इनसान यानी, इनसान यानी, इनसान (गुजराती कहानी) : दिनकर जोशी
Insaan Yani, Insaan Yani, Insaan (Gujarati Story) : Dinkar Joshi
मुझे बहुत डर लगता है।
किसका कैसा डर लगता है, ऐसा अगर आप पूछेंगे तो मैं जवाब नहीं दे पाऊँगा। समझे आप? मैंने कहा कि मैं जवाब दे नहीं पाऊँगा, दूँगा नहीं, ऐसा नहीं कहा। अकसर ऐसा ही होता है। यह दोनों के बीच का भेद आप समझेंगे नहीं और मान लेंगे के मैंने जवाब ही नहीं दिया। लेकिन कोई बात नहीं। आप कई ऐसी बातें मान लेते हैं, जिसके बारे में आप कुछ जानते नहीं। फिर आप भी मेरे बारे में ऐसा ही कहेंगे, मुझे यकीन है। जाने भी दीजिए, मुझे डर लगता है और बेहतर होगा कि मेरा डर मेरे पास ही रहे।
उस दिन ऐसा लगा कि खाट के नीचे छिपा हुआ तेंदुआ यकायक कहीं झपटेगा। फिर ऐसा सोचने पर मुझे हँसी आई। चौदह मंजिल वाली इमारत के ग्यारवहीं मंजिल पर बारह सौ फीट के विस्तार वाले आलिशान फ्लैट के शयनखंड में तेंदुआ कहाँ से आएगा? जानता हूँ, ऐसी सोच पागलपन है, फिर भी यह सच है कि खाट के नीचे छिपे तेंदुए का मुझे डर लगता है। कभी ऐसी आशंका होती है कि शयनखंड की छत कहीं मुझ पर टूट पड़े। यह संभव नहीं है क्योंकि बहुत ठोस इमारत है। फिर भी सोचने लगता हूँ कि नई निर्माण की गई इमारत उसके कमजोर ढाँचे के कारण टूट पड़ने के वृत्तांत अखबारों में अकसर आते रहते हैं, वैसा ही वृत्तांत कल यह इमारत के लिए भी आए, उसमें असंभव क्या है?
स्नानकक्ष में स्नान करने जाता हूँ, तब साँप का डर पीछा नहीं छोड़ता। बचपन में गाँव के मकान में अकसर साँप निकलता था। पर आजकल नाग पंचमी के दिन भी सपेरा साँप लिये राह पर नजर नहीं आता और मुझे साँप के दर्शन हुए भी बरसों बीत चुके हैं, फिर भी स्नानकक्ष में साँप होगा, ऐसा डर लगता ही है।
सच बोलूँ, आप भले मानो या न मानो, पर मुझे सबसे अधिक डर भूत का लगता है। अर्धरात में खुली खिड़की से कोई भूत भीतर आ जाएगा ऐसा खयाल आते ही मैं डर से काँपने लगता हूँ। भूत का स्वरूप कैसा होता है, वह मैं नहीं जानता, इसलिए खुली खिड़की में खुले आसमा में दिखाई पड़ते बादलों के अलग-अलग स्वरूप को मैं भूत समझ लेता हूँ। भूत के कई स्वरूप हो सकते हैं, जबकि इनसान का एक ही स्वरूप होता है।
पहले घर से ऑफिस आने पर अकस्मात् का डर रहता था। कोई मोटर साइकिल या मोटर कार से टकरा जाऊँगा, या कहीं टंटा-फसाद होगा...फिर पुलिस...अस्पताल...न जाने क्या क्या...! अब ऑफिस से घर आते वक्त भी ऐसा ही डर लगता है। कम या ज्यादा...घर या ऑफिस...सड़क पर चलते-चलते या बगीचे में टहलते...हर वक्त डर लगने लगता है। ऐसा लगता है कि अकेले शांति से घूमने का या टहलने का यह वक्त भी अब खत्म हो जाएगा और फिर से वह ही डर...। हे ईश्वर!
डर से बचने के लिए एक दिन घर से अकेला ही निकल पड़ा। यह बाहर निकलने का वक्त नहीं था। घर में रहने का वक्त था। ऑफिर जाने का वक्त भी नहीं था। कहाँ जाना है यह सोचा नहीं था। लेकिन जहाँ किसी का डर ना लगे ऐसी जगह मुझे जाना था।
आप यकीन नहीं करेंगे किंतु कुछ ही मिनटों में, जिससे भाग रहा था वह डर ही मेरे सामने प्रत्यक्ष हो गया। मैंने सहसा चौंककर अपने इर्द-गिर्द देखा। राह में सन्नाटा छाया हुआ था। सब कुछ अदृश्य हो गया था। हर रोज भटकनेवाले लावारिस कुत्ते भी आज नहीं थे। मकानों के द्वार बंद थे। बंद कमरों में जलते दीयों की रोशनी भी गायब थी। मैंने सामने देखा तो एक विशाल वृक्ष के तने के पास एक महाकाय शेर मौज में लेटा था और उसकी चमकीली दो आँखें मुझे घूर रही थीं।
यहाँ शेर कहाँ से आया, ऐसा पूछना मत, क्योंकि इस कहानी में ऐसा बहुत कुछ घटित होनेवाला है, और अभी से ऐसा पूछना आरंभ करोगे तो कहानी आगे पढ़ नहीं पाओगे। पौराणिक कथाओं में ऐसा बहुत कुछ बनता है जिस पर पहली नजर में यकीन नहीं आता। उसका मतलब यह नहीं कि ऐसा हो नहीं सकता। हमारी समझदारी भी तो शून्य हो सकती है।
‘अरे ओ! मुझसे डर गए क्या?’ अचानक मैंने यह शब्द सुने। अपने कानोंकान सुने। सामने लेटे हुए शेर ने अपना जबड़ा फाड़ा, हँसते-हँसते यह कहा। शब्द शेर के थे, पर उच्चारण और भाषा इनसान की मेरी और तुम्हारी थी।
मेरा डर और बढ़ गया। शेर को क्या जवाब दूँ, यह सूझा ही नहीं। मेरे व्यथा शेर ने समझ ली। उसने शायद अपने महाविद्यालयों में कोई उपाधि नहीं ली होगी, अतः समझदार था। जैसे बच्चे को फुसलाता हो, वैसे प्यार से वह बोला। ‘डरो नहीं बालक, मैंने अभी ही भोजन कर लिया है। पेट भर जाने के बाद अगर सामने अमृत कूपी पड़ी हो, फिर भी मैं परवाह नहीं करता। मैं शेर हूँ, शेर, वनराज।’
मैंने ऐसा कभी सुना नहीं था। पेट भर गया हो और फिर अगर सामने अमृत कूपी पड़ी हो, फिर भी उसे ध्यान में नहीं लेना, ऐसी कल्पना मेरे दिमाग में कभी आई नहीं थी। जिनकी जेब खचाखच भरी हो, किंतु देवालय के दान-पात्र में दस का जाली नोट सरका के पाँच का सिक्का उड़ा ले ऐसे कई भक्तजनों को मैंने देखा था। कई बार खा सके उतना भोजन थाली में परोसा गया हो फिर व्याकुल होकर दूसरों की थाली में झाँकनेवाले बेशुमार स्नेही, स्वजन और संबंधियों को मैं जानता था। पर यहाँ तो एक शेर था।
‘जाओ भाई, अब मुझे नींद आ रही है और नींद के वक्त जागना हमें रास नहीं आता। हम तो सोने के वक्त सो जाते हैं और जागने के वक्त ही जागते हैं। इतना कहकर शेर ने करवट बदल के आँखें बंद कर लीं। शेर सो गया। पलक झपकते ही गहरी नींद में चला गया। पर शेर के वह विकराल जबड़े का डर यों मुझमें घुस गया था कि मेरे कलेजे की धड़कन बंद ही नहीं हो चली थी। मैं वहाँ से दुम दबा के दूसरी ओर भागा। अब शेर दिखता नहीं था, अतः मेरा डर थोड़ा कम हो गया।
किस्मत कठोर हो तो नाई को अपने औजारों के थेले में से काटे यह कहावत आपने सुनी है? देहाती कहावत है, इसलिए शायद भूल गए हो। शयद नाई या नापित शब्द भी आपके शब्दकोश से निकल गए हों। जाने दो, तुम्हें सिखलाना मेरा काम नहीं है। आपने इतना सारा सीख लिया है कि नया कुछ सीखने की अब शायद गुंजाइश ही न रही हो।
सहमा अंधकार में कहीं कोई कोने से रोशनी जगमगाने लगी। ऐसी दीप्ति मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। लाल रंग नीला, पीला, केसरिया, गुलाबी तरह-तरह की तेजलकीरों से सारा पथ तेजोमय हो गया। अद्भुत तेज था। उसे देखते ही मेरा अंग-अंग आलोकित हो उठा। पर यह प्रकाश आया कहाँ से? मैं अपनी दाहिनी ओर मुड़ा।
‘बाप रे!’ कोने में एक जबरदस्त नाग ढेर होकर पड़ा था और उसके फन पर एक चमकदार मणि जगमगा रही थी। अब मैंने प्रकार की ओर से नजर हटाकर नाग की ओर देखा। इतना प्रचंड साँप! अब इससे कैसे छटकना? वहाँ से उसकी फुफकार ही मौत के लिए काफी है, काटने की आवश्यकता ही नहीं। बचने का कोई मार्ग अब दिखता नहीं था। मरते वक्त इनसान जिसका ध्यान करता है, दूसरे जन्म में उसी का अवतार उसे प्राप्त होता है, ऐसा मैंने गीता में कहीं पढ़ा था। दुविधा यह थी कि मौत का पल जब सामने था तब ध्यान किस का किया जाए यह सूझता नहीं था। मेरा गला सूख रहा था। हृदय धड़क रहा है कि बंद हो गया है वह भी समझ में नहीं आ रहा था। तब यकायक—
‘ओ बालक! मेरे सामने से चला जा, मुझे तुझसे डर लग रहा है।’ सर्प भी ऐसी बानी बोल सकता है, ऐसा मैंने सोचा नहीं था। पर सर्प ही बोला था। मेरा थरथराना अब बंद हो गया था। अजीब बात है। सर्प को मुझसे डर लग रहा है? पुराजन काल में ऋषिवृंद ऐसी प्रार्थना करते थे कि ‘हे ईश्वर, मैं किसी से डरूँ नहीं और कोई मुझसे न डरे।’ पर यहाँ तो विपरीत बात है, मैं सर्प से डरता हूँ और सर्प मुझसे डरता है।
किंतु अब कुछ घटित हुआ। सर्प ने बिना किसी संचार के अपना मुँह खोला और उसकी लंबी और पतली जिह्वा में भरे विष के भंडार का मुझे दर्शन हुआ। मेरे थरथराना फिर से शुरू हो गया। विष के इस महानिधि के तरंग का एक बूँद भी यहाँ तक पहुँचे तो...
‘अरे! इतना थरथराता क्यों है? मेरे मुँह पर तो ताला लगा हुआ है।’ सर्प ने कहा। पुरा कथा में पशु-पक्षी बोलते हैं, वैसे ही साँप बोला। मैं इसका पूर्वार्थ समझा पर उत्तरार्ध मेरे मुँह पर तो ताला लगा हुआ है—वह समझ में न आया।
‘ताला? यानी?’ मैं पूछे बिना रह ना सका, ‘तू तो कभी भी काट सकता है। देख, मेरी जहर से भरी जिह्वा कैसे लपक रही है। उसे ताला कैसे लग सकता है?’
‘नासमझ क्यों है भला? तुम्हें नितांत सच का पता ही नहीं, ‘सुनो’ ऐसा कहकर नाग ने चेतनवान होकर अपने फन को आगे किया। मैं सहम गया था। मेरा तन बदन चेतनहीन बनकर शिथिल होने लगा। साँप मेरे मनोभाव समझ गया हो वैसे जोर से हँसने लगा। साँप जोर से हँसा, यह बात आप नहीं मानेंगे, पर मैंने अपनी इन्हीं आँखों से उसे हँसते हुए देखा है और अपने कानों से उसकी हँसी की गूँज सुनी है।
‘ईश्वर ने सभी सर्पों के मुँह पर ताले लगाए हैं। जब किसी के आयु की अवधि समाप्त हो जाए और यमराज ने उसके लिए सर्पदंश का निर्माण किया हो तभी ही ईश्वर वह ताला खोलता है और सर्प उसे डस लेता है। पर इतना कहकर साँप रुक गया और पलभर मुझे एक नजर से ताकता रहा। फिर बोला, ‘पर साँप के विष से किसी इनसान की मौन से जाए ऐसा कभी हुआ नहीं है। और हो ही नहीं कसता। मनुष्य के मृत्यु का कारण साँप का विष नहीं होता।’
‘तो?’ मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं थी।’ फिर तुम्हारे दंश से इनसान मरता क्यों है?’
‘दोस्त! मैं जो कहने जा रहा हूँ, उसे ध्यान से सुन और ठीक से समझ ले। जहर तो आदमी की रगों में और उसके लहू की बूँद-बूँद में पहले से भरा होता है। हमारे दंश से हमारी लार उसके अंग में बहने लहू के साथ सम्मिश्र हो जाती है। पर आदमी की रगों से बहता वह विषाक्त लहू हमारी शुद्ध लार को सह नहीं सकता। सर्प देश का खटका और चौक में उसका जहरीला रक्त डसे ही मार देता है। वह जीवित हो तब तक वह जहरीला नक्त उसकी आँखें और जिह्वा में दूसरों को मारता रहता है। लेकिन हमारी लार की शुद्धि के कारण वह खुद ही मौत के अधीन हो जाता है।’
अजीब था यह विष पुराण। मैं हक्का-बक्का रह गया था। मेरे अंगों में लहू का संचार ही मानो रुक गया था और साँस भी थम गई थी। और अब आखरी बात भी सुन ले, साँप अब तन के खड़ा हो गया और उसके फन पर चमकते वह मणि को नीचे जमीं पर रखकर बोला, ‘इसान तुम्हारी तरह बुजदिल नहीं होते। तू इनसान बनने के लायक ही नहीं है। पर जब बना ही है तो तेरे लिए तय हुई आखरी साँस तक तुझे जीना ही पड़ेगा। ले, यह मणि अपने पास रख और जब तुझे डर लगे तब मणि को हथेली में रखकर हथेली बंद कर लेना। तब तुम औरों की नजरों से अदृश्य हो जाओगे और तुम्हें कोई देख नहीं पाएगा, पर तुम सभी को देख पाओगे।’
इतना कहकर साँप फर्राटे से वहाँ से निकल पड़ा और पलक झपकते ही अदृश्य हो गया। वह मणि संगमरगर की भाँति जगमगा रही थी। मैंने तुरंत उसे उड़ा लिया।
साँप के जाने के चिह्न जहाँ नजर आते थे, उससे विपरीत दिशा में मैं चलने लगा। कुछ ही देर में मुझे यह एहसास हो गया कि वह दिशा विचित्र थी। वहाँ की सारी इमारतें गायब थीं। मैंने सोचा क्या सभी इमारतों ने अपनी मुट्ठी में साँप का मणि तो नहीं रखा है? मैंने चाहा मैं भी अपनी मुट्ठी में मणि रखकर अदृश्य हो जाऊँ। फिर सोचा कि मुझे अदृश्य होने की क्या आवश्यक्ता है। मुझे कोई देख तो नहीं रहा है। देखनेवाला कोई तो होना चाहिए।
सहसा मुझे मेरे इर्दगिर्द कोई न होने का डर लगने लगा। डर के मारे मैं तेज रफ्तार से वहाँ से चलने लगा। लेकिन मैं ज्यादा देर तक वही रफ्तार से चल नहीं पाया। मैंने देखा तो मेरे दोनों ओर बेशुमार पेड़ खड़े थे। दोनों ओर आम, बरगद, पीपल और नीम मके पेड़ नजर आते थे। हवा में तुलसी-पत्र की महक थी। ठोर और कदली वृक्ष भी दोनों तरफ दिखाई पड़ते थे। इतने सारे पेड़ अचानक कहाँ से आए? वृक्षों की शाखाएँ तेज हवा के चलने से हिल रही थीं और विचित्र ध्वनि सुनाई दे रही थी। पेड़ मानों परस्पर गुफ्तगू कर रहे थे। ‘अरे ओ! अभी तू यहाँ क्यों आया है? तुझे डर नहीं लगता?’ मेरे पैर थम गए। मैंने ठीक ही सुना था। मैं अपनी दाहिनी ओर मुड़ा और देखा तो एक विशाल वृक्ष की सबसे नीची डाली पर एक शिकरा-बाज पक्षी बैठा हुआ था। वह इतना विकराल और कुरूप था कि उसे देख दूसरे पंछी तो क्या कुत्ते बिल्ली भी भयभीत हो जाए। शिकरा-बाज शिकारी पक्षी है। चिड़िया, कपोत, फाख्ता और मैना जैसे पंछियों को हवा में ही अपने शिकंजे में लेनेवाला। उसकी निरंतर ताकती हुई गाढ़ी लाल आँखें—
‘आपकी बात सही है, बंधु। मुझे डर लग रहा है। मैंने हिम्मत जुटाते हुए मंद स्वर से कहा। आज तक मैंने पक्षियों का कलरव सुना था पर किसी पक्षी को इस तरह शब्दों का उच्चारण करते हुए नहीं सुना था। बाज को कभी मैंने चिड़ियाघर के पिंजरे में बंद देखा होगा और उसी वजह से ही मैं उसको पहचान पाया। उसकी तीक्ष्ण चोंच और रक्तरंजित पंजा कँपकँपाने वाला दृश्य था। मैं डर रहा था और जब डर से बचने के लिए इधर-उधर भटक रहा था तब वह डर ही मेरा पीछा करते हुए मेरे सामने आ गया था। ‘तू क्यों डर रहा है, बालक? तुझे कभी भूखा सोना पड़ता है? ऊपरवाला तेरी थाली में भोजन नहीं देता है? ठंड और धूप में तुझे छत नसीब नहीं होती? और बतना हो तो तुझे नींद नहीं आती।’ बापू ने मेरे सामने प्रश्नों की बौछार कर दी।
‘नहीं-नहीं, वह सब तो है। नहीं है, ऐसा मैं नहीं कह सकता।’
मैंने जवाब दिया और फिर बोला, ‘लेकिन कोई मुझसे यह लेगा, ऐसा मुझे डर लगता है।’
‘दूसरों से कुछ छीनने में तुझे आनंद आता है? तुझे ऐसी आदत हो गई है क्या?’ बाज ने रहस्यात्मक हास्य से व्यंग्य में कहा। बाज के इस प्रश्न का उत्तर सहमत होकर देना या असहमत होकर यह मेरे लिए दुविधाजनक बात थी। हाँ कहते वक्त जिह्वा पर न आ जाती थी, और न कहते वक्त जीभ लड़खड़ाने लगती थी। ‘सुन’, बाज ने मानों मेरी दुविधा समझ ली हो वैसे बोला, ‘पेट की आग बुझाने के लिए सहस्र भुजाओं वाला ईश्वर मुझे संतोष हो जाए इतने चिड़िया, फाख्ता, कपोत और कौओं को हर दिन भेजता है। इतने सारे पेडों की इतनी शाखाओं में कहीं भी घोंसला बनाकर मैं अपना आत्मरक्षण कर लेता हूँ। मन हो तब अपने जातिबंधुओं के साथ कामशोर कर लेता हूँ।’ इतना कहकर बाज ने धीरे से घहराना शुरू कर दिया।
मेरी थरथराहट बंद हो गई थी पर मेरा गला सूख रहा था। गले की नमी पसीना बनकर मेरे सारे बदन में फैल गई थी। मैंने सोचा, बाज के पास जो कुछ था वह सभी कुछ मेरे पास भी तो था। फिर भी मेरा डर जाने का नाम क्यों नहीं ले रहा था?
बाज ने अपने पंख फड़फड़ाए। उसके फड़फड़ाने से पड़ने की प्रतीक्षा कर रहे पेड़ के कुछ पत्तों को जैसे बहाना मिल गया हो, वैसे वह गिर पड़े। पत्तों के गिरने की वह ध्वनि...मेरा डर न जाने क्यों और बढ़ गया। हृदय जोर से धक-धक करने लगा। यकायक बाज उड़ गया और डरा हुआ मैं फिर एक बार उससे विपरीत दिशा में दौड़ने लगा।
मैं दौड़ता गया...दौड़ता गया...दौड़ता ही गया। ऐसा लग रहा था जैसे वह शेर, साँप और शिकारी-बाज तीनों मेरे पीछे भाग रहे हैं। पलभर के लिए लगा, वह पीछे नहीं पर आगे दौड़ रहे हैं और मैं उनके पीछे घसीटा जा रहा हूँ। और ज्यादा डर न लगे, इसलिए मैंने अपनी आँखें मूँद लीं। आँखें मूँदने से ज्यादा-से-ज्यादा ठेस लग सकती है, गिर सकता हूँ, पर डर तो कम ही लगेगा और खुद को बचा भी पाऊँगा।
धड़ाम!
अचानक पूरे बदन में कँपकँपी सी फैल जाए, वैसी एक जोरों की टक्कर लगी। मानो मेरे पैरों से कुछ टकराया। पर वह ठोकर नहीं थी। अब आँखें खोले बिना और कोई चारा नहीं था। मैंने आहिस्ता से अपनी आँखें खोलीं और किससे टकराया हूँ, वह जानने के लिए अपने हाथ फैलाए।
बाप रे!
मैंने कभी सोचा भी नहीं था, एक भयानक कंकाल मेरे सामने खड़ा था। मेरे मुँह से चीख निकल गई। आँखें खुली ही रह गईं। मैंने देखा तो एक नहीं, कई अस्थि पंजर मेरे चारों ओर नृत्य करते हुए मुझे घेरकर खड़े थे।
‘अरे! तू इतना भयभीत क्यों है?’ मेरे बिल्कुल निकट में खड़े एक अस्थिपंजर ने बड़े आराम से कहा। ‘मुझे तुमसे डर लग रहा है।’
‘हमारा डर!’ दूसरे एक अस्थिपंजर ने और निकट आकर पूछा। अस्थि-पंजरों में नर और मादा अलग होते हैं या नहीं, यह मैं नहीं जानता, किंतु वह अस्थि-पंजर मुझे किसी मादा का क्यों लग रहा था? उसने कहा, ‘हम तो कंकाल हैं, इनसान नहीं। फिर डरने की क्या बात है?’
उसकी आवाज मुझे पहचानी सी लगी। मेरा डर अब कम हो गया था। एक के बाद एक सभी अस्थि-पंजर अब मेरे बिल्कुल निकट आ गए थे। मैंने ध्यान से उनके चेहरों की ओर देखा। चेहरे तो नहीं थे, पर उनके आकार से मुझे लगा, यह तो मट, मटु, गटु और चिंटू हैं। और वह कांता, शांता, उमा और हेमा है। यह सभी को तो मैं पहचानता हूँ। लेकिन ऐसा सोचने पर मेरे रोम-रोम में कँपकँपी सी छा गई। यह सब भले अस्थि-पंजर बन गए हो, पर हैं तो वह ही...और अगर ऐसा है तो भैया मैं भी?
यकायक साँप का दिया मणि मुझे याद आया। मैंने उसे अपने हाथ में लेकर मुट्ठी बंद कर दी। यह सभी अब मुझे देख नहीं पाएँगे।
‘भागो...दौड़ो...यह इनसान नहीं लगता! यह कोई प्रेत है!’
अस्थि-पंजरों में अचानक भगदड़ मच गई थी।
‘मैं प्रेत नहीं हूँ...इनसान ही हूँ।’ मैंने चिल्लाकर कहा।
‘नहीं, तू प्रेत ही है, इनसान नहीं है। मेरी आवाज सुनाई पड़ती है, लेकिन हम तुम्हें देख नहीं पाते। ऐसा फरेब प्रेत ही कर सकते हैं।’
प्रेत यानि प्रेत यानि प्रेत...
सभी अस्थि-पंजर एक साथ फिर से अपनी कब्र में सो गए और उनके कंकालों से बिखरी हुई धूल को फिर से अपने ऊपर फैलाते हुए बोले, ‘और इनसान यानी इनसान यानि इनसान...।’
(अनुवाद : अमृत बारोट)