्रीपति क्या उसे दोबारा अपने घर में घुसने भी देगा ? क्या पता, उसे मारे-पीटे ? इनमें से कुछ भी हो सकता है...सब सम्भव है। उसकी नौकरानी की यह धारणा कि बड़े घर की बहू-बेटी की देह को कोई हाथ नहीं लगाता, एकदम गलत है।

सिर्फ एक दिन के लिए नहीं...या फिर अचानक किसी खास दिन के लिए नहीं...हर दिन किसी-न-किसी बहाने भरी दोपहर को गायत्री घर से बाहर निकल जाएगी-गाने का रियाज करने और करवाने। और अन्त में वह स्टेज पर सज-धजकर गाना गाएगी जिसे सुनने के लिए वहाँ हजारों लोग इकट्ठा होंगे।
इस बात पर भी श्रीपति का दिमाग कैसे खराब न हो तो फिर किस बात के लिए हो।

गायत्री भी इस मामले में क्या करती ? उसने सुबह से ही, कई-कई बार कसमें खा रखी हैं कि कोई बुलाने आया तो वह साफ मुकर जाएगी। उन्हें खाली हाथ लौटा देगी और कहेगी, 'मैं लाचार हूँ...किसी की लौंडी हूँ...मेरे मालिक यह सब पसन्द नहीं करते।
लेकिन वह यह सब नहीं कह पायी।
दूसरों के सामने अपना सिर कहीं इस तरह नीचा किया जा सकता है ? वह श्रीपति के हाथों भले ही पिट जाएगी लेकिन लोगों की निगाह में गिर नहीं सकती।...

हो सकता है, अपने जीवन को इसी तरह तबाह कर देना पड़े...दुतकार सहनी पड़े...फटकार झेलनी पड़े...और यह भी सम्भव है कि उसे जूते खाने पड़ें। लेकिन वह अपनी घिनौनी और बेहूदी घरेलू जिन्दगी के बारे में लोगों को तनिक भी संकेत नहीं देगी।...ऐसा होने को हुआ तो वह तमाम लोगों के सामने जी-जान से ऐसा चटख रंग-चढ़ाएगी...जिससे कि उनकी आँखें चौंधिया जाएँ।
इसके सिवा वह और कर भी क्या सकती है ? और सिवा इसके उपाय भी क्या है?
तो क्या वह बगावत कर दे?

पगली कहीं की? आखिर वह कोई बच्ची नहीं रही। विद्रोह का झण्डा उठाकर और लोगों को अपने ऊपर हँसने का मौका देकर। श्रीपति को दस लोगों की नजरों से गिराकर आखिर वह किस बूते पर लोक-समाज के शिखर पर चढ़ पाएगी?
एक ऐसी पत्नी के रूप में जो पति को अपने आँचल में बाँध न पायी। और जिस पर लोग-बाग तरस खाएँ या उसकी कोई कदर ही न करें।
...ऐसी स्थिति में अपने सूने आँचल की गाँठ को और भी बड़ा कर बाँध रखने और लोक-समाज के सामने उसे दिखाने से बचने का आखिर क्या उपाय है?

(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)