जेब-घड़ी, हाथ-घड़ी (असमिया कहानी) : सैयद अब्दुल मलिक

Jeb-Ghadi, Haath-Ghadi (Assamese Story in Hindi) : Syed Abdul Malik

आजकल मैं बहुत ही व्यस्त हूँ। व्यस्तता ही राजनीति है। हर तरफ बस कार्यक्रम ही कार्यक्रम हैं। किसी के साथ कुछ बातें करते रहने के समय भी उसे खुश करते, व्यग्र-अधीर, हड़बड़ाते रहना होता है। समय का एकदम अभाव हो गया है। बहुत सारे काम पड़े हैं। बहुत कुछ करने को पड़ा है। अनेक स्थानों पर जाना है। इस सबके अलावा विभिन्न संघों के प्रतिनिधिमंडलों के नाना प्रकार के आवेदन-अनुरोध, जनसमुदाय के नाना संघों की माँगें, शर्तें, प्रार्थनाएँ आदि तो हैं ही। “पेड़ जितना ही ऊँचा होता है, तूफानी हवा उतनी ही अधिक मात्रा में उसे झकझोरती-कोंचती है।”

अध्यापकीय जीवन में लड़के-लड़कियों को यह लोकोक्ति पढ़ाया करता था। अब इसकी यथार्थता को खुद ही महसूस कर रहा हूँ। आकाशवाणी से, जो थोड़ी देर के लिए समाचार प्रसारित होता है, उसे सुनते समय, उतनी जरा सी वेला में ही, तीन-तीन बार उठकर जाना पड़ता है। किसी के प्रार्थना-पत्र को स्वीकार करना, किसी के लिए किसी को दूरभाष (फोन) से बातें करना, किसी के द्वारा किए गए फोन की बातें सुनना—कहाँ तक गिनाएँ? काम का कहीं अंत ही नहीं। रात बीती कि न बीती, सबेरा हो पाया कि न हो पाया, कि नाना स्थानों से आए हुए लोगों—स्त्री-पुरुषों, युवकों-युवतियों—के आ इकट्ठा होने से मकान का मुख्य प्रवेशद्वार, सामने का सारा प्रांगण, बरामदा, बैठक सभी कुछ भर उठता है। सभी लोगों की बातें सुननी पड़ती हैं, सभी को कुछ-न-कुछ सलाह-परामर्श देनी होती हैं। कभी-कभी तो मुझे ऐसा अनुभव होता है, जैसे आदमियों की भीड़ से ऊपर-ही-ऊपर बहा जा रहा हूँ! जैसे कि मेरी अपनी कोई निजी समस्या नहीं, दूसरों की समस्याएँ हैं, अर्थात् दूसरों की भावना-चिंता, दूसरों का सर-दर्द ही मेरा सर-दर्द है।

मुझ जैसे आदमी का एक प्रदेश का मंत्री बन जाना, कभी-कभी मुझे स्वयं ही एक अविश्वसनीय घटना जान पड़ती है।

पहले ही विधायक (एम.एल.ए.) या मंत्री होना बहुत बड़ी बात जान पड़ती थी और क्या कहें? किसी को विधायक या मंत्री बनवाने के लिए निर्वाचन के समय मतदान का मत (वोट) जुटाने के लिए दौड़-धूप करना भी, एक विशेषतापूर्ण, अति महत्त्वपूर्ण बात जान पड़ती थी, किंतु अब तो मैं स्वयं ही एक मंत्री हूँ। गणतंत्र में सभी कुछ संभव है। अन्यथा यदि ऐसा न होता तो तुम जैसे एक गँवई-गँवार के उच्च माध्यमिक विद्यालय (हाई स्कूल) के एक सहायक अध्यापक के किसी दिन मंत्री बन जाने की घटना एक अविश्वसनीय बात ही समझनी पड़ती।

हाँ, इतना जरूर है कि अध्यायन कार्य करते हुए मैं थोड़ी-थोड़ी राजनीति भी नहीं करता रहा, ऐसा भी नहीं। हमारे इस देश में दुःखी, दरिद्र व्यक्ति ही राजनीति अधिक करते हैं। जिन दिनों मैं विद्यालय में अध्यापन करता था, उन दिनों माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक भी इन्हीं दुःखी-दरिद्रों की श्रेणी में आते थे। उन दिनों हमारा विद्यालय एक दैनिक समाचार-पत्र, एक या कि दो साप्ताहिक, पाक्षिक पत्रिका मँगवाया करता था। वही सब अध्यापकों के सामूहिक-कक्ष (कॉमन-रूम) की सार्वजनिक संपत्ति थे। उन्हें सभी पढ़ते थे। उनमें प्रकाशित कुछ बातों को लेकर सभी आपस में आलोचना-प्रत्यालोचना करते थे। कभी-कभी उन्हीं में से वे किसी विशेष बात को लेकर या समाचार को लेकर आपस में तर्कातर्की, वाद-विवाद करने में मशगूल हो जाते, इसी प्रकार की तर्कातर्की, वाद-विवाद का दूसरा नाम है राजनीति। इस प्रकार की तर्कातर्की, आलोचना-प्रत्यालोचना में मैं भी भाग लेता था और विद्यालय के बाहर होने वाली साधारण जनसभाओं, सभा-समितियों में भी प्रायः योगदान करता था। अतएव वही सबकुछ राजनीति था।

उसके बाद तो फिर सचमुच की राजनीति में भी प्रवेश कर गया। एक राजनीतिक दल के सक्रिय सदस्य के रूप में जो आरंभ किया तो क्रमशः एक स्थानीय छोटे नेता के स्तर तक ऊँचा उठ गया। उसके बाद तो सभा-समितियों, समारोहों के लिए प्रायः एक अपरिहार्य नेता ही हो गया। इस तरह मेरी कार्य-व्यस्तता और मेरी महिमा काफी बढ़ गई।

उसके पश्चात् अपने दल के प्रतिनिधि के रूप में चुना जाने पर विधायक (एम.एल.ए.) के निर्वाचन में प्रत्याशी के रूप में खड़ा हुआ। निर्वाचन का खेल खेलने के लिए मेरे राजनीतिक दल ने भी पर्याप्त मात्रा में रुपया प्रदान किया। निर्वाचन या चुनाव के खेल को खेल कहना तनिक भी असंगत नहीं है। दरअसल, यह भी एक खेल ही है। इसमें भी पक्ष है, विपक्ष है, दलबंदी है, हार-जीत है। इस खेल के भी अपने नियम-निर्देश हैं। खेल के कला-कौशल, नियम-कायदों से अनिभज्ञ होने पर हार जाना भी स्वाभाविक है। हाँ, अन्य खेलों में साधारणतः दो दल या टीमें होती हैं, परंतु निर्वाचन या चुनाव में यदा-कदा ही, कभी-कभार ही मात्र दो दल होते हैं। प्रायः कई-कई दल इस एक ही खेल को खेलने के लिए खेल-मैदान में उतरते हैं। पैरों से खेलने की गेंद, फुटबॉल, गेंद और बल्ले का खेल, क्रिकेट, हॉकी आदि खेलों में विजयश्री पाना या जीत प्राप्त करना निर्भर करता है खेलनेवाले खिलाड़ी की कला-दक्षता पर, परंतु हमारे देश में निर्वाचन या चुनाव के इस खेल में विजयश्री या जीत प्रत्याशी के गुण-अवगुण पर निर्भर नहीं होती। मुख्य रूप से वह निर्भर करती है रुपए पर। इसे देखकर ही निर्वाचन या चुनाव के इस खेल को बहुत से लोग ‘रुपए का खेल’ कहकर भी पुकारते हैं। दुःखी-दरिद्र, गरीब लोगों से भरे एक देश में भले ही ऐसी बात कहने का सुयोग नहीं है, परंतु और कोई व्यक्ति इस बात को यदि स्वीकार न भी करे, तो भी अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों से, अपने स्वयं भोगे हुए अनुभवों से मैं यह कह सकता हूँ कि इस बात में, बहुलांश में, अधिकाधिक मात्रा में सच्चाई है। रुपया न होने से निर्वाचन या चुनाव नहीं होता। रुपया न होने पर हम विधायक (एम.एल.ए.), मंत्री कुछ भी नहीं बन सकते।

मैंने भी निर्वाचन में क्या कोई कम रुपए खर्च किए? हाँ, यह सच है कि खर्च करने के लिए मेरे पास अपना निजी संगृहीत रुपया नहीं था। अध्यापकी कर-करके जो रुपए पा सका था, उससे तो महीना बिता पाना ही कठिन था। (घर के अत्यावश्यक खर्चों के लिए ही वह महीने भर को नहीं पोसाता था)। इस तरह जो कुछ रुपए मैं कमा सका था, उसके हिसाब से एक निर्वाचन चुनाव लड़ने में खर्च होने वाले रुपए तो मैं तीन जन्मों में भी नहीं कमा सकता था। मेरे निर्वाचन में खर्च करने के लिए इतने अधिक रुपए कहाँ से, किस विधि से आए, यह एक खुली हुई अतिगोपनीय कहानी है।

निर्वाचन में चुनाव लड़ने के लिए दल के प्रत्याशी चुन लिये जाने के बाद कुछ रुपए मैंने किसी-किसी से उधार में भी लिये थे। उस समय जिस किसी के पास भी रुपए थे, उनमें से किसी ने भी रुपए उधार देने से इनकार नहीं किया था। कुछ लोग तो ऐसे भी थे, जिनके पास यदि खुद का पैसा नहीं था, तो उन्होंने दूसरों से उधार लेकर मुझे रुपए दिए। मेरे अपने परिवार और नाते-रिश्ते के लोगों के अतिरिक्त मेरे विद्यालय के सहकर्मी सारे अध्यापकों ने भी अपनी-अपनी औकात के मुताबिक मुझे रुपए देकर मेरी सहायता की और तो और, यहाँ तक कि एक ही विद्यालय में पढ़ाने का काम करके जो अध्यापक सेवा-निवृत्त हो चुके थे, उनमें से भी दो-एक जनों ने मुझे रुपए दिए थे। जो स्वयं नहीं आ सकते थे, उन्होंने किसी और के हाथों रुपए भिजवा दिए थे।

रुपए देकर इसी प्रकार से सहायता प्रदान करनेवाले सेवानिवृत्त एक अध्यापक थे श्री पुष्पकांतनाथ। कुछ वर्षों पहले ही वे सेवानिवृत्त हुए थे। उन्होंने एक आदमी के हाथों मेरे निर्वाचन खर्च के लिए बीस रुपए पठवाए थे; उसी के साथ मेरी विजय के लिए शुभकामना प्रकट करते हुए एक छोटा सा पत्र भी भेजा था—

“तुम्हें आशीर्वाद दे रहा हूँ, जिससे कि तुम्हारी विजय हो। विजयी होकर जनता की भलाई करोगे, ऐसी आशा रखता हूँ। यदि मेरे पास होता, तो बढ़ाकर दो रुपए और पठाए होता। मेरी अवस्था तो जानते ही हो। आशा करता हूँ, बुरा नहीं मानोगे।—पुष्पकांत।”

बहुत संभव है, सभी लोगों के आशीर्वाद और शुभकामनाओं के भरोसे मैं निर्वाचन में विजयी हुआ (विधायक चुना गया) और सरकार में मंत्री भी बन गया।

मंत्री बन जाने के बाद धीरे-धीरे मैंने अनेक लोगों को उनके द्वारा दिए गए उधार, उनके रुपए वापस लौटा दिए। किसी-किसी ने उसे वापस लिया, अधिकांश ने नहीं लिया। उसके बदले उन्होंने अपना कोई-कोई, यह या वह, काम करवा लिया। किसी के लिए नौकरी, किसी का तबादला, किसी को पदोन्नति, किसी के लिए लाइसेंस, परमिट आदि मंजूर करवा लिया।

प्रायः सभी ने प्रसन्न मन से हँस-हँसकर कहा, “अरे, रुपए की भी कोई बात है? हमारा रुपया जो व्यर्थ नहीं हुआ, यही सबसे बड़ी बात है।” इस तरह मेरे निर्वाचन की वेला में रुपए उधार देकर, बाद में मेरे द्वारा लौटाए जाने पर भी जिन महान् व्यक्तियों ने उसे वापस नहीं लिया, उन लोगों को मैंने हृदय से अपना अत्यंत उपकारकर्ता और शुभचिंतक माना। ‘मछली चाहिए या कि झील चाहिए?’ इस तरह की लोकोक्तिपरक जिज्ञासा पर वे सभी लोग झील लेने के पक्ष में थे; क्योंकि झील के अपने कब्जे में बने रहने पर आखिर मछली कहाँ भागकर बचेगी?”

मन-ही-मन मैंने अत्यंत हार्दिक आनंद का अनुभव किया (यह सब मुझे बहुत अच्छा लगा)। निर्वाचन की लड़ाई जीतने के लिए जो तमाम रुपए मैंने पाए थे, यदि वह सारा-का-सारा फिर से लौटा देना पड़ता तो मंत्री के रूप में जो रुपए कमा रहा था, उसमें से कई महीनों की कमाई का रुपया खर्च कर देने को मजबूर हो गया होता! और यदि सचमुच ही ऐसा कर देना पड़ा होता तो इतने कम समय के अंदर राजधानी में मकान बनाने के लिए जमीन नहीं खरीद पाया होता और उस पर यह तीन मंजिला भवन भी नहीं गढ़वा पाया होता; यहाँ तक कि नई कार खरीदने के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने के लिए अपना नाम भी रजिस्टर नहीं करवा सका होता।

मंत्री को जनसाधारण में ख्याति प्राप्त करने के लिए, लोकप्रियता हासिल करने के लिए जनता के बीच घूमना-फिरना पड़ता है, दौड़-धूप करनी होती है। सभा-समितियों में भाग लेना, सभा-समितियों का आयोजन करना पड़ता है। घर के अंदर बैठे रहने से काम नहीं चलता। घूमने-फिरने, दौरा करते रहने से यात्रा-भत्ता (टी.ए.) दैनिक भत्ता (डी.ए.) आदि में कुछ रुपए बनते हैं। अधिकांश समय तो व्यस्तता ही अपनी बढ़ती हुई आयु की बात भी भुलाए रखती है। कभी-कभी घूमते-घूमते थक जाता हूँ। बस तभी, कभी-कभी मैं अनुभव करता हूँ, मैं उम्र के पचास वर्ष पार कर चुका एक बूढ़ा आदमी हूँ। मंत्री होने से अभाव, कमी, दुःख-दरिद्र कम हो सकता है, परंतु वयस? अर्थात् आयु तो कम नहीं होती।

अध्यापकीय जीवन में शिक्षा दे-देकर, पढ़ा-पढ़ाकर, जो धन अर्जित किया था, उसके सहारे निर्वाह कर पाना बड़ा कठिन होता था। समय-समय पर, बीच-बीच में उधार लेना पड़ता था। विद्यालय के अध्यापक उधार के रुपए बैंक से कर्ज नहीं लेते, उधार लेते हैं, साथ के ही अन्य सहयोगी अध्यापक से। इनसे-उनसे (ये उनसे, वे इनसे) उधार लेकर खर्च चलाने में कोई लाज-संकोच नहीं करते। किसी-किसी दिन और कहीं तालमेल न बैठा सका तो मैं एक आदमी से उधार लेता हूँ, उसी तरह किसी-किसी दिन एक आदमी मुझसे उधार लेता है। जिस दिन वेतन मिलता है, उस दिन फिर सारा कुछ लेन-देन का हिसाब-किताब दुरुस्त कर लिया जाता है। कभी-कभी किश्त-किश्त करके, किश्तों में भी उधार लौटाने, निबटाने का इंतजाम कर लिया करते हैं।

मेरे मंत्री बन जाने के बाद से ही मेरे गाँव के लोगों ने मुझे अनेक बार गाँव में आमंत्रित किया है। पहले मैं जिस कँहुवानी उच्च माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक के रूप में सेवा कार्य करता था, उस विद्यालय के छात्रों-अध्यापकों ने भी कई बार बुलाया है, मेरा अभिनंदन करने के लिए। विद्यालय के आस-पास के गाँवों की साधारण प्रजा ने भी अपने गाँवों में सादर आमंत्रित किया है। अत्यंत व्यस्तता में कार्यक्रम बैठा न पाने के कारण ही अभी तक उन लोगों के आमंत्रण पर जा नहीं पाया।

आज भले ही मैं मंत्री बन गया हूँ, तथापि मैं अपने जीवन के आरंभिक दिनों की बातें, अपने बचपन की बातें, उठती किशोरावस्था, युवावस्था की बातें बराबर भुलाए हुए तो नहीं रह सकता? अपने घरवाले गाँव से छह मील दूर पैदल चल-चलकर माध्यमिक विद्यालय (हाईस्कूल) में जाकर पढ़ाई की थी। सूरज की प्रखर धूप, भीषण गरमी, मूसलाधार वर्षा, किसी की भी परवाह किए बिना खेत में हल जोतकर खेती-बारी की थी। गाँव के संगी-साथी आदमियों के साथ दस मील दूर तक पैदल जाकर झील में मछलियाँ पकड़ा करता था। उस समय किए गए शारीरिक श्रम में भी एक आनंद था। थकान में भी एक तृप्ति थी। काम करने में जो देह को कष्ट होता था, उस कष्ट को कर गुजरने के बाद उभरी हुई चेतना मन में उत्साह और प्रेरणा जगाती थी। मगर अब तो ‘बूढ़े भैंसे को सींग ही महा भार’ हो गई है। इस समय मंत्री बन जाने के पश्चात् यदि दो दिन का विश्राम लेना चाहें तो चिकित्सालय (हॉस्पिटल) में रोगी के रूप में भरती होकर जनता से दूर भाग जाने के अलावा और कोई उपाय ही नहीं है। वहाँ भी रोगी का हाल-चाल पूछने, खोज-खबर लेने आए आदमियों की भारी भीड़ जुट जाती है।

तमाम सारी व्यस्तताओं में भी, जनता के प्रबल आग्रह पर एक कार्यक्रम निश्चित किया, एक दुपहरी का, अपने गाँव से पंद्रह मील दूर स्थित, कहुँवानी गाँव की राजकीय सभा में भाग लेने का। वहाँ पर वहाँ की जनता ने मेरे सम्मान-अभ्यर्थना में, आतिथ्य-अभिनंदन में कोई बहुत बड़ा आयोजन न कर पाने पर भी अपनी सामर्थ्य भर श्रेष्ठ आयोजन किया है। वहाँ पर मेरे बहुत सारे इष्ट-मित्र और जान-पहचान के अनेक लोग हैं। अपने गाँव में मुझे आमंत्रित कर वे लोग कुछ राजकीय प्रसाद चाहेंगे, जैसे—विद्यालय के भवन को बनवाने के लिए रुपए देने की जरूरत है। गाँव की मुख्य सड़क को पक्का करवाने की जरूरत है। पीने के पानी की व्यवस्था के लिए एक नलकूप लगवाना चाहिए। नौजवान लड़कों के लिए एक संघ बनाने और खेल के मैदान के निर्माण के लिए रुपए दिए जाने चाहिए।...आदि-आदि।

असमीया आदमी सामूहिक हित की बात सोचता है, कभी भी अपने लाभ के विषय में नहीं सोचता। सोचता है, स्थान के लिए, अपने अंचल (क्षेत्र) के हित के लिए, साधारण जनता के हित के लिए। राजकीय संपत्ति ही जन-साधारण की संपत्ति है। गाँव का आदमी शहर में जाकर किसी विधायक या मंत्री से अकेले में मिल पाने में सफल होने पर भी अपने निजी हित के काम की जगह—“हमारे गाँव की उस सड़क के लिए कुछ करने की जरूरत हैं न?” कहकर जनता के हित की बात ही कह आता है।

पहले मैं भी इसी प्रकार जनता का प्रतिनिधि बनकर मंत्री आदि के पास पहुँचता था। इस समय अब जनता मेरे पास आती है।

कहुँवानी गाँव मेरा बहुत पुरानी जान-पहचान का, अच्छी तरह जाना-बूझा गाँव है। आस-पास के कई गाँवों की प्रजा ने मिलकर वहाँ पर अत्यंत उत्साह से एक बहुत विशाल सभा-मंडप बनाकर विशालसभा का आयोजन किया है। क्योंकि एक मंत्री तो हमेशा (बार-बार) गाँव-गाँव चक्कर नहीं लगा सकता।

कहुँवानी गाँव की बातें याद पड़ने पर रह-रहकर मुझे पुष्पकांत नाथ-मास्टर की बातें याद हो आती हैं। मैं जब उस विद्यालय में पढ़ाने के लिए आया, उसके दो वर्ष बाद ही वे अपनी शिक्षक-सेवा से सेवा-निवृत्त हो गए। उस समय काम करते हुए मैं अपनी ओर से विद्यालय की ओर जाता था और वे मेरी दूसरी ओर से, उस छोर से अपनी पुरानी साइकिल को चलाते हुए विद्यालय आते थे। साइकिल खराब हो जाने पर कभी-कभी पैदल ही चले आते थे। यद्यपि उनकी उम्र काफी हो गई थी, तथापि उनका स्वास्थ्य अच्छा था। विद्यालय आने के विषय में वे समयनिष्ठ (पंक्चुअल) तथा नियमित थे, जरा भी हेर-फेर नहीं होने देते थे।

समय के प्रति चूँकि वे इतने अधिक सजग और सचेत थे, इसी वजह से विद्यालय के छात्रों ने उनका नाम ही रख दिया था—‘घड़ी-मास्टर।’ इसी तरह चूँकि मैं बराबर सभा-समितियों में भाग लेता फिरता रहता था, अतः मेरा नाम रख दिया था—‘समिति-मास्टर’। नाथ-मास्टर सदा एक पुरानी घड़ी अपनी जेब में लिये फिरते थे। एक ही विद्यालय में बिना किसी व्यवधान के, लगातार पैंतीस वर्षों तक शिक्षण सेवाकार्य करते हुए वे सेवा-निवृत्त हुए थे। गणित और अंग्रेजी विषय के अति पारंगत विद्वान् थे, परंतु चूँकि ग्रैजुएशन की डिग्री उनके पास नहीं थी, अतः विद्यालय की कुछ निचली कक्षाओं में ही पढ़ाया करते थे।

नाथ-मास्टर का नाम ‘घड़ी-मास्टर’ के रूप में विख्यात होने के संबंध में एक बात बहुत प्रचारित थी, वह सही थी कि गलत, मैं इस संबंध में निश्चयपूर्वक कुछ कह नहीं सकता। वह बात यह है कि—वे चाहे जहाँ कहीं रहें, पाँच मिनट या दस मिनट बाद घड़ी निकाल-निकालकर समय कितना हुआ है, देखते रहते थे। यहाँ तक कि साइकिल पर सवारी कर चलाते हुए जब आ रहे होते, तब भी। पोखरे या तालाब में जब स्नान करने के लिए जाते, जब भी घड़ी को साथ लिये जाते और बाँस या लकड़ी के मचान या पुल पर, अथवा पोखरे के किनारे घड़ी को सँभालकर रख लेने के बाद ही स्नान करते थे।

एक बार सरस्वती पूजा के उत्सव में नाथ-मास्टर की वह घड़ी अचानक खो गई। बहुत ढूँढ़ने-ढाँडने पर भी न मिली, तो नहीं ही मिली। “विद्यालय के ही किसी शरारती छात्र ने जान-बूझकर चुरा लिया है”—ऐसा एक निष्कर्ष सा मान लिया गया। नाथ-मास्टर को बहुत हार्दिक सदमा लगा, उनका मन मुरझा गया। घड़ी के अभाव में वे पलभर भी नहीं रह सकते थे। एक सप्ताह के अंदर ही उन्होंने नाना तरह के उपाय कर एक सौ पच्चीस रुपए जुटा लिये और उन एक सौ पच्चीस रुपयों से एक घड़ी, हाथ में बाँधी जानेवाली घड़ी (रिस्ट वॉच) नई घड़ी खरीद ली। अपने मासिक वेतन के साथ, पहले से बचाकर जुगाड़े गए रुपयों को भी मिला देने पर भी जब काम नहीं बन सका, तब उन्होंने कुछ अन्य अध्यापकों से भी कुछ रुपए उधार लिये थे, बीस रुपए या कि तीस रुपए या जाने कितने उधार लिये थे, मैं इस समय भूल गया हूँ। पहले वाली घड़ी के खो जाने से वे अतिशय उदास और खिन्न हो गए थे। अब हाथ में इस नई घड़ी को पहनकर वे परम प्रफुल्लित हो गए। घड़ी के प्रति उनके इसी प्रकार के मोह और आसक्ति को लक्ष्य करके ही छात्र-छात्राओं ने उनका नाम ‘घड़ी-मास्टर’ रखा था। उनकी अनुपस्थिति में हम लोग भी उन्हें इसी नाम से संबोधित करते थे। कुछ एक शरारती लड़कों ने उनकी घड़ी के संबंध में कुछ कहानियाँ भी गढ़कर प्रचारित कर दी थीं, जिसमें से दो इस प्रकार हैं—

“नाथ-मास्टर हमेशा सेवेर खूब तड़के भोर में नींद से जग पड़ते हैं और उठ बैठते ही सबसे पहले अपनी घड़ी में समय देखते हैं, उसके बाद पूरब में उगते सूर्य की ओर देखते हैं। तब कहते हैं—‘हाँ, आज सूर्य ठीक समय से उदय हुआ है। मेरी घड़ी के समय के साथ उसका समय ठीक-ठीक मिल रहा है। चार बजकर सत्ताईस मिनट पर आज सूर्य को उदित होना चाहिए!’

सूर्य मानो ‘घड़ी-मास्टर’ की घड़ी के समय के मुताबिक ही उगता है।

एक दिन ऐसा हुआ कि सूर्य उग जाने के बाद लगभग सात बज चुके थे, परंतु मास्टर कहते थे कि नहीं, अभी सूर्य नहीं उगा है। इतनी जल्दी सूर्य उग ही नहीं सकता।

बाद में पता लगाया गया तो मालूम हुआ कि घड़ी-मास्टर की वह घड़ी रात से ही बंद हो गई है, अर्थात् रात के तीन बजने के बाद से ही।

मेरे मंत्री बन जाने के बाद मुझे बधाई देते हुए घड़ी-मास्टर ने एक पोस्ट-कार्ड लिखा था और उसी में लिखा था कि जब कभी सुविधा मिल पाए, तब कहुँवानी गाँव में भी जाऊँ। ऐसा विशेष अनुरोध किया था। इतने दिनों तक सुविधा नहीं मिल पाई थी। अब जाकर इस बार एक सरकारी (राजकीय) सभा कहुँवानी गाँव में आयोजित हो रही है।

सभा के समारोह-स्थल पर अपने बहुत सारे जाने-पहचाने लोगों से भेंट-मुलाकात कर पाया। पहले के अपने सहकर्मी अध्यापकों, छात्र-छात्राओं और गाँव के निवासी साधारण प्रजाजनों, सभी ने जो खुले हृदय से आदर-सत्कार किया, उससे मैं सचमुच ही भाव-गद्गद हो, मंत्रमुग्ध हो गया। मैं मंत्री हो गया हूँ, बस इतने भर के लिए ही नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र, अपने गाँव-गिराँव के स्थानीय व्यक्ति होने के नाते, यहाँ अध्यापक था, इसलिए। मेरी उन्नति में सभी ने अपने मन का आंतरिक उल्लास सच्चे मन से अभिव्यक्त किया और अधिक उन्नति प्राप्त करने के लिए लागों ने आशीर्वाद दिया, शुभ-मंगलकामनाएँ प्रदान कीं। साधारण प्रजा की आंतरिक सद्भावनाओं से मैं सचमुच ही भावाभिभूत हो गया।

सभा की काररवाई जब समापन की ओर बढ़ रही थी तो शुभ-समापन के कुछ पहले ही एक लड़का आकर मेरे हाथ में एक पत्र थमा गया। मैंने पढ़कर देखा, एक बहुत ही संक्षिप्त सा, छोटा सा पत्र था। उसमें लिखा था—

“प्रिय श्रीमान,

आप हमारे इस गाँव-स्थान पर पधारे, यह समाचार पाकर मुझे हार्दिक आनंद हुआ। आज लगभग एक वर्ष हो गया कि जब से मैं रोगग्रस्त हो शय्या पर पड़ा हूँ। आपकी सभा में जाकर भाग न ले पाने से मन-ही-मन बहुत दुःखी हूँ। एक बहुत ही आवश्यक बात के लिए मुझे आप से भेंट करने की आवश्यकता थी। यदि आपके लिए सुविधाजनक हो सके, यदि संभव हो तो बहुत थोड़े समय के लिए ही सही, एक बार मेरे घर पर दर्शन दें। आपके आने से हम परम आनंदित होंगे। मुझे बहुत दुःख है कि मैं स्वयं आपके निकट नहीं आ सका।

मेरा शुभ आशीर्वाद लें।

तुम्हारा

पुण्यकांत नाथ

(घड़ी-मास्टर)।”

इसके पहले मैंने घड़ी-मास्टर की बीमारी के संबंध में कोई सूचना नहीं पाई थी। “उन्हें क्या हुआ? बहुत ज्यादा बीमार हैं क्या?” मैंने उस लड़के से पूछा।

“उनकी अवस्था बहुत अच्छी नहीं है। अब तो बिस्तरे से उठ भी नहीं सकते। अभी और अधिक दिन तक बचे रह सकेंगे, ऐसी आशा नहीं है। ऊपर से रुपए-पैसे का भी भारी अभाव है।”—लड़के ने बतलाया।

साँझ होने-होने को थी। समय का भी बहुत अभाव था। फिर भी मैंने एक बार के लिए घड़ी-मास्टर के पास जाने का निर्णय कर लिया। एक समय हम दोनों एक ही विद्यालय में पढ़ाते थे। आज उन्होंने बुलाया है। अब अगर न जाऊँ, तो इस समय न जाने पर वे समझ सकते हैं कि मंत्री हो जाने से मुझे बहुत घमंड हो गया है। हो सकता है, बीमारी की इस वेला में चिकित्सा करवाने के लिए दवा-दारू, रुपए-पैसे की भी असुविधा में पड़े हों। संयोगवश मेरी जेब में आज कुछ नकद रुपए भी हैं। यदि उन्होंने माँगा, तो कुछ रुपए उन्हें दे ही आऊँगा। और अगर किसी वजह से चिकित्सा के लिए अथवा उधार के रुपयों को लोगों को चुकता करने के उद्देश्य से बहुत अधिक रुपए माँग पड़ेंगे, तो एक आवेदन-प्रार्थना पत्र लिखवाकर स्वीकृति के लिए मंजूर कर दूँगा। बहुत सारे लोगों को इस प्रकार दे रहा हूँ, स्वयं पा भी रहा हूँ।

मैंने मन-ही-मन दृढ़ निश्चय कर लिया कि चाहे बहुत थोड़ी देर के लिए ही सही, रोग-शय्या पर बीमार पड़े घड़ी-मास्टर को एक बार जरूर ही देख आऊँगा। अकेले-अकेले जाऊँगा। पुलिस आरक्षियों को लिये बगैर। नाथ-मास्टर के घर मंत्री बनकर न जाने से भी चलेगा। सभा-समारोह जिस जगह हो रहा है, वहाँ से घड़ी-मास्टर के घर का रास्ता भी डेढ़ मील से अधिक नहीं है। जाकर बस एक बार भेंट करके, देखकर ही तुरंत लौट आऊँगा।

मेरी कार को ड्राइवर ने ले जाकर घड़ी-मास्टर के घर के दरवाजे के ठीक सामने खड़ा कर दिया। तब तक साँझ ढल आई थी। एक लड़का उनके द्वार के एक कोने में स्थित एक गोहाल में एक गाय बाँध रहा था। द्वार पर बाहर और कोई नहीं था। द्वार के खुले हुए किवाड़ों से देखा—कमरे के भीतर एक लालटेन जल रही है। यद्यपि उससे फैलनेवाला प्रकाश बहुत उज्ज्वल नहीं है, मद्धिम-मद्धिम रोशनी है।

मोटरगाड़ी से उतरकर मुख्य दरवाजे से मैं अंदर प्रवेश कर गया। एक बार के लिए मास्टर के घर को ध्यान से देखा। ऊपर छत की जगह घास-फूस का छप्पर है, मिट्टी से लिपा हुआ। झोंपड़ी की दीवारों पर जो लेप लिपा-पुता था, वह भी जगह-जगह से उखड़-पुखड़ गया है। गोधूलि वेला के इस नीम अँधेरे में यह घर-द्वार सारा कुछ एक परित्यक्त, उपेक्षित घर जैसा लग रहा है। बाहर अँधेरा घना होता जा रहा है।

द्वार की चौखट के पास जाकर खड़ा हो गया। सामने की कोठरी में एक मोढ़े पर बैठी हुई एक-वृद्ध महिला हड़बड़ाकर उठ खड़ी हो गईं और जल्दी-जल्दी में मेरे पास आ गईं। अपने घूँघट को अपने पके बालों के ऊपर खींचकर ढकते हुए उन्होंने कहा, “ओ, आप हैं! आप आए हैं! आइए-आइए।”—फिर कुछ जोर से आवाज ऊँची कर वे बोलीं, “अरे ओ! जरा देखो तो, वे आए हैं।”

“आए हैं, तनिक देखूँ तो। मेरा चश्मा कहाँ है? ठीक है, ठीक है। पा गया, पा गया।”

चश्मे को आँखों पर पहनकर उन्होंने मेरी ओर ध्यान से देखा।

नाथ-मास्टर के चेहरे पर भरी हुई पूरी दाढ़ी पसरी थी। दोनों आँखें कोटरे में धँस गई थीं। सभी-के-सभी दाँत गिर चुकने के कारण दोनों गाल अंदर की ओर पिचककर धँस गए हैं। उनके दोनों होंठ सूख गए हैं और रक्तहीन हो सफेद हो गए हैं। वे एकदम से क्षीण हो गए हैं, अत्यंत दुर्बल और पतले। यह तो पहले के घड़ी-मास्टर बिल्कुल ही नहीं लगते। पहले-पहल तो मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया।

वृद्धा-महिला ने अपने आँचल से पुरानी कुरसी को झाड़-पोंछकर साफ कर दिया और मुझे उस पर बैठने को कहा। मास्टर भी अपने बिस्तरे पर उठ बैठे। मैं भी कुरसी पर बैठ गया।

“आपका स्वास्थ्य अब कैसा है?”—मैंने पूछा।

“बढ़ी हुई आयु की अवस्था को देखते हुए अच्छा ही कह सकते हैं। बस इन दो आँखों से ही कम देखता हूँ। वस्तुतः दुर्बलता ही सबसे प्रमुख रोग है। अब उठकर चल-फिर नहीं पाता। तुम एक इतने बड़े मंत्री होकर हमारे गाँव में आए हो। अगर वहाँ तक जा सकने की शक्ति होती, तो भला जाता नहीं क्या? हाँ, तुम्हारा स्वास्थ्य कुछ अच्छा ही देख रहा हूँ, (खुशी हुई) मैं तो धीरे-धीरे ऐसी दशा को पहुँच गया हूँ कि उठ ही नहीं पाता।” उन्होंने धीरे-धीरे कहा।

वृद्धा महोदया ने पानदान मेरे आगे बढ़ा दिया। जान पड़ता है कि उसमें कसैली-सुपाड़ी पहले से ही काट-कूटकर रखी थी।

नाथ-मास्टर की खाट पर जो बिछौना था, उसका कपड़ा बिल्कुल मैला-कुचैला और जगह-जगह से कटा-फटा था। सर के नीचे के तकिए का गिलाफ तो और भी मैला और भी अधिक फटा-चिथड़ा था। उनके घर के भीतर-बाहर सर्वत्र ही दरिद्रता के चि इस कदर स्पष्ट थे कि जिन्हें किसी भी तरह छिपाया न जा सके।

मैंने लालटेन के उसी मद्धिम प्रकाश में नाथ-मास्टर की ओर बहुत ध्यान से देखा। उनके हाथ-पैर सभी कुछ बहुत पतले हो गए हैं, सूखकर काँटा। अंदर की शिराएँ (नसें) बाहर निकल आई हैं। उन्होंने जो गंजी (बनियान) पहन रखी है, वह भी बहुत ढीली-ढाली हो गई है। बनियान क्या, वह तो ऐसी लगती थी जैसे कि कमीज ही पहन रखी हो। अगर उनके कंठ का स्वर, बोली और आँखों की देखने की भंगिमा पहले की जैसी ही बनी नहीं रही होती, तब तो बहुत संभव है, मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया होता! वृद्धवस्था, दरिद्रता और तमाम सारे आघातों से चोट खाते-खाते इतने अधिक दुबले-पतले हो गए थे कि पहचाने ही नहीं जा सकते और देह में तो शक्ति नाम की चीज ही नहीं रही।

“घर में और कोई आदमी नहीं है क्या?”—मैंने पूछा।

इस बीच मास्टरनी घर के अंदर चली गई थीं। सो घड़ी-मास्टर ने कहा, “मेरे तो कोई बेटा हुआ नहीं। बस बेटियाँ ही तीन थीं। जैसे-तैसे उनका विवाह कर दिया। वे ही बीच-बीच में कभी-कभार आती हैं। अन्यथा हम दोनों बूढ़े-बूढ़ी और...”

घड़ी-मास्टर के कोई पुत्र-संतान नहीं है, यह बात तो मैं जान ही नहीं सका था। उन लोगों के दिन अत्यंत कष्ट में गुजर रहे हैं, यह समझने में अब मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई।

मैंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि चाहे घड़ी-मास्टर मुझसे रुपए की सहायता माँगें या न माँगें, कम-से-कम एक सौ रुपए तो उन्हें देकर ही जाऊँगा।

तभी घड़ी-मास्टर ने कहा, “भाई! तुम्हें एक बहुत आवश्यक, एक विशेष प्रयोजन से बुलवाया है। मंत्री हो गए हो, इस तरह बेकार में बुलवा लेने से बुरा तो नहीं महसूस कर रहे हो?”

“नहीं, मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा। तनिक भी तकलीफ महसूस नहीं हुई।” अपने कंठस्वर को स्पष्ट दृढ़ आधार देते हुए मैंने खुले दिल से कहा, “हाँ, इतना जरूर है कि मेरे पास सच में ही अधिक समय नहीं है। बहुत शीघ्र ही जाना पड़ेगा। आप तो जानते ही हैं, नाना प्रकार के राजकीय बंधन-जंजाल घेरे हुए हैं। उधर बहुत सारे लोग प्रतीक्षा में घेरे बैठे हैं।”

“जानता हूँ, खूब अच्छी तरह जानता हूँ। मैं तुम्हें यहाँ बैठाए नहीं रखूँगा। देर तक रोकूँगा नहीं। मेरा पत्र पाकर तुम मेरे यहाँ आ गए, इसी से हम परम आनंदित हो गए, बहुत भला लगा हमें। अरे ओ! इधर तो आओ, सुनती हो!”—घर के अंदर गई हुई मास्टरनी को उन्होंने ऊँचे स्वर में, लगभग चीखकर पुकारा।

“देखिए, चाय-जलपान वगैरह कुछ भी मत तैयार करिएगा, मैं सभी कुछ भरपेट खाकर आया हूँ। बस, अब आज्ञा दीजिए, मुझे अब जाना ही होगा।”...मैंने अनुरोध करते हुए विनय के स्वर में कहा।

“चाय-जलपान करवाने के लिए व्यग्र नहीं हो रहा हूँ। वह सब करवाना नहीं चाह रहा मैं। तुम्हारे जैसे श्रेष्ठ आदमी को मैं चाय-जलपान करवाऊँगा भला! बस एक जरा सी बात भर है।”

घर के अंदर की ओर निहारकर मास्टर ने फिर बूढ़ी को आवाज लगाई—“अरे ओ! देखो भी। इन्हें जाना है। लाओ, जल्दी करो। झटपट लाओ, देरी मत करो।”

“आप क्या कुछ लाने को कह रहे हैं?—चाय मँगा रहे हो, तो क्षमा करेंगे, इस समय मैं पी नहीं सकूँगा।”

घड़ी-मास्टर ने अबकी बार बिल्कुल आमने-सामने हो सीधे-सीधे मेरे मुँह की ओर ध्यान से देखा, फिर बोले, “मैं कह नहीं सकता कि तुम मुझे क्या समझते हो? कैसा समझ रहे हो! तुम्हें अभी तक याद भी है या नहीं, मैं यह भी नहीं जानता। वही जब तुम भी हमारे विद्यालय में अध्यापक नियुक्त होकर पढ़ा रहे थे—दस-बारह वर्ष बीत गए होंगे, संभवतः...”

वे किस संबंध में बातें करना चाहते हैं, इसका अनुमान न लगा पाकर मैंने यों ही कह दिया—“हाँ, तेरह वर्ष हो गए होंगे।”

“ठीक है, जाने भी दो; तेरह वर्ष ही हो गए। मैं भी सेवा-निवृत्त हो गया। तुमने भी शिक्षण कार्य-अध्यापकी का काम छोड़कर राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण कर दिया। उस समय मैं किसी भी प्रकार सुविधा जुटा नहीं सका।”

तभी बूढ़ी मास्टरनी घर के अंदर से निकलकर बाहरवाली उस कोठरी में आ गईं और अपने हाथ की मुट‍्ठी में एक पुराना लिफाफा, जो वे पकड़े हुए थीं, उस लिफाफे को उन्होंने मास्टरजी के हाथों में थमा दिया—“लीजिए, यह रहा।”

“ठीक से गिनकर देख लिया है न?”—मास्टरजी ने उनसे पूछा।

सर हिलाते हुए मास्टरनी ने कहा, “पहले जैसे रखा था, ठीक उसी तरह ही पड़ा हुआ है।”

उस लिफाफे को मेरी ओर आगे बढ़ाते हुए घड़ी-मास्टर ने कहा—“देखो भाई, लो, इसे रख लो।”

मैंने बिना किसी विशेष भावना-चिंता किए ही उस लिफाफे को ले लिया और पूछा—“यह आप क्या चीज दे रहे हैं?”

“ओह! संभवतः तुम्हें अब कुछ याद ही नहीं है। मेरी पहले की जेब-घड़ी जब खो गई थी, तब नई हाथ-घड़ी खरीदने के लिए मैंने तुमसे जो तीस रुपए उधार लिये थे, आज इतने दिन बीत जाने पर भी लौटा न सकने के कारण मन में बहुत ही बुरा महसूस होता था। इधर बीच में मेरा शरीर बहुत रुग्ण हो गया था, गंभीर रूप से बीमार हो गया था। मैं स्वयं भी ऐसा सोचने लगा था कि अब और नहीं बचूँगा। मेरी बेटियों ने और जामाताओं ने आकर, डॉक्टर लगाकर, चिकित्सा करा-कराकर किसी तरह बचा लिया। उस समय यह सोचकर कि अब मेरा रोग कभी ठीक न हो सकेगा, तुम्हारे दिए गए रुपयों को जैसे-तैसे लौटा देने की चिंता से बेहाल हो गया था। तुम तो संभवतः उस संबंध में कुछ सोचते ही न रहे हो, लौटा लेना भूल ही चुके हो, परंतु उसे जब तक मैं लौटा न देता, कभी शांति नहीं पा सकता हूँ।”

उनकी बातें मैं ऐसे चुपचाप सुन गया, जैसे कोई धर्मोपदेशपरक पौराणिक कहानी सुन रहा हूँ।

“परंतु फिर यकायक झट से तीस रुपए जुटा पाना भी तो मेरे जैसे आदमी के लिए कोई बहुत मामूली, बहुत आसान बात नहीं है, सो तो तुम जानते ही हो। मेरी बीमारी के चलते दवा-दारू में खर्च के लिए घर के कबूतर, बतख, जो कुछ भी थे, बेच-बेचाकर सभी समाप्त हो गए। तुम्हें विश्वास नहीं होगा, या कि तुम इस संबंध में सोच भी नहीं सकते, फिर भी जेब-घड़ी खो जाने के बाद, जो हाथ-घड़ी मैंने खरीदी थी, अपनी बूढ़ी पत्नी के साथ विचार-विमर्श कर, उसकी सहमति मिल जाने पर मैंने वह हाथ-घड़ी चालीस रुपए में बेच दी। उसमें से भी दस रुपए आखिर खर्च हो गए। शेष बचे तीस रुपयों को ऐसे खर्च न करके तुम्हें लौटा दूँगा, ऐसा निश्चय कर उन्हें सँभालकर रख दिया था। तुमने अगर उस समय मुझे वे रुपए नहीं दिए होते, तो उस समय तो वह हाथ-घड़ी मैं किसी भी तरह खरीद ही नहीं सका होता।”

दुःखी-परेशान होकर मैंने कहा, “परंतु मेरे उन तीस रुपयों के लिए आपने अपनी उतने दिन की पुरानी घड़ी क्योंकर बेच दी? क्या मैंने उन कुछ रुपयों को आपसे कभी माँगा था? अरे, यह बात तो मेरे मन के किसी भी कोने में रह ही नहीं गई थी। मैंने कभी इसे याद रखा ही नहीं।”

“तुम्हारे मन में न रही हो, तुम्हें याद भले ही न रही हो, परंतु यह बात मेरे मन में बराबर बनी रही थी, मुझे अच्छी तरह याद थी। तुम माँगो, चाहे मत माँगो, यह तो कोई बात नहीं, परंतु मुझे तुम्हारा उधार लौटाना है, यही बड़ी बात है। और मेरे लिए अब हाथ-घड़ी पहनने के दिन भी नहीं रहे।”

लिफाफे को मास्टरजी की ओर बढ़ाकर मैंने अनुनय के स्वर में कहा, “अरे, यह सब आप क्या कर रहे हैं? कब, कहाँ, कितना रुपया जाने किस परिस्थिति में आपने लिया था, मुझे तो यह जानकारी से ही भारी आश्चर्य हो रहा है कि उन्हीं रुपयों को वापस लौटा देने के लिए आपने मुझे बुलवाया है। लीजिए, यह लिफाफा अब अपने पास ही रखिए।”

घड़ी-मास्टर ने कहा, “जल्दी ही, समय से नहीं लौटा पाया, इसके लिए रंज मत मानिएगा। ये रुपए दया कर रख लीजिए, नहीं तो मेरे मन को बहुत ठेस लगेगी।”

मैंने कहा, “ठीक है, ठीक है। आपने दिया और मैंने ले लिया। हो गई बात पूरी। अब इन रुपयों को आप ही रखिए। आजकल मेरे पास पर्याप्त रुपया-पैसा है।”

मास्टर ने कहा, “जानता हूँ, इस समय तुम्हारे पास काफी रुपए हैं, मगर इस समय जो रुपए तुम्हारे पास हैं, वे सारे-के-सारे मंत्री के रुपए हैं। पहले के विद्यालय के एक मास्टर के रुपए नहीं न हैं! तुमने मुझे अपने उस मास्टर के रुपए ही दिए थे, भूल गए क्या? अरे भाई! उन रुपयों का अपना एक अलग ही प्रकार का स्वतंत्र मूल्य है। लो, अपने उन्हीं इन कुछ रुपयों को अपने पास रखो।”—बड़े आतुर-अनुरोध के स्वर में पुण्यकांत मास्टर ने कहा।

ऐसी दशा में मैंने अपने आपको बहुत ही असहाय और लाचार महसूस किया, बिल्कुल विवश। मैंने अनुभव किया कि अगर इन थोड़े से रुपयों को मैं अब भी अपने पास नहीं रख लेता तो मास्टर को सचमुच ही बहुत मानसिक क्लेश पहुँचेगा। जाने कब का, किसी परिस्थिति में लिया गया वह कुछ रुपया वापस लौटाकर मास्टर बहुत ही संतोष और शांति का अनुभव कर रहे हैं।

फिर मैं कुछ भी बोल नहीं सका। मैंने मन-ही-मन अनुभव किया कि इस समय अगर मैं घड़ी-मास्टर को तीन सौ रुपए भी दूँ तो भी वे स्वीकार नहीं करेंगे।

तदनंतर मैं चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।

“आज तुम्हें चाय-जल-जलपान कुछ भी, एक बूँद भर खिला-पिला नहीं सका। बुरा मत मानना मेरे भाई।”

बूढ़ी मास्टरनी ने कहा, “इस तरफ आने पर कभी हमारी ओर भी एक चक्कर मार जाइएगा।”

आदत-अभ्यास के मुताबिक घड़ी में समय देखने के अंदाज में, घड़ी-मास्टर ने अपने बाएँ हाथ की सूखी डाल सी कलाई को ऊपर उठाकर, उसकी ओर दृष्टि गड़ाकर देखा, उसके बाद मेरी ओर देखकर कहा, “जब से घड़ी चली गई, घड़ी के अभाव में समय का भी कुछ अंदाज लगा पाना असंभव हो गया। आखिर समय कितना हो गया है?”

उनकी इस जिज्ञासा पर भी अपनी कलाई की घड़ी की ओर दृष्टि ले जाकर समय देखने का मेरा मन नहीं हो सका।

मैंने घड़ी-मास्टर के घड़ी-रहित हाथों की सूखी ठठरी की ओर एक बार ध्यान से देखा। फिर उसके बाद उन दोनों को ही प्रणाम कर, शुभकामना व्यक्त करके मास्टर के घर से बाहर निकल आया। उस वेला में मेरे हाथों की मुट्ठी में दस-दस रुपयों के तीन नोटों से भरा एक पुराना लिफाफा पड़ा था। उस समय सौ-सौ रुपयों के तह-के-तह नोट पड़े थे, मेरे रुपयों के तोड़े (मनी बैग) में। परन्तु इस पुराने लिफाफे के उन तीन नोटों को रुपये के तोड़े में पड़े नोटों की गड्डियों के साथ रखने का मेरा मन बिलकुल ही नहीं हुआ।

लिफाफे को हाथ की मुट्ठी में लिये-लिये ही मैं अपनी मोटर-कार की ओर बढ़ गया। मेरी दृष्टि के सामने झलकती रही घड़ी मास्टर के घड़ीहीन हाथ की सुखी कलाई । उनके मुंह पर कोटरों में फंसी हुई दोनों आँखें और पकी हुई दाढ़ी से भरा, सूखा, सफेद पड़ा उनका चेहरा। सभी आँखों के सामने झिलमिलाते रहे। (परन्तु अन्ततः) एक आश्चर्यजनक अपूर्व परितृप्ति और आनन्द से वह सूखा मुख-मण्डल, लालटेन के उस मद्धिम प्रकाश में आनन्दोज्ज्वल प्रकाश से चमक उठा है।

अपनी मोटर-कार में जा बैठा।

मैं अपने-आपको ही अपराधी जैसा महसूस करने लगा। जैसे कि घड़ी मास्टर के हाथ की कलाई को सूना कर मैंने ही घड़ी मास्टर की हाथ घड़ी निकाल ली है।

(अनु० : डॉ. महेन्द्र नाथ दुबे)

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