ईश्वर की खोज में (ओड़िआ कहानी) : दाशरथि भूयाँ

Ishwar Ki Khoj Mein (Odia Story) : Dasarathi Bhuiyan

दिल्ली से भुवनेश्वर, भुवनेश्वर से बहुत दूर एक देहाती गाँव है वीर राजेन्द्रपुर। गाँव के चौक में बस से उतरते समय अपराह्न के चार बज रहे थे। पेट में चूहे दौड़ रहे थे। कभी वह चौराहा सुनसान रहा करता था। लेकिन अब नाम मात्र के लिए एक छोटे-से बाजार में तबदील हो गया है। प्रबोध सड़क के किनारे एक छोटे-से होटेल में पहुँचे। होटल की दीवारें मिट्टी की थां और छप्पर फूस का। जूठी पत्तल फैंकने के लिए दीवारों के दोनों ओर दो बड़े गड्ढे बनाये गये थे। एक ही कमरे वाले होटल के अन्दर लकड़ी का चूल्हा जल रहा था। होटल के बाहर के बरामादे की दीवार में बने ताक पर कुछ अलुमिनियम के गिलास रखे हुए थे। एक तरफ नाश्ता रखने के लिए दरवाजा विहीन लकड़ी की अलमारी खड़ी थी और दूसरी तरफ ग्राहकों के बैठने के लिए लकड़ी की एक बेंच पसरी हुई थी। बेंच पर कुछ लोग पहले से बैठे हुए थे। प्रबोध होटेल में पहुँच कर बेंच पर बैठे और नाश्ते की फरमाइश की। होटेल के मालिक ने एक अलग नजरिये से उन्हें निहारा और पूछा- दमआलू, बड़ा, इड़लि, चीला है, क्या लेंगे?

चीले की फरमाइश करके हाथ धोने के लिए प्रबोध बरामदे में आये। हाथ धोकर वे जब अपनी जगह लौटे तो देखा कि उनकी जगह को किसी और ने अख्तियार कर लिया था। होटल की बेंच में बैठने के लिए और जगह नहीं थी। इसलिए होटल के बरामदे में बनी सीमेंट की बेंच पर बैठे। कुछ देर बाद एक फटीचर आदमी आया और ताक पर रखे एक गिलास को धोकर प्रबोध से सटकर बैठ गया। वह शायद एक नियमित और परिचित ग्राहक था। उस आदमी के कुछ फरमाइश करने से पहले होटलवाला आकर उसके गिलास में चाय उँडेल कर चला गया। प्रबोध को पता चला कि अब भी भारत के गाँवों में अस्पृश्यता का भेद-भाव है । छोटी जातियों के लोगों को होटल के अन्दर बैठ कर चाय- नाश्ता लेना मना है।

कुछ देर बाद होटलवाले ने प्रबोध को पत्तल में चीला परोस दिया। जिस आदमी ने इसकी सीट को अख्तियार कर लिया था, उसके माथे पर चन्दन का टीका सुशोभित हो रहा था। वे नाश्ता करने के लिए होटल में नहीं आये थे, वे तो अखबार पढ़ने के लिए आये थे। उनके हाव-भाव से पता चल रहा था कि वे काफी बड़बोले हैं। बड़बोले लोग खाली मटके की तरह होते हैं। वे ज्यादा आवाज करते हैं। उनकी बातें नगाड़े की अवाज की तरह मीलों दूर फैल जाती हैं। इसलिए ऐसे लोग समाज को ज्यादा कलुषित करते हैं। अखबार के पन्नों को पलटने के बाद बड़बोले साहब ने एक बार प्रबोध की ओर जहरीली निगाह डालकर अपनी बगल में बैठने वालों को ज्ञान बाँटना शुरू किया- दिन पर दिन इस धरती पर पाप और अधर्म बढ़ते जा रहे हैं। समाज में जाति और धर्म का पालन कोई नहीं कर रहा है। अपनी जाति और धर्म की सीमा में न रह कर लोग अधर्म के कार्य कर रहे हैं। इसलिए भगवान इंसानों को कोरोना महामारी जैसी सजा दे रहे हैं।

सब से दु:खद बात यह थी कि उनके पास बैठे हुए लोग उनकी बातों का समर्थन करते हुए सिर हिला-हिला कर सम्मति प्रकट कर रहे थे। प्रबोध के पास बैठे हुए उस सहृदय दलित व्यक्ति ने काँटे की तरह चुभने बाली बातों से उनका ध्यान हटाने के लिए पूछा- आप कहाँ से आये हैं, और कहाँ जाएँगे?

प्रबोध ने कहा कि भुवनेश्वर से आया और वीर राजेन्द्रपुर शासन गाँव जाऊँगा।

उसने फिर पूछा- “वह गाँव आपका गाँव है क्या ? उस गाँव में आपका घर है?”

प्रबोध ने कहा- “वीर राजेन्द्रपुर शासन में नहीं है। वहाँ से बारह-चौदह मील दूर वीर पुरुषोत्तमपुर गाँव में है। काफी साल बाद गाँव लौट रहा हूँ। लेकिन आज मैं अपने गाँव नहीं जाऊँगा।“

कुछ देर तक चुप रहने के बाद उस आदमी ने फिर पूछा-“वीर राजेन्द्रपुर शासन गाँव में किसके यहाँ जाएँगे I”

प्रबोध ने कहा- “वहाँ एक मठ है। उस मठ में जा रहा हूँ I”

मठ की बात सुनते ही वह आदमी तनिक मुसकराते हुए प्रबोध की दाढ़ियों को निरखने लगा। प्रबोध ने मुसकराने का कारण पूछा तो उस आदमी ने कहा- “बाबूजी हम हिन्दू हैं, फिर भी मठ-मन्दिरों में हमारा प्रवेश मना हैं और आप...?”

प्रबोध ने सोचा कि किस युग में ये लोग जी रहे हैं। प्रबोध की अंगुलियाँ अपनी आप उनकी बढ़ी हुई द़़ाढियों की ओर चली गयीं। अपनी दाढियों में अंगुलियाँ फेरते हुए वे मन- ही मन कह उठे- बेचारे लोग क्यों नहीं समझ पा रहे हैं कि दाढ़ी ज्ञान और शक्ति का प्रतीक है । लेकिन प्रबोध की दाढिय्याँ जिस किस्म की थीं वह गाँव वालों के लिए एक भिन्न धर्म का प्रतीक थीं। जिस देश में जाना है, वहाँ का फल खाना है। दाढ़ी साफ किये बिना इस तरह की कइ असुविधाओंका सामना करना पड़ेगा। इसलिए फौरन उन्होंने दाढ़ी बनवाने का निर्णय लिया। होटल वाले को नाश्ते के पैसे देकर वे सैलून ढ़ूँढ़ने लगे। संयोग से एक सैलून खुला था।

दाढ़ी बनवाने की बात सुनते ही, उनकी दाढ़ी को देखकर सैलून वाले ने पूछा-“तुम कौन हो?”

मैं कौन हूँ! प्रबोध के लिए यह तत्वज्ञान से जुड़ा एक जटिल प्रश्न था। वे दुबिधा में पड़ गये कि क्या उत्तर देंगे? अपनी वृत्ति के बारे में कहना क्या निहायत जरूरी है? फिर वह पूछेगा कि कौन-सी नौकरी कर रहे हैं। तनखाह कितनी है? ऊपर से आमदनी कितनी है? हाकिम हैं या अधीनस्थ कर्मचारी....आदि आदि।

नहीं..नहीं...उस आदमी के पूछने का मतलब वह नहीं था। उनके पूछने का मतलब यह जानना था कि प्रबोध हिन्दू, इसाई या मुसलमान हैं। चौराहे के चारों ओर बसे हुए थे ब्रह्मणों के कई गाँव तथा अन्य सवर्ण लोगों के अनेक गाँव। उनके सैलून में आजतक उस इलाके के किसी दलित ने हजामत बनवाने की हिम्मत नहीं की है। शादी-ब्याह और गृह-प्रवेश जैसे शुभ कार्यों में भी उसे दो पैसे मिल जाते थे। यदि किसी दूसरे धर्म या दलित वर्ग के किसी व्यक्ति की हजामत बनाते हुए उसे किसी ने देख लिया तो वे लोग फिर उसके सैलून में नहीं आयेंगे। ब्याह ओर गृह प्रवेश आदि कार्यों में उसे कोई बुलायेगा नहीं। आज का युग प्रतियोगिता का युग है। इसमें व्यक्तिगत भावनाओं, मानवता और दया के लिए कोई जगह नहीं। इन लोगों की हजामत बना कर वह अपने पैरों में कुल्हाड़ी क्यों मारेगा। इसलिए उसने जाति-धर्म की बात पूछ ली।

सैलूनवाले को क्या उत्तर देगा सोचते-सोचते अपने आप प्रबोध के मुँह से निकल आया- मेरे माता पिता ने मुझे हिन्दू संतान के रूप में पैदा किया था।

टेढ़े उत्तर से सैलूनवाले का मुँह बन्द हो गया। कोई और प्रश्न पूछे बिना ही वह हजामत बनाना शुरू करने लगा। हजामत का काम चल रहा था। प्रबोध ने ईश्वर की खोज में अपने सामाजिक सर्वेक्षण की प्रक्रिया के सिलसिले में पूछा,मैं समझ रहा हूँ कि तुम काफी धर्म विश्वासी और ईश्वर विश्वासी हो। तुम ने कभी ईश्वर को देखा है?

सैलूनवाले ने कहा कि आप पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए, फिर मैं आपके प्रश्न का उत्तर दूंगा-“ मैं पूछता हूँ कि क्या इस दुनिया में नाई नहीं है?”

प्रबोध ने कहा कि कैसा अजीब प्रश्न है तुम्हारा! अब मेरी दाढ़ियाँ कौन बना रहा है? तुम नाई नहीं हो क्या?

सैलूनवाले ने प्रबोध को समझाते हुए कहा- ठीक है! इस दुनिया में ढेर सारे नाई हैं, तो फिर आपके चेहरे पर दाढ़ियाँ क्यों भरी हुई थीं?

प्रबोध ने उत्तर दिया-“चूँकि मैं अब तक किसी नाई के यहाँ गया नहीं था I ”

सैलूनवाले ने समझा दिया-“ईश्वर वैसे हैं। सभी ईश्वर के पास जाते नहीं हैं। जो जाता है,उसे दर्शन मिलते हैं I”

हजामत का काम खत्म होने के बाद प्रबोध ने सैलूनवाले की प्रतिक्रिया जानने के लिए उसकी ओर पैसे बढ़ाते समय मजाक में कहा-“मैं एक इसाई हूँ। यह जानकर कि तुम मेरी दाढ़ियाँ नहीं बनाओगे, मैंने झूठ-मूठ में खुद को हिन्दू बताया था I”

प्रबोध वहाँ से लौट रहे थे। धर्म नष्ट होने के आतंक से आतंकित होकर सैलूनवाले ने गालायाँ बकना शुरू कर दिया, जो प्रबोध के कानों में साफ गूंज रही थीं। वे गालियाँ ओिड़या लोक साहित्य के लिए काफी दुर्लभ थीं ओर संग्रह करने के लायक थीं। उस तरह की गालियाँ अब शहरों में सुनने को मिलती नहीं है।

प्रबोध चार मील का रास्ता पैदल चल कर वीर राजेन्द्रपुर शासन गाँव में पहुँचे। बचपन की बातें याद आने लगीं। प्रबोध और चक्रधर दोनों मित्र थे। प्रबोध और चक्रधर के बचपन की स्मृतियाँ एक बहुमूल्य पुस्तक की तरह थीं, जिसके प्रत्येक अक्षर में हीरे, मोती और मानिक जड़े हुए थे। उनकी मित्रता आकाश की तरह विशाल थी, जिसमें चाँद मुसकरा रहा था, सूरज चमक रहा था और तारे झलक रहे थे। समय के प्रवाह ने दोनों को अलग कर दिया था। प्रबोध पढ़ने के लिए दिल्ली चले गये । वहाँ शोध कार्य किया और प्राध्यापक बने। मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित हुए और धर्म को अफीम कहकर धर्मच्युत हुए। सेवा निवृति के वाद आजकल वे उत्तर आधुनिक हेतुवादी गोष्ठी नाम से एक संस्था खोल कर देश के भिन्न-भिन्न स्थानों में लोगों को प्रेरणादायक भाषण देते रहते हैं और ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। उनका तर्क है कि मानव के जीवन में आपदाओंके आने से जो बड़ी-बड़ी समस्याएँ उपजती हैं, उनके समाधान का रास्ता विज्ञान ने ही निकाला है। विज्ञान ने ईश्वर को पराजित किया है। इसलिए मानव के जीवन में ईश्वर का हस्तक्षेप दिन प्रति दिन कम होता जा रहा है। उनके अनुसार ईश्वर मानव मन में उपजा एक भय है, उसके अलावा और कुछ नहीं है। ज्ञानोदय युग के बाद यह विश्व ईश्वर के नियमों के बदले वस्तुवादी नियमों के द्वारा परिचालित होने लगा है। अनेक बड़े-बड़े नैतिक तत्वों का निर्माण भगवान के उल्लेख के बिना भी हो पा रहा है। इसलिए जर्मनी के दार्शनिक फ्रेड़रीक नित्से ने बहुत वर्ष पहले ईश्वर की मृत्यु की घोषणा की। प्रबोध प्रचार कर रहे थे- समय आयेगा, जब ईश्वर पर विज्ञान अपने प्रभुत्व का विस्तार करेगा। उस समय लोगों को ईश्वर से मुक्ति मिल जाएगी।

तीस बर्षों बाद उनका मित्र-प्रेम उन्हे खींच लाया था अपने गाँव की ओर । गरीब परिवार में जन्मे बचपन के मित्र चक्रधर अपने इलाके के मठ के महन्त जी की देख-भाल में धर्म-शिक्षा ली और मठ के महन्त जी के देहान्त के बाद उसी मठ के महन्त बने। संयोग से प्रबोध और चक्रधर दोनों अविवाहित थे। पिछले कई बर्षों से दोनों मिले नहीं थे।

खेतों की हरियाली के बीच बनी गाँव की कच्ची सड़क से होकर जब प्रबोध गाँव पहुँचे, तव शाम ढलने को थी। गाँव की सड़क का दृश्य कुछ निराला था। गाँव के कुछ युवक तालाब के तट पर वैठ कर, तो कुछ बरगद के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ कर मोबाइल में आँखें गड़कर अपने-अपने मनोरंजन कार्यक्रम में मशगुल थे। औरतें बगल में मटका लिये कुएँ से पानी भरकर ला रही थीं। कुछ औरतें तुलसी के बिरवे के पास साँझ बाती दे रही थीं। किसान खेत से लौट रहे थे। छोटे-छोटे बच्चे अपने-अपने घर के सामने सड़क पर खेल रहे थे। गोधूलि की बेला में गायों का झुण्ड घर लौट रहा था ओर उनके खुर के आघात से उड़नेवाली धूल आकाश में फैल रही थी । दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है, पर गाँव जैसा का तैसा पड़ा हुआ है। लोगों के पारंपरिक विश्वासों में भी कोई बदलाव नहीं आया है। प्रबोध को लगा कि वे इं]डिया से आकर भारत में प्रवेश कर रहे हैं।

मठ के अहाते में पहुँचते ही मठ के मठाधीश और सखा चक्रधर ने गले लगाकर प्रबोध का स्वागत किया। मठ के परिवेश और उसके सौन्दर्य को देखकर प्रबोध विमोहित हो उठे। संध्या के दीपों से मठ सुशोभित हो रहा था। सुगंधित धूप से मठ का हर कोना महक रहा था। भक्त सुरीली आवाज में भक्ति के गीत गा रहे थे। लग रहा था कि मठ कोई शांति का दूत हो। चक्रधर ने मित्र प्रबोध के विश्राम के लिए मठ के दाहिनी ओर एक सुन्दर कमरा दिखाया। वहाँ वे काफी खुश नजर आ रहे थे। इतनी खुशी उन्हें अपने जीवन में कभी नहीं मिली थी।

कुछ दिन वहाँ ठहरने के वाद एक दिन प्रबोध ने अपने मित्र से भुवनेश्वर लौट जाने की इछा प्रकट की। लौटने का दिन तय हुआ। यद्यपि अपने गाँव में उनके पूर्वजों की कोई खास संपत्ति नहीं थी, या किससे कोई पारिवारिक संपर्क नहीं था, फिर भी लौटने से पहले वे एक बार गाँव घूम आने के लिए चले गये । गाँव से जिस दिन लौटे, उसी दिन कोरोना की दूसरी लहर के कारण अचानक सरकार ने लॉक डाउन की घोषणा की। लौटने का कोई उपाय नहीं था, इसलिए प्रबोध वहाँ कुछ दिन और रहने के लिए मजबूर हुए। उसके अगले दिन से रोज मन को विचलित करने वाले कोरोना के हृदय विदारक समाचार आने लगे।

मन को हल्का बनाने के लिए वे प्रति दिन आसपास के प्राकृतिक परिवेश का आनन्द लेने लगे। बेल, नीम, अश्वत्थ, बरगद, आम, कटहल, अमरूद, आदि कई प्रकार के पेड़ भरे हुए थे पास के पहाड़ में। पहाड़ में बनी पगडंडियों को देख कर लग रहा था मानो कई विशाल अजगर पहाड़ से जकड़े हुए हों। पहाड़ की गुफा से झरने वाली निर्झरिणी मन को मोह रही थी। निर्झरिणी कल-कल निनाद करते हुए सुन्दर गीत गा रही थी। कोयल, हल्दीवसन्त, डमकौवा आदि पक्षियों का कलरव काफी सुमधुर था। निर्झरिणी नीचे की ओर बह रही थी, नीचे गिरने के बावजूद उसका सौन्दर्य कम नहीं हो रहा था। सौन्दर्य से आँखें भर जाती थीं और मन मुग्ध हो रहा था। उस तरफ पहाड़, इस तरफ निर्झरिणी और बीच में वीर राजेन्द्रपुर गाँव। कितना सुन्दर है उसका नाम।

एक दिन प्रबोध पहाड़ की ऊँचाई तक चढ़ कर थके-मांदे लौट थे। रात को भोजन समाप्त करके शीघ्र सोने के लिए जा रहे थे। चारों तरफ गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। दीवार पर टंगी हुई घड़ी की टिक-टिक आवाज से सन्नाटा हौले-हौले टूट रहा था। घड़ी में साढ़े ग्यारह बज रहे थे। नींद का आवाहन करते हुऐ के लिए वे बार-बार करवट बदल रहे थे। फिर भी आती हुई नींद तीन-तीन बार टूट चुकी थी। पहली बार उल्लू की हू... हू... हू... की आवाज से । दूसरी बार कुतों के भौंकने के कारण और तीसरी बार गाँव के पहरेदार की होशियार... होशियार.... की पुकार से। वे बचपन से ही सुनते आये हैं कि उल्लू का आवाज करना और कुतों का भौंकना दोनों ही अशुभ सूचक और अपशगुन के संकेत हैं। तथापि, यह धारणा जनश्रुति, परंपरा और विश्वास पर आधारित है। इसमें विज्ञान को ढ़ूँढ़ना टेढ़ी खीर है। इसे अंधविश्वास के रूप में लिया जाता है। चूंकी वे एक हेतुवादी हैं, उनका इस पर विश्वास नहीं था।

प्रबोध ने फिर सोने की कोशिश की। पलकें कूछ बोझिल-सी लग रही थीं। धीरे-धीरे नींद उनके नियन्त्रण में आने लगी थी। कहीं से रोने की आवाज उनके कानों में गूँजने लगी। रोने की आवाज के कारण उनकी नींद चौथी बार टूट गयी । उन्होंने खीज भरी आवाज में अपने आप से कहा-ये लोग आज मुझे सोने नहीं देंगे। उनहोंने खुद को ढाड़स बँधाया- कोई रोता है, तो रोने दो, मुझे उससे क्या मतलब है। रोने की उस आवाज को उन्होंने अपने दिमाग से बाहर निकालने की कोशिश की। फिर भी रोने की आवाज लगातार उनके दिल और दिमाग को मथ रही थी। धीरे-धीरे रुदन की सामुहिक आवाज बढ़ने लगी । उन्होंने जानने की कोशिश की कि किसकी मौत से ढेर सारे लोग इकट्ठे रो रहे हैं। सामुहिक रुदन के स्वर को टालना उनके लिए संभव नहीं था। उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि गाँव में किसी की मौत हो गयी है।

प्रबोध मन में जिज्ञासा लिये मठ की ओर बढ़ने लगे। मठ के दरवाजे की कुंडी को हिलाते हुए आवाज दी- चक्रधर! चक्रधर!

उनकी आवाज को सुनकर चक्रधर ने दरवाजा खोला और अन्दर बुलाया। कहा- मुझे पता है कि तुम्हें नींद नहीं आयी होगी।

प्रबोध ने पूछा- गाँव में किसी की मौत हो गयी है क्या?

चक्रधर ने कहा- एक की नहीं। एक साथ एक ही परिवार के तीन लोगों की मौत हुई है। सभी कोविड़ पॉजिटिव थे। शहर में उनका इलाज चल रहा था। उनकी लाश आयी नहीं है। आने की संभावना भी नहीं है। मौत की खबर सुनकर गाँव में दु:ख पसरा हुआ है। गाँव के सभी लोग उस परिवार के बचे हुए बाकी के सदस्यों को तसल्ली देने के लिए उनके दरवाजे पर इकट्ठे हुए हैं। लाश आती तो परिस्थिति कुछ अलग होती। हो सकता है कि लाश को कन्धा देने के लिए कोई नहीं आता। यह सच है कि ईश्वर जिन्हें धन, ज्ञान, शिक्षा और स्वास्थ्य देते हैं, वे उन्हें भूल जाते हैं। जिनके जीवन सिर्फ दु:ख, पीड़ा, गरीबी, बेकारी, बुरी सेहत से भरी हुई है, वे ईश्वर को दृढ़ता के साथ सीने से चिपकाए हुए हैं। इसलिए सभी सिर्फ- हे भगवान, हे भगवान कहते हुए बिलख- बिलख कर रो रहे हैं।

प्रबोध ने पूछा- तो फिर क्या सिर्फ दु:खियों के साथ ईश्वर का नाता है? यानी मानव के दु:ख और दुर्दशा के साथ ईश्वर का सीधा संपर्क है? तब दु:खियों के इस बुरे समय में ईश्वर कहाँ चले गये? जो बर्षों से उनकी पूजा-अर्चना करते आ रहे थे, उन्हें ईश्वर बचा क्यों नहीं पा रहे हैं। इस संकट के समय कोई कह नहीं रहा है कि ईश्वर हमें दवाई या टीका दीजिए। सिर्फ विज्ञान ओर वैज्ञानिकों की लैबॉरटरी पर हमारा भरोसा क्यों है। आज कोरोना महामारी ने सब के मन में डर उत्पन्न किया है। डर वाइरस कोरोना वाइरस से अधिक महामारी है। इस डर के कारण ज्यादा लोग मरेंगे। मौत से पहले काफी लोग जिन्दा लाश में तबदील हो जाएँगे। कोरोना महामारी में तुम्हारे ईश्वर कहाँ हैं?

चक्रधर ने समझाते हुए कहा, दु:ख और पीड़ा से बचने के लिए ईश्वर की प्रार्थना की जा सकती है। लेकिन उसके लिए ईश्वर को उत्तरदायी नहीं ठहरा जा सकता । खुद दु:ख और पीड़ा को सहेंगे तो जीवन में अचानक आनेवाली घटनाओंका हम सामना कर पायेंगे। इसके अलावा हमारे जीवन में ईश्वर की एक सामाजिक भूमिका भी है। धर्म समाज को एक व्यवस्था प्रदान करता है और विभिन्न उपायों से जीने के तरीके को नियंत्रित करता है। इसलिए हर क्षेत्र में हमारे लिए ईश्वर का दयालु ओर करुणाशील होना जरूरी नहीँ है। प्रबोध ने पूछा- तो फिर ईश्वर और विज्ञान के बीच जो प्रतियोगिता चल रही है, उसमें विजय किसकी होगी? कौन दीर्घायु होगा। किसकी आयु कितनी है?

चक्रधर ने समझाते हुए कहा-कोविड़ का टीका लेने के बाद भी कोरोना के जीवाणु से आक्रान्त होकर रोगी मर रहे हैं। कोई भी दवाई काम नहीं कर रही है। सभी प्रकार की चिकित्सा विफल हो रही है और अन्त में मृत्य की विजय हो रही है। ईश्वर के प्राधिकार को चुनौती देने के लिए किया गया वैज्ञानिकों का आविष्कार सफल हो नहीं पाया है। अतीत में इस तरह के कई संकट आये हैं। लेकिन तुम यदि सोचते हो कि उस तरह के उन संकटों को रोकने में ईश्वर असफल हुए हैं, तब भी ईश्वर से कोई भी दूर नहीं हुआ है। लोगों को संकट का समाधान करना ईश्वर का एक मात्र काम नहीं है। वे लोगों को पीड़ा और यातना के बीच जीना सिखाते हैं। जब मानव समाज किसी बड़े संकट का शिकार होता है, तब लोगों को अपने विश्वास और आस्था को कायम रखने के लिए किसी सान्त्वना के स्रोत की आवश्यकता पड़ती है। ईश्वर उस सान्त्वना के स्रोत हैं। अज्ञात की असीमता और विज्ञान की सीमितता के बीच ईश्वर की सत्ता स्थित है। यह सच है कि विज्ञान की प्रगति के साथ कई असमाधित समस्याओंका समाधान हुआ है। तथापि अब भी बिज्ञान की सीमा के बाहर बहुत कुछ अज्ञात है। विज्ञान की व्याख्या के बाहर जो है, अब तक उसे हम लोगों ने ईश्वर का नाम दिया है। अब भी बहुत कुछ ज्ञानातीत है, भविष्य में उसका पता लगेगा। इसलिए ईश्वर की आयु लम्बी होने जा रही है। आजकल कोरोना महामारी के समय ईश्वर और ज्यादा शक्तिशालीr होने जा रहे हैं। क्यों कि विज्ञान इस बिषय में पहले से सूचना देने, रोग के कारण को जानने और उसका निराकरण करने में विफल हुआ है।

एक लम्बा और बड़ा भाषण सुनने के बाद प्रबोध ने कहा-में तुम्हारी बात मानता हूँ । विज्ञान विफल हुआ है, इसलिए ईश्वर की आयु लम्बी होने जा रही है। यह भी ठीक है। पर ईश्वर कौन हैं? ईश्वर रहते कहाँ हैं?

चक्रधर ने समझाते हुए कहा- इस धरती के सभी प्राणियों में ईश्वर विद्यमान हैं। फूल में खुशबू है, लेकिन हम उस खुशबू को देख नहीं पाते हैं। हम उसे सिर्फ अनुभव करते हैं। ठीक उसी तरह हमारे अन्दर ईश्वर हैं। हम चाहेंगे तो अनुभव कर सकते हैं। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर और ईसा मसीह हमारे ईश्वर हैं। उन्हें भी ईश्वर ने ही बनाया है । उनके उत्तम कर्म के कारण हम ने उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार किया और स्वीकृति दी। ईश्वर की प्रतियोगिता से निर्मल बाबा, आशाराम बापू और राम रहीम बहिष्कृत किये गये। जिनके कर्म ईश्वर के आदर्श जैसे हैं, उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकृति मिली। जिनमें क्रोध, लोभ, मोह, माया, ईर्ष्या, हिंसा, दुष्कर्म नहीं है, जिनके मन में मानव के लिए पीड़ा है, जो संकट से मानव जाति का उद्धार करते हैं, जिन्होंने मानव-सेवा को जीवन का ब्रत बना लिया है, जो सत्य के पुजारी हैं, जिनमें ये सारे ईश्वरीय गुण हैं, वे ईश्वर की स्थिति में पहुँच गये हैं। इसलिए ईश्वर एक स्थिति और आदर्श हैं। ईश्वर का निवास सब में है। ऐसे व्यक्ति जीवित ईश्वर हैं। विज्ञान की सीमा के बाहर जो कुछ अज्ञात है, वह अदृश्य ईश्वर है। भविश्य में ऐसी घटनाएँ अचानक घटित होंगी, जिनके बारे में विज्ञान कुछ जान नहीँ सकता। इसलिए ईश्वर की आयु लम्बी होने जा रही है। ईश्वर दीर्घायु बनने जा रहे हैं। इसलिए तुम भी एक ईश्वर हो।

मैं भी एक ईश्वर हूँ? प्रबोध चौंक उठे। पूछा- “ मैं कैसे एक ईश्वर हूँ”

चक्रधर ने समझा दिया –“तुम इस संसार से अंधविश्वास, कुसंस्कार आदि को दूर करने के लिए सतत प्रयास कर रहे हो, दलित और वंचितों के दु:ख को समझ रहे हो। इसलिए तुम भी एक जीवित ईश्वर हो।“

पौ फटने वाली थी । सूरज के निकलने से पहले आसमान में प्रकाश देखने को मिला । पुजारी ने मठ के मन्दिर के अन्दर प्रात: कालीन शंख बजाया। शंख की ध्वनि चारों ओर गूँजती रही । रोने की आवाज आहिस्ते आहिस्ते शांत हो रही थी।

मित्र चक्रधर की बातों को सुनकर ईश्वर की खोज में अपने सामाजिक सर्वेक्षण को उसी दिन से समाप्त करने की प्रबोध ने घोषणा की।

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