झंडा (कहानी) : सुरेंद्र मनन
Jhanda (Hindi Story) : Surendra Manan
इंस्पेक्टर अजीत सिंह के इम्तहान की घड़ी आ पहुंची थी। ठीक दस बजे 'मार्च' शुरू होना था। सिर्फ आधा घंटा बाकी बचा था। ख़ुफ़िया रिपोर्ट के मुताबिक कोई गंभीर घटना होने की आशंका नहीं थी। उनके पास सिर्फ लाठियां थीं जिन पर झंडे चढ़ाए हुए थे। इतना ज़रूर था कि लाठियां साधारण नहीं, लठैतों की लाठियों जैसी खासी मजबूत और लंबी थीं और उनके सिरों पर लोहा भी मढ़ा हुआ था। इसके अलावा किसी अन्य हथियार की सूचना नहीं थी। इंस्पेक्टर अच्छी तरह से जानता था कि मौका पड़ने पर कैसे ये झंडे, हथियार बन जाते हैं और मुकाबला न कर पाने के कारण खुद पुलिस को ही बगटुट भागना पड़ जाता है। जुलूस जुलूस में फर्क होता है, यह भी वह समझता था।
आशंका न भी हो, एहतियात रखना तो ज़रूरी है। स्थिति किस वक्त क्या मोड़ ले ले, कुछ कहा नहीं जा सकता। ख़ासकर ऐसे जुलूल के मामले में उनकी संख्या को देख कर लगा था कि अधिकांश रात को ही शहर पहुंच चुके हैं लेकिन यह अनुमान गलत निकला। सुबह से ही लड़के-लड़कियों के जत्थे लगातार ट्रकों, ट्रालियों, बसों से शहर में उतर रहे थे और अब उनकी गिनती कर पाना भी मुशिकल था। शहर में एकाएक अतिरिक्त हलचल और भागदौड़ शुरू हो गयी थी।
वायरलेस पर ज्यों-ज्यों खबरें आ रही थीं, इंस्पेक्टर अजीत सिंह का शरीर अंगड़ाइयां ले रहा था। बार-बार वह अपनी ऊपर उठी मूंछों को मरोड़े दे रहा था और रूल अपनी जांघ पर थपथपाता हुआ बेसब्री से थाने के बरामदे में चहलकदमी कर रहा था। अजीत सिंह की यह आदत थी कि जब किसी गहन सोच में डूबा हो या उलझन में फंसा हो तो अनायास उसका दायाँ हाथ रूल को जांघ पर पटपटाने लगता और बाएँ हाथ का अंगूठा- तर्जनी मिलकर, माला के मनके फेरने की तरह मूछों को मरोड़ा देने लगते। यह दरअसल उसके आदमी से इंस्पेक्टर अजीत सिंह बनने की प्रक्रिया थी। प्रक्रिया पूरी होने के बाद वह खूंखारता की जीती-जागती मिसाल बन जाता। उसका जैसे कायापलट हो जाता और उस भयानक रूप में जो भी उसे देख लेता, तौबा कर उठता। पुलिस विभाग का वह चमकता सितारा समझा जाता था। हर अफसर यह दावा कर सकता था कि अजीत सिंह जैसा जांबाज निश्चय ही एक दिन पुलिस इतिहास में नये कीर्तिमान स्थापित करेगा। उसका तबादला अभी-अभी इस शहर में हुआ था लेकिन बदमान इलाकों के बाशिंदों में उसकी खूंखारता के बारे में किवदंतियां अभी से प्रचलित थीं।
इंस्पेक्टर के दिमाग में इस समय दो दृश्य गड्डमड हो रहे थे। एक वह, जब पिछले साल किसान सभा वालों के एक जुलूस के साथ मुठभेड़ हुई थी। छोटे से गाँव की नाकाबंदी कर ली गयी थी। आंसू गैस छोड़ कर जुलूस तितर-बितर कर दिया गया था और उस गाँव की तंग गलियों बाज़ारों में प्रदर्शनकारियों को कोंच- कोंचकर मारा-घसीटा था। तीन घंटे तक जमकर टक्कर हुई। फिर शनैः-शनै: शांति होने के बाद उसने देखा था - चारों तरफ बिखरे ईंट-पत्थरों, टूटी चप्पलों, कपड़ों के चिथड़ों और खून के चहबच्चों के बीच तीन लड़के लहू में नहाए औधे गिरे पड़े थे। बुरी तरह हांफता हुआ भी वह किसी अजाने आवेश में भर कर, किलकारी मारता हुआ उन पर जा चढ़ा था। दो को उसने वहीं पटक- पटककर मार डाला, फिर लाशें नहर में फिंकवा दीं। लड़कों के बूढ़े माँ-बाप लाशें लेने के लिए थाने के चक्कर काटते रहे थे....
दूसरा दृश्य वह जब उसने प्रोफेसर हरपाल सिंह की लाश देखी थी। छह गोलियां उसके शरीर में उतार दी गईं थीं। वह भी दिन-दहाड़े, विश्वविद्यालय के कंपाऊंड में प्रोफेसर, एक ख्यातिप्राप्त व्यक्ति और सरकार का ख़ास आदमी। केंद्र तक सीधी पहुंच और सम्बंध। विश्वविद्यालय में सरगर्म छात्रों के इसी संगठन को, जो आज इस शहर में प्रदर्शन करने वाले थे, उसने तोड़ने-कुचलने के कई प्रयास किए थे। संगठन के एक सर्वप्रिय जुझारू नेता का कत्ल करवाने में भी उसका हाथ रहा था। इंस्पेक्टर इस बात से भली-भांति परिचित था कि प्रोफेसर की सुरक्षा का पूरा इंतजाम होने के बावजूद किस तरह उसके शरीर को छलनी कर दिया गया था। बड़ी खौफनाक लाश थी वह....
इंस्पेक्टर अजीत सिंह की चहलकदमी तेज़ हो गयी। जांघ पर रूल पटपटाने की बजाए अब वह उसे जोर-जोर से पटकने लगा। उसे लगा जैसे कि एक भारी चट्टान लुड़कती हुई उसके सिर पर आ रही है जिसे रोका न गया तो वह उसकी हड्डियाँ पीस कर रख देगी। उसने खुद को उस अदृश्य चट्टान के नीचे दबा, छटपटाता, मरता हुआ महसूस किया। इंस्पेक्टर की आँखें सुर्ख हो गईं। शिराएँ चटकने लगीं। भीतर पैठते हुए डर की प्रतिक्रिया में खूंखारता जन्म लेने लगी। ऐसे ही डर से बचने के लिए वह शेर की तरह शिकार पर झपटता था - आगा-पीछा भूल कर खुद को जान की बाज़ी लगा कर झोंक देता था। तब उसके सामने अपने जिंदा रहने की शर्त दूसरे को मार देना... बस खत्म कर देना हो जाती थी !
और इसके लिए उसके अपने कायदे-क़ानून थे। इंस्पेक्टर अजीत सिंह के किसी को जिंदा रखना या मार देना इसका निर्णय अजीत सिंह खुद करता था। निर्णय करने और उसे अंजाम देने का माद्दा रखता था। क़ानून की हद उसके काम के बाद शुरू होती थी। क़ानून के मुताबिक लोगों के जनतांत्रिक अधिकार, मानवीय अधिकार, विरोध प्रदर्शन के अधिकार... वगैरह उसके काम में बाधा नहीं डाल सकते थे, हस्तक्षेप करके उसे रोक नहीं सकते थे। ऐसा होता तो पुलिस विभाग का नाम रोशन करने की बजाए कई कल्लों के जुर्म में वह फांसी पर लटका दिया गया होता !
...और अब इंस्पेक्टर अजीत सिंह की हालत पिंजरे में कैद किसी जानवर की-सी हो रही थी जो सलाखें तोड़-मरोड़ कर बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा हो। नथुनों से फूं-फूं करते हुए उसने अपनी ऊपर उठी मूंछों को मरोड़ा और लपक कर जीप में जा बैठा।
इस दिन का इंतज़ार इंस्पेक्टर को दरअसल तभी से था, जब से इस कस्बामा शहर में उसका तबादला हुआ था। चार्ज लेते ही उसने सबसे पहला काम यह किया कि सारे शहर का दौरा करने के बाद आवश्यक सूचनाएं इकट्ठी कीं, चार-पांच जगह रेड की, अपनी खूंखारता और दहशत के बारे में प्रचलित किंवदतियों को अमली रूप देने के लिए शहर के कुख्यात दादा को उसके अड्डे पर जा पकड़ा और आश्चर्यचकित लोगों की जुटी भीड़ के बीच उसे मार-मार कर अधमरा कर दिया। घूमती घामती उसकी गिद्ध दृष्टि एक जगह पर जाकर अटक गयी और वहीं अटकी रह गई। यह जगह थी शहर का सिनेमाघर जो बरसों से बंद पड़ा था और जिसकी इमारत पर एक सुर्ख रंग का झंडा फहरा रहा था। इंस्पेक्टर देर तक, एकटक उस झंडे को लहराता - फहराता हुआ देखता रहा जो उसे ऐसा लग रहा था मानो उस भव्य, विशाल इमारत के सीने में गड़ा चुनौतियाँ उछाल रहा हो। इस जगह के बारे में उसने बहुत कुछ सुन रखा था और इस मामले में उसकी गहरी दिलचस्पी भी थी।
इंस्पेक्टर के लिए अजीब और अविश्वसनीय बात यह थी कि शहर के एक बड़े पूंजीपति का सिनेमाहॉल इतने अरसे से सिर्फ इसलिए बंद पड़ा हो, क्योंकि स्कूल-कालेजों के छोकरे ऐसा चाहते हैं। इतना ही नहीं, वे इमारत पर कब्जा भी किए हुए हैं। प्रशासन ने पुलिस की मदद से जब भी उसे चालू करने की कोशिश की, छात्रों ने तूफ़ान खड़ा कर दिया। केस हिस्ट्री के पन्ने पलटता हुआ इंस्पेक्टर हैरान हो रहा था। कमाल की बात है !
..वारदात दस साल पहले हुई थी। इस सिनेमाहॉल में पुलिस की गोली से चार छात्र मारे गए थे। उस समय यह कड़ी कार्यवाही पुलिस को इसलिए करनी पड़ी क्योंकि जिस तेजी से छात्र संगठन की ताकत दिनोंदिन बढ़ रही थी और हर स्कूल-कालेज को वह अपनी लपेट में ले रहा था, उसे रोकना ज़रूरी हो गया था। ऊपर से आदेश यह थे कि इस एकजुट हो रही ताकत को किसी भी तरीके से खंडित कर दिया जाए। रिपोर्टों में दर्ज सूचनाओं के अनुसार राज्य का यह सबसे मजबूत, क्रन्तिकारी छात्र संगठन था। इसे तोड़ने की कई बार कोशिशें की जा चुकी थीं। फूट डालने के लिए कालेजों में दूसरे छात्र संगठन कायम किए गए लेकिन उन्हें प्रभावहीन बना कर बुरी तरह खदेड़ दिया गया था। कई छात्र नेताओं को इस उस केस में फंसा कर यातनाएं भी दी गईं, कुछ को खत्म कर दिया गया फिर भी यह संगठन छात्रों को न केवल एकजुट करके जुझारू बना रहा था बल्कि बाकायदा उन्हें राजनैतिक तौर पर शिक्षित भी कर रहा था। आम जनता से जुड़ी मांगों को लेकर संगठन ने अब तक कई शानदार लड़ाइयां लड़ी थीं और दिनों-दिन गावों-कस्बों में इसकी पैठ गहरी होती जा रही थी। खतरा बनते जा रहे इस उमड़ते दरिया पर काबू पाना ज़रूरी हो गया था। जिन सरगना छात्रों की घात में पुलिस कई दिनों से थी वे उस समय सिनेमाहॉल में थे इसलिए योजनाबद्ध तरीके से हाल में हंगामा करवा कर उन्हें वहीं ढेर कर दिया गया था।
लेकिन योजना बुरी तरह असफल हुई और नतीजा बिलकुल उल्टा निकला। चार छात्रों की मौत ने समूचे राज्य की पुलिस- प्रशासन व्यवस्था को झकझोर कर रख दिया। हर शहर में जुलूस, हड़तालें, घेराव। हर स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी बंद धड़ाधड़ गिरफ्तारियों, यातनाओं, जेलों में ठूंसने का सिलसिला चला और उतने ही वेग से जवाबी कार्रवाही हुई। यह ऐसी ताकत थी जिसका कहीं कोई ओर-छोर दिखाई न पड़ रहा था। सिनेमाहाल को छात्रों ने अपने कब्जे में ले लिया था। अपने शहीद साथियों के बहे खून की याद में उस पर लाल झंडा फहरा दिया था। अब बराबर वहां उनका पहरा लगा रहता। किसी भी कीमत पर वे उसे दुबारा न खुलने देने का निर्णय ले चुके थे। सिनेमाहॉल अब शहीदों के 'यादगार भवन' में तब्दील हो चुका था।
आख़िरकार प्रशासन द्वारा मामले को लटकाने और फिलवक्त कोई सीधी कार्यवाही न करने का फैसला लिया गया। धीरे-धीरे तनाव हटने लगा। दिन बीतते गए और कुछ अरसे के बाद शांति छा गई। देखने में सब कुछ सामान्य, स्वाभाविक गति से चलने लगा... और फिर एक दिन पुलिस के पहरे में झंडा उतार कर सिनेमाहाल खोल दिया गया। पूरी गारद वहां तैनात कर दी गई।
उसी दिन शहर भर के छात्र-छात्राएं वहां आ जुटे। यही नहीं, रात घिरते न घिरते जिले के दूसरे शहरों से भी उनकी कतारें इस शहर में उतरने लगीं - नारे लगातीं, रोष और गुस्से से उफनतीं। अपने निर्णय पर अटल शहर बंद हो गया। हर काम काज ठप्प। आगे बनने वाली स्थिति की गम्भीरता का अनुमान करते हुए मजबूरन पुलिस को हटना पड़ा। प्रशासन सिर पीट कर रह गया।
मामला पेचीदा हो चुका था। सिनेमाहॉल मालिक की ओर से बराबर दबाव और दूसरी ओर सत्ता के सामने सरेआम चुनौती खड़ी कर दिये जाने के कारण प्रशासन द्वारा हर तरह के तरीके अपनाए जा चुके थे लेकिन सब बेकार ! छात्र टस से मस न हो रहे थे, न ही किसी तरह का समझौता करने को तैयार थे। आखिर किया क्या जाय? यह कैसे संभव है कि सिनेमाहॉल उन्हें यूं सौंप दिया जाए? आखिर यह जगह पर कब्जा करने का मसला नहीं बल्कि सत्ता को चुनौती दिये की कार्यवाही थी। सबसे खतरनाक बात यह कि राज्यसत्ता की जगह पर जनसत्ता की मिसाल थी। और छात्र वाकई इसे इसी ढंग से इस्तेमाल कर रहे थे। प्रश्न सिनेमाहॉल का न रह गया था। अब वह दो शक्तियों की टकराहट कारणक्षेत्र बन चुका था जिसे छात्र अपने मंच के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे।
प्रशासन को बखूबी खबर थी कि हॉल के सीने पर फहराता हुआ झंडा कपड़े का टुकड़ा मात्र नहीं है। इधर से आने-जाने हर शख्स को वह अपने आसपास देखने के लिए और अपनी आँखें खोलने को उकसाता है। उसे अपने अंदर झांकने, अपने आप को तौलने के लिए मजबूर करता है। उसे अपनी शक्ति का अहसास करवाता है। झंडा आह्वान करता है कि लोग देखें, सोचें, सोच कर सिर उठाएं और सिर उठा कर आवाज़ उठाएं। आवाज़ दबाए जाने पर वे विद्रोह करें। अच्छा भला सिनेमाहॉल अब उस किले की तरह है जिसे सत्ता के मुकाबले उन्होंने खुद अपनी ताकत के तौर पर उसार दिया है- एक विकल्प के रूप में! फहराता हुआ झंडा सीने में खुभे तीर की तरह है। एक जगह पर दो सत्ताएं नहीं रह सकतीं। एक का दमन किया जाना जरूरी है। लेकिन कैसे ?
साल भर बीत गया। सिनेमा मालिक ने अदालत में याचिका दायर कर दी थी कि राज्य सरकार मामले को गम्भीरता से नहीं ले रही। वह न सिर्फ छात्रों के साथ नरमी बरत रही है जिसके कारण उसे भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है, बल्कि इस तरह अराजकता को भी बढ़ावा दे रही है। अदालत ने फैसला सुना दिया था कि सिनेमाहॉल जल्द से जल्द मालिक के सुपुर्द कर दिया जाए। लेकिन किस तरह? न कोई समझौता हो पाया और न ही कोई हल निकल पाया।
फिर साल दर साल बीतने लगे। हर साल राज्य के कोने- कोने से छात्र-छात्राओं का विशाल जमघट वहां इकट्ठा होता। जोशीले नारों से वे समूचे शहर को हिला कर रख देते। गलियां- बाज़ार एकबारगी चौंक चौंक उठते। शहर के वासी अपनी दैनिक व्यस्तताएं भूल कर उस अजेय, टंकारते हुए जुलूस के पीछे हो लेते। 'यादगार भवन' पहुंच कर भाषण होते। झंडा लहराया जाता। शहीदों के अधूरे काम को पूरा करने की कसमें खाई जाती.... और इस तरह हर साल शहीदी दिवस मनाया जाता।
पूरी फ़ाइल पढ़ लेने के बाद इंस्पेक्टर अजीत सिंह को लगा था कि दुश्मन उसी के इलाके में, उसके सामने खड़ा ललकार रहा है। उसे एकाएक ताव आ गया था। लेकिन यह भी वह जान चुका था कि दुश्मन कमज़ोर नहीं। बहरहाल वह शिद्दत से उस दिन का इंतज़ार कर रहा था जब शहीदी दिवस मनाने के लिए छात्र इकट्ठा होने वाले थे और आखिर आज वह दिन आ गया था।
लाल झंडे, बैनर, छोटी-बड़ी तख्तियां, लाठियां और हुमहुमाते हुए अनगिनत सिर हर तरफ फैले थे। वे सब हॉल के बाहर इकट्ठे हो चुके थे। मुख्य सड़क पर यातायात बंद था लेकिन राहगीर, रिक्शा, स्कूटर, साइकल चालक इस अवरोध के कारण परेशान या चिड़चिड़ाए हुए नहीं बल्कि स्तब्ध थे। वे उस सनसनी को महसूस कर रहे थे जो सिनेमाहॉल से लेकर सड़क तक की हवा में तारी थी और जिसके वशीभूत वे अपनी छोटी-मोटी चिंताएं स्वतः ही भूल गए थे। यहाँ तक कि घेरा बाँध कर खड़े पुलिसिए जवान अवाक और आत्म विस्मृति की-सी हालत में थे। उनके होंठ खुले, आँखें ऊपर टंगी और डंडे जमीन पर टिके थे। सिर्फ उनकी वर्दियां ही उन्हें बाकी लोगों से अलग करती थीं।
जोश से लबालब, हज़ारों नौजवानों के इस इक्ट्ठ में सन्नाटा छाया हुआ था। सुई पटक सन्नाटा ! हज़ारों जोशीले और उमड़ते रोष से भरे लोगों की उपस्थिति में ऐसा सन्नाटा होना... अपने आप में एक पूरी कहानी है। उसे छेड़ने या तोड़ने का कोई हौसला नहीं करता, क्योंकि वह वज्र की तरह टूटता है। इंस्पेक्टर अजीत सिंह यह न भी जानता होता तो इस वक्त अपने जवानों की हालत देख कर जान जाता।
सन्नाटा छाने से पहले सिर्फ एक वाक्य बोला गया था। सिनेमाहॉल पर फहराते सुर्ख झंडे के नीचे खड़े दुबले-पतले सिख युवक ने मुट्ठी तान कर अपनी आवाज़ की पूरी बुलंदी पर कहा था - "जहाँ शहीदों का खून बहा है वहां घुंघरूओं की आवाज़ हम नहीं पड़ने देंगे !"
उस आवाज़ का असर ऐसा था कि चारों तरफ की हलचल यकायक थम गई थी। हर आवाज़ खो गई थी। इंस्पेक्टर अजीत सिंह जवानों को निर्देश देता देता ठिठक गया था। उसका हाथ उठा का उठा रह गया था। उसने देखा कि युवक की मुट्ठी हवा में तनी थी। साँसों के उफान से उसकी नासिकाएँ बार-बार फूल रही थीं। सारे शरीर का लहू मानो उसके दमकते हुए चेहरे में समा गया था और आँखें तरल थीं।
इंस्पेक्टर ने इधर-उधर देखा और आश्चर्यचकित देखता ही रह गया। एक, दो, तीन, तीस, तीन सौ ... जहाँ तक उसकी नज़र गई, वही आलम था। हर चेहरा उस युवक के चेहरे की तरह सुर्ख था, वैसे ही साँसों के उफान को समेटे, सबकी आँखें एकटक उस युवक पर ही टिकी हुई थीं और फिज़ा में वे शब्द तैर रहे थे..... "जहाँ शहीदों का खून बहा है वहां घुंघरूओं की आवाज़ हम नहीं पड़ने देंगे, नहीं पड़ने देंगे !"
हर चेहरा यही कह रहा था। आँखें यही दुहरा रही थीं। इस एक वाक्य के पीछे अथाह ताकत का वह हुजूम अटका हुआ था... कि ज़रा भी बहने का मौका मिले तो हरहरा कर टूटे ! एक बार तो उस मंज़र की कल्पना करके इंस्पेक्टर अजीत सिंह भी लरज़ गया। उसने एक चक्कर खामखां इधर से उधर लगाया लेकिन ऐसे माहौल में अपना इस तरह से चलना उसे खुद अस्वाभाविक लगा। वह समझ नहीं पा रहा था कि वह अपने जवानों पर खीझे या उन्हें तमाचे मारने लगे, जो बुतों की तरह यूं खड़े थे मानो उनकी जान खींच ली गई हो। उनकी ऐसी हालत देख कर उसे बार-बार महसूस हो रहा था मानो उस विस्तृत और आक्रामक जमाव के बीच वह सबसे अलग पड़ गया हो, बिलकुल ही अकेला और निहत्था खड़ा हो। उसकी ऐंठी हुई मूंछें, तीखी पगड़ी और बूटों की 'ठक-ठाक ठक-ठाक' बिलकुल बेअसर हो गई हो और कि उसकी सारी ताकत बूँद-बूँद करके निचुड़ रही हो। वह हैरान- परेशान था। ऐसी अनुभूति उसे आज तक नहीं हुई थी।
"इस इमारत पर फहराता फुरेरा हमारी एकता और ताकत का सुबूत है और यह यूं ही फहराता रहेगा !" उस सन्नाटे में युवक की आवाज़ फिर गूंजी। इंस्पेक्टर ने इधर-उधर देखा और उसे लगा जैसे हर चेहरा हू-ब-हू यही दुहरा रहा हो। उस युवक की आवाज़ में जैसे उन सबकी आवाज़ भी शामिल हो।
.... और इस एकरूपता को महसूस करते ही इंस्पेक्टर की सारी उलझन यकायक दूर हो गई। खट से उसके सामने यह स्पष्ट हो गया कि बार-बार कोशिशें करने के बावजूद पुलिस, प्रशासन का कोई भी पैंतरा अभी तक कामयाब क्यों नहीं हो पाया.... कि छोकरों के चाहने भर से सिनेमाहॉल इतने बरसों से बंद क्यों पड़ा हुआ है... और कि वह खुद इस समय इतनी शिथिलता महसूस क्यों कर रहा है। वह साफ़-साफ़ देख रहा था कि झंडे के नीचे खड़े बोल रहे युवक की जगह इस भीड़ में से किसी को भी खड़ा कर दिया जाए- उसकी जुबान से भी वही शब्द निकलेंगे, उसकी आवाज़ में भी वही वलवले होंगें जो सबके दिलों में हिलोरे ले रहे हैं। और वे वैसा ही असर दिखाएँगे कि लगे, हर चेहरा बोल रहा है। यहाँ जुटी हुई भीड़ वैसी बिलकुल नहीं जिस पर वह लाम-लश्कर के साथ टूट पड़ता था। आज पहली बार, बारहा कोशिश करने के बावजूद वह उस आवेग को महसूस नहीं कर पा रहा था, जो उसे खूंखार बना डालता था।
"यह झंडा फहराता रहेगा, क्योंकि पिछले दस साल से फहरा रहा है !" न चाहते हुए भी इंस्पेक्टर अजीत सिंह के मन में अचानक कौंधा। और इस बार जवानों के चेहरे देखकर उसे खीझ नहीं हुई। वे उसे उन बच्चों जैसे लगे जो इम्तहान के वक्त सब सीखा सिखाया यकायक भूल गए हों।
(सारिका : नवंबर, 1984)