जवानी से पहले ही (कहानी) : आचार्य मायाराम पतंग
Jawani Se Pehle Hi (Hindi Story) : Acharya Mayaram Patang
प्रसिद्ध गजलकार मंगल नसीम की गजल का एक शेर है-
"कोई तमील उम्र भी, यूँ ही जिया नसीम ।
कोई जरा सी उम्र में, इतिहास रच गया । "
जब भी ये पंक्तियाँ मेरी स्मृति में उभरती हैं, मुझे उस शहीद की याद कचोटने लगती है, जो जवानी में कदम रखने से पहले ही बलिदान हो गया। उम्र का पहला पड़ाव ही उसकी उम्र का आखिरी पड़ाव बन गया।
'बाँटो और राज करो' अंग्रेजी राज की यही कूटनीति रही। उन्होंने संसार भर में इसका प्रयोग किया। सन् 1905 में बंगाल को पूर्वी और पश्चिमी दो भागों में बाँटने में वह सफल रहा। यद्यपि उस समय के भारतीय नेताओं ने इस विभाजन का जी-जान से विरोध किया था। जनसभाएँ की गईं, प्रदर्शन किए गए। क्रांतिकारियों ने सशस्त्र विरोध भी किया। अंग्रेज सरकार ने हर स्तर पर दमन की नीति को अपनाया। अंग्रेजी शासन के उच्च पदों पर आसीन सभी अफसर अत्याचार करने में होड़ लगाए रहते थे ।
एक था कलक्टर किंग्सफोर्ड । उसने न्यायाधीश रहते कभी न्याय का पक्ष नहीं लिया। भारतीयों को वह जन्मजात अपराधी मानता था और साधारण विवादों में भी उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देता। कुछ क्रांतिकारियों में इसके विरुद्ध कदम उठाने की चर्चा चलने लगी। खुफिया विभाग को इसकी भनक लग गई। किंग्सफोर्ड का स्थानांतरण बंगाल से बिहार में कर दिया गया। वह मुजफ्फरपुर में जिला जज बनकर पहुँच गया। क्रांतिकारी दल अनुशीलन समिति ने उसकी गतिविधि की जानकारी ली। विचार-विमर्श हुआ - किंग्सफोर्ड को कौन समाप्त करे ? गोली मारने की बात तय हुई, परंतु तभी एक किशोर ने कहा, "यह कार्य मैं करूँगा, गोली नहीं, बम से मारूँगा। मैंने सेनापति बायरजी से बम बनाना सीखा है। अपने बनाए बम का पहला प्रयोग किंग्सफोर्ड पर करने की मुझे अनुमति दी जानी चाहिए।" पहले तो सभी प्रमुख क्रांतिकारियों ने अनुभवहीन किशोर को यह जिम्मेदारी देने से इनकार कर दिया; परंतु उसके विशेष आग्रह पर यह दायित्व सत्रह वर्षीय खुदीराम बोस को सौंप दिया गया। उसके सहयोग के लिए प्रफुल्लचंद्र चाकी को लगाया गया।
19 अप्रैल, 1908 को दोनों क्रांतिकारी नवयुवक मुजफ्फरपुर (बिहार) पहुँच गए। वहाँ उनका कोई परिचित नहीं था, अतः एक धर्मशाला में ठहरे। दस दिन तक रोज प्रातः से सायं तक शहर में घूमते, कचहरी जाते, लोगों से मिलते। यह जानकारी जुटाते कि किंग्सफोर्ड कब, कहाँ, किस मार्ग से आता-जाता है। उन्होंने मालूम कर लिया कि अपने कार्यालय के बाद वह सायंकाल किसी क्लब में जाता है 18 बजे से 8.30 बजे तक वहाँ से बग्घी में बैठकर वापस आता है। उस जमाने में बग्घी को ही शान की शाही सवारी समझा जाता था । प्रायः सभी बड़े अफसर बग्घी पर सवार होकर सैर-सपाटा किया करते थे ।
30 अप्रैल की शाम को 8 बजे से पूर्व ही खुदीराम बोस और प्रफुल्लचंद्र चाकी किंग्सफोर्ड की कोठी के आसपास जा छिपे । अँधेरे में पेड़ों के पास आसानी से कोई उन्हें देख नहीं पा रहा था। क्लब में ही खेलने के लिए मैडम कैनेडी और उसकी पुत्री भी आई हुई थीं। किंग्सफोर्ड ने कहा, 'आप लोग कोठी पर चलें, मैं थोड़ी देर में आता हूँ।" कैनेडी और उसकी युवा पुत्री क्लब से निकलकर कोठी की ओर चल पड़ीं। बग्घी के घोड़े की टाप जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही थी, वैसे-वैसे क्रांतिवीर बम फेंकने की तैयारी में उतावले हो रहे थे। ज्यों ही बग्घी द्वार के पास आकर रुकी, दोनों अँधेरे में कूदकर सामने आ गए और बहादुर खुदीराम बोस ने बग्घी पर बम फेंक दिया। भारी विस्फोट के साथ बग्घी के परखच्चे उड़ गए। इस विस्फोट में बेटी कैनेडी तो तत्काल मर गई और श्रीमती कैनेडी इतनी बुरी तरह घायल हुईं कि चिकित्सा प्राप्त होने से पहले ही उसने दम तोड़ दिया ।
बम फेंकते ही दोनों नवयुवक विपरीत दिशाओं में भागे, ताकि पकड़नेवाला भ्रमित रहें। दोनों को कोई पकड़ नहीं सका, क्योंकि वे रात भर भागते रहे। सब ओर पक्की सड़कें उस समय नहीं थीं और न ही पुलिस के पास गाड़ियाँ थीं। रात भर भागते-भागते खुदीराम प्रातः एक गाँव में पहुँचा। गाँव का नाम था बेनीपुर । रात भर भागते-भागते वह बुरी तरह थक गया था । दम फूल रहा था। पच्चीस मील से अधिक दौड़ चुका था। भूख भी लग रही थी। गाँव के बाहर दुकान देखकर वह थम गया। सोचा, कुछ गुड़-चने ले लूँ । पानी पीने का सहारा हो जाएगा। दुकान पर कई लोग बैठे थे। दो सिपाही भी खड़े थे। तभी एक ने कहा, "कल रात मुजफ्फरपुर में जज साहब की कोठी के आगे किसी ने बम फेंककर श्रीमती कैनेडी और उसकी जवान बेटी को मार दिया।" खुदीराम के मुँह से अचानक निकल पड़ा, "अच्छा! तो क्या किंग्सफोर्ड बच गया ?" पुलिसवाले उसकी बात सुनकर चौंके और शक के आधार पर उसे पकड़ लिया। वीर नौजवान ने स्वीकार कर लिया कि बम उसने ही फेंका था, परंतु वह तो किंग्सफोर्ड को मारना चाहता था। पुलिस की पकड़ में आने के बाद जो होना था, सो हुआ खुदीराम को मुजफ्फरपुर ले जाया गया। वहाँ से भेजा गया कलकत्ता ।
कलकत्ता न्यायालय में खुदीराम बोस पर मुकदमा चलाया गया। आरोप तय हुआ। 13 जून, 1908 को न्यायाधीश ने नाबालिग होते हुए भी फाँसी की सजा सुना दी। क्रांतिकारियों के वकील ने हाईकोर्ट में अपील दाखिल की। हाईकोर्ट में दलीलें हुईं, तर्क-वितर्क हुए, परंतु हाईकोर्ट ने निचले कोर्ट के निर्णय को मान्य कर दिया। उनका कहना था कि नाबालिग होते हुए भी राजद्रोह तथा दोहरे हत्याकांड का आरोप अत्यंत संगीन है।
फाँसी की तारीख तय हुई 11 अगस्त, 1908। उस दिन वह 18 वर्ष का हो रहा था। जवानी की ड्योढ़ी पर कदम रखते ही उसने मृत्यु का वरण कर लिया। खुदीराम बोस 11 अगस्त, 1908 को प्रातः काल 6 बजे ही फाँसी के तख्ते पर पहुँच गया। उसका धर्मप्रेम और देशप्रेम जगजाहिर था, तो भी प्रमाणस्वरूप दो वस्तुएँ उसके साथ थीं। खुदीराम अपने साथ 'श्रीमद्भगवद्गीता' की पोथी लेकर आया था। गीता पर उसका विश्वास था। वह फल की इच्छा के बिना देशसेवा के कर्म में लगा हुआ था। गीता के उपदेश निष्काम कर्मयोग और आत्मा की अमरता का वह विश्वासी था। देशप्रेम का प्रतीक था वंदेमातरम् राष्ट्रगीत । खुदीराम बोस ने सस्वर वंदेमातरम् गीत गाया। बिना डर, बिना घबराए, बिना हिचकिचाए वंदेमातरम् गाया। फिर जोर से बोला, "भारतमाता की जय" और बिना भय के फाँसी का फंदा गले में पहन लिया। आत्मविश्वास से अब भी उसका चेहरा चमक रहा था। देखते-देखते वह भारत माँ का लाल मातृभूमि की आजादी के लिए शहीद हो गया ।
गंडक नदी के किनारे उस पवित्र आत्मा के दिव्य शरीर का अंतिम संस्कार किया गया। हजारों की संख्या में लोगों ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। खुदीराम बोस को असीम श्रद्धा के साथ जनता ने विदा दी। अनेक लोग श्रद्धावश उस बलिदानी वीर की राख अपने घरों को ले गए, ताकि उनके बच्चे भी निर्भय और देशभक्त बनने का संस्कार ग्रहण कर सकें ।