इब्ने-मरियम (कहानी) : जिलानी बानो

Ibn-e-Mariyam (Story in Hindi) : Jilani Bano

अँधेरे कमरे में वे चुपचाप बैठे थे, जैसे खुला हुआ सितार रखा हो किसी मिज़ाब (छल्ला) के इंतज़ार में।

‘‘आओ, आओ, यार…कब आए? पच्चीस बरस से इंतज़ार कर रहा हूँ तुम्हारा।’’

‘‘मगर कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?’’ मैंने शहाब के गले लगकर कहा।

‘‘बस, यूँ ही…कोई आए तो रोशनी करें। अपने लिए उजाले की क्या ज़रूरत है अब…’’

मैंने कुर्सी पर बैठकर देखा, यह अहमक़ कुछ नहीं बदला…ज़िंदगी-भर कोई गुनाह न करने की हिमाक़त उसके चेहरे पर लिखी हुई थी। हम पच्चीस बरस बाद मिले थे। मैं अपनी ‘मैं’ से भरा हुआ था। मैंने अपनी हर ख़्वाहिश पूरी की थी। दौलत, शोहरत, इक्तिदार (सत्ताधिकार), ऐशो-आराम…हाई ब्लडप्रेशर से भारी बदन, एंजाइना से लरज़ते (काँपते) हुए दिल को सँभालकर मैंने फिर पूछा, ‘‘क्यों यार, कैसे हो?’’

‘‘ठीक-ठाक।’’

‘‘यार, तुम तो कुछ भी नहीं बदले…वैसे ही दुबले-पतले। बूढ़े कब हो गए?’’

‘‘मैं…’’ ग़ालिबन (संभवतः) उन्होंने पहली बार अपनी तरफ़ देखा, ‘‘पता नहीं…’’ वह अपने घने सफ़ेद बालों पर हाथ फेरने लगे।

‘‘उन्होंने लोगों को बेवकूफ़ बनाने का पेशा अख़्तियार किया है,’ मैंने दिल में सोचा, ‘‘भाभी की बेवक़्त मौत की ख़बर से बहुत अफ़सोस हुआ। तुम्हारी पेंशन भी हो गई है क्या?…इस अकेले कमरे में कैसे दिन गुज़ारते हो?’’

‘‘अकेला…नहीं यार, मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ बहुत-से लोग जीते हैं। उनमें घुल-मिलकर पता नहीं चलता, मैं कहाँ हूँ।’’

‘‘हाँ, मैंने लंदन में सुना था कि तुमने लोगों को बेवकूफ़ बनाने का धंधा शुरू किया है।’’ मैंने पाइप में तंबाकू भरके फूँक मारी।

‘‘लंदन से आने के बाद मैं तो अब मिनिस्टरी में हूँ। समझो, सरकार हमारे इशारे पर नाचती है।’’ मैंने अपने सूट पर से सिगार की राख झाड़कर उसके बेटे यूसुफ़ से कहा, ‘‘अब मेरा एक लड़का और लड़की अमेरिका में हैं। छोटा लड़का कैंब्रिज में पढ़ रहा है। बीवी को तो बस लंदन ही पसंद है। उसके लिए एक मकान लंदन में बनवा लिया है। देहली में भी मकान तैयार हो गया है। यह लो, शहाब, यह तुम्हारे लिए सूट, ट्रांज़िस्टर, परफ़्यूम…’’

‘‘अब्बाजान कॉलेज में आपके साथ थे?’’ उसके दुबले-पतले क्लर्क लड़के ने रश्क-भरे अंदाज़ में पूछा।

‘‘हाँ, बेटे! हम स्कूल के साथी थे। फिर कॉलेज में साथ रहा। दोनों ने साथ ही एम.ए. किया था, और भई, अब तुमसे क्या छुपाएँ मियाँ साहबज़ादे, हम दोनों ने तो पहला इश्क़ भी एक ही लड़की से किया था।’’ मैंने क़हक़हा लगाकर शहाब के कंधे पर हाथ मारा।

‘‘हाँ, हाँ…वह काले बुर्के वाली…’’ अचानक वह ख़ुश हो गए।

‘‘मगर भई, वहाँ हम हार गए थे।’’ मैंने यूसुफ़ की तरफ़ देखा। वह अपने बाप की जवानी में था।

‘‘वह लड़की तुम्हारे अब्बा की तरफ़ ही दौड़ती थी…बड़े हीरो लगते थे यह मौलाना…तुम्हारे जैसे हैंडसम नौजवान…मगर विसाले-यार (प्रेमिका का मिलन) तुम्हारी क़िस्मत में भी नहीं था। हम इस पर ख़ुश थे।’’

शहाब का लड़का अपनी ख़ूबसूरती की तारीफ़ पर ख़ुश नहीं हुआ। वह रश्क-भरे अंदाज़ में मेरे साँवले, भद्दे बदन को घूर रहा है।

‘‘कॉलेज में दोनों साथी थे। एक दौड़ता हुआ लंदन चला गया, दूसरा…’’

‘‘दूसरा मुहल्ले के भोले-भाले लोगों को तावीज़-गंडे देता है। अँधेरे कमरे में झलँगे पलंग पर पड़ा है। न बाहर की दुनिया से कोई वास्ता, न घर वालों से कोई संबंध। दोनों बेटे ख़ुद ही ठोकरें खाते किसी न किसी राह पर निकल गए। बहुएँ घर आईं तो घर के काठ-कबाड़ में सबसे ज़्यादा बेकार चीज़ उनका ससुर था। कोई मसरफ़ (उद्देश्य) ही नहीं था। उसका। इसीलिए खाने के वक़्त उन्हें जगाना याद ही न रहता। उनकी बीमारी का इलाज घरेलू चुटकुलों से हो जाता था। अपनी पेंशन लाकर बीवी के हाथ पर रखते। फिर हर चीज़ से बेनियाज़ (बेपरवाह) हो जाते।

‘‘शाम को छड़ी लेकर जाने कहाँ टहलने जाते थे। कभी-कभार कमरे में लोग आने लगे—टूटे-फूटे बुड्ढे, रोती-सिसकती आरतें, दम तोड़ते बच्चे…सरगोशियाँ…आँसू…मुसकराहटें…

‘‘ ‘फ्रॉड है यह आदमी!’

‘‘ ‘दहरिया (नास्तिक) है। ख़ुदा को नहीं मानता!’

‘‘ ‘लोगों को तावीज़ लिखकर देता है!’

‘‘पहले तो इनकी बहू भी हाँ में हाँ मिलाती रही। फिर अचानक उस पर इंकशाफ़ (रहस्योद्घाटन) हुआ कि उसका ससुर सचमुच एक पहुँचा हुआ बुजुर्ग है, जो लोगों के दिलों का हाल जानता है।

‘‘दिन-भर भूखा रहकर भी खाना नहीं माँगता। किसी की शिकायत नहीं करता। उसके मुँह से जो बात निकलती है, सच हो जाती है…यह राज़ मुहल्ले की औरतों ने बताया था।’’

‘‘सुना है, तुम्हारे अब्बाजान तो दुखते बदन पर हाथ रखकर दर्द ग़ायब कर देते हैं…’’

मैंने यूसुफ़ से हँसकर पूछा। हम दोनों हँसने लगे, मगर यूसुफ़ ने सिर झुका लिया, जैसे बाप की इस बदनामी पर शर्मिंदा हो।

‘‘तुमने अपने दर्द पर हाथ क्यों नहीं रखा?’’ मैंने हँसते हुए पूछा।

‘‘यह हमारा काम है क्या…?’’ वह अचानक संजीदा हो गए और यूसुफ़ ने घबराकर उठते हुए कहा, ‘‘अंकल…आप चाय लेंगे या कॉफ़ी?’’

‘‘यह बात तो तुम्हारे दोस्तों ने लंदन तक पहुँचा दी है कि तुम हाथ लगाकर दर्द दूर कर देते हो।’’

‘‘हाँ…ज़िक्र मेरा मुझसे बेहतर है…’’

‘‘मुझे यह बात बताओ न कि यह सच है या नहीं?’’

मैं नहीं चाहता था कि इस अधूरी बात को ज़ेहन में उलझाए वहाँ से उठूँ।

‘‘साजिद यार, तुम तो जानते हो कि कुछ बातों को दुनिया नहीं मानती, मगर इस अच्छाई को अच्छा कहने के लिए कितनी कड़वाहट निगलनी पड़ती है। तुम अंदाज़ा नहीं कर सकते…’’

‘‘अच्छा…तो ज़हर का प्याला सुकरात के सामने रखा है…’’ मैंने सिगार मुँह में दबाकर चारों तरफ़ ऐश-ट्रे को ढूँढ़ा…उन्होंने झुककर ऐश-ट्रे की बाजय चाय का ख़ाली कप मेरे सामने रखा।

‘‘रखा नहीं है यार…पी चुका हूँ…’’ उन्होंने सीने में उलझी हुई साँसों को दबाकर दोनों हाथों से सिर को थामा और मेज़ पर झुक गए।

‘‘नाज़ी मर गई…तीस बरस का साथ छोड़कर…वह मेरे साथ कभी न थी। काले बुर्क़े वाली ने मुझे तनहा कब छोड़ा…वह चुपचाप अपनी ज़िम्मेदारियों में उलझी रहती…

‘‘मुझे उसके वजूद का एहसास उस वक़्त होता, जब उसकी कोई बात बुरी लगती…जब वह अपने किसी फ़र्ज़ से ग़ाफ़िल हो जाती थी…फिर एक दिन वह अपने सारे काम निपटाकर सफ़ेद कपड़ों में छुपी दालान में लेटी थी…देखो…देखो…उसे आख़िरी बार देख लो…

‘‘मगर मैंने नाज़ी को पहली बार कब देखा था…वह इतनी ख़ूबसूरत थी…उजली-उजली…हर ख़्वाहिश से बेनियाज़…कितनी पुरसुकून…मैंने पहली बार आज उसका मुसकराता चेहरे देखा…पहली बार सोचा कि नाज़ी चाहे जाने के क़ाबिल थी…जाने उसकी क्या ख़्वाहिश थी…कौन-सी तलब, मगर उसके हाथ ख़ाली थे…उसके कराहने की आवाज़ आ रही थी…

‘‘ ‘उफ़्फ़ोह…बहुत दर्द हो रहा है…यहाँ…ज़रा देखिए न!’ वह बिस्तर पर मेरा हाथ पकड़कर खींचती।

‘‘ ‘दर्द कैसे देखूँगा मैं?’ मुझे गुस्सा आ जाता।

‘‘ ‘आज फिर दर्द है…यहाँ…यहाँ…’ वह फिर करवटें बदलती।

‘‘ ‘कोई तकलीफ़ है, तो डॉक्टर के पास जाओ न…दवा लाओ…आधी रात को नींद क्यों ख़राब करती हो?’

‘‘ ‘आज बहुत दर्द है…यहाँ…और यहाँ…ज़रा हाथ लाइए…’ अचानक नाज़ी का बेहिस-बेहरकत (निश्चल-निस्पंद) बदन बोलने लगा। मैंने उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया।

‘‘ ‘नहीं…नहीं…इसे छूना मत,’ किसी तजुर्बेकार ख़ातून ने रोक दिया, ‘अब वह तुम्हारे लिए नामहरम (परायी) है!’

‘‘मैं पीछे हट गया। नाज़ी मेरे लिए नामहरम ही रही। मैं उसे कभी नहीं छू सका।

‘‘फिर मैं उसे पकड़ने के लिए भागा। रोज़ मुझे क़ब्रिस्तान की तरफ़ दौड़ते देखकर मुहल्ले की औरतें बाहर निकल आईं।

‘‘ ‘भाई जी, ज़रा ठहरिए…’ एक दिन किसी ने रोक लिया, ‘सुबह से मेरे बच्चे की तबीयत बहुत ख़राब है। ज़रा दुआ पढ़ दीजिए…उसके पेट में बहुत दर्द है…यहाँ…और यहाँ…’

‘‘ ‘कहाँ?…कहाँ?…’ मैंने बेज़ारी से बच्चे के सारे बदन को टटोला।’’

यूसुफ़ चाय की ट्रे लेकर अंदर आया। मिठाइयाँ, बिस्कुट, सेब, संतरे…

‘‘खाइए अंकल, लीजिए अंकल…’’

‘‘जाओ बेटे, तुम अपना काम करो। मैं सब चीज़ें खा लूँगा।’’

शायद वह मुझसे कहना चाहता था कि बाबा के पुराने दोस्त हैं, इन्हें समझाइए। जग-हँसाई से क्या फ़ायदा?…मैं यूसुफ़ की नज़रों से यह बात समझ गया।

‘‘बेटे, हम पच्चीस बरस बाद मिले हैं। पहले अपना जी ख़ुश कर लें। फिर तुमसे बातें होंगी…’’

वह अपना हाथ लगाकर दर्द ग़ायब कर देते हैं।

कैसे…? कैसे?…

तमाशा देखने वाले जमा होते गए। मुहल्ले से निकलकर बात शहर में फैलने लगी। उनके दर्शन करने लोग सड़क पर खड़े हो जाते थे।

गठिया के दर्द में तड़पने वाले बूढ़े, शौहरों की मार से टूटी हुई औरतें, अपने घाव लिए इधर दौड़ने लगे…

वह बदन पर हाथ रखते, ‘‘दर्द कहाँ है?…’’

‘‘यहाँ…यहाँ…(नाज़ी के दुखते हुए बदन को आराम मिल जाता)।’’

अपनी नज़रों से वह सारी दिखने वाली रगों को सेंक देते थे…सारे बंद दरवाज़े खुल जाते। छुपे हुए जज़्बों, आसूदा (संतुष्ट) ख़्वाहिशों पर हाथ रखकर वह पूछते, ‘‘अब दर्द है?…अब…अब…’’

कितनी बार नज़रें झुकाना चाहीं, मगर किसी सहर (जादू) ने जकड़ लिया। फिर दबे-दबे दुःखों की लहर उठती। दिल को बेचैन करने वाले गुनाह का एहतराफ़ (स्वीकृति) बचाव की कोई सूरत न पाकर वह चिल्ला उठती, ‘‘रोज़ रात को मारता है साब…मेरे बाप के पास पैसे नहीं…कहाँ से लाऊँ…?’’ सिसकियाँ, आहें, पछतावे!

‘‘ठीक हो जाएगा…अल्लाह पर भरोसा रखो। अब नहीं मारेगा…लो, यह तावीज़…कभी मत खोलना…सीने के पास लटकाए रखो…’’

रात को यों लगता, जैसे सीने पर साब का हाथ रखा हो…ठीक हो जाएगा…

‘‘अब नहीं मारेगा…’’ उसने मारने को हाथ उठाया, मगर तावीज़ देखकर रुक गया।

‘‘यह साब का तावीज़ है। मेरे ऊपर अब कोई बला नहीं आ सकती।’’…और बिला-ख़ौफ़ के मारे वह दूर हट गई…

‘‘यह सब तो सुन लिया मैंने…मगर लोग कहते हैं कि तुम तावीज़-गंडे देकर लोगों को धोखा दे रहे हो।’’ मैंने सेब काटते हुए कहा।

‘‘मैं सब जानता हूँ, यार कि लोग मेरे बारे में क्या-क्या कहते हैं।’’

वह चाय में शक्कर घोलने लगे।

‘‘लोग सिर्फ़ सलीबें बनाना चाहते हैं। फिर उन्हें सूली पर चढ़ाने के लिए रस्सी की ज़रूरत पड़ती है। वह किसी सच्चाई को जीने नहीं देते।’’

‘‘सच्चाई…! कौन-सी सच्चाई?’’ मैंने सेब का टुकड़ा मुँह में रखा।

‘‘लोगों को काग़ज़ के पुरज़े देकर उन्हें रंगीन ख़्वाबों के झाँसे देते हो, यह सच्चाई है!’’

‘‘यों ही सही,’’ उन्होंने ख़ाली डिबिया में सिगरेट ढूँढ़ते हुए कहा, ‘‘कोई रंगीन ख़्वाब देख सके, यह कितना बड़ा सवाब (पुण्य) है!’’

‘‘सवाब नहीं, धोखा है।’’ मैंने गुस्से में कहा।

‘‘अच्छा…’’ वह घबरा गए। दोनों हाथ कुर्सी पर रखकर सिर टिका दिया। फिर आँखें बंद करके कुछ सोचने लगे, ‘‘तुम्हें याद है, साजिद! जब हम दोनों काले बुर्क़े वाली के दीवाने थे। मुझे ऐसा लगता, जैसे वह न मिली, तो मैं जी न सकूँगा। फिर मैं एक तोते वाले नजूमी (ज्योतिषी) के पास गया, और तोते ने जो परची उठाई, उस पर लिखा था, ‘मुराद पाओगे…बस, मैं जी उठा।’’

मुझे इस बात पर हँसी आ गई, ‘‘मगर उस तोते ने तो ग़लत परची उठाई थी न!’’

‘‘नहीं…’’ उन्होंने छत की तरफ़ देखते हुए कहा, ‘‘सही परची उठाई थी। मुझे जीने का सहारा मिल गया था।’’

फिर उन्होंने अपने ठंडे, काँपते हुए हाथ से मेरा हाथ थाम लिया। मैंने देखा, वह रो रहे थे।

‘‘जब हम इस दुनिया से हारकर ऊपर देखते हैं न, तो हमें ख़ुदा नज़र आता है। किसी न किसी सूरत के अंदर छुपा, किसी देवता की शबीहा (शक्ल) लिए…उसे थाम लो तो सब दर्द थम जाते हैं।…यह बात मुझसे नाज़ी ने कही है।’’

उनकी सूरत देखकर मुझे चोट-सी लगी। मुहब्बत से कंधे पर हाथ रखकर मैंने कहा, ‘‘मैं तुम्हारी बात समझ रहा हूँ, शहाब, मगर फिर कहूँगा कि अपनी यह मसरूफ़ियत छोड़ो। लोग तुम्हारे दुश्मन बन गए हैं।’’

‘‘नहीं!’’ वह घबरा गया, ‘‘दुनिया में कुछ कम दुःख हैं, जो लोग मुझसे दुश्मनी की अज़ीयत (यातना) सहते हैं।…मैं तो मिट्टी में बीज डालता हूँ। सब दाने ख़ाक में मिल जाएँ। एक अँखुआ तो फूट जाता है न…’’

थोड़ी देर के लिए उन्होंने मुझे चुप कर दिया। फिर मैंने उठते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी सारी बातें ठीक हैं, मगर अपना वक़्त क्यों ख़राब करते हो? कोई मुनाफ़ाबख़्श धंधा करो, यार!’’

हम दोनों हँस पड़े।

अचानक मेरी नज़र तकिये पर रखी फ़ाइल पर गई, जहाँ उन्होंने एक तावीज़ किसी हाजतमंद (ज़रूरतमंद) के लिए बना रखा था।

मैंने झुककर उठाया और उसे खोला : ‘मेरे दुःख की दवा करे कोई!’

‘‘क्या करते हो, यार!’’ उन्होंने मेरे हाथ से वह काग़ज़ छीन लिया, ‘‘इसे खोलो मत! सीने के पास लटकाए रखो!’’

  • मुख्य पृष्ठ : जिलानी बानो : कहानियाँ हिन्दी में
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां