जितना तुम्हारा हूँ (कहानी) : ममता कालिया
Jitna Tumhara Hoon (Hindi Story) : Mamta Kalia
लाउँज से वह जगह नहीं दिख रही थी, जहाँ रघु का जहाज़ उतरने वाला था। अच्छी जगहें पहले से ही भर गई थीं। लाउँज की काँच की दीवारों से सटी एक छोटी-सी आतुर भीड़ थी—चश्मे के शीशे साफ करती, एड़ियाँ उचकाती, घड़ी देखती, सूट की सलवटें मिटाती। पालम तक आते-आते कई बार श्वेता को टैक्सी में लगा था कि टैक्सीवाला उसे पालम पहुँचाने की बजाय कहीं भगा ले जा रहा है। खिड़की से दिखते सड़कों के मोड़ उसे जरा भी पहचान नहीं आ रहे थे। इसके पहले वह सिर्फ एक बार पालम आई थी—साल-भर पहले, रघु को विदा देने। तब मन कुछ इस तरह सुबक रहा था कि रास्ते की ओर डबडबाई आँखें कुछ देख ही नहीं पाई थीं।
आज जब रघु की फ्लाइट उतरने में सिर्फ बारह मिनट बाकी थे, श्वेता को बार-बार पिछली अट्ठाईस अगस्त याद आ रही थी, जब रघु ने इस नीचे वाले लाउँज में अपनी फ्लाइट नंबर की उद्घोषणा सुनने के साथ-साथ श्वेता को बाँहों में भर लिया था, ‘हँसते हुए विदा दो डार्लिंग!’ वह हँस नहीं पाई थी। हँसने और रोने के बीच की स्थिति में उसके होंठ फैले थे और फिर एक उड़ते जहाज़ की थरथराहट अपने पैरों में लिए वह वापस आ गई थी।
फ्लाइट नंबर एनाउंस हुआ। श्वेता झटके से आज की तारीख में लौट आई। कस्टमर काउंटर पर यात्री आने लगे थे—सूटकेसों में लदे-फँदे कंधे पर कैमरा, बाँह पर कोट और एयर बैग लिए। कुछ हिप्पी लड़के-लड़कियाँ थे, जिनके पास सामान नाममात्र का था, लेकिन जिन्हें कस्टम-क्लियरेंस में बड़ी देर लगी।
तभी उसे रघु नज़र आया।
वह भी लगभग तमाम यात्रियों जैसे हुलिया में था—दोनों हाथों में सूटकेस, एयर बैग और कोट थामे। कुछ देर पहले श्वेता ने सोचा था कि जब वह रघु को देखेगी तो कहीं उत्तेजना में लाउँज की दीवार का काँच उससे टूट न जाए।
रघु को उसने देख लिया था, लेकिन उससे ऐसा कुछ नहीं हुआ था। रघु को मुख्य द्वार से बाहर निकलते देख वह झट से लाउँज की सीढ़ियाँ उतर गई।
रघु को शायद किसी के भी आने की उम्मीद नहीं थी। वह टैक्सी के इंतजार में था। श्वेता को सामने पाकर वह चौंक गया, ‘‘अरे, तुम आई हुई थीं! मुझे लिखा ही नहीं।’’
श्वेता नमस्ते, हैलो या मुस्कराने जैसे कुछ भी नहीं कर पाई। उसकी नजर रघु के सुंदर चेहरे पर टिकी थी, जो इस बीच कुछ और सुंदर हो गया था। रघु ने उसे छूने के खयाल से हाथ बढ़ाया, तभी दन्न से टैक्सी सामने आकर रुक गई।
‘‘अकेली आई हो या साथ में कोई और भी है?’’
श्वेता को हलका-सा गुस्सा आया, और कौन हो सकता था साथ में? क्या माँजी एयरपोर्ट पर आतीं अपने प्यारे गठिया, मधुमेह और कब्ज को साथ लिए, या वे दब्बू भाई साहब, जो अपनी पत्नी से दिल्ली आने के लिए मुद्रा या मंजूरी माँगते समय बेहोश भी हो सकते थे!
वह खुद कितनी मुश्किल से निकल सकी थी।
टैक्सी में रघु ने श्वेता का हाथ कसकर अपनी हथेली में जकड़ लिया।
ड्राइवर ने पूछा, ‘‘कहाँ जाना होगा साहब?’’
श्वेता कहने वाली थी, ‘स्टेशन’, लेकिन तब तक रघु ने कह दिया, ‘‘सरदार जी, कोई अच्छा होटल होगा?’’
‘‘टैक्सी ‘रनजीत’ पर रुकी तो श्वेता ठिठक गई। उसने सोचा था, पहले की ही तरह रघु ने चाय की तलब पर रेस्तराँ को होटल कह दिया है, लेकिन रघु बेफिक्र और आश्वस्त पोर्टिको में बढ़ गया। श्वेता का मन अचानक आलोचनात्मक हो आया। रघु सामान पोर्टर को सहेज, उसे लेकर लिफ्ट से चौथी मंजिल पर आ गया।
जो आदमी उनके साथ आया था, टेलीफोन और इंटरकॉम दिखा गया। रिशेप्शन और इंक्वायरी के नंबरों का कार्ड उसने मेज़ पर रख दिया, फिर वह गुसलखाने में तौलिया और फ्लास्क में पानी चैक कर चला गया।
कुछ देर तक उन्हें किसी भी चीज़ की जरूरत नहीं पड़ी थी।
तुरंत बाद रघु ने नीला सूटकेस खोलकर श्वेता के ऊपर उपहार बिछाने शुरू कर दिये थे, ‘‘यह तुम्हारे लिए है, और यह, और यह…’’
खुशी और चहक का ज्वार थमने पर श्वेता ने पाया, उनमें से अधिकांश चीज़ों का इस्तेमाल वह नहीं जानती। कपड़े भी अजीबोगरीब थे—
पारदर्शी नाइटीज़ पैंटीज़ और ब्रा। माँजी और भाभी की दारोगा निगाहों के बीच इनका क्या उपयोग होगा, उसने सोचा।
रघु ने चार अंगुल का एक वस्त्र निकाला, ‘‘डार्लिंग, इसे अभी पहनकर दिखाए, हॉट पैंट्स। शिकागो में मेरी मकान-मालकिन जब सौदा लेने निकलती थी, बस हॉट पैंट्स और टॉप पहनती थी। कसम खुदा की, उसे देखकर सोच नहीं सकते थे कि वह चार बच्चों की माँ है।’’
रघु ने फोन पर कॉफी और सैंडविचेज का आर्डर दे दिया।
श्वेता अब भी ‘कवर गर्ल आइज़’ का पैकेट हाथ में लेकर देख रही थी और सोच रही थी कि इलाहाबाद में ये प्रसाधन धारण कर वह कहाँ जा सकेगी? उसे अपनी वह सँकरी, सीली गली याद आई, जहाँ संकोचवश वह कभी चटख लिपिस्टिक लगाकर भी निकलने का साहस नहीं कर पाई। उसे निराशा हुई कि रघु उसके लिए एक भी साड़ी नहीं लाया। उसने उम्मीद की थी कि कम से कम एक दर्जन ‘वुली’ साड़ियाँ सूटकेस में से निकलेंगी। रघु ने पास आकर उसे एक नर्म जगह गुदगुदा दिया।
श्वेता को लगा, थोड़ी देर पहले भी लगा था, रघु कुछ ज़्यादा ही कुशल हो गया है। परफेक्ट-सा। पहले तो वह अकेले में भी अटपटा-सा रहता था। छेड़छाड़ और प्रेम अँधेरे के अध्याय थे।
शुरू-शुरू में उलझन हुई थी। सहेलियों के बीच अनुभव के नोट्स मिलाने पर उदासी ही हाथ लगी थी। फिर चपलता और आवेश अपने आप जड़ता के कोल्ड स्टोरेज में पहुँचते गए थे—माँजी और भाभी की कड़वी गुर्राहटों के बीच।
श्वेता को महसूस हुआ, रघु ने अभी तक एक भी बार यह नहीं पूछा कि वह इस बीच कैसी थी, कैसे थी। रघु की पूरी मुद्रा एक मस्त और बेफिक्र आदमी की थी। साल ही भर में उसने न जाने कैसे इतनी मस्ती हासिल कर ली थी! श्वेता तो इस बीच पस्ती का पर्याय बनती गई थी। घर अगर एक संज्ञा था, तो वह उसमें एक सर्वनाम की तरह रहती रही थी। रघु के चले जाने के बाद उसे लगा था, जैसे वह रातोंरात एक अननबी डेरे में छोड़ दी गई है।
सुबह-सुबह भाभी उठकर कहतीं, ‘‘श्वेता, मेरे नाहने का पानी गरम कर दे।’’
उसे पता था, भाभी सुबह-सुबह क्यों नहाती हैं। एक-दो बार चाय देते समय वह वह उनसे छू गई थी। भाभी ने उसे डाँट दिया, ‘‘धोती बचाओ अपनी! देखती नहीं, हम मर्दों के पास से आई हैं। नहा लें, तब छूना।
भाभी अपने पति के लिए बहुवचन का प्रयोग करती थीं, जबकि डील-डौल में एक वचन भी नहीं थे।
कभी-कभी वह पड़ोस में घूमने निकल जातीं और लौटकर श्वेता से पूछतीं, ‘‘मर्दों को खाना दे दिया?’’
नहाने के बाद रेशमी साड़ी में चंदन और सिंदूर की बिंदी लगा जब वह रसोई में घुसतीं, उन्हें देखकर श्वेता की समस्त कल्पनाशक्ति हतप्रभ हो जाती।
फिर माँजी उठतीं, अपने फोड़े के लिए हल्दी के गर्म छुनछुने की फरमाइश के साथ।
भाई साहब जब तक अखबार पढ़ते रहते, निहायत इत्मीनान में रहते। अखबार खत्म करते ही एक भिन्न प्राणी होते, हड़बड़ी मचाते, तौलिया ढूँढ़ते, खीझते, झुँझलाते। घर उनकी तैयारी में इस तरह लग जाता, जैसे वह हफ्तों के लिए बाहर जा रहे हों। लेकिन शाम तक वह फिर घर में होते। सुस्त चाल और थका चेहरे लिए वह दफ्तर से लौटते हुए इस शहीदाना भाव से कि उन्होंने घर के लिए प्राणों की बाज़ी लगाई हुई है। भाभी और माँजी उनकी मिजाज़पुर्सी करती हुई उनके इर्द-गिर्द मँडरातीं। श्वेता फुर्ती से नाश्ता तैयार करती।
इस दैनिकता में दिलचस्पी की गुंजाइश कहाँ थी! श्वेता ने कई बार सोचा था, क्या ऊब नापने का कोई थर्मामीटर नहीं आता?
वह रघु को पत्रों में अपनी मनःस्थिति के बारे में लिखती, लेकिन सांकेतिक ढंग से। यह संकेतात्मकता उसने संयुक्त परिवार में रहते-रहते सीखी थी। यह इसलिए भी ज़रूरी थी, क्योंकि श्वेता आज तक यह तय नहीं कर पाई कि रघु कितने प्रतिशत उसका है और कितने प्रतिशत घर का। ऐसी दुविधाएँ शादी के पहले नहीं उठती थीं, जब रघु उसकी हथेली भींचकर कहता था, ‘सच श्वेता, अगर तुम मुझे नहीं मिलीं, तो मैं सारे शहर में आग लगा दूँगा, बाई गॉड!’ तब तो लगता था, वाकई रघु शत-प्रतिशत उसी का है। रात के अँधेरे में वह तय करती कि रघु को वह किसी के साथ नहीं बाँटेगी, किर्च-भर भी नहीं।
लेकिन अब उसे रघु की चिट्ठियाँ भी बाँटनी पड़ती थीं—सामूहिक पाठ के लिए।
भई साहब और भाभी जब बाहर जाते थे, श्वेता का घर में रहना अनिवार्य हो जाता। उसके मनबहलाव के लिए माँजी और उनकी दवाइयाँ पर्याप्त समझी जातीं।
न जाने इनमें से कौन-सी बातें श्वेता रघु को बताना चाह रही थी, लेकिन रघु इस वक्त बिस्तर पर टाँगें क्रॉस कर लेटा हुआ उसे उन औरतों के बारे में बता रहा था, जिनकी शादी नाम की संस्था से आस्था हट चुकी है और उन्होंने प्रतिक्रिया में पुरुषों के एक समूचे समूह से विवाह करना स्वीकार किया है।
रघु ने सूटकेस से एक सचित्र पत्रिका निकाली, ‘‘आओ, तुम्हें दिखाएँ।’’
फ्रेंच पत्रिका के मध्य पृष्ठ पर कुछ नग्न आकृतियाँ थीं—अलग-अलग स्थल विशेष को उभारतीं। चित्रों में अंकित जिस्म अद्भुत रूप से ताज़े और चिकने थे।
‘‘औरतों में तुम्हारी दिलचस्पी कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई लगती है!’’
‘‘तुम्हें खुश होना चाहिए, नहीं क्या?’’
श्वेता के मन में बड़ी ज़ोर से यह बात अचानक उठी कि रघु को शिकागो में एक ऐसी निर्लज्ज औरत के मकान में नहीं रहना चाहिए था, जो चार बच्चों के बाद भी अधनंगी घूमती थी। उसके पति ने उसे कैसे इजाज़त दे रखी थी? उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने इस खूबसूरत, अलमस्त, जोश में फड़फड़ाते पति से वह ऐसे ज़रूरी मसलों पर बातचीत कैसे छेड़े?
बहस-मुबाहिसे की बेतकल्लुफी तब भी नहीं कायम हो पाई थी, जब शादी के एक साल बाद रघु का मैनेजमेंट ट्रेनिंग पर शिकागो जाने का प्रोग्राम बन गया था।
श्वेता ने साथ जाने की इच्छा दिखलाई थी।
माँजी ने डपट दिया था, ‘इतना पैसा फूँकने से मतलब? यह तो वहाँ पढ़ेगा, और तू?’’
श्वेता ने रघु की तरफ देखा था, लेकिन रघु दीवार की तरफ देख रहा था। श्वेता फिर भी दीवार की तरफ देखने लगी थी।
श्वेता के लिए यह कहना मुश्किल था कि यह रघु का मूल स्वभाव था कि वह, जिसके अंतर्गत उसने शादी के पहले गज़ब की आत्मनिर्भरता दिखाई थी।
इस प्रसंग से रघु के घरवाले भी उतने ही खिन्न थे, जितने श्वेता के।
रघु ने कहा था, ‘तुम सबकी सहमति माँगती ही क्यों हो? मेरे और तुम्हारे बीच तुम्हारे घरवाले क्या अर्थ रखते हैं?’
पलटकर यही बात श्वेता रघु के संदर्भ में नहीं कह सकी थी। उसके घर का ठीक-ठाक अंदाज़ा भी नहीं था।
माँजी नहीं चाहती थीं कि उनके घर मछली-भक्षी बंगाली बहू आए।
लेकिन रघु की ज़िद थी, उसके घर श्वेता ही आएगी, श्वेता भादुड़ी।
एक दिन उसने सचमुच श्वेता को लाकर माँजी के सामने बिठा दिया। श्वेता ने आँखें नीची किए-किए कल्पना की, एक विस्फोट की, जिसमें उसके चिथड़े उड़ जाने की संभावना थी।
लेकिन माँजी ने कुछ देर उसे एकटक घूरने के बाद सोने की एक बारीक ज़ंजीर पहना दी थी।
यहीं से प्रताड़ना का इतिहास शुरू हुआ था।
रघु ने घर में युद्धबंदी की घोषणा के साथ-साथ सारे हथियार डाल दिए। वह माँजी के महान् आचरण पर मुग्ध और अभिभूत था। शायद महान् आचरण सिर्फ बूढ़ों की बपौती होती है।
श्रम तो श्वेता ने भी कम नहीं किया था। वह रोज़ अपनी यात्रा प्रतिकूल से अनुकूल की ओर तय करती और रोज़ पाती, उसे फिर वहीं से शुरू करना है, जहाँ से वह चली थी।
उसे लगता, घर में उसे महज़ प्रवेश मिल गया है, स्वीकृति नहीं।
माँजी सुबह से घर में ‘मोबाइल कोर्ट’ की तरह घूमती रहतीं। उनकी अदालत में श्वेता की कई बार पेशी हो जाती।
ये कार्य अक्सर रघु की अनुपस्थिति में होते। अगर कभी वह मौजूद होता तो उन्हें कुछ ऐसा मोड़ दिया जाता कि श्वेता के अलावा बाकी परिवार एकदम निरपराध सिद्ध हो जाता।
माँजी का मनोबल बढ़ाने के लिए रघु श्वेता को सबके सामने डाँट देता। श्वेता का मन होता, वह फौरन इन सबके खिलाफ एक विरोधपत्र लिखकर हमेशा के लिए यहाँ से रवाना हो जाए। एकांत में वह रघु से एक साफ और लंबी बहस करना चाहती, लेकिन रघु वह क्षण आने ही न देता।
माँ के इतने बड़े बलिदान के बाद वह उन्हें गलतियों से परे मानता था। इस सबके बीच भाभी एक चिनगी की तरह कभी एक झाड़ी सुलगा आतीं, तो कभी दूसरी।
रघु एक पहुँचे हुए संत की तरह श्वेता को धैर्य का मूल्य बताता। तब शादी की पहली सालगिरह भी नहीं मना पाई थी, इसलिए श्वेता भी आक्रोश के उबाल को नववधू के सलज्ज आवरण में ढक सौम्य बन जाती।
लेकिन इस वक्त श्वेता को लग रहा था कि दांपत्य जीवन में ऐसी आपातस्थिति अनियत काल के लिए नहीं चल पाएगी।
वेटर खाना रख गया तो रघु ने सूटकेस से बोतल निकाली—चौकोर और लंबी।
‘‘यह रोग भी लगा लाए!’’
‘‘हाँ, और आज तुमको भी लगा देंगे। सच पूछो तो सिर्फ इसके और तुम्हारे लिए मैं आज यहाँ टिक गया।’’
‘‘मेरा नंबर पहला है या दूसरा?’’
‘‘दिल तोड़ने वाली बातें न करो इस वक्त।’’ रघु ने गिलास तैयार किए। श्वेता ने सोचा, उसके जीवन में इसी तरह सच्ची बातें स्थगित होती रहेंगी, दिल साबुत रखने की कीमत।
इस वक्त रघु ने अपने आसपास वही माहौल रच लिया था, जो विदेश में वह रचना चाहता रहा था।
लेकिन श्वेता की चेतना की एक सतह लगातार कलह मचाए थी। यह कमरा, यह एकांत, यह नज़दीकी, यह तन्मयता, यह प्रियता, सब उसे एक रात की मिल्कियत दिखाई दे रही थीं। उसकी असली दुनिया से यह दुनिया बिलकुल कटी हुई थी, जबकि दोनों के बीच सिर्फ एक रेल-भर दूरी थी। उसे लग रहा था, कुछ ही घंटों बाद वह उसी जगह पटक दी जाएगी, जहां त्योरी और तेवर की भाषा इस्तेमाल होती है और जहाँ पहुँचते ही रघु को कुछ इस तरह हथिया लिया जाएगा कि उसके हिस्से रघु के मैले कपड़ों के सिवा कुछ नहीं आएगा।
वह रघु से कहना चाहती थी कि उस घर में उसका मन नहीं लगता। उसका मन पिछले एक साल से नहीं लग रहा था। वह कहना चाहती थी, उसे एक समूचा रघु चाहिए। रात दस बजे के बाद वाला रघु नहीं, जो अपनी धीमी फुसफुसाहटों में उसे भी दबा डालता है। वह समझ नहीं पा रही थी कि ये बातें मुँह से निकल क्यों नहीं रही थीं?
‘‘तुम तो बड़ी कुशलता से पी रहे हो…धीरे-धीरे, होश-हवास कायम रखते!’’ रघु ने कहा।
‘‘शादी के बाद से ही होश कुछ इस तरह आया है कि जाता ही नहीं!’’
‘‘तुम लड़ने पर क्यों उतारू हो?’’
‘‘और तुम लीपापोती पर,’ श्वेता ने कहना चाहा, पर वह नहीं कह पाई और इस न कह सकने पर उसे अपने से नफरत हो आई।
‘‘शिकागो में जब बर्फ गिरने लगती थी, हफ्तों धूप का नामोनिशान नहीं दिखता था। जब अपने अपार्टमेंट में बैठे तुम्हें याद करने के सिवा और कुछ नहीं किया जा सकता था।’’
तत्काल श्वेता के मन में वे खुले और धूपदार दिन कौंध गए, जिनका हिसाब रघु से माँगा नहीं जा सकता था।
‘‘और…?’
‘‘आर बस, जरा-सी तबीयत खराब होने पर घर की याद आती थी, तुम्हारी याद आती थी…’’ ‘‘मैं तुम्हें हमेशा किसी न किसी चीज़ के साथ याद आती थी?’’ श्वेता हँस पड़ी।
‘‘हाँ, क्योंकि जितना मैं तुम्हारा हूँ, उतना ही हवाओं का हूँ, दिशाओं का हूँ, रास्तों का हूँ, पड़ावों का हूँ, महफिल का हूँ, मंज़िल का हूँ।’’
‘‘उतना ही मैं चालाकियों का हूँ, चालबाज़ियों का हूँ, चापलूसी का हूँ, दकियानूसी का हूँ…’ श्वेता के मन की यह चुभती कील बाहर नहीं झाँकी, बस, उसी की खुशी के ताबूत में मज़बूती से ठुँक गई।
अच्छे ड्रिंक, अच्छे भोजन और अच्छी बातों के बाद रघु अच्छे बिस्तर पर अच्छी तरह सो गया।
अनिद्रा के अनुभव से गुज़रती श्वेता सोचती रही कि आज दोपहर रघु शिकागो से लौटकर आया था या शिकोहाबाद से?’’