इकाई : सुखबीर
Ikaai : Sukhbir
कमरे में कोई भी चीज़ ऐसी नहीं थी जो उसकी दृष्टि को विशेष तौर पर अपनी ओर खींचती। वह जाना-पहचाना कमरा था जिसका एक कोना एक तरफ को बढ़ा हुआ था। शुरू में उसको यह कमरा देखकर अजीब-सा लगा था। उसका चौकोर न होना उसकी नज़र में अखरा था। उसको देखकर हर समय टेढ़ी चारपाई का ख़याल आता था। और जैसे टेढ़ी चारपाई पर सोना बेढ़ंगा-सा लगता है, उस कमरे में बैठकर या फर्श पर बिछे बिस्तर पर लेटकर भी बेढ़ंगा-सा लगता था मानो कोई चीज़ आपका ढांचा बिगाड़ बैठी हो।
यह अहसास कुछ समय तक ही रहा था।
फिर, आहिस्ता-आहिस्ता उसको मानो आदत पड़ गई थी। उसको लगा था कि कमरा इस प्रकार की शक्ल का भी हो सकता है। इस शहर में कई इमारतें थीं - तिकौनी अथवा अचौकोर प्लाटों पर बनी हुईं जिनमें कुछ कमरे ऐसे भी थे।
हाँ, कमरे की किसी भी वस्तु ने उसका ध्यान अपनी ओर नहीं खींचा। वही नित्य-प्रतिदिन दिखाई देने वाली वस्तुएँ थीं। उसमें किल्लियों पर बड़ी सफाई से टंगे हुए कपड़े, नीचे लकड़ी के छोटे-से रैक में बड़े करीने से रखी हुई किताबें, पत्रिकाएँ और अख़बारें। उसी तरफ बढ़े हुए एक कोने में पड़े कुछ बर्तन, डिब्बे और स्टोव, एक साफ़-सुथरी छोटी-सी रसोई और इसी तरह की कुछ अन्य वस्तुएँ। वह बिस्तर पर बैठा हुआ था और सामने शून्य-से में देख रहा था। उस शून्य में हल्की-सी धुंध थी। या कि यह उसकी आँखों की धुंध थी ? हाँ, उसकी आँखों की ही धुंध थी। और वह धुंध उसके दिमाग में भी थी।
कुछ समय पहले वह धुंध बहुत सघन थी। राही मिल गया था और उसको जबरन खींचकर शराब के अड्डे पर ले गया था। राही को शराब पीने के लिए साथ चाहिए था। बिना साथ के वह शराब नहीं पी सकता। और शराब पीने के पश्चात् राही ने उसका अधिक देर तक साथ नहीं दिया था। कुछ देर घूमने के बाद एक जगह रुक कर उसने पूछा था, “अब क्या प्रोग्राम है ?”
“कोई ख़ास नहीं,” उसने कहा था।
“अच्छा, तो मैं चलता हूँ। एक ज़रूरी काम है। फिर कब होगी मुलाकात ?”
“देखो...।” उसके मुँह से निकला था।
राही टैक्सी पकड़कर चला गया था।
उसके चले जाने के बाद वह कुछ देर तक वहीं खड़ा रह गया था। उसको सूझा नहीं कि कहाँ जाए, क्या करे। उसको बेइंतहा अकेलापन महसूस हुआ था। उसको लगा था, वह मानो किसी उजाड़-बियाबान में खड़ा हो। आखि़र उसके कदम अचेत ही अपने कमरे की ओर चल पड़े थे। उसने वहाँ से बस नहीं पकड़ी थी। दिमाग की बोझिल हालत और बेध्यानी में ही वह चलता रहा था और अपने कमरे के सामने पहुँच गया था। कमरे में पहुँचकर उसका डर कुछ कम हुआ था, पर अकेलापन कम नहीं हुआ था। वह और बढ़ गया था।
कैसा अकेलापन था वह ! सूना और खाली।
वह कुछ देर उस अकेलेपन में घिरा रहा था।
पर अब अकेलापन नहीं था। बस, एक शून्य-सा अहसास था - शून्य जो उसके बाहर पसरा हुआ था, जो उसके अंदर भरा हुआ था।
कमरे में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी जो उसकी दृष्टि को ख़ास तौर पर अपनी ओर खींचती।
रात काफ़ी बीत चुकी थी, पर उसकी आँखों में नींद नहीं थी।
वह उसी तरह सामने शून्य में देखता रहा। कुछ देर बाद उसको सामने वाली दीवार दिखाई दी - मैली और सीलन भरी, जिस पर से सफे़दी उड़ी हुई और कुछ जगहों पर से पपड़ियाँ उतरी हुईं। उस पर घसमैले रंग के छोटे-बड़े धब्बे थे। और उन धब्बों में एक तरफ जहाँ दीवार का हिस्सा बड़ा साफ़ और सपाट था, एक चित्र टंगा हुआ था।
पहले तो उसको वह चित्र अन्य धब्बों की भाँति एक धब्बा ही प्रतीत हुआ, पर जब उसकी नज़र उस पर टिकी ही रही तो वह धब्बा न रहा। उसमें से एक शक्ल उभरने लगी। वह शक्ल मानो हिल रही थी। उसकी लकीरें और रंग हिलते हुए परस्पर जुड़ रहे थे।
अब वह चित्र को एकटक देख रहा था। चित्र ने मानो उसकी नज़र को पूरी तरह से अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। परंतु वह स्वयं अभी भी चित्र को पूरी तरह पकड़ नहीं पा रहा था।
वह जब भी उस चित्र को देखता, वह कुछ देर उसकी पकड़ में न आता। उसके आपस में उलझे हुए रंग ढलकते रहते, आपस में फंसी हुई लकीरें थिरकती रहतीं, और एक चेहरा रह रहकर बदलता हुआ नई शक्ल अख़्तियार करता रहता। अंत में, वह शक्ल एक जगह पर खड़ी हो जाती और उसकी नज़र की पकड़ में आ जाती।
वह चित्र उसको मुकुल घोष ने दिया था।
मुकुल ! उसको मुकुल घोष का ख़याल आया और अपने उस अकेलेपन को महसूस करते हुए उसने सोचा, मैं मुकुल की तरफ क्यों नहीं चला गया ? राही के चले जाने के बाद मैं मुकुल की ओर चला गया होता तो अच्छा था। परंतु उस समय ख़याल ही नहीं आया। ख़ैर, अब भी जाया जा सकता है। अब ? नहीं, अब तो रात बहुत हो चुकी है। और मुकुल यहाँ से बहुत दूर है। कम से कम एक घंटा लग जाएगा उस तक पहुँचने में।
मुकुल ! उसने फिर सोचा और चित्र में उसकी शक्ल देखने लगा। वह चित्र मुकुल का सैल्फ-पोट्रेट था। बड़ा शौक था उसको अपने पोट्रेट बनाने का। वह अपने अनगिनत पोट्रेट बना चुका था। जैसे आदमी ख़ाली काग़ज़ सामने देखकर उस पर लिखने लग पड़े और बार बार अपना नाम लिखे, कुछ इसी प्रकार मुकुल सैल्फ-पोट्रेट बनाया करता था। पर इतने सैल्फ-पोट्रेट बनाने पर भी उसकी तृप्ति नहीं हुई थी। वह हमेशा कहा करता, “इन सैल्फ-पोट्रेटों में मैं स्वयं को पहचानने का जतन कर रहा हूँ, अपने आप को खोजने का यत्न कर रहा हूँ। लेकिन अभी तक मैं अपने आप को पकड़ नहीं सका हूँ।”
मुकुल से उसकी मुलाकात हुई थी तो पहली ही मुलाकात में वह उसकी ओर खिंच गया था। बड़ी दिलचस्प शख़्सियत थी उसकी। उसका चेहरा भी दिलचस्प था और उसकी बातें भी। वह एक हॉस्टल में रहता था, हॉस्टल के सिरे वाले एक छोटे-से कमरे में। वही उसका स्टुडियो था, बिखरे हुए चित्रों से भरा हुआ। कई शैलियों के चित्र थे वे। उन चित्रों में भी मुकुल अपने आप को खोजने का यत्न कर रहा था और उनका सफ़र तय करता हुआ किसी मंज़िल पर पहुँचना चाह रहा था। “पर मंज़िल है कहाँ ?” वह कहता।
“मंज़िल कहीं नहीं है। बस, सफ़र ही सफ़र है।”
चित्रों का सफ़र ! उसने सोचा। और उन चित्रों में सैल्फ-पोट्रेटों का सफ़र ! मुकुल रात-दिन वह सफ़र तय कर रहा था।
वह सफ़र तय कर रहा था, पर मंज़िल पर नहीं पहुँचना चाह रहा, क्योंकि - उसके अपने शब्दों में - “जिस दिन मैं मंज़िल पर पहुँच गया, उस दिन खु़दकुशी कर लूँगा। मंज़िल पर पहुँचकर जीने का क्या फायदा ? और क्योंकि मैं खु़दकुशी से डरता हूँ, इसलिए मंज़िल पर पहुँचने से भी डरता हूँ। वैसे यह भी एक हक़ीकत है कि मंज़िल कहीं नहीं है। बस, सफ़र ही सफ़र है।”
मुकुल को भी वह पहली मुलाकात में अच्छा लगा था और वह उसको अपने कमरे पर ले गया था।
वहाँ मुकुल के बहुत सारे सैल्फ-पोट्रेट देखकर उसको हैरानी हुई थी। कई शैलियों के पूर्ण-अपूर्ण सैल्फ-पोट्रेट थे जो आपस में एक-दूजे से उतना ही मिलते थे, जितना वे मुकुल के चेहरे से मिलते थे। मुकुल ने बताया था, “इनमें मैंने उस असलियत को पकड़ने का यत्न किया है जो मेरे चेहरे के नक्शों में नहीं, बल्कि नक्शों के उस पार हैं।”
फिर, वह मुकुल के कमरे पर जाने लग पड़ा था।
एक बार वह गया था तो मुकुल अपना पोट्रेट बनाकर हटा ही था। उसमें झुंझालहट थी क्योंकि वह अपने नक्शों के उस पार की असलियत को पकड़ नहीं सका था।
परंतु, उस सैल्फ-पोट्रेट ने उसका ध्यान विशेष रूप से खींचा था। उसमें उसको मानो मुकुल की नहीं, अपनी खुद की शक्ल दिखाई दी थी - एक चेहरा, जिसमें उसके चेहरे के टुकड़े परस्पर जुड़े हुए थे।
“बात बनती बनती रह गई है।” मुकुल ने चित्र की ओर संकेत करते हुए कहा था।
उसने आँखों में सवाल भरकर मुकुल की ओर देखा था।
“यानी कि बात नहीं बनी।” मुकुल हँसा था मानो उसको खुशी थी कि वह मंज़िल पर नहीं पहुँचा था।
“बड़ी अजीब बात है मुकुल,“ आखि़र उसने कहा था, “कि इस में तेरी ही नहीं, मुझे अपनी भी शक्ल दिखाई देती है। मानो तूने मेरा पोट्रेट बनाया हो।”
“सच ?” मुकुल के मुँह से निकला था और उसने गौर से चित्र को देखा था।
“क्यों ? नहीं दिखती ?”
कुछ देर देखते रहने के बाद मुकुल ने कहा था, “शायद। इसको बनाते समय शायद मेरा अवचेतन तुझे देख रहा होगा।
या... या यह भी हो सकता है कि मैंने अपने चेहरे की कुछ चीज़ों को जनरलाइज़ करने का यत्न किया है। यानी कि किसी हद तक यह बताने का यत्न किया है कि यह चेहरा मेरा ही नहीं, आज के दौर में से गुज़र रहे एक आम आदमी का भी है।”
प्रत्युत्तर में उसने कहा था, “जैसे जैसे मैं इसको देखता हूँ, इसमें से मुझे अपनी ही शक्ल उभरती दीखती है। इसको हमेशा देखते रहने को दिल करता है।”
“तो फिर तू इसे रख ले और हमेशा देखा करना।” मुकुल मुस्कराया था।
“मेरा मतलब यह नहीं था।” उसको कुछ झिझक महसूस हुई थी।
“पर मेरा यही मतलब है।” मुकुल हँसा था और उसने चित्र उसको दे दिया था।
उसने चित्र को फ्रेम करवा लिया था और घर लाकर दीवार पर टांग दिया था।
यह उस चित्र के कारण ही था कि उसका गरीब-सा कमरा एकबार तो बड़ा अहम बन गया था। वैसे उसको यह भी लगा था कि वह चित्र उस जैसे कमरे में टांगा जाने वाला नहीं था। उसे तो किसी बहुत सुंदर कमरे का शिंगार होना चाहिए था। पर कुछ अरसे बाद वह उसको उस कमरे का एक हिस्सा प्रतीत होने लग पड़ा था। मानो वह खुद उस कमरे का एक हिस्सा बना हुआ था। बस, अंतर था तो इतना कि वह चित्र कमरे की अन्य वस्तुओं की तरह साधारण-सा नहीं लगता था।
वह कमरे में बैठा होता, तो कई बार कितनी कितनी देर तक चित्र को देखता रहता। उसमें अपने आप को खोजने का, उसको पकड़ने का यत्न करता रहता। किसी वक़्त उसमें से मुकुल की शक्ल का भ्रम पैदा होता, पर उसी समय वह शक्ल बिखर जाती और उसकी अपनी शक्ल बनने लगती।
एकबार भुरभुरी दीवार में लगा कील उखड़ जाने पर चित्र नीचे गिर पड़ा था तो उसका काँच टूट गया था। उसमें दो तरेड़ें पड़ गई थीं। काँच के तीन टुकड़े हो गए थे, पर वे फ्रेम में से निकले नहीं थे।
उसने दूसरी जगह पर कील गाड़कर उस चित्र को टांग दिया था।
फिर, जब उसने देखा था, तो उसको काँच के नहीं, अपितु चित्र वाले चेहरे के तीन टुकड़े हो गए प्रतीत हुए थे। वो चेहरा जो कई टुकड़ों में जुड़ा हुआ था, तीन टुकड़ों में टूट गया था।
तब एकटक देखते हुए उसको चित्र में अपनी शक्ल कहीं अधिक साफ़ दिखने लगी थी। अब उसका चेहरा कई टुकड़ों की अपेक्षा सिर्फ़ तीन टुकड़ों में टूटा हुआ था। चेहरे के तीन टुकड़े ! उसने सोचा था। या तीन टुकड़ों वाला चेहरा ! इनमें से एक टुकड़ा है जो वर्तमान है। एक टुकड़ा भूतकाल है। और तीसरा टुकड़ा भविष्य है। “वाह !” उसके मुँह से निकला था। यह तो एक नया विश्लेषण हो गया इस पोट्रेट का। कितना सुंदर विचार सूझा है ! मुकुल को बताना चाहिए। बड़ा खुश होगा यह विचार सुनकर। काल के तीन खंडों में विभाजित चेहरा। टूटा हुआ, पर जुड़ा हुआ। ज़िन्दगी की चैखट में जड़ा होने के कारण जुड़ा हुआ।
उस वक़्त चित्र को देखते हुए उसको ख़याल आया कि कहीं उसका चेहरा सचमुच ही इस तरह टूटा हुआ न हो। उसने दोनों हाथ चेहरे पर फेरे, पर कुछ पता न लगा। तब उसने शीशा उठाया और उसमें देखने लगा। शीशे का पानी कुछ जगहों से उतरा हुआ था। वैसे भी शीशा साफ़ नहीं था। शराब के नशे के कारण उसकी नज़र भी साफ़ नहीं थी। उसको अपना चेहरा साफ़ तौर पर न दिखाई दिया तो उसने शीशा रख दिया और सोचा - अब यह नया ही लाना पड़ेगा। पहले भी कईबार नया लाने के बारे में सोचा है, पर अब तो नया लाना ही पड़ेगा। यूँ अन्य भी कई चीज़ें हैं जो नई लाने वाली हैं। तौलिया, जो पुराना होकर जगह जगह से फट चुका है, बूट जिनमें अब और मरम्मत नहीं हो सकती। बिस्तरे की एकमात्र घिसी हुई चादर जो.... और हाँ, बेदी का नावल -‘एक चादर मैली-सी’। कितना दिल होता है इस नावल को पढ़ने का! एकबार लेखकों की बैठक में इसे बेदी के मुँह से सुना था। पर बेदी ने सुनाते समय कई बार रो कर नावल का मज़ा ही खराब कर दिया था। रोना तो सुनने वालों को चाहिए था। बेदी भला क्यों रोया ? अजीब बात नहीं है कि इतने धैर्य से लिखने वाला आदमी सुनाते समय स्वयं रो पड़ता है ! लिखते समय भी ज़रूर रो रोकर लिखता होगा। पर उसकी लेखनी में यह रोना कहीं बहुत नीचे छिपा होता है। मजाल है कि उसका एक फिकरा भी भावुक प्रतीत हो। ऐसे ज़ब्त से लिखना बेदी का ही काम है। और आजकल सिक्ख उसके पीछे पड़े हुए हैं। नावल में सिक्खों के बारह बजने को लेकर एक लतीफ़ा है जो सिक्खों के हक में जाता है। पर सिक्ख उसको समझ नहीं सके और बेदी पर मुकदमा करने को फिरते हैं। किसी दिन चलकर बेदी से सिक्खों के बारे में कोई लतीफ़ा सुनना चाहिए। बड़ा करारा लतीफ़ा सुनाएगा। दरअसल, बेदी के अंदर कोई बड़ी गहरी तल्ख़ी छिपी हुई है जिस कारण वह ऐसा लतीफ़ेबाज़ है। उस तल्ख़ी को लतीफ़ों के माध्यम से बाहर निकालकर वह हल्का हो जाता है। पर लेखक के तौर पर कितना गहन-गंभीर है ! उसका हुनर... लो, यह बेदी भी किधर ले चला है।
वह बेदी और अपने आप पर हल्का-सा मुस्कराया और फिर सोचने लगा कि क्या सोच रहा था। उसे कुछ याद न आया। तब उसके सामने फिर दीवार वाला चित्र उभरा और उसके एक टुकड़े को वह एकटक देखने लगा। यह टुकड़ा, उसने मन में कहा, चेहरे के वर्तमान का टुकड़ा है। वर्तमान का चेहरा। सड़कों की गर्दिश का चेहरा। इस शहर की भीड़ का चेहरा। बग़ैर आँखों वाली भीड़ जो शहर में बिखरी पड़ी है, भाग-दौड़ रही है और शहर की हदों में फंसी पड़ी है। यह शहर जो वर्तमान है, इस शहर में से निकला नहीं जा रहा। ज़िन्दगी इस शहर में फंसी हुई है। हाँ, यह वर्तमान का चेहरा, इस शहर में फंसा हुआ चेहरा है। अपने गाँव से टूटा हुआ, खेतों से और गाँव वाले घर से बिछुड़ा हुआ...
उसको अपना गाँव दिखाई दिया - बहुत दूर। और उस गाँव में अपना घर दिखा, और अपना परिवार। माँ, पिता और दोनों बहनें और छोटा भाई। भूरी भैंस और काली बकरी। तीन, सवा तीन बरस हो गए थे घर को छोड़े, घरवालों से बिछुड़े और वह गाँव नहीं जा सका था। वह शहर में फंसा हुआ था और निकल नहीं पा रहा था। इस शहर में आकर उसका चेहरा मानो फ्रेम के कारण जुड़ा हुआ था। उसको स्मरण हो आया कि बहुत पहले उसने कहीं पढ़ा था - होटल में बैठे एक आदमी के बारे में जो इस तरह उदास बैठा हुआ था कि उसके चेहरे से उसकी नज़र टूटी हुई थी, नज़र से उसकी सोचें टूटी हुई थीं और सोचों से...। तब इस बात को वह पूरी तरह समझ नहीं पाया था। पर यहाँ आकर, इस शहर में आकर यह बात इतनी अच्छी तरह समझ में आई थी कि उस चेहरे को वह कई बार अपने ख़यालों में देखा करता था। इस शहर में आकर उसका चेहरा कई चेहरों का बना था - क्लर्क का चेहरा, बेकार आदमी का चेहरा, उस मंगते का चेहरा जो वह बन नहीं सका था, और भूख का चेहरा और फिल्म डायरेक्टर के चौथे असिसटेंट का चेहरा, और एक असफल कहानीकार का चेहरा।...
हाँ, यही भिन्न-भिन्न चेहरे हैं, उसने सोचा, जिनके टुकड़ों को जोड़कर मुकुल सैल्फ-पोट्रेट बनाता है। मानो उसके इस सैल्फ-पोट्रेट के अंदर कई टुकड़े हैं, पर नहीं, अब तो वे सिर्फ़ तीन ही टुकड़े हैं। एक टुकड़ा जो वर्तमान है। दूसरा टुकड़ा जो भूतकाल है - ज़िन्दगी के बीते हुए वर्षों का चेहरा। ज़िन्दगी के बीते हुए बरस...।
उसने उस टुकड़े की ओर देखते हुए कहीं पीछे की ओर देखा - अपनी ज़िन्दगी के बीते हुए वर्षों को। वे धुंधल-से लगे। उसने उनको स्पष्ट देखने के लिए अपने दिमाग पर ज़ोर डाला। लेकिन उसके सामने जो धुंध थी, उसमें वे वर्ष साफ़ दिखाई न दिए। उसने सोचा, इन वर्षों में मेरा चेहरा कैसा रहा होगा ? वह उसकी कल्पना न कर सका। तब उसने अपनी किसी पुरानी फोटो को सामने लाने का यत्न किया। कालेज के दिनों की एक फोटो उसके सामने आई जो उसके ‘आइडेंटिटी कार्ड’ पर लगी हुई थी। कालेज में उसका वह पहला साल था और अन्तिम भी। आगे की कालेज की पढ़ाई उससे छूट गई थी। परंतु वह एक वर्ष उसकी ज़िन्दगी का कैसा वर्ष था। तब वह आज जैसा नहीं था। तब का चेहरा, वह अपने आइडेंटिटी कार्ड वाले चेहरे के सामने लाया तो उसके साथ ही एक और चेहरा उसके सामने आ गया -तृप्ता, नहीं तृप्ति का चेहरा। ‘तृप्ता’ उसको कुछ अजीब-सा लगता था। वह उसके बारे में जब भी सोचता, मन में ‘तृप्ति’ कहकर ही सोचता। वह उसको बेइंतहा अच्छी लगती थी। वह सारा दिन उसके बारे में सोचता रहता, पर उसके साथ कभी बात करने का साहस नहीं कर सका था। वह बस यही सोचता था कि कभी अवसर मिला तो अपने आप बात हो जाएगी। आखि़र, एक बार जब
उसने तृप्ति को किसी अन्य लड़के के साथ, वही जगमोहन के साथ जो कालेज में सबसे अधिक शौकीन और लोफर लड़का था, पॉर्क के एक कोने में हँस-हँस कर बातें करते देखा था तो उसको लगा था कि तृप्ति काँच की एक लड़की थी जो उसी क्षण टूटकर चूर-चूर हो गई थी और उसके अनगिनत टुकड़े उसकी ज़िन्दगी में धंस गए थे। उनकी चुभन आज भी बाकी थी। उस समय उसको अपना चेहरा बहुत तुच्छ प्रतीत हुआ था। वैसे कितने तीखे नयन-नक्श थे उसके। गोरा रंग था, भूरे बाल। बिलकुल उसकी माँ का चेहरा लगता था - सुंदर और कोमल, लड़कियों जैसा। स्कूल के नाटकों में उसने कई बार लड़की का रोल किया था। फिर उसकी दाढ़ी आ गई - भूरे, मुलायम, घुंघराले बाल। और उस दाढ़ी की वजह से उसका चेहरा कुछ और ही बन गया था। वैसे भी, उसका चेहरा भर गया था और बड़ा मर्दाना प्रतीत होने लगा था। पर इस शहर में आकर उसने दाढ़ी और केश कटवा डाले थे। “यहाँ तो अपने आप को संभालना ही कठिन है, दाढ़ी-केश कौन संभाले ?” उसने कहा था। फिर एक बार हालात ऐसे बन गए थे कि दाढ़ी बढ़ने लगी तो बढ़ती ही रही थी। वह कटवा नहीं सका था। बेकारी का वो बहुत कठिन दौर था। वैसे उन दिनों दाढ़ी रखने का उसको कुछ लाभ ही हुआ था। अंदर की ओर धंसा और पिचका चेहरा जो बहुत ही कमज़ोर-सा लगता था, दाढ़ी के कारण कुछ रौबदार बन गया था। उसे खुद को भी लगता था कि वह इतना कमज़ोर तो नहीं हुआ था। फिर एक बार जब चौथे असिसटेंट डायरेक्टर के तौर पर सत्तर रुपये की नौकरी कर रहा था, तो फिल्म में एक छोटा-सा रोल मिलने पर उसको दाढ़ी कटवानी पड़ी थी। उस रोल में मुश्किल से 15 सेकेंड का काम था उसका। और उसके 250 रुपये मिले थे उसको। बाद में उसी पात्र के रूप में फिल्म में आगे चलकर उसको एक बार फिर रोल मिला था। डायरेक्टर ने उसके काम की बहुत प्रशंसा की थी। तब उसको एक आस बंधी थी कि यदि फिल्म चल गई तो उस रोल की वजह से उसको दूसरी फिल्मों में भी काम मिलने लगेगा। परंतु, फिल्म जब रिलीज़ हुई तो उसका रोल कहीं नहीं था। एडिटिंग के वक़्त वो पात्र ही फिल्म में से निकाल दिया गया था। वैसे, फिल्म चली भी नहीं थी। फिल्म नहीं चली थी तो उसका डायरेक्टर भी नहीं चला था। उसके बाद उसको कोई फिल्म नहीं मिली थी। सो, उसके साथ चौथे असिसटेंट के रूप में उसकी नौकरी भी जाती रही थी। तब फिर वही सड़कों की गर्दिश थी।
एक बात से वह खुश था कि उसको शीघ्र ही फिल्म-लाइन से छुटकारा मिल गया था, नहीं तो वह सालोंसाल उसमें फंसा रहता और वर्तमान में फंसा किसी उम्मीद में भविष्य की ओर देखता रहता। फिल्म-लाइन में भविष्य कितना सुनहरा और शानदार दिखाई दिया करता था।
अब वह पीछे की ओर नहीं, आगे की ओर देख रहा था - आगे अपने भविष्य की ओर। फिल्मी ज़िन्दगी वाले भविष्य की ओर नहीं, अपनी अब की ज़िन्दगी के भविष्य की ओर।
पर भविष्य उसको अँधेरा दिख रहा था।
भविष्य के उस अँधेरे में उसने अपना चेहरा देखना चाहा, पर वह दिखाई न दिया।
भविष्य का चेहरा ! उसने सोचा और सामने चित्र की ओर देखा। उसके एक टुकड़े को वह देर तक देखता रहा, पर उसमें से भी अपना भविष्य का चेहरा न देख सका।
शायद कुछ लोगों का भविष्य होता ही नहीं। उसने सोचा।
कुछ देर बाद उसको अपनी आँखें बोझिल होती प्रतीत हुईं। उनमें नींद थी और थकान थी। पर वह चित्र की ओर एक टक देखता रहा। उसकी आँखें मुंदने लग पड़ीं। आखि़र, वह लेट गया और उसको नींद आ गई।
सोये हुए उसने जैसे सपने में देखा, चित्र के टूटे हुए काँच की जगह नया साबुत काँच लगा हुआ था। और वह कई टुकड़ों वाला चेहरा भी मानो साबुत हो गया था। मुकुल के बनाए चेहरे से वह बिलकुल ही भिन्न चेहरा प्रतीत हो रहा था। और वह चेहरा - उसने झट पहचान लिया - उसकी माँ का चेहरा था। बिलकुल माँ का चेहरा। पर तब उसने देखा - माँ की आँखों में आँसू थे। और उसके होंठों पर जो चिर-मुस्कान होती थी, वह गायब थी। उस मुस्कराहट के बिना, उसको लगा, वह चेहरा उसकी माँ का नहीं था। वह कोई बेहद पराया चेहरा था।
(अनुवाद : सुभाष नीरव)