जंग लगी तलवार (असमिया उपन्यास) : इंदिरा गोस्वामी
Jang Lagi Talwar (Asmiya Novel): Indira Goswami
साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित असमिया उपन्यास मामरे धरा तरोवाल
यानी जंग लगी तलवार में मामोनी रायसम गोस्वामी (इन्दिरा गोस्वामी) ने
श्रमिकों की मजबूरी और बदहाली की गाथा प्रस्तुत की है। श्रमिकों को हड़ताल
के लिए कौन प्रेरित करता है और उससे किस तरह उनकी हालत दिन-ब-दिन बदत्तर
होती जाती है, इसी के चरम बिन्दु तक इस उपन्यास की कहानी जाती है। पुरानी
होती जाती पड़ताल के साथ ही अनिश्चितता और हताशा से पीड़ित श्रमिक यन्त्र
की तरह दिन काटते हैं। भूख की ज्वाला में खलासी लंगर में स्वीपर लाइन के
बच्चे रोटी के लिए कुत्तों तरबूज जानवरों की तरह चबाकर खानेवाली बसुमती
बुढिया और बीमार पति तथा बच्चे के लिए दवाई और दूध खरीदने में असमर्थ और
अपने सम्मान को दाँव पर लगानेवाली नारायणी की मनोदशा एक जैसी ही है।
श्रमिकों की यूनियन के नायक यशवन्त द्वारा रात के अँधेरे में एक तलवार
लेकर भ्रष्ट नेता को धमकाने के बावजूद स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता।
क्योंकि पूरी व्यवस्था के परिवर्तन के बिना यह सम्भव नहीं हो सकता।
फिर भी इस उपन्यास में आशा की किरण दिखाई पड़ती है। उपेक्षित व्यक्ति भी
आशावादी हो सकता है..शिक्षा,चेतना,प्रगति और ज्ञान से यह सम्भव हो सकता
है। इसी रास्ते से ये लोग उपेक्षा,अनादर और शोषण के चक्रव्यूह से मुक्ति
पाना चाहते हैं। कड़ी मेहनत के बावजूद दो वक्त की रोटी के लिए हाहाकार
करनेवाले, बिना वजह मालिकों से तिरस्कृत और जानवरों की तरह जीवन काटनेवाले
इन लोगों के आत्मसम्मान और आत्ममर्यादा की भावनाएँ इस उपन्यास में मन को
छू लेने वाली शैली में अंकित है। श्रीमती गोस्वामी ने इन सभी रचनाओं में
अपने स्थानीय पात्रों एवं परिवेश को ही नहीं जिया है-अपनी रचनात्मक
प्रतिश्रुतियों का भी भरपूर निर्वाह किया है।
जंग लगी तलवार : एक
रायबरेली ! वर्ष 1978। आश्विन का महीना। यूनियन का नया नेता यशवन्त
शैटरिंग प्लेटों की ढेर पर बैठा था। उसके सामने ही है साई नदी। यहाँ नदी
के दोनों किनारे बहुत मनोरम नहीं हैं। किनारे रंग बदलकर सूखे गोश्त जैसे
दिख रहे हैं। कुछ ही दूरी पर है वह रेहटा गाँव। ऐसा लगता है, जैसे एक
पुराने बरगद के नीचे यह गाँव सो रहा है। बेफ़िक्र ! वह जैसे कोई बरगद
नहीं, एक ध्वज है। ध्वज के नीचे इस गाँव के लोग जैसे हमेशा से शांतिपूर्ण
जीवन जी रहे हैं। शांतिपूर्ण ? दूर से उनका जीवन शांतिपूर्ण ही लग रहा है।
यशवन्त के गले से दो-तीन सूखी खाँसी निकली। गला सूखकर जैसे काठ-सा बन गया
है। पिछली रात वह सो नहीं सका था। गोमती का यूनियन नेता आया था। पूरी रात
हड़ताल के बारे में बातचीत होती रही। यूनियन का नेता बलबीर स्वामी बेहद
ख़तरनाक आदमी है। यशवन्त आज तक उसकी तरफ़ आँख उठाकर बात करने की हिम्मत
नहीं जुटा पाया, जबकि उस लम्बी चौड़ी क़द-काठी के आदमी ने यशवन्त की पीठ
ठोंककर कहा था, ‘‘कोई चिन्ता मत करो। हम सब साथ हैं।
जिस दिन
हम लोगों ने पुराने नेता रामबहादुर की वर्दी उतारकर तुझे पहनायी, उसी दिन
से तेरा अपना छोटा-मोटा स्वार्थ भी जाता रहा है। अब तेरा अपना कोई वजूद
नहीं है, याद रखना...।’’
...झन ! झन ! झन !
यह झनझनाती आवाज़ सुनकर यशवन्त अपनी सोच से लौट आया। हाँडी जैसे आकार का
स्टील पेडस्टल एक जगह से दूसरी जगह ले जाकर रखा जा रहा था। दो क्रेनों का
काम अब तक ख़त्म हो गया है। घसीटकर एक तरफ़ रखी गईं दोनों क्रेन अब बिना
पानी के तालाब में मछली के लिए इन्तज़ार करते
‘बरटोकोला’
पक्षी जैसे लग रहे हैं। ‘पीस वर्कर्स’ के साथ आए हुए
दल के
श्रमिक लोग अभी भी बेफ़िक्र होकर काम कर रहे हैं। आनेवाले तूफ़ान से वे
बिलकुल बेख़बर हैं। यशवन्त ने पहचान लिया, यह नया दल है। रंगपुर से आए हैं
ये लोग। शायद वाराणसी से गाड़ी बदलकर आए हैं, मिट्टी काटनेवाले काम के
लिए।
यशवन्त ने देखा, एक आदमी उसकी तरफ़ आ रहा है। पहलवान जैसा एक मुच्छड़ आदमी
यशवन्त के सामने आकर खड़ा हुआ-सिर पर पगड़ी, बन्द गले का चोला और धोती।
अपना परिचय देकर वह बोला, ‘‘मैं भेंटा गाँव के लोकल
लीडर
शास्त्री जी का सहायक हूँ।...यानी तुम मुझे एजेंट समझ सकते हो। सुना है,
तुम लोगों के इलाक़े में भी हड़ताल होने की सम्भावना
है...!’’
यशवन्त ने कुछ नहीं कहा।
‘‘तुम्हारे बारे में हम लोगों ने सुना है। तुम हरिजन
मज़दूर हो। और...सुनो।’’
लोकल लीडर के सहायक ने जेब से बीड़ी और माचिस, निकाली और यशवन्त की तरफ़
बढ़ाया।
‘‘आदत नहीं है।’’ यशवन्त ने सिर
हिलाकर मना किया।
वह आदमी कुछ समय चुपचाप बीड़ी फूँकता रहा। फिर वह बोला,
‘‘ओवरसीयर से लेकर वह सियार जैसी शक्लवाला इंजीनियर
तक, सब
जानते हैं हम लोग...। इंजीनियर कम्पनी से हर महीने दो हज़ार लेकर चुपचाप
बैठ जाता है...एस.जी.ओ. हर महीना पन्द्रह सौ लेकर सन्तुष्ट रहता है और वह
लालची ओवरसीयर महीने भर में सिर्फ़ पचास रुपये में
ही...।’’
यशवन्त अब भी चुपचाप बैठा रहा। कुछ देर बाद वह शैटरिंग प्लेट की ढेर से
उठा। लेकिन शास्त्री के सहायक ने उसका पीछा नहीं छोड़ा,
‘‘सुनो, क्या तुमने हमारे लोकल लीडर के
‘रेट’
ज्यादा समझ लिया है ? बहुत ज़्यादा नहीं है। और ऐसे श्रमिक हड़ताल में
तो...।’’
यशवन्त साई के ऊपर अस्थायी रूप से बना हुआ पुल पारकर एक कम्प्रेसर के पास
रुक गया। कल एक और बड़ी ढलाई है। दो-चार सरकारी इंजीनियर शटरिंग प्लेट
वग़ैरह ठीक से लगे हैं या नहीं, वही परखकर इधर-उधर घूम रहे हैं।
‘‘सुनो, मैं और ज़्यादा वक़्त बर्बाद नहीं कर सकता।
एक बात
समझ लेना कि लोकल लीडर शास्त्री से सलाह लिए बग़ैर मैं यहाँ...औरों की बात
जाने दो...श्रीराज...।’’
यशवन्त ने तीखी नज़र से उस आदमी की तरफ़ घूरकर देखा। कुछ और कहने की
ज़रूरत नहीं पड़ी। लोकल लीडर के एजेंट ने बालू-पत्थर और धूल से भरे
कॉन्वेयर बेल्ट के नीचे, एक छोटे गलियारे से बाहर खिसकता दीख पड़ा। वह
जंगली सूअर की तरह आगे बढ़ रहा था, जैसे बदला लेगा एक हरिजन लड़के के ऐसे
रुखे तेवर वह झेल नहीं सकता।
बलवीर स्वामी ने कहा था, ‘‘सुना है, तुम सच्चे और
ईमानदार
इन्सान हो। रात की ‘ड्यूटी’ के वक़्त तुम अड्डेबाज़ी
में अपना
वक़्त बर्बाद नहीं करते। अब कुछ तय होने तक सिर्फ़ सोचते रहो। कुछ दिनों
तक कम्पनी के बारे में सोचना बन्द कर दो।
‘‘सुनो, अब सरप्लस मज़दूरों की पहली लिस्ट, गोमती में
लगाने
का वक़्त आ गया है। और यह लिस्ट लगने के साथ-साथ...।’’
पिछले हफ़्ते से सिर्फ़ धूल भरी हवा चल रही है। ढलाई का काम करनेवाले
मज़दूरों का चेहरा पहचान पाना अब मुश्किल हो गया है। साइट पर काम करनेवाले
इंजीनियर और अफ़सरों के लिए बनाए गए अस्थायी मकानों की दीवारों से हर समय
घोर गरज के साथ हवा टकरा-टकराकर लौट आती है। इन मकानों की उम्र जैसे ख़त्म
हो रही है। किसी भी समय जैसे यह सब साई की रेतीली ज़मीन पर गिर पड़ेंगे।
‘साई एक्वेडक्ट’ का मैनेजर कुछ दिनों से परेशान है।
हड़ताल
शुरू होगी तो काम ढीला पड़ जाएगा। कम्पनी को बहुत नुक़सान होगा।
नहीं-नहीं मज़दूरों ने अभी भी ‘नोटिस’ नहीं दिया है।
नियमानुसार दस दिन पहले वे नोटिस देंगे। मुख्य कार्यालय से निर्देश आया है
कि तब ‘डेली पेड’ और ‘कैज़ुअल’
मज़दूरों को हटाना
है-उसके बाद ‘रेगुलर’ और ‘मंथली’
काम करनेवालों
की बारी आएगी।
बहुत हिम्मत के साथ इंजीनियर-इंचार्ज को यह नोटिस जारी करना पड़ेगा, यह
बहुत ज़ोख़िम भरा काम है।
हल्दिया डॉक, इदिनी डैम, चारेंखेरा पुल के मज़दूरों ने सरप्लस नोटिस को आग
लगा दी थी। यह ‘डेली पेड’ मज़दूरों के अस्थायी
ठिकानों में आग
लगाने-जैसी बात थी।
हाथापाई, मारपीट और फिर गोलाबारी...।
अभी तो ऐसा ही बुरा वक़्त आ रहा है। डी.एम. और लेबर कमिश्नर को इस मुसीबत
से अवगत कराना प्रोजेक्ट मैनेजर ने उचित समझा।
क्रेशर और कॉन्वेयर बेल्ट के शोर के बीच एक जीप आने की आवाज़ सुनाई पड़ी।
वह मैनेजैर के दफ़्तर के दरवाजे पर रुकी। साथ ही दफ़्तर के बरामदे से कई
एक जूतों की आहटें आने लगीं। उत्तरप्रदेश की पुलिस वर्दी में लदकर एक
दस्ता मैनेजर के दफ़्तर में घुसा।
मैनेजर साहब के साथ हाथ मिलाकर एक क़द्दावर आदमी ने कहा, ‘हमलोग
‘विजिलेन्स ब्रांच’ से आए हैं। हमें कुछ बातों का
जवाब
चाहिए।’’
‘‘कैसी बातें ?’’
क़द्दावर आदमी ने चारों तरफ़ देखा। उसने गाड़ी में बैठे हुए कॉन्स्टेबल को
दफ़्तर के बरामदे में जमा होकर भीड़ बढ़ानेवाले लोगों को हटाने का आदेश
दिया।
‘हट्-हट्, भाग यहाँ से...’’ एक पल में वहाँ
अफ़रा-तफ़री मच गई।
अब उसी क़द्दावर आदमी से सवाल किया, ‘‘आप लोगों ने
मन्त्रीजी
के लिए यहाँ एक मंच बनवाया था ? मतलब, साई एक्वेडक्ट की आधारशिला रखवाते
समय ?’’
साहब ने सिर हिलाकर हामी भरी।
‘‘इस मंच को बनवाने में कितना सीमेंट लगा था
?’’
‘‘इस सवाल का जवाब मैं ‘स्टोर
कीपर’ से पूछकर ही दे सकता हूँ।’’
‘‘सीमेंट का ख़र्चा किसने दिया था, सरकार या कम्पनी
ने ?’’
कुछ देर सोचने के बाद उसने निडर होकर बताया, ‘‘सीमेंट
सरकार
ने दिया था और बाक़ी हमारे मजदूरों ने बनाया था।’’
‘‘ख़र्च का हिसाब-किताब कहाँ है
?’’
‘‘स्टोर कीपर के पास।’’
अब वह आदमी उठ खड़ा हुआ और स्टोरकीपर के दफ्तर की तरफ़ जाने लगा। उसने कुछ
फ़ाइलों को उलट-पुलटकर देखा। फिर, उसने निपुण हाथ से एक फ़ाइल खींचकर
निकाली।
‘‘सन् 1974 का रजिस्टर !’’ जाने
से पहले उन्होंने
कहा, ‘‘यह 1974 का ‘इश्यू
रजिस्टर’ है। यह अब
हमारे पास रहेगा।’’
जंग लगी तलवार : दो
‘सत्यनारायण’ की पूजा सम्पन्न होने के बाद हरिजन लाइन
के सभी
भक्त गोल होकर बैठ गए। कम्पनी के सबसे बुज़ुर्ग हरिजन शम्भू पासवान ने
यशवन्त के हाथ में नारियल की खोल से बनी एक कटोरी देकर कहा,
‘‘नारायण को समर्पित कर दो !’’
यशवन्त आम के
पत्तों से सजे मंडप के क़रीब जाने लगा। साथ-साथ सब लोग चिल्ला उठे,
‘‘जय देवी दन्तेश्वरी की जय !’’
‘‘जय, नारायण की जय !’’
यशवन्त ने देवी दन्तेश्वरी की वेदी में नारियल के खोलवाली कटोरी से मदिरा
उड़ेल दी।
फिर सब लोगों ने आवाज़ दी, ‘‘जय, देवी दन्तेश्वरी की
जय !’’
इसके बाद प्रसाद वितरण का काम शुरू हुआ। औरतों का झुंड भी मंडप के एक कोने
में आकर खड़ा हो गया। आज औरतें साफ़-सुथरे कपड़े पहनकर आई हैं। तेल-पानी
लगाए हुए उन लोगों के देह से आज कच्चे डाब-जैसी खुशबू आ रही है।
शम्भू पासवान कुछ देर तक इधर-उधर देखता रहा। विभाग की हर लाइन के लोगों को
बूढ़े पासवान ने ख़ुद निमन्त्रण भिजवाया था। कोई नहीं आया।
गोमती के किसी लीडर ने एक बार इसी दन्तेश्वरी वेदी के पास खड़े होकर कहा
था, ‘‘यह साई नदी का विभाग है। इस विभाग में अब कोई
भी अछूत
नहीं रहेगा। प्रकाश आनेवाला है..प्रकाश !!’’
कुछ देर तक शम्भू पासवान ने बाक़ी लोगों के साथ इन्तज़ार किया। अभिशप्त
दलित और अछूत रहने के बाद शम्भू पासवान ने जीवन की इस गति को सहज स्वीकार
कर लिया है। मगर आजकल के नौजवान शहद-जैसी मीठी और फूलों-जैसी कोमल बातें
करने लगे हैं...।
तभी यशवन्त की गरज सुनाई दी, ‘‘किसके लिए रुके हो तुम
लोग, प्रसाद बाँट दो !...’’
गुड़सने मुरमुरे और पके केले के टुकड़े शम्भू पासवान बाँटने लगा।
नंगे-अधनंगे लड़कों में आपसी छीना-झपटी शुरू हो गई। बूढ़े शम्भू पासवान की
बात भी वे नहीं मानना चाहते थे।
‘‘दूर हो जाओ पिशाचो, दूर हो ! दन्तेश्वरी का प्रसाद
भी तुम लोग राक्षस की तरह खाना चाहते हो ? भाग
जा...!’’
शम्भू पासवान के गले से निकली यह आवाज़ कुछ भर्राई-सी लगी। अन्त में औरतें
भी दन्तेश्वरी का प्रसाद बाँटने मंडप के अन्दर घुस आईं।
कुछ देर बाद पूजा के बेलपत्ते-फूल टोकरी में भरकर शम्भू पासवान साई नदी
में समर्पित करने जाने लगा। उसके पीछे एक आदमी काँसा बजा रहा था। यशवन्त
भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा। रास्ते के किनारे किसी मरी हुई गाय के
हड्डियों के ढेर की तरह शैटरिंग प्लेट के टुकड़े पड़े हैं और अँतड़ियों की
तरह बिखरे पड़े हैं-पाइप के टुकड़े।
शम्भू पासवान ने यशवन्त के कान के पास फुसफुसाकर कहा,
‘‘तो फिर हड़ताल होगी ?’’
‘‘ऐसी ही समझो।’’
‘‘हम लोगों की छँटाई नहीं होगी, हम लोग परमानेंट
होंगे, यह बात हमारी बूढ़ी हड्डियां मानने को तैयार
नहीं।’’
‘‘आशा करना पुण्य की बात है।’’
‘‘लेकिन, बीस साल से धक्के खाकर क्या हमारी चमड़ी
मोटी नहीं
हुई ? विभाग बन्द हो जाने के बाद आवारा कुत्तों-जैसी हालत बन जाती है। हर
बार नया शहर-नया चेहरा। कसाई की तरह उनका दिल। सिर्फ़ हट-हट जा, भाग...भाग
जा...।’’
शम्भू पासवान ने दूर तक थूक दिया। फिर कहा, ‘‘इतने
दिनों तक
हमारे दल के किसी आदमी को यूनियन ने लिया ही नहीं। तू ही पहला है। यह बहुत
सम्मान की बात है। सिर उठाकर बात करना और सीधे रास्ते से जाना...। सुन,
धीरे-धीरे मज़दूर लोग आदमी पहचानने लगे हैं। पुराने नेताओं की वर्दी छीनकर
तुम लोगों को पहनाई गई है। दिन की रोशनी में वे साले हमारे लाइन में बैठना
नहीं पसन्द करते, लेकिन रात में शराब पीकर हमारी जवान औरतों की लाइन में
हो-हुल्लड़ मचाते हैं।’’
कॉन्वेयर बेल्ट के वाशिंग प्लेट में पास कोई किसी की बात सुन नहीं सकता।
और यहाँ तो है सिर्फ़ गड़...गड़, धड़...धड़, आवाज़।
‘‘देख यशवन्त, ठीक इसी जगह...इस अस्थायी पुल के पास
ही हमारे
‘पीस वर्कर’ मज़दूरों ने शराब पी थी और फिर गुंडई
करते हुए
तीन लीडरों की हड्डियाँ पीट-पीटकर तोड़ दी थी। अगले ही दिन गोमती का लीडर
आया। उनकी लीडरी छीन ली गई। उसी दिन तू चारेंखेरा से आ पहुँचा। हमारे बीच
का पढ़ा-लिखा लड़का गूलर के फूल-जैसा है।’’
‘‘गूलर का फूल ?’’
‘‘हाँ, हाँ, जैसे गूलर का फूल।’’
साई नदी के पास वे अपनी ही लाइन के और दो-चार आदमी से मिले। दफ्तर में
झाड़ू लगानेवाला नया आया बूढ़ा मेहतर गोपी आने से के दिन से ही बीमार है।
लाइन का एक आदमी उसे पकड़कर लाया है। किसी कम्पनी से
‘फ़ाइनल’
पाने के बाद शम्भू पासवान के ज़रिए उसे यह काम मिला था। बेचारे को बेतरह
खाँसी है। और उसकी देह की ख़ाल मानो हड्डी से चिपकी हुई है। कुछ दिनों से
लाइन के लोग शक़ कर रहे हैं...शायद उसे कोई जानलेवा बीमारी है।
उसने पूजा के फूल और बेल पत्तों की तरफ़ देखा और उसी जगह रेत भरी ज़मीन पर
लेट गया।
शम्भू पासवान ने कुछ नाराज़ होकर कहा, ‘‘हट
हट...!’’
कुछ दूरी पर एक और दल नदी किनारे रेत पर खड़ा है। वे दन्तेश्वरी को अन्तिम
बार प्रणाम करने आए हैं। ‘साहब लाइन’ में पाख़ाना
साफ़ करने
की ड्यूटी पर तैनात लिचु मेहतर भी आया है। पहले वह ढलाई में पानी डालता
था। तब एक टिन की बाल्टी गिर पड़ने से उसका एक पैर कट गया था। काम के
बँटवारे के समय ‘टाइम कीपर’ ने दया करके उसे
‘साहब
लाइन’ में यह काम दिया था। उसका बिन माँ का बेटा जगन्नाथ साये
की
तरह उसके साथ-साथ घूमता रहता है। लिच लँगड़ा और जगन्नाथ ने शम्भू पासवान
के पैरों में लोटकर प्रणाम किया। शम्भू ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
क्रेन की लाइन ख़त्म होनेवाली जगह पर भी औरतों के साथ बच्चों का एक झुंड
खड़ा था। वे आगे बढ़े। बामू और रामू नाम के शैतान भाई आज नए कपड़े पहनकर
क्रेन की लाइन में खड़े होकर सबको घूर रहे थे। लाइन की बसुमती बूढ़ी भी
आगे आई। सारे शरीर पर सफ़ेद दाग़ सिर के बाल भी बीमारी में सफ़ेद हैं या
बुढ़ापे की बजह से-यह कहना मुश्किल है। ज़िराफ़ के गले जैसे लम्बे अपने
दोनों विचित्र हाथ उठाकर उसने दन्तेश्वरी की विसर्जन पूजा में अड़हुल के
फूलों की एक माला डाल दी। शम्भू पासवान धोती समेटकर पानी में उतरने के
साथ-साथ सारे बच्चे भी पानी में उतर गए। उनकी उछल-कूद और धमाचौकड़ी से साई
का तट खिलखिला उठा।
अचानक सीटी की आवाज सुनाई दी।
क्रेन लाइन में खड़े होकर भारी-भरकम चेहरेवाला ठेकेदार गरज उठा,
‘‘जब ड्यूटी नहीं की तो तुम लोगों की आज की मजूरी कट
जाएगी।’’
शम्भू पासवान चिल्ला उठा, ‘‘हम लोगों ने यूनियन से
निवेदन
किया था-तुम लोग पहले से मंजूर की गई दस छुट्टियों में एक और दिन शामिल कर
लो, पर तुम लोगों ने नहीं की। हम क्या पूजा नहीं करेंगे
?’’
बामू और रामू चिल्लाए, ‘‘चल भाग, कम्पनी के दलाल
!’’
उन दोनों ने और कुछ कहना चाहा, लेकिन शम्भू पासवान ने जब आँखें तरेरकर
देखा तो वे चुप हो गए। क्रेन लाइन से ही ठेकेदार फिर उँगली नचाकर गरजा
‘‘आज की मजूरी तुम लोगों को नहीं मिलेगी, सिर पटककर
माँगने पर
भी नहीं।’’
कुछ ही समय में वे एक-एक करके बैरक तक जाने लगे। नई उम्र के लड़के नए बने
बाँध के ऊपर चढ़ गए, इस आशा से कि शायद बाँध के पास कोई ताँगेवाला रुका
हो। किसी तरह लटककर भी रायबरेली पहुँच गए तो वहाँ सिनेमा देखकर लौट
सकेंगे...अगर ताँगा नहीं मिला तो वे पैदल ही जाएँगे। गली में मोड़ पर वे
चाय पी लेंगे।
बीस फुट ऊँची नहर के ऊपर चढ़कर उन्होंने नीचे सड़क की ओर देखा। एक ट्रेलर
लगी हुई जीप दिखाई भी पड़ा। शायद कोई नया अफ़सर तबादला होकर आया है।
ट्रेलर में सामान भरा हुआ है। ध्यान से देखने पर पता चला कि उस जीप में
मैटेरियल विभाग के सेक्शन इन्चार्ज ठाकुर साहब आए हैं।
रामू और बामू जमादार जोश में चिल्ला उठे, ‘‘ठाकुर
साहब, फिर तो अड्डा जमेगा।’’
‘‘पहले बता, तूने चारेंखेरा में कितना पैसा मारा था
?’’
अचानक बाँध की दूसरी तरफ़ ताँगेवाले घोड़े के गले की घंटी सुनाई दी। कहीं
ताँगा गुज़र न जाए, इस आशंका में दोनों उसी तरफ़ दौड़ने लगे।
साई नदी तट की रेतीली ज़मीन में शम्भू पासवान, यशवन्त लिचु लँगड़ा और उसके
शरीर से सटकर बैठा इकलौता बेटा जगन्नाथ। वे गोल होकर बैठे थे। शम्भू
पासवान बीड़ी पी रहा था। थोड़ी देर बाद उसने बीड़ी लिचु लँगड़े की ओर
बढ़ायी। फिर लँगड़े से कहा, ‘‘रुपया-पैसा कुछ जमाया
है कि
नहीं ?’’
‘‘रुपया-पैसा ?’’ वह कुछ अजीब-सा
मुँह बनाकर हँस पड़ा। जैसे उसके अन्दर की हड्डियाँ खड़खड़ाकर बज उठीं।
शम्भू पासवान ने मानो अपने आपसे कहा, ‘‘पीस
वर्कर’ के
मज़दूरों की सहायता करने के लिए ठेकेदार है; महीने भर की हड़ताल से भी
उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। तुम लोग मरोगे। तुम्हारे बाल-बच्चे मरेंगे।
तुम्हारे पास पैसा नहीं है, बचता भी नहीं।’’
लिचु लँगड़े ने बीड़ी का एक लम्बा कश खींचकर कहा,
‘‘पैसा कहाँ
से होगा-यशवन्त हमारा लीडर बना है, अच्छी बात है। यह हमें तीन नम्बर
बैरकवाले की तरह परमानेंट बनाएगा। चारों कुछ समय तक चुप बैठे रहे। लिचु
लँगड़े के मन में छँटाई हो जाने के बाद की डरावनी तस्वीरें नाचने लगीं।
फिर कहाँ जाएँगे वे ?’’
किसी छोटे क़स्बे मुंशीगंज जाएँगे ? पाख़ाना और पी.डब्ल्यू.डी. की सड़कें
साफ़ करनेवाले मेहतरों ने एक दिन इसी मेहतर लाइन में हाथ-पैर पटककर कहा
था, ‘‘छँटाई हो जाने के बाद तुम लोग यह मत सोच लेना
कि
मुंशीगंज में काम करके पेट भर लोगे। वहाँ के मेहतरों की हालत गली के
कुत्तों से भी बदतर है !’’
फिर कहाँ जाएँगे इस बार ? लँगड़े पैर को घसीटकर कहाँ जा सकता है वह ?
मेहतर लाइन के हर आदमी की बात लिचु लँगड़े के मन में आने लगी।
अपने दो महीने के बच्चों को लेकर कहाँ जाएगी नारायणी ? पति को टी.बी. हुई
थी। अब थोड़ा ठीक भी है तो काम करने लायक़ नहीं है। चारेंखेरा विभाग के
मेहतरों को भगा देने के बाद लगभग बेसहारा हालत में उसका पाँच साल का बेटा
मरा था। अब यह दो-तीन महीने के बच्चे और बीमार पति को लेकर कहाँ-कहाँ काम
की तलाश में भटकेगी वह ?
एक समय नारायणी हँसती-बोलती लड़की थी। आज लिचु ने उसे टूटे-फूटे शटरिंग
प्लेट के ऊपर मुँह लटकाये बैठा देखा है।
पाँच-पाँच जवान लड़कियाँ लेकर बूढ़ा मेहतर भृगु कहाँ जाएगा।
बहुत सारी बातें लँगड़े को याद आईं। रायबरेली शहर में भी उन लोगों को जगह
नहीं मिल सकती। मुंशीगंज में ? नामुमकिन !
इसी तरह की सोच में यशवन्त भी डूबा हुआ था। शम्भू पासवान ने कहा,
‘‘इस बार हड़ताल का नतीजा अच्छा ही
होगा।’’
‘‘तुझे कैसे पता चला ?’’
‘‘क्योंकि इस बार सभी लीडर मारे डर के सहमे हुए
हैं।’’
‘‘यह कैसे जान गया तू ?