जाफर खाँ (कश्मीरी कहानी) : बंसी निर्दोष
Jafar Khan (Kashmiri Story) : Bansi Nirdosh
यह बात उन दिनों की है, जब मेरे वतन कश्मीर की छाती को सरहद के उस पार से आए कबाइली रौंद रहे थे। मुजफ्फराबाद से शालटेंग तक ईंट-से-ईंट बजाई गई थी। शालटेंग श्रीनगर से केवल पाँच मील की दूरी पर है। हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई, जो भी सामने आया, उसे इन दरिंदों ने कुचल दिया। औरतों की इज्जत लूटी और उन्हें सड़कों पर नंगा नचवाया। मकान जलाए, दुकानें लूटीं। बेगुनाह और निर्दोष लोगों को बेघर कर दिया। किसी को भी न छोड़ा। न बच्चों पर दया की और न बड़े-बूढ़ों का ही लिहाज किया। लोगों को बेतहाशा गोलियों से भून दिया गया। दरिंदों ने घर उजाड़ दिए। जीवन भर की कमाई लूट ले गए। सोने के लोभ में हुक्कों के चमकीले पीतलवाले भाग को ले गए। ‘समावारों’ के चमकीले हिस्से भी तोड़कर ले गए। एक अंधेर सा मच गया। अनगिनत लोग मारे गए। बहन भाई से बिछुड़ गई, बेटी माँ से छिन गई। जान बचाने के कई उपाय किए गए। सिख अपने केश काटने पर और ब्राह्मण अपने जनेऊ निकाल फेंकने पर मजबूर हुए। लेकिन जालिमों ने किसी को नहीं छोड़ा। कितनी ही औरतें वितस्ता में और कुओं में समा गईं। पिताओं ने अपनी लड़कियों और बहुओं को अपमान से बचाने के लिए अपने ही हाथों जहर खिला दिया।
यह उन्हीं दिनों की बात है, जब खनाबल से लेकर खादनयार तक कहीं चूल्हे न जले थे। साँस लेना तक रुक गया था। दिन में भी रात जैसा अँधेरा छा गया था। सड़कें सुनसान और वीरान थीं। परंतु बारामूला तहसील के आँगन में जैसे कोई मेला लगा हो। लूट का सारा माल कबाइलियों ने इसी जगह इकट्ठा कर किया था। बारामूला में उनका यह सातवाँ दिन था। आज सवेरे से ही जश्न शुरू हुआ था। लकड़ी के बड़े-बड़े डालों और लट्ठों की आग से आँगन तमतमा रहा था। इसी के इर्द-गिर्द कबाइली दरिंदे खुशियाँ मना रहे थे। बीस-पच्चीस भेड़ें लटकाई गई थीं। कभी-कभी कोई कबाइली उठकर इस आग के इर्द-गिर्द नाचता। लटकाई हुई भेड़ का एक हिस्सा काटता और पूरी ताकत से जबड़े मारकर चबाने लगता। बिना नमक-मिर्च के ही दो-चार जबड़े मारकर वह मांस को निगल जाता।
हर एक कबाइली ने अपने पास एक-एक औरत भी रखी थी। बीच-बीच में कोई औरत लंबी साँस खींचने के लिए सिर उठाती और फिर घुटनों में डाल देती। सारी औरतें घुटनों में मुँह छुपाकर अपने भाग्य को रो रही थीं। रोते-रोते कितनी औरतों की आँखें सूज गई थीं। कई अब भी द्रौपदी की तरह आशा लगाए बैठी थीं कि कोई कृष्ण आकर उनको बचा लेगा। जोश में आकर कभी कोई कबाइली खड़ा होता और ‘भले-भले’ कर कुछ गाता। अपने कब्जे में रखी औरत की बाँहें खींचता और उसके साथ बेदर्दी से लिपट जाता। सरिए वाली खिड़कियों से अंदर बंद किए गए मर्द इस अंधेर को देखकर बेतहाशा चीख उठते। तहसील के पास ही पुलिस का थाना था। इसी में मर्दों को रस्सियों से बाँधा गया था। उनकी माताएँ, बहनें, बेटियाँ और बीवियाँ कबाइलियों के कब्जे में इस आग के इर्द-गिर्द जमा की गई थीं। उनकी आँखों के सामने कबाइली इन पर अत्याचार ढा रहे थे।
इन्हीं कबाइलियों में से एक का नाम था—जाफर खाँ। वह कोहाट का रहनेवाला था। घर में उसकी गुलजार के अतिरिक्त उसकी माँ और एक छोटा भाई रहता था। जाफर खाँ से सब डरते थे, इसलिए यहाँ की सारी व्यवस्था उसके जिम्मे थी। उसी ने भेड़ें मँगवाई थीं। उसी ने यह आग जलवाने के लिए इनमें से कुछ मर्दों के द्वारा यह बड़े-बड़े लट्ठे यहाँ पहुँचवाए थे। अभी सूर्य अस्त नहीं हुआ था, मगर आग का धुआँ चारों ओर छा गया था, इसलिए लगता था कि रात होने को है। जाफर खाँ ने मांस का एक लोथड़ा काटा और बगल में दबाया। इधर-उधर नजर दौड़ाई। एक कोने में दो-चार बूढ़ी औरतें रो रही थीं। अपने चेहरे नोच-नोचकर उन्होंने अपने आपको बेहाल कर दिया था। किसी का भी चेहरा पहचाना नहीं जाता था। जाफर खाँ उनकी ओर चला, पर बीच में ही राह बदल दी। राइफल बाएँ कंधे पर लटकाई और लंबे-लंबे डग भरता तहसील से बाहर निकल गया।
चलते-चलते वह पुल पर पहुँचा। पुल के इधरवाली दुकानें अधिकतर पंजाबियों की थीं। कुछ हिंदुओं और मुसलमानों की भी थीं। इस वक्त ये सब खाली थीं। न इनमें कोई सौदा था और न ही सौदा बेचनेवाला कोई दुकानदार। कुछ दुकानें जली हुई थीं और कुछ के तख्ते तक तोड़े गए थे। पुल के उधरवाले बहुत से मकान अब भी जल रहे थे। कुछ मकानों के तो तले तक दिखने लगे थे और कुछ मकानों की बुझी हुई आग अब भी धुआँ दे रही थी। एक कोने में दो-चार मकान अभी जले नहीं थे।
पुल पर पहुँचकर जाफर खाँ ने उन्हीं मकानों की ओर देखा। मांस का लोथड़ा निकाला। उस पर दो-चार जबड़े मारे और बाकी वितस्ता में फेंक दिया। कमर की लुंगी खोली। इसमें बँधी एक पोटली को फिर से कसकर बाँधा। इस पोटली में जाफर खाँ ने लूट के माल का अपना हिस्सा रखा था। वह इसकी बहुत निगरानी करता था। कभी लेट जाता तो भी उसके प्राण इसी पोटली में होते। एक हाथ पोटली पर रखता और दूसरा सिरहाने पर। कई कबाइलियों से उसने झगड़ा भी किया, पर उसने यह पोटली किसी को खोलने न दी थी। कबाइलियों का विचार था कि इसमें कोई खास मूल्यवान चीज है, जो जाफर खाँ दिखाना नहीं चाहता। वह आगे बढ़ा। उसकी नजर सर्वानंद के मकान पर थी।
सर्वानंद बारामूला के एक पंजाबी दुकानदार का मुंशी था। कबाइलियों के आने की खबर सुनते ही वह दुकानदार अपना परिवार लेकर एक रात वहाँ से भाग गया था। तब तक कबाइली बारामूला में नहीं घुसे थे। सर्वानंद लगातार दो-चार दिन तक दुकान पर जाता रहा, दिनभर दुकान के चबूतरे पर बैठता और रात के समय घर आ जाता। कबाइली आ गए और सबकुछ राख हो गया। पिछले सात दिन तक सर्वानंद बाल-बाल बचा था। जब भी कबाइली उसके घर में घुसे, वे खाली हाथ निकले। उसके घर में घास की चटाई और फटी दरियों के सिवा कुछ भी न था। एक संदूक में फटे-पुराने कपड़े थे। वे किसी को न भाए थे। जल-भुनकर कबाइलियों ने काँसे की थाली, कहवा पीनेवाली काँसे की प्यालियाँ (खोस), हाँड़िया और मटकी लातें मार-मारकर तोड़ दिए थे। रसोई में दो पतीलियाँ औंधे मुँह पड़ी थीं। पिछले सात दिनों से इनमें कुछ भी न पका था और न ही किसी कबाइली ने इन्हें उठाया था। सर्वानंद अपनी बीबी तुलसी देवी को लेकर ‘वोग’ (ऊपर की मंजिल पर बनी कोठरी) में छुपा रहता और वहीं से सबकुछ देखा करता था। वह परमात्मा का लाख-लाख शुक्र कर रहा था कि अब तक उन दोनों की जानें बची हुई हैं।
जाफर खाँ के पुल पर पहुँचते ही सर्वानंद के होशो-हवास उड़ गए। इस समय वह मकान की ऊपरी मंजिल के बरामदे में तुलसी से बातें कर रहा था। तुलसी और सर्वानंद बीते दिनों को याद कर रहे थे। ऊपरवाली मंजिल का कमरा लंबी-चौड़ी बैठक-सा होता है, लगभग पूरे मकान की लंबाई-चौड़ाईवाला। इस बैठक को ‘कानी’ कहते हैं। छत के दोनों पाट मकान के बीच में मिलते हैं, जहाँ से वह हिस्सा ऊँचा उठा हुआ होता है। इसके बीच में छोटा सा दरवाजा लगाकर छत से ऊपर एक कोठरी-सी बनाई जाती है (जहाँ से छत को निकलने का रास्ता बनता है)। इसी को ‘वोग’ कहते हैं। छह दिन बाद आज दोनों ने किसी मुसलमान नानबाई का रूखा-सूखा कुलचा खाया था। तभी थोड़ी जान-में-जान आई थी।
सर्वानंद ने जब कबाइली को पुल पार करते देखा, उसका गला सूख गया। उसने तुलसी को इशारे से बुलाया। तुलसी का सारा शरीर ठंडा हो गया। उसका चेहरा पीला पड़ गया। सर्वानंद फिर ‘वोग’ पर चढ़ा। उसकी टाँगों में जान ही न थी। तुलसी ठिठुरने लगी, उसके दाँत किटकिटाने लगे। सर्वानंद खड़ा न हो सका। उसने जैसे-तैसे पत्नी को चटाई में लपेटा और खुद दरी सिरहाने रखी। अपना सारा मुँह ‘फिरन’ (चोले) के गिरेबान में छुपाया और इष्टदेवी ज्वाला भगवती को स्मरण करने लगा।
इतने में जाफर खाँ आँगन में घुस आया। जैसे-जैसे वह एक-एक सीढ़ी चढ़ता गया, ‘कानी’ पर बैठे सर्वानंद और तुलसी का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। ‘भले-भले’ करता हुआ जाफर खाँ ‘कानी’ पर आ पहुँचा। ‘फिरन’ के गिरेबान से सर्वानंद का माथा दिख रहा था। जाफर खाँ ने सर्वानंद को कसकर लात मारी। जूती की मेख सीधी उसके माथे में लगी। खून का फव्वारा निकला। इतने पर भी सर्वानंद के मुँह से आह तक न निकली। जाफर खाँ ने उसे पैरों से लुढ़काया और अपनी भाषा में सवाल पूछने लगा, “जन कहाँ रखी?” कबाइली ने फिर खींचकर लात दे मारी।
सर्वानंद ने हाथ जोड़कर कहा, “खाँ, जन नहीं है।” काफी प्रयत्न के बाद सर्वानंद दीन स्वर में इतना ही बोल पाया।
जाफर खाँ को गुस्सा आया। उसने दोनों हाथों से सर्वानंद को उठाया और पूरी ‘कानी’ में घसीटा। वह जानता था कि ‘जन’ बीचवाली मंजिल के किसी कमरे में छुपाई गई होगी। जाफर खाँ सर्वानंद को सीढ़ियों तक घसीट लाया। वहाँ से उसे इतने जोर का धक्का दिया कि सर्वानंद टोकरी जैसा सीढ़ियों पर लुढ़क गया। नौ सीढ़ियों पर लुढ़ककर वह बीचवाली मंजिल में धड़ाम से गिर गया। आवाज सुनकर तुलसी के मुँह से चीख निकली। जाफर खाँ ने चीख सुनी। उसका कलेजा फूला। ‘जन’, ‘जन’ बोलता हुआ वह कानी के बरामदे में दौड़ता हुआ लौट आया। चटाई हटा ली। जैसे आग की लपट निकली हो। भय से तुलसी की आँखें स्थिर हो गई थीं। उसकी पलकों ने हिलना छोड़ दिया था। जाफर खाँ का मुँह चौड़ा हो गया। राइफल कंधे से उतारी और तुलसी की चाल-ढाल देखने लगा। तुलसी की आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। आँसू ऐसे निकल रहे थे, जैसे घाव से खून निकल रहा हो। जाफर खाँ अपने होंठ चाटने लगा। शरीर से चिनगारियाँ छूटने लगीं। होंठों को गीला किया। किसी का नाम लेकर तुलसी के गीले चेहरे को आततायी ने पाँच-सात बार एक ही साँस में चूमा और कामुकता के साथ आँसुओं का नमक चाटा। तुलसी भय और आतंक से सुन्न हो गई। उससे न तो रोया जाता था और न बोला ही जाता था। आँसुओं की धारा जारी थी, मगर आवाज बंद थी। गले में काँटे से चुभ रहे थे।
जाफर खाँ उत्तेजित हो गया था। उसकी पाशविक शक्ति बढ़ गई थी। उसने तुलसी को उठाकर एक ही झटके से उसका ‘फिरन’ निकाल दिया। तुलसी के शरीर पर ‘फिरन’ के अलावा कुछ भी न था। जाफर खाँ ने ‘फिरन’ को एक तरफ फेंका। तुलसी की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? किसको पुकारूँ? कौन सुनेगा? कुछ भी समझ में न आया। दाएँ-बाएँ कोई था भी नहीं। सूर्य भगवान् ने भी इस समय तुलसी की सहायता नहीं की। उसको लगा, वितस्ता भी सिर पटक रही है। उसके पेट में चक्की-सी चलने लगी। तुलसी के पेट में उसका पहला बच्चा माँ की पीड़ा जान गया। उसने हाथ-पैर पटकने शुरू किए। तुलसी की टाँगों से जान निकल गई थी।
वह गिरने को थी, पर जैसे-तैसे बैठ गई। आँखों के आगे अँधेरा दिखाई दिया। काश, भूकंप आ जाता, यह मकान गिर पड़ता! ऐसी आँधी आती कि नदी किनारों की सारी रेत मेरी आँखों में पड़ जाती! उसका शरीर सिमट गया। सिर घुटनों में था। बहुत प्रयत्न करने के बाद कह पाई—“खाँ, दया कर। मुझ गर्भवती पर रहम कर। मुझे छोड़ दे।”
खाँ कुछ भी न समझ पाया। अपनी ही भाषा में क्रूरता से कुछ बोलता रहा, जैसे मक्का भून रहा हो। तुलसी दीवार के साथ सिकुड़ गई। ‘हाय, यह दीवार फटती क्यों नहीं? यह खंभा गिरता क्यों नहीं? मुझ बेबस-लाचार को कौन बचाएगा?’
कुछ देर तक खाँ तुलसी की पीठ को घूरता रहा, फिर एक ही लम्हे में तुलसी को धराशायी कर दिया। उसका सारा बदन काँप रहा था। शरीर के किसी हिस्से में जान न थी। खाँ ने कमर की लुंगी खोली।
तुलसी ने दोनों हाथों से पेट को पकड़ रखा था। टूटते दम से तुलसी फिर एक बार सँभलकर बोली, “खाँ, मुझे छोड़ दे, पेट में बच्चा है।” यह कहते हुए तुलसी ने अपने पेट को जोर से पकड़ा।
खाँ की नजर तुलसी के पेट पर गई। उसको माँ की बात याद आ गई। घर से जाते समय माँ ने कई बार कहा था, ‘तू इस आवारागर्दी में क्यों जाता है? अगले महीने तू बाप बन चुका होगा।’ इसी तरह गुलजार का पेट भी मटके जितना हो गया था।
जाफर खाँ की टाँगें काँपने लगीं। तुलसी का चेहरा देखकर वह द्रवित हो गया। लुंगी में से वह पोटली निकाली और तुलसी के सामने डाल दी। लुंगी फिर कमर में बाँधी। राइफल कंधे पर टाँगी और पीछे देखे बिना धीरे-धीरे वापस चला गया। तुलसी समझ ही न सकी कि यह क्या हो गया। यह मेरे कौन से पुण्य ने मेरी रक्षा की? यह कौन सा विचार उसको यहाँ से खींचकर ले गया? उसने झटपट अपना फिरन पहन लिया। अपने पति को इधर-उधर ढूँढ़ा। एक ही क्षण में वह बीचवाली मंजिल में जा पहुँची।
सर्वानंद तब तक दीवार पकड़कर खड़ा हो गया था। तुलसी उससे लिपट गई। आँसू रुकने का नाम न ले रहे थे। हिचकियों के कारण बोलना मुश्किल हो गया था। “भगवान् ने मेरी लाज रखी। इष्टदेवी ने मुझे बचाया। पता नहीं कौन सी शक्ति उसको भगाकर ले गई।”
सर्वानंद ने खाँ को बदली हुई हालत में जाते देखा था। वह परेशान था। उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह उदास था, जैसे कोई सगा खो गया हो। सर्वानंद ने तुलसी का सिर अपनी छाती पर रखा, उसकी पीठ थपथपाई, उसके आँसू पोंछे। एक-दूसरे का सहारा लेकर वे दोनों कानी (ऊपर की मंजिल) में पहुँचे।
“भगवान् का लाख-लाख शुक्र है कि हम दोनों जिंदा हैं। ज्वाला भगवती ने हमारी रक्षा की।” सर्वानंद बोला।
तुलसी ने पोटली दिखाई, जो खाँ अपने साथ ले जाना शायद भूल गया था। वे दोनों बरामदे से देखने लगे। जाफर खाँ पुल पर पहुँच गया था। पुल के पार दाएँ हाथ का रास्ता मुजफ्फराबाद को जाता था, बाएँ हाथ को अस्पताल था। इसी के बीच में से एक रास्ता तहसील को जाता था। पुल पार करके जाफर खाँ ने दाएँ हाथ की सड़क पकड़ी। दोनों उसको तब तक देखते रहे, जब तक वह उनकी नजर से ओझल न हुआ।
उन्होंने पोटली खोली। उसमें कानों में लटकनेवाले सोने के दो ‘डेजहोर’, दो बड़ी-बड़ी बालियाँ, एक कंठी, चाँदी का तंत्र, जिस पर ‘या अल्लाह’ खुदा हुआ था, थे। इन चीजों के अलावा छोटे बच्चे के कपड़े, कमीज-पजामी, बंडी, गरम बनियान, लँगोट और जरी की टोपी भी इस पोटली में बँधे थे।
(अनुवाद : डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)