इस्माइल शेख़ की तलाश में (असमिया कहानी) : होमेन बोर्गोहेन

Ismaeel Sheikh Ki Talash Mein (Asamiya Story in Hindi) : Homen Borgohain

मैं शायद स्थान—काल—पात्र सब कुछ भूलकर नगर के व्यस्ततम राज—पथ के बीचोबीच खड़ा आसपास के लोगों को अचरज में डाल शरीर की पूरी शि€त के साथ पुकार उठा था—'इस्माइल!'—पुकार खत्म हुई नहीं कि मैंने दौड़ना शुरू कर दिया था।
जीवन में की गयी एक सामान्य गलती का भी शायद कोई प्रायश्चित नहीं है। अदृष्ट का अर्थ है अज्ञातपूर्व एक योजना की अपरिवर्तनीयता। इस्माइल को अगर मैं नाम लेकर न पुकारता तो उस आदमी से मेरी मुलाकात हो पाती। जिस व्यक्ति की तलाश मैं लगातार पाँच वर्षों से करता आ रहा हूं। परन्तु मेरी आवांज सुनते ही इस्माइल तमाशबीन आदमी की तरह अचानक गायह हो गया। मैंने मूर्ख की तरह एक भयानक गलती और कर ली।
लेकिन इस्माइल को मुझे खोजकर निकालना ही है। एक बार जो उसे देख लिया है, अब वह मुझसे भाग कर बच नहीं सकता। कुछ दूरी से मैंने देख लिया था कि मेरी आवांज सुनकर क्षणभर वह आशंका से मेरी ओर देखकर रास्ते की संकरी गली में अदृश्य हो गया। मैं भागकर उस गली के मुंह तक पहुँच गया था।
गली के सामने की पान—दुकान पर खड़े होकर दो युवक सिगरेट फूँक रहे थे। मुझे उस असमंजस की स्थिति में देखकर वे आपस में ही कुछ बतियाते रहे। उनका इस प्रकार का रहस्यमय व्यवहार देखकर मेरे मन में अनजाना-सा डर समा गया—अन्य भाषी देश के अनजान लोगों के सामने नि:संग पथिक को लगनेवाला डर जैसा। असमंजस भाव से उनकी तरफ एक बार नंजर दौड़कर मैं जल्दी ही गली में घुस गया। साथ-साथ मेरे पीठ पीछे एक अद्भुत हँसी का फौवारा मानो फूट पड़ा।
कुछ कदम बढाकर मैं जरा सहमकर ठिठक गया। उस समय दोपहर के तीन बज रहे थे, परन्तु उस गली को अन्धकार ने घेर रखा था। मैं चारों ओर नंजर दौड़ाकर वातावरण का जायजा ले रहा था।गली के दोनों छोर पर दो बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी थीं। इमारत जहाँ खत्म हुई, वहीं पर रास्ते को रोके एक लकड़ी की दीवार थी। दीवार पर दरवांजे की तरह आने-जाने का सँकरा रास्ता बना हुआ है। उससे केवल एक ही व्यक्ति आ जा सकता है। देखने पर ही समझा जा सकता है कि यह आम रास्ता नहीं है। अन्दर के किसी एक घर में प्रवेश के लिए वह रास्ता बना हुआ है। इस्माइल उस तरफ कहाँ जा सकता है, यह सोचकर मैं हैरान हो गया। उस का मुझे पीछा करना ही है। परन्तु सच तो यह है कि उस अँधेरी गली में जाने के लिए मुझे डर-सा लग रहा था। मैं कुछ देर उस हालत में खड़ा रहा। सहसा उस लकड़ी की दीवार के भीतर से किसी औरत की खिलखिलाहट सुनाई दी। खिलखिलाहट भी एक भाषा है। तब मुझे अनुभव हुआ कि थोड़ा अद्भुत मेल है। कुछ क्षणों तक मेरा मन भाषाविज्ञान के शोध में मग्न रहा। रहस्य का पर्दा मानो धीरे-धीरे उठ रहा था। मैंने दीवार फाँद कर भीतर की गली में प्रवेश किया।
''अरे कुत्ते का बच्चा !''
सहसा भीतर घुसकर किसी से टकराने की स्थिति का जायजा लेने के पहले ही सुनने को मिला यह मधुर सम्भाषण। साथ ही नाक में शराब की बू लगी। मैं सहम कर एक कदम पीछे हट गया। उस आदमी पर दृष्टि पड़ते ही मेरा शरीर हिमवत् हो गया। एक की आँखें खूब लाल थीं। पूरे चेहरे पर गोल-गोल निशान। नाक ने बीच में घुसकर चेहरे को और अधिक वीभत्स बना डाला था। उस आदमी ने एक नीली लुंगी और एक काला कोट पहना हुआ था। पेशेवर खूनी की बेरहम नंजर से वह आदमी कुछ क्षणों तक मेरे चेहरे पर दृष्टि गड़ाकर देखता रहा, उसके बाद खिसिया कर हँसते हुए मेरी तरफ बढ़ने लगा।
''अरे साला तू मुझे पहचान नहीं पा रहा है? तेरे...''
अनुकरणीय अश्लील शब्द से अपना परिचय जाहिर कर वह मेरा एक हाथ पकड़ने के लिए आगे बढ़ आया। इधर डर और आतंक से मेरा शरीर काँपने लगा। मेरे सामने यह मानो कोई आदमी नहीं है, भयानक मृत्यु जीवाणु किलबिलाने वाला एक गलित मांसपिंड, उसके स्पर्श ही से मेरी आँखों के सामने मेरे हाथ-पैर टूट कर गिर पड़ेंगे। उसके करीब पहुँचते ही मैं आँख मूँदकर प्रहाररत भंगिमा से हाथ उठाकर सर्व शि€त से चिल्ला उठा: ''मत छू, मुझे मत छू।''
वह आदमी एकाएक रुक गया। मैंने आँखें खोलकर देखा कि सहसा वह आदमी शिथिल पड़ गया है। दीनतम भिखारी की बीभत्स कातरता और व्यथा से उसका चेहरा भर गया है। उसकी रोगदग्धा आँखें आँसुओं से धुँधलाने लगीं :
''अरे साला, तुझे भी पता चल गया क्या रे?'' टूटे हुए स्वर से उसने मुझे पूछा।
''किसके पता चलने की बात कर रहा है?'' मैंने अनजान भाव से पूछा।
''अरे कुत्ते का बच्चा, तेरे...क्या तू नहीं देख रहा है मेरी बीमारी? अरे तुझे भी यह बीमारी लग जाएगी। भाग, भाग, भाग यहाँ से। यहाँ सब बीमार हैं। सब सड़े हुए, दुर्गन्ध से भरे हुए। दस साल से मैंने इनके साथ कारोबार किया है। मुझे सब पता है। इन लोगों ने ही मुझे यह बीमारी दी है। अब ये मुझे देखते ही दरवांजा बन्द कर देती हैं। साली सब रंडियाँ हैं—थू।''
इस बीच मैं भूल गया था कि मुझे इस्माइल का पीछा करना है। शायद वह बहुत दूर तक निकल गया। मैं जाने के लिए तत्पर हो गया। जेब से एक सिगरेट निकालकर सुलगा लिया, एक सिगरेट उस व्य़ॅक़्टि की तरफ बढ़ा कर पूछा : ''थोड़ी देर पहले इधर से एक लम्बी दाढ़ी वाले और पाजामा पहने किसी आदमी को जाते देखा है?''
''अरे साला, मेरे रहते हुए तू दूसरे आदमी को क्यों खोजता है रे? इस गली में मुझसे जानकार और कौन है रे? लेकिन मुझे पाँच पूरा लगेगा।''
इसके साथ फिजूल बातें करने से कोई फायदा नहीं, मैंने सोचा। उसकी बात पर ध्यान दिये बिना मैं तुरन्त आगे की ओर बढ़ गया। आगे बढ़ते ही मैंने सुनी रुँधे हुए गले से खिसिया कर हँसने की आवांज। केवल हँसी-खिलखिलाहट। अन्धी गली के इन अद्भुत बाशिन्दों के लिए हँसी ही लिंगुवा-फ्राँका है।
हठात् औरतों के समूह से खिलखिलाहट की आवांज गूँज उठी। मैं चौंक उठा। घोड़े के खुर की भाँति तीन कतार में खड़ी झोपड़ियों के बीच वह गली खत्म हो गयी थी। बीच के खुले आँगन में ही कुछ औरतें बीड़ी फूँकती हुई खड़ी थीं। उनके भावहीन चेहरे पर घने शृंगार का लेप, उनके शरीर अथवा वस्त्रों से निकलती विकृत गन्ध और उससे भी अधिक सस्ती संगम-पीडित देह की मिश्रित गन्ध, वे खड़ी थीं चेतना की गोधूलि के अन्धकार के प्रेताकीर्ण-प्रान्तर में प्रेत-नारियों की तरह। मैंने उनसे पूछा : ''क्या थोड़ी देर पहले इधर जाते हुए किसी आदमी को जाते देखा?'' मेरा प्रश्न सुनकर वे एक-दूसरे के शरीर पर गिरती हुई खिलखिलाने लगीं। मेरा प्रश्न मानो उनके लिए बिलकुल निरर्थक है, मानो मैं प्रस्तर युग के आदमी की भाषा में बोल रहा हूं। क्या इस्माइल इनमें से किसी झोपड़ी में छिप कर रह सकता है, मैं सोचने लगा। मैंने पुन: विनम्र स्वर से पूछा: ''क्या किसी आदमी को इधर से जाते हुए देखा है?''
टूटी हुई एक मर्दानी आवांज से एक कंकालसार औरत ने पूछा, ''कैसा आदमी है रे बाबू? किसी को भगा कर ले आया है क्या? अगर ले आया है तो ले जाने दो। औरत की क्या कमी है?''
चार-पाँच औरतों की खिलखिलाहट में उसके अन्तिम वाक्य अस्पष्ट हो गयेथे।
मैं बिलकुल असमंजस में पड़ गया। इस्माइल इसी तरफ आया था, यह मैंने स्पष्ट देखा था। सामने से जाने का कोई रास्ता नहीं है। कहीं छिपने के लिए यही एकमात्र स्थान है। लेकिन ये औरतें किसी प्रश्न का जवाब देना आवश्यक नहीं समझती हैं। अब क्या हो सकता है? शायद अब एक ही उपाय शेष बचा है। इनके घर-घर में जाकर तलाश करना। अन्त में वही करने का निर्णय लिया। एक सिरे से घरों की तलाश करने के उद्देश्य से मैं सामने के घर की तरफ बढ़ा।
मैंने जिस घर की बात की है, उसका दरवांजा बन्द था। इसलिए वहाँ किसी आदमी के रहने की सम्भावना ही ज्यादा है। मैंने जैसे ही दरवाजे को ढकेला बाहर खड़ी औरतें आशंका से चिल्ला उठीं...—''अरे, भीतर आदमी है।''
मैं ठिठक गया। सहसा टूटे हुए दरवांजे से मेरी दृष्टि भीतर गयी। तब मुझे होश आया कि अन्दर रहने वाले आदमी को इस समय परेशान करना बड़ा अमानवीय काम होगा। मैं दूसरे दरवाजे पर पहुँच गया। दरवाजा थोड़ा-सा खुला हुआ था। मैंने दरवांजे को ढकेला। एक खूबसूरत युवती आईने के सामने बैठकर शृंगार कर रही थी। मेरे पैर की आहट सुनकर उसने मुड़कर देखा। निर्विकार भाव से होंठ पर लिपिस्टक लगाते हुए उसने रागात्मक भाव से कहा : ''बैठोगे?''
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। संन्यासिनी की तरह उसकी दृष्टि और चेहरे की उदासीनता ने कुछ देर के लिए मुझे अभिभूत कर दिया।
बुलेट की तरह दो और अनुच्चरणीय शब्द आकर मेरे कानों से टकराये।
शृंगार खत्म कर वह उठी और मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। युवती सचमुच सुन्दरी थी। उसके गर्वित बल्कि विषाद-युक्त चेहरे ने उसे और सुन्दर बना दिया था। अनेक पुरुषों द्वारा चूमने से आहत हुए उसके होठों की तरफ मैं कुछ क्षण अपलक देखता रहा। कितने होठों को उसने चूमा है, यह वह शायद वह भूल गयी है, पर क्यों चूमा था उसे वह कैसे भुला सकती है? बैठना नहीं चाह रहे हो तो चले जाओ। दरवाजे पर तुम्हें ऐसे खड़े देखकर दूसरे लोग भी भाग जाएंगे, बड़े ही शान्त स्वर में उसनेकहा:
''तुम क्या हो? संन्यासिनी या वेश्या?''
''तुम्हारे जैसा पागल मैंने नहीं देखा है। क्यों ये बातें पूछ रहे हो?''
''ऐसी दीनहीन दशा में तुम जैसी एक वारांगना के बिस्तर पर अगर अलवार्टो का उपन्यास पड़ा हुआ हो, और अगर यह निश्चित हो कि उसकी पाठिका तुम्हें छोड़कर और कोई नहीं है, तो तुम्हारे साथ दो पल अच्छी बातें क्यों न की जाएँ?''
मेरी बात सुनने पर उसकी दृष्टि बिस्तर पर पड़ी। बिस्तर पर मोरविया का उपन्यास 'वूमन ऑफ रोम' पड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर चोरी पकड़ी जानेवाली एक सहज मुस्कराहट खिल उठी।
''आप दूसरे हैं।''
''इसका अर्थ?''
''मेरे यहाँ आनेवाले लोगों में से, आदमी की भाषा में बात करने वाले आप दूसरे सज्जन हैं। इसके पहले एक और आया था। एक कॉलेज का लड़का।''
मैंने देखा युवती मुझे 'आप' कहकर सम्बोधित कर रही है। मेरे समीप शायद वह मानवता का स्पर्श अनुभव कर रही है और अपने व्यवसाय को भूल गयी है। मुझे भी उसे इन्सानियत का सम्मान देना उचित प्रतीत होने लगा। सामान्य आदरभाव से मैंने कहा : ''अगर आप इजाजत दें तो किसी दिन मैं आपको कुछ पुस्तकें दे जाऊँगा। अब आज्ञा दीजिए। नमस्कार।''
कुछ क्षण तक युवती विस्मय-विमूढ़ बनी रही। सचमुच मुझे जाता देख वह सचेत हुई। एकाएक उसने कहा—''रुकिये, रुकिये, कहाँ जा रहे हैं? बिलकुल नए अर्थ में कह रही हूं, जरा बैठ जाइए न।''
''क्यों?''
''आप इस बस्ती में क्यों आये हैं?''
इस्माइल के बारे में उसे जरा विस्तार से कहना उचित समझा क्योंकि बस्ती में केवल वही एक औरत है जो मुझे इस विषय में सहायता कर सकती है।
''मैं एक आदमी के पीछे भागते हुए यहाँ पहुँचा हूं। उस आदमी को मैं बहुत दिनों से खोज रहा हूं—लगभग पाँच वर्षों से। वह भी एक विशेष कारण से मुझ से भाग रहा है। आज रास्ते में उसे देखकर सहसा उत्तेजित होकर नाम लेकर मैंने उसे पुकारा। वह मेरी आवांज सुनते ही भाग कर इस गली में आ घुसा है। मैं भी उसके पीछे भागते हुए आ पहुँचा। लेकिन यहाँ आकर मैं अपने को खो बैठा। अच्छा, इधर से पार हो जाने के लिए क्या उस घर के पीछे से कोई रास्ता है।''
''नहीं।''
''तब तो इनमें से किसी घर में वह घुसा होगा। लेकिन कौन उसे इस तरह रहने देगा?''
''रुपया देने पर कौन नहीं रहने देगा? पर उसके इस तरह आपसे भागते रहने का क्या कारण है? आप ही क्यों उसे इस तरह खोज रहे हैं?''
''वह काफी लम्बी बात है। उतनी लम्बी बात बताने लगूँगा तो इस्माइल कहीं गायब हो जाएगा।''
''वह अब तक कहीं भाग नहीं गया होगा, यह आप कैसे कह सकते हैं?''
''अरे यह तो हो सकता है। बातों में फँसे रहने के कारण मैं असली बात भूल ही गया था। खैर जो भी हो, अब भी एक बार आप जायजा ले लें। मैं उसे खोजते हुए यहाँ तक आ सकता हूँ, वह शायद ऐसा सोच भी नहीं सकता है। बल्कि रास्ते में जाते समय पकड़ लिए जाने के डर से वह जरूर यहीं कहीं छिपा होगा?''
''वह आदमी आपका क्या लगता है?''
''कुछ भी नहीं।''
''शत्रु?''
''नहीं।''
मेरा जवाब सुनकर युवती ने एक लम्बी आह भरी। उसके बाद वह अपने से ही कहने लगी : ''कौन जानता है कि इस खोज के अन्त में क्या है?''
युवती के कहने का अन्दाज कुछ ऐसा था मैं चौंक पड़ा। तुरन्त उसे पूछा : ''इस बात का अर्थ? किस की बात आप कर रही है?''
''आपकी भी, मेरी भी। मोरविया का उपन्यास पढ़नेवाली वेश्या के बारे में €या आपके मन में उत्सुकता नहीं जगी है?''
''जगी है, परन्तु आपके वैयिक्तक जीवन के बारे में उत्सुकता दिखाकर मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहती हूं।''
''मैं आपके मनोभाव को ठीक से समझ पा रही हूं। और इसलिए मैं आपको अपनी मर्जी से अपने बारे में कुछ बतलाना चाहती हूं। आप उस आदमी को पाँच वर्षों से €यों खोज रहे हैं, उससे मिलकर आप €या करेंगे, मैं नहीं जानती। मुझे भी एक आदमी पाँच वर्षों से खोज रहा है। मैंने उसे देखा है। लेकिन उसने मुझे नहीं देखा है। मुझे देखने पर और इस हालत में देखने पर वह शायद मुझे मार डालेगा। मैं मरने से नहीं डरती हूं। पर मुझे देखकर उस आदमी को जो भयंकर सदमा पहुँचेगा, उसकी कल्पना करके मैं सिहर जाती हूं। आप एक आदमी के पीछे भाग रहे हैं, मैं एक आदमी के सामने भाग रही हूं। आप जिसे खोज रहे हैं और मैं जिस से...आप ध्यान दे रहे हैं न?''
युवती की बात सुनकर मैं हतप्रभ रहे गया। सचमुच ऐसे नाटकीय संयोग के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं था। इतनी देर तक मैं खड़ा था। अब मुझे बैठने की इच्छा हुई। मेरे सामने खड़ी वह औरत वारांगना है या वित्तटालिनी भद्रमहिला, मेरे बैठनेवाला वह कमरा पाठागार या कोई श्रमजीवी महिला का कार्यक्षेत्र है, इन प्रश्नों को सोचना अब नितान्त मामूली—सा प्रतीत हुआ। अदृष्ट के एक प्रहार से विपन्न सम दु:खी दो प्राणियों के बीच की गहरी आत्मीयता ही केवल उस क्षण मेरे मन में अहम् बन उठी। मैं एक नारी के सामने हूं, एक नारी के जीवन-संग्राम, उसकी आशा, स्वप्न और वेदना की बातें कर रहा हूं जो संग्राम, स्वप्न, आशा और वेदना हम दोनों के लिए एक है, सभी के लिए एक है, इस पवित्र सत्र की नई उपलब्धि से मेरे मन में एक नया विचार आया। मैंने उसके बिस्तर पर बैठकर सहानूभूति पूर्वक उससे पूछा: ''आपको खोजते रहनेवाला वह व्यक्ति कौन है?''
''मेरा पिता।''
मैं पुन: एक बार चौंक उठा। परन्तु बाहर सहज होकर पुन: पूछा—''आप मुझे दोस्त समझिए और अपनी पूरी कथा मुझे विस्तार से सुनाइए। सच तो यह है कि आपकी बातों से मेरे मन की उत्सुकता बढ़ गयी है।''
''आपको मैं बताऊँगी। कहने का मेरा भी स्वार्थ है। बहुत दिनों से मैं एक आदमी की तलाश में थी, जिससे मैं अपनी समस्या पर विचार कर सकूँ। मगर नारी-मांस के खरीददार के बीच क्या ऐसा कोई दोस्त मिल सकता है? खैर, आज ईश्वर ने आप से मिलाया है। आप जरा बैठिए। मैं आ रही हूं।''
परदे को हटाकर वह युवती भीतर गयी। मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया। थोड़ी देर बाद जब वह लौटी, तब उसे पहले पहचान ही न सका। चेहरे के पाउडर को उसने धो डाला था, विचित्र भंजी से बनायी गयी जुल्फ को खोल छोड़ रखा था, पहनावे में भी एक सफेद साड़ी और एक सफेद ब्लाउज। युवती का रूप क्षण भर में मानो बिलकुल बदल गया। मैंने मौन विनम्र दृष्टि से उसके प्रति आदर जतलाया।
''आपको एक लम्बी कहानी सुनने की आशा नहीं करनी चाहिए''—उसने कहना शुरू किया—''जीवन की घटनाएं सोच-समझ कर घटित नहीं होती है। आदमी उसका वर्णन करते समय विभिन्न आवेगों कल्पनाओं और तर्कों को जोड़ते हैं। मैं ऐसा नहीं करूँगी। लगभग पाँच वर्ष पहले मैं शियालदह स्टेशन में पिता से अलग हो गयी थी। पूर्व बंग से शरणार्थी बनकर वहाँ हमने आश्रय लिया था। वह आश्रय बिलकुल अस्थायी था, क्योंकि स्टेशन के प्लेटफार्म पर कोई शरणार्थियों के लिए भोजनालय खोलकर नहीं बैठा था। संस्कृत पंडित ब्राह्मण पिताजी को जब पेट की ज्वाला में पतिता के उच्छिष्ट खाते देखा, तब घृणा में नहीं, व्यथा में पिता को छोड़कर एक दिन अँधेरी राह पर कदम रखा। एक ही छलाँग में ब्राह्मण के पूजा—गृह से आ पहुँची वेश्या के रति—कक्ष में। सोचा था, पिता के साथ सभी हिसाब चुकता हो गया है। मगर ऐसा नहीं है। एक दिन रास्ते में घूमते जाते वक्त देखा, जीवन में कभी पूजा के अर्द्धपात्र के बिना अन्य किसी को हाथ नहीं लगाने वाला मेरा वह पिता, श्रीमान् अन्नदाधरण मुखर्जी गुवाहाटी के रास्ते पर दो महिला सवारियों को लेकर रिक्शा चला रहे थे। उस क्षण संसार में कितने भूकम्प आये थे उसका हिसाब मैं नहीं दे सकती। मैंने जल्दी से घूँघट ओढ़ लिया था। मेरे पास से ही मेरे रिक्शावाले पिता पार हो गये थे। उनकी आतुर दृष्टि देखकर ही मैं पहचान गयी कि उनकी आँखों में हर जगह केवल मेरी तलाश जारी है। उस दिन से मेरे मन में डर समा गया। गीता को रटनेवाली उनकी आदर की पुत्री आज जिस्मफरोंख्त करनेवाली है, जानकर वे क्या कर बैठेंगे, उसकी कल्पना करके मुझे डर लगने लगा। डर इसलिए भी बढ़ गया कि लगभग हर ग्राहक यहाँ रिक्शा से पहुँचता है। दुर्भाग्य से मेरे पिता को भी अगर यहाँ आना पड़े और मैं असतर्क अवस्था में उसे दीख जाऊँ तो!''
युवती कुछ क्षणों के लिए मौन रही। कहने के लिए कुछ न सूझने पर मैं भी मौन रहा। हठात् युवती जरा-सी मुस्करायी। मेरी ओर तीव्र दृष्टि डालकर पूछा : ''खूब दया हो रही है न!'' मैंने कोई जवाब नहीं दिया।
युवती ने पुन: कहा : ''और एक आदमी को मैंने यह सब बताया था। उस कॉलेज के लड़के को। उसने क्या कहा जानते हैं? मेरे पिता के रिक्शावाला बनने और मेरे वेश्या होने से उसे वैसे कोई कष्ट नहीं हुआ, न ही उसे यह लगा कि यह कोई तकलींफ का कारण है। समाज के निम्नवर्ग के लोगों की वृत्तियों में परिवर्तन होता रहा है। आज जो गाँव का कृषक है या कारखाने का मजदूर है, वही हालत का शिकार बनकर रिक्शाचालक बनता है। नगर के हजार रिक्शावालों की अतीत—गाथा को सोचकर जब हम सिर नहीं खपाते हैं तो एक रिक्शावाले के बारे में सोचा ही €यों जाए! आज भी ब्राह्मण आदि उच्च वर्ग के लोग हाथ से एक तिनका तक न तोड़कर दूसरों के दाम पर जीते आ रहे हैं। प्रथम अवस्था में उस श्रम—विमुखता का कारण ज्ञान—साधना था। परन्तु परवर्ती काल में सब धोखाधड़ी में बदल गया। पाँच हजार वर्षों के बाद वर्ण-व्यवस्था में टूटन शुरू हो गयी है। एक ब्राह्मण को भी अगर पेट के लिए रिक्शा चलाना पड़ा तो वह अच्छी बात है। इस तरह के कठिन आघातों से सामाजिक मन:स्थिति में क्रान्ति उत्पन्न होती है।''
''आप जिस भावावेग से बोलती जा रही हैं उसे सुनकर मेरी धारणा बनी है कि शायद आपके पिता के रिक्शावाला बनने में आप भी एक प्रकार से सुखी है।''
''इस बात को ही मैं हमेशा अपने को सुनाती रहना चाहती हूं। अपने को मुझे कठोर बनाना ही है। नहीं तो पागल हो जाऊँगी।''
अचानक मैंने देखा कि घर के भीतर अन्धकार फैल रहा है। शायद सन्ध्या हो गयी है। युवती के चेहरे को देखकर लगा कि समय के प्रति उसका कोई ध्यान ही नहीं है। मैंने एक सिगरेट सुलगाने के उद्देश्य से दियासलाई जलाकर देखा कि उसके दोनों गालों से दो अश्रुधाराएं बह आयी है। मैंने फूँक मारकर दियासलाई बुझा दी। प्रतिकार हीन इस मर्मपीड़ा को आलोक से जग जाहिर करने क्या फायदा। अन्धकार ही ठीक है।
युवती ने बात के क्रम को जारी रखते हुए कहा : ''आप उस आदमी को €यों खोज रहे हैं, मुझे जानने की इच्छा हो रही है। वह आदमी भी क्या मेरी तरह अभागा है?''
अचानक मैंने निर्णय लिया कि युवती को मैं इस्माइल की कहानी को सविस्तार बताऊँगा। अपने पिता को रिक्शावाला बनने में जो युवती एक सामाजिक तात्पर्य खोज सकती है, इस्माइल की कहानी में वह एक और ऐतिहासिक सत्य को खोज पाएगी और इससे अपने को कठिन साधन—मार्ग में बढ़ने के लिए प्रेरित भी करेगी।
''मुसलमान गुंडो ने हमारे जीवन का सर्वनाश किया है। इन गुंडों के कारण मैं शास्त्रज्ञ ब्राह्मण की कन्या होकर भी आज वेश्या हूं। गुंडे का नाम सुनने पर €यों नहीं चौकूँगी? उसने आपका क्या किया?''
''मेरी कहानी सुनिए! इस्माइल को मैं खोज रहा हूं। आपकी तरह उसका घर भी पूर्व बंग में था। उसका अतीत इतिहास मैं अच्छी तरह नहीं जानता हूं। केवल इतना भर जानता हूं कि वह किसी जमींदार के अधीन रहने वाला भूमिहीन था। एक दिन हठात् उसने सुना कि उसके साथ सैकड़ों कृषक अपनी जन्मभूमि छोड़कर असम चले जाएंगे, जहाँ लाखों बीघा जमीन अनाधिकृत होकर पड़ी है। अपनी जन्मभूमि में जीवन-निर्वाह के लिए अंजुलि भर भी जमीन नहीं थी, भू—स्वामी का दासत्व स्वीकार कर वे मृत्यु के कगार तक पहुँचे चुके थे। नि:संकोच, इस्माइल ने भी उस देशन्मार्गी भाग्यान्वेषी दल में अपने को शामिल किया।''
युवती के चेहरे पर दृष्टि गड़ाकर मैंने पुन: कहानी को आगे जारी रखा : ''आपको स्वयं अपनी मातृभूमि छोड़कर आना पड़ा है। जिस जमीन से आपका गहरा सम्बन्ध था, उसे तोड़कर आते समय आपको कैसा लगा होगा? इस्माइल के बच्चों को जैसे लगा था।''
गुस्से से तमतमाती हुई युवती ने प्रतिवाद किया; ''आप ये क्या कह रहे हैं? उन्होंने स्वेच्छा से जन्मभूमि त्यागी थी। हमें जिस तरह मार-काट करके तलवार के बल पर भगाया गया था, उन्हें वैसे किसी ने खदेड़ा नहीं था। दोनों बातें कैसे एक-सी हो सकती हैं?''
''इस्माइल जब अपना देश त्याग कर आ रहा था, तब उसकी स्त्री घर की जमीन पर लोट-पोट होकर रोयी थी; घर के छप्पर पर लगे लौकी को छोड़ते व€त उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया था। फिर भी क्या आप कहना चाहती हैं कि वे स्वेच्छा से देश छोड़कर चले आये थे? उन्हें किसी ने एक अदृश्य तलवार से खदेड़ा नहीं था?''
''किसने उन्हें खदेड़ा था।''
''इतिहास की साजिश ने, जिस इतिहास की गति इतने दिनों से निर्धारित करते आये हैं मुट्ठीभर भूस्वामी और पूँजीपति। जिस इस्माइल के हृदय का रक्त भूमि को स्वर्ण प्रसविनी बनाता है, उस भूमि पर उनका अधिकार क्यों नहीं है? क्यों उन्हें देशन्मागी होना पड़ा? शोषण—तन्त्र चालू रखने के लिए जितने दासों का प्रयोजन है, उससे उनकी संख्या वृध्दि होने पर कुत्तों-बिल्ली की तरह जत्थे दर जत्थे उन्हें खदेड़ा गया। मातृभूमि छोड़कर आते समय इस्माइल की पत्नी और आपकी आँखों से आँसू निकले थे, उस आँसू का कोई धर्म नहीं है। वह आँसू हिन्दू या मुसलमान का आँसू नहीं है।''
''आप भूल गये हैं कि मुसलमानों ने हमें मातृभूमि से खदेड़ा धर्म के नाम पर। धनी-गरीब सभी हिन्दुओं को उन्होंने नाटकीय यन्त्रणा दी है। इस हिन्दूमेध यज्ञ में प्रधान है आपके ये इस्माइल। आप यह मत भूल जाइए कि 1947 में ढाका का राजपथ जिस र€त से रंजित हुआ था, उस र€त का एक धर्म था। वह था हिन्दू धर्म।''
''ठीक एक ही समय दिल्ली का राजपथ जिस र€त से रंजित हुआ था, उसका भी एक धर्म है—मुसलमान धर्म। मगर €या आप नारी होकर खून और आँसू के अन्तर को समझ नहीं पाती हैं? आँसू का स्त्रोत है हृदय, आँसू का स्त्रोत है मानवता, आँसू हैं स्वत: हृदय की प्रेरणा से। इसलिए वह पवित्र और सत्य है। परन्तु खून निकलता है बाहरी आघात से, हिंसा के आघात से—वह दूषित और असत्य है। दूषित और असत्य का जो धर्म है, वह अधर्म है।''
युवती अब निरुत्तर हो गयी। अब मानो अपने से प्रश्न करने की बारी थी।
''फिर भी आप लोगों को मुसलमानों ने खदेड़ा नहीं है, साम्प्रदायिक उन्माद ने भी नहीं भगाया है; आप लोगों को खदेड़ा है इतिहास के एक षडयन्त्र ने। थोड़ी देर पहले आपने कहा है आप लोगों पर अत्याचार हुआ था धर्म के नाम पर। परन्तु धर्म क्या चीज है, जानती हैं? इतिहास के हर युग में समाज के मुट्ठी भर भूस्वामियों और पूँजीपतियों ने करोड़ों नीच, दरिद्र जनसाधारण को संसार के सभी सुख-सम्भोग से वंचित कर रखा है, कल्पित स्वर्गलोक या परलोक में बैठकर खाने का प्रलोभन दिखाकर। बाइबिल में स्पष्ट कहा गया है, केवल गरीब लोग ही स्वर्ग जा सकेंगे। धनीवर्ग का सौदा इस प्रकार है : तुम लोग यानी नीच दासगण अगर इस जन्म में अपना सारा सुख-भोग त्याग कर हमारी सेवा करें तो इसके बाद स्वर्ग में अनन्तकाल तक ये शराब-मांस-वेश्या को लेकर आराम से रह सकेंगे। क्योंकि केवल गरीब और भिक्षुक—संन्यासियों को ही स्वर्ग जाने का पासपोर्ट मिल सकता है। हम धनी वर्ग को तो नरक जाना ही है, इसलिए इस जन्म में ही सामान्य सुख भोग कर लें।'' परलोक के अनन्त नरकवास के बदले में इस जन्म का क्षणिक—स्वर्ग धनिक वर्ग ने क्यों चुन लिया है, इस रहस्य की व्याख्या आज तक किसी शास्त्रकार से नहीं की है। धर्म क्या है, जानती हैं? एक जमाने में पोप ने अपने दिवालिये सन्दूक को भरने के लिए धर्म के नाम पर दलाली की थी, यानी नगद धन के बदले में स्वर्ग जाने का प्रवेश पत्र बेचा था। इस्लाम के अनुसार एक काफिर को अल्ला के विश्वासी बनाने पर पुण्य मिलता है। दूसरों की मुक्ति के लिए इतना सरदर्द क्यों? और उस सरदर्द के लिए शास्त्रों में पुण्य का लोभ €यों दिखाना चाहिए? इसका कोई तर्क नहीं है, यह है नवनिर्मित अरबीय जातीय चेतना और उसका प्रतिनिधि अरब के पूँजी-स्वार्थ के प्रसारवादियों के बीच। इस्लाम के इस अनुशासन के कारण एक समय में स्पेन इण्डोनेशिया तक करोड़ों काफिरों को तलवार के बल पर अल्ला का अनुयायी बनाया गया था, इस पुण्यव्रत के लिए लाखों दरिद्र सैनिकों ने जीवन की आहुति दी थी। इस भाग्य के बदले में लाखों अनजान सैनिकों को बहिश्त् मिला था या नहीं, पता नहीं मगर मुट्ठीभर बादशाह, अमीर-उमरा को जो इस जन्म में ही बहिश्त का सुख मिला, उसका प्रमाण इतिहास में है। हिन्दुओं के धर्म-मन्दिरों में युगों से पड़े हुए स्वर्ग वैभव से करोडों लोगों को इस जीवन में दरिद्रता के नरक से मुक्त किया जा सकता है, परन्तु उसके दरवांजे पर बैठे हैं धर्म के पंडे, स्वर्ग में दलाल ब्राह्मण।...इस धर्म के लिए ही पूर्व बंग के मुसलमानों ने अपना हाथ हिन्दूओं के खून से लाल किया था। असल बात €या जानती हैं? इतिहास के नेताओं ने उन्हें शराब पिला दी थी—धर्म की शराब! शराब न पीने पर स्वस्थ हालत में €या आसन्न प्रसवा स्त्री का घर्षण कर सकता है?''
एक सांस में लम्बा भाषण झाड़ कर युवती की तरफ सर उठाकर देखा। शायद उसके पूछने के लिए और कुछ नहीं है, प्रतिवाद के लिए कोई तर्क बचा नहीं है।
''इस्माइल की कहानी सुनिए, मैंने पुन: शुरू किया—उन्होंने आकर असम के घने जंगलों में नई बस्ती बसानी शुरू की। जन्म से लेकर मृत्यु तक उनका जीवन बना प्रकृति के साथ लगातार संग्राम। वे इस धरती की वीर सन्तान हैं। किसी हानि से वे टूटते नहीं। हर साल ब्रह्मपुत्र की उफनती बाढ़ आकर उनके हृदय के रक्त से बनने वाले संसार को तोड़ बहा कर ले जाती है, पुन: नए उत्साह से वे उस संसार का निर्माण करते हैं। इस तरह बारह वर्ष बीत गये। परन्तु 1954 में प्रकृति ने इनके विरुध्द एक नए कौशल का अवलम्ब लिया। ब्रह्मपुत्र के भूक्षरण से हजारों बीघा जमीन नदी में समा गयी। देखते-देखते दो वर्ष के भीतर इस्माइल आदि का गाँव, खेतपधार नद में विलीन हो गये। भूत पर दानव की तरह पेड़ के नीचे आश्रय लेने वाले गृहहीन लोगों पर आक्रमण किया महामारी ने। बीमारी में काफी लोग चल बसे। साथ ही इस्माइल की पत्नी मरी और एक बारह वर्ष का बेटा भी गुजर गया। केवल बच गये एक जोड़े नाबालिग बच्चे...अभी आपने ही कहा था कि जीवन में घटनाएं सोच-समझकर नहीं घटती हैं। आदमी वर्णन करते समय उनमें आवेगों, कल्पनाओं और तर्कों को जोड़ते हैं। मैं भी आपकी तरह कुछ नहीं कहना चाहता हूं। परन्तु इस्माइल के लिए मुझे जरा रोने की इच्छा होती है। खैर, भूक्षरण में सर्वस्व गवाँ कर इस्माइल के गाँव के प्राय: एक सौ लोगों ने सरकार के सामने जमीन के लिए आवेदन दिया। उस आवेदन का कोई जवाब नहीं आया। परन्तु घर बनाने के लिए कोई फालतू जमीन भी नहीं पड़ी थी। अन्त में प्राणों की रक्षा करने के लिए उन्होंने कानून तोड़ने का निश्चय किया—उन लोगों ने जबर्दस्ती गोचारण भूमि पर कब्जा करना प्रारम्भ कर दिया। ठीक उसी समय मेरा रंगमंच में प्रवेश हुआ।''
''कैसे''—युवती ने पूछा।
''सरकारी कर्मचारी के रूप में सरकार के संरक्षित अंचल को इस्माइल जैसे लोगों के दखल से मु€त कराने का दायित्व मेरे कन्धों पर था। एक दिन मैंने सशस्त्र सिपाही, अमीन और दस-बारह हाथी ले जाकर इस्माइल वगैरह के खिलाफ युध्द प्रारम्भ किया। कानून के आदेशानुसार घरों को हाथी से रौंदवा कर मुझे तोड़ना था। गाँव के एक छोर पर हाथी की पीठ पर बैठकर पूरे गाँव का नजारा देखा। मीलों खुले मैदान में घास, फूंस, झाड़ी और उपलों के बीच में कुछ झोपड़ियाँ। हवा की सनसनाहट से गम्भीर बनी उस आरण्यक निर्जनता और विशाल पृष्ठभूमि में उन एक सौ झोपड़ियों और करुण-कोमल चेहरेवाले निरीह आदिवासी मुझे इतने असहाय और कमजोर लगे कि उनके उस आश्रयस्थल को तोड़ने के बदले सभी को हृदय में समेट कर प्यार करते हुए अभय दान देने की इच्छा मेरे भीतर जागी। अचानक मैंने घर तोड़ने का आदेश दिया। दस हाथी घरों पर टूट पड़े। औरतें और बच्चे चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगे। हवा से उनके क्रन्दन को और विस्तार मिला था। सहसा एक आदमी पागल की तरह दौड़ते हुए मेरे पास आया। वह अपने दोनों हाथों को आकाश की तरफ फैलाकर चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा : अल्ला की दुहाई हुजूर, मेरा घर मत तोड़िए, मेरे दोनों बच्चे चेचक से पीड़ित हैं। इस माघ महीने की ठंड में एक घर नहीं होने पर वे आज रात ही मर जाएंगे। उनकी माता मर गयी है हुजूर, बड़ा भाई मर गया है, उन्हें बहुत दिनों से पेट भर खाना नसीब नहीं हुआ है।, हुजूर...।'' कहते-कहते वह जमीन पर गिरकर रोने लगा। मैंने तुरन्त उसके घर को न तोड़ने का आदेश दिया। परन्तु अमीन ने आकर जवाब दिया कि तब तक उसके घर को तोड़ा जा चुका था।
घर के तोड़ने की बात सुनकर इस्माइल जमीन से उठकर खड़ा हो गया। उसके चेहरे पर अचानक एक असहनीय वेदनामय कठिनता उभर आयी, ''खुदा, इसके लिए मैं सारी दुनिया भटकता रहा,देश छोड़कर विदेश पहुँचा, अपनी बीवी को महामारी के मुंह में ढकेल दिया, आज बीमार टुअर बच्चे को चैन से मरने देने के लिए सिर के ऊपर के एक खरपैल को भी बचा नहीं सका।'' इन बातों को अदृश्य खुदा के उद्देश्य की भाँति कहकर धीरे-धीरे वह मेरे सामने से हट गया। मेरे पास कुछ कहने के लिए नहीं था। उस आदमी का नाम और अन्य विवरण लिख लिया। उसके बाद घर-दरवांजे तुड़वाने का काम खत्म कर मैं अपने घर वापस आ गया।
दूसरे दिन सुबह जगकर बरामदे में खड़े होते ही जो दृश्य देखा, वह मुझे आमरण बौराता रहेगा। मेरे बरामदे पर दो बच्चों के शव, दोनों के चेहरे पर चेचक के विकृत चिह्न। मुझे कुछ समझने में देर नहीं लगी। बाद में जानकारी मिली की जिस रात मैं घर तुड़वाकर आया, उसी रात इस्माइल अपने बच्चों के साथ गाँव से लापता हो गया था। बच्चों का समाचार तो धीरे-धीरे सबको मिल गया, परन्तु इस्माइल के बारे में आज भी कोई नहीं जानता है। जानने का प्रयोजन भी €यों किसी को हो। मगर मुझे उसे खोज निकालना होगा। मानव के बनाये पाशविक कानून और शासन तन्त्र की ओर से मानवता के नाम पर उसके सामने मुझे क्षमा याचना करनी होगी। नहीं तो मरकर भी मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।''
इस्माइल की कहानी समाप्त कर मैं कुछ देर तक मौन बैठा रहा।
युवती से कुछ सुनने की आशा की थी, पर वह भी चुप रही। कमरे को पूरे अन्धकार ने घेर लिया था।
''दीया—बत्ती कुछ जलाना नहीं चाहेंगी?'' मैंने उससे पूछा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
मैं समझ गया, घर को प्रकाशमान कर अब वह किसी ग्राहक को बुलाना नहीं चाहती है।
इस्माइल को मुझे खोज निकालना ही है। द्वार-द्वार उस संकल्प को मैंने दोहराया। परन्तु एकाएक अन्धकार में निश्चल होकर बैठी उस युवती का विचार मुझे परेशान करने लगा। मैं एक आदमी के पीछे-पीछे भाग रहा हूं और वह एक आदमी के आगे-आगे दौड़ रही है। मैं खोजने आया था इस्माइल को। रास्ते में भेंट हो गयी इस वेश्या युवती से। खोज रहा था इस्माइल का समाचार, मिला अन्नदाशरण मुखर्जी का समाचार। परन्तु आश्चर्य है, वे सब एक हैं, उन सबकी कहानी एक-सी है। वे स्वयं समझ नहीं पाने पर भी वस्तुत: वे सभी इतिहास के शिकार हैं। इस युवती को अन्धकार में अकेले छोड़कर अब मैं केवल इस्माइल को कैसे खोजता फिरूँगा? मुझे अब खोजना होगा अन्नदाशरण मुखर्जी को भी। उन्हें पाने पर पता नहीं और किसकी खोज जारी रखनी होगी? संसार के करोड़ों इस्माइल, अन्नदाशरण को खोज पाना किसके वश की बात है? दरअसल उनके एक को जानने से ही सबका समाचार ज्ञात हो जाता है। अब केवल खोज निकालने की आवश्यकता है इस्माइल और अन्नदाशरण के शत्रुओं को, मानवता के शत्रुओं को। समय काफी हो गया था। मैंने उठना चाहकर भी युवती से पुन: पूछा : ''लैम्प जलाओगी?''
इस बार भी उसने कोई जवाब नहीं दिया, न लैम्प जलाने को कोई उत्साह ही दिखाया।
मेरी धारणा बनी कि मेरी सुनायी गयी कहानी के आलोक में वह नए सिरे से विचार करना चाह रही है—इस्माइल आदमी है या मुसलमान ! उसका मन खो गया है इस्माइल शेंख की तलाश में।

(अनुवाद : डॉ. भूपेन्द्र राय चौधरी)

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