झिलमिलाते चेहरे (गुजराती कहानी) : दिनकर जोशी
Jhilmilate Chehre (Gujarati Story) : Dinkar Joshi
बड़ा विचित्र रोग लागू हुआ है । मुझे कुछ याद नहीं रहता । भूल जाता हूँ ; और फिर भी यह कोई विस्मृति की बीमारी नहीं है ।
मुझे याद तो रहते हैं – कुछ प्रसंग , बहुत सारी घटनाएँ | अनेक वार्त्तालाप मुझे याद हैं । प्रारंभ से अंत तक , अक्षरश : ' ' ' ' भूल जाता हूँ , केवल वे घटनाएँ , वे प्रसंग और उन वार्त्तालापों के साथ जुड़े हुए चेहरों को । वैसे देखा जाए तो वे चेहरे मैं भूल नहीं पाता , केवल चेहरों की मिलावट हो जाती है - एक बड़ी गड़बड़ । सुबह देरी से उठने की मुझे आदत है । उठकर दातुन चबाता - चबाता जब बाहर चबूतरे के पास आया तो सामने ही फुटपाथ पर पानवाले की दुकान के पास खड़े सिगरेट का धुआँ निकालते कांतिभाई को देखा । उन्हें देखते ही मैं अचंभे में पड़ गया । अभी अगली शाम को ही नुक्कड़ के पास रहनेवाले सुधीरभाई के घर हम सब मिले थे , उस वक्त इस मेहरबान ने खुद इस बात से इनकार किया था कि धूम्रपान करते हैं । सुधीर भाई और अन्य दोस्तों ने जब उन्हें बार - बार पूछा तब उन्होंने कहा था , “ ऊँहूँ , इतने सालों में बीड़ी - सिगरेट मुँह में नहीं डाला । मुझे उसकी गंध से नफरत है । " और अब उन्हें खुलेआम...
" कांतिभाई , आप ? " मुझसे रहा नहीं गया ।
' क्यों , मैं यहाँ हो नहीं सकता ? " हवा में एक धूम्रसेर उड़ाते हुए वे बोले ।
आपको यहाँ देखकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ है , परंतु कल रात को ही आप बीड़ी - सिगरेट से नफरत है , ऐसा बता रहे थे । "
"हाँ-हाँ " " कांतिभाई जोरों से हँसते हुए बोले ।
आपका दिमाग तो ठीक है न ? या फिर अभी भी नींद में हो ? "
आँखें और सिर हिलाकर मैंने इस बात का विश्वास दिला दिया कि मैं नींद में नहीं हूँ । मेरी आँखों के सामने कांतिभाई बड़ी लज्जत के साथ सिगरेट पी रहे थे ।
' क्यों भाई , मुझ जैसे चेनस्मोकर के बारे में आप ऐसा कहेंगे तो हँसी तो आएगी न ? "
" लेकिन कल रात को सुधीरभाई के यहाँ । "
मेरी उलझन बढ़ रही थी ।
“ हाँ - हाँ … . ” कहकर कांतिभाई ने फिर से ठहाका लगाया । सिगरेट के बचे हुए हिस्से से नई सिगरेट जलाते हुए उन्होंने जैसे कि रहस्य खोला— “ वो तो शांतिभाई कहते थे । शांतिभाई तो मरजादी हैं , मगर हम वैसे नहीं , क्या आप भी एक की टोपी दूसरे के सिर पर... । "
मैं चुप हो गया । कल रात की उस घटना को याद करता रहा । वे संवाद मुझे अच्छी तरह याद हैं । केवल चेहरे उलट - पुलट हो गए हैं । ऐसा बहुत बार होता है । आँखों के सामने धूम्रपान करते कांतिभाई का चेहरा और कल रात की घटना मुझे याद आ रही थी और याद आ रहे थे बीड़ी - सिगरेट के प्रति उनकी नफरत के वे शब्द । नहीं , ये शब्द उनके नहीं हैं , शांतिभाई के हैं और इसके बावजूद कांतिभाई के चेहरे में मुझे शांतिभाई दिखाई देते हैं । शांतिभाई के चेहरे में कांतिभाई को ढूँढ़ने का व्यर्थ प्रयास मुझसे हो जाता है । उलझनें बढ़ती जाती हैं । चेहरों की मिलावट की यह बीमारी मुझे कैसे हो गई , यह मुझे याद नहीं आता ; लेकिन वह कब से लागू हुई , यह अच्छी तरह याद है । मैट्रिक में ऐसे ही नहीं मुझे तिहत्तर प्रतिशत अंक मिले थे । राज्य की ओर से मिलने वाली शिष्यवृत्ति केवल डेढ़ - प्रतिशत अंक के कारण मैंने गँवाई थी । स्कॉलरशिप जीतनेवाले विद्यार्थी को कुल मिलाकर साढ़े चौहत्तर प्रतिशत अंक प्राप्त हुए थे । डेढ़ प्रतिशत की कमी का मुझे बड़ा अफसोस रहा था । नतीजा निकला , उसी दिन रात को पिताजी ने मुझे पास बुलाकर कहा , " कल से ही मेरे साथ सरकारी दफ्तर में एकाउंट्स डिपार्टमेंट की नौकरी में जुट जाओ , बेटा । "
यह सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था , यह मुझे ठीक तरह याद है ।
' मैंने जो कहा , वह तेरी समझ में आया न ? बड़े साहब के साथ मेरा अच्छा मेल - जोल है । मैंने सबकुछ पक्का कर रखा है । शुरू से ही तनख्वाह देंगे पचहत्तर रुपए । '
‘लेकिन पिताजी, मुझे और आगे पढ़ना है। इंजीनियर, डॉक्टर... आप ही तो कह रहे थे । '
' मैं कहता था ? इतनी उम्र में ऐसा झूठ बोलने लगा ? इसके अलावा मैं एक साल से तेरी मैट्रिक की शिक्षा पूरी हो जाए उसकी राह देख रहा हूँ । बेटियाँ भी बड़ी हो गई हैं । उनकी शादी की जिम्मेवारी अब मैं अकेला नहीं उठा पाऊँगा । मुझे तेरे सहारे की जरूरत है । '
' मगर...मगर पिताजी,,," मेरी आँखों के सामने मुझे उस सरकारी दफ्तर के महकमे में सिर नीचा करके और मोटे शीशे के ऐनक पहने काम में व्यस्त कारकुन दिखाई दिया । मैंने डरते - डरते पिताजी से कहा था , " आप ही ने तो कहा था कि अगर जरूरत पड़ी तो हम यह चार मंजिला मकान बेच देंगे और तुझे बहुत पढ़ाएँगे- इंजीनियर , डॉक्टर बनाएँगे । '
और सही में पिताजी ने ऐसा कहा था ! ऐसा कहते समय वे बड़े भावुक हो गए थे , यह भी मुझे याद है । '
'बेवकूफ कहीं के ! अपने परदादा के इस घर को बेचकर मैं तुझे आगे पढ़ाऊँ ? तेरा बाप इतना मूर्ख नहीं है । मैंने तुझे ऐसा कब कहा था ? '
पिताजी ने ऐसा कब कहा था ?
कहा था ...बेशक कहा था ! जब मैं छोटा था तब । हाँ , उस समय जब मैंने स्कूल में दाखिला लिया था , पढ़ाई की शुरुआत की थी तब । ये शब्द मैंने सुने थे ! और इतने सालों के बाद भी मैं इन शब्दों को भूला न था , भूल ही नहीं सकता ।
परंतु पिताजी अब इस बात से इनकार कर रहे हैं । पिताजी झूठ तो बोलेंगे ही नहीं ।
तो फिर ...
लंबे अरसे के बाद परिवार में पुत्र के नाते पैदा होने के कारण काफी लाड़- प्यार पाया है मैंने । दादा , दादी , एक चाचाजी थे , एक ताऊजी थे , सभी का लाडला था मैं ।
और पिताजी कहते हैं , उन्होंने कभी ऐसा कहा ही नहीं है । तो फिर “ तो फिर ' ' मैं यादों के महासागर में डूब जाता हूँ | याद आता है । ये शब्द सुने थे , अवश्य सुने थे । लगता है , ऐसा पिताजी के सिवा किसने कहा होगा ?
दादाजी ने कहा होगा ? ताऊजी बोले होंगे ?
अतीत में विलय हो गए वो चेहरे याद आते हैं । सामने खड़े पिताजी के चेहरे से मिलते हुए चेहरे याद आते हैं , एक झिलमिल दिखाई दी । एक उलझन पैदा हो गई। बरसों से शब्दों के साथ जुड़ा हुआ वह चेहरा, जो मन में कहीं छिप गया था और इस वक्त नजर के सामने दूसरा चेहरा ।
ठीक इसी तरह चेहरों की मिलावट की उलझन उसी पल से लागू हो गई है । आज तक प्रत्येक क्षण वह बढ़ रही है , बढ़ती ही गई है ।
कुछ दिन पहले तो हद हो गई । बड़ी बेटी उमा इस साल सातवीं कक्षा में उत्तीर्ण हुई थी । आठवीं कक्षा के लिए उसका स्कूल बदलना था । अनेक स्कूलों में प्रयत्न करते - करते चप्पल घिस डाले , फिर भी उसे किसी भी स्कूल में एडमिशन नहीं मिला । इतने में एक स्कूल में शायद काम हो जाएगा , ऐसे समाचार मिले | पूछताछ की , किसी भी कक्षा में जगह नहीं थी । यदि शिक्षा अधिकारी साहब मंजूरी दें तो एक एडमिशन हो सकता है , ऐसी किसी ने दिलासा दी । पूछताछ करने पर पता चला कि कनक त्रिवेदी शिक्षा अधिकारी हैं । मुझे आशा की किरण दिखाई दी । जब कनक त्रिवेदी शिक्षा अधिकारी हों , मुझे किस बात की चिंता ? अब तक मुझे इसका पता ही न था ।
कितने वर्षों के बाद कनक मिल रहा था । तिहत्तर अंक पाने के बाद एक सरकारी दफ्तर में मैंने कारकुन की नौकरी स्वीकार की , तब मेरे साथ - साथ सबसे ज्यादा - शायद मुझसे भी ज्यादा कनक को सदमा पहुँचा था । हम दोनों ने आगे की उच्च पढ़ाई के लिए शहर जाने की महत्त्वाकांक्षा रखी थी । बाद में कनक अकेला ही गया , जाते समय वह रो पड़ा था । असल में रोना मुझे चाहिए था और रोया वह था । मुझसे गले मिलकर उसने कहा था , " अकेले - अकेले जाने का दिल नहीं होता । तुझे भी मेरे साथ पढ़ाई करने का मौका मिला होता तो । लेकिन इस समय तो कुछ भी नहीं कर सकता , इस बात का बड़ा दुःख है , मगर भविष्य में जब कभी मिलेंगे तो इस वक्त जो नहीं कर सकता , वह सबकुछ " । मिलेंगे अवश्य मिलेंगे " और बाद में दर्द भरे दिल और आँसू भरी आँखों के साथ कनक चला गया था । बाद में सुनने में आया था कि वह कहीं विदेश गया उच्च अध्ययन के लिए । बाद में संपर्क भी न रहा । विदेश से वापस कब आया और यहाँ शिक्षा अधिकारी कब बन गया !
मैं बड़े उत्साह के साथ मैं कनक त्रिवेदी के एयर कंडीशंड कैबिन में दाखिल हुआ था । ' पहचानते हो न ? ' प्रवेश करते ही मैंने मुसकराकर पूछा ।
सुनहरी फ्रेम और नीली छाँहवाले ऐनक में से कनक ने ऊपर देखा । मेरे मुसकराते चेहरे पर नजर डाली और बाद में-
' आपको कहीं देखा है , ऐसा लगता है , भाई ! '
'बस, दोस्त, भूल गया ? मैं - ' उसके भुलक्कड़ स्वभाव की मजाक करने के इरादे से मैंने आगे बढ़कर अपना परिचय दिया । परिचय पूरा हुआ । कब कनक अपना हाथ आगे लाकर मेरा हाथ पकड़कर खींचे , उसकी राह देखने में काफी पल मुझे रुकना पड़ा ।
' हाँ , हाँ ! अब आपको पहचाना । ' हाथ में पकड़ी कीमती पारकर पेन की निब कनपटी का स्पर्श करे , इस प्रकार रखते हुए उसने कहा , ' परंतु यह दफ्तर है , आपको यहाँ आदर के साथ बरताव करना चाहिए । कहिए , क्यों आना हुआ ? '
कनक मुझे आदरपूर्वक भाव बरतना सिखा रहा था । ऐसा कैसे हुआ , यह बात कुछ क्षणों के लिए मैं भूल गया । एक गहरी साँस लेने के बाद मैं क्यों आया हूँ , वह बात बताई ।
' आपने आने में देर कर दी , भाई । ' शिक्षा अधिकारी साहब ने खेद व्यक्त किया।‘इस प्रकार के स्पेशियल केस रेकमंड करने की तारीख भी कल पूरी हो गई । आई एम सॉरी । ' बाद में कुछ पल मेरे चेहरे की ओर देखकर आगे बोला , और कुछ ? "
" दूसरा ! दूसरा अब बाकी क्या था ? और इसके बावजूद कुछ हिम्मत के साथ — बरसों पहले आँसू भरी आँखों से मुझे गले लगाकर उसने जो शब्द कहे थे , उनको याद करके अपनी दोस्ती याद करवाने का मैंने प्रयास किया । उस वक्त कनक के चेहरे के जरिए मैंने सामने बैठे शिक्षा अधिकारी साहब कनक त्रिवेदी के सामने देखा । ‘ उमा के लिए कुछ हो सके । ' ' आप कोई बड़ी गलती कर रहे हैं , ऐसा लगता है । आप जिस घटना की बात कर रहे हैं , वह मेरी नहीं है " ईट इस इंपोसिबल " माय मेमरी इज शो शार्प " आई कैननोट फारगेट , लेकिन मुझे याद है कि आप जिस बात का जिक्र कर रहे हैं , वह आपके उस समय के खास दोस्त जनक चतुर्वेदी की ही बात है । आप ठीक से याद करो । जनक चतुर्वेदी के साथ आप गलती से मेरी मिलावट कर रहे हैं । "
फिर एक बार मुझे आश्चर्य का धक्का लगा । जनक चतुर्वेदी नामक चेहरे की रेखाएँ याद करने के लिए दिमाग पर जोर डाला । सामने बैठा प्रभावशाली चेहरा कनक त्रिवेदी । जवानी के दिनों में दोस्ती का कौल देता हुआ दूसरा एक आँसू भरा चेहरा , वह जनक चतुर्वेदी था ? एक चेहरा था , उतना ही याद आ रहा है “ ...पारकर पेन की निब को कनपटी से लगाकर सुनहरी फ्रेम और नीले प्रकाश के शीशेवाले ऐनक में से पैनी नजर से देखनेवाला यह चेहरा !
मेरा दिमाग सुन्न हो जाता है । एअर कंडीशंड कैबिन में भी मैं पसीने से लथपथ हो जाता हूँ।
और इस बढ़ती हुई उलझन से मैं चिंतित हो जाता हूँ । स्वच्छ , निर्मल जल में दिखाई देते धुँधले , प्रतिबिंबों में से मैं असली छाया ढूँढ़ने का प्रयास कर रहा हूँ । यह उलझन भरा परिश्रम देर रात तक चलता है और तब -
अब तक आप सोए नहीं ? " एकदम नजदीक आती हुई पत्नी दबे स्वर में पूछती है ।
" हाँ , नींद ही नहीं आती । " मैं जवाब देता हुआ थोड़ा हँसता हूँ और फिर चादर गले तक खींच लेता हूँ ।
पत्नी और नजदीक खिसकती है । मैं यकायक ही आगे खिसक जाता हूँ । लज्जित होकर पत्नी के चेहरे की ओर एक नजर डालता हूँ और-
मुझे पता है ! गत कुछ बरसों से ऐसा ही होता है । देर रात को जब सब सो जाते हैं , तब बिस्तर के सामने की छोर से कपड़ों की हलचल शुरू होती है , कभी-कभी इस छोर से भी ।
लेकिन इस समय पैदा हुई वह हलचल मुझसे सही नहीं जाती । रात्रि के अँधेरे के बीच चारों ओर से उन असंख्य चेहरों की बिखरती हुई रेखाएँ !
ऐसा एक के बाद एक दो - तीन बार हुआ । दूसरे छोर से शुरू हुई हलचल के अंत में करीब ऐसा ही टेप किया हुआ वार्त्तालाप | अगली रात को भी ऐसा ही हुआ था । आँखों में शून्यता भरकर डिम लाईट की धुँधली रोशनी में विचित्र परछाइयाँ पैदा करती , छत के सामने देखता हुआ मैं , एक - दूसरे में मिले हुए असंख्य चेहरों में से असली रेखाएँ अलग करने का प्रयास कर रहा हूँ , तभी-
" वहाँ छत की ओर परछाइयों के सामने क्या देख रहे हो ? "
पत्नी की नम्र आवाज और देह की हलचल मुझे महसूस हुई ।
"खास कुछ नहीं । ऐसे ही । " पहले की तरह फीका हँसकर मैं चादर ओढ़ लेता हूँ - जबरन ।
थोड़ी शांति और बाद में फिर से कपड़ों की हलचल । पत्नी ने कंधे पर हाथ रखा । उसका स्पर्श मैं महसूस करने लगता हूँ । कंधे पर मुझे बोझ सा लगने लगता है । आहिस्ते से उसका हाथ हटाकर पत्नी के सामने देख लेता हूँ । उसकी छोटी- छोटी आँखों में मुझे कोई सवाल दिखाई देता है । आँखों से आँखें मिलाकर मैं कुछ कहने लगता हूँ ।
“आजकल आपको यह क्या हो गया है ?" सवाल में शिकायत साफ दिखाई देता है , क्या हो गया है ? कुछ भी समझा नहीं हूँ , इस तरह मैं बोल उठता हूँ ।
"बहुत दिनों से आप ऐसा कर रहे हैं। "
ऐसा यानी , कैसा , वैसा पूछने का मन होता है , मगर टालता हूँ ।
" मैं खुद आकर बुलाती हूँ , फिर भी फिर भी आप...." आवाज में कुछ दर्द दिखाई देता है । " जैसे कि आजकल आपको मैं अप्रिय लगने लगी ; मैं आपको पसंद ही न हूँ । "
चद्दर में से हाथ बाहर निकालकर पत्नी की उँगलियों को प्यार से स्पर्श कर लेता हूँ और बाद में वैसे ही लेटे - लेटे अनिमेष होकर देखता रहता हूँ ।
मैं कहता हूँ , " वह तुम्हारी समझ में आता है ? " थोड़े वक्त के बाद मैं बोल उठता हूँ— “ कैसी बात करते हैं ? " पत्नी हाथ पर चेहरा रखकर हँसती है- आपने अब तक कुछ कहा ही कहाँ है ? "
“सचमुच मैंने कुछ कहा नहीं है ? " दिल में जैसे कि यकायक एक चमक पैदा होती है । कितनी रातें ऐसे ही सुनसान और खामोश - सुस्त घंटे " हाथ में हाथ पकड़कर , उँगलियों के साथ खिलवाड़ करते - करते एक - दूसरे से नजर मिलाकर और एक भी शब्द बोले बिना कितनी सारी बातें - हाँ ! मुग्ध , खुश - मिजाज चेहरे की दो सुंदर आँखें , सबकुछ समझ लेती थीं " बिना कुछ पूछे ! और इसी प्रकार सुबह हो जाती थी ।
पत्नी दबी आवाज में हँसती है । " मुँह से बोलेंगे नहीं तब तक आपके दिल में क्या है , यह कैसे समझँगी ? " और बाद में -
थोड़ा सा काँपकर मैं दूर हट जाता हूँ । " वाह , पहले तो " तुम्हें याद है " हम इस प्रकार बैठे रहते थे " घंटों तक और सबकुछ समझ में आ जाता था । एक भी शब्द बोले बिना " मेरी नजर के सामने बरसों पहले का वह चेहरा खड़ा हो जाता है । "
"सचमुच में आपको किसी की नजर लगी है । " " हम कभी ऐसे बैठे हैं और क्या कभी बिना बोले कुछ समझा जा सकता है ? दूसरों के मन में हम थोड़े घुस सकते हैं ? आपकी सारी बातें ऐसी ही " कहकर पत्नी दोनों हाथ फैलाती है । उसके चेहरे का विस्मय देखकर मैं छत की परछाइयों की ओर देखने लगता हूँ । झिलमिलाते चित्रों की रेखाएँ छिन्न - भिन्न होकर बिखरने लगती हैं ।
कुछ समय के बाद सबकुछ शांत हो जाता है । पत्नी के खर्राटों की आवाज सुनाई देने लगती है । उसकी बंद पलकें और चेहरे के सामने मैं देखता रहता हूँ और वह उलझन असह्य होती जा रही है ।
सुबह काफी देरी से उठा । दातून मुँह में डाल ही रहा था कि उमा बोल उठी-
"आपकी तबीयत ठीक नहीं है क्या , पापा ? "
" नहीं बेटा , सबकुछ ठीक है । "
“ तो आपका चेहरा पीला क्यों पड़ गया है ? अपना चेहरा तो देखिए , बिलकुल बदल गया हो वैसा... । "
मैं चुपचाप चेहरे पर हाथ फिरा लेता हूँ ।
' शायद रात को उन्हें ठीक तरह से नींद नहीं आई होगी , इसलिए ऐसा लगता है । जागरण के कारण । " पत्नी बीच में ही बोल उठती है ।
" हाँ ! जागरण के कारण ही तो ! "
(अनुवाद : ललित कुमार शाह)