जन्मदिन (कहानी) : वैक्कम मुहम्मद बशीर

Janmdin (Malayalam Story in Hindi) : Vaikom Muhammad Basheer

‘मकरम’ यानी माघ महीने की आठ तारीख। आज मेरा जन्मदिन है। रोज से अलग आज मैं तड़के उठा; नित्यक्रम से निवृत्त हुआ। आज के लिए रखा खादी का सफेद कुरता, सफेद धोती और सफेद किरमिची जूता पहनकर अपनी आरामकुरसी पर चित्त लेट गया। दिल डूबा जा रहा था। मुझे तड़के उठा देखकर पड़ोस के कमरे में शान से रहनेवाले मैथ्यु को ताज्जुब हुआ। मुसकराते हुए अभिवादन किया—

‘‘हेलो, गुड मॉर्निंग!’’

‘‘यस, गुड मार्निंग!’’ मैं बोला।

‘‘आज सुबह—सुबह कहीं जाना है क्या?’’ उन्होंने पूछा।

‘‘नहीं’’, मैं बोला, ‘‘आज मेरा जन्मदिन है।’’

‘‘युवर बर्थडे?’’

‘‘यस!’’

‘‘ओ—आई विश यू मेनी हैपी रिटर्न्स ऑफ ए डे।’’

‘‘थैंक्यू!’’

मैथ्यु हाथ का ब्रश दाँतों से पकड़ते हुए गुसलखाने में गया। इधर—उधर से शोर—शराबा और फूहड़ गाने। छात्र और बाबू लोग हैं, किसी को कोई चिंता नहीं। अलमस्त जिंदगी। मैं सोच रहा था, थोड़ी चाय का बंदोबस्त कैसे हो? दोपहर के खाने का इंतजाम हो चुका था। कल बाजार में मिले हमीद ने बेवजह ही खाने पर बुलाया। वह एक छोटा कवि और बड़ा रईस है। लेकिन दोपहर तक चाय पिए बिना रहना मुश्किल। एक कप गरम चाय के लिए क्या करूँ? मैंने कमरे में बैठकर अंदाजा लगाया कि मैथ्यु का बूढ़ा नौकर उसके लिए चाय बनाने में लगा होगा। मेरा कमरा मैथ्यु की रसोई का स्टोर—रूम है। महीने में आठ आना किराए पर मकान मालिक ने ही यह कमरा मुझे दिया है। इस मकान का सबसे छोटा और घटिया कमरा। इसमें मेरी आरामकुरसी, मेज, अलमारी और बिस्तर के अलावा साँस छोड़ने की भी जगह बाकी नहीं। बड़े परकोटे के अंदर, तीन मकानों में ऊपरी और निचली मंजिलों के सारे कमरों में छात्र और बाबू लोग रहते हैं। एक मैं ही हूँ, जिसे मकान—मालिक बिल्कुल नहीं चाहता। मुझे नापसंद करने का एकमात्र कारण यह है कि मैं ठीक से किराया नहीं देता। ऐसे दो और भी हैं, जिन्हें मैं पसंद नहीं। होटलवाला और सरकार। होटलवाले का मैं कर्जदार हूँ। सरकार का मुझ पर कोई उधार नहीं, फिर भी सरकार को मैं फूटी आँख नहीं सुहाता। रहगुजर की यह तीसरी जगह है। अब मेरे कपड़ों, जूतों और बत्ती की बात। (सारी बातें लिखने के पहले स्पष्ट करना चाहता हूँ कि अब आधी रात बीत चुकी है। कागज—कलम के साथ कमरे से निकलकर बहुत समय से शहर में घूम रहा था। किसी खास इरादे से नहीं। आज की डायरी शुरू से अंत तक लिखनी है। इसमें एक बढ़िया कहानी की संभावनाएँ हैं। लेकिन मेरे कमरे के दीये में तेल नहीं। लिखने के लिए बहुत कुछ है, इसीलिए चटाई से उठकर बिजली के खंभे की टेक लगाकर घटनाओं को ताजा—ताजा लिखने लगा हूँ।) बरसनेवाले बादलों की तरह दिन भर की घटनाएँ अंदर विस्फोटक हालत में घुमड़ रही हैं। असाधारण कुछ नहीं। मेरा जन्मदिन। मैं आज अपने गाँव से बहुत दूर पराए इलाके में। हाथ एक कौड़ी नहीं। उधार मिलना मुमकिन नहीं। कपड़े—वपड़े दोस्तों के। कुछ भी मेरा नहीं। इसलिए इस दिन के बार—बार दोहराए जाने के मैथ्यु के अभिवंदन ने मुझे दर्द दिया।

मैं याद करता हूँ।

सात बजे—मैं आरामकुरसी पर लेटकर सोच रहा था। कम—से—कम आज का दिन खालिस रहना चाहिए। किसी से उधार नहीं लेना चाहिए। किसी झमेले में नहीं पड़ना चाहिए। इस दिन का शुभांत होना चाहिए। आज का मैं, बीते दिनों के गोरे—काले दायरों में दिखते सैकड़ों मुझसे अलग हो। आज मेरी अम्र कितने साल की है? पिछले साल से एक ज्यादा। पिछले साल—छब्बीस, बत्तीस और सैंतालीस?

मन में टीस उठी। उठकर आईने में देखा तो चैन आया। चेहरा काफी अच्छा है। चौड़ा उभरा हुआ माथा, स्थिर आँखें, तलवार की तरह मुड़ी हुई हलकी मूँछ, कुल मिलाकर ठीक है। यों सोच रहा था कि अचानक उस दृश्य पर मेरा हृदय रो उठा। एक सफेद बाल। कान के ऊपर, काले बालों के बीच एक रजत रेखा। मेहनत से उसे खींच निकाला और सिर सहलाता रहा। सिर के पीछे खूब नरम गंज। मैं उस पर हाथ फेर रहा था कि हलका सा सिरदर्द होने लगा। शायद चाय न पीने की वजह से।

नौ बजे—मुझे देखकर होटलवाला काला मुँह अंदर खिसका। चाय बनानेवाले गंदे छोकरे ने बकाया पैसे की माँग की।

‘‘हाँ, वह मैं कल दूँगा।’’ मैंने कहा।

उसे यकीन न आया। ‘‘आपने कल भी यही कहा था।’’

‘‘सोचा था, आज पैसा मिलेगा।’’

‘‘पुराना कर्ज चुकाए बिना आपको चाय न देने का आदेश है।’’

‘‘हाँ।’’

दस बजे—होंठ सूख चुके हैं। मुँह में पानी नहीं। गरमी इतनी पड़ रही है, जैसे दोपहर हो। थकान का बोझ मुझ पर दबाव डाल रहा है। तभी जड़ाऊँ बेचनेवाले दुबले, गोरे, आठ—दस साल के दो ईसाई बच्चे दरवाजे पर आए। वे चाहते हैं कि मैं एक जोड़ी जड़ाऊँ खरीदूँ। जोड़ी के तीन आने दाम—तीन आने।

‘‘नहीं चाहिए बच्चो।’’

‘‘आप जैसे लोग नहीं खरीदेंगे, तो कहाँ मिलेगा खरीददार?’’

‘‘बच्चो, मुझे नहीं चाहिए, पैसा नहीं है।’’

‘‘ओह!’’

नन्हे चेहरों पर अविश्वास! पवित्र हृदय, जो किसी बात की तह तक नहीं समझ पाते। मेरी पोशाक! उनकी नजर में मैं ‘सर’। आरामकुरसी, कुरता, धोती, जूते कुछ भी मेरा नहीं बच्चो। इस संसार में मेरा अपना कुछ भी नहीं। नंगा हूँ मैं भी। क्या है अपना? भारत के कितने—कितने शहरों में कितने—कितने साल आवारा घूमकर किन—किन जातियों को अपनाकर मैं रहा! कितनों का खाना खाया! मेरा खून, मांस और हड्डियाँ सब भारत का है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक, कराची (अखंड भारत के) से कोलकाता तक—भारत के बहुतेरे भागों में मेरे दोस्त हैं। मर्द और औरत एक—एक दोस्त की याद करता हूँ। एक—एक को सहलाकर मेरा स्नेह विस्तार पाए, भारत के बाहर—भूगोल के बाहर—खुशबूदार सुखद चाँदनी की तरह स्नेह! मुझे दिल से चाहनेवाला कोई है? जान लो मुझे, लगता है कि यह अपनी निगूढ़ताओं का पर्दाफाश है। कमियों, दुर्बलताओं के बाद बाकी क्या बचेगा? प्यार करने और पाने के लिए कुछ तो आकर्षक होना चाहिए। ओह, समय की गति कितनी तेज है! पिता की तर्जनी पकड़कर ठुनकनेवाला मैं, माँ के आँचल से लटककर ‘भूख लगी है’ रोनेवाला मैं, ओफ! जमाने की हड़बड़ाहट! अंतरंग में आदर्शों के कितने बम फूटे! मेरा हृदय भयानक रणभूमि है। आज मैं कौन हूँ? क्रांतिकारी, राजद्रोही, दैवद्रोही, कम्युनिस्ट—और भी जाने क्या—क्या? लेकिन सच में क्या मैं इनमें से कोई हूँ? ओफ! कैसी परेशानी है! या खुदा! सिर के अंदर बहुत दर्द हो रहा है। चाय न पीने की वजह से है क्या? सिर लटक—लटक जाता है। जाकर खाना खाता हूँ। सिरदर्द के साथ एक मील पैदल चलना है। मगर पेट भर खा तो सकूँगा।

ग्यारह बजे—हमीद दुकान में नहीं। घर पर होगा क्या? मुझे साथ लेकर जाता तो अच्छा होता। शायद भूल गया होगा। घर जाऊँ? वही सही।

साढ़े ग्यारह बजे—हमीद के मकान का टीन का फाटक बंद था। मैंने उसमें दस्तक दी।

‘‘सुनो मि. हमीद।’’

जवाब नहीं।

‘‘सुनो मि. हमीद।’’

एक गुस्सैल औरत का गर्जन, ‘‘यहाँ नहीं।’’

‘‘कहाँ गए?’’

खामोशी। मैंने फिर दस्तक दी। हताश हुआ। लौटने को मुड़ रहा था कि किसी के पास आने की आहट हुई। चूड़िया खनकीं। दरवाजा थोड़ा खुला। एक युवती।

मैंने पूछा, ‘‘हमीद कहाँ गया?’’

‘‘किसी जरूरी काम से गया है।’’ शराफती जवाब।

‘‘कब आएगा?’’

‘‘शाम के बाद।’’

‘‘आने पर कहना, मैं आया था।’’

‘‘कौन है?’’

मैं कौन हूँ?

‘‘मैं—ओह! कोई नहीं। कहना जरूरी नहीं।’’

मैं लौट चला। गड्ड—मड्ड नरम रेत तप रहा है। उसके पार काँच ज्यों चमचमाता जल। आँखें चौंधिया गईं। बड़ी परेशानी हुई। हड्डियाँ जल रही हैं। प्यास—भूख—लालच! पूरी दुनिया को निगल लेने की लालच। खाना मिलने की असंभावना भूख को धारदार बना रही है। और ऐसी ही असंभावना के अनगिनत दिन—रात सामने। मैं थककर गिर पड़ूँगा क्या? नहीं, थकना नहीं चाहिए, चलना है, चलना है!

साढ़े बारह—परिचित सारे लोग अनदेखा कर गुजर जाते हैं। मैं मन—ही—मन फुसफुसाया—लोगो, आज मेरा जन्मदिन है। मुझे आशीर्वचन दो। परछाइयाँ मुझे पार कर गईं। दोस्त मुझे देखकर भी क्यों चुप है? अच्छा, यह बात है!

मेरे पीछे एक जासूस।

एक बजे—पहले पत्रकार और अब साहूकार बने मिस्टर पी. के पास मैं गया। आँखों में अँधेरा, परेशानी।

पी. ने पूछा, ‘‘क्रांति का क्या हाल है?’’

मैंने कहा, ‘‘नजदीक आ चुकी है।’’

‘‘कहो, कहाँ से आए? कुछ दिनों से नहीं मिले?’’

‘‘हाँ!’’

‘‘कैसे आना हुआ?’’

‘‘ओह, यों ही।’’

मैं उनके पास कुरसी पर बैठ गया। मेरे कई आलेख उनके नाम पर प्रकाशित हो चुके थे। पिछले दिनों की शान बघारने के लिए पुराने अखबार बाइंड कर रखे थे। चकराते सिर के साथ मैं उसे देख रहा था। ‘‘मुझे एक चाय पिलाइए, मैं थकान से चूर हूँ।’’ मेरी धड़कन मचल रही थी। पी. मुझसे कुछ पूछता क्यों नहीं? मेरी थकावट नजर नहीं आती क्या? वे नकदी पेटी के सामने शान से बैठे हैं। मैंने चुपचाप गली की ओर देखा। मोरी में पड़े दोसा के एक टुकड़े के लिए दो आवारा लड़के झीना—झपटी कर रहे हैं। ‘‘एक चाय’’, मेरा संपूर्ण रोष। पी. ने पेटी खोली। नोटों और रेजगारी के बीच से एक आना निकालकर छोकरे के हाथ में देकर कहा, ‘‘चाय ले आ।’’

छोकरा भागा। मेरा दिल ठंडा हुआ। कैसा भलामानस! छोकरे की लाई चाय हाथ में लेकर पी. ने मुझसे पूछा, ‘‘तुम चाय पीओगे?’’

मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’

मैं जूते का धागा कसने के बहाने झुका। मेरे चेहरे के द्वंद्व को वह पढ़ न पाए।

पी. ने फरियाद की, ‘‘तुमने अपनी एक भी किताब मुझे नहीं दी।’’

मैंने कहा, ‘‘दूँगा।’’

‘‘अखबारों में मैं तुम्हारी किताबें के बारे में पढ़ता हूँ।’’

मैंने कहा, ‘‘अच्छा!’’

और मुसकराने की कोशिश की। लेकिन दिल में उजास के बिना चेहरे पर मुसकान कैसे खिलेगी?

मैं उठकर उससे विदा लेने के बाद गली में उतरा।

मेरे पीछे फिर वह जासूस।

दो बजे—मैं थकान से चूर कमरे की आरामकुरसी पर लेटा था। इत्र की खुशबू फैलाकर अच्छे कपड़ों में एक अजनबी औरत कमरे के द्वार पर आई। परदेशी है। बाढ़ में गाँव बरबाद हुआ। कुछ—न—कुछ मदद चाहिए। मुसकराते हुए उसने मुझे देखा। छाती दरवाजे की चौखट पर दबाते हुए मुझे देखा। मेरे हृदय में कोई तप्त भाव जागा। वह सिराओं में फैल गया। मेरी धड़कनें मुझे सुनाई देने लगीं। खतरे की भीषण घड़ी।

‘‘बहन, मेरे हाथ में कुछ नहीं, तुम किसी और के पास जाकर माँगो। मेरे पास कुछ नहीं।’’

‘‘कुछ नहीं?’’

‘‘कुछ नहीं?’’

‘‘नहीं।’’

फिर भी वह नहीं गई। मैंने आवाज ऊँची कर कहा, ‘‘जाओ, कुछ नहीं।’’ वह मानकर ठुमक—ठुमक चली गई। लेकिन उसकी महक!

तीन बजे—किसी से उधार लूँ? असहायता। किससे माँगूँ? कई नाम याद आए। लेकिन उधार लेना स्नेह और आदर को कम करनेवाला काम है। मैंने मरने के बारे में सोचा। कैसे मरें?

साढ़े तीन—जीभ धँसा जा रहा है। लस्त—पस्त। चल के ठंडे तालाब में डुबकी लगाने का मन कर रहा है। काश! पूरा बदन शीतल हो जाए! यों लेटा था कि कुछ संपादकों के पत्र आए। तत्काल कहानी माँगी है। लौटती डाक से भेजने को कहा है। चिट्ठियाँ वहीं छोड़कर मैं थका—हारा पड़ा रहा। बैंकबाबू कृष्ण पिल्लै का नौकर छोकरा दियासलाई की तीली माँगने आया।

उससे एक गिलास पानी मँगवाकर पिया।

‘‘सर, आप बीमार हैं क्या?’’ ग्यारह साल के उस बच्चे ने पूछा।

मैंने कहा, ‘‘बीमारी कुछ नहीं।’’

‘‘फिर? खाया नहीं क्या?’’

‘‘नहीं।’’

‘‘बाप रे! खाया क्यों नहीं?’’

नन्हा चेहरा, काली आँखें, कमर पर कालिख लगा तौलिया। वह कुतूहल से खड़ा है। मैंने आँखें मूँद लीं।

दबे स्वर में उसने बुलाया—‘‘सर!’’

‘‘ऊँ’’, मैंने आँखें खोलीं।

‘‘मेरे पास दो आने हैं।’’ उसने कहा।

‘‘तो?’’

वह सकपकाया। अगले महीने मैं घर जाऊँगा, तब लौटा देना।

मेरा दिल भर आया। या रब्ब—

‘‘ले आ!’’

सुनते ही वह दौड़ा।

तब कॉमरेड गंगाधरन आया। खादी की सफेद धोती, सफेद जुब्बा, ऊपर नीला शॉल। काला रंग, लंबा सा चेहरा, जिम्मेदार निगाह।

मुझे आरामकुरसी पर शान से लेटा देखकर नेता कहता है, ‘‘वाह! तू बड़ा मालिक बन गया है।’’

सिर चकरा रहा था, लेकिन मुझे हँसी आई। मैंने आहिस्ता से सोचा कि उस नेता के कपड़ों का मालिक कौन होगा। अपने परिचित कई सियासी कारकुनों के चित्र कल्पना में उभरे। ये सब किसलिए? क्या पाने के लिए?

गंगाधरन ने पूछा, ‘‘क्यों हँसता है?’’

मैंने कहा, ‘‘कुछ नहीं बच्चू, अपनी पोशाकों के बारे में सोचकर हँसी आई।’’

‘‘मजाक छोड़ और सुन। बड़ी गड़बड़ी है। लाठी चलेगी। आँसू गैस और गोली भी चलेगी। तीन हजार के करीब मजदूर हड़ताल कर रहे हैं। डेढ़ हफ्ते से वे भुखमरी में हैं। बड़ा हंगामा होगा। भूख की हालत में आदमी कुछ भी कर बैठेगा।’’

‘‘मैंने अखबारों में ये खबरें नहीं पढ़ीं।’’

‘‘अखबारों में रपट न देने पर खास हिदायत है।’’

‘‘अच्छा! इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?’’

‘‘उनकी आम सभा है। मैं ही अध्यक्ष हूँ। नाव में वहाँ तक पहुँचने के लिए भाड़े का एक आना चाहिए। मैंने आज कुछ खाया भी नहीं। तू भी मेरे साथ आ।’’

‘‘अच्छा सुझाव है, लेकिन मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं। कई दिनों से मैंने भी कुछ नहीं खाया। आज सुबह से कुछ भी पेट के अंदर नहीं गया। ऊपर से आज मेरा जन्मदिन भी है।’’

‘‘जन्मदिन? हम जैसों का कैसा जन्मदिन रे?’’

‘‘विश्व में सबका जन्मदिन होता है।’’

यों बातें आगे बढ़ीं। गंगाधरन ने मजदूरों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं और सरकार के बारे में बातें कीं। मैंने जीवन, संपादक लोग और साहित्य के बारे में कहा। इस बीच छोकरा आया। एक आना अपने पास रखा। एक आने की चाय, बीड़ी और दोसा खरीद लाने के लिए उसे भेजा। पाव आने की चाय, आधे आने का दोसा और पाव आने की बीड़ी।

दोसा को लपेटनेवाले अमरीकी अखबार के टुकड़े पर छपी तसवीर ने मेरा ध्यान खींच लिया।

गंगाधरन और मैंने दोसा बाँटकर खाया। एक—एक गिलास पानी पिया और थोड़ी—थोड़ी चाय पी। फिर बीड़ी सुलगाकर धुआँ निकालते हुए एक आना गंगाधरन को दिया। जाते समय मजाक में गंगाधरन ने पूछा, ‘‘आज तेरा जन्मदिन है न? दुनिया के लिए कोई संदेश?’’

मैंने कहा, ‘‘हाँ, बच्चू! क्रांति का आह्वान।’’

‘‘हर जगह क्रांति की लपटें धधक उठें। आज की समाज—व्यवस्था जलकर राख हो जाए और समता पर आधारित एक सुंदर नई दुनिया का जन्म हो।’’

‘‘शाबाश, आज की मजदूर सभा में मैं यह कहूँगा।’’ यों कहकर गंगाधरन तेजी से निकल गया। मैंने एक—एक राजनीतिक कार्यकर्ता के बारे में सोचा, एक—एक साहित्यकार के बारे में सब तरह के मर्दों और औरतों के बारे में भी सोचा। वे सब कैसे जीते हैं? मैंने लेटे—लेटे ही दोसा का कागज उठा लिया। देखा, मकान—मालिक मुँह फुलाकर चला आ रहा है। उससे मैं कितने दिनों की अवधि माँगूँगा? यों सोचकर चित्र की ओर देखा। आसमान तक ऊँचे भीमाकार महलों का महानगर। उसके बीचोबीच सिर उठाए खड़ा एक आदमी। लोहे की जंजीरों ने उसे धरती से कसकर बाँध रखा है। लेकिन उसकी नजर जंजीरों या धरती की ओर नहीं, दूर सौरमंडल के पार अनंत फासले पर किरणें बिखेरते महा तेजपुंज में अटकी है। उसके पैरों के पास एक खुली किताब। खुले दो पन्नों पर मानव राशि का इतिहास यों अंकित—

‘‘जंजीरों में मिट्टी से बँधा होने पर भी वह काल और समय के परे देख रहा है। लुभावने कल की ओर।’’

कहाँ है कल?

‘‘क्या है मिस्टर?’’ मकान—मालिक का ठंडा सवाल, ‘‘आज तो दोगे न?’’

‘‘पैसा नहीं मिला। कुछ ही दिनों में दूँगा।’’ मैं बोला।

लेकिन वे और इंतजार के लिए राजी नहीं।

‘‘ऐसे क्यों जीते हो?’’ उनका सवाल।

सच, ऐसे जीने से क्या फायदा? मुझे इस मकान में आए तीन साल पूरे होने को हैं। तीनों रसोइयों को मैंने सुधारा। उनके अच्छे किराए भी मिल रहे हैं। चौथा यह स्टोररूम मैंने आवास लायक बनाया तो लोग ज्यादा किराया देने के लिए तैयार हैं। ज्यादा किराया देने को मंजूर होने से फायदा नहीं। वह चाहता है कि मैं कमरा छोड़ दूँ।

नहीं, मैं सहमत नहीं। कमरा छोड़ूँगा नहीं, देखता हूँ कोई क्या कर सकता है।

चार बजे—मैं इस शहर से ऊब गया हूँ। यहाँ मुझे लुभानेवाला कुछ भी नहीं। वही सड़कें, वही दुकानें, वही चेहरे, वही आवाजें, कैसी उकताहट है। कुछ लिखने का भी मन नहीं होता। वैसे लिखने के लिए रखा भी क्या है?

छह बजे—शाम खुशमिजाज। सागर के मुँह में सायंकालीन खूनी सूरज का जलता गोल। सुनहरे बादलों से भरा पश्चिमी क्षितिज। अनंत तक पसरा सागर। सागर के पास लहराती किश्तियाँ। किनारे पर सुंदर उद्यान। सिगरेट का धुआँ निकालते अच्छे कपड़ों में घूमते युवक।

चंचल आँखें और चेहरे पर मुसकान के साथ रंगीन साड़ियाँ फहराकर घूमती युवतियाँ। प्रणय—लीलाओं की पृष्ठभूमि में पार्क की रेडियो से बजते मधुर गीत। फूलों को सहला आती सुगंधित मंद पवन, एक मैं ही शिथिल होकर निढाल हो रहा हूँ।

सात बजे—आज भी एक पुलिसवाला मेरे कमरे में आकर मुझे ले गया। आँखें चौंधियानेवाले पेट्रोमैक्स के सामने मुझे बिठाया। सवालों का जवाब देते समय मेरे चेहरे को पढ़ते हुए हाथ पीछे बाँधकर डिप्टी कमीश्नर टहल रहा था। नजर हरदम मेरे चेहरे पर। कैसी निगाह! कैसी अदा! मानो मैं कोई बड़ा गुनाह करके फरार होनेवाला हूँ। एक घंटे की पूछताछ—मेरे साथी कौन—कौन हैं? मुझे कहाँ—कहाँ से चिट्ठियाँ आती हैं? कहीं मैं सरकार को गिराने की योजना बनानेवाले खुफिया गिरोह का सदस्य तो नहीं? आजकल क्या—क्या लिखता है? सब सच—सच बताना। उसके बाद—

‘‘तुमको पता है न, मैं चाहूँ तो तुम्हें देश—निकाला दिलवा सकता हूँ।’’

‘‘पता है, मैं बेसहारा हूँ, एक सादा पुलिसवाला काफी है, मुझे गिरफ्तार करके हवालात में बंद कर...।’’

साढ़े सात—कमरे में लौटने के बाद अँधेरे में बैठकर पसीना—पसीना हो गया। जन्मदिन। आज मेरे कमरे में उजाला नहीं। तेल के लिए क्या करूँ? भूख मिटाने के लिए क्या करूँ? हे ईश्वर, कौन देगा? किसी से कर्ज भी नहीं ले सकता। मैथ्यु से माँगूँ? नहीं। अगले मकान के चश्मेवाले छात्र से एक रुपया माँगूँगा। उसने अपनी भीषण बीमारी के इलाज के लिए खूब पैसा खर्च किया था। आखिर मेरे चार आने की दवा से राहत मिली थी। बदले में मुझे एक बार फिल्म दिखाया। एक रुपया माँगूँ तो कैसे नहीं देगा?

पौने नौ—जाते समय मैथ्यु के लिए पूछा। वह सिनेमा देखने गया है। ऊँची आवाज में बातचीत और हँसी—ठट्ठा के बीच मैं दूसरे मकान की ऊपरी मंजिल पर पहुँचा। जलते सिगरेट की गंध। मेज पर जलती लालटेन की रोशनी में चमकते दाँत, घड़ियाँ, सोने के बटंस।

बेबसी के मूर्त रूप में मैं कुरसी पर बैठा। वे बात करने लगे। राजनीति, सिनेमा, कॉलेज की लड़कियों का नख—शिख, दिन में दो बार साड़ियाँ बदलती छात्राओं के नाम, ऐसे बहुत कुछ। मैंने भी अपनी राय दी। बीच में मैं कागज का टुकड़ा लेकर नोट लिखता, ‘‘एक रुपए की सख्त जरूरत है, दो—तीन दिनों में लौटाऊँगा।’’

तब चश्मेवाला मुसकराया।

‘‘क्या किसी कहानी का प्लॉट बना रहे हो?’’

मैंने कहा, ‘‘नहीं।’’

आगे बातचीत कहानियों के बारे में होने लगी।

एक खूबसूरत नौजवान ने, जिसके चेहरे पर अभी मस निकलनेवाली हैं, शिकायत की, ‘‘हमारी भाषा में अच्छी कहानियाँ नहीं लिखी जातीं।’’

अपनी भाषा में और अपने देश में अच्छा कुछ नहीं। सब अच्छाइयाँ सागर पार!

‘‘किन—किन की कहानियाँ पढ़ी हैं?’’ मैंने पूछा।

बहुत को नहीं पढ़ा। बात यह कि मातृभाषा में कुछ पढ़ना शान के खिलाफ है।

मैंने कुछ कहानीकारों के नाम बताए। अधिकतर नाम सुने ही नहीं।

मैंने कहा, ‘‘अंग्रेजी का ही नहीं, दुनिया की समस्त भाषाओं की कहानियों की टक्कर की कहानियाँ हमारी मातृभाषा में लिखी जा रही हैं। तुम लोग पढ़ते क्यों नहीं?’’

‘‘कुछ—कुछ पढ़ी हैं, अधिकतर गरीबी के बारे में हैं। वह सब लिखने की क्या जरूरत है?’’

मैं चुप रहा।

‘‘तुम लोगों की कहानियाँ पढ़ने पर लगता है,’’ सुनहरे चश्मेवाले ने फैसला सुनाया कि ‘‘दुनिया खराब है।’’

दुनिया की क्या खराबी? माँ—बाप मेहनत करके हर महीने पैसे भेजते हैं। बच्चे उसको खर्च करके शिक्षा पाते हैं—सिगरेट, चाय, कॉफी, आइसक्रीम, सिनेमा, कुटिक्कूरा पाउडर, वैसलिइन, स्प्रे, कीमती कपड़े, कीमती खाना, शराब, नशीली दवाएँ, सिफिलिस, गोनोरिया—यों आगे बढ़ते हैं कल के नागरिक। देश का शासक, न्याय बहाल करनेवाले, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी, धार्मिक आचार्य, राजनीतिक नेता, दार्शनिक—दुनिया में क्या खराबी है?

मुझे एक जोरदार भाषण देने का मन हुआ।

‘‘आज की दुनिया,’’ मैंने शुरू की। लेकिन तभी नीचे से एक शिथिल आवाज—

‘‘जड़ाऊँ लो—जड़ाऊँ।’’

‘‘ले आ!’’ चश्मेवाले ने हँसते हुए आदेश दिया। इसलिए प्रसंग बदला। जिनसे सुबह मेरी मुलाकात हुई थी, वही नन्हे बच्चे ऊपर चढ़ आए। वे हाँफ रहे थे। आँखें स्थिर, चेहरे मुरझाए और होंठ सूख चुके थे। हिचकते हुए बडे़ ने कहा, ‘‘सर, आपको ढाई आने में देंगे।’’

सुबह तीन आने था।

‘‘ढाई आने?’’ चश्मेवाले ने संदेह के साथ हाथ में लेकर उलट—पलटकर देखा।

‘‘लगता है करिंगोटा (जड़ाऊँ की लकड़ी) की नहीं।

‘‘जी सर, करिंगोटा की ही है।’’

‘‘बच्चो, तुम्हारा घर कहाँ है?’’ मेरे सवाल का जवाब बड़े ने दिया।

‘‘यहाँ से तीन मील दूर।’’

‘‘दो आने में दो।’’ चश्मेवाले ने कहा।

‘‘सवा दो आने दो, सर।’’

‘‘नहीं।’’

‘‘जी।’’

खेद के साथ वे उतरे। चश्मेवाले ने फिर पुकारा।

‘‘ले आ।’’

वे फिर आए। एक अच्छी जोड़ी चुनकर दस रुपयों का नोट दिखाया। बच्चों के पास कौड़ी भी नहीं थी। अब तक बिक्री नहीं हुई थी। सुबह से घूम रहे थे। मेरी कल्पना में तीन मील दूर किसी झोंपड़ी के अंदर चूल्हे पर चावल का पानी रखकर बच्चों के लौटने का इंतजार करते माँ—बाप का चित्र उभरा।

चश्मेवाले ने कहीं से दो आने ढूँढ़ लिये।

‘‘सवा आने सर।’’

‘‘इतना ही है, नहीं देना है तो ले जा।’’

बच्चों ने एक—दूसरे की ओर देखा और चुपचाप उतर गए। बिजली के खंभे के नीचे से उन नन्हे बच्चों को जाते देखकर चश्माववाला हँसा।

‘‘मैंने एक चाल चली है, उसमें एक खोटा सिक्का है।’’

ह—ह—ह ठहाके उठे। मैंने सोचा, छात्र जो है, क्या कहें। गरीबी और परेशानियों को समझने की उम्र नहीं हुई। मैंने जो नोट लिख रखा था, सबकी नजरें बचाकर उसे चश्मेवाले को दिया। वह उसे पढ़ रहा था और कल्पना में होटल में गरम चावल के सामने बैठा था। लेकिन नोट पढ़कर चश्मेवाले ने सबको सुनाकर कहा, ‘‘सॉरी, छुट्टा नहीं है।’’

सुनकर मेरे शरीर से गरम भाप निकली। पसीना पोंछकर नीचे उतरा और कमरे की ओर चला।

नौ बजे—चटाई बिछाकर लेटा। लेकिन आँखें बंद होने को राजी नहीं। सिर भारी है। फिर भी मैं लेटा। दुनिया भर के बेबसों के बारे में मैं क्यों नहीं सोचता? इस सुंदर भूगोल में कहाँ—कहाँ कितने—कितने स्त्री—पुरुष भूखे हैं। उनकी तरह मैं भी। मैं क्या उनसे अलग हूँ। मैं भी एक गरीब। इसी विचार में डूबा तो मेरे मुँह में लार भर गया। मैथ्यु की रसोई में तड़का देने का स्वर। पके हुए चावल की महक।

साढ़े नौ—मैं बाहर निकला। दिल जोर से धड़क रहा है। कोई देख ले तो! मैं पसीना—पसीना हो रहा था। मैंने आँगन में इंतजार किया। भाग्य! बूढ़ा दीया और घड़ा लेकर बाहर निकला। रसोई के दरवाजे के पाटों को भिड़का। नल की ओर गया। कम—से—कम दस मिनट लगाएगा। धड़कते दिल के साथ मैं चुपचाप दरवाजा खोलकर रसोई में घुसा।

दस बजे—भरपेट खाने के संतोष से पसीने से तर मैं बाहर निकला। बूढ़ा लौटा तो मैंने नल के पास जाकर पानी पिया। हाथ—मुँह धोकर कमरे में लौटा और बीड़ी सुलगाकर पी ली। कुल सुख और संतोष। मगर साथ थोड़ी बेचैनी भी। थकान से लस्त—पस्त। लेट गया। सोने से पहले सोचा। बूढ़ा जान गया है तो मैथ्यु को बताएगा। बाकी छात्र और बाबू लोग जानेंगे। शर्मिंदा होना पड़ेगा। चाहे कुछ भी हो जाए। जन्मदिन में आराम से सो जाऊँगा। सब लोगों के सारे जन्मदिन, मनुष्य बेचारा जीव, मैं नींद की ओर फिसल रहा था, तब मेरे कमरे की ओर किसी के आने की आहट हुई।

‘‘हेलो मिस्टर!’’ मैथ्यु की आवाज। मेरे पसीने छूटे। नींद गायब हुई। पेट के अंदर खाना पच गया। मैंने समझा, मैथ्यु को पता चला है। बूढ़े ने पता लगाया होगा। मैंने दरवाजा खोला। अँधेरे के दिल से ज्यों, तीक्ष्ण प्रकाश के भाले की तरह टॉर्च लाइट। मैं उस प्रकाश में। मैथ्यु क्या पूछनेवाला है? लगा कि घबराहट से मेरा दिल सैकड़ों टुकड़ों में टूट बिखरेगा।

मैथ्यु बोला—

‘‘मैंने कहा, मैं सिनेमा गया था। विक्टर ह्यूगो का ‘बेचारे’। बढ़िया फिल्म है। तुम्हें देखनी चाहिए।’’

‘‘हाँ।’’

‘‘तुमने खाना खाया? मुझे बिल्कुल भूख नहीं। भात बेकार जाएगा। आकर खा लो। लौटते वक्त हम मॉडर्न होटल में खाकर आए।’’

‘‘धन्यवाद, मैंने खाना खा लिया।’’

‘‘अच्छा, तो सो जाओ। गुड नाइट।’’

‘‘यस, गुड नाइट।’’

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