इमली पुराण (उपन्यास की शुरुआत) : सुंदर रामस्वामी

Imli Puran (Tamil Novel in Hindi Some Part) : Sundara Ramaswamy

इमली का विशाल वृक्ष। तीन राहें यहीं मिलती हैं, बँध जाती हैं। सामने पक्की सड़क। दक्षिण की ओर बारह मील चलकर कन्याकुमारी के तट पर रुकती है सड़क। जलक्रीड़ा का आनन्द उठाने। उत्तर की ओर भी लँबराती जाती है सड़क। तिरुअनन्तपुरम, बम्बई और बाद में हिमालय तक भी चलती जाती है सड़क, चलती जाती है। हिमालय को भी पार करती है, शायद सड़क। पथ वही, जो पदचहि्न पाये.... है न?

इमली के इसी विशाल वृक्ष के पीछे से, पश्चिम से आती हैं, दो राहें। वृक्ष की परिक्रमा कर बँट जाती हैं राहें, पक्की सड़क में समा जाती हैं। इसके बाद, कौन जाने! कहते हैं न, सभी राहें समुद्रतट पर बिछुड़ती हैं, समुद्र पार खो जाती हैं! राहें अधूरी। शुरू कहाँ होती होंगी, खत्म कहाँ होती होंगी?

इमली के इस विशाल वृक्ष तक आने वाले पथ अनगिनत।

बूढ़ा वृक्ष। बुढ़ापा तक बुढ़ा गया है, वृक्ष का। ज़रा हटकर, कुछ देर लगाओ ध्यान। सफेद बालों वाली, रुई का ढेर प्रतीत होते बालों वाली बुढ़िया है, वृक्ष। आँखों में रुई बिछ गयी है। कमर झुक गयी है, शरीर सूख गया है। अन्तरात्मा की न जाने किस परत से आनन्द को ढूँढ़ निकाल पुलकित होती प्रतीत होगी, बुढ़िया।

न जाने कितने बरस पुराना है, वृक्ष। अब तक गौरव सहित जी रहा था, वृक्ष। कुछ दिन और जी जाता, तब मर भी जाता वृक्ष, अपने आप। जल्दबाजी.....मानवजाति की यह विकृति......पछाड़ने के बाद सीना ठोककर विजय घोषणा की यह लालसा। वृक्ष मिटा, मिटा दिया गया। खड़े-खड़े गँवा दी जान वृक्ष ने।

इमली के इस विशाल वृक्ष का जीवन, इसकी मृत्यु। स्मृतिरेखाएँ जीवित हैं, अमिट हैं। कुछेक विषय भुलाए नहीं जा सकते। नहीं?
इन्हीं में से एक है इमली के वृक्ष की यह कहानी।
तीन राहें जहाँ मिलती थीं, बँध जाती थीं....वहीं जहाँ इमली का विशाल वृक्ष राज करता था, कमाल की रौनक थी। जहाँ तक उस चौक का सवाल है, सृजन-कला, सृजन-शक्ति, वहीं आकर पराकाष्ठा के भ्रम सहित मग्न प्रतीत होती थी।

वैसे देखा जाये, तो कर क्या डाला था इमली के इस वृक्ष ने? जहाँ जन्मा, वहीं खड़ा रहा, बस! और क्या! मानवक्रीड़ा का मौन साक्षी। बस! और क्या? इस क्रीड़ा में भाग लिया था, वृक्ष ने? अछूता ही तो रहा था वृक्ष, इस क्रीड़ा से? कि नहीं? आते-जाते की हँसी, आते-जाते का रोना, रोने ही का हँसी का रूप धरना, स्वार्थ, त्याग, त्याग में छिपा स्वार्थ, ईर्ष्या, प्रेम ही के कारण जन्म लेने वाला द्वेष.....यह सब कुछ देखता रहा वृक्ष, देखते खड़ा रहा वृक्ष। और करता भी क्या वृक्ष? मानवजाति के प्रति कौन-सी बुराई की वृक्ष ने? माँगा था किसी से, कुछ भी, हाथ फैलाकर? ही-ही की थी किसी को देखकर? खोदा था गड्ढा किसी के लिए, किसी से मिलकर?

वृक्ष ने आप ही जन्म लिया था। आप ही बढ़ा था वृक्ष। पत्ते निकले। फूल खिले, फलियाँ लगीं। फूल बदलकर फली बनी। पत्तियाँ गायब हईं। पत्तियाँ पक कर गिरीं, धरती को छिपाती। धरती ही में घुल-मिलकर, जननी को शक्ति प्रदान कर, वृक्ष ही में समा गयीं पत्तियाँ। आकाश को टटोलती टहनियाँ। जमीन में राह भुला देने वाली जड़ें। बस। आत्मसम्मान सहित इसी प्रकार जी रहा था वृक्ष। वही, इमली का।

फिर वही बात! देश, दौलत, स्त्री, अधिकार, ख्याति....पासे बना दिये गये हैं। इमली के वृक्ष की क्या औकात? बना दिया गया पासा।
इमली के वृक्ष को मिटा दिया गया।
इस वृक्ष का जीवन बीता कैसे? कैसे हुई इसकी मृत्यु? कहानी यही है।

वृक्ष वही था। वृक्ष के फलने के पूर्व भी वहाँ कुछ तो जीवित रहा ही होगा। इसके बाद भी वहाँ कुछ तो जियेगा ही। ले आया ही जायेगा कुछ, जीने के लिए। मेरा लेकिन यही विश्वास था, पूर्ण विश्वास, कि चौक वीरान हो गया है। इसका यह अर्थ नहीं, कि सब यही सोचें, कि इमली का वृक्ष जहाँ खड़ा था, वह चौक वीरान हो गया है। चौक वीरान हो गया है। यह मेरा अपना विचार है। बस!

इमली का वृक्ष चौक पर नहीं खड़ा है। आती-जाती गाड़ियाँ, लेकिन, स्थल की, शून्य की परिक्रमा कर रही हैं। न हो परिक्रमा, तब न जाने कौन गाड़ी, किस से टकराये? नियति। इमली के विशाल वृक्ष का पाठ। सम्भव है, परिक्रमा करने वाले पाठ को स्वीकारते हुए शर्माएँ। चलिए....सब जियें, और क्या!

मनुष्य ही ब्रह्मा है, विष्णु, शिव। दामोदर आसान बार-बार यही कहा करते थे। तत्त्ववादी थे, आसान। उन दिनों, न हम, न वह, यह कहते थे। मनुष्य वर्ग की पहुँच से दूर किसी भी शक्ति में विश्वास नहीं था आसान का। बार-बार यह कहते भी थे, आसान। जनमत, जनशक्ति....इनमें पूरा विश्वास था, आसान का।

उन दिनों, तत्त्व को लेकर कोई चि‍न्ता नहीं थी, हमें। तो क्या हुआ? हम छाया की भाँति आसान का पीछा करते। आसान के इर्दगिर्द घूमते रहते, हम। सारा दिन आसान के साथ बिताना। यही एक इच्छा थी उन दिनों। पिता, स्कूलमास्टर और पुलसिया। इनके अलावा किसी से नहीं था, डर।

कोई पिता नहीं था उन दिनों, जो आसान को पसन्द करता हो। कोई ऐसा लड़का नहीं था उन दिनों, जो आसान से दूर रहना चाहता हो। आसान के साथ घूमने-फिरने के लिए बार-बार वही डाँट-फटकार। आसान के साथ घूमने के कारण स्कूल के सभी मास्टरों का वही लाल चेहरा। कभी-कभार आसान के साथ सारी शाम और रात का बड़ा भाग बिताकर घर लौटते, तब आधी रात हो चुकी होती थी। दरवाजा ठोकते जाते। खोलता कोई नहीं। बाहर बरामदे ही में सो जाते। दूसरे दिन फिर वही कहानी। आसान से कहाँ मिलें?

आसान से स्थापित इस निराले प्रेम का कारण था। वशीकरण मन्त्र नहीं था उनके पास। सागर थे लेकिन आसान, तिजोरी थे कहानियों के। इतनी सारी कहानियों का बोझ! कौन उठा सकता है? क्या ढेर था काहानियों का! इस ढेर में कितने अजीब पात्र! एक से एक अजीब! कैसी-कैसी विकृति! कैसा टेढ़ा-मेढ़ा दिमाग! घण्टों बातचीत होती। घर लौटकर लेटना ही था, बस! न जाने किन-किन कहानियों के पात्र जी उठते, उछलते, कूदते। सबकी अपनी-अपनी आवाज़। कान फाड़ती थीं आवाज़ें।

उन दिनों, जब हम आसान के साथ कई-कई घण्टे बिताया करते थे, तब वह कम-से-कम अस्सी के थे। त्रेसठ.....उनका कहना था। अस्सी के हो गये...फिर भी चट्टान की तरह मजबूत। इस इशारे भर से चिढ़ते थे, आसान। त्रेसठ....आसान का यह कहना विश्वसीय था। शरीर में कमजोरी का नाम नहीं। सुई में धागा अब भी पिरो सकते थे। एक ही साँस में सौ नारियल की छाल उतारना कठिन नहीं था आसान के लिए। हवा ही रफ्तार से दिन में पाँच मील का चक्कर काटना मामूली-सी बात थी। कंधे कसे हुए, मानो दो नुंगाफल बाँध दिये हों। छाती पर, कलाई की ओर उतरते बाजुओं पर, घुँघराले बाल।

“आ, बे....मुछक्कड़, ओए! आ मोड़....” आसान दायाँ हाथ आगे करते। हम एक के बाद एक लटक जाते। बाजू ज्यों का त्यों।
“आ जा, ओए, बाम्हन! मोड़ दे, बाजू! बाम्हन का यही तो काम है। पहला काम यही, बाम्हन का। पालक की डण्डी समझ रखा है? हाय, हाय! होय, होय! बस? यही है, ताकत बे?”
मैं पूरी ताकत लगाकर, हारकर, बैठ जाता।

उन दिनों, कॉलिज के छूटते ही, घर आ, किताबें पटक, पाँच बजते ही पहुँच जाते हम, वहीं। सड़क का नाम था, आसारी पल्लम रोड। सड़क पर जोसेफ की लाण्ड्री भी थी। आसान इसी दुकान के सामने धरी बेंच पर हमेशा बैठे होते थे। मास्टरजी की बेंत जितनी मोटी, छ: हाथ लम्बी, मूठ वाली छड़ी, दोनों टाँगों के बीच थमाई। मूठ आसान के सिर से दो अंगुल ऊपर। मूठ पर आसान दोनों हथेली गूँथे हुए। छड़ी सड़क पर जमी धूल की परत में तीन दस्ते धँसी हुई।

ज्यों ही हमें देखते, वेष्टी उठाकर, इतना ऊँचा कि लंगोट दिखे, आसान चल पड़ते। चलते-चलते आसान मुहँ खोलते तक नहीं थे। पीछे-पीछे चलने वाले हम एक-दूसरे से कुछ-न-कुछ कहते ही जाते। बस, दो मील। वहीं, जहाँ खँडहर था। न जाने किस जमाने में, राजकुल, हत्यारों को वहीं फाँसी चढ़ाता था। देखते जाओ, बस। अपना इतहिास दोहराता था, खँडहर। दो ही मील तय करके हम पचास बरस पीछे पहुँच जाते।

उन दिनों वहाँ एक पगली भी रहती थी। लगता था, कोई यूरोपीय महिला, बेदिंग पूल में कूदने वाली है। पगली ठीक उसी प्रकार खड़ी हो जाती। खँडहर ही में रहती थी, पगली। खँडहर के सामने आसान बैठ जाते। हम भी। इस तरह, कि उनका चेहरा हम सब देख सकें। रास्ते में खरीदी, कमर में बाँध ली गयी पोटली आसान के सामने धर देता, एक लड़का। दो गट्ठी पान, ईत्तामुज़ी का। कच्ची सुपारी, दस या पन्द्रह। जाफना का तम्बाकू, नम्बर वन, दो चिकोटी।

पान मुँह में डाल, पीक थूक, चारों ओर नजर दौड़ाते आसान। “हम्म्म्म्म्म्! हम्म्म्म्म्म्....” निरर्थक शोर समेत आसान गले में फँसी पीक निकालते। कहानी शुरू होने वाली है.....यही था मतलब शोर का।

“एक था राजा....” कहानी यूँ थोड़े ही शुरू होती? बुआ, दादी, अम्मा की थीं, कहानियाँ? कहानियों का परिचित प्रारम्भिक चरण आसान के लिए वर्जित था। पुरानी थी प्रथा, निरर्थक, निर्जीव।
आसान किसी पौधे को गौर से देखते। “जानता है कोई....कौन पौधा है?”
हम एक-दूसरे को देखते सिर हिला देते।
“नहीं मालूम? आँखें जिस तरह फाड़कर देख रहे हो, साफ पता चल जाता है...नहीं मालूम। चलो! दो पत्तियाँ निकालो....मसलो...अब सूँघो।”
कुछेक वही कुछ करते।
“बास कैसी है, बे?”
सूँघने वालों को कुछ नहीं पता चलता।
“कोरे कपड़ों की नहीं है, बास? बाँस के डिब्बे में बन्द कोरे कपड़ों की?”
आसान ने किस कमाल से पकड़ ली है, बात। आश्चर्य में डूबते हमारे चेहरे।

“बस! यही खिलाकर मंगलसूत्र बाँधने वाले ही को मार डाला, पापिन ने। औरत जात कर सकती है, यह काम? दूसरे के गले लटकने की थी चाह। चाण्डालिन की यही थी चाल! दमदार थी, पापिन! क्यों किया छिनाल ने यह सब कुछ? मंगलसूत्र बाँधने वाला लँगड़ा था, लूला था? अँधा, या टूटी कमर वाला? या फिर रखी थी किसी और को....यूँ ही? चाहे कुछ भी रहा हो, कारण....एक-एक फसल के बाद सौ-सौ बोरे धान के आ जाते। हर दिन पिछवाड़े में केले के पचास पत्ते। गउएँ इतनी, कि आधा घण्टा लग जाये इन्हें बाहर निकालने में, अन्दर ले आने में। गया था वह, वड़चेरी के मेले में बैल खरीदने। ले आया था, दो....अरबी घोड़ों की तरह दौड़ने वाले, दोनों के दोनों। गधा लौटा घर। पापिन के लिए फूल भी लाया, बालों में गूँथने। ढेर सारे फूल लाया था। गधे ने सोचा दूध ही है। पापिन ने काम पूरा किया। गधे ने खून की उल्टियाँ कीं...दो बार। बस....खत्म....कुलोस!”
आसान की बात उस शाम यूँ शुरू हुई थी।
“देखते जाओ! मिट्टी को आसमान पर चढ़ा दूँगा। तैरेगी मिट्टी आसमान में!”

मदारी जिस प्रकार न जाने कौन-सी बोतल दवा के नाम बेचते हुए बाज़ार में चिल्लाता है, उसी प्रकार कहानी सुना रहे थे, आसान। और अब पान चबा रहे थे, आसान। इसके बाद ही आती है बारी ज़हर देने वाली के बचपन की। उसका गाँव, उस गाँव का परिवेश, रीति-रिवाज, रिश्ते, दुश्मनी, मन्दिर, त्यौहार....सब की बारी आती थी। तनाव ज्यों ही खिंचकर पराकाष्ठा की सीमा पर पहुँच जाता, आसान पान का नया दौर शुरू कर देते। हमें भुला दिया हो मानो। धूल में पछाड़ दिया हो मानो। यही लगता था, आसान को समय के बीतने का आभास ही नहीं है।

अचानक बड़े गिरजाघर का घण्टा बजता। एक के बाद एक लरजता, लम्बाता नाद सिर पर वार कर रहा है। हमें यही आभास होता। हम सब होश में आते।
घर, अम्मा, पिता, परीक्षा। हम सब घर की ओर कदम बढ़ाते।
आसान की भाँति कहानी सुनाने वाला अब न जाने कौन, कब जन्म लेगा। आसान नहीं रहे। अन्तिम बाजी में भी आगे ही रहे, आसान। इमली के वृक्ष के आगे ही रहे, आसान।
इमली पुराण। इसे हमने आसान ही से सुना था।

हमारा शहर अति सीमित समयावधि में अति विकसित हो गया था। आसान ही की थी यह सूचना। पचास बरस पूर्व, इमली के आसपास उजाड़ था, बस। इसके बाद इमली के इर्दगिर्द झिलमिलाहट शुरू हुई। बढ़ती गयी यह झिलमिलाहट। आसान कमाल के शब्दचित्र खींचते थे। जो स्थान हमने नहीं देखा, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे, वह आसान का देखा हुआ स्थान था। यही नहीं, आसान वह सब कुछ भी देख रहे थे, जो अब हम देख रहे थे। असीमित गर्व के साथ आसान इस तथ्य का रसास्वादन करते। बेशक उलटबाजी लगाएँ, हम। लेकिन जो कुछ आसान ने देखा था, वह हम हरगिज नहीं देख सकते थे।

दामोदर आसान सचमुच ही भाग्यशाली थे।
हमारा शहर, विशेष रूप से इमली के पेड़ के इर्दगिर्द फलता-फूलता शहर, और इसका पुराण। आसान ही ने इसका परिचय हमें दिया था। यदि कुछेक बरस बाद हम जन्म लेते, तब यह पुराण हमें कोई नहीं सुनाता। इतहिासकार इमली पुराण क्यों लिखें?
देखा जाये, तो हम भी भाग्यशाली ही हैं।
उन दिनों इमली के पेड़ को तालाब चारों ओर घेरता था। जमे पानी को इमली ताल ही कहा जाता था। तालाब के बीचोबीच द्वीप-सी उठी जमीन पर था इमली का राज। द्वीप बड़ा नहीं था। दो गुट सटकर गुल्ली-डण्डा खेल सकते थे, बस।
तालाब कभी नहीं सूखता था। सुबह की सभी प्रक्रि‍याएँ यहाँ सम्भव थीं। पानी पर कमल के पत्तों के आकार की काई जमी हुई थी। दुर्गन्ध को ढाँपती थी, काई।
इमली के पेड़ के दक्षिण की ओर, कुछ ही दूरी पर, हवा की लय में भूतों की भाँति नाचते काट्राड़ी वृक्षों का वन। जिनका कोई काम न था, वह इसी वन में आकर नींद में डूब जाते। तालाब के आसपास सुबह की रौनक ज्यों ही शुरू होती, सूअर पूँछ में गाँठ बाँधे दिनभर चरते।

ढाई मील पूरब की ओर इमली के पेड़ के काफी दूर, मेन रोड था, इधर-उधर निकलता-सा। ज्यों ही बारिश होती, गाय, भैंस यहीं चरते। गड़रिये थपथपाकर, बगैर कोई तकलीफ दिये, इन्हें तालाब ही में नहलाते, बाहर भगाते, और स्वयं इमली के पेड़ की ओर दौड़ते। इनके खेल, इनके झगड़े पेड़ के नीचे अजीब शोर के साथ होते। शाम होते ही, गड़रिये गाय, भैंस सहित लौट जाते।

कुछेक वैद्य भी वहीं जड़ी-बूटी की खोज में आते। दामोदर आसान भी उसी उद्देश्य से वहाँ चक्कर काटते। पूरी जानकारी थी उन्हें, इमली द्वीप की।

एक दिन पुराण ने यूँ मोड़ लिया।

“भूले से भी वहाँ जवान लड़की नहीं आती थी। बूढ़ियाँ बेशक आती थीं, गोबर इकट्ठा करने। बच्चे भी जाते थे, वहाँ। जवान लड़कियाँ लेकिन, उस ओर सिर रखकर लेटती भी नहीं थीं।”
“क्यों? कोई साँड आ जाता, कामबाण ताने?” न जाने किसने किया था सवाल।

“छि: छि:! शुरू-शुरू में सब यूँ ही आते-जाते थे। लेकिन, जब कालियप्पन की बेटी के साथ सब कुछ घट गया, तब जाकर बात बदली। उसके बाद...औरत जात पागल जात थोड़े ही है, क्यों जाती, वहाँ? न जाने कहाँ से आया था, वह? कौन गाँव, कौन जात, क्या नाम, कैसी शक्ल, कैसी सूरत...किसी को नहीं मालूम। पकड़ लिया हाथ, ले गया पेड़ के नीचे, और....बस!”

आसान अब तैयार हुए थे, कहानी सुनाने को। यही कहानी इसके पूर्व भी सुना चुके हैं, आसान। सुन चुके हैं हम, यह कहानी। तो क्या हुआ? ऊब जाता है, कोई इसी कारण? कहानी सुनाने को आसान तैयार। कहानी सुनने को हम तैयार।

“बुआई हो चुकी थी। न जाने क्यों, कैसा झगड़ा हुआ। चेल्लत्ताई तालाब के पास से गुजरने वाले पथ पर बिल्कुल अकेली थी। पूर्णिमा थी। चारों ओर सौन्दर्य बिछा हुआ था। बीते दिन खूब बारिश हुई थी। तालाब भरा हुआ था। लहरें दौड़ रही थीं। पानी में, किनारे तक बहती।

“चेल्लत्ताई खुश थी। उतर गयी पानी में। पानी हाथों में भर लिया। पानी मुँह में भी भर लिया। फिर दूर-दूर तक थूका, पानी को। चलो, नहा लो। अब यह सोचा, चेल्लत्ताई ने। बस...उतर गयी झटपट, पानी में।
“आँखों की पहुँच जहाँ तक थी, बिल्कुल सुनसान था। सामने इमली का पेड़। बगैर पत्तों की एक टहनी ने चाँद के दो टुकड़े कर दिये थे। मुग्ध थी, चेल्लत्ताई। खूब नहाई। इसके पहले यूँ कभी नहीं नहाई...यही सोचा।

“अब शरीर केले के तने की तरह ठण्डा हुआ। ठिठुरने लगा, शरीर। यह भी पता चला, काफी देर हो गयी है। बस एक डुबकी और! किया भी वही। एक डुबकी और। सिर निकाला, पानी से। सामने हमेशा की तरह खड़ा था वही इमली का पेड़। न जाने क्यों यह भी लगा, कि पेड़ के पास दो हाथी लेटे हुए हैं। इमली का पेड़ वही, अकेला। चलो...वहाँ तक...यही सोचा चेल्लत्ताई ने, और तैरने लगी।

"इमली के पेड़ के नीचे खड़ी हो, चारों ओर नजर दौड़ाई। पेड़ के पास ही भूत-प्रेत की भाँति नाचते काट्राड़ी वृक्ष। पास ही खेत। वहीं दिनभर काम किया था। चावल की बुआई जहाँ हई थी, वह अंगोछा प्रतीत हो रहा था। कोई जल्दी में हरा अंगोछा छोड़ गया था।
चेल्लताई की आँखें इधर से उधर, उधर से इधर दौड़ रही थीं। मन प्रफुल्लित था। हँसी, चेल्लत्ताई। बार-बार हाथ ऊपर उठाकर गीले बाल निचोड़े।
"अचानक आहट हुई। कोई पीछे से बढ़ रहा था। चेल्लत्ताई घबराकर मुड़ी। कोई खड़ा था। हट्टा-कट्टा। चोटी थी। कान छिदे हुए, जड़ाऊँ लोलक। रेशम का कुर्ता पहिने हुए था, और हाथ घुटनों को छू रहे थे।
“चेल्लत्ताई ने हाथों से वक्ष को ढकने की कोशिश की। गला बँध गया। कोई आवाज नहीं निकली। शरीर पथरा गया।

“क्षणभर चेल्लत्ताई को ध्यानपूर्वक देखकर, इत्मीनान से आगे बढ़कर उसने उसे यूँ उठाया, जैसे किसी बच्चे को। पेड़ के नीचे लिटाकर उस पर झुका वह। कुछ मिनट बाद ही चेल्लत्ताई शोर मचाने की हालत में थी। काट्राड़ी वृक्षों की झुरमुट में रात बिताने वाले शोर सुनकर तालाब तक पहुँचे। अब वह चेल्लत्ताई को छोड़कर उठा। तालाब में कूदकर पूरब की ओर बढ़ा। पीछे सब दौड़ रहे थे, मारो, पकड़ो, शोर मचाते हए। उसने चाल तेज की, बस, कोई हड़बड़ाहट नहीं। फिर भी भागने वाले पीछे ही रह गये।"

न जाने उस समय किससे बातचीत कर रहे थे, आसान। वह भी दौड़े, अब, उन्होंने बताया।
“पकड़ में आ तो जाता, स्स्स्स्साला! पीसकर धर देता! मिला देता, मिट्टी में। कोई मानेगा? चलने वाला, भागने वालों की पकड़ में नहीं आया! क्या चाल थी, क्या रफ्तार!"
आसान अब अचम्भे में पड़ गये हैं। "थूहर वन भी पहँचे, सब। आगे वाला चलता गया, पीछा करने वाले दौड़ते गये। साँप का बिल था....कमर तक ऊँचा। उसे यूँ लाँघ गया वह, मानो कूटने-पीसने की ओखली हो। फिर गायब! बस, गायब!
“क्या फुर्ती थी, चाल में! आज तक नहीं देखी है, ऐसी फुर्ती! इस जन्म में नहीं देखी है, ऐसी फुर्ती! देखने में कैसा? सोने की प्रतिमा। भुजाएँ सुडौल...बाँहें फर्श को छूती।

“अब चेल्लत्ताई की भी हालत अजीब थी। उस रात बाद....बस, उसी की याद में डूबी। घुल गयी, उसी की याद में। हमेशा उसी का नाम जपती। रात-भर नींद में न जाने क्या कुछ कहती। हर शाम वहीं आ जाती। इमली ताल पर। नहाती। तैरती। फिर बैठ जाती, इमली ही के पेड़ के नीचे। साँप के बिल तक भी गयी, उसे ढूँढ़ने। गाँव भर इकट्ठा हुआ, उसे रोकने। असर हो, तब न! जो भी समझाता-बुझाता, उसे यूँ अनसुना कर देती, मानो किसी और से बातचीत हो रही हो।

"अब बुआई उससे कोई नहीं करवाता। पौध सूख जायेगी....सब यही कहते। कोई फर्क नहीं पड़ा चेल्लत्ताई को। बस, घर बैठी रही।

“क्या रूप था! लम्बी-चौड़ी, खूबसूरत, वह भी बला की! स्वास्थ्य का भी था, रूप। उम्र का भी। भोलापन, सीधापन, सब कुछ मिलकर सौन्दर्य देवी ही का रूप दे रहे थे, उसे। और अब देवी उखड़े पंख वाली मुर्गी दीख रही थी। खाना बन्द। कौर मुँह तक ले जाती, कि जी खराब होता। हाथ झाड़कर उठ जाती।

“गाँवभर की लड़कियों ने पूजा की। मन्त्र, तन्त्र, तावीज, नजर भी उतारी गयी। शरीर लेकिन घुलता ही गया।
“उस दिन गाँवभर में सनसनी दौड़ी। बीती रात वह आया था। चेल्लत्ताई ही ने सहेलियों को कहानी सुनाई।

“उसके बाद हर पूर्णिमा को वह आता। सबों ने यही कहा। देखा किसी ने नहीं था, उसे। विश्वास सब को था। बाल सँवारकर, फूल गूंथकर, तैयार हो जाती चेल्लत्ताई। सब जान जाते, पूर्णिमा है। शरीर पर चन्दन का लेप लगाती। दूसरे दिन काम शुरू होने के पूर्व ही सब पहुँच जातीं, चेल्लत्ताई के पास। और चेल्लत्ताई बताती, वह कब आया, कहाँ आया, क्या कुछ हुआ, क्या कुछ कहा गया। हँस-हँसकर सुनाती सब कुछ चेल्लत्ताई। सहेलियाँ सब कुछ सुनतीं। उत्साह छा जाता, आँखों में। घेर लेतीं सब की सब, चेल्लत्ताई को, और सुनती जाती, सुनती जातीं।'

दामोदर आसान भी वैद्य बनकर...चादर ओढ़कर, वैद्य की...पहुँचे, वहीं। उन्हें भी सब कुछ सुनाया चेल्लत्ताई ने। यह विचार आया ही नहीं उसे कि और मत सुनाओ, बहुत सुना दिया, अब चुप करो।

“जब उसने सब कुछ सुना ही दिया, तब मेरे मन से भी खोट मिट गया।” आसान हँसते हुए पान से रँगे दाँत चेहरे पर बिछा देते हैं। आज भी याद है।

"फिर क्या हुआ? यह तो बात दें.....”
हम कहानी को किसी भी हालत में बढ़ाना चाहते, इसकी समाप्ति भी चाहते।
“हुआ क्या...बताएँ तो!"

"बस...पाँच-छ: महीने गुजरे ही थे। गर्भ रह गया है, उसने सहेलियों को बताया। बात सुनी, सहेलियों ने, और विश्वास भी किया। शक की गुंजाइश ही नहीं थी। उस हालत में देखना था, बच्ची को। क्या रूप था!” आसान ने बात आगे बढ़ाई, “रूप? सिर्फ रूप कहकर ही थोड़े ही सब कुछ कह दिया जा सकता है? रूप का क्या? कहीं भी देख लो! यह रूप लेकिन दसरा ही था। परिचित परिभाषाओं के बाहर। उसका रूप देखकर, रूप पर इतराने वाली सुन्दरियाँ आत्महत्या कर सकती थीं। वैसा था, चेल्लत्ताई का रूप।

“रूप समा नहीं रहा था शरीर में। कुछ दिन पहले ही तो सब कह रही थीं—यह चल-फिर भी नहीं सकेगी। बात करने की भी है, शक्ति? और अब? सब की सब आश्चर्य में डूबी हुई। उसे देखकर बार-बार आश्चर्य में डूबने वाली। जरा सी शर्माती भी थीं, सहेलयाँ। न जाने कैसे-कैसे विचार उठते थे, मन में। बस, खड़ी रहती थीं, सब....ताकती रहतीं। और करतीं भी क्या? रह क्या गया था, करने के लिए?

“पालना बनवाया, चेल्लत्ताई ने। छोट-छोटे कपड़े भी सिए बच्चे के लिए। रेशम के कपड़े। जो भी मेले में जाता, उससे लकड़ी के बबुए मँगवाती, खिलौने मँगवाती। बगैर किसी भी झिझक के पैसे देती। मन में उठती खुशी की लहरों को व्यक्त करने ही की थी, शायद इच्छा। ऐसी थी चाह, जो पूरी नहीं हो सकती थी, पूरी नहीं हुई।

एक दिन भोर होते ही चीखें उठीं। गाँव इकट्ठा हो गया। वह जमीन पर लोट रही थी, तड़प रही थी। तड़पती हुई सिर पीट रही थी। लग रहा था, सिर फट जायेगा। चीख रही थी, चिल्ला रही थी। थूहरवन में डस लिया है....उसने अपनी ही आँखों से देखा...वह चिल्ला रही थी। रथ के पहिए की जंजीर की तरह जकड़े हुए था शरीर को, साँप...उसने आगे कहा। साँप के मुँह में था दायाँ पाँव उसका, और साँप की पूँछ दायाँ कान कुरेद रही थी। सब दौड़े, थूहरवन की ओर। छान मारा...वन भर को छान मारा। कुछ नहीं दिखाई दिया।

"और....दूसरे दिन, इमली की सब से ऊँची टहनी से चेल्लत्ताई का शरीर, निर्वस्त्र...बिल्कुल नंगा...झूल रहा था। पहनी हुई साड़ी का बनाया था, फन्दा।"
कहानी खत्म हुई।

आसान ने छड़ी पर शरीर का बोझ डाला। धीरे-धीरे उठे, आसान। कोई ऐसा शब्द नहीं निकला जो बताए कि आसान जा रहे हैं, रैन बसेरे की ओर।

(अनुवाद : मिनाक्षी पुरी)

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