झोले की महिमा : मैथिली लोक कथा
Jhole Ki Mahima : Maithili Lok-Katha in Hindi
एक निर्धन ब्राह्मण था । दिनभर गाँव-गाँव भटक जो कुछ भिक्षाटन कर लाता, उसी से गुजर- बसर चलती। परिवार में मात्र पति-पत्नी और पुत्र थे, परंतु इतनी ही भिक्षा मिलती, जिससे किसी प्रकार पेट भरता । वे कभी पूरब के गाँवों में भिक्षाटन करने जाते, कभी पश्चिम के गाँव में, कभी उत्तर जाते, कभी दक्षिण । यही उनका काम था। बेटा बड़ा हो रहा था, उसकी शिक्षा-दीक्षा शुरू होनी थी, उससे पहले यज्ञोपवीत होना था। यज्ञोपवीत का खर्च कैसे जुटाया जाएगा, आठ ब्राह्मणों का भोजन किस प्रकार संभव होगा। ब्राह्मण जब सुबह-सुबह पूजा-पाठ कर भिक्षाटन को निकलता, तब ब्राह्मणी रोज बालक के यज्ञोपवीत के बारे में याद दिलाती। एक दिन ब्राह्मण ने ब्राह्मणी से कहा कि ऐसे नहीं चलेगा, मुझे इंतजाम के लिए नगर की ओर जाना पड़ेगा। ब्राह्मणी ने उसे कलेवा बाँध विदा किया।
सीधा-सादा ब्राह्मण अनजान रास्ते पर चलते-चलते थक गया। साँझ घिर आई थी। वह एक विशाल पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर अपना गमछा बिछाकर सो गया। सोते ही उसे नींद आ गई। संयोग से उसी राह से बिध और बिधाता पंछी रूप में भ्रमण कर रहे थे, थोड़ा सुस्ता लेने के विचार से पेड़ पर बैठ गए। पेड़ के नीचे सोए निर्धन विप्र को देखकर बिध ने बिधाता से कहा, "देखिए, यह बेचारा गाँव-गाँव भिक्षाटन करता है, जिससे पेट भी नहीं भरता, अब बेटे का उपनयन संस्कार सिर पर है। कैसे करेगा ? क्या आपको इस पर दया नहीं आती है ?" बिध की बात सुन बिधाता ने कहा, "हे बिध! सबको अपना कर्मफल भोगना पड़ता है, सुख-दुःख तो लगा ही रहता है। परंतु यदि आपकी तरह मुझे भी दया आने लगे, तब दुनिया से सारे दुःख खत्म हो जाएँगे।"
"सो जो हो, परंतु इस ब्राह्मण का कोई तो उपाय आपको करना पड़ेगा, वरना मैं यहाँ से कहीं नहीं जाऊँगी।"
" इसी को कहते हैं त्रिया हठ ! लीजिए, यह झोला उसके सिरहाने रख दीजिए। इसमें मिठाइयाँ हैं। इसी से उसका दुःख दूर हो जाएगा।"
बिध ने वह झोला विप्र के सिरहाने रख दिया और उड़कर चले गए। जब ब्राह्मण की नींद खुली, वह झोला देख चकित हुआ, अंदर हाथ डाला तो खुशी का ठिकाना न रहा। भाँति-भाँति की मिठाइयाँ थीं। वह भूखा था, सो पेट भर खाया। खाने के बाद भी झोला भरा का भरा था, उसने सोचा कि जब यह जादुई झोला मिल ही गया है तो अब शहर क्या जाना। लौट पड़ा गाँव की ओर लौटते वक्त शाम हो गई। तब ब्राह्मण एक हलवाई की दुकान पर ठहर गया। हलवाई ब्राह्मण को पहचानता था, वह पहले भी भिक्षाटन करने आता था, परंतु आज उसने भीख नहीं, मात्र रात गुजारने को रहने की जगह भर माँगी। ब्राह्मण की प्रसन्नता देख हलवाई को अचरज हुआ। क्या कारण है कि सदा दुःखी रहनेवाला ब्राह्मण सुखी लग रहा है ? खाना भी नहीं माँग रहा है। हलवाई की नजर उसके झोले पर पड़ी। रात को जब ब्राह्मण गहरी निद्रा में निमग्न हो गया, तब हलवाई आहिस्ता से उसका झोला उठा लिया, झोले से नायाब मिठाइयाँ उड़ेलने लगा। दोनों पति-पत्नी ने मिलकर सारे बरतनों में मिठाइयाँ भरकर रख लीं और फिर झोला ब्राह्मण के सिरहाने जस का तस रख दिया। सुबह- सुबह ब्राह्मण उठा और अपना झोला-झपटा लेकर गाँव चला।
उसे दो दिन में ही खुशी-खुशी लौट आया देख ब्राह्मणी कुढ़ गई। झुंझलाकर बोली, "दो दिनों में ही कौन सा आकाश से चाँद उतार लाए हो कि इतने खुश दिख रहे हो?"
विप्र हँसा, "धैर्य धरिए ब्राह्मणी, सब कहता हूँ । स्नान-ध्यान तो कर ही लिया होगा, एक थाली लेकर निकट आइए। " ब्राह्मणी को कुछ समझ में नहीं आया, तथापि वह थाली लेकर आई। ब्राह्मण ने थाली में झोला उलट दिया, भाँति-भाँति की मिठाइयों से थाली भर गई । ब्राह्मणी चकित ! ब्राह्मण ने अपने हाथों से एक मिठाई ब्राह्मणी को खिलाते हुए कहा, “खाइए, जितना जी चाहे। ब्राह्मण ने सारा किस्सा ब्राह्मणी को सुनाया। ब्राह्मणी को भी मिठाई खिला संतुष्ट किया। जिसके घर में नमक- का जुगाड़ नहीं था, वह अब छप्पन भोग खाने लगा।
अब ब्राह्मण भीख माँगने नहीं जाता। संध्या गायत्री - जाप, खा-पीकर आराम करता है। गाँव के लोगों को आश्चर्य होता है कि क्या रहस्य है ! रहस्य का पता भी ग्रामीणों को चल गया, बात राजा के कानों तक पहुँची। राजा था निहायत लालची। उसने ब्राह्मण को बुलाया और समझाया कि झोला उसके घर पर रहेगा तो चोरी हो जाएगा। इसे राजा को दे दो, बदले में ५००० रुपए ले ले। ब्राह्मण ने विवश होकर झोला राजा को दे दिया। राजा के दिए रुपयों से बेटे का उपनयन संस्कार कर दिया। बचे-खुचे रुपए आढ़तिये को दे दिए कि राशन पानी देता रहे। कुछ दिनों के बाद वे पैसे खत्म हो गए, अब दुर्दिन ने फिर घेरा । ब्राह्मण गाँव-गाँव भीख माँगने लगा। सुख के बाद मिले दुःख अधिक कष्टकारी होते हैं। ब्राह्मणी ने ब्राह्मण से कहा, "आप एक बार फिर उसी राह पर जाएँ, शायद फिर कोई चमत्कार घट जाए।" ब्राह्मण को बात जँच गई। वह पुनः उसी रास्ते पर गया। रात होने पर पेड़ के नीचे गमछा बिछाकर सो गया। बिध और बिधाता पुनः चिड़ी - चिड़ा रूप में वहाँ आकर टिके। बिध ने बिधाता को उलाहना देते हुए कहा, 'क्या हुआ हे बिधाता! आपने जो झोला दिया, उससे इसका दुःख स्थायी रूप से कहाँ दूर हुआ ? वह कसाई राजा से छला गया। कुछ तो राह निकालिए।" विधाता ने भी यही विचारा। एक नया झोला ब्राह्मण के सिरहाने रख चलते बने। सुबह-सुबह ब्राह्मण ने नया झोला देखा। हर्षित हो उसे पलटा कि उसमें से हाथ-पैर निकल इसकी धुनाई करने लगे। ब्राह्मण चीखने लगा। फिर झोला सीधा किया कि हाथ-पैर उसमें समा गए। ब्राह्मण ने झोला बाँधा और उसे लिये हुए हलवाई की दुकान गया। उसके सोते ही हलवाई ने मोहल्ले भर का बरतन इकट्ठा कर लिया और पति-पत्नी ने मिल झोला खोल उलट दिया। उसमें से हाथ-पैर निकले और इसकी धुनाई करने लगे। ये चीख मारकर रोने लगा। मोहल्ला इकट्ठा हो गया। ब्राह्मण ने कहा कि हलवाई महोदय ने मुझसे १००० रुपए लिये थे, दिलवा दें तो हम सब जादू से समेट लेंगे। हलवाई ने डर से हजार रुपए दिए, ब्राह्मण ने झोले का मुँह सीधा किया, हाथ-पैर सिमट गए।
ब्राह्मण अब टका लेकर खरीदारी करने लगा। गाँव के लोगों को लगा कि अबकी बार ब्राह्मण को रुपयों का झोला हाथ लगा है। खबर राजा को भी लगी। उसने ब्राह्मण को आदर से बुलाया और उसकी खूब आवभगत की, इस बार उसने झोले की जगह दो गाँव लिखने का वादा किया, दानपत्र लिखकर राजा ने ब्राह्मण के हाथों में दिया और झोला लेकर गद्गद भाव से अंतःपुर आया। पटरानी को बुलाया और झोले का मुँह खोल उलट दिया। झोले में से हाथ-पैर निकले और इन्हें पीटने लगे। राजा-रानी चीखने-चिल्लाने लगे। सिपाही दौड़े आए। सिपाही भी पिटे, तब राजा ने ब्राह्मण से गुहार लगाई। ब्राह्मण ने कहा, "महाराज, यदि आप मेरा पहलावाला झोला दे दें तो मैं आपको इस संकट से उबार लूँ।" राजा ने तुरंत झोला लौटाया । ब्राह्मण ने दूसरे झोले को सीधा किया कि हाथ-पैर उसमें समा गए। राजा को त्राण मिला, ब्राह्मण खुशी-खुशी घर आया। झोले के प्रताप से दोनों सुख-चैन की बंसी बजाते दिन काटने लगे ।
(प्रस्तुति : उषा किरण खान)