इज्जत (कहानी) : आशापूर्णा देवी

Ijjat (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi

हालाँकि उसने बताया, ''यही कोई चौदह-पन्द्रह साल की होगी भाभी!'' लेकिन उसे देखकर यही जान पड़ा कि सत्रह-अठारह से कम की नहीं होगी। ये सब अपनी उमर कम कर बताते हैं लेकिन इस लड़की को अपनी बस्ती में कहीं छुपाकर इतना बड़ा किया बासन्ती ने? ऐसी भरी-पूरी सेहत कहीं से चुरा लायी है? ऐसा निखरा-निखरा रूप कहां से पाया है उसने?

सुमित्रा अपनी हैरानी को छिपा भी नहीं पायी। बोली, ''तुम्हारी बिटिया तो बड़ी ही खूबसूरत है, बासन्ती! ऐसा नहीं जान पड़ता कि यह तुम्हारी बेटी है!''

बासन्ती की मुसकान में लाज और अभिमान दोनों की ही रगिमा खेल रही थी। बोली, ''जब यह छोटी-सी थी तभी से इसके बारे में सभी यही बात कहते रहे हैं। दरअसल, यह अपने वाप पर गयी है। इसका बाप भी बड़ा लम्बा-चौड़ा और कद्दावर आदमी था भाभी...साँप ने काट खाया। उसके गुजर जाने के बाद सास ने बड़ा सताया, भाभी! ऐसा जान पड़ता था कि मैंने ही नागन बनकर उसके बेटे को डसा हो। उसी जलन भरी आग से मैं बेटी को लेकर निकल आयी थी और सबसे एकदम अलग-थलग रहने लगी थी। मैंने कहा था दूसरे की ड्योढ़ी पर मर-खटकर पेट पाल लूँगी...शायद डसी से तुम्हारी आन-बान-शान बनी रहे।...और यही वजह है कि मेरे मरद को किसी ने देखा तो नहीं। इसीलिए सब-के-सब मुइासे मजाक करते रहते हैं कि तूने किसी बड़े आदमी की बेटी को चुरा लिया होगा...।''

सुमित्रा ने मुसकराकर कहा, ''मुझे भी ऐसा ही जान पड़ता है। तू इतने दिनों से मेरे यहाँ काम कर रही है लेकिन तेरी बिटिया इत्ती खूबसूरत है...ऐसा तो मैंने सोचा भी न था!''

बासन्ती का गर्व से खिला चेहरा थोड़ा मुरझा गया। उसने कहा, ''उसके छुटपन से ही मैं उसे साथ लिये काम पर निकल जाती थी, भाभी! वह कितना हाथ बँटाया करती थी मेरे कामों में। अब बड़ी होकर साथ निकलना नहीं चाहती। कहती है, मैं यहीं घर का सारा काम-काज करूँगी, माँ! बाबू लोंगों के घर नहीं जाऊँगी...लाज आती है मुझे। में कहती हूँ....जाने का मन न कर तो मत जा। लेकिन अब तो बिटिया को लेकर बड़ी मुसीबत हो गयी है...जैसा कि मैं आपको बता रही थी। अब आप अगर दया करके इसे थोड़ा-सा आसरा दे दें।''
सुमित्रा ने यह तो जरूर कहा था कि तू तो इतने दिनों से काम कर रही है। लेकिन तब ऐसा कुछ नहीं था। सुमित्रा की पुरानी नौकरानी गाँव चली गयी थी। तभी कोई चार महीने तक बासन्ती ने सुमित्रा के यहाँ काम किया था। बासंती स्वभाव से तो अच्छी थी ही, उसके काम में भी सफाई थी। इसीलिए सुमित्रा उसे भूल न पायी थी।

अब इसी बात के भरोसे सुमित्रा ने यह अनोखा प्रस्ताव रखा था। टोले-मोहल्ले में न जाने कैसे-कैसे उचक्के और आवारा छोकरे आकर जमा हो गये हैं, उनकी बेहूदगी से बासन्ती की बेटी का यहाँ टिकना मुश्किल हो जाएगा।

बासन्ती को तो मेहनत-मजूरी कर पेट पालना पड़ेगा।

बेटी को अगोरकर रखने से तो काम चलेगा नहीं।

दिन भर चक्कर-घिन्नी की तरह मेहनत किये बिना दो-दो प्राणी का पेट पालना और झुग्गी का किराया जुटाना...कोई खेल नहीं है।

अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं जब भगवान ने अपनी आँखें उसकी तरफ उठायी थीं। तभी तो बासन्ती को एक अच्छी-सी चाकरी मिल गयी थी। एक बड़े घराने की वृद्धा की देखभाल। सत्तर रुपये महीना। ऊपर से खाना और कपड़ा। तेल-साबुन...मर्जी मुताबिक पान-जर्दा और चाय। काम था भी कितना...? वृद्धा की देख-रेख, दवा-दारू और उल्टी-सीधी फरमाइश। वृद्धा वैसे तो गठिया से पीड़ित थी लेकिन बड़ी शौकीन तबीयत की थी। साबुन लगाकर नहाओ-धोओ...तेल-फुलेल डालकर बाल बना दो....जोड़ों का दर्द दूर करनेवाले तेल से अच्छी तरह मालिश करने के बाद पाउडर लगा दो। घर की बहू और बेटियाँ भला यह सब कहां से कर पाएँगी? और तब....जबकि घर में पैसे की कोई कमी नहीं हो।

यही वजह थी कि वहाँ बासन्ती को इतने रुपये देकर इतने ठाठ में रखा गया था।

''मैं तो सुख के सागर में तैर रही थी, भाभी,'' बासन्ती ने कहा, ''सुबह पाँच बजे निकल जाती थी और रात के दस बजे लौट आती थी। मेरी बिटिया तब तक कभी इसके घर, तो कभी उसके घर बैठी रहती। मैं जब घर वापस लौटती तो उसे अपने साथ लिवा लाती। रात का खाना मालकिन के घर नहीं खाती थी बल्कि साथ ले आती थी-दोनों माँ-बेटी का उसी में चल जाता था। यह कहा जा सकता है कि दुनियादारी का कोई खरचा ही नहीं था। दोपहर के बखत अपने लिए थोड़ा-सा भात उबाल लेती थी और वही खा लेती थी। जो पैसे मिलते थे...वह एक तरह से जमा हो जाते थे। बिटिया की शादी के लिए जमा करती थी।...
''लेकिन...अब क्या बताऊँ भाभी...,'' बासन्ती का स्वर धीरे-धीरे किसी दार्शनिक की तरह गम्भीर होता गया, ''भगवान की नजर भी कंजूसों जैसी होती है भाभी! वह खुले मन से कुछ देना नहीं चाहता। अगर एक तरफ से कुछ देता है तो दूसरी तरफ से ले लेता है। मैं उस सुख को ज्यादा दिन भोग न पायी। बुढ़िया में अब एक नयी सनक पैदा हो गयी थी...रात-रात भर जगने की। रात को आँखें फाड़े बैठी रहती और फरमाइश करती रहती है। अपने बेटे और बहुओं को बुला-बुलाकर कहती है 'रोशनी जला दे...पंखा बन्द कर दे'...तो कभी कहती है 'पंखा चला दे...बत्ती बुझा दे...ला जरा पानी पिला...पान लगा दे, वही चबाऊँगी'...और जरा देर हुई नहीं कि गाली-गलौज शुरू। अब उसके लड़के-वाले जो दिन-दिन भर भाग-दौड़ करते हैं.. लम्बा-चौड़ा कारोबार सँभालते हैं...रात को होनेवाले इस हंगामे को भला कैसे झेल सकते हैं? अब उन्होंने मुझे पकड़ा। कहते हैं, 'हम तुम्हें दस रुपये ज्यादा देंगे...तू रात को रुक जाया कर।' साथ ही यह भी धमकी दी है कि अगर मैं राजी न हुई तो वे किसी दूसरे को रख लेंगे।...अब मैं क्या करूँ...किस तरफ देखूँ...अजीब उलझन है! इस बीच लोगों के घर झाड़-बर्तन करने वाला काम भी गँवा बैठी हूँ....कोई उपाय नहीं रहा। क्या करती मैं? बड़े लोगों का मामला है...एक ही बात में नौकरी जा सकती है। है न...भाभी...। आप ही बताइए?''

सुमित्रा क्या कहे, समझ न पायी! बस इतना ही बोली, ''सो तो है।''

''सो तो है...कहने से ही यह आफत नहीं टलेगी। आपके दरवाजे पर खड़ी हूँ..., अब आप पर है कि मार डालिए या आसरा दीजिए।''

सुमित्रा बासन्ती की दिक्कत समझ रही है। उसके मन में बासन्ती के लिए सहानुभूति भी है। लेकिन आसपास इतने घर-द्वार होते हुए भी सुमित्रा के घर का दरवाजा ही क्यों? यही बात वह समझ नहीं पाती। बासन्ती ने इतने लोगों के यहीं काम-धाम किया है...सुमित्रा के पास तो वह कुछ ही महीने रही थी। अभी वह जिनके घर में है वे लोग बासन्ती को दस रुपये ज्यादा देने को तैयार हैं और इसके बदले रोगी की देखभाल करवाना चाहते हैं।

सुमित्रा भी इसी बात को आगे बढ़ाती हुई कहती है, ''तो फिर उसी घर में ले जाकर क्यों नहीं रखती हो। उस बड़े आदमी की लम्बी-चौड़ी कोठी है। रोगी की दवा-दारू के साथ बेटी की देख-रेख भी हो जाएगी।''
बासन्ती ने हाथ ऊपर उठाकर माथे से लगाया और नाराजगी से बोली, ''इस बात को कहने में भी कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, भाभी जी! लेकिन बाबू लोग बड़े कडे मिजाज वाले हैं। इस बात के लिए राजी नहीं हुए। कहते हैं, घर में पहले से ही ढेर सारे नौकर-चाकर हैं। इसी मुसीबत के चलते पिछले दो दिनों से जितने भो जाने-पहचाने मकान हैं...उनके दरवाजे आसरे के लिए खटखटा रही हूँ। लेकिन किसी ने भी मेरी चिरौरी नहीं सुनी। हर किसी ने कोई-न-कोई बहाना बना दिया। बेटी को साथ लिये घूम रही हूँ अगर इसको देखकर ही किसी को दया आ जाए।...इसीलिए।''

सुमित्रा ने मन-ही-मन कहा, ''अरी तुम तो गलत गोटी चल रही हो बासन्ती वाला। अच्छा तो यही होता कि तुम किसी को अपनी वेटी नहीं दिखाती...तब शायद कोई राजी हो भी जाता।''

''इस अंगारे को अपने घर में कौन रखेगा भला? कौन इसे अपनी ओट देगा? और तब...जबकि तुम भी उसके पास नहीं रहोगी। ऐसा भी होता है कहीं।''

बेटी उधर घर के बरामदे पर ही खड़ी है....कोने से लगी। एक सस्ती झीनी-सी साड़ी में और उसी से मिलता-जुलता लाल रंग का एक फुटपथिया ब्लाउज। इसी में वह ऐसी भरी-पूरी और खूबसूरत दीख पड़ती है कि एक बार नजर पड़ जाए तो दौबारा देखने की इच्छा जगती है। सोचकर यही लगता है कि अगर यह लड़की थोड़े-से प्यार और जतन से पली-पुसी होती, अच्छे कपड़ों में सजी-धजी होती तो पता नहीं...कितनी सुन्दर दीख पड़ती। सुमित्रा ने यह सोच लिया कि वह उसे अपनी कोई पुरानी साड़ी-चोली दे देगी। लाल फूल के छापे वाली जार्जेट साड़ी वैसे तो जगह-जगह से चस गयी है पर रंग वैसा ही लाल टूस है...वही दे देगी। नीले रंग की बगलारी साड़ी अब भी ठीक-ठाक है मगर एक जमाने की है और गदालखाने में पड़ी है...वह भी निकालकर दे देगी। इसके अलावा दौ-एक और भी पुरानी सूती साड़ी। कुरती तो ढेर सारी हैं...उसकी कुरती इस छोकरी को ठीक आ जाएगी।

सुमित्रा ने अपनी मन की आँखों से इस लड़की को गहरे लाल और नीले रंग की साड़ी में सजाकर देख लिया।
ऐसे ही कभी घर-घर जाकर घरेलू माल बेचनेवाली किसी औरत से उसने एक बेनामी कम्पनी का सस्ता-सा पाउडर खरीद लिया था, वह भी ऐसे ही पड़ा है...वह भी दे देगी। उसने यह भी सोच लिया।

उसे देखकर सचमुच बड़ी दया हो आयी थी। जी कचोट रहा था...ओह...एक ऐसी खूबसूरत-सी लड़की...नौकरानी की बेटी बनी एक गरीब की झुग्गी में पड़ी है। डन उपहारों के बूते पर ही वह इस कचोट से मुक्त हो जाना चाहती थी।

तासन्ती ने कहा था, ''बस यही समझ लो भाभी, कि शेर की मांद मैं और साँप की बीवी में दिन काट रही हूँ। इस लड़की का रूप ही हमारा काल हो गया है।''

सुमित्रा बाघ के पंजे और साँप के शिकंजे से उसे बचा पाने का कोई उपाय ढूँढ़े नहीं पा रही थी। वही काल रूप आगे बढ़ता चला जाय, वह इसके लिए तैयार थी। और मजे की बात तो यह है कि सुमित्रा अपनी बुद्धि के जोर से भी इस असंगति को पकड़ नहीं पा रही थी।

सुमित्रा को चुप देखकर बासंती ने शायद यह ताड़ लिया कि 'चुप्पी हामी का ही दूसरा नाम है। इसे उसकी भापा में 'मौनं स्वीकृति लक्षणं', और हमारी जुबान मंक 'नीमराजी' या 'आधी ही और आधी ना' कहते हैं।' इसलिए बासन्ती ने बड़ी उतावली से कहा, ''तो फिर आज से ही छोड़े जा रही हूँ भाभी! आप लौगों की जूठन-कूटन खाकर गुजारा कर लेगी। जहाँ तक सकेगी...खटेगी। अगर रसोईघर में जाने दें तो आप सबों का खाना-वाना भी बना देगी। और भी जितने घरेलू काम कहेंगी...जरूर करेगी।''

इधर सुमित्रा अनमनी-सी हो गयी थी।

उसने आहिस्ता से कहा, ''नहीं, काम की वैसी कोई बात नहीं है। काम करनेवाले लोग तो मेरे पास हैं। दो-तीन लोगों की रसोई होती ही कितनी है! लेकिन मैं यह सोच रही थी कि पहले तुम्हारे भाई साहब से कहकर...''
बासन्ती ने समझा सुमित्रा का जी थोड़ा-सा नरम हुआ है। उसने इसी मौके को भाँपकर कहा, ''इस बारे में भैया साहब से कुछ पूछने की क्या जरूरत है भाभी...आप जैसा चाहेंगी भैया वैसा ही करेंगे।...और गृहस्थी की रानी तो आप ही हैं। आपके घर में कोई मरद रसोइया या नौकर नहीं है...सिर्फ नौकरानी है। इसीलिए आपकी शरण में आयी हूँ भाभी! आप 'ना' नहीं करेंगी...जानती थी। अब आज तो नहीं...कल इसके कपड़े-लत्ते दे जाऊँगी।...जया...बेटी इधर आ...भाभी जी को परणाम कर। तू इनके यहाँ रहेगी। भाभी जी जैसा कहें...वैसा ही करना है। जब तक तेरी शादी नहीं हो जाती और तू पराये घर नहीं चली जाती तब तक यहीं...भाभी जी का घर ही तैरा ठौर-ठिकाना है।''

सुमित्रा अब भी कुछ तय नहीं कर पा रही थी। इसलिए बोली, ''लेकिन मैं कह रही थी...इसका यहाँ जी लगेगा कि नहीं लगेगा।...''

''अब लेकिन-वेकिन की कोई वात नहीं है भाभी,'' बासन्ती ने चिन्ता भरे स्वर में कहा, ''आप जैसी भली महिला के पास इसका जी नहीं लगेगा भला? आप भी क्या कह रही हैं? यमदूतों के सामने रहते-रहते इस लड़की का चेहरा मारे डर के सूखकर काठ हो गया है! बस्ती के छोकरे डसको देखते ही सीटी बजाने लगते हैं। गन्दे-गन्दे फिकरे कसते हैं...नल पर जाते-आते गन्दे गाने गाते हैं...इशारे करते हैं. छेड़ते रहते हैं। अब आपको क्या-क्या बताऊँ भाभी...ये सारी बातें कहना-सुनना भी पाप है।'' बासन्ती का स्वर 'पाप' कहते हुए बुझ गया। उसकी गर्दन जैसै झुक गयी।

इस बात को सुनकर सुमित्रा का चेहरा उदास और तनिक फीका पड़ गया।

बासन्ती ने पल्लू से अपनी आँखों को ओट में किया और कहा, ''आपको मैं जान-बूझकर थोड़े ही न यह सब कह रही हूँ भाभी! गरीब हूँ...बर्तन माँजकर गुजारा करती हूँ। लेकिन लड़कियों की ड्ज्जत तो होती ही है। आप लोग तो सब पढ़ी-लिखी हैं....सब समझती हैं। उसकी इज्जत की हिफाजत करने का भार आप पर है....भाभी!'' सुमित्रा के कलेजे में एक अजीब-सी धुकधुकी उठी। इस सुन्दर बालिका को मानो बाघ खाने के लिए आ रहा है और सुमित्रा पर उसे बचाने की जिम्मेदारी है। वही उसै बचा सकती है। लड़की के ऊपर साँप कुण्डली मारे और फन काढ़े बैठा है। सुमित्रा अपनी दया-दृष्टि से चाहे तो उसकी रक्षा कर सकती है।
क्या सुमित्रा इतना भी नहीं करेगी?

क्या सचमुच इसमें उसे कोई आपत्ति या असुविधा होगी....अगर गरीब घर की एक लड़की को उसके घर के एक कोने में आश्रय मिल जाए।

एक माँ का व्याकुल हृदय जो अपनी परेशान जवान बेटी की इज्जत बचाने का भार सुमित्रा को सौंपना चाहता है...क्या सुमित्रा उस दायित्व को अनदेखी कर देगी? उसका अनुरोध अस्वीकार कर देगी? सुमित्रा के दरवाजे पर मानवता की दुहाई दी जा रही है...क्या वह दरवाजा बन्द कर देगी?

क्या सुमित्रा यह कहकर अपना दामन बचा लेगी कि तुम अपनी बेटी की ड्ज्जत बचाये रखने का भार मेरे कन्धे पर क्यों डालना चाहती हो? तुम्हीं जानो....यह मामला तुम्हारा है।

लेकिन सुमित्रा जो कह सकती थी....वही कह पायी।

बासन्ती की आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े। और तब उसे रोक पाना किसी के बस में नहीं रहा। वह भाभीजी के पैरों पर लोट गयी और उसके चरणों की धूल को अपने सिर पर लेती हुई बोली, ''मुझे पता था, आप इस दुखिया पर जरूर दया करेंगी। आप तो साक्षात् देवी भगवती हैं। मैं एक-एक करके कई घरों में गयी लेकिन कोई मेरी बात सुनने को तैयार नहीं था।''

इसके बाद....बड़े संकोच के साथ बोली, ''अच्छा तो भाभी, अभी मैं इसे छोड़े जाती हूँ...रात को आकर ले जाऊँगी। आज की रात हम माँ-बेटी साथ पड़े रहेंगे। फिर कल सबेरे इसे इसके कपड़े-लत्ते के साथ आपके हवाले कर जाऊँगी।''

''ठीक है!''

सुमित्रा ने मन-ही-मन सोचा जैसे कि कपड़े-लत्ते के अभाव में मैं तेरी बेटी को रख नहीं पाऊँगी। इसके बाद सुमित्रा अलमारी खोलकर पुरानी साड़ी और ब्लाउज बगैरह चुनने बैठ गयी। इसके बाद जब कभी भी बासन्ती आएगी अपनी बेटी को देखकर हैरान रह जाएगी। उसकी बेटी रूपवती ही नहीं है, उसका चेहरा एक खास तरह की शालीनता से दमकता रहता है। सुमित्रा उसे एक नया जीवन देगी। सुमित्रा उसे लिखना-पढ़ना भी सिखाएगी।
इस मामले में सुमित्रा जहाँ अपनी हैसियत से कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी थी, वहाँ दूसरी और महीतोष भी सुमित्रा की कमजोरियों से अच्छी तरह परिचित था।

यही वजह थी कि उसने सुमित्रा के इस फैसले का जौरटार विरोध करते हुए डपट दिया, ''यह क्या...एकदम से वादा ही कर बैठी...इसका कोई मतलब है? एक बार पूछ तो लेती...या इसकी भी जरूरत नहीं थी...?''

''ऐसी चिरौरी करती रही...पाँवों पर पड़ गयी कि...'' सुमित्रा सफाई देते हुए बुरी तरह सहम गयी।

''...पड़ेगी क्यों नहीं पाँवों पर भला!...काम निकालने के लिए पैर की धूल तक चाटने को तैयार हो जाएँगे ये लोग। लेकिन इसी वदोलत तुम इतना बड़ा बोझ उठाने को तैयार हो जाओगी...अच्छी मुसबित है...।''

''वह लड़की उनकी बस्ती में टिक नहीं पाएगी।'' सुमित्रा ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ''अच्छी-भली लड़की है...इसीलिए वहाँ टिक नहीं पा रही है। कोई ऐसी-वैसी लड़की होती तो उसी गन्दे माहौल को अपना चुकी होती। मैं जान-बूझकर उस लड़की कौ भेड़ियों के मुँह में झोंक दूँ? यही चाहते हो तुम?''

''इस दुनिया में न जाने रोज ऐसे कितने ही हादसे हो रहे हैं....क्या तुम उन सबका दायित्व अपने सिर ले पाओगी?''

''सबका तो नहीं...लेकिन किसी एक का दायित्व तो ले सकती हूँ।''

''यह कविता और कहानी वाली बातें रहने भी दो,'' महीतोष उत्तेजित हो गया था, ''आदमी को आगे-पीछे सोचकर सारा काम करना चाहिए। एक लड़की क्या देख ली...बस हो गया। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली वह लड़की अब रातों-रात ठाठ से रहने का ख्वाब देखने लगी है।''

सुमित्रा का चेहरा तमतमा गया, ''वे लोग चाहे जैसे भी हों...तुम तो अपनी जुबान गन्दी मत करो। अगर ऐसा ही रहा होता तो वह इतनी उतावली न होती और इस तरह रोती-कलपती नहीं।''

''अरे इसमें कितनी ही तरह की चाल हो सकती है।''
''इसमें अब कैसी चाल?'' सुमित्रा ने धीमे स्वर में कहा, ''सारी बातें सुनने पर तुम भी 'न' नहीं कह पाते। टोले-मोहल्ले के न जाने कितने ही गुण्डों ने उसकी बेटी को कैसे-कैसे सताना शुरू कर दिया है। उन बेहूदी हरकतों से तंग आकर बेटी ने माँ कौ रो-रोकर बताया कि माँ देखना...एक दिन मैं गले में रस्सी का फन्दा डाले मूल रही होऊँगी।...''

''तो फिर माँ को भी उसी नौकरी को करते रहने की क्या जरूरत है?''

''अरे भई, रुपयों की जरूरत किसे नहीं होती है? और गरीबों को तो और भी ज्यादा। अपनी बेटी की शादी के लिए बेचारी माँ ये रुपये जोड़ रही है।''

महीतोष ने उखड़े ढंग से कहा, ''अरे एक बर्तन माँजनेवाली की बेटी को ब्याहने के लिए कितने हजार रुपयों की जरूरत पड़ेगी आखिर?''

सुमित्रा को इस सवाल से तकलीफ हुई। पति के मन में गरीबों के प्रति शुरू से ही जो उदासीनता भरा रवैया था, उसे वह एकदम झेल नहीं पाती थी। वह जैसे तन गयी और बोली, ''जाने भी दो...इस सूखी बहस में क्या रखा है? लेकिन बेटी की चौकसी करती हुई भी क्या बेचारी माँ उसे बचा पाएगी? आखिर उसकी हैसियत ही क्या है? हो सकता है कोई उसकी आंखों के सामने से ही उसे झपट ले जाए।''

महीतोष के तेवर में अब भी अवज्ञा का ही भाव था। उसने इसी के अनुरूप बिना कोई आग्रह जताते हुए कहा, ''हां, भाभीजी के जी को मोम-सा पिघलाने के लिए लगता है वह ढेर सारे बहाने बना गयी है। उनकी ये सारी बातें पूरे पर डालो...इनमें कोई दमखम नहीं है। ऐसे ही चोंचलों से वह तुम्हारे गले अपनी बेटी मढ़ जाएगी। और उधर पुलिस को बुलाकर कहेगी, बाबू लोगों ने मेरी बेटी को बन्द कर रखा है।''

सुमित्रा तो जैसे ढेर ही हो गयी। बोली, ''बातें बनाना सिर्फ उन्हें ही नहीं आता। ऐसी ऊल-जुलूल की बातें तुम्हारी खोपड़ी में भी उग सकती हैं।''
''क्यों नहीं उगेगी? तुम्हारी तरह मेरी आंखों में कोई मोतियाबिन्द तो उभरा नहीं कि कुछ नजर ही न आए। बड़े-बड़े शहरों में कितनी तरह की शैतानी...कितने तरह का उचक्कापन और लूट-खसोट है...पता है तुम्हें? आये दिन ऐसी खबरें छपती रहती हैं। और तुम जब यह देखोगी कि उसी लड़की ने तुम्हारी भलमनसाहत का मुखौटा उतारकर फेंक दिया है और सरेआम यह कह रही है कि बाबू ने काम के बहाने बुलाया और जबरदस्ती हाथ पकडे हुए हैं...। और बस चले तो मेरे नाम भी जोरदार इल्जाम लगाकर थाने में एक मामला ठोंक देगी।''

''इसमें उसका क्या फायदा होगा?'' सुमित्रा की आवाज बैठ गयी।

महीतोष ने व्यंग्यभरी मुस्कान के साथ कहा, ''लगता है...तुमने अभी-अभी धरती पर अपनी आँखें खोली हैं। क्या फायदा है...यह तुम्हें नहीं मालूम! कान उमेठकर भले लोगों से जबरदस्ती रुपये वसूलना। वह जिन गुण्डों और बदमाशों की बात कह रही है न...मुमकिन है वही सब उसे ऐसा करने पर उकसा रहे हों। और देखना...वही सब छाती पर सवार होकर भद्दी-भद्दी गालियाँ बकेंगे। हाय-तोबा करेंगे...हो-हल्ला मचाएँगे। नहीं भई...यह सब नहीं होगा। बस...जितनी जल्दी हो रफा-दफा करो। तुम्हें बताया न कि रात में बेटी को लेने माँ आएगी तभी कह देना...कि भैया साहब इस बात के लिए राजी नहीं हुए।''

सुमित्रा ने ठहरी हुई आँखों से देखा और कहा, ''इसका मतलब तो यही हुआ न कि एक बर्तन माँजने वाली के सामने मुझे यह मान लेना होगा कि इस घर-संसार में मेरी कोई हैसियत ही नहीं है।''

महीतोष ने इस शिकायत पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। उसने उसकी बात की अनसुनी करते हुए कहा, ''अरे...बाप! ऐसा..लगता है, न जाने कितने बड़े आदमी के सामने तुम्हारी इज्जत चली जाएगी। कविताई छोड़कर दुनियादारी की तरफ लौटने की कोशिश करो जरा। और मान लो कि सारी वातें सही हैं...तो फिर क्या करोगी तुम?
''और मान लो कि ऐसा कुछ नहीं था...और खुश-किस्मती से बर्तन घिसने वाली नौकरानी जो कह रही थी वही सच हो तो''

''तो क्या...यह वह लड़की और उसकी माँ समझे। बस्ती में और भी तो दूसरे लोग हैं, उन्हें बताकर रखे।''

''फिर तो तुम यह स्वीकारते ही हौ न कि जब बस्ती के तमाम लोगों को इस बारे में बताया जाएगा तब वे उसकी लड़की की इज्जत वचाने की जिम्मेदारी ले लेंगे।''

महीतोष ने बड़े उत्साह में भरकर कहा, ''क्यों नहीं लेंगे भला? उसमें से सभी लोग बुरे नहीं हैं। काफी सारे ऐसे हैं जो गृहस्थ हैं, बाल-बच्चे वाले हैं। अगर वे सब मिल जाएँ तो मुठ्ठी भर बददिमाग छोकरों को ठिकाने नहीं लगा सकते?''

''इसका मतलव तो साफ है....तुम यह पूरी तरह विश्वास करते हो कि उस गरीब बस्ती के लोगों में तुम्हारे मुकाबले कहीं ज्यादा इन्सानियत है और शायद हौसला भी...''

''बोलती जाओ...जो जी में आए,'' महीतोष ने कहा, ''लेकिन चाहे जो हो जाए मैं तुम्हारी इस बासन्ती बाला की रूपवती बेटी को अपने घर में पनाह देने को रत्ती भर राजी नहीं। ऐसी-वैसी न होने पर भी वह लड़की इस घर में बैठे-बैठे ही खामखाह कोई-न-कोई हंगामा खड़ा कर सकती है।''

सुमित्रा के होठों के कोने पर मुस्कान की तीखी धार खेल गयी और वह बोली, ''आखिर किसके साथ? इस घर में कोई नौकर-चाकर तो है नहीं।''

महीतोप हा..हा...कर हँस उठा, ''होने को तो इस अभागे मकान-मालिक के साथ भी हो सकता है! और भगवान की दया से उसे जैसा चेहरा-मोहरा मिला है...''

''फिर तो उसे जरूर बुलाकर रखना चाहिए।'' सुमित्रा के होठों पर खेलने वाली वह तिरछी मुस्कान अब भी कायम थी, ''यह भी पता चल जाएगा कि वह खरा सोना है या पीतल।''
महीतोष ने पहले तो मजाक में ही वह सब कहा था। इस बार तिनक गया और बोला, ''ये फालतू की बातें उठा रखो। उसकी माँ आ जाए तो साफ-साफ कह देना कि यहाँ कोई आसरा-वासरा मिल नहीं पाएगा।''

''यह तुम्हीं बता देना।''

''मैं! मैं भला क्यों बताने लगा? मैंने तुम्हारी नौकरानी के संग कभी मुँह लगाया भी है? जो कुछ कहना है... तुम्हीं कहना।''

''मैं ऐसा कुछ नहीं कह पाऊँगी। मैंने उससे वादा किया है।''

''बात को समझे बिना वादा कर बैठी....अब इस मुसीबत से तो जूझना ही पड़ेगा।'' महीतोष के स्वर में खीज थी, ''एक नौकरानी पता नहीं कहाँ से आयी....अण्ट-सण्ट बक गयी और एक वादा ले गयी और उस बात को प्राण-पण से निभाने को महारानी जी तैयार बैठी हैं। ठीक है...तुम बैठी रहना....मैं ही कह दूँगा।'' और महीतोष ने कहा दिया....सचमुच।

सुमित्रा अपने कमरे में बैठी सुनती रही....सब कुछ।

बासन्ती रुँधे गले से टूट-टूटकर कह रही हैं, ''भाभी को एक बार बुला तो दीजिए, भैया साहब! उनके साथ मेरी बात तय हो गयी थी। मैं बड़ी उम्मीद से उस घर के लोगों को यह बता आयी थी।''

''भाभीजी के सिर में जोरों का दर्द हो रहा है। वे सो रही हैं...'' महीतोष ने उसे बताया।

''मैं जरा...उनके कमरे के चौखट तक जाऊँ, भैया साहब....। भरोसा देकर विश्वास कभी नहीं तोड़ेगी हमारी भाभी....।''

''नहीं...नहीं....उन्हें परेशान करने की कोई जरूरत नहीं। उनकी तबीयत बहुत खराब है....वे अपना सिर तक नहीं उठा पा रहीं।''

बासन्ती कुछ देर तक खड़ी-खडी सुबकती रही।

और तभी उसे सुन पड़ा एक ऐसा स्वर, जिसमें आग भरी हुई थी।
''जाने भी दो माँ....चली आओ। भाभी जी....भाभी जी...कहकर रोने की जरूरत नहीं। मैं समझ गयी किसकी कितनी औकात है। और तुम्हें बेटी की इज्जत का हौवा खड़ा कर इन बाबू लोगों के सामने गिड़गिड़ाने की कोई जरूरत नहीं। इन बाबुओं के लिए हम गरीब लोगों की इज्जत की कोई कीमत नहीं। ठीक है, हम लोग जब छोटे लोग हैं तब छोटे लोगों की तरह ही रहेंगे।....और इसमें चाहे जैसी भी दुर्गत झेलनी पड़े....हम झेलेंगे।...''

सीढ़ियों पर तेज कदमों से चलने की जोरदार धमक सुमित्रा के कानों में पड़ी। और इसके बाद सब कुछ...खामोश हो गया।

महीतोष कमरे में तमतमाता हुआ आया और बोला, ''सुन लिया न....अब तो मर गये न तुम्हारे कान के कीड़े! उस लड़की को तुम बड़ा भला और बड़ा सभ्य कह रही थी।....हुं हँ।''

सुमित्रा कोई उत्तर नहीं दे पायी। एक लड़की की इज्जत बचा न पाने की उसकी हैसियत तक जवाब दे गयी थी और इसलिए वह अपना सिर तक उठा नहीं पा रही थी।

सवाल था कि वह कौन थी और सवाल किसकी इज्जत का था!


(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)

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