जंग (पंजाबी कहानी) : गुरमीत कड़ियालवी

Jang (Punjabi Story) : Gurmeet Karyalvi

मेरा सिर शर्म से झुकने लगा है, जी चाहता है, आत्महत्या कर लूं। फिर सोचता हूं, आत्महत्या तो डरपोक और कायर करते हैं, जबकि मैं हूं, महान भारत का बहादुर सिपाही। देश की रक्षा के लिये जान न्यौछावर कर देने वाला एक शहीद सिपाही। कोई सिरफिरा आशिक तो हूं नहीं कि आत्महत्या कर लूं। कालेज में मेरे साथ खिड़कियाँ गांव का एक लड़का पढ़ता था, नेका। बेहद सुन्दर, कविताएँ इत्यादि लिखने का भी शौकीन था। कालेज में किसी लड़की से दिल लगा बैठा। लड़की के बाप को जैसे ही इस की भनक लगी, उस ने लड़की की पढ़ाई छुड़वा कर, उसे किसी रिश्तेदार के पास भेज दिया।जब आशिक को इस बात की खबर मिली, दुकान से चूहेमार दवा ले आया और पॉपकोर्न की तरह निगल गया।बस, फिर क्या था, नेके की रूह ने उस के शरीर से उड़ान भर ली। साला बेवकूफ ! बेकार में अपनी जान गवां बैठा। वो तो ‘मिर्ज़ा’ भी ना बन सका। इधर आशिक की अर्थी निकली, उधर माशूका की डोली उसके ससुराल चली गयी। क्या हासिल हुआ उसे ? चार दिन गांववालों में इस बात की चर्चा रही, बाद में किसी एक को भी याद नहीं रहा कि कोई नेका नाम का शख्स था, जिस ने किसी लड़की के पीछे अपनी जान दे दी थी। नेका ने सोचा होगा, उस की मौत की सब ओर चर्चा होगी। हाय ! उसे तो कोई ‘वारिस शाह’ भी ना मिला। वारिस की कलम की ज़द में आना, किसी ‘खास आशिक’ के हिस्से ही आता है। मेले-वेले लगना तो बहुत दूर की बात है। कोई नहीं याद करता कि उस ने प्यार के लिए शहीदी/जान दे दी।

इधर मेरी याद में नौजवान हर साल टूर्नामैंट करवाते हैं। बुत को भी अच्छे से साफ़ कर फूल मालाओं से लाद देते हैं। टूर्नामैंट में बहुत दूर-दूर से अनेक टीमें आती हैं। कुछ ज़ोरदार खेलती हैं, कोई आज की राजनैतिक पार्टियों की भांति मिल कर ‘नूरा कुश्ती’ सा खेल, खेल लेती हैं। गांव के युवा क्लब मिल कर मेरे नाम पर सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करवाते हैं। नाम के तौर पर यहां मौजूद होते हुए भी, इन चार दिनों में मैं मेले से ग़ैरहाज़िर रहता हूं। सांस्कृतिक आयोजन के उद्घाटन समारोह में मैं कुरलाने लगता हूं। दोगाना गाने वाली कलाकार जोड़ियां गांववालों की आत्मा को सरशार कर देती हैं। एक जोड़ी गांव में कुछ अधिक ही लोकप्रिय है। उन के गीत सुन कर मेरा जी चाहता है कि ‘बुत’ से निकल कर उस ‘लड़की’ के पांव छू लूं और कहूं, ‘‘बेटी ! धन्य है तूं और तेरी गायकी। कितनी सेवा कर रही हो तुम हमारी संस्कृति की। आखिर शहीदी समारोह में ऐसे गीत ही गाये जाने चाहिये। सदके जाऊँ तेरे। अपनी मां की कोख को धन्य कर दिया तुम ने।’’ कितने मज़े से अपने साथी कलाकार के साथ कंधे उचकाते हुए वो गाती है, ‘‘वे मैं फंसगी अल्हड़ निआणी, कदे बाबा मोढ़ा मारे, कदे पोता मोढ़ा मारे।’’

धत् तेरे की! पीढ़ियों का अंतर ही खत्म कर दिया। लोग भी कमाल हैं। अच्छे-भले, समझदार, सफेद दाढ़ी वालें, अधेड़ सभी आंखें फाड़ कर उस गायिका को घूरते हैं।कुर्सियों पर बैठे-बैठे उछलने लगते हैं, ऐसे लुच्चे गीत सुनकर। मैं सोचता हूं, अभी कोई शर्मदार अधेड़ व्यक्ति उठ कर कहेगा, ‘‘बंद करो ये नाच-गाना। क्या कंजरखाना लगा रखा हैं तुम लोगों ने ? यहां एक शहीद का सालाना समारोह (वार्षिकोत्सव) आयोजित किया जा रहा हैं और तुम लोग यहां बेशर्मी फैला रहे हों।’’ अफ़सोस ! कोई नहीं उठता। सभी मगन हैं। तब तो मेरा डूब मरने को जी करता हैं, जब गांववाले ऐसी वाहियात गायक जोड़ी को ‘विरासत-ए-वारिस’ या ‘शहीद जगमीत सिंह एवार्ड’ से सम्मानित करते हैं। मन करता है, अपने नाम पर दिये जाने वाले इस एवार्ड को उन से छीन कर परे फेंक दूं।

गांववाले मेरे बहाने मेले का आयोजन कर लेते हैं। क्षेत्रीय मंत्री-संतरी को आमंत्रित कर क्लब वाले अपनी शान बढ़ा लेते हैं। पंचायत के पंच-सरपंच खाने-पीने लायक ग्रांट ले लेते हैं। संपंन्न और चलते पुर्ज़े जैसे आदमी, नेताओं की चापलूसी कर अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। मंत्री अपनी वोट पक्की कर लेता हैं। चलो भई, हो गया शहीदों का गुणगान। इस सारे मेले में दिलजीत को कोई याद नहीं करता। कोई नहीं सोचता, आखिर वो कहां होंगी ? उस की मासूम बच्ची किस हाल में होंगी ? भडुओं को क्या समझाऊँ, मैंने कोई बलिदान नहीं दिया। कोई भी सिपाही कुर्बानी नहीं देता। वास्तविक बलिदान तो उस के परिवार का होता है। बलि तो दिलजीत ने दी है। सच तो यह है युद्ध कहीं भी हो, औरत की त्रास्दी एक सी होती है। युद्ध कुरूक्षेत्र में हो या पानीपत में। कारगिल की पहाडियों में या कहीं दूर फ़लस्तीन, ईराक, सीरिया या कहीं भी, स्त्री ही विधवा होती है। सभी स्थानों पर किसी न किसी दिलजीत को ही दुख झेलना पड़ता हैं। औरत की किस्मत और अज़मत ही सदा दांव लगाई जाती रही है।

मेरी शहदत की कीमत सभी को मिली या कहो कि सभी ने उस का मूल्य ले लिया। बाप को पेट्रोल पंप मिल गया। बापूजी अपनी सफेद दाढ़ी को संवार कर ‘भुल्लर पेट्रोल पंप’ की गद्दी पर सुबह ही जा कर बिराजमान हो जाते है। जब से यह पेट्रोल पंप मिला है, गांव का दब्बू जट्ट ‘जेबा’ अब सरदार अजैब सिंह भुल्लर बन कर गांव के संपंन्न लोगों की गिनती में आ गया है। बड़ा भाई शमशेर सिंह, जिस के लिए छुट्टी पर आते समय मैं रम की बोतलें विशेष तौर पर लाया करता था, वही अब ‘शमशेर सिंह शेरा’ बन गया है। जो गांव का ही नहीं, सारे इलाके का छुट्टभैया नेता है। अपनी घरवाली के साथ वो जीप से ही शहर जाता हैं। भाई की शहीदी का यथासंभव हिस्सा उसे भी मिल गया है। छोटा भाई रणजीत, जो कभी मेरी राह देखा करता था, गांव के ‘‘शहीद जगमीत सिंह क्लब ” का उपाध्यक्ष है। कभी दिलजीत को ‘भाभी, भाभी’ कहते हुए उस का मुँह नहीं सूखता था। अब उसे मालूम ही नहीं कि उस की मां जैसी भाभी कहां है और कितने दुखों से घिरी हुई है और तो और, वो भाई की मासूम संतान की भी खैर-खबर नहीं रखते। मुझे हैरानी है, खून क्या इतनी जल्दी रंग बदल लेता है ?

क्या बताऊँ ? मेरी चित्ता की राख अभी ठंडी भी नहीं हुई कि दिलजीत के मायके वालों में से किसी सयाने व्यक्ति ने क्रिया के पश्चात् बात चलाई थी, ‘‘ भाई साहब! दिलजीत मां बनने वाली है, परमात्मा की कृपा हुई तो कोई अच्छा जीव घर में आयेगा। क्या मालूम, ईश्वर जगमीत सिंह को ही बच्चे के रूप में वापस भेज दें। फिर दिलजीत आपकी इज्ज़त है, घर की इज्ज़त घर में ही रह जाये तो अच्छा होगा। हम चाहते हैं कि आप इसे अपनी ही छत तलेे रख लें। सुख से जगमीत से छोटा अब जवान है, आप.....।’’ बात पूरी होने से पहले ही मां भड़क उठी और कहने लगी, ‘‘हम उसे नहीं रखेंगे। मनहूस है यह तो। मेरे हीरे जैसे बेटे को खा गयी।’’

हे ईश्वर ! इतना बड़ा इल्ज़ाम, वह भी बिना किसी सिर-पैर के। मां को कैसे समझाऊँ कि मुझे दिलजीत ने नहीं, दिल्ली-इस्लामाबाद वालों की आंख-मिचैली वाली राजनीति खा गयी।

मां को कैसे समझाऊँ कि लीडर देश के भीतर ही नहीं, बाहर के देशों के लीडरों संग भी खेल-खेल में कुश्ती लड़ना जानते हैं। लीड़रों की आंख-मिचैली वाली राजनीति हमारे छोटे दिमागों में घुस ही नहीं सकती। एक दिन सीमा पार से कुर्सी कहती है, ‘‘हम अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों की नयी इबारत आरंभ कर रहे हैं।’’ उस वक्तव्य की अभी स्याही भी नहीं सूखती कि सीमा पार की ऊँची बफ्रीर्ली पहाड़ियों से तोपें गोले दागने लगती हैं। आर-पार से आरंभ हुई सद्भावना यात्रा की एकमात्र बस दिलजीत जैसी औरतों के माथे का सिंदूर पोंछ डालती हैं। सीमा के इस ओर की कुर्सी वाले मंदिर-मस्जिद के मामले में मोहरा बनाये गये लोगों को स्थिर करने के लिए टी.वी. पर आ कर बार-बार आंखें झपकाते हुए कहते हैं, ‘‘अब लड़ाई आर-पार की होगी। हम उन के घर में घुस कर मारेंगे।’’ हौलदार नायब सिंह कहा करता था, ‘‘ जब आकाशवाणी जालंधर वाले मौसम का हालत बताते हुए कहते हैं कि आज मौसम खुश्क रहेगा, तब पक्की बात है कि उस दिन बारिश ज़रूर होगी। ऐसे ही जब देश का कोई नेता कहे कि हम देश के अमन-चैन पर आंच भी नहीं आने देंगे, तो समझो कहीं न कहीं दंगे अवश्य होंगे।’’

कभी-कभी नायब सिंह बहुत समझदारी भरी बातें करता था। वह कहता, ‘‘ गोरों ने पाकिस्तान बना कर बीच में कशमीर जैसा ‘तकला’ (पहिया) गाड़ दिया। अब दोनों ओर पंजाबी ही मर रहें हैं। इधर भी उधर भी। कंजरों ने कौमीयत को ही बांट दिया। साले कच्ची सी चमड़ी वाले हैं बहुत बड़ी शै। भला ऐसे भी कुछ बांटा जाता हैं ? घर में बँटवारा करना हो तो चैपाल में पूरी पंचायत जुड़ती हैं। यहां साले सफेद चमड़ी वाले रैडक्लिफ ने दो घंटे में ही नक्शे पर लकीरें लगा कर इतने बड़े देश का बंटवारा चुटकी में कर दिखाया।’’

‘‘अरे, अगर पाकिस्तान ना बना होते तो अपने हौलदार नायब सिंह अभी भी लाहौर की हीरा मंडी में घूम रहे होते। ये रूकने वाले नहीं थे।’’

‘‘और क्या....अंबरसरिया कोई काम करने में देर नहीं करता ? तुम करते होंगे या तुम्हारा बूढ़ा करता होगा। खुद ही तो बता रहा था, वो अंत तक लाहौर-लाहौर पुकारते चला गया था।’’ नायब सिंह ने अंबरसरिये लखवीर, जिसे सभी लक्खा भाऊ कहते थे, को उसी की भाषा में जवाब दिया था।

‘‘ठीक कहते हो भाई। मेरा वश चले तो स्यालकोट जा कर पूरन का कुआँ ही देख आऊँ। बापू तो अंत तक मायूसी से झूरता मर गया। बापू कहा करता था, ‘‘अरे सालो ! मुझे तो अभी तक फज़लां के सपने आते हैं। अगर ये बँटवारा ना हुआ होता तो मैं उसे ले कर उडन छू हो गया होता। हाथ लगाने से मैली होती थी। एकदम रूई के फाहे जैसी। यदि कहीं बात बन गई होती तो तुम लोग भी ऐसे बेढ़गे से ना हो कर रूई से सुन्दर और नरम होते।’’ सच में सॉब, बापू झूठ तो नहीं कहता था। क्या गया जिन्ना का या क्या बिगड़ा नेहरु का। नुकसान सिर्फ़ पंजाबियों का ही हुआ। लाखों लोग मारे गये और लाखों उजड़ गए। हज़ारों औरतें विधवा हुई और अनेकों बहन-बेटियों की इज्ज़त लूटी गयी। मालूम नहीं बापू जैसे कितने अपनी फज़लों से बिछुड़ गए। यहां पंजाबी लुटे-पिटे रो रहें थे और नेहरु साब लेडी माऊंटबैंटन की बांहों में बांहें डाले आज़ादी के जश्न मना रहे थे। क्या खाक आज़ादी मिली।’’

‘‘ठीक कहते हो भाऊ । अपने बठिंडा वाले घुक्कर सिंह सूबेदार के अनुसार, दो बच्चे पैदा कर औरत बूढ़ी हो जाती हैं, वैसे ही हमारी आज़ादी हो गयी हैं। इस ने तो लीडरों की कितनी जमातें पैदा कर दी हैं। इन के पल्ले अब कुछ भी नहीं।’’ नायब सिंह ने कहा था।

हौलदार नायब सिंह जैसा कोई नहीं हो सकता। इतना ज़िंदादिल आदमी मैंने आज तक नहीं देखा। ‘मैं भैन चो.....।’’ उस का तकिया कलाम था। कई बार तो अपने बड़े अधिकारियों के सामने भी उस के मुंह स अनायास ही गाली निकल जाती थी। अपनी ओर से उसे रोकने की बहुत कोशिश भी करता था। चार सौ मीटर दौड़ का धावक था। कहता था, ‘‘फ्लाईंग सिंह मिलखा सिंह भी यही रेस दौड़ा करता था। तुम देखना, किसी दिन मैं भी नायब सिंह......अपने नाम का डंका बजवा दूंगा। जब भी दौड़ने लगा, उस फ्लाईंग सिंह का रीकार्ड़ मैं ही तोडूंगा। मैं भैन चो....मैं तोड़ूंगा मिलखा सिंह का रीकार्ड....। तुम देखते जाना।’’

सचमुच नायब सिंह फ्लाईंह सिंह मिलखा सिंह की तरह ही हवा को पकड़ता था। एक बार उस के टखने में मोच आ गई। उधर इंटर बटालियन ट्रर्नामैंट आ गया। कंपनी कमांडर जी. वी. रामाचंद्रन ने नायब सिंह को बुला भेजा। उसे नायब की मोच की जानकारी थी।

‘‘जवान, आप के वाऊंडज़ का हमें मालूम.....क्या दौड़ सकोगे ? पंजाब बटालियन का परमजंट सींग भी बड़ा आहला दर्ज़े का रेसर है।’’ तमिल कंपनी कमांडर ने अपने सामने तन कर खड़े नायब सिंह की आंखों में आंखें डाल कर सवाल किया था।

‘‘यस सर ! यस .....सर! साहब मैं भैन चो....नायब सिंह वलद शेर सिंह वलद रूड़ा सिंह। सैपर नंबर वन फोर डबल नाईन सैवन ऐट नाईन, बटालियन नंबर टू सिक्स नाईन, एकदम फाईन। साहब मैं भैन चो....नायब सिंह....मैं तो पानी में आग लगा दूं।’’ और नायब सिंह ने दायां पैर उठा कर इतने ज़ोर से सैल्यूट ठोका कि एक बार तो पैरों तले धरती भी कांपने लगी थी। ‘‘वेलडन.....वेलडन....यंगमैन वैलडन। गो एंड कीप एट अप.....टू सिक्स नाईन.....एकदम फाईन।’’ कंपनी कमांडर होंठ टेढ़े कर हौले से मुस्कराया।

नायब ने अपने कहे अनुसार, इंटर बटालियन खेलों में पानी में आग ही लगा दी थी। दौड़ते समय वह फ्लाईंग सिंह ही लगता था। गोल्ड मैडल लेने के लिए जब वह मंच पर खड़ा हुआ, सभी साथियों ने तालियों से आसमान को गुंजा दिया था।रात को थ्री एक्स रम ने हमारी खुशी को और भी बढ़ा दिया था। खुशी तो नायब की अभी कई गुना और भी बढ़ने वाली थी, क्योंकि सीमा के आर-पार की कुर्सियों वालों में फ्रैंडली मैच आरंभ हो गया था। तोपें आग उगलने लगी थी। रुस-अमेरिका की फैक्टरियों में बना गोला-बारुद भंगड़ा करने लगा था। इधर या उधर से एक भी तोप चलती तो सैकड़े हिन्दूस्तानी और पाकिस्तानी बच्चों के मुंह से निवाला छिन जाता था। उधर रुस या अमेरिका में एक नई ऊँची इमारत तैयार हो जाती। सीमा पर जब ‘आदम बो, आदम बो....’ शुरू हुआ, नायब सिंह की घरवाली के लगातार पत्र आने लगे, ‘‘तुम अब घर आ जाओ, मैं बेबे के साथ अब निभा नहीं सकती। वो हरदम टोकती रहती है। मेरा खुद का मन भी नहीं लगता। अपना कोई बच्चा भी नहीं, जिस कारण मन लगा रहे। मेरा मन तो उल्टी-सीधी बातें अधिक सोचता है। बस, अब और नहीं लिखा जा रहा। इस चिट्ठी को ही तार समझना। और तुम जो बेल लगा कर गए थे, वो पड़ोसियों के पेड़ तक जा पहुँची हैं।’’

कोई और वक्त होता तो नायब घरवाली की चिट्ठी पढ़ कर, गम भुलाने के लिए रम के दो बड़े पैॅग मारता, मगर जंग में किसी सैनिक के पास इतना समय ही कहां था ? जंग बीती बातों को याद करने का समय देती ही कब है ?

‘‘अपना ख्याल रखना......। यह चार दिनों की गोली-बारी हैं। बंद होते ही आ जाऊंगा। रिश्तेदारों को बुला कर मामला निपटा लेंगे। ऐसे दिल छोटा मत कर। घर में दो बर्तन आपस में टकराते ही हैं।’’ घरवाली को ख़त लिख कर नायब मोर्चे की ओर चल दिया था। वैसे आज वह उदास था। घर में लगाई बेल का पड़ोसियों के पेड़ पर चढ़ने की चिन्ता उसे खाने लगी थी। यह अच्छा संकेत नहीं था।

‘‘अब आयेगा मज़ा हाथ सेंकने का। मैं भैन चो...नायब सिंह....मैं तो पानी में आग लगा दूंगा।’’ सारे रास्ते नायब सिंह जैसे शोर मचाता आया था। मगर युद्ध कोई खेल का मैदान नहीं था, जहां खड़े-खड़े पानी में आग लगा देता। यहां वह अपना कोई करिश्मा नहीं दिखा पाया था। बंब-ग्रनेडों की उड़ती धूल में खो गया था। सेना ने उसे भगौड़ा करार दे दिया था। कोई सूह या अता-पता नहीं लगा था। पांचवे वर्ष पाकिस्तान की कोट लखपत जेल से घरवालों को आयी एक चिट्ठी से उस के जीवित होने की सूचना मिली थी। दोनों देशों के कैदियों के आदान-प्रदान के पश्चात् पूरे साढ़े सात वर्ष बाद नायब ने अपनी जन्मभूमि पर पांव रखा था। नायब का सारा संसार ही बदल गया था। उस की लगाई बेल किसी और के वृक्ष पर जा चढ़ी थी। भाभियों ने घर का बंटवारा कर लिया था। विधवा मां, ‘‘नैबा....नैबा’’ पुकारते हुए दूसरे जहान चली गयी थी।

‘‘तुम अब मुझे यहां से मत उखाड़ो। समझ लेना, अपना रिश्ता लंबे समय के लिये नहीं था।’’ नायब की बुआ का लड़का, जो अक्सर उस के घर के चक्कर लगाता रहता था, शरनी उसी के घर जा बैठी थी।उस के सामने हाथ जोड़ कर बिनती कर रही थी। क्या कहता नायब ? पुराने घर की दीमक खायी चैगाठें और बेबे के दहेज में आया कई दशक पुराना संदूक ही अब उस का नसीब था। अब तो वो फौज में भी नहीं जा सकता था। फौज उसे भगौड़ा मान चुकी थी, उसे अब नायब सिंह पर शक था, जो लंबा अर्सा पाकिस्तान की जेल में रह कर आया था। बुआ के गांव से आने के बाद नायब कई दिनों तक घर से बाहर ना निकला। धीरे-धीरे ज़िदगी ने रफ्तार पकडना शुरू कर दिया। शहर की किसी फैक्ट्री में मिली सुरक्षा गार्ड की नौकरी पर जाते समय वह साइकिल से मेरे पास से ही गुज़रता। एक दिन मुझे पहचान कर मेरे निकट आ गया। उसने आस-पास निगाह डाली, किसी अन्य को वहां ना देख कर, उस ने साइकिल को एक ओर दीवार के साथ टिका दिया। दोनों पैर जोड़ कर ज़ोरदार सैल्यूट मारा। फिर धीरे से मेरे पास आ बैठा। मैंने उसे ग़ौर से देखा, उस की आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे। उस का जी चाह रहा था कि कस कर मुझ से लिपट जाए। सिसकियां लेते वह कितनी ही देर मुझ से बातें करता रहा। मुझसे कहने लगा, ‘‘अच्छे हुआ, तुम नहीं रहे। अगर ज़िन्दा रह गये होते तो मेरे समान दुख देखने पड़ते। तुम सहन ना कर पाते। मेरी ओर देखो, क्या बाकी रहा मेरे पास ? ना परिवार, ना सम्मान और ना ही स्वाभिमान। बस लाश को ढ़ोता घूम रहा हूं। अब मैं पानी में आग लगाने वाला नायब सिंह नहीं रहा, जिसे तुम लोग ‘नैबा आग की लपट’’ कहा करते थे। गांववाले मुझे लकड़ी की टांग वाला नैबा कहते हैं....लकड़ी की टांग वाला।’’ नायब टखनों से पजामा ऊपर उठा कर मुझे अपनी बनावटी टांग दिखाने लगा। आंसू उस की अधपकी दाढ़ी में समाते जा रहे थे।

‘‘शहीद जगमीत सिंह......, ज़ख्म भरे पड़े हैं मेरे अंदर। किस-किस को सफाई दूं...। लोग साले कहते हैं.....नैबा तोप के गोलों से डर कर लड़ाई के मैदान से जान बचाने के लिए सरपट भाग निकला। घबराहट में उसे पता नहीं लगा कि वह पाकिस्तान की ओर जा रहा है। लोग साले और भी बहुत तरह की बकवास करते हैं, कहते हैं, नैबे ने धर्म परिवर्तन कर लिया था पाकिस्तान में। कहते हैं, सुन्नत करवा ली थी....इसलिए घरवाली ने मुसल्ले संग रहने से इन्कार कर दिया। लोगों की ये बातें मेरी पीठ से चिपक जाती हैं। जी चाहता है, धरती फट जाए या मैं ही किसी कुएँ या तालाब में छलांग लगा दूं।’’ नायब सिसकियां भरने लगा। मेरा जी चाहा, मैं बुत से निकल कर नायब को अपनी बांहों में भर कर उसे दिलासा दूं। पर मैं क्या करता ?

‘‘शहीद जगमीत सिंह....! जेल में पाकिस्तानियों ने मुझ पर बेहताशा ज़ुल्म किए। मार-मार कर मेरी हड्डियां टेढ़ी कर दी। उसी मारपीट के दौरान टांग की हड्डी ऐसी टूटी, फिर सही से जुड़ नहीं पायी। मवाद भर गया, गैंगरीन हो गयी। आखिर में घुटने के ऊपर से टांग काटनी पड़ी। बदकिस्मती थी मेरी, जो मौत के मुंह में जाने से बच गया। ये गांववाले क्या कहते हैं.....अब क्या-क्या बताऊं तुम्हें ? कहते हैं, नैबे की टांग पाकिस्तान की जेल में नहीं कटी, असल में किसी बुर्के वाली को छेड़ दिया था इस ने, उन्होंने मूली-गाजर की तरह काट कर टांग परे फेंक दी। तुम कभी बातें सुनो उन हरामियों की। कोई उन से पूछे, भला मैं वहां अपनी बुआ के घर गया था, जहां मैं किसी बुर्के वाली से पंगे लेने लगा। पर भाई....क्या-क्या बताऊं ? मालूम नहीं, कितनी ऊंट-पटांग बातें मेरे साथ जोड़ रखी हैं।’’ मैं नायब की किसी बात का जवाब नहीं देता। मैं उसे और दुखी नहीं करना चाहता। क्या बताऊं उसे, अच्छा तो मेरे साथ भी मेरे घरवालों ने नहीं किया। हम तो बस फूल मालाओं के लायक ही रह गये हैं। मेरा परिवार भी.... नायब सिंह...उजड़ गया। दिलजीत को मेरे घरवालों ने तो निकाला ही, उसके मायके वालों ने भी उसका साथ नहीं दिया। उन्होंने ने तो और भी उसके साथ बुरा किया। दिलजीत के भाई यानि मेरा साला बहुत चालू निकला। मेरी शहादत पर जो भी रकम, ईनाम उसे मिला, मीठी-मीठी बातें करके उस से छीन लिया। कंजर ने सारा पैसा फाईनस कंपनी में लगा दिया। अपनी बढ़िया कोठी बना ली। दिलजीत के पैसे डकार कर उसे घर से बाहर दर-दर की ठोकरें खाने के लिये छोड़ दिया। मेरे मां-बाप का खून तो एकदम पानी हो गया। दिलजीत की दुधमुंही बच्ची को अपना मानने से इन्कार कर दिया । इन्हें कैसे समझाऊं, यह नन्हीं सी जान मेरा ही खून है। शायद मां ने जानबूझ कर ऐसे किया । मैं हैरान हूं, एक औरत दूसरी औरत के प्रति इतनी पत्थर दिल कैसे हो सकती है ? वैसे मेरा जी चाहा कि मैं नायब सिंह को हौंसला दूं, ‘‘हौलदार नायब सिंह ! क्यों दुखी होता हैं यारां। यहां कुछ भी असली नहीं रह गया। सब कुछ बनावटी हो गया है। रिश्ते बनावटी देख लिये, प्यार-मुहब्बत झूठी देखी। देखा नहीं, हमारे एक ब्रिगेडयर ने प्रमोशन लेने के लिए लड़ाई भी नकली बना ली थी। नकलीे शहीद नकली मुकाबला। वैसे ही जैसे सैकड़ों-हज़ारों नकली स्वतंत्रता संग्रामी बने हुए हैं। नकली तगमे, झूठे सर्टिफिकेट, जाली प्रमोशनस, नकली फीतें’; नकली नेता....खोखली नीतियां।....और सुनो, मेरी दाह-क्रिया के समय एक झूठा नेता कहने लगा, ‘‘सरदार जगमीत सिंह देश कौम का बहादुर सिपाही है। पूरी कौम को इस पर फंख्र हैं। परमात्मा इसकी आत्मा को शांति दे, पीछे रह गये परिवार को हौंसला दे।’’ इस भडुए को मालूम ही नहीं कि शहीदों की आत्मा कभी शांत नहीं होती। ये दूसरों को शांति देती हैं। दूसरों को शांति देने के लिए ही ये आत्माएँ बेचैन रहती हैं।

नायब सिंह कितनी देर तक सिसकियां भरता रहा। फिर कहने लगा, ‘‘ देख लो, तुम्हारा कितना आदर-सम्मान किया है देश-कौम ने। मैं तब पाकिस्तान की जेल में बंद था, बाद में गांव आकर मालूम हुआ कि तुम्हारे दाह-संस्कार पर भारी इक्ट्ठ हुआ था। डी.सी., एस.एस.पी. मानो सारा प्रशासन ही आ जुड़ा था। क्या मंत्री-संतरी...सभी। इक्कीस बंदूकों तोपों की सलामी दी गई थी तुम्हें। तुम्हारा ताबूत चार सैनिक अपने कंधों पर उठा कर शमशान घाट पर लाये थे, परेड करते हुए। लोगों का उत्साह देखते ही बनता था। शहीद जगमीत सिंह.....देश पर कुर्बान होने वालों का ऐसा आदर-सम्मान होना ही चाहिए।’’

नायब सिंह होश में नहीं था। उसकी हालत देख कर तरस आता और बातें सुनकर हंसी आती थी। उसे क्या बताता, हौलदार नायब सिंह ! ये देश अपने शहीदों का आदर-सम्मान तो बहुत करता है। कोई अंत ही नहीं इस सब का। तेरा आदर-सम्मान कम क्या इन्होंने ? आदर-सत्कार की बातें सुन ले ज़रा....जो देशभक्त आज़ादी के लिए जेल गए, जानें न्यौछावर की, उन सभी की संपत्ति गोरी सरकार ने कुर्क कर दी थी। आज पौनी सदी गुज़र गई, उन के वारिसों को ये संपत्ति वापस नहीं मिली। उल्टा आए दिन किसी न किसी शहीद के बुत की बेअदबी की जाती हैं। अभी तो लोग इस बात पर भी लड़ रहे हैं कि शहीद का बुत टोपी वाला हो या पगड़ी वाला। परन्तु मैंने कुछ कहा नहीं। मन चाहा, उसे यह भी बता दूं कि शहीद होने पर मुझे जिस ताबूत में लाया गया, कौम के वारिसों ने उस में से भी अपना हिस्सा नहीं छोड़ा था। जिन तोपों से हम ऊंची पहाड़ियों पर बैठे दुश्मनों पर गोलें दागते हैं, ये नेता लोग उस में से भी अपनी कमीशन नहीं छोड़ते।’’

अभी भी मेरे पास से गुज़रते हुए कभी-कभी नायब मेरी ओर बहुत गर्व से देखते हुए, मन ही मन सोचता है, ‘‘तुम तो अमर हो गए यार। रहती दुनिया तक तुम्हारा नाम रहेगा। मेले लगते रहेंगे, तुम्हारी याद में। अभी भी बड़े-बड़े लीडर और अफ़सर आ कर तुम्हारे आगे शीश झुकाते हैं। तुम्हें फूल मालाएँ डाली जाती हैं। तुम्हारा बलिदान व्यर्थ नहीं गया मेरे दोस्त !’’ उस का यह हौंसला कुछ दिनों तक बरकरार रहता हैं। फिर वह मेरे पास आ कर उदास हो शिकवा करने लगता है, ‘‘ क्या जवानी आयी थी तुम पर। ऐसे सुन्दर जवान थे तुम कि परी भी तुम्हें देख कर गश खा जाती। हवा भी झुक-झुक कर सलाम करती थी तुम्हें। तुम्हारी नज़र का जादू सिर चढ़ कर बोलता था। उड़ते पक्षी को मार गिराए, ऐसी नज़र थी तुम्हारी। ऊंचा लंबा कद.... ऐसे कि बांह फैला कर अंबर से तारें तोड़ लें। मगर जवानां.....क्या हासिल हुआ इस जवानी से । यूं ही खत्म हो गई तुम्हारी जवानी। कैसा बलिदान, कैसी शहादत ? भाड़ में जाएं ऐसी शहीदी। एक बात बताऊं आज तुम्हें जवान....। हम ने अपनी जवानी किसकी भेंट चढ़ा दी ?’’ नायब सिंह मुझ से जवाब तलब करने लगता है। क्या जवाब दूं मैं इसे ? मेरे पास इस का कोई जवाब है भी ? मेरा मन करता है, मैं उस से कहूं, ‘‘ नायब सिंह, आखिर हम-तुम है ही क्या ? अपने देश ने तो हरबख्श सिंह जैसे लेफ्टिनेंट जरनैल को भी भुला दिया। पैंसठ की जंग का हीरो था, ये जांबाज़ सूरमा! उसी की बहादुरी के कारण मोर्चा जीता था भारतीय सेना ने। परन्तु हमारे लीडरों की करतूत देखो....ऐसे योद्धा को प्रमोशन देने की बजाए घर वापस भेज दिया गया था। अपनी ज़िन्दगी के आखिरी तीन दशक उस ने गुमनामी में गुज़ार दिए। किसी ने उस का हालचाल नहीं पूछा। क्या कद्र की देश ने उसकी ?’’

नायब सिंह की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह खुद ही प्रश्न कर, उसका उत्तर स्वयं ही दे देता है। अभी उसने मुझसे सवाल किया था, ‘‘हमने ये जवानी किसकी खातिर गवाईं थी ?’’ इस का जवाब वह खुद ही देने लगा, ‘‘ सुनो शहीद जगमीत सिंह ! हमारे साथ धोखा हुआ। जंग में छोटे-बड़े स्टार वाले, अपनी जानें बचाते रहें और 26 जनवरी को वही लोग मैडल ले गए। अपना मेजर था न, अरे वही, टेढ़े मुंह वाला मद्रासी रविन्द्रन, जो हरदम कहा करता था, ‘मरवायेगा साले मादरचो।’ तुम्हें मालूम है न, खुद पीछे सुरक्षित स्थान पर खड़े रह कर अपने से आगे वालों को गाली देता, दांत किटकिटाता रहता था।इसलिए जवानों ने उस का यही नाम रख दिया था। वह मैडल ले गया था। और वो गंदी आदत वाला सूबेदार मेजर दारेकर, जिसने एक भी अच्छे जवान को नहीं बख्शा होगा, जो तेल की चोरी कर, बेचते हुए पकड़ा गया था, वह भी बहादुरी वाला मैडल लटकाकर, ऑनरेरी कैप्टन की पैंशन पा गया। किस-किसके चिट्ठे खोले। जवान ठीक ही कहते हैं, लड़ते सैनिक नाम जरनैल का होता है। तेरे-मेरे जैसे जवान लाशें बन कर इन अफ़सरों के स्टारों में तबदील हो जाते हैं।’’ ज़रा सांस ले कर उस ने बात खत्म की।

‘‘मैं पाकिस्तानी जेल में रह कर आया हूं, देखा मैंने, उन्होंनें ने ज़हर भर दिया हैं वहां के लोगों में। हज़ारों सालों तक हमसे लड़ने-मरने की बातें करते हैं। मुझे तो लगता है, हिटलर की आत्मा घुस गई हैं, वहां के सियासतदानों और जरनैलों में।’’ फिर अपनी बात को सुधारते हुए कहता, ‘‘पाकिस्तान में ही क्यों, यहां भी खूब घूमते हैं हिटलर। हिटलर की भटकती आत्मा शांति पाने के लिए भारतीयों के भीतर प्रवेश कर गई है।’’

नायब सिंह की यह पुरानी आदत है, वो बातों की लड़ी टूटने नहीं देता। फौज में भी इसका यही हाल था और अब भी। अपनी दौड़ की तरह नॉन स्टॉप बोलता है। कोई भी बात हो, उसे अगले के मुंह पर कह देता, इसी कारण हर पांचवें-सातवें दिन इसे सज़ा भुगतनी पड़ती थी। मन करता, उससे कहूं, ‘‘नैब सिंह ! तू ऐसे ही पानी में आग लगाने की बातें किया करता था।यह कलाकारी तो मेरे भाई, हमारे नेताओं में हैं। हम-तुम तो तेल में भी आग नहीं लगा सकते। वे इसी कलाकारी के दम पर सारी दुनिया को आग की भट्ठी में झोंकते रहते हैं। गांव-गांव में उन्होंने ऐसे कारनामें कर दिखाये हैं, चिड़िया के पांव जितने गांव में भी दो-दो पंचायतें बना दी हैं।

याद है, वो अपना नायक हुआ करता था, मलकीत सिंह अलादीनपुरी, जिसे हम सभी अलौकिक बातें करने के कारण ‘मीतू मैंटल’ कहा करते थे। वो कहा करता था, इन लीडरों को वहां पटक कर मारना चाहिये, जहां पानी भी ना मिले। भरोसा नहीं इनका, कहीं पानी पी कर फिर से उठ खड़े हों। चलो, तुम्हें एक मज़ेदार बात सुनाता हूं.....तोपों के बरसते गोलों में एक दिन मीतू मैंटल कहने लगा, ‘‘जगमीत ! ये पाकिस्तानी कारगिल की ऊंची पहाड़ियों से जो गोले बरसा रहे हैं, भला कितनी दूर तक जा सकते हैं ?’’ मैंने हैरानी से उसकी ओर देखकर सोचा, चीन-अमेरिका की बनी तोपों से निकले गोले हमारे सिरों पर गिर रहे हैं और इसे क्या मज़ाक सूझ रहा है ?

‘‘अगर इन तोपों का एकाध गोला हमारी राजधानी में जा गिरे और हमारी बोफर्स तोप का गोला इस्लामाबाद में जा गिरे, कितना मज़ा आ जाये ? बेशक एक बार फिर से जंग छिड़ जाये, मगर दोनों ओर की जनता सुखी हो जायेगी।’’ इतना कह कर मीता ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा था कि तभी कारगिल की बफीर्ली पहाड़ियों से आग बरसाती गोली ने उसके मज़बूत शरीर को ठंडा कर दिया था। उसके मुंह से तो ‘हाय’ भी नहीं निकला था।

‘‘भाई मलकीत सिंह, यार। ये तोप के गोले और बंदूक की गोलियां राजधानियों के लिए नहीं, तेरे -मेरे जैसे सरहदों पर लड़ने वाले फौजियों के लिए बनी हैं। राजधानियों के पास तो इन तोप-बंदूकों का रिमोर्ट कंट्रोल है।’’ मैंने मीतू को नहीं, उस की लाश को बांहों में लेकर कहा था।

अपना बटालियन हौलदार मेजर क्या नाम था उस का, वही राजस्थानी, जो हरेक को ‘अरे, भूतनी के’ कह कर पुकारता था। हां, याद आया नवाब सिंह, बहुत सच्ची बातें करता था। कई बार कहता था, ‘‘जवान, सभी फौजी लोग तो साधन हैं। साधन की अपनी कोई मर्ज़ी नहीं होती। ये तो उसका उपयोग करने वाले की इच्छा पर निर्भर करता है कि उसे कहां और कैसे यूज़ करना है।’’ हौलदार मेजर तो उसे बहुत बार ‘‘ओए भूतनी के ‘टूल’ कह कर ही पूकारता था। सच ही कहता था वो। हम भी जब पाकिस्तानियों पर गोली चलाते हैं तो कभी सोचते हैं कि उनके साथ हमारी क्या दुश्मनी हैं ? वे भी हमारी तरह ये नहीं सोचते होंगे, तभी तो ताड़-ताड़ गोलियां चलाते हैं। फिर साधन हीं हुए ना हम लोग.....और साधन किसे कहा जाता हैं ? यदि सारे सैनिक, सारे फौजी ये सब सोचने लगे तो मेरा ख्याल है कि दुनिया में एक भी जंग नहीं होगी। लेकिन भाई, हम जैसे साधनों का रिमोर्ट कंट्रोल तो जंग के मैदान से हज़ारों मील दूर सुरक्षित बैठे मदारियों के पास होता हैं। वहीं नचाते हैं हमें डुगडुगी बजाकर ।’’

सच ही कहता था मीता मैंटल, ‘‘ ये कश्मीर तो छुनछुना ही हैं हमारे लिए। दोनों देशों के हाकिम इस छुनछुने के नाम तले आवाम को मरवाते रहते हैं। क्या है कशमीर ? कौन चाहता है कशमीर को ?

‘‘भैया , जब से यह सृष्टि सजी है, ज़र, ज़ोरू और ज़मीन के पीछे लड़ाई होती आयी हैं। ये कशमीर की लड़ाई भी तो ज़मीन की लड़ाई है, जो दोनों मुल्कों के गले की हड्डी बन गया हैं।’’ नायब का अपना तर्क था।

‘‘भाईजान ! सुना ज़ोरू का भी रोल था मुल्क के बंटवारे में । अपने वाला नेहरू चाचा तो लेडी माऊंटबैटन से कुछ अधिक ही मोह करने लगा था। मगर हम ठहरे फौजी, हम इतिहास-भूगोल की भाषा क्या जानें। हम सिर्फ़ बारुद की भाषा जानते हैं। हमें यही भाषा सिखाई जाती हैं। हम तो बस मरना-मारना ही जानते हैं। हमारी बंदूकें मौत ही बांटती हैं। ये लहु पीती और मांस खाती हैं।’’

‘‘यार, मैं तो सोचता हूं, ये पाकिस्तानी कशमीर ले कर करेंगे क्या ? बस आग का गोला जेब में डालने वाली बात हैं।’’ एक दिन मैंने मीते को स्वाभाविकता से कहा।

‘‘यही तो मैं कहता हूं, इन भडुओं से पहले वाले तो संभालते नहीं, क्या बलोच, क्या सिंध, क्या पख्तूनिस्तान सभी अलग-अलग होना चाहते हैं। अब यह कशमीर का नया राग अलापने लगे हैं। कशमीर ना हुआ, रसगुल्ला हो गया।’’ मीते की बात सुन कर सभी हंसने लगे।

‘‘भाई नायब सिंह ! तुम्हें याद होगा हौलदार ओम प्रकाश कुश्वाहा, कानपुर के पास का था, जिसके सिर पर हर समय देशभक्ति चढ़ कर बोलती थी।वो हर समय सीने पर मैडल सजाने के सपने देखता रहता था। जंग के मैदान में जब हमारे सिर से गोलियां सर्र-सर्र कर निकलती तो उसे सिर्फ़ मैडल ही सूझते थे। जीने की चाह उस में जैसे थी ही नहीं। बार-बार कहता था, ‘‘हम तो शहीद होकर अपने गांव का नाम रोशन करेंगे।हम शहीद होंगे तो हमारे घरवाले समाज में गर्व से सिर ऊंचा करके जियेंगे। नायब सिंह! चैबीस घंटे शहीद होने की बातें करने वाले कुश्वाहा के सीने में दायीं ओर गोली लगी तो खून का फौहारा ही छूट पड़ा। पल-क्षण में उसका रंग पीला पड़ गया। अपने सभी घरवालों को वह याद करने लगा। उस समय देखा कि चैबीस घंटे मरने-मारने और शहीद हो जाने वाले सिपाही की आंखों में जीने की कितनी लालसा थी, कितना चाव था। यह मैंने बहुत नज़दीक से देखा, ‘‘ म्हारे छोटे-छोटे बच्चे हैं, माई बाप भी। बीवी....बहन...भाई। हम मरना नहीं चाहते। हमें बचा लो जगमीत। हम मरना नहीं चाहते...।’’ कहते हुए मेरी बांहों में ही दम तोड़ दिया था उसने। सच बात तो यह है कि मरना कोई नहीं चाहता जंग में मेरे भाई। शायद दुनिया का कोई भी सैनिक मरना नहीं चाहता। तुम्हें सच बताऊं, मेरे अंदर भी बहुत चाव था, ज़िन्दगी जीने का। अपनी जवानी को जोश से जीने का। अपने बंगाली सूबेदार अर्पण मुखर्जी की भांति, ‘ जवान! देश के लिए मरने से ज्यादा, देश के लिए जीना अधिक ज़रूरी है।’ कितना ठीक कहता था सूबेदार। बंगालियों का दिमाग़ भी ज्यादा होता हैं। हम पंजाबी तो शहीदी प्राप्त कर के चले गये अगले जहान और पीछे रह गये देश को नोंच-नोंच कर खाने वाले। क्या हासिल हुआ ? अब हमारे बड़े भाई शमशेर सिंह शेरे को ही देख लो, इलाके के एम.एल.ए. के साथ सांठ-गांठ करके पोस्त का अड्डा चला रहा है। ऊपर तक सारी सैटिंग हैं। पुलिस के छोटे से लेकर बड़े अफ़सरों तक उसकी पहुंच हैं। शमशेर सिंह का ब्लैक का पैसा ज़िले के आधे से अधिक पुलिस अधिकारियों के बच्चों की स्कूल और कालेज की फीस भरता हैं। अब तो बात पोस्त से भी आगे बढ़ गई है। पता नहीं और कितने नशे आते हैं सीमा पार से । इन नशों को अपने मुल्क के जवानों की रगों में उतार कर अपने बैंक खाते भरते जा रहे हैं, शमशेर जैसे। देख लो नायब सिंह ! जो सरहद, उस की रक्षा करने वालों को गोली और बंब देती हैं, वहीं सरहद शमशेर जैसे ब्लैकिए और सरकारी अफ़सरों को कड़क नोट देती हैं। कभी तू कहा करता था कि, मनुष्य योनि 84 लाख योनियों के पश्चात् मिलती हैं। इस के जवाब में मीता मैंटल कितना सच कहता था, ‘‘ मुझे लगता है कि लीडर लोग बार-बार आदमी की योनि में वापस आ रहें हैं।’’

बहुत उदास हूं आज। कितना बेबस भी हूं मैं। कुछ नहीं कर पाया। दिलजीत कितने वर्षो के बाद आज मुझ से मिलने आयी थी। कितने साल हो गये उसे घर से निकाल दिया गया था। आज वर्षों बाद अपनी बच्ची को ले कर आयी थी। अपने जगमीत के गले में फूलमाला डालने के लिए। अपने जगमीत के कंधे से लग, सुबकते हुए रोने के लिए। मैंने उसे दूर से ही आते देख लिया था। मैं भी दिलजीत को सीने से लगा कर फूट-फूट कर रोना चाहता था। जब तक दिलजीत मेरी बच्ची संग मेरे पास पहुंचती, तब तक कारों का काफिला धूल उड़ाता मेरे आस-पास आ जुड़ा। शमशेर चेयरमैन और उसके चम्चों ने मंत्री को फूलों से लाद दिया था। जैसे ही दिलजीत मेरी ओर बढ़ी, शमशेर के आदमियों ने धक्के मार कर उसे पीछे धकेल दिया था। मुझे तो लगता है कि जैसे सारे गांव की ग़ैरत को शमशेर जैसों ने गूगल की धुएँ में मिला दिया हो। कोई भी आगे नहीं आया था, उन्हें रोकने के लिए। बस दो-चार लोगों ने धीरे से कहा, ‘‘ऐसे नहीं करना चाहिए....नहीं, नहीं।’’ उनकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि किसी अन्य को सुनाई भी नहीं दी थी। दिलजीत बार-बार आगे आने का यत्न करती रही थी।

‘‘हां बहन, कहो क्या बात है ? कोई अर्ज़ी देनी है क्या मंत्री साहब को ? लाओ, मुझे दे दो, मैं आगे भेज देता हूं।’’ सुरक्षा पर बैठे थानेदार ने दिलजीत से कहा था।

‘‘मैं जगमीत की जीवन-साथी हूं। असली शहीद मैं हूं, मैं....। ये तुम्हारा ब्लैकिया चेयरमैन, अपने साथी के गले में फूलमाला भी नहीं डालने देता हम मां-बेटी को।’’ दिलजीत की ललकार दूर तक सुनायी देने लगी थी।

‘‘चेयरमैन साहब! कौन है यह औरत ?’’ थानेदार के सवाल के जवाब में चेयरमैन शमशेरे ने लापरवाही से कहा, ‘‘ कोई पागल औरत है, जो खुद को शहीद जगमीत की बीवी कह रही है। आप तो जानते ही हो जनाब कि जगमीत अभी कुवांरा था। पता नहीं यह कहां से आ धमकी....।’’ कहते हुए शमशेरा एकदम मंत्री के पास जा खड़ा हुआ था।

‘‘झूठ बोलता है यह...। एक नंबर का गप्पी है। ठग है ठग। भाई की हड्डियों को भी बेच खाया इसने। मक्कार कहीं का। दुनिया जानती है इसकी करतूतों को। खा गया यह मेरे शहीद जगमीत की हड्डियां भी....अरे लोगों....।’’ दिलजीत दुर्गा बनी खड़ी थी।

‘‘बीबी ! तुम औरत हो, इसका यह मतलब नहीं कि जो मुंह में आये बक दो। सरदार शमशेर सिंह चेयरमैन एक जाने-माने इज्ज़तदार व्यक्ति है। ऐसे ही किसी शरीफ़ आदमी को बदनाम नहीं करना चाहिये।’’

‘‘हूं.....शरीफ़ ? तुम सभी शरीफ़ ही हो। ये तुम्हारा टेढ़े मुंह वाला मंत्री भी शरीफ़ ही है। बदमाश तो वे हैं जो सरहदों पर मर गये, तुम जैसे ‘शरीफ़ो’ की खातिर ।’’

‘‘छोडिए इंस्पैक्टर साहब! क्यों मुंह लगते हैं ऐसी औरत को। खड़े रहने दो इसे....खुद ही चली जायेगी थक-हारकर।’’ मालूम नहीं भीड़ में से किस ने कहा। शायद शमशेर सिंह के यूथ विंग का कोई हिमायती था। दिलजीत बेचारी की चीख-पुकार किसी ने नहीं सुनी थी। कराहती बच्ची को साथ लिये वह दूर खड़ी रही थी। उसके हाथ में उठाई फूलों की माला मुरझा गयी थी। अंदर ही अंदर मैं दहाड़े मार कर रो रहा था। जी चाहा था, अपनी बच्ची को उठा कर कंधे पर बिठा लूं , लेकिन मैं क्या कर सकता था ? माला डालने के लिए जैसे ही मंत्री ने मुझे छुआ तो लगा कि मेरे शरीर पर धब्बे पड गये हों । पत्रकारों के कैमरों की टिकटिक से मेरे कलेजे पर छुरियां चलने लगी। फिर मंत्री साहब ने देशभक्ति के बासे और घिसे-पिट्टे भाषण का सिक्का ढ़ाल कर मेरे कानों में उडे़ल दिया। चेले-चम्मचों ने खुब तालियां बजाई। टी.वी. चैनलों का मुंह अपने ओर देख कर एक-दो ने ‘शहीद जगमीत सिंह अमर रहे’ के नारे भी लगा दिये। फिर मंत्री ने कितनी देर तक अपने इज्ज़तदार चेयरमैन शमशेर सिंह की लियाकत, शराफत, मेहनत और समाज के प्रति मूल्यवान योगदान का गुणगान किया। मंत्री ने जिन नौजवानों को जिम का सामान बांटा था, उन्हें मंत्री का ये वफादार जरनैल शमशेरा नशे के रूप में ज़हर बांटता रहा था। अपने चम्मचों को खाने-पीने के लिये ग्रांट की रकम बांटती मंत्री की कार ये गई-वो गई। उड़ती धूल ने गांववालों के मुर्दा चेहरों को और भी धुंधला कर दिया था।

आज मीता मैंटल की बातें बहुत याद आ रही हैं। वह कहा करता था, ‘‘अपना काम सरहदों व घुसपैठियों को मार देने के साथ ही खत्म नहीं हो जाता। हमें देश के भीतरी घुसपैठियों पर भी नज़र रखनी चाहिये।’’ वह कभी मस्ती में आकर कहा करता था, ‘‘अगर हम जैसे फौजियों ने देश के पांच-सात भीतरी घुसपैठियों को लुढ़का दिया, तो सरहदों पर भी घुसपैठ एकदम ही खत्म हो जायेगी।’’

कितना सही कहता था, अपना नायक मलकीत सिंह उर्फ़ मीता मैंटल। काश ! मीता की कही बात ही सच हो जाये। अब तो ज़रूरत हैं शमशेर जैसे घुसपैठियों को ठिकाने लगाने की।

मुझे याद आया कि एक बार नायब इंटर बटालियन खेल प्रतियोगिता जीत कर आया था। उस दिन सारी यूनिट ने नायब की जीत की खुशी में जश्न मनाया था। ‘‘लो भई दोस्तों ! तुम्हारी बटालियन के लिये यह जंग जीत ली है।’’ नायब ने मैडल हवा में लहराया। रम का डेढ़ पैॅग अंदर जाते ही मीता अपनी फिलासफी झाड़ने लगा। उसने भोला सा मुंह बना कर कहा, ‘‘ नैब सिंह! जंग कभी खत्म नहीं होती। जंग तो आरंभ ही समाप्ति पर होती है। साथ ही अकेले खेलों के मोर्चे को जीतना ही रास नहीं आयेगा, ना ही लड़ाई सिर्फ़ जंग के मैदान पर ही लड़ी जाती हैं। जंग तो सैनिकों को कदम-कदम पर लड़नी पड़ेगी। देश को जो जोंक चिपटी हैं, इन सभी के खिलाफ़ भी लड़ना होगा। ये खून चूसने वाली जोंक सैनिकों के अलावा और किसी के काबू नहीं आयेगी।’’ मीते की भोलेपन से कही गई बात की ओर तब मैंने अधिक ध्यान नहीं दिया था। उसकी बात के अर्थ अब मुझे समझ में आने लगे थे। अब जब नायब यहां आयेगा, उससे कोई भी ढ़ीली-ढ़ाली बात नहीं करूंगा। वह अक्सर सामने वाले पीपल के पेड़ के साथ साइकिल खड़ी कर, लकड़ी की टांग के साथ ठक-ठक करते हुए मेरे पास आता है। मैं उसे मीते की बातें याद दिलाऊंगा। अब उसे रोने नहीं दूंगा। फौजी आदमी वैसे भी बात-बात पर रोता हुआ अच्छा नहीं लगता। मैं उसे प्यार से बांहों में लेकर कहूंगा, ‘‘ नैब सिंह ! मैंने खुदकुशी करने का अपना इरादा एकदम छोड़ दिया है। तुम भी तगड़े हो जाओ। बात-बात पर आंखें मत भरा करो। तुम्हारी यह लकड़ी की टांग की ‘ठक-ठक’ चोर-उच्चकों के सीने में उतरनी चाहिये। असली लड़ाई तो अब लड़नी होगी। यह एकदम नयें ढ़ग की लड़ाई होगी। यह जंग किसी बाहरी दुश्मन के खिलाफ़ सरहद पर नहीं, देश के भीतरी घुसपैठियों के खिलाफ़ लड़नी होगी। यह और भी कठिन है, क्योंकि भीतरी घुसपैठियों की पहचान करना बहुत मुश्किल काम है।’’

मैं जानता हूं नायब सिंह , यह सब सुन कर पहले तो उदास हो जायेगा, फिर धीरे-धीरे मुस्कान वक्त कारण धुंधलाए चेहरे पर उभरते हुए उस की अधपक्की दाढ़ी में उतर जायेगी। वह सीने पर हाथ मारते हुए बहुत गर्व और विश्वास के साथ कहेगा, ‘‘ तुम फ़िक्र मत करो ? मैं बजाऊंगा सालों की ईंट से ईंट. ।.....मैं भैन चो.... नायब सिंह वल्द शेर सिंह वल्द रूड़ा सिंह। सैपर नंबर वन फोर डबल नाईन सैवन ऐट नाईंन, बटालियन नंबर टू सिक्स नाईंन, एकदम फाईन। मैं भैनचो.... नायब सिंह....मैं तो पानी में आग लगा दूं....। तुम देखना, सभी भाग जायेंगे कमीने दल्ले...। मैं.......’’

नायब सिंह की नॉन स्टॉप चलती गाड़ी को रोकना पड़ेगा, ‘‘वेल्डन जवान. ...वेल्डन। बॅट.....?’’
‘‘वट बॅट...?’’ नायब सिंह आंखों की गहराई में झांकेगा, जैसे वह अक्सर करता है।
‘‘यह लड़ाई अकेले नहीं लड़ी जा सकती। लोगों में से मीता मैंटल जैसों को तलाश्ना होगा।’’

‘‘तुम फ़िक्र मत करो.....? अब के लड़ाई आर-पार की होगी......।’’ मुझे पक्का यकीन है, नायब ऐसे ही कहेगा। मेरे ख्याल से नायब को ऐसे ही कहना चाहिये।

(अनुवाद : जसविन्दर कौर बिन्द्रा)

  • गुरमीत कड़ियालवी : पंजाबी कहानियाँ हिन्दी में
  • पंजाबी कहानियां और लोक कथाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : भारत के विभिन्न प्रदेशों, भाषाओं और विदेशी लोक कथाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां