जिस मरने से जग डरै : गुरबचन सिंह भुल्लर

Jis Marne Se Jag Darai : Gurbachan Singh Bhullar

पिछले कई वर्षों के बने नियमानुसार आज भी रामसिंह मुँह अँधेरे उठा था, मुँह में दातुन डाल वह जंगल-पानी गया था और गुरुवाणी का पाठ करते हुए उसने स्नान किया था। परन्तु आज वह गुरुद्वारे जाने की बजाए कोठरी में पड़े पलंग पर जाकर लेट गया था। उसकी आँखें छत की कड़ियों पर टिकी हुई थीं, जैसे वह छत से पार खाली आसमान को देख रहा हो।

उसकी पत्नी को गुजरे आज तीसरा दिन हो गया था और वह महसूस कर रहा था कि भजन-बंदगी के सभी साधन भी उसके अस्थिर मन को शांति देने में एकदम नाकामयाब सिद्ध हो रहे थे।

जब से रामसिंह ने बड़े सन्त जी से अमृत लिया था और गुरुवाणी में आनन्द लेना आरम्भ किया था, वह मृत्यु को पूर्ण परमानन्द की प्राप्ति समझने लगा था। अड़ोस-पड़ोस में कहीं कोई मौत हो जाती, लोग राम सिंह को आखिरी प्रार्थना करने के लिए बुलाते। वह प्रार्थना करता, चिता को आग दी जाती और वह एकत्रित हुए लोगों को जलती चिता से दूर खड़े होने पर, रास्ते से गुजरते हुए तथा चौपाल पर बैठे लोगों को गुरुवाणी में से प्रमाण देकर उन्हें समझाता तथा धीरज बँधाता।

मौत के बारे में सोचकर वह स्वयं कभी भी भयभीत नहीं होता था। उसकी निगाह में मौत, मनुष्य को अनात्म से, आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाला पल था।

देहान्त से दस-बारह दिन पहले जब बचिन्त कौर कुछ बीमार हुई थी तब उसकी मौत हो जाने के बारे में तो रामसिंह ने सोचा भी नहीं था। वैसे भी वह मौत को एक परिवर्तन ही मानता था। जब दवा-दारू के बावजूद बचिन्त कौर के बचने की उम्मीद कम नज़र आने लगी, तब भी रामसिंह घबराया नहीं था। आखिर बचिन्त कौर के शारीरिक अंगों ने साथ देना छोड़ दिया। तब भी रामसिंह उसके सिरहाने बैठा पाठ करता रहा था और उसकी आँखों में नमी नहीं आई थी।

फिर बचिन्त कौर जोर-जोर से आखिरी साँसें लेने लगी, तो रामसिंह ने उसके पास से उठकर, गुरुद्वारे से लाए 'जल' का चम्मच स्वयं उसके मुँह में डाला था।लेकिन वह अंदर जाने की बजाए बाहर की ओर ही निकल गया तो रामसिंह ने पास बैठे अपने भतीजों से कहा था, 'लो भई लड़को, तुम्हारी ताई तो चली बैकुंठधाम।"

परिवार के लोग रोने-पीटने लगे। पड़ोसी इकट्ठे होने लगे। लेकिन रामसिंह गुजर चुकी पत्नी के निकट बैठा “जो आया सो चलसी सब कोई आई बारी ऐ" दुहरा रहा था और मनुष्य के जीवन के नाशवान होने का उदाहरण दे, रोते सगे-सम्बन्धियों को धीरज रखने तथा मौन रहने की शिक्षा दे रहा था।
बचिन्त कौर को चिता पर लिटा रामसिंह ने स्वयं आखिरी प्रार्थना की, अपने हाथों से मुखाग्नि दी। घर आकर स्वयं प्रसाद तैयार कर अर्थी से वापस लौटे लोगों में बांटा था। उसके बाद भी वह चौपाल पर बैठे लोगों को गुरुवाणी में से हवाले दे कर इस शरीर की नश्वरता के बारे में सुनाता रहा था :

'चिन्ता ता की कीजिए जो अनहोनी होए।
एह मारग संसार को नानक थिर नहीं कोए....।।'

लेकिन अब शून्य में देखते हुए रामसिंह सोच रहा था कि बात इतनी आसान नहीं थी, जितनी बह समझता रहा था। परसों की शाम तथा आधी रात तो चौपाल पर जुड़े लोगों के साथ बातें करते हुए बीत गई थी। रात के पिछले पहर ही कहीं आँख लगी थी। कल सुबह गुरु ग्रंथ साहब का प्रकाश करके वह कितनी देर तक पाठ करता रहा था। बाद में अफसोस करने आए लोगों से वचन-विलास करते शाम हो गई। लेकिन इस उनींदी रात में उसे कई बार अजीब-अजीब से स्वप्न आते रहे थे तथा उसकी आँख कई बार खुली थी।

कभी उसे लगता कि बचिन्त कौर उसके सिरहाने खड़ी है, कभी वह देखता कि बचिन्त कौर उड़ती जा रही है, उड़ती ही जा रही है, ऊपर ही ऊपर, खुले आकाश में। कभी उसे नज़र आता कि बचिन्त कौर साक्षात् उसके सामने खड़े-खड़े ही राख के ढेर में बदल गई है और हवा के झोंकों से वह राख चारों ओर बिखरती जा रही है। हर बार करवट ले और वाहे गुरु-वाहे गुरु कह कर उसने सोने का यत्न किया, लेकिन उसे नींद बहुत कम आई थी।
आज का दिन बीती रात से भी ज्यादा बोझिल लग रहा था। रामसिंह बार-बार अपनी सोच को रोकता, लेकिन वह बार-बार उसके चंगुल से निकल बिखर जाती। वह चाहता था कि उसे आपबीती की कोई बात याद न आए। वह बस पत्थर के समान चारपाई पर भावहीन सा पड़ा रहे, पड़ा ही रहे।

लेकिन उसके बीते वर्षों की किताब बार-बार उसकी आँखों के सामने स्वयं ही खुलती जाती थी।
रामसिंह ने अपनी जवानी के समय खेती-बाड़ी का काम किया था। कुछ साल विवाह से पहले और कुछ साल बाद में भी। फिर वह 'सिंह' बन गया। कुछ भजन-बंदगी की लगन, कुछ जवानी का बीतते जाना और निःसंतान होना। इन सभी कारणों से उसने कृषि छोड़ दी। कोल्हू के बैल की भाँति कमाता भी तो किसकी खातिर? वह और बचिन्त कौर, दो ही तो जीव थे खाने वाले। उन्होंने ज़मीन ठेके पर दे दी। उसके जीवनयापन के लिए वह काफी थी। अपने भाई-भतीजों से वह अलग हो गया। लेकिन नम्र स्वभाव का होने के कारण, अलग होने के बावजूद उसके सभी के साथ सम्बन्ध पहले की भाँति ही बने रहे।

रामसिंह के भतीजों को भी ज़माने की हवा नहीं लगी थी। न उन्होंने कभी बाप के सामने आँख ऊँची की थी और न ही कभी ताऊ के आगे बोले थे।

रामसिंह उठता अभी भी सुबह-सवेरे ही था, जब किसान हल जोतते थे। जंगल-पानी जाकर नहाता और पूजा-पाठ करता। इतने में बचिन्त कौर चाय बना लाती। वह गुरुद्वारे से लौटता तो खाने का समय हो चुका होता। दोपहर के समय वह कोई जन्म-कथा, तवारीख या कोई और ग्रन्थ पढ़ता और बचिन्त कौर सुनती रहती। दिन ढले वह खेतों की ओर चल देता-एक तो सैर हो जाती और साथ ही फसलों पर नजर डाल आता। शाम को घर आ, वह करने वाला कोई छोटा-मोटा काम निपटा लेता। हाथ-मुंह धोकर शाम के समय की पूजा-अर्चना करता और बचिन्त कौर से छोटी-छोटी बातें करते हुए सो जाता।

रामसिंह के जीवन में न कोई बड़ा दुख था और न किसी बड़े सुख की वह तलाश में था। न उसे कोई गम था और न ही उसे किसी बड़ी खुशी की इच्छा थी। दिन आते थे, जाते थे। दोनों पति-पत्नी शांत नदी के पानी की भाँति बहते जा रहे थे-न कोई शोर, न ही चंचलता।

गुरुवाणी के प्रभाव के कारण वह समझता था कि मनुष्य चौरासी योनियों के फेर में इस संसार में आता है और योनी की पूर्णता के बाद चला जाता है। इस दुनिया की भौतिकता से उसने एक दूरी बनाई हुई थी। कमल के फूल की भाँति जल में रहकर भी वह एकदम निरपेक्ष था। किसी भी वस्तु, किसी भी व्यक्ति के साथ उसका ज्यादा मोह नहीं था। इसीलिए उसका किसी से भी कोई वैर-भाव नहीं था।

अधेड़ उम्र में उसने सम्बन्धियों के घरों में भी जाना कम कर दिया था। सम्बन्धी आते, उसके भाई से मिलते, उससे भी मिल कर चले जाते। उसकी सारी दुनिया बचिन्त कौर तक ही सीमित थी। यदि उसने कभी कोई काम करवाना होता या उसे किसी वस्तु की आवश्यकता होती, उसके भाई के परिवार ने उसे कभी निराश नहीं किया था। भाई-भतीजों में से कोई भी उसे इनकार नहीं करता था।

बचिन्त कौर को उसकी प्रत्येक आदत, उसके सभी कार्यों का समय, उसकी प्रत्येक जरूरत के बारे में मालूम था। रामसिंह को अपनी किसी ज़रूरत के बारे में बचिन्त कौर से कभी कुछ कहना नहीं पड़ता था। उसके दिल की जैसे वह हर बात को जानती थी, समझती थी।

रामसिंह की आँखों के आगे धुंधलापन छाने लगा। छत की कड़ियाँ धुंधली पड़ने लगीं। उसने अंगुलियों से अपनी आँखें पोंछ लीं। अंगुलियाँ भीग गई। पलक झपकते ही वह उठा और हाथ-पैर साफ कर गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे जाकर बैठ गया। पाठ कर वह अपने अस्थिर मन को थोड़ा शांत करना चाहता था। लेकिन ग्रन्थ साहिब से दो-चार पेज पढ़ने के बाद ही उसने उन्हें 'रुमाला' देकर ढक दिया।

फिर वह उठकर साथ वाले कमरे में चला गया। बिना मतलब ही उसने फट्टे पर हाथ मारा । बचिन्त कौर की ऐनक वहाँ पड़ी थी। उसने डिब्बी में से निकाल कर ऐनक को अपनी कमीज़ से साफ किया और फिर डिब्बी में डालकर उसे वहीं रख दिया। निकट ही एक शीशे में पिसी काली मिर्च तथा देसी खांड मिलाकर रखी हुई थी। जब कभी तेज खाँसी छिड़ती तो बचिन्त कौर इस मिश्रण को हाथ पर डाल मुँह में डाल लिया करती थी। खाँसी रुक जाती तो उसकी साँस रुक-रुक कर आने लगती। स्टूल पर आधी भरी दवाई की कई शीशियाँ पड़ी हुई थीं। बचिन्त कौर ने उन दवाइयों के खत्म होने तक का भी इन्तजार नहीं किया था। जाने वाला कैसे एकदम से चला जाता है और उसके द्वारा जमा किया हुआ सभी कुछ यहाँ पड़ा रह जाता है।

सामने की दीवार पर लगी कील से बचिन्त कौर के कपड़े लटक रहे थे। दाईं ओर की दीवार पर दो-तीन महीने पहले ही सफाई कर उसने कुछ बेल-बूटे बनाए थे। उनके नीचे अनपढ़ों के समान कुछ अक्षर जोड़-जोड़कर उसने अपने हाथों से 'सतनाम वाहेगुरु जी महाराज' लिखा था। यह देख रामसिंह और भी उदास हो गया। लेकिन यह तो परमात्मा की मरजी थी, उसका आदेश था। वह फिर से बिस्तर पर आ बैठा। भारी मन से उदासी का बोझ उतारने के इरादे से उसने कल की तरह, फिर से ऊँचे स्वर में शबद पढ़ना आरम्भ किया :

"जिस मरने ते जग डरै मेरे मन आनन्द
मरने ही ते पाइए पूरण परमानन्द..."

उसने आँखें बंद कर लीं और फिर शबद दोहराया।
'जिस.......
लेकिन आवाज उसके गले में ही कहीं अटक कर रह गई। उसने खंखारते हुए गला साफ किया और फिर से शबद बोलने लगा :
"जिस प्यारे सिऊ नेह......"
और झमाझम उसकी आँखें बहने लगीं। वह यह कौन सा शबद बोलने लगा था।

"जिस प्यारे सिऊ नेह तिस आगै मर चलिए
धृग जीवन संसार ता कै पाछै जीवना......."

कितनी ही देर तक आँखें मूंदे वह यही शबद दोहराता रहा। उसने उठकर गुरु ग्रन्थ साहिब के पास पड़े गड़वे से पानी ले मुँह धोया और जूते पहन बाहर निकल गया।

धूप काफी तेज हो चुकी थी। वह अभी तक घर नहीं लौटा था। उसके भाई का परिवार परेशान होने लगा। गुरुद्वारे में तो उसने कभी इतनी देर नहीं की थी। बड़ा भतीजा पता करने गया तो देखा रामसिंह वहाँ नहीं था। भतीजे के मन में ऐसे ही विचार आया, कहीं ताऊ, ताई की चिता की ओर ही न गया हो। गुरुद्वारे से निकल, जब वह झाड़ियों के पास पहुँचा, तो देखा रामसिंह औंधे मुँह वहाँ गिरा हुआ था। उसकी दोनों भिंची मुट्ठियों में राख भरी हुई थी।

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