जादुई कलम (कहानी) : आशापूर्ण देवी
Jadui Kalam (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
कृड़्.... ड़्....
कृड़्.... कृड़.... ड़्.... घण्टी... घनघना रही है।
इसने
सबर करना नहीं सीखा....किसी का इन्तजार करना यह नहीं जानती। जल्दी दौड़े
चले आओ....जल्दी से पकड़ो....उठाओ इसे, वर्ना चैन नहीं है....कान में सूराख
कर देती है। एक पाँव में चप्पल....दूसरा पाँव नंगा, धोती का अगला सिर जमीन
में लोट रहा है....तो भी सरोजाक्ष दौड़े चले आये और उन्होंने चलो उठा लिया।
सरोजाक्ष घोषाल....बड़े ही रसिक वृत्ति के साहित्यकार।
जी
हां....साहित्य-रसिक नहीं....रसिक साहित्यकार। यह कहना गलत होगा कि वे
साहित्य रसिक नहीं हैं लेकिन उनकी प्रसिद्धि उनके रसिक साहित्यिक रूप को
लेकर ही है। हास्य व्यंग्य के सम्राट् हैं। पत्र-पत्रिकाओं में लेखकों के
बीच उनके नाम को देखकर सहज ही समझा जा सकता है कि ऐसी रचनाएँ निःसन्देह
हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण होंगी। बड़ी मजेदार और कौतुकपूर्ण।
सरोजाक्ष
घोषाल की बात चली नहीं कि छोटे-बड़े सभी लहालोट....। दूसरी तरफ सम्पादक भी
उन्हें परेशान और व्यस्त क्यों न बनाये रखें भला? और सरोजाक्ष बाबू की
कमजोरी यह है कि वह सम्पादकों का अनुरोध कभी नहीं टालते। उनके मित्रगण
उनसे बराबर कहा करते थे कि ये सारी कहानियाँ अब अपने पास ही रखो भाई....वह
कोई हास्य कहानी थी....इसे कौन पढ़कर दुखी हो? अरे भाई तुम्हारी तो पौ बारह
है, गुड बॉय....खिल-खिल हँसे....मोती झरे। एक बूँद हँसी और मुट्ठी भर
रुपया....वाह....भई....वाह....।
बाप रे....।
सरोजाक्ष
बाबू के लिए, यह सब सुनने के बाद कुछ कहने को नहीं रह जाता। और अब तो
हँसने-हँसाने की इच्छा नहीं होती। इस जीवन में कोई गम्भीर रचना दे न पाया।
यह बात उन्होंने किसी
सम्पादक को कही थी शायद। उन्होंने उनसे एक गम्भीर कहानी छाप देने की इच्छा
व्यक्त की थी।
और यह सुनना था कि भले
आदमी ठठाकर हँस पड़े, 'नहीं चाहेंगे....इसे कोई भी पढ़ना नहीं
चाहेगा...पाठक मुझे पकड़कर पीटेंगे।''
इसके बाद भला वह कैसे
कहते...कि, ''आप क्या मेरी ही वजह से मार खाते हैं...।'' ऐसा कहा जा सकता
है भला?
नहीं कहा जा सकता।
इसीलिए
सरोजाक्ष बाबू की वह मोटी-सी पाण्डुलिपि जो न तो हँसी वाली थी और न रुलाई
भरी, थी तो सिर्फ एकान्त निराशा और आनन्द से स्पन्दित और मुखर...वह कभी
लोग-बाग की नजर में नहीं पड़ा। हालाँकि सविता ने कहा भी था एक दिन, ''कलम
हाथ में लेकर यह आटमी हमेशा विदूषक की ही भूमिका निबाहता रहा। कभी हमारी
कहानी क्यों नहीं लिखता!''
सरोजाक्ष ने कहा था,
''दुर पगली...। हम लोगों की चार आदमियों से जान-पहचान है...और तुम्हारे भी
बाल-बच्चे हैं।''...
''रहा
करें...इससे क्या आता-जाता है। तुम उनका कोई सही नाम और अन्ता-पता तो नहीं
लिखते? नाम-धाम बदलकर अपने मन के मुताबिक लिख सकते हो तुम। हमारे-तुम्हारे
सिवा दूसरे लोग क्या खाक समझेगे...?''
''तो इससे क्या फायदा?''
इसे सुनकर सविता ने मीठी
मुस्कान भरी थी।
सविता
चालीस पार कर गयी थी लेकिन उसकी मुस्कान की रगिमा अभी खो नहीं गयी। उसने
उसी तरह ताजी और मीठी मुस्कान के साथ कहा था, ''फायदा क्यों नहीं?
तुम्हारे दिल में उस समय कैसी-कैसी भाव-तरंगें मचला करती थीं, तुमने कभी
बताया भी था मुझे? तुम्हारी कहानियों के नायकों के मनोवैज्ञानिक निश्लेपण
के द्वारा ही उसका अन्दाजा लगे शायद। हालाँकि उनमें तुम इधर का भी बहुत
कुछ जोड़ देती है।''
''और
नायिकाओं के मन में कौन-कौन-सा तूफान उठा करता है,'' सविता के होठों पर एक
दबी-छिपी और शरारती मुस्कान खेल गयी थी, ''इसकी भी व्याख्या करना...मैं
देखूँगा।...तभी पता चलेगा कि तुम कितने उस्ताद लिक्खाड़ हो।''
इतना
कहकर सविता ने थोड़ी देर तक प्रतीक्षा की थी शायद। शायद वह वे तमाम
पत्र-पत्रिकाएँ खरीदा करती थी, जिनमें सरोजाक्ष घोषाल की रचनाएँ छपा करती
थी। उन्हें खरीदती थी...पढ़ती थी और निराश हो जाया करती थी। सम्भव है, वह
यह भी सोचती रही हो कि सरोज क्या इतना ही नादान है...इतना कुछ
बताया...समझाया...। लेकिन कोई चारा न था...। बात बन नहीं रही थी।
सम्पादक स्वीकार नर्हां
करेंगे। प्रकाशक आड़े हाथ लेंगे।
इस
बारे में कुछ कहते ही वे बीच में टपक पड़ते, ''उपन्यास...और वह भी
गम्भीर...सीरियस? आप भी अब गम्भीर उपन्यास लिखकर अपनी जात बिगाड़ने पर
तुले
हुए हैं, महाराज। और फिर...उपन्यास लिखने वालों की तो कोई कमी है इस देश
में? और सबके सब...एक से बढ़कर एक सीरियस। इससे कम तो कोई सोचता ही नहीं।
हम लोग हँसना-खिलखिलाना नहीं जानते...इसे हमारे साहित्यकारों ने एक तरह से
साबित कर दिया है। और सच पूछिए तो इस क्षेत्र में आप ही हमारे
हास्य-कौतुक-शिरोमणि हैं। अब आप अपनी रस-भरी कलम का रुख मत बदलिए।''
इसलिए सरोजाक्ष अपनी
रसपूर्ण लेखनी की दिशा नहीं बदल रहे...अपनी जात से चिपके हुए हैं।
कभी-कभी
उनके मन में आता टेक कि वे सारी सामग्री किसी छद्म नाम से छपवा
लेंगे...भले ही उसमें अपने घर से पैसे खरचने पड़े। लेकिन उनके मन में ऐसा
कोई उत्साह टिक नहीं पाता था। 'अगर छप सके तो छप जाय' जैसा मनोभाव उनके
अन्तमन के किसी कोने में अवश्य ही करवटें लेता रहता था।
बहुत सम्भव है उत्साह का
अभाव सविता के उसी आदेश का परिणाम है। और सचमुच...यह सविता का आदेश ही था।
''लेकिन
एक आदेश या अंकुश...किसी भी तरह सै तुम्हारी उस नायिका को विरहनी, दुखिया
और प्रेमवंचित विवाह की तकलीफों से हमेशा के लिए चिर-विषादिनी नहीं बना
सकेगी। ऐसा तुम नहीं कर पाओगे।''
''नहीं कर पाऊँगा?''
''कभी नहीं...तुम्हारी
नायिका होगी हर तरह से सुखी, सन्तुष्ट, हँसती-गाती मुस्कराती और...''
सरोजाक्ष
ने हँसते हुए कहा था, ''तो फिर लिखने का उद्देश्य ही क्या है? प्लाँट की
जरूरत ही क्या है।...एक बार एक लड़की और लड़के में प्यार हुआ...जबरदस्त
प्यार...घमासान...और घनघोर प्यार। लेकिन जैसा कि होता आया है दोनों में
शादी नहीं हुई। लड़की के बाप ने लड़के के बाप से कहा...''
''ओह...तो
फिर इसे जैसा भी हो...जोड-तोड़ कर लिखो न बाबू। और सब कुछ एकदम वैसा ही
लिखना होगा...ऐसी तो कोई शर्त नहीं...पिताजी अब भी जीवित हैं'', सविता ने
झनझनाती आवाज में कहा था।
''ठीक
है फिर तो ऐसा ही है कि एक कल्पित कहानी ही गढ़ी गयी,'' सरोजाक्ष ने कहा
था,'' शादी नहीं हुई-कहना तो यही था...है न...? मान लिया, दोनों में विवाह
नहीं हुआ लेकिन लड़की की शादी कहीं और हो गयी...चट मँगनी और पट ब्याह। डधर
उस अभागे और प्रेम में ठोकर खाये युवा प्रेमी ने गुस्से में आकर विवाह ही
नहीं किया। दुनिया क्या है...एक मजाक है जैसी दार्शनिक मुद्रा ओढ़े उसने
हास्य और व्यंग्य की कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया।
''खबरदार...''
सविता ने बीच में टोक दिया था, ऐसा मत लिखना...फिर तो रंगे हाथों पकड़े
जाओगे...नायक को गायक...वादक जाति का प्राणी बनाना होगा...वर्ना...''
सरोजाक्ष
ने मुस्कराते हुए कहा था, ''हां, गलत नहीं कहा तुमने...वैसा लिखने पर तो
घुनाक्षरी जैसे लोगों को भी ऐसा सन्देह नहीं होगा। और नायक...जो भी
हो...एक भले आदमी की तरह अपनी जिन्दगी बिताने लगा।
लेकिन
नायिका का...'' ''नायिका पर भी जो कुछ बीती...उसे भी लिखना...'' सविता
झुँझला उठी थी...''उसे क्या कहीं तुम गड्ढे में फेंक दोगे?''
''जैसा
भी हुआ...ठीक वैसा ही। वाह! उसकी तो किसी दूसरे मर्द के साथ शादी हो गयी
थी...ठीक है? इसके बाद...पति के साथ काँटा फिट...माने खूब छनने लगी...''
''आह...हा...खूब छनने
लगी...और काँटा फिट...यह भी कोई साहित्यिक भाषा हुई? लिखोगे...दोनों का
प्रेम प्रगाढ़ होता गया...ठीक है''...
''ऑल
राइट...दोनों का प्यार बढ़ता गया। माँ लक्ष्मी की कृपा से घर-गृहस्थी में
भी रौनक आयी। माँ षष्ठी ने भी कृपा बरसायी...इसके बाद?''
सविता ने त्योरी चढ़ाकर
सवाल पलट दिया, ''और इसके बाद...मैं ही सब कुछ कहूँगी? ऐसा तय होता तो मैं
ही सारी गाथा लिख न डालती!''
''क्यों, ऐसा क्या
है...नायिका के बारे में सारी बातें बताओगी नहीं? इसके बाद क्या हुआ...हो
सकता है मैं कुछ समझ नहीं पा रहा।''
''मुझे
जान-बूझकर मत छेड़ो। दूसरे-दूसरे लोगों के बारे में इतना कुछ जोड़-तोड़कर तुम
सब लिखते रहते हो...और अब तुम्हें कुछ ढूँढे नहीं मिलता?''
''मैं
तो एक हास्य लेखक हूँ। बिदूषक। फिर तो ऐसा है कि मैं तुम्हारी कहानी को
अपने इलाके में खींच लाऊँगा। लिखूँगा...इसके बाद विदेशी-यात्रा के दौरान
उन दोनों में एक बार फिर मुलाकात हुई। नायक को एक बगीचे...के माली के
हाथों अधपका चावल और जली हुई दाल खाते देखकर नायिका का पुरातन प्यार मचलने
लगा...उसने नायक को बार-बार बुलाना और सुबह, दोपहर, शाम, रात खिलाना शुरू
किया और देखते-हीं-देखते बेचारा मोटा-सोटा हो गया।...''
''...देखो,
सब कुछ को मजाक बनाकर पेश करने की वजह से तुम्हारा लोक-परलोक ही नहीं,
अगला जनम भी बिगड़ गया है। हमारी कहानी क्या हँसी-मजाक की चीज है?''
सरोजाक्ष
ने हँसते हुए कहा, ''मजाक की बात नहीं है...लेकिन इस पर जोर देकर कहना कुछ
मुश्किल है। लेकिन यह सब दबी जुबान से कहा जा सकता है...इसमें सन्देह
नहीं।''
सविता
ने अपनी आँखें उठाकर कहा, ''तो फिर इसमें कलम का जादू कहां रह
गया...साधारण के ऊपर असाधारण...आम के बहाने खास की बात लिखने का अर्थ क्या
रहा? और फिर लेखक की सत्ता का मतलब ही क्या रह जाता है? इतना कुछ तो किसी
अखबार का खबरनवीस भी लिख सकता है। तिल जैसी छोटी-सी चीज की क्या बिसात है
भला...लेकिन उसी से बनती है कोई तिलोत्तमा।''
सम्भव
है इसके बाद से ही उस मोटी पाण्डुलिपि को पूरा करने में जुट गये थे सरोज
बाबू। नहीं मालूम...उसमें ही साधारण को असाधारण बनाकर प्रस्तुत करने का
कोई उदाहरण है भी या नहीं। और तिल-तिल जोड़कर सरोजाक्ष ने कौन-सी तिलोत्तमा
का सृजन किया था? क्या इसकी रूपरेखा सविता ने तैयार की थी? इस प्रश्न का
उत्तर 'हां' के सिवा और कुछ नहीं हो सकता।
उसने
कहा था, ''तुम तो किसी बात को मानने के लिए राजी नहीं...। लगता है तुम कोई
आधार स्वीकार ही नहीं कर पाओगे...इस तरह से अलग-थलग हो। तो भी हमारी बड़ी
इच्छा है कि हमारी कहानियाँ कच्ची से पक्की पाण्डुलिपि में अंकित हो जाएँ।
अगर मैं खुद यह सारा कुछ लिख पाती...!''
''इन सारी बातों से क्या
होगा...इस बुढ़ापे में...'' सरोजाक्ष ने शायद ऐसा ही कुछ जोड़ा।
''लो,
सुनो...हमारी और तुम्हारी उमर ही क्या हुई...कि बीच में बुढ़ापा आ
टपका...इसलिए कि वे लोग बूढ़े हो गये। वे लोग तो अब भी वहीं हैं...जहाँ थे
तेरह सौ तैंतालीस के दिसम्बर में...।''
''अरे
जब उन्हें इतना ऊँचा उठा दिया है तो रहने भी दो। नीचे उतारा नहीं कि यही
सोचकर झक मारते रहना होगा कि क्या कुछ था...क्या नहीं था...और अब क्या
रहा...क्या गया...?''
''बिलकुल नहीं। लिखना, सब
कुछ था...सारा कुछ है और सबका सब बना रहेगा।...लो, मैंने यह रूप-रेखा
तैयार कर दी।''
''सब
कुछ था...सब वना रहेगा? सविता...तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? रहने और न
रहने का सारा हिसाब क्या किसी खास ढर्रे में लिखा जाता है?''
सविता
अड़ी हुई थी, ''क्यों नहीं? मेरा कहना है सुख भी रहेगा...प्यार भी रहेगा।
पहला-पहला प्यार...यह प्रथम प्रेम...यह क्या खो जाने की चीज है! नहीं बाबू
साहव...नहीं! यह तो एकदम आत्मा की तरह होती है।...यह न तो खोती है न खत्म
होती है और न ही दम तोड़ देती है।...लेकिन प्यार है...प्रेम है इसलिए नसीब
में सुख नहीं...और अगर सुख है तो प्यार-मोहब्बत नहीं...ये सारे पुराने और
सड़े-गले विचार से बाज 'आओ तो तुम सब। नया कुछ ग्य-बजा-सुना नहीं सकते तुम
लोग? कोई नया सच...कोरा सच?''
नया...कोरा...सच?
सरोजाक्ष
हँस पड़े थे। फिर बोले, ''कई चीजें ऐसी हैं जो चिरन्तन हैं...शाश्वत हैं।
अगर मैं ताल ठोंककर कोई नयी बात कहने गाँ कि एक ही पात्र में पानी भी है
और आग भी...तो ठीक है, रहा करे। ऐसा कहना बेतुका या हास्यकर न होगा? आग और
पानी एक ही ठौर नहीं रह सकते। या तो पानी के चलते आग बुझ जाएगी या फिर आग
पानी को सुखा डालेगी।...यही सच जीवन का अमोघ सच है...जाना-पहचाना सच।
''हाथी
और पाँव अन्धों वाला सच,'' सविता ने तिलमिलाकर कहा था। कुछ वैसे ही जैसे
कि घर की कोई झक्की बुआजी कहा करती हैं। उसने आगे जोड़ा, ''जिन्दगी में
सारा कछ क्या साँचे में ढला होता है? तुम जैसे लेखक ही खामखाह अकड़ते
हैं...वे यही समझते हैं कि हमने सब कुछ जान लिया है...और जो समझना
है...समझ चुके हैं। अब भला क्या बचा है? मनोविज्ञान की तहों तक पहुँचकर
सारी दुनिया को इसकी बारीकी सिखा रहे हो? और इसकी तात्त्विक व्याख्या
कितनी जटिल है.. पता है? ईश्वर की सत्ता पर विचार करते हुए भी तुम वैसा ही
करोगे...उसे अंकगणित के आकड़े में, साँचे में ढालकर कहोगे...ऐसा होने पर यह
नहीं होता...और वैसा तो कभी नहीं होता। मैं कोई जान-बूझकर तुम्हें तीसमार
खीं नहीं कह रही। हमारे जो आधार हैं उन्हीं पर हमें अपनी कहानी लिखनी
है...समझे कि नहीं?''
''समझ गया...'' सरोजाक्ष
ने मीठी हैसी के साथ अपनी गर्दन घुमा ली थी।
''हां, तो फिर जो करना है
बाबू साहब...कर गुजरो...मरने के पहले मैं भी आँखें जुड़ा लूँ!''
''मरने के पहले देख
जाऊँ...वाह, क्या बात कही है!''
''क्यों
नहीं कही जा सकती भला?'' सविता के चेहरे पर और आँखों में मुस्कान की
बिजली-सी कौंध गयी थी। बोली, ''जीवन क्या है...कमल-पत्र पर ओस की एक
बूँद।....लेकिन कहानी पढ़े बिना मुझे मरकर भी चैन नहीं मिलेगा।''
''अरे अच्छी-खासी
हो...मजे लूट रही हो,'' सरोजाक्ष ने मीठी चुटकी ली, ''यह अचानक मरने-धरने
की बात कहीं से आ गयी?''
''क्यों, मैंने अभी-अभी
नहीं कहा कि जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं!''
सविता
इतनी सारी बातें तब कह पायी थी जबकि पिछली बार हजारीबाग घूमने गयी थी।
सरौजाक्ष पूजा-अवकाश के बाद अपनी थकान मिटाने वहाँ गये थे। एक
हास्य-व्यंग्य लेखक को भी थकान का सामना करना पड़ता है भला? क्यों
नहीं...कम-से-कम सरोजाक्ष घोषाल तो इसके शिकार हो ही जाते हैं।
हजारीबाग
में एक मित्र का मकान खाली पड़ा रहता है। माली भी है जो खाना भी बना लेता
है...ऐसा मित्र ने बताया था। हमारे लेखक महोदय आश्वस्त हुए थे। उन्होंने
वहाँ जाकर देखा तो पाया कि पास वाली कोठी में ही सविता वगैरह टिकी
हैं....बेटे-बेटियाँ, पति-देवर, नौकर-रसोइया....सारा ताम-झाम लिये।
सरोजाक्ष को देखकर और भी चहक उठीं, ''तुम उस माली के हाथ का बना खाना
खाओगे और मैं आँखें फाड़-फाड़कर देखूँगी? इससे तो अच्छा है जहाँ से आये
हो....सीधे वहाँ का टिकट कटाओ। और अगर रुपये-पैसे न हों तो मुझे बताओ।''
सरोजाक्ष
हँस पड़े थे। बोले, ''तुम यह क्यों नहीं समझती कि में एक अजनबी की हैसियत
से यहाँ चुपचाप टिका हुआ हूँ...मेरे बारे में तुम्हें परेशान होने की कोई
जरूरत नहीं....।''
सविता
ने तब कुछ कहा नहीं था...कोई हंगामा खड़ा करने के बदले अपने चेहरे और आंखों
से फूटने वाली एक खास तरह की चमक से खनक पैदा करते हुए कहा था, ''तुम्हारा
ऐसा कहना कोई नयी बात नहीं है। ऐसे उपदेश मैं बराबर सुनती और साधती रही
हूँ। बहुत दिनों से यह जरूर सोचती रही थी कि इधर किसी ग्वाल-बाल के साथ
मेरी मुलाकात नहीं हुई है। लग रहा था कि मैं चरवाहे का हिज्जे तक भूल गयी
हूँ...बस यही एक साधना बाकी बची थी जो मैं चाहकर भी पूरा न कर पायी। तो
फिर ऐसे झूठे मनसूबों से क्या लेना-देना? उससे तो कहीं बड़ा सच सुख है कि
तुम और हम आमने-सामने खड़े हैं। अब भी अगर तुमने माली के हाथों खाना खाने
की कसम खा रखी है....और वहीं टिके रहने की जिद ठान रखी है तो फिर मुझे
यहीं से विदा होना होगा।''
और फिर हुआ यही कि दोनों
ही जमे रहे।
सरोजाक्ष
ने तब एक महीन-सा हिसाब लगाकर देखा था....सविता की उम्र क्या होगी यही
चालीस के आस-पास होगी....दो-चार महीने इधर या चार-छह महीने उधर। बाल-बच्चे
बड़े हो चुके हैं और यह सब बता देने का समय भी सविता को तभी मिल गया था।
सविता
के पति ने भी कहा था, ''अरे महाशय...आप लोग ठहरे गुणी-मानी लोग। आप लोगों
के साथ मिलना-जुलना तो बड़े नसीब से होता है। आपकी बचपन की बान्धवी ने
हौसला न बढ़ाया होता तो....मैं कहीं आगे बढ़ पाता!''
सविता
के देवर ने भी आगे बढ़कर कहा, ''लीजिए....भाभी के साथ आपकी इतनी पुरानी
जान-पहचान है....आश्चर्य है! और आपकी रचनाएँ पढ़कर तो हम सब हँसते-हँसते
लोट-पोट...?" कहते-कहते रुक गया था बेचारा। शायद यह सोचकर कि ऐसा कहना
शायद ठीक नहीं हुआ।
उस
दिन....शाम को उस पत्थर के चबूतरे पर ही....बातें करते-करते सविता ने
बताया था, ''हँसी-मजाक तो करते ही हैं...खूब हँसते हैं और क्यों न
हँसें...?''
''सारी जिन्दगी तो तुम
विदूषक की भूमिका ही निबाहते रहे....।'' सविता ने टोका था।
''तो
फिर उपाय क्या था...? जीवन के शुरुआती दौर में अपनी भूमिका जो जिस तरह चुन
लेता है....उससे उसे रिहाई मिलती है भला कभी ?'' सरोजाक्ष ने सफाई दी थी।
इस बात में जरा भी सचाई न
थी।
ऐसा
होता तो....जिसे कहते हैं...उदे बादलों से पटा आकाश....पचास के पेठे में
पड़े जी को उदास कर देने वाली चंचल बहार...के साथ ही दूरभाष पर बार-बार
दूर-सन्देश आ रहे हैं, ''हमारी कहानी तैयार नहीं हुई? क्या कर रहे
हैं....जनाब....। हमारा तो भट्ठा ही बैठ जाएगा। पूरा कर डालिए....खत्म कर
डालिए। आपकी कलम तो जादुई कलम है...वस थामने भर की ही देर है।...बस यही
ख्याल रखिएगा कि भरपूर हाल हो....पाठकों को खूब गुदगुदाये....माने आप जैसा
लिखते रहे हैं...''
इस तरह अपने अलसाये चित्त
को फिर सहेजना पड़ा था।
ऐसी
ही हँसी से भरपूर एक कहानी का प्लॉट तैयार करने के लिए वह कलम लेकर बैठ
गये थे। सम्पादक महोदय ने एकदम सही फतवा दिया था कि बस कलम पकड़ने भर की
देर है...कहानी अपने आप पन्ने पर उतरती चली जाएगी।...ऐसी ही घड़ी में एक
प्याली चाय की मिल जाती तो...
इस
बारे में कुछ कहना चाह ही रहे थे कि तभी टेलीफोन की घण्टी झनझना
उठी...क्रिड़्. क्रिड़्....ड़्....। यह सब बड़ा ही बेहूदा लगता है। जी उचाट
हो आया....कलम पर ढक्कन चढ़ाये बिना ही सरोजाक्ष बाबू उठ खड़े हुए।
''जी, कौन...?'' उन्होंने
पूछा।
इसके बाद आगे कुछ बोल न
पाये।
नहीं....कुछ भी नहीं।
दूसरी तरफ से आवाज आती
रही।
आखिर उधर से क्या कहा जा
रहा था?
ऐसा जान पड़ा कि सरोजाक्ष
उधर से सुन पड़नेवाली बातों को ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं।
अगर ठीक से सुन या समझ पा
रहे थे तो उनके पास कहने को ऐसा कुछ नहीं था....जो बोल सकें।...चुप ही रहे।
काफी
दैर के बाद बोले, ''ठीक है...मैं आ रहा हूँ।'' और चोगे को हौले से नीचे रख
दिया। इसके बाद आहिस्ता से बुदबुदाये, ''ठीक है....आया।''
ऐसा उन्होंने किससे कहा
आखिर?
नहीं...किसी को भी नहीं
कहा।
कमरे में या आस-पास तो
कोई नहीं था। शायद ऐसे ही बुदबुदा बैठे थे।
खुली कलम वैसी-की-वैसी
पड़ी रही। देह पर कुरता डालकर वह बाहर निकल
आये। उन्होंने और भी
धीरे-से...जैसे अपने आपसे फुसफुसाकर कहा, "फिर तो यही लगता है कि कहानी
पढ़ी नहीं?''
सविता
के बाल-बच्चे जोर-जोर से रो रहे थे। सविता के पति चौकी पर पत्थर की तरह
खामोश बैठे थे। सविता के देवर ने कहा, "हां....फोन मैंने ही किया था। भाभी
आपको बहुत याद करती रहती थीं। वैसे कुछ हुआ नहीं था। कछ भी नहीं। सुबह
उठकर चाय पी....सब्जी काट-कूटकर रखी। इसके बाद इतना ही कहा 'तबीयत ठीक
नहीं लग रही।'....और बस! सारा खेल खल। आपके साथ हजारीबाग में आखिरी बार
मुलाकात हुई थी...कितना मजा आया था...कैसी नोंक-झोंक होती रही...''
थोड़ी
देर तक चुप रहने और सुबक लेने के बाद उसने आगे बताया, "भैया की तरफ देखने
का तो साहस तक नहीं जुटा पाता....आप अगर आखिरी घड़ी में...।'' सरोजाक्ष ने
उसे रोक दिया।
''मैं
रहूँगा,'' इतना ही कहा उन्होंने...बहुत ही धीमे से। वह मन-हीं-मन जैसे
दोहरा रहे थे...जीवन क्या है...कमल-पत्र पर ओस की एक बूँद...। आखिर तुम
ऐसी बातें क्यों कहती रही, सविता? क्या यह सब मजाक था...?
धुएँ
से आंखें चुन-चुना रही थी....आग की लपटें झुलसा देना चाहती थीं। सरोजाक्ष
थोड़ा पीछे हट गये। उन्होंने देखा सविता के पति आग के बहुत पास खड़े हैं।
सविता के देवर ने उनके पास जाकर कहा, "भैया...तनिक इधर चले आओ।"
वह नहीं हिले। बोले, "ठीक
है...!''
बहुत
देर के बाद श्मशान से वापस लौटते हुए सविता के पति सरोजाक्ष के एकदम पास
आकर खड़े हुए। आँखों में अजीब-सा सूनापन लिये बोले, "मैंने सविता को जो वचन
दिया था...उसे निभा न पाया। उसने कहा था...चाहे जैसे भी हो....और चाहे
जहाँ भी रहें...उसकी मृत्यु के समय आपको खबर जरूर भिजवा दी जाए। नहीं हो
पाया। समय नहीं मिला। अपने आखिरी क्षणों में भी वह मुझ पर यही दोष मढ़ गयी।
मरते समय उसने यही कहा था...
''तुमने मेरी बात नहीं
रखी...न...?''
सरोजाक्ष चौक पड़े थे। ऐसा
लगा किसी के सवाल ने अचानक उन्हें पीछे से आगे धकेल दिया।
किसे? आखिर सविता ने किस
पर यह दोष मढ़ा था।
''उसने क्या इस बात को
समझा होगा कि सचमुच समय नहीं मिला,'' सविता के पति ने एक बार फिर कहा।
समय नहीं मिला...। समय
मिल न पाया...यही तो अन्तिम सत्य है। समय नहीं मिलता....वह किसी को नहीं
बखाता...इस बात को कौन याद रखता है?
सरोजाक्ष
ने मन-ही-मन कहा, "मैंने भी कहाँ याद रखा...तुम्हारी बातों को भी याद नहीं
रख पाया।...मैं तुम्हें पढ्ने को दे नहीं पाया तुम्हारी कहानी...मेरी
कहानी...हम दोनों की कहानी। मैं तो हमेशा यही सोचता रहा कि अगर हमारी वह
कहानी लिखी भी गयी तो वह भी साधारण-सी होगी...एकदम औसत दर्जे की
हलकी-फुलकी।
हालाँकि
तुम जी-जान से उसकी जाँच-परख करती और फिर निराश हो जाती। तुम्हारी उसी
हताशा भरी तसवीर की बात सोच-सोचकर मैंने अपनी उस कहानी को परे हटाकर रख
दिया था बल्कि एक तरह से निकाल ही फेंका था।
...लेकिन
अब कैसा लग रहा है...पता है तुम्हें? अब जान पड़ रहा है कि वह कोई ऐसी
साधारण भी नहीं होती। तुमने जो खरा अनुभव दिया है उससे वह कहानी सचमुच
असाधारण हो उठती।
हां,
सविता...। तुम्हारे पति तुमसे किया गया वायद निभा नहीं पाये इसलिए वह
दुःखी हैं। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि इस तरह अफसोस करना किसके प्रति है?
सविता के देवर ने धीरे-से
कहा, "आप हमारे साथ ही चलिए न...थोड़ा-सा शरबत पी लीजिएगा...।"
सरोजाक्ष ने माफी माँग ली
थी।
''तो श्मशान से सीधे घर
चले जाएँगे?''
सरोज हौले-से मुस्कराये,
"हां, वहीं तो वापस जा रहा हूँ। श्मशान से कहीं लौट पाना मुमकिन भी है?''
नहीं।
उनके मन में रुक जाने की तनिक भी इच्छा नहीं। घर जाकर बिस्तर पर पड़ जाना
चाहते हैं...देर तक सो जाना चाहते हैं। उनकी इच्छा यही हो रही है कि वह
अकेले में सविता से चुपचाप पूछ सकें, "सविता...तुम किससे क्या कहना चाहती
थी...?"
लेकिन चाहने से ही क्या
वह पूरी हो जाती है?
जीवन
की तमाम यन्त्रणाओं में एक और यन्त्रणा है यह निष्ठुर सुभाष यन्त्र! है कि
नहीं? उसके भीतर से अनाप-शनाप बातें कानों में पड़ रही हैं...''क्या
कहा...अब तक नहीं बनी?...बात बन नहीं रही? क्या कह रहे हैं आप? आपने सुबह
ही बताया था...क्या पूरी नहीं हो पाएगी?...आपकी तबीयत ठीक नहीं?...बाहर
निकल गये थे? ओह...बादल और बारिश के इस हंगामे में आप बाहर निकले ही
क्यों?...लेकिन मेरी हालत पर भी तरस खाइए जरा...प्रेस के तगादों ने तो
मुझे कहीं का नहीं रख छोड़ा? ऐसा कीजिए...सर...अदरक की गरमा-गरम चाय पीकर
बैठ जाइए। अगर सामग्री नहीं मिली तो रेल के पहिये के नीचे मुझे अपनी गर्दन
को रख आना पड़ेगा। आप समझ नहीं रहे हैं...सितम्बर की पहली तारीख को
विशेषांक नहीं
निकला
तो...लिख रहे हैं...। ठीक है....आपने तो मेरी जान बचा ली। तो फिर कल सुबह
ही मिल रहा हूँ...। सचमुच....आपने मेरी जान बचा ली।....थैंक्स...।''
सरोजाक्ष घोषाल के पास
इतनी क्षमता है कि वह किसी को बचा सकते हैं।....अभी समय है कि अपना वादा
निभा सकें।
वह
मेज के इस किनारे बैठ गये। देखा....सुबह से खुली पड़ी कलम की निब पर स्याही
बुरी तरह सूखकर पत्थर की तरह जम गयी है। उन्होंने कलम में दोबारा ताजी
स्याही भरी और अधूरी पड़ी कहानी को सामने खींचकर बैठ गये। हास्य और व्यंग्य
से भरपूर कहानी। थोड़ी-सी लिखी जा चुकी है....बड़ी आसानी से और तेजी से आगे
बढ़ती चली जाएगी। प्लाँट भी याद आ गया। बड़ी ही मजेदार कहानी है। तय है कि
इसे पढ़कर सुधी पाठक-समुदाय के पेट में हँसते-हँसते बल पड़ जाएँगे।
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)