हुश्शू (कहानी) : रतननाथ सरशार
Hushshu (Long Story Hindi) : Ratan Nath Sarshar
हुश्शू : पहला दौरा (बेतुकी हाँक)
महुए से कुछ गरज है न हाजत है ताड़ की
साकी को झोंक दूँगा मैं भट्टी में भाड़ की!
हात्तेोरे पीनेवाले की दुम में पुरानी भट्टी का जंग लगा हुआ भभका! ओ गीदी, हात्तेीरे शराबखोर की दुम में मियाँ आलू बुखारा अत्ताकर की करनबीक! ओ गीदी, हात्तेगरे मतवाले की मगड़ी के दोनों सिरों में कठपुतली नाच-ताक धनाधन ताक धनाधन। हात्ते रे की - और लेगा? अबे, तुम लोगों के हम वैसे ही दुश्मलन हैं जैसे मोर साँप का, कुत्तां बिल्ली का, गेंडा हाथी का। गैंडे ने हाथी को देखा - और जंजीर तुड़ाके दौड़ा और सींग मारा और हाथी का पेट फाड़ डाला, - हात्ते रे की - और लेगा? मियाँ हवन्ना साहब कजली बन के महाराजा बने चले जाते हैं, मगर दुश्मान से नहीं चलती। साँप के नाम से लोग काँप-काँप उठते है, यहाँ तक कि औरतें रात को साँप का नाम नहीं लेतीं - कोई मामूजी कहती है, कोई रस्सी । अगर मोर ने पकड़ा और झिंझोड़ा और निगल गया - हात्तेरे की! और लेगा? बिल्ली , जुलमी जानवर मशहूर है - बाघ की मौसी शेर की खाला। मगर कुत्ते ने जहाँ दबोचा, बिल्ली मय म्याऊँ के गायब-गुल्ला - हात्तेरे की! और लेगा?
इसी तरह हम जानी दुश्मान तुम लोगों के हैं। बस चले तो कच्चात ही खा जायँ, कभी न छोड़ें। और क्योंर छोड़ने लगे, जी? न पियो तो हम काहे को बोलें! गरज? मगर यह मुमकिन नहीं कि पियो और हम छोड़ दे, यह तो सीखा ही नहीं यहाँ। पीने के नाम पर तीन हरफ - लाम, ऐन, नून; बल्कि चार - लाम, ऐन, नून, ते (ल, अ, न, त - 'लानत') जिनको बाज मूरख कम पढ़े 'नालत' बोलते हैं। हम वह शख्सो हैं जो तुम्हातरा नाम सुनके इस तरह भागें, जैसे लाहौल! कहने से शैतान भागता है - जैसे गधे के सर से सींग नदारद - कहीं पता ही नहीं - बिलकुल कमंदे हवा! - हत्तेनरे गीदी की! और लेगा?
यह दुख्त रे-रिज, हरामजादी, मुर्दार,
मीनाबार की है रहनेवाली!
(दुख्तीरे-रिज - अंगूर की बेटी, यानी शराब)
इन मालजादियों को भलेमानस कहीं मुँह लगाया करते हैं! उसकी ऐसी तैसी! हम किसी शरीफ को कब मानते हैं, ए लाहौल! - हात्तेेरे की और तेरे साथ ही ऐरे-गैरे की।
दिन रात गुफ्तगू है शराबो-कबाब की,
क्यार मुँहलगों ने यार की सोहबत खराब की!
बहुत ठीक, बहुत दुरस्तह। निहायत सही।
शराब थोड़ी सी मिलती तो हम वजू करते,
खुदा के सामने पैदा कुछ आबरू करते!
यह गलत, इसका बाप गलत! यों कहना चाहिए -
शराब थोड़ी सी पीते तो मस्ता होते हम
खराब होते हम और मय परस्त् होते हम!
जितने शेर शराब की तारीफ में हैं सबको उलट कर न रखा हो तो हमारी दुम में भी बहराइच का नम्दा । और नम्दाम भी कौन? मोटा सर, आग से ज्यादा गर्म - धुआँ निकलता हुआ।
ओ हो हो, वाह रे, मैं और वाह री मेरी तबीअतदारी। बस मैं ही मैं हूँ, जो कुछ हूँ। जवाब काहे को रखता हूँ, चोर हो मेरा दोस्त , डाकू हो मेरा यार, उठाईगीरा हो मेरा जिगर, लुच्चीक हो मेरी जान। बेसवा हो कि भटियारी हो - उसकी एक एक अदा पर मेरी जान वारी। मगर शराबी की सूरत से नफरत चाहिए। थोड़ी पिए चाहे बहुत, इससे बहस नहीं। आदमी वह अच्छा, जो इस मुर्दार के पास न फटके, दूर-दूर रहे - मंजिलों दूर। शराब पर तुफ। जहाँ पाओ उसकी बोतल तोड़ डालो। उसकी भट्टी को भाड़ में डालो, उसकी दुकान का तख्ता उलट दो, कलवारीखाने को आग लगा दो, कलवार को फूँक दो - कलवार का नाम दुनिया के सफे से गलत हरफ की तरह मिटा डालो। अगर मुँह लगी हो - तो तलाक दे दो।
यह बोतल है कि इक टिल्लोस है कानी,
चुडैलों की चची डायन की नानी!
अगर डाक्टीर दवा में शराब दे, तो दवा को फेंक दो, पुड़िया को फूँक दो, शीशी को तोड़ दो, बोतल को फोड़ दो! और अगर इन्सादनियत मिजाज में हो - तो आव देखो न ताव, डाक्ट़र को मार बैठो! हात्तेडरे की - और लेगा, गीदी?
यह है हर हाल में माहुर से बदतर
खुदाई मार इस दारू मुई पर!
न कपड़ों की खबर ना तन की कुछ सुध,
कहीं, पगड़ी, कहीं जूता कहीं सर।
भलेमानुस से बन जाते हैं पाजी,
पड़े हैं अक्ल पर कैसे ये पत्थजर!
जो हो जाएँ ये इक चुल्लूर में उल्लू,
सुनाएँ लाख साकीनामें फर फर,
उचकते फाँदते हैं पी के ठर्रा,
हैं इंसाँ शक्लै में, सीरत में बंदर,
नहीं कुछ थाह उनके पाजीपन की
भरे ऐबों से हैं दफ्तर के दफ्तर!
गरज कि जहाँ कही शराब देखो, छीन लो, शराबी मिले तो - मतवाला देख लो तो - चटाव से दो! हात्ते रे गीदी की!
हुश्शू : दूसरा दौरा (तोड़-फोड़ - खटपट)
नाविल के पढ़नेवाले बड़े परेशान होंगे कि आखिर इस बेतुकी हाँक के क्या मानी! मगर इसमें परेशानी और खराबी की क्या बात है? मजमून का चेहरा तो मुलाहजा फरमा लीजिए - हम तो खुद इसके कायल हैं कि 'बेतुकी हाँक' है। अब इसका खुलासा हमसे सुनिए -
लाला जोती प्रसाद नामी एक बुजुर्गवार बड़े शराबखोर, बदमस्त और मुतफन्नी थे। उनके भाई-बंदों दोस्तों, - बड़ों-छोटों ने समझाया कि भाई -
ऐब भी करने को हुनर चाहिए!
आदमी की तरह पिया करो। यह नहीं कि दिन-रात धुत, हर दम गैन! जब देखो नशे में चूर, दिन-रात एक खुमारी की हालत। यह क्या बात है? बीच का रास्ता पकड़ो। बहुत से आदमी बरसों से पीते है, मगर इन्सानियत के जामे से खारिज नहीं हो जाते, खासे मजबूत, तंदुरुस्त, हट्टे-कट्टे सुर्ख-सफेद बने हुए हैं। लाख-लाख लोगों ने समझाया इन्होंने एक की न मानी।
एक रोज इत्तफाक से एक लेक्चर सुनने गए जिसमें अमरीका की एक मिस ने शराबखोरी की बड़ी बुराइयाँ कीं और कहा कि हिंदुस्तान-से गर्म मुल्क के लिए शराब बड़ी नुक्सान की चीज है। यहाँ इसकी कोई जरूरत ही नहीं। जब इंगलिस्तान और कश्मीर-से ठंडे मुल्कों में लोग बगैर शराब के रहते हैं तो हिंदुस्तान से गर्म मुल्क में क्यों नहीं रह सकते। तुम लोगों को चाहिए कि शराब के नाम से कोसों दूर भागो और जहाँ इसकी बोतल देखो फौरन तोड़ डालो।
उस लेक्चर का असर उन पर ऐसा पड़ा कि शराब के दुश्मन हो गए। आदमी में हवास ही हवास होते हैं। इनके हवास बिला इजाजत ऐसे चंपत हुए कि लंदन तक पता नहीं। लेक्चर के कमरे से हो हल्ला मचाना शुरू किया, और वहीं से लेक्चर देते चले। आदमी तबीअतदार थे, पढ़े-लिखे, एम.ए.; फेलो आफ दि कलकत्ता युनिवर्सिटी। लेक्चर के कमरे से चले तो हल्ला मचाते और स्पीच देते हुए चले। जिधर सींग समाई उधर निकल गए। पागल की दाद न फरियाद - मार बैठेगा। चलते-चलते एक दफा याद आया कि राह में कलवार की दुकान है - दौड़ के भागे और उस रास्ते से कतरा के चले, ताकि कलवारीखाने के पास भी न फटकें, साया भी किसी शराबी का न पड़ने पाए। चलते-चलते राह में एक और कलवारीखाना याद आया। वहाँ से भी रस्सियाँ तुड़ाके भागे, यह जा, वह जा। इत्तफाक से एक आदमी जो बोतलें मोल लेता फिरता था, अपनी शामत का मारा इनको मिला। बस गजब ही तो हो गया।
जोती - अरे यार बोतलें बेचते ही कि मोल लेते हो?
बोतलवाला - हजूर मोल लेते हैं।
ज - हमारे पास कोई दो सौ खाली बोतलें हैं। किस हिसाब से लोगे?
ब - हजूर सफेद एक आने की और काली तीन पैसे की और अद्धा आध आने की।
ज - दो सौ की दो सौ खरीद लोगे?
ब - जी हाँ, दो सौ हों चाहे पान सौ।
ज - अच्छा हम रुक्का लिखे देते हैं, तुम बोतलों का टोकरा रहने दो। हम यहाँ सर्राफ की दुकान पर बैठे हैं। हमारे आदमी को रुक्का दो और सब बोतलें लदवा लाओ। दाम चाहे आज दो, चाहे कल। मगर हमारे आदमी को अपना मकान दिखा दो।
ब - और हजूर का मकान कहाँ पर है?
ज - झाऊलाल का पुल देखा है? - कहो, हाँ।
ब - जी हाँ देखा है। वहाँ किस जघों पर है?
ज - वहाँ मिर्जा हैदर अली बेग वकील की कोठी और बाग पूछ लेना। वहीं हम भी रहते हैं।
ब - हजूर का नाम क्या लूँ?
ज - हमारा नाम नरायनदास और हमारे आदमी का नाम दुर्गा जंडैल।
सर्राफ की दुकान पर पहुँच कर आपने कागज के एक पर्चे पर यह इबारत लिखी -
अगर कहीं शराब की बोतल देख पाओ तो फौरन तोड़ डालो, शराबी को मार बैठो, मतवाले को चटाख से टीप लगाओ। फिर हाथ मलके एक और दो! हात्तेरे की - और लेगा, गीदी?
झाँसा दिया तुमने खूब हुश्शू
बोतलवाले की ऐसी-तैसी!
चला है वहाँ से बड़ा मखादीन बन के! बोतल लेने चले है! दो सौ बोतलों की चाट पर झाँसे में आ गया। खुश तो बहुत होगें। बच्चाजी बोतल मोल लेंगे। पाँच जूते और हुक्के का पानी! हात्तेरे की।
सँभले रहना बचाजी, हुशियार,
बोतल के एवज मिलेगी पैजार।
यह लिख कर उस आदमी को दिया और वह खुश-खुश झाऊलाल के पुल की तरफ चला। रास्ते में उसकी बीवी मिली। पूछा - टोकरा और बोतलें कहाँ हैं? उसने हँस कर जवाब दिया - अरी सुसरी, आज घिरे हैं! एक लाला हैं नरायनदास वह दो सौ बोतलें एकदम से बेचे डालते हैं। यह चिट्ठी लिए उनके घर जाता हूँ। एक बोतल नारंगी की ला रखना और कलेजी भी कलवारीखाने से ले आना, और चटनी खूब चटपटी बना रखना।
बीवी की भी बाँछे खिल गईं। याँ तो जूँ की तरह रेंगती हुई चलती थी या अब तनके सीना उभारके चलने लगी। इधर बोतलवाले का नजर से ओझल होना था, कि लाला जोती परशाद साहब (जिनका तखल्लुस 'हुश्शू है) सर्राफ की दुकान से उठे और बोतल के झौए के पास जा कर एक बोतल उठाई, और उसका लेबिल पढ़ा -
'पिलसनर बीअर!'
दो चार दफा 'बीअर' कह कर जोर से पटका तो अट्ठारह टुकड़े। हात्तेरे गीदी की। उसके बाद दूसरी बोतल उठाई -
'फाइन ओल्ड का काग पिंग!' तीन-चार दफा यह नाम पुकार कर फेंकी। सत्रह टुकड़े हो गए - हात्तेरे की! इसके बाद तीसरी बोतल पर प्यार की नजर डाली -
'ओल्ड टाम!' बहुत हँसे। फर्माया - बहुत पी। अच्छा, तू भी ले!
कार्लो विंटनर!' इसको जोर से दीवार पर पटका तो चकनाचूर, फर्माया, इसमें खटमल की बू आती है। पाँचवीं बोतल को बड़ी इनायत की नजर से देखा और 'सेंट जूलियन' पढ़ कर कहा, खूबसूरत अद्धा है और दरख्त के तने पर फेंका, और अद्धे के टूटने की आवाज से बहुत ही खुश हुए, गोया लाखों रुपए मिल गए। छठी बोतल उठाई थी कि इतने में सर्राफ ने दुकान से उतर के कहा - लाला नरायनदास साहब, यह आप क्या कर रहे हैं?
उन्होंने बोतलवाले से कहा था कि मेरा नाम नरायनदास है, इसी से वह समझाने लगा, कि लाला नरायनदास साहब आप क्या कर रहे हैं? इतने में इनका जनून देख कर कई राह-चलते खड़े हो गए और उन्होंने यह भीड़ और मेला देख कर झौए को उठाके एक दफा ही दे पटका, और भागे।
अब बोतलवाले की सुनिए कि खुश-खुश झाऊलाल के पुल पर मिर्जा हैदर अली बेग की कोठी पर पहुँचा। देखा मिर्जा साहब हुक्का पी रहे हैं। सलाम करके कहा - हजूर नरायनदास का मकान कहाँ है?
मिर्जा - नरायनदास? नरायनदास तो यहाँ कोई नहीं हैं।
बो - हजूर, वह जिनका नौकर दुर्गा जंडैल है।
मिर्जा - (हँस कर) यहाँ न कोई कंडैल है न जंडैल है।
बो - पता तो यहाँ का दिया था। साँवले से हैं। नाटा कट है।
मिर्जा - अरे भाई यहाँ कोई नरायनदास नहीं रहते।
वह पर्चा ले कर बोतलवाला अपना-सा मुँह लिए हुए बैरंग वापिस आया तो देखा लाला हवा हुआ है - झौआ औंधा पड़ा हुआ है। अरे! कोई बोतल इधर टूटी पड़ी है कोई उधर चकनाचूर। किसी के अट्ठारह, किसी के दस टुकड़े। सर पीट लिया। सर्राफ से पूछा। उसने कहा - कोई सिड़ी मालूम होता है। बोतलों को उठाए, पढ़े और जमीन पर, दरख्त पर, दीवार पर दे पटके और हँसे!
बोतलवाला आँखों में आँसू ले आया। सर्राफ ने कहा - उनका आदमी कहाँ है? वह बोला - अरे आदमी कैसा! जब उनके मकान का कहीं पता भी हो! वहाँ तो कोई इस नाम का रहता ही नहीं। आज अच्छे का मुँह देख कर उठे थे! रोते नहीं बनती।
इस मुसीबत के साथ घर गया, जोरू खुश हुई कि दो सौ बोतलें लेके आया। शराब की बोतल में से चौथाई यानी पाव बोतल पी चुकी थी। जवान औरत कोई सत्रह बरस का सिन, औ रंगत भी खुलती थी। बन-ठनके बैठी थी कि मियाँ आने के साथ ही रीझ जायँगे। देखा तो चेहरे पर फटकार बरस रही है, उदास, झौआ देखा तो - जल्ले जलाल हू!
बीवी - अरे! टूटी बोतलें!
मियाँ खामोश बैठ रहे, जैसे जूते पड़े हों।
बीवी - यह क्या हुआ?
मियाँ - थोड़ी-सी पिलाओ।
बीवी - (पत्थर के प्याले में थोड़ी-सी उँडेल कर) लो! यह टूटी बोतलें कैसी! (कलेजी सामने रख दी)
मियाँ ने शराब पी, और ठंडा पानी खूब तनके पिया, और मारे रंज के पड़के सोए तो तड़के की खबर लाए।
बीवी बेचारी बनी-ठनी, सँवर करके तैयार, मियाँ बेजार - जल्ले जलाल हू! समझे क्या थी, हुआ क्या! लाला जोती परशाद साहब 'हुश्शू' ने ऐन करियाल में गुल्ला लगाया। दो बजे मियाँ की आँख खुली। बीवी को जगा कर सारी कैफियत सुनाई। उसको भी बेहद मलाल हुआ, और रोने लगी। मियाँ ने उठ कर आँसू पोंछे, मुँह धोया, समझाया कि - चलो अब जो कुछ हुआ वह हुआ, गुसैयाँ मालिक है! यह कह कर बोतल की बची हुई शराब दोनों ने पी और लाला नरायनदास साहब को दोनों ने पानी पी-पीके कोसा। इसके बाद खुदा जाने क्या कार्रवाई हुई, जिसको अल्लाह ही बेहतर जानता है।
हुश्शू : तीसरा दौरा (कलवारीखाना और काना)
पहला सीन
इधर बमचख, उधर जूती, इधर पैजार, उधर दंगा!
बही कलवारखाने में है कैसी उलटी यह गंगा!!
बोतलवाले और बोतलवाली चमक्को को कुठरिया में पड़े रहने दीजिए, वह जानें, उनका काम।
अब मियाँ हुश्शू साहब का हाल सुनिए कि बोतलवाले की बोतलें तोड़, झौआ औंधा करके जो सीधी भरी तो एक कलवारीखाने में पहुँचे। कलवार साहब बड़े तोंदल डबल आदमी - लाला दरगाही लाल - दुकान के राजा बने हुए बैठे थे। मियाँ हुश्शू भी धँस ही तो पड़े। भलेमानस अमीर देख कर उसने मोंढा दिया, कपड़े भी अच्छे पहले थे।
पूछा - हुक्म। कहा - भाई साहब पीने आए हैं। उसने अपने आदमी, चपई से कहा - वह फालसे की जौन केदारपुर के तहसीलदार के लिए खींची है रग्घू के घर रक्खी है। एक बोतल भरवा ला।
लाला जोती परशाद साहब ने कहा - इसकी सनद नहीं है, लाला। तुम खुद जाओ। और एक बोतल क्या होगी? हाथी के मुँह में जीरा। न गैलन, न दो गैलन! ढाई बोतल रोज का तो मेरे यहाँ खर्च है। लाला एक मैं पीता हूँ, एक कबीला चढ़ाती है, आधी में बाल-बच्चे। भला तीन गैलन तो ला!
लाला खुश-खुश उठे। कहा - जरी देर होगी। तब तलक आप कंदी का शगल कीलिए।
उन्होंने कहा - भाई हमें कुछ जल्दी नहीं है। अब तो हम आज रात को यहाँ से जानेवाले को कुछ कहते हैं! कलवारीखाने से हम चले जायँ तो हम पर लानत। अब हम यहीं ढेर होंगे। मगर भाई हमारी सोने की घड़ी और नोटों की फिक्र रखना।
लाला मारे खुशी के फूलके कुप्पा हो गय। समझे सोने की चि़ड़िया हाथ आई नौकर से कहा - लाला की बड़ी खातिर करना, और कान में कहा - इनको जरी तेज कर रखना। यह कह कर लाला दरगाही लाल रवाना हुए। सस्ते में मंसूबे गाँठते जाते थे कि यों धुत करूँगा, और घड़ी टहला दूँगा, और नोट दे दूँगा, जिसमें किसी को शक न हो। अब सुनिए कि इस शराब के सिर्फ दो गैलन थे, मगर उन्होंने तीन बनाए।
अब इधर का हाल सुनिए कि लाला ने चपई से कहा कि - चपई काका! तुम एक इक्का किराया करो तेज-सा, हम उसको आठ आना देंगे। दौड़के जाओ। बिल्ली की चाल जाओ और कुत्ते की चाल आओ। हिरन की सराय के पास काका की दुकान है। वहाँ से कलेजी के कबाब एक रुपए के लो, और आगरेवाले की दुकान से एक रुपए की दालमोठ लो, और दीना खोंचवाले से एक रुपए के दही के बड़े लो। और ऐसे आओ जैसे गोला। दुकान से दाम ले जाओ, हिसाब कर लेना। समझे?
चपई - और दुकान पर बिक्री कौन करेगा?
जोती - हम।
च - (हँस कर) अरे नहीं! हजूर।
ज - दो रुपया इनाम दूँगा।
च - अच्छा सरकार। इसमें कंधी है, इसमें महुआ, इसमें गुलाब की है।
ज - अरे यार यह हम निबट लेंगे।
मियाँ चपई ऐसे इनके भरों में आए कि दुकान छोड़के लंबे हुए। सोचा कि दो रुपए एक मिलेंगे, और तीन रुपए के सौदे में से दो बनाऊँगा। इनको सूझेगा क्या खाक। और इधर टका आती, टका जाती दूँगा। और अठन्नी खरी करूँगा। अब यहाँ से सड़क पर आए। आवाज आई - एक सवारी गोल दरवज्जा। झप से बैठ लिए। तीन पैसे पर तय हुआ। लाला दरगाही लाल को तो रग्घू की दुकान पर दौड़ा दिया और चपई काका को हिरन की सरा रवाना किया और खुद जनाब लाला जोती परशाद साहब 'हूश्शु' कलवा के किबलागाह बनके और खूब तनके दुकान पर बैठे। इधर-उधर देखा तो पानी के घड़े पर नजर पड़ी। ठंडा करने के लिए कलवार ने बहुत-सी बालू उसके नीचे रक्खी थी। उन्होंने सब उठाके बोतलों और पीपों में झोंक दी। अब जो दुकान पर आता है, इनको देख कर टिक जाता है।
1 - लाला कहाँ हैं?
जवाब - लाला हम।
1 - नहीं हजूर वह जो इस दुकान के लाला हैं।
जवाब - अरे भाई तुम अपना मतलब कहो। लाला हमारे कर्जदार थे। दुकान हमारे हाथ बेच डाली। क्या, लोगे, क्या?
1 - एक अद्धा भरवाने आए हैं। पाँच आने का।
ज - (बोतल उठा कर) लो (पाँच आने ले कर) बस, जाओ!
1 - अरे साहब, अद्धा भर चाहिए।
जवाब - हमने पाँच आने बर्तन लगा दिया, जिसमें जल्द बिके। आधी तो उसने निकाल ली, कि जब लाला मँगवाएँगे तो पाँच आने रख लूँगा, यही अद्धा दे दूँगा। पाँच आने रोज की गोटी हुई।
इतने में दूसरे आए।
2 - एँ! लाला कहाँ हैं? एक बोतल लेने आए थे!
ज - हम से लो।
2 - नहीं साहब हमारी मजाल पड़ी है! आप रईस आदमी, सोने की घड़ी लगाए हैं।
ज - फिर इससे क्या होता है? हैं तो जात के कलवार। हमारी तरफ के कलवारों को देखो दो-दो हाथी फीलखाने में झूम रहे हैं।
2 - लाला दरगाही हाल हजूर के कौन हैं?
ज - हमारे ससुर हैं। उनकी छोटी लड़की हमको ब्याही है।
दस आने में उन्होंने दो बोतल दीं। वह समझे, लाला के दामाद गप्प खा गए। चुपके से लंबा हुआ।
अब तीसरे आए, आपकी सूरत से अहमकपना और बेतुकापन बरसता था। उन्होंने दस आने दिए और दो बोतल हमारे अनोखे कलवार ने हवाले कीं। उसने कहा - भाई दो कैसी? उन्होंने कहा - हमने पाँच आने बोतल लगा दी है। पूछा - जो लाला बैठे थे, वह कहाँ हैं। कहा हम उनकी लड़की के मियाँ हैं।
उसने अपने मालिक से कहा - आज पाँच आने बोतल बिकने लगी। वह भी नौकर की तरह सीधे आदमी थे। दो रुपए दिए, कि जाके छै बोतलें लाओ, और पैसे फेर लाओ। अब चौथे आए।
4 - क्या आज दुकान पर कोई नहीं हैं?
ज - आँखें क्या बेच आए हो? बैठे तो हैं।
4 - मैं तो आपको नहीं कह सकता।
ज - अजी यह दुकान हमारे साले की है।
4 - आप बहनोई हैं उनके।
ज - हाँ।
4 - तो हम तो दो आने की पीने आए हैं।
ज - यहाँ न पियो। ले जाओ। (आधी बोतल दे कर) तुम योंही ले जाओ। दाम भी न दो। अच्छा, चार आने की ले लीजिए। एक आना कम सही।
इसी तरह जोती परशाद ने थोड़ी देर में बीस-बाईस रुपए की बिक्री की और चिराग गुल करके बोतलों को औंधा कर दिया, पीपे उलटा दिए, सकोरे, तोड़ दिए और चंपत हुए - हात्तेरे गीदी की!
दूसरा सीन
अब सुनिए कि इधर तो -
हरीफाँ पीपहा तोड़ीदा, रफ्तंद,
मठूरें ढूँढ़ कर फोड़ीदा रफ्तंद!
और इधर लाला दरगाही लाल रग्घू को जगह-जगह तलाश करके बोतलों के एक एक के दो-दो करके खरामाँ-खरामाँ आए। इत्मीनान तो हो ही गया था कि लाला तो सुबह तक उठनेवाले नहीं हैं, और कंदी पी ही रहे हैं। आराम के साथ तशरीफ लाए तो चिराग गुल, पगड़ी, गायब! जल्ले जलाल हू! ऐं!! अरे चपई! ओ चपई!
पड़ोस के कचालूवाले ने कहा - लाला क्या आज अभी से दुकान बढ़ा दी?
अंदर आए तो न आदमी न आदमजाद। न चपई न लाला - गुले लाला खिला हुआ है। अरे!
चपई होत्! अबे चपई मर गया क्या? ...अरे कोई है? कोई हो तो बोले!
मियाँ चपई तो दीना के यहाँ दही-बड़े ले भी रहे हैं और चख रहे हैं। लाला अपने घर लंबे हुए। घर से नौकर को बुलाया। चिराग जलवाया। अरे! हायँ! बोतलें औंधी पड़ी हुईं - पीपे खाली। शराब के नाले बह रहे हैं। मठूरों को कोठरी में देखा तो टूटी हुईं। दरिया बह रहे हैं। सर पीट लिया। बड़ा गुल मचाया। अरे लुट गया, मर मिटा! आस-पास के लोग आए। देखते हैं तो मठूरें और बोतलें और पीपे सब एक सिरे से जख्मी, और मारे बू के रहा नहीं जाता। और शराब का यह हाल है कि दरिया बहता है। अंदर बाहर शराब ही शराब। सबको रंज हुआ। पूछा - यह क्या हुआ भई? उन्होंने कहा - हुआ क्या, हमारी बदनसीबी! हमारी नहूसत, दिनों की गर्दिश, और साहब क्या पूछते हो? एक लाला आए थे, हम उनके वास्ते फालसेवाली लेने गए, अमीर आदमी थे। हमने कहा, भाई, इनका आदर-भाव करें। चपई से कह गए कि उनको जब लग कंदी पिलाओ। यहाँ आए तो दिया गुल, दुकान में अँधेरा पड़ा हुआ। होश उड़ गए। अरे यह क्या भैया! दिया जलाया तो बोतलें टूटी हुई। अरे! पीपा जो देखा, वह औंधा पड़ा हुआ। जान निकल गई। कोठरी में मठूरें सब टूटी-फूटी। और न लाला का पता, न चपई हरामजादे का! एक आदमी ने कहा - चपई को तो हमने चौक में देखा था। लाला को और भी हैरत हुई, कि इतने में चपई आए, और इक्के से उतरे। और लाला ने दौड़के एक लपोटा जोर से दिया - अबे तू था कहाँ, हरामजादे? दुकान लुटा दी! अब उसका हर्जा कौन देगा?
चपई रोने लगे। कहा - यह जबरौती है, लाला! लाला ने झल्ला के दो तीन लपोटे और जमाए। और चपई भी बिगड़ा। और तमाशाई बीच-बचाव करने लगे।
1 - पहले पूछो तो कि दुकान छोड़के चला कहाँ गया था!
2 - अबे हाँ, दुकान किस पर छोड़के गया?
3 - जरा जाके देखो तो दुकान जाके।
चपई ने दुकान में कदम रक्खा तो शराब की नदी बही हुई है। रंग फक हो गया। और लाला ने इस गुस्से की नजर से देखा कि कि मालूम होता था, खा जायँगे। और गुस्से की बात ही थी। इतने में इक्केवाले ने कहा -
अजी, अब हमको अठन्नी मिले, हम चलते हैं।
लाला - अठन्नी कैसी?
जवाब - अवाई जवाई के आठ आने चुके थे। मारामार ले गए और आए!
लाला - अबे तू कहाँ गया था दुकान छोड़के?
चपई - (रुआँसा होके) लाला जो आए थे, उन्होंने कहा - जाके चौक से सौदा ला दे, अवाई जवाई आठ आने देंगे, गोल दरवज्जे तक।
लाला - (बहुत खफा हो कर) यह कहो, बड़े हातिम बन गए! गोल दरवज्जे तक आती जाती के आठ आने हुए? टके पर आदमी जाता है और टके पर आता है।
गरजे कि लाला और चपई और इक्केवाले में देर तक गुलखप रही। तीन पैसे पर चपई आ गए थे, मगर इक्केवाले से कहा था कि लाला से अठन्नी कहना। मगर अब इक्केवाले की नीयत जो डाँवाडोल हुई तो वह वाकई अठन्नी ही माँगने लगा। चपई तो जो सिखाके लाए थे वही खुद भी गाने लगे। मगर अब यह दिल्लगी हुई कि इक्केवाला सचमुच तीन पैसे की जगह अठन्नी माँगने लगा। और जब लाला ने डाँटा तो इक्केवाले ने चपई का दामन पकड़ा, और तकरार बढ़ गई। आखिरकार लोगों ने समझा-बुझाके इक्केवाले को तीन आने पर राजी किया, और चपई को देने पड़े।
लाला ने बड़े गुस्से में आके कहा - आखिर मालूम तो हो कि कहाँ गया था! दुकान क्यों छोड़ी और लाला कहाँ हैं!
चपई - हमसे कहा - चपई काका, एक इक्का किराया करो और जाके आगरेवाले की दुकान से दालमोठ एक रुपए की और एक रुपए के दही-बड़े और एक रुपए की कलेजी चटपट दौड़के लाओ। हमने कहा, दुकान पर कौन रहेगा। कहा, जब तलक हम बेचेंगे। जब हमने दाम माँगे तो कहा, तुम दुकान से ले लो। फिर हिसाब हुआ करेगा। आप के छै रुपए हमारे पास थे ही। उसमें से हम तीन का सौदा लाए और अठन्नी इक्केवाले को दी। अढ़ाई रुपए रहे। वह ये हैं।
टेंट से रुपए निकालने ही को थे कि लाला ने आग-भभूका हो कर पट्टे पकड़के इतना मारा कि भुरकस निकाल दिया। और जो लोग खड़े तमाशा देख रहे थे, उनसे यों बातें हुईं -
लाला - अरे यारो देखो तो इसकी बातें! एक रुपए की कलेजी, कोई अंधेर है! और हमसे पूछा, न गुछा! क्या इनसे बाप का माल था? और एक रुपए के दही-बड़े! अंधेर है कि नहीं? और एक रुपए की दालमोठ!
जिसने सुना वह हँसने लगा, कि भई वाह! एक रुपए के दही-बड़े और एक रुपए की दालमोठ, और एक रुपए की कलेजी की अच्छी कही!
1 - एक रुपए की कलेजी अगर एक-एक आदमी नाश्ते के साथ खा जाय तो कलेजीवाले तो बन जायँ।
2 - भला कोई बात भी है! अच्छी कही!
3 - और एक रुपए की कलेजी के अलावा एक रुपए के बड़े! वाह, साहब वाह! एक ही हुई!
कलवार - हजूर जो बात थी एक ही रुपए की थी। एक रुपए से कम की नहीं थी। इंसाफ तो कीजिए - कलेजी भी एक ही की, और दालमोठ भी एक ही की और दही-बड़े भी एक के! एक रुपए से घट के तो बात करता ही नहीं।
1 - और दाम अपनी गिरह से नहीं दिए!
2 - तौबा साहब! अपनी गिरह से देना क्या माने!
3 - भई वल्लाह, अच्छी दिल्लगी हुई, माकूल!
कलवार - सब इसी की जान को रोना पड़ेगा! शराब जो गिरी है, उसके दाम भी इसके बाप से लूँगा।
ये बातें हो ही रही थीं कि एक आदमी ने आनके गुल मचाया और आसमान सर पर उठा लिया। कहा - दरगाही लाल, यह क्या बदनीयती पर कमर बाँधी है! अरे मियाँ शराब में नौ मन रेत मिला दी!
कलवार - कैसी रेत? और हम थे कहाँ कि जो रेत छोड़ते?
जनाब - अभी को तुम थे या नहीं थे, चख के देखो! तुम्हारे दामाद तो थे!
'दामाद' का लफ्ज सुनना था कि दरगाही लाल, कलवार आग हो गया। एक तो नुकसान इतना हुआ था, उसका रंज था, दूसरे इस बात का गुस्सा, कि तीन-चार रुपए और ऊपर से खर्च हुए - और अब एक आदमी ने आके गाली दी - लाला का दामाद एक अजनबी को बनाया। आग ही तो हो गया। कहा - बस यहाँ से डोल जाओ! दामाद तेरा होगा।
वह आदमी भी बिगड़ा। मगर कलवार के एक भाई-बंद ने उससे कहा - भाई बिगड़ने की तो बात ही है। गाली देते हो, और कहते हो, बिगड़ो नहीं। इनकी एक लड़की है, वह अभी जरा-सी, कोई तीन बरस की, और तुम दामाद बनाए देते हो। बुरा मानें कि न मानें!
उसने कहा - भई हमको क्या मालूम था। उसने कहा, लाला के दामाद हैं हम, वही हमने कहा।
इतने में एक और आदमी दौड़ा आया। यह बहुत ही झल्लाया हुआ था। आते ही गुल मचाके कहा - वाह, लाला, वाह! आज तो अच्छी दारू बेच रहे हो! मार के बालू और रेत ही भरी हुई है। हमारे दाम फेर दो। वह जो तुम्हारे बहनोई बैठे थे, उन्होंने पाँच आने बोतल लगा दी थी। मगर किस काम की।
कलवार 'बहनोई' का लफ्ज सुन कर फिर आग-भभूका हो गया। कुछ कहने ही को था कि एक और आदमी ने आके डाँटा - भई, वाह रे लाला दरगाही लाल, अब तक महुए और फालसे और गाजर की खींचते थे, मगर अब मालूम होता है बालू की भी खींचने लगे। मार के रेत ही रेत भरी है। हम तो पहले उनको देखके ठिठके थे। मगर उन्होंने खुद ही कहा कि लाला दरगाही लाल की लड़की के हम मियाँ है, लाला हमको बैठा गए हैं -
दरगाही लाल झल्ला के दुकान से भाग गए!
हुश्शू : चौथा दौरा (हुश्शू का वार)
हवेली में टिके पाजी पजोड़े,
बिकी ईंटें, हुए कड़ियों के कोड़े!
लाला जोती परशाद को बीच का रास्ता पकड़ने से दिली नफरत थी। या कूंड़ी के इस पार या उस पार! अगर पीने पर आए तो दिन-रात गैन, हर घड़ी चूर, हर दम धुत्त, सिवा शराब के और कोई शगल ही नहीं। खाना पीना, ओढ़ना-बिछौना, सब शराब! और अगर छोड़ दी तो एक कतरा भी हराम। अगर डाक्टर नुस्खे में भी तजवीजें तो भी न पिएँ। इन दो सूरतों से किसी हाल में भी खाली नहीं रहते थे। या तो उसके नाम से इस कदर नफरत कि जहर से बदतर समझते थे, या इस कदर इसके गुलाम कि बे-पिए जरा चैन नहीं।
अब इससे कुल्ली नफरत हो गई थी। दरगाही लाल की दुकान की कारगुजारियाँ और बोतलवाले की फजीहतों का हाल किसको नहीं मालूम! हाँ, यह अलबत्ता किसी को नहीं मालूम कि घर में जाके बोतलों और कारूरे (यानी पेशाब) की शीशी तक को न छोड़ा। यह किसी को मालूम नहीं था। शराब और शराबी और शराब के बेचनेवाले और खरीदनेवाले और शराब के बर्तन - सब के दुश्मन।
एक दिन उन्होंने यह उपच की ली कि एक कलवार की दुकान पर गए, जिसकी दुकान उनके मकान से मिली हुई थी। उस कलवार ने मकान से कोई चार सौ कदम के फासले पर एक हवेली बनवाई थी। दस रुपए महीने किराये की। लाला जोती परशाद साहब उसके पास गए।
जोती - लाला, तुम्हारा नया मकान खाली है?
कलवार - जी हाँ, खाली है।
ज - क्या किराया है?
क - है तो बारह रुपए, मगर आपसे दस लेंगे।
ज - (बारह रुपए दे कर) लो और कुंजी हमको दो।
क - हजूर दस दें। आप ही रहेंगे ना?
ज- नहीं बारह देंगे, जिसमें ऐसा न हो कि कोई और गाहक बारह का देनेवाला आए और तुम हमको निकाल दो।
क - जी नहीं। ऐसी बात है? आप चाहे रुपए भी लेते जायँ!
ज - हम खरा मामला रखते हैं। अपना आदमी साथ कर दो।
क - बहुत अच्छा!
लाला जोती परशाद साहब कलवार के आदमी को ले कर चले।
आदमी - हजूर का मकान कहाँ है?
ज - मुल्तान, पंजाब में।
आदमी - हजूर बड़ा खरा सौदा करते हैं। पेशगी बारह दे दिए झपाक से।
ज - भई मैं उंतीसवें दिन तन्खाह देता हूँ। और छै-छै महीने का किराया पेशगी। और नाज, घी और लकड़ी एक साल भर के लिए भर रखता हूँ। और कपड़ा बंबई से मँगाता हूँ। और कस्साब को महीने भर के गोश्त के दाम पहले ही दे देता हूँ।
आदमी - लाला ने भी बहुत आदर-भाव किया।
ज - यही मकान है ना?
आदमी - जी हाँ। (ताला खोलके) मकान क्या है कि दिलकुशा है!
ज - अजी हम इसको दिलकुशा बना देंगे।
आदमी - फिर जहाँ हजूर रहें, वहाँ दिलकुशा क्यों न बन जाय!
ज - जोड़ियाँ भी अच्छी लगाई हैं। शहतीर और तख्ते सब साखू के हैं! और बहुत मजबूत मकान बना है।
आदमी - सरकार चूने की जुड़ाई हुई है, सीसा पिलाया है।
ज - हमारा इस मकान से जी खुश हुआ, और लाला का हमसे - कि ऐसा खरा किरायेदार मिला।
1 - फिर हैं भी तो आप ऐसे ही।
यह कह कर आदमी ने सलाम किया और रुख्सत हुआ। और कोई बीस दिन बाद लाला जोती परशाद साहब फिर कलवार की दुकान पर गए, और साहब-सलामत पीछे की, बारह रुपए पहले दुकान पर रख दिए।
क - बंदगी सरकार, कहिए मजे से?
ज - जी हाँ, लाला।
क - यह बारह रुपए कैसे?
ज - किराया मकान!
क - अभी तो इकादसी-इकादसी पंद्रह दिन हुए। तेरस-चौदह अमावस और आज परेवा है। बीस ही दिन तो हुए।
ज - हाँ, मगर मैं आज कलकत्ते जाता हूँ। एक महीने में आऊँगा।
क - फिर जल्दी कौन-सी थी? जब आते तो दे देते।
ज - हमको दो महीने तीन महीने का पेशगी किराया दे देना गौं है, यह गौं नहीं है कि तुम्हारा आदमी तकाजे को आए।
क - क्या मजाल है, यह भी कोई बात है भला!
ज - नहीं! यही नहीं, बल्कि कैसा ही काम हुआ, आदमी को न भेजिएगा। लोग समझेंगे, जरूर तकाजे को आया है।
क - भला जो किसी बात को भेजना पड़ा। कोई बात ऐसी ही हुई।
ज - तो खत लिख भेजा, बस।
क - बहुत अच्छा। अब आपकी क्या खातिर करूँ!
ज - बस अब मैं रुखसत!
क - हजूर, रईस कहाँ के हैं!
ज - मुल्तान के।
क - यहाँ कहीं आप नौकर हैं हजूर?
ज - नहीं, मैंने यहाँ सदरबाजार में मुर्गी-अंडों का ठेका लिया है।
क - हाँ, इसमें तो बड़ी फायदा होगी। हजूर का नाम क्या है?
ज - हमारा नाम चुलबुली सिंह। हम ठाकुर हैं।
क - हजूर कलकत्ता से चिट्ठी भेजेंगे?
ज - हाँ भेजेंगे, और जो सौगात कहोगे लेते आएँगे। अब रुख्सत।
क - (थोड़ी दूर साथ जाके) अच्छा सरकार बंदगी!
लाला जोती परशाद साख बिठाके रुख्सत हुए, और कलवार और उसका आदमी खुश कि अच्छा किरायेदार मिला है। पेशगी किराया दे गया। और अभी महीना खत्म भी होने नहीं आया कि बाहर रुपए मौजूद। उनकी बड़ी तारीफें कीं, वाह क्या आदमी है - लाखों में एक!
लाला जोती परशाद जो घर गए तो चचा ने कहा - तुमने कोई मकान किराये पर लिया है। हमने खबर पायी है कि मकान लिया है। यह कैसा मकान है और इसकी क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा - जी, मैंने मकान नहीं लिया है। मकान एक दोस्त ने लिया है। मैंने दिलवा दिया है। अच्छा मकान है। चचा ने कहा - कहाँ - हाँ वहीं मैं जो सोचता था कि भई यह मकान क्या होगा।
इतने में जोती परशाद के एक दिली दोस्त ने उनके चचा से उनके सामने कहा -किवला, अब इनका मिजाज सही है। मगर कोई ऐतबार नहीं। जहाँ एक दफा आदमी सिड़ी हुआ, फिर उसका तमाम उम्र ऐतबार नहीं करना चाहिए। एक शाही जर्राह सिड़ी हो गया। बड़े-बड़े हकीमों के इलाज में पाँच छै महीने में फायदा हुआ। एक रोज बादशाह को फस्द खुलवाने की जरूरत हुई। हकीमों से पूछा कि अगर फलाँ जर्राह से जो दीवाना हो गया था, फस्द खुलबाऊँ तो कोई हर्ज तो नहीं है। हकीमों ने कहा - हरगिज ऐसा इलाज न कीजिएगा। पागल का कोई एतबार नहीं। बादशाह ने उस जर्राह को बुलवाया, और कहा - हम फस्द खुलवाना चाहते हैं, उसने कहा - बेहतर, गुलाम हाजिर है। पूछा - अगर खून जरा देर तक न बंद हो तो क्या करो? कहा - जहाँपनाह, एक और गहरा चिर्का लगा दूँ। बस हकीमों ने आपस में इशारा किया, और बादशाह ने मुस्करा कर कहा - अच्छा जब जरूरत होगी, तो हम बुला लेंगे। जर्राह सात बार फर्राशी सलाम करके रवाना हुआ। बादशाह ने कहा - खुदा ने बहुत बचाया। इस सौदाई का वाकई कोई एतबार नहीं।
ज - आपकी ऐसी-तैसी।
च - जी नहीं, अब फज्ले-इलाही है।
दोस्त - हाँ अब चेहरे से भी वह वहशत नहीं बरसती है।
च - मुझे कुछ कहना है। खूब बात याद आई। (अलैहदा ले जा कर) भला पागल के मुँह पर कोई पागल को पागल कहता है!
दोस्त - जी, मैं मजाक में कहता था।
च - उनके सामने तो ऐसी बात करनी ही न चाहिए।
दोस्त - अब मिजाज बिलकुल सही है।
अब सुनिए कि एक रोज कलवार का अपने नए मकान की तरफ से गुजर हुआ। सोचा कि चलो ठाकुर चुलबुली सिंह से मिल लो, शायद कलकत्ते से आ गए हों। मुलाकात भी हो जायगी, खैरसल्ला भी दरयाफ्त कर लेंगे। और शायद कोई सौगात लाए हों तो वह भी ले लेंगे। गए तो दूर से मकान को बंद पाया। समझे कि अभी कलकत्ते से नहीं पलटे।
मगर ताज्जुब हुआ कि इतने बड़े आदमी और घर का दरवाजा बंद और ताला लगा हुआ। देख कर सोचा कि मालूम होता है कि आदमी किसी काम को बाहर गया है। दिन का वक्त तो है ही, ताला बंद करके चला गया। आता होगा। दो-एक आदमी साथ कलकत्ते गए होंगे।
यह सोच कर पटुए की दुकान पर बैठ गए।
कलवार - यह मोहल्ला बहुत आबाद है।
पटुआ - हाँ, यही दो चार मोहल्ले तो आबाद हैं। उधर चौक और नक्खास, इधर ये दो-तीन मोहल्ले, बस।
क - अमीनाबाद में आबादी बहुत है।
प - अमीनाबाद से बढ़ कर कौन मोहल्ला है?
क - सदर में भी आबादी अच्छी है।
प - चौक और अमीनाबाद में बड़ी आबादी है।
क - हाँ बस चौक के इधर-उधर वीराना है। ...ये ठाकुर जो इस सामनेवाले मकान में रहते थे वह क्या अभी कलकत्ते से नहीं पलटें?
प - ठाकुर कौन? ठाकुर तो यहाँ कोई नहीं रहते थे।
क - हाँ? तुम्हारे कहने से नहीं रहते थे!
प - हाँ, हमारे कहने से मोहल्ले भर में पूछ लो! इसमें तो कोई लाला रहते थे।
क - लाला! लाला कौन? कौन बनिए थे कि कायस्थ? अब कब से नहीं रहते? ...यह चले क्यों गए?
प - और चले न जाते तो रहते कहाँ?
क - यह क्यों? अरे, यह इतना बड़ा मकान जो है। पल्टन की पल्टन इसमें रह सकती है।
प - अरे, तो, लाला, काहे में पल्टन रहती? वह तो जबसे आपने मकान उनके हाथ बेच डाला और उन्होंने एक शख्स पार के रहनेवाले के हाथ ईंट और लकड़ी और जोड़ियाँ खुदवाके बेच लीं, तब से खंडल पड़ा हुआ है, रहते वह काहे में?
क - क्या! खंडल!
प - जी हाँ, खंडल, अरे, चल कर देख न लो!
क - तुम कहते किस मकान को हो जी?
प - यही इस सामनेवाले मकान को, जो तुमने बनवाया है।
क - और यह तुम क्या कहते हो? बेचा किस पाजी ने?
प - बेचा या नहीं, मगर उन्होंने तो खोदके कोड़े कर लिए।
क - उनकी ऐसी तैसी।
प - चलो। क्या जाने क्या कहते हो!
इतने में पंसारी ने कहा - सलाम लाला! उन्होंने सलाम का जवाब दिया और कहा - मकान देखने आए है!
पंसारी - बनवाया क्या, और बेचा क्या, और अब देखने क्या आए हो!
क - अरे यारो, यह माजरा क्या है? जो है वह यही कहता है! क्या सचमुच मकान को उसने जड़ से खुदवा डाला?
आगे बढ़े तो एक भिश्ती मिला। कहा - लाला, यह क्या सूझी कि मकान बनवाके बेच-बाच डाला। मियाँ भिश्ती का इतना कहना था कि उन्होंने मकान की डयोढ़ी देखी। बाहर से ताला। इधर-उधर खंडल। सन्नाटा पड़ा हुआ। न शहतीर न कड़ी। तख्ता, बटिंगा, न जोड़ियाँ न ईंट। देख कर बहुत चौंके! - खाली जमीन और एक बड़ा-सा दरवाजा, और उसमें ताला।
पटुआ - क्या मकान बेचा था या गिरौ रक्खा था? उन्होंने तो खोद-खाद के लकड़ी दरवाजे ईंट-पींट सब को पटेल डाला।
क - हमको तो मार डाला। कहीं का न रक्खा।
पंसारी - और अब तक क्या सोते थे?
क - कौन जानता था कि इतना बड़ा बेइमान निकलेगा?
पटुआ - मार ही डाला तुमको।
क - हम जानते हैं वह कलकत्ते गए और आदमियों के सिपुर्द कर गए, आदमियों ने बेच डाला और भाग गए। हम तो कहीं के न रहे। और तुम लोगों ने भी न रोका। हमसे न कहा।
पंसारी - यह क्या जानते थे। हम तो जानते थे कि मकान बिक गया।
क - पाऊँ तो कच्चा ही खा जाऊँ। नाम तो दुकान पर लिखा हुआ है और घर का पता भी लिखा है, और छावनी में नौकर भी था।
पंसारी - तो फिर उसका काम नहीं है। आदमियों ने पाजीपना किया होगा!
क - हमारा गला तो काट लिया। मगर है आदमियों ही का काम! क्योंकि वह ऐसे आदमी नहीं हैं। खरा आदमी है।
पटुआ - जहाँ का पता मालूम हो, बस वहाँ पूछिए।
क - सदर जाएँगे। वहाँ मुर्गी-अंडों की आढ़त है।
बड़े लाला रो-पीटके घर आए। वहाँ आदमी से कहा। उसको यकीन न आया। लड़के से लाला ने कहा, लड़के को बेहद ही रंज हुआ। तीनों मिल कर फिर उस मुकाम पर वापिस गए। लड़के ने पड़ोसियों से दरियाफ्त करना शुरू किया।
लड़का - अरे यार घनस्याम, तुम्हारी दुकान से तो नुस्खा-वुस्खा बँधवाने आते होंगे। कुछ जानते हो कि हमारा गला काटके कहाँ चल दिया!
घनस्याम (पंसारी) - वह तो यहाँ रहते ही बहुत कम थे। हमने तो दो दफा देखा था, बस। यह कार्रवाई तो खुले-बंदो हुई।
लड़का - और तुम लोग क्या समझे थे?
प - हम सोचते थे कि तुमको यह हुआ क्या? दिवाला क्यों निकाल दिया!
लड़का - और भला कोई उनके पास आता जाता था?
प - हमने तो कोई नहीं देखा था।
पटुआ - अरे भाई, वह तो निकलता ही कम था। हमने अच्छी तरह सूरत भी नहीं देखी थी। मकान बेचा, ईंट, कड़ियाँ बिक गईं और तुमने कानों-कान नहीं सुना?
लड़का - सदर जाते हैं हम। पता-वता वहाँ ही मिलेगा।
आदमी - हमसे तो कहता था कि मैं उस मकान को दिलकुशा बना दूँगा।
क - बना गया ना? 'दिलकुशा' भी उजाड़ है। इसको भी उजाड़ कर गया। आदमी बड़ा चलित्तरबाज निकला! क्या झप से बारह टेंट से निकाले और खरा असामी बना! और फिर महीना होने पाया कि चट से बारह और दिए!
क - हमको बस यह चाट देके मार डाला।
लड़का - कहीं का न रक्खा।
इतने में एक कूबड़िन ने आके कहा कि वह तो जमीन भी बेचे डालता था, मगर जिसने ईंट और लकड़ी मोल ली, उसने जो इधर-उधर तहकीकात की तो मालूम हुआ कि पराया मकान है। बस बेंच-बाच के चलता हुआ। लोगों ने पूछा कहाँ रहता है। कहा - यह तो मुझे नहीं मालूम, मगर एक दिन उसने सालन में चचींडे इसी मकान में पकाए थे, तो उसका नौकर चचींडे मेरी ही दुकान से ले गया था। कोई मुसलमान है।
लाला को न लाला जोती परशाद का पता यहाँ मिला और न ईंट लकड़ी के खरीदार का। यहाँ से इक्का करके सदर चले। सदर में पहुँचे, तो एक कलवार के मकान पर गए। उससे अपनी मुसीबत का हाल कहा और साथ लिया। इधर-उधर ठाकुर चुलबुली सिंह का हाल पूछा। कहीं पता न चला।
सवाल - यहाँ ठाकुर चुलबुली सिंह कहाँ रहते हैं?
मोची - कौन कहाँ रहते हैं?
सवाल - ठाकुर चुलबुली सिंह।
मोची - हमें नहीं मालूम, कहाँ रहते हैं।
सवाल - (दूसरे से) ठाकुर चुलबुली सिंह यहाँ कोई रहते हैं?
1 - हमको नहीं मालूम। किसी और से पूछो।
2 - हमसे पूछो। ठाकुर चुलबुली सिंह इमली के कौल में रहते हैं।
यहाँ से दोनो कलवार, पहले कलवार का लड़का और आदमी एक मिस्तरी के पास गए। मिस्तरी इस सदर बाजारवाले कलवार का दोस्त था।
कलवार - चुलबुली सिंह ठाकुर की जानते हो? यहाँ कहीं पता नहीं मिलता, और काम ऐसा है कि मैं क्या बताऊँ।
मिस्तरी - चुलबुली सिंह यहाँ तो कोई नहीं रहते।
क - तुमसे बढ़के यहाँ का जाननेवाला कौन है?
मि - सदर में तो इस नाम का कोई नहीं है।
लड़का - अंडे और मुर्गी का ठेका लेते हैं।
मि - उसका ठेका तो एक बाबू के पास है, जो हुसैनगंज में रहते हैं। चुलबुली सिंह यहाँ कोई नहीं।
आदमी - और मुल्तान के रहनेवाले हैं।
मि - अजी वह कहीं के हों! यहाँ के तो नहीं हैं। यहाँ तो इसका ठेका एक बंगाली बाबू लेते हैं।
क - मार ले गया, भाई साहब! अब क्या मिलेगा। मकान को अच्छा दिलकुशा बना गया।
मिस्तरी ने कहा - कुछ तो हँसी आती है और कुछ रंज होता है। अच्छा किरायेदार बसाया। मकान ही टहला दिया। और ये क्या कान में तेल डालके बैठे रहे! मकान के कोड़े हो गए और मालिक को मालूम ही नहीं!
लड़का - और रहते एक ही शहर में हैं।
मि - और रहते एक ही जगह हैं। मगर तुमको यह क्या हो गया?
लड़का - मैं तो परसों काशीजी से आया। मैं उसके चकमे में कब आता! अफसोस है। लाला को धोखा दे गया और ये न समझे कि जिस मकान के उन्होंने दस कहे थे उसके वह बारह काहे को देता! मगर लालच में आके दो रुपए के लिए हजारों का माल इन्होंने खोया! और इत्ता भी न हआ कि किसी दिन जाके देखें तो कि मकान में क्या होता है। और मकान बिक भी गया, खुद भी गया। सब कुछ हो गया!
आदमी - अरे लाला, वह बड़ा नटखट था। आते ही दस के बारह कर दिए और पहले ही दे गया। और फिर बीसवें दिन आके बारह रुपए रख दिए।
मि - कहीं ढूँढ़के निकालना चाहिए।
क - बड़ा धोखा खाया। तो मिले तो चचा ही बनाके छोड़ूँ बचाजी को! और कहता था कि मकान को परिस्तान बनाऊँगा!
मि - भई ऐसी दिल्लगी तो हमने नहीं सुनी थी।
रो-पीट कर यहाँ से भी ये रवाना हुए। अब और भी मायूसी हो गई। राह में दो-चार आदमियों से जिक्र किया। सबने इनको उल्लू बनाया कि भई वाह, क्या घोड़े बेचके सोए थे, कि दस कदम पर मकान और किसी को कानो-कान खबर नहीं, और सिर्फ बिक ही नहीं गया, बल्कि खुद-खुदाके ईंट और लकड़ी और जोड़ियाँ तक बिक गईं। अब जाके पुलिय में रपट लिखाओ, कि तहकीकात हो।
यहाँ से ये हैरान-परेशान पुलिस में गए। वहाँ से एक हेड और दो जवान तहकीकात को भेजे गए। उन्होंने खंडल को देख कर कहा - मुमकिन नहीं कि किसी का मकान खुद जाय और उसको कानों-कान खबर न हो। यह नई बात है। यह वारदात कभी नहीं हुई थी। डयोढ़ी का दरवाजा खोला तो एक कागज पर यह शेर और इबारत खुशखत लिखी हुई थी -
'लाला साहब, मिजाज कैसी है?
और हवेली - वह ऐसी-तैसी है!
अंडा क्यों आपका य' ढीला है?
सच कहो - क्या मकाँ पटीला है!
कहीं कुत्ते हैं और कहीं लंगूर,
रमना इक बन गया मकान, हजूर :
न है साये का नाम, ना दालान :
जिस तरफ देखिए - खुला मैदान।
आक्शन कर दिया बजा कर ढोल,
बिक गई ईंट कीड़ियों के मोल!
सच कहो! क्या तुम्हें पछाड़ा है!
है मकाँ या कोई अखाड़ा है!
कुश्तियाँ मैं निकालता हूँ नित,
कैसा मारा है चारों शाने चित!
जोड़ियाँ-खिड़कियाँ भी बेचीं सब :
है मेरे बाएँ हाथ का करतब :
हूँ मैं धोखे-धड़ी में तेरा बाप।
क्या मखादीन बन गए थे आप?
है जमाने में जिस कदर कलवार
हूँ मैं उन सब के नाम से बेजार।
उनका सब माल मैं लुटा दूँगा
मुफलिसा-बेग उन्हें बना दूँगा!
कि, ये गीदी पिला के इक चुल्लू
आदमी को बनाते हैं उल्लू
इनकी ख्वारी में है खुशी मेरी
नम्दा बाँधूँगा दुम में - हत्तेरी!
यह पढ़ कर पुलिसवालों ने कहकहा लगाया, और मोहल्लेवालों ने भी हँसना शुरू किया। और कलवार और उसका आदमी बहुत झल्लाया। शहर भर में इसी का चर्चा था। घर-घर यही जिक्र था - यही शोर था! जो सुनता था, लोट जाता था कि वाह क्या, खरा असामी मिला! बारह रुपए पहले ठहराए, बारह बीस दिन के बाद दिए - और मकान का मकान घुमा लिया! बाज शौकीन खुद उस मुकाम पर गए और खुदे हुए मकान और उस पर लिखी हुई नज्म को देख कर बहुत ही हँसे, लोट-लोट गए, पेट में बल पड़-पड़ गए कि वाह रे उस्ताद! वल्लाह, क्या सूझी है! अब किसी को मकान काहे को बे-समझे-बूझे कोई देगा! क्योंकि शहर भर में डुग्गी पिट गई। कलवार ने बड़ी कोशिश की कि ठाकुर चुलबुली सिंह कहीं मिलें, मगर उनका पता कहाँ! जहाँ कोई शख्स किसी मालिक-मकान के पास गया कि मकान किराये पर दीजिए - तो छूटते ही वह कहता था कि मकान तो हाजिर है मगर कहीं ठाकुर चुलबुली सिंह के भाई न बन जाइएगा। और जब कभी कोई मालिक-मकान किसी किरायेदार को दिक करे - बरसात के दिन हैं और मकान टपक रहा है, या मरम्मत वगैरह नहीं करता - तो किरायेदार झल्लाके कहता था कि ठाकुर चुलबुली सिंह की तरह गप्पा न दिया हो तो सही! हत्तेरे की! बहुत से जालियों और उठाईगीरों, चोरों-उचक्को का हाल सुना होगा, मगर लाला जोती परशाद साहब ने सब के कान काटे। और दिल्लगी यह कि यह सब कार्रवाई इस सबब से नहीं की कि रुपया मिले, या बेइमानी करें, नहीं। मतलब सिर्फ यही था कि शराबी और कलवार दोनों की जिल्लत हो। और कलवार ऐसे मुफलिस हो जायँ कि टका उनके पल्ले न रहे। इस हुश्शूपने को मुलाहजा फरमाइए कि खामखाह पराए बदशगुन के लिए अपने नाक कटाई।
हुश्शू : पाँचवाँ दौरा (गर्काबा)
करेंगे प्यारे से प्यार अपने, किसी के बाबा का डर नहीं है।
पिएँगे मय मस्जिदों में जा कर किसी की खाला का घर नहीं है!
एक खुशनुमा बाग में ठीक दोपहर के वक्त एक रईस बैठे हुए बड़े शौक और जौक के साथ शराब का शगल कर रहे थे। शीशे के कई गिरास करीने के साथ चुने हुए थे, और बोतलें तालाब में पैर रही थीं। और थोड़ी दूर पर कई बावर्ची हर तरह के कबाब पका रहे थे और हजूर रईस ठाठ के साथ बैठे हुए मजे-मजे से खा रहे थे।
इतने में एक खिदमतगार ने अर्ज की कि - हजूर, अकेला सो बावला, दुकेला सो तंग, तिकेला सो खटपट, चौकेला सो जंग। और शराब का शगल तो तनहाई का शगल नहीं है। जब तक दो-चार दोस्त न बैठे हों, तब तक लुत्फ इसका क्या?
रईस ने कहा - अच्छा, जाके फलाँ-फलाँ दोस्त को बुलाओ। यह न कहना कि यहाँ क्या हो रहा है। सिर्फ इतना कहना कि आपको अभी-अभी बुलाया है। बड़ा जरूरी काम है। साथ ही लाओ।
खिदमतगार जहाँ-जहाँ गया, और रर्इस का नाम लिया कि उन्होंने तलब किया है, वहाँ पहले सुननेवाले को बहुत ही ताज्जुब हुआ कि वहाँ कहाँ !
1 - अरे उनका तो पता ही नहीं था कहीं!
2 - यह तुमने किसका नाम लिया है?
3 - पूछो तो कि क्यों बुलाया है?
खिदमतगार - मुझको मना कर दिया है कि न बताना, कि कहाँ हैं, और न यह कहना कि क्या कर रहे हैं, मगर यह कह देना कि बड़ा जरूरी काम है, जल्द चलिए।
1 - और किस-किसको बुलाया है?
2 - बैठ जाओ और सब हाल बताओ।
3 - तुम बताते क्यों नहीं?
खि - अब चलके हजूर आप ही देख लें न। आप तीनों साहब चलें, मैं और जगह जाता हूँ। मगर जल्द जाइए।
खिदमतगार तो रवाना हुआ, और ये तीनों आदमी पालकी गाड़ी पर सवार हो कर चले। वहाँ पहुँचे तो आदमियों से दरियाफ्त किया कि कहाँ हैं?
जवाब - जी, वह सामने तालाब पर हैं।
सवाल - वहाँ हौज पर इस दोपहरिया और गर्मी में क्या हो रहा है?
ज - सरकार जाके देख लें।
स - कब से बैठे हैं?
ज - मालूम नहीं।
स - (दूसरे नौकर से) तुम जानते हो, जी?
ज - हजूर, कोई नहीं जानता। हम नौकर नीच लोग हैं।
स - क्या तुमको मना कर दिया है कि न बताना?
ज - क्या मालूम, सरकार।
इस पर एक दोस्त ने कहा - अरे मियाँ इस हुज्जत से क्या फायदा? सामने ही तो नहर है। चलके देख लो, ना।
सब के सब चलके तालाब के पास पहुँचे, और धक से रह गए।
1 - अरे!! यह हम सपना देख रहे हैं कि सचमुच आप खुद-बदौलत सामने बैठे हैं! या खुदा!
2 - (मारे हँसी के) मार डाला!
3 - (ताज्जुब के साथ) अजी हजरत, तसलीम!
1 - अरे मियाँ, यह क्या हो रहा है?
रईस - आपका नाम भी अंधों की फेहरिस्त में लिख लिया। बीरबल ने एक दिन बादशाह से कहा - हजूर आपके शहर में सब अंधे ही अंधे हैं। और सबूत इसका यों दिया कि एक दिन ऐन चौराहे पर बैठ कर मूँज की रस्सी बटने लगे। अब जो आता है, वह पूछता है : राजा बीरबल, यह क्या हो रहा है? बीरबल ने उन सब को अकबर के पास भेज दिया और कहा : जहाँपनाह, साफ ये लोग देख रहे थे कि मैं रस्सी बट रहा हूँ, और जो जाता है वह पूछता है - राजा बीरबल, यह क्या कर रहे हो! इसी तरह आप लोग भी आँखों के अंधे, नाम नयनसुख हैं!
1 - अरे यार, तुम और शराब?
2 - और यह दोपहरिया और यह गर्मी!!
3 - अरे वाह उस्ताद, मानता हूँ!
इतन में रईस ने तीन गिलासों में शराब उँडेली और बरफ का पानी मिलाके दिए और बुलंद आवाज में कहा :
बिनोश बादह! कि अय्यामे - मगम न खाहद माँद,
चुनाँ न माँद चुनीं नेजहम न खाहद माँद!
(सारांश - पियो! पियो! कि दुख का नाम न रहे और मेरे-तेरे का झगड़ा ही निबट जाय!)
बिनोश! बिनोश! बिनोश! बिरादर!
साकी के मैं जरूर डराने से डर गया!
जामे-शराब लाए भी! - साकी किधर गया?
अरे, यह मौसम तोबा करने का नहीं। बहार जोश पर है!
बगल में हूँ तोबा दबाए हुए!
कलेजे से बोतल लगाए हुए!
1 - लाला जोती परशाद साहब हजूर ही का नाम है?
जो - जनाब, खाकसार ही को कहते हैं।
2 - अरे, भई यह क्या काया-पलट हुई!
जो - मिजाज ही तो है, तबीअत ही तो है।
3 - वल्लाह, अगर हम अपनी आँखों न देखते तो किस मरदूद को यकीन आता! अरे, यह तुमको पहले क्या सूझी थी और अब क्या सूझी हैं?
जो - बादह बिनोश! इन बातों को जाने दो! अरे, कबाब लाओ! लो जी, और जाम लो! आज हम आप सब साहबों को रँगेंगे।
इन दोस्तों में से एक की नजर जो तालाब की तरफ पड़ी तो कहा - ओ हो हो हो! अरे यारो, इधर तो देखो! यह तालाब में क्या हो रहा है?
भई ये तो कई बोतलें पैर रही हैं।
सब खिलखिला कर हँस पड़े। एक ने कहा - जो बात की खुदा की कसम लाजवाब की! पापोश में लगाई किरन आफताब की!
दूसरा बोला - बते-मय (दारू की बत्तख) इसी का नाम है :
तीसरा - क्या आज पैराकी का मेला है?
1 - भई, खूब कही।
2 - वल्लाह, यह फबती बे मसल हुई!
3 - जो कहता हूँ ऐसी ही कहता हूँ! यह मालूम होता है कि पैराक लोग मल्लाही चीर रहे हैं, खड़ी लगा रहे हैं। यह गोता लगाया, वो उभरे! कभी उभरे, कभी डूबे महे-नौ की किश्ती!
जो - मैं गौर करता हूँ, वल्लाह, यह क्या पागलपन था! लाहौल विला कुव्वत! यह दिमाग को बैठे-बैठे क्या हो गया था! बोतलेवाले की बोतलें तोड़ डालीं, कलवार की दुकान की दुकान को गारत कर डाला। मठूरें, बोतलें, पीपे, तोड़ डाले, औंधा दिए। उसके आदमी को हिरनवाली सरा दौड़ा दिया। एक मकान की ईंटें बेच डालीं, कड़ियाँ खुदवाके पटेल लीं। एक जुर्म थोड़ा ही किया।
गुलचीं ने दो गुनाह किए एक छोड़ के
बुलबुल का दिन शिकस्ता किया गुल को तोड़के!
1 - यह हमने नहीं सुना था? क्या किया? कलवार की दुकान लुटा दी?
जो - एक दुकान लूटना क्या मानी? अरे, मकान किराये पर लिया, और ईंटें, कड़ियाँ और शहतीर और जोड़ियाँ - सब के कोड़े कर डाले!
1 - वल्लाह, सच कहते हो?
जो - कसम खुदा की, सच कहता हूँ।
2 - और मालिक-मकान से क्या कहा?
जो - उस सुसरे को अब खबर हुई होगी। आग हो गया होगा। सर पीट लिया होगा।
2 - जिसका मकान, खुदवा के बेच लोगे, वह क्या कहेगा?
3 - गजब किया, वल्लाह! आप कै़द हो जायँगे एक रोज! लाहौल विला कुव्वत!
1- वह तुमको जानता है?
जो - हाँ जानता है कि हमारा नाम चुलबुली सिंह है और जात के हम ठाकुर हैं। और मुल्तान में मकान है।
जिसने सुना वह लोट गया।
1 - मालिक-मकान को इन सब बातों का यकीन हो गया?
2 - बड़ा पागल है, भई!
3 - अब आखिर उसका कुछ हसर मालूम हुआ कि तुम्हारी तहकीकात कर रहा है, तलाश कर रहा है। जिसके हाथ तुमने बेचा वह क्या कहेगा?
जो - न तो वह हमारा नाम जानता है, न शक्ल पहचानता है। हम जब दुकान पर गए तो सर पर मुँडासा, पाँव में पंजाबी जूता, एक चुस्त घुटन्ना और हाथों में मोटे-मोटे कड़े। पूरे सिख बने हुए।
1 - अच्छा गप्पा दिया! जनून की हरकत थी।
2 - अच्छा अब तुम कुछ दिन छिपे रहो!
3 - पूरा फौजदारी का मुकदमा है। कई बरस को भेज दिए जाओ! क्या गजब किया!
जो - भई, अब नशा न खराब करो! जो बीत गई उसको छोड़ो! और हमसे आपको या किसी को शिकायत का कौन-सा मौका है? सिड़ी तो थे ही। सिड़ी की दाद न फरियाद : सिड़ी मार बैठेगा। हमने कुछ होश-हवाश में थोड़ा ही ऐसा किया!
1 - अच्छा जी, जाम चले। भई ये कबाब बड़े मजे़दार हैं।
2 - ऐसी उम्दा गजक है कि बस क्या कहिए!
3 - ओ यस, यस! अच्छा, अब यह बताओ कि वह कलवार कौन था जिसकी दुकान आपने गारत की?
जो - उसका हाल फिर कहेंगे। पहले यह तो सुनिए कि हमने उससे कहा क्या कि हम कौन हैं; हम सदर बाजार के ठेकेदार हैं। मुर्गी और अंडो का ठेका।
इस पर बड़ा फरमाइशी कहकहा पड़ा। कि इतने में वह दोस्त भी आए, जिनको खितमतगार बुलाने गया था - एक वकील, दूसरे डाक्टर। देखते हैं तो लाला जोती परशाद जो इस कदर परहेजगार और शराब के दुश्मन हो गए थे, वह हौज पर बैठे पी रहे हैं। डाक्टर ने कहा -
पीते देर, न तोबा करते : अच्छे हम हैं, अच्छी तोबा!
वकील ने हँस कर कहा - मिजाज शरीफ! - आखिर यह काया-पलट कैसी हो गई, यार?
जो - यह हमको डाक्टर साहब से दरयाफ्तकरना चाहिए!
डाक्टर - जब आपके दिमाग का इम्तहान लिया जाय तो मालूम हो।
जो - मगर आपलोगों ने बड़ी देर की।
वकील - हमारे पास एक कलवार आ गया। रोता था बेचारा। उसको कोई शरीफजादे गप्पा दे गए। और गहरा चरका दिया है। ऐसा, कि न कभी देखा, न सुना। वाह रे हमारे शहर! भई, अजब मुकाम है? अरे मियाँ, किराये पर मकान लिया, मकान को खुदवा के लकड़ी-ईंट सब पलेट डाली। और अब पता नहीं।
1 - कौन शख्स था भई?
2 - (जा. की तरफ खुफिया इशारा करके) अजी कोई होगा! लो डाक्टर जाम पियो। जो जैसा करेगा वह वैसा पाएगा। मकान पटेल लिया, पटेल लिया। इन्सान की तबीअत का भी कोई ठिकाना नहीं। कभी कुछ, कभी कुछ।
मगर लाला जोतीपरशाद साहब की तबीअत का भी रंग देखिए। इनकी तबीअत ने गिरगिट को भी मात कर दिया। धूप-छाँव की भी कोई हकीकत नहीं रही। घड़ी में कुछ है! जमाने की तरह रंग बदलनेवाले ऐसे ही होते हैं। या तो शराब के नाम से नफरत थी, बोतल की सूरत के दुश्मन। यहाँ तक की घर में पेशाब की शीशी तक तोड़ डाली, कलवारीखाने में जा के दाँद मचाई। और अब यह कैफियत है कि रंद बदमस्त जमा हैं, और दिल्लगी हो रही है, और चुहल हो रही है, और दौर चल रहा है। मजाक हो ही रहा था कि एक दोस्त ने कहा -
भाई साहब,
गुल बेरुखे - यार खुश न बाशद,
ब - बादह बहार खुश न बाशद
दूसरा बोला - हमारा भी साद है।
तीसरे ने कहा - हम भी रेजोल्यूशन को सेक हैंड करते हैं।
लाला जोतीपरशाद ने फौरन लाला रुख नाम की एक औरत को, जो जवान और खूबसूरत थी और अच्छा गाती थी, बुलवाया। दोस्तों ने पूछा - यार, यह पीती है? उन्होंने कहा - हाँ, खूब पीती है। एक बोला - बे इसके सोहबत का लुत्फ कहाँ? दूसरे ने कहा -वाह, वह माशूक क्या, जो इसका शगल न करे। गूँगी सोहबत किस काम की!
एक दोस्त ने नशे की हालत में यों उपच की ली -
क्या ही समाँ है जाँफिजाँ : रिंद है जमा जा-ब-जा
बाग है एक दिलकशा : सौते-हजार (बुलबुल का तराना) दिलरुबा
बज्म में है, अजीब रंग : बजती कहीं है जलतरंग
गाती है कोई शोख-शंग : तन-तनतन तनन-तना!
बन के चली कोई दुल्हन : तन के चला कोई सजन
है कोई नल, कोई दमन : बुलबुलो-गुल हैं एकजा
मर्द हैं, मस्त और गनी : औरतें सब बनी-ठनी
कोई बना, कोई बनी : रंगे-शराब है जमा
साकीए-लाला फाम है : लाला-रुख उसका नाम है
हाथ में सबके जाम है : उसपे गजक का है मजा
1 - भई पोचगोई (हलके मजाक की शायरी) में तुम सब से बढ़ गए।
2 - क्या दाद दी है, माशेअल्लाह।
3 - पागल हैं ये। वल्लाह, यह तर्ज हमको बहुत पसंद है।
2 - मजाक तो है ही, मगर उम्दा मजाक है। भोंडा मजाक नहीं है।
बन के चली कोई दुल्हन : तन के चला कोई सजन
है कोई नल, कोई दमन : बुलबुलो-गुल हैं एकजा
1 - इसमें क्या लुत्फ है?
2 - आपकी ऐसी-तैसी! हाँ दिल्लगी के दो चार लफ्ज अगर निकाल दिए जायँ, और उनकी जगह पर मुनासिब लफ्ज लाए जायँ तो फिर देखिए कि कैसी फड़कती हुई गजल, चोटी की, हो जाती है।
1 - अबे जा! फड़कती हुई गजल तूने सुनी भी नहीं है -
किससे उस शोख ने की रात को हाथापाई
नौरतन आज जो ढलका है तेरे बाजू पर!
2 - खुदा की मार!
3 - लाहौल विला कुव्वत!
4 - पहले मिसरे में तो उस शोख है, और दूसरे में तेरे बाजू पर, छी! शायरी है!!
जोती - मोहमल (निरर्थक) शेर है। भोंडा मजाक है।
3 - भोंडा सा भोंडा।
इतने में एक साहब जो जीने पर बैठे थे, हौज में लुढ़क गए : जल्ले-जलाल हू! एक गोता खाया - मुबारक! दूसरा खाया - मुबारक शुद! किसी तरह दो गोते खाके उभरे! खुद भी हँसे और हाजरीन ने भी कहकहा लगाया। जितने आदमी बैठे थे, मारे हँसी के लोटने लगे। और लालारुख ने तालियाँ बजा कर खूब जोर से कहकहा लगाया, और वह बहुत ही झेंपे। एक ने कहा - भई, खूब शुद! दूसरा बोला -
कश्तिये-जाफर जटल्ली दर-भँवर उफ्तादा अस्त
डुबका-डुबका मी कुनद, ए अज-तवज्जह पारकुन!
तीसरे ने कहा - मालूम होता है कि हौज के पैराकुओं से मुकाबला करने गए थे। जरा डाक्टर को दिखा तो लो। हड्डी-पसली तो बच गई, या मरम्मत-वरम्मत की जरूरत है। हाथ शिकस्ता बहर (उखड़ा-उखड़ा छंद), और पाँव तैमूरलंग, और टाँग से लंगड़दीन, घोड़े का जीन!
ये बातें हो ही रही थीं कि लाला जोती परशाद साहब बहादुर के चचाजान इधर आ निकले। अब फरमाइए। उनको कौन रोके, सीधे दर्राए हुए घुस गए। देखते क्या हैं कि हौज पर जश्न हो रहा है। शराब की बोतलें भी पैर रही हैं और लोग भी धुत और गैन बैठे हुए हैं, और शेरो-शायरी भी हो रही है। और एक चमक्को भी बनी-ठनी बैठी है। उनको देख कर लालारुख भागने लगी, मगर चचाजान ने कहा -
यह क्यों? ये भागती क्यों हैं? बुला लो!
डाक्टर साहब ने कहा - किबला-ओ-काबा, ये गाने के लिए बुलवाई गई है।
चचा - क्या मुजायका है। ...जोती परशाद मिजाज कैसा है?
जो - किबला-ओ-काबा! एक जाम हजूर मेरे हाथ से पी लें!
चचा - लाओ बेटा। बड़ी खुशी से!
च - (पी कर) अब यह कहिए डाक्टर साहब, इनका मिजाज कैसा है?
डाक्टर - यकीन तो है, मिजाज रास्ते पर आ रहा है।
1 - अब इत्मीमान रखिए।
2 - मैं हजूर को मुबारकबाद देना चाहता हूँ।
चचा - है तो ऐसी ही बात।
जो - घर में इत्तला कर दीजिए कि अब दिमाग सही हो गया।
चचा - शुक्र है खुदा का।
एक साहब जो हौज में गोते खा चुके थे, उसके बाद कमरे में जाके लेटे थे, अब चौंक पड़े और एक बेतुकी हाँक लगाई - गरगरागर! फरफराफर! टाँय टाँय गरफिश्श्! टल्लेनवीसी भई टल्लेनवीसी!
जोती परशाद के चाचा ने हँस कर कहा - जंगबाज खाँ हैं!
'जंगबाज खाँ' इन्होने शराब का नाम रख दिया था - बल्कि शराब की उस हालत को, जिसमें इन्सान अपने आपे में नहीं रहता है, और बेकैफ हो जाता है। यह बेतुकी हाँक जो इन्होने लगाई, तो चचा समझ गए कि जंगबाज खानी हालत है।
वह हजरत अब कमरे से बाहर आए और लालारुख को देख कर कहा - लो जाने-जाँ, एक बोसा हमको दे डालो - बस एक! ज्यादा चूमाचाटी नहीं।
उस पर वकील साहब ने उठ कर कान में कहा - अरे भाई, यह क्या अंधेर करते हो! जोती परशाद के चचा आए हैं!
जवाब - जोतीपरशाद की ऐसी-तैसी!
- अरे मियाँ उनके चचा आए हैं।
जवाब - चचा की भी ऐसी तैसी।
- हाँय!! क्या जनून हो गया है!
जवाब - जनून और चचा दोनों की!
- (मुँह हाथों से बंद करके) अरे चुप!
चचा ने कहा - कहने दीजिए। इस वक्त इनकी माफ है! अंधे की दाद न फरियाद! अंधा मार बैठेगा!
उन्होने फरमाया - फरियाद की भी ऐसी-तैसी। अंधे की भी ऐसी-तैसी।
चचा ने जो यह कैफियत देखी तो समझे कि लड़कों की सोहबत में बैठना अच्छा नहीं होता। यहाँ से चलना चाहिए; और उठके चले गए। जोती परशाद ने अपनी वहशत का पूरा-पूरा हाल दोस्तों से बयान कर दिया कि बोतलवाले की बोतलें तोड़ीं और उसको झाऊलाल के पुल दौड़ाया और कलवार की दुकान की सारी कारगुजारी कह सुनाई, कि यों मठूरें तोड़ीं और बोतलों के औने-पौने किए और रेत भर दी, और उसके आदमी को दही- बड़े लेने को दौड़ाया - और चिराग गुल करके पगड़ी गायब कर दी। मारे हँसी के लोट-लोट गए।
उस दिन बारह बजे रात तक सब पिया किए, और पीते-पीते बदमस्त हुए कि किसी के हवास नहीं। सब चूर चूर।
1 - अरे यार खुर्दन (खाने-पीने का सामान) कहाँ है?
2 - 'खुर्दन' - खाना। 'बखुद' - खा तू! 'मीखुरम' - खाता हूँ मैं! 'मीखुरी' - खाता है तू!
3 - सैयाँ भए कुतवाल; अब डर काहे का!
4 - यार शराब अब नहीं है!
5 - बस अब फिजूल है। बहुत हो गई।
जो - भाई साहब, आज तो रात भर उड़ेगी।
1 - कुछ मरना थोड़े ही है। हाँ खाना मँगवाइए!
2 - खाने के साथ कुछ होना चाहिए!
3 - सैयाँ भए कोतवाल!
4 - इनको सबसे ज्यादा तेज है। इनको अब न मिले!
इतने में कबाब और पूरियाँ आईं।
डाक्टर - मैं इन हिंदुओं की पूरियों से जलता हूँ।
लालारुख - और हमको कबाबों के साथ पूरी ही अच्छी मालूम होती है। गर्मागम कबाब और गर्मागम पूरी और चटनी!
वकील - भजिया तो जैसी हिंदू हलवाइयों के यहाँ होती है, वैसी कहीं नहीं होती। लाख तदबीर करो वह जायका नहीं आता।
1 - अब इस वक्त सब गैन हैं। मगर इतने हवास हैं कि बातें कर रहे हैं। अगर एक दौर कड़क के और चला, तो बस -
सागर को मेरे हाथ से लेना कि चला मैं!
3 - सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का! अरे सैयाँ - ओ सैयाँ!
जो - (हँस कर) - इनकी तो रसीद आ गई।
1 - जी हाँ, पहुँच गई।
2 - अभी नहीं। अभी खजूर में हैं। एक जाम की कसर है।
3 - (बहुत खिलखिला कर हँसे) - सैयाँ भए कोतवाल रे!
इतने में लालारुख कमरे के अंदर गई और इधर-उधर से ढूँढ़ कर बरांडी की बोतल ले ही आई!
1 - अरे यार मार डाला! अब सब डूबे!
2 - डूबे तो हैं ही। यह कहो कि अब पता भी न मिलेगा! अब तक तो खैर सहारे से उभर भी सकते थे। मगर अब ऐसे डूबेंगे कि - गर्काब! बल्के : गड़काब!
जो - हाँ सामान तो ऐसे ही नजर आते हैं। ये पा कहाँ से गई?
लालारुख - हम तो पाताल की खबर लानेवाले हैं।
जो - मगर तुम्हारी थाह किसी ने न पाई!
3 - सैयाँ भए कोतवाल! अरे, हाँ।
1 - इनको न देना, नहीं ये कोतवाली ही जाएँगे!
इस फिकरे पर सब ने कहकहा लगाया। मगर वह गाया ही किए - 'सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का!' लालारुख ने सबसे पहले इन्हीं को जाम दिया। बाद में खुद लिया। और यों ही एक के बाद एक दौर चलने लगा। और जिन-जिनको बहुत तेज नहीं हुई थी उन्होंने खाना भी खाया। जो किसी कदर चूर थे, उन्होंने कुछ यों ही से दो-चार निवाले खाए; और जो सैयाँ भए कोतवाल की तरह सातवें आसमान की सैर कर रहे थे, उनके यहाँ रमजान-शरीफ ने डेरे डाल दिए! सैयाँ तो लौट गए। उनका पता नहीं। बहुत दूर निकल गए। और छकड़े पर लादे नहीं गए, रेल पर गए। स्पेशल ट्रेन पर। मारामार। इनके बाद दूसरे साहब भी रवाना बाशद। मगर ये भटियारे के टट्टू पर गए। उस तेजी और फर्राटे के साथ नहीं गए। दो बजे तक जमी। उसके बाद दो के सिवाय किसी को उठने-सरकने की ताकत न रही। जिन दो के हवास बाकी थे उनमें एक लालारुख और एक डाक्टर नूर खाँ थे।
लालारुख - आज बड़ी पिलाई हुई।
डा - मगर तुम भी कितनी चंचल हो!
ला - चंचल सी चंचल! फूफी-अम्मा कहती हैं, लालारुख! क्या जाने तू माँ के पेट में नौ महीने तक क्यों कर रही : बोटी-बोटी फड़कती है। मैंने कहा - शोखी तो मेरी घुट्टी में पड़ी है :
मामूर हूँ शोखी से शरारत से भरी हूँ!
धानी मेरी पोशाक है, मैं सब्जपरी हूँ!
डा - सब कहते हैं बड़ी चंचल छोकरी है!
ला - छोकरी! च-खुश!! अच्छे-अच्छों को छोकरा बनाके छोड़ दूँ!
डा - (हँस कर) है तो ऐसा ही!
इतने में आवाज आई - 'सैयाँ भए कोतवाल!' और लालारुख के मुँह से फौरन निकला - अरे, ये फिर जीते हो गए!' इस पर डाक्टर जोर से हँस पड़े और कहा - ऐन मुर्दा तो जिंदा हुआ!
बस एक बार गा कर फिर जो सोए तो जागना सुबह तक कसम है! सोए, तो उठना मालूम! - मुर्दों से शर्त बाँध कर सोए! डाक्टर और लालारुख ने फिर थोड़ी-थोड़ी पी, और खूब सरूर गठे।
कोई चार बजे के करीब लाला जोती परशाद साहब की आँख खुली और खिदमतगारों को जगा कर हुक्म दिया कि कोठरी खोल कर उन बोतलों में से जो गाँव से खिंच कर आई हैं, एक बोतल निकाल लाओ। डाक्टर ने पूछा - कहाँ खिंची, भई? उन्होंने कहा - कोई आठ बरस हुए हमने इजाजत ले कर खिंचवाई थी; और चार साल तक दफनाई गई।
डाक्टर ने कहा - बे मिसाल होगी! इसका क्या कहना! नुस्खा किसने दिया था?
कहा - नुस्खा एक हकीम का लिखा हुआ है। गाजर और मुंडी और सौंफ, और गुड़हल के फूल और केउड़ा और मुर्ग और तीतर और बकरी का गोश्त और चिड़े, और बहुत सी ठंडी चीजें हैं। और रंग सुनहरी; और बू का नाम नहीं। बल्कि खुशबू। डकार ऐसी उम्दा कि वाह!
थोड़ी देर में आदमी बोतल ले कर आया।
ला - अरे, अब तड़के-तड़के न पी!
जो - आज की माफ है। लाओ जी!
डा - बडे दहादत्त पीनेवाले हो भई!
ला - सब न पियो। कहा मानो! नहीं, मर जाओगे।
डा - कैसी पागलपने की बातें करती हो!
ला - अब ये माननेवाले हैं भला! - तुम न पियो!
जो - वाह, ये न पिएँ, तो छाती पे चढ़के पिलाऊँ। हम तो डूबें, आप लोग मजे में हैं यह कौन बात है! सब के पहले तो मैं लालारुख ही को दूँगा। लीजिए; इनकार किया और मैं आग हो गया, बस!
ला - (जाम ले कर) इनकार इस चीज से नौसिखिये करते हैं। यहाँ हरदम बर्क। बर्कदम। (पी कर) वाह, क्या चीज है, वल्लाह!
जो - अब इन मुर्दो को तो जगाओ, डाक्टर!
डा - इस काम में लालारुख ही बर्क हैं!
ला - ए हम तो जगा दें इनके गड़े मुर्दों को!
सब के पहले सैयाँ को जगाया। वही, जो बार-बार चौंक-चौंक उठते थे और गाते थे, सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का! दो-चार बार जगाया, न जागे तो लालारुख ने कहा - यह मुआ मुर्दों से शर्त बाँधके सोया है! (पानी लोटे से सर पर डाल कर) हत्तेरे की!
वह कुलबुला के उठ बैठे।
ला - बंदगी, बड़े मियाँ! मिजाज अच्छे?
जवाब - (मुस्करा कर) सोने दो, तबीअत सुस्त है। तोबा ही भली!
ला - अरे, इससे तो सुस्ती जाती रहती है।
जो - हाँ, हाँ; आग का जला, आग से ही अच्छा होता है।
जवाब - और साँप का काटा रस्सी से डरता है।
डा - नहीं, इस वक्त थोड़ी-सी जरूर लेनी चाहिए।
ला - लो डाक्टर ने भी कह दिया, अब क्या है!
जवाब - अच्छा लाओ। पंच कहें बिल्ली तो बिल्ली ही सही। (पी कर) खुदा की कसम, आँखें खुल गईं। आबे-हयात है! यह कहाँ से आई, भई? यह तो नई चीज है। वल्लाह, क्या जायका है!
जो - अब औरों को भी जिंदा करो!
ला - पहले डाक्टर को तो दो!
डाक्टर ने बगैर पानी मिलाए पी, और बड़ी तारीफ की। कहा - राह-रूह इसी का नाम है। अव्वल तो खुशबूदार, दूसरे बढ़िया जायका। तीसरे फायदा करनेवाली जरूर होगी। अल्कोहल इसमें कम है। और चौथे, वह साफ किया हुआ! बहुत ही साफ किया हुआ! अब इसके मुकाबले में न तो बरांडी की कोई हकीकत है, न आपकी व्हिस्की की! भई, एक जाम पानी भी मिलाके भी दो!
एक जाम पानी मिलाके भी पिया; और डाक्टर ने बड़ी तारीफ की। और लालारुख ने भी कहा - मैं तो सूरत के देखते ही खुश हो गई थी। इसके बाद सब एक सिरे से जगाए गए, और वही शराब उड़ने लगी। उस रोज भी रात-दिन यही शगल रहा। बराबर दौर पर दौर। और वही उसी दिन की हालत, कि किसी ने खाना खाया, और किसी ने कुछ नहीं। और कोई किसी रंग और कोई किसी तरंग में। सब मस्त। उस रोज यह अलबत्ता हुआ कि एक लालारुख के अलावा दो और आईं। एक गोरी साकिन और दूसरी जलाई देहातिन। वही हू-हक! वही चहलपहल।
तीसरे दिन सलाह हुई कि शहर में पूरा-पूरा सोहबत का लुत्फ नहीं। कहीं देहात में उन सबको ले कर चलना चाहिए। ताकि बिलकुल आजादी हो! सबने इस पर साद कर दिया।
डाक्टर और वकील तो शरीक न हो सके; उनको अपना-अपना काम था। और सब दोस्त, मय तीनों रंडियाँ शोखो-शंग के, एक बाग में गए, जो शहर से कोई तीन कोस पर था। वहाँ झोटे पड़े। मियाँ हुश्शू एक झूले पर लालारुख को लिए झूल रहे हैं। कोई दोस्त जौलाई से पेंग बढ़ा रहे हैं। कोई गोरी साकन को दम दे रहा है, राह पर ला रहा है। खाने-पीने की इफरात। मेवे हर किस्म में मौजूद। तमाम दुनिया के मजे और ऐश! चाहे नंगे नाचें, चाहे गाएँ-बजाएँ - ढोल बजाएँ। खूब धमाचौकड़ी मची। मियाँ हुश्शू दो दिन तक बेहोश : किसी वक्त होश आने ही नहीं देते हैं।
सर पटकता हूँ - पिला दे मये-सरजोश मुझे!
साकिया दौड़ कि फिर आने लगा होश मुझे!
सब से ज्यादा बेकैफ हुश्शू थे। यहाँ तक कि दिल धड़कने लगा; और मारे प्यास के दम निकलने लगा। होठ हरदम खुश्क। पानी की सुराहियों पर सुराहियाँ खाली कर दी मगर होठ और हलक तर न हुए। और हों कहाँ से? दिन-रात बोतल मुँह से लगी हुई। कोई दम उससे खाली ही नहीं।
हुश्शू - अरे यार, कोई तो हमको ऐसी शय पिलाओ कि जरा हलक तर हो : होठ काँटा हो गए!
1 - बर्फ बराबर मिलाते जाओ!
2 - अब तुम सोने का ध्यान करो!
3 - सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का!
वाह वा! इनकी तो जान पर बनी हुई है और एक साहब सलाह देते हैं कि सोने का ध्यान करो! क्या अच्छा वक्त आराम का निकाला है! - कि वह दूसरे साहब फरमाते हैं : सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का! क्या खूब मौका गाने का मिला है!
लाला जोती परशाद का बुरा हाल था। खिदमतगार उनकी इजाजत के बगैर गाड़ी पर सवार हो कर शहर से डाक्टर को बुला लाया। डाक्टर ने आके देखा तो बुरा हाल था।
डाक्टर - क्या हाल है?
हुश्शू - (आहिस्ता से) बुरा हाल है।
डाक्टर - हद हो गई होगी? यह बड़ा ऐब है...
हुश्शू - जान पर बनी हुई है। उफ!
डाक्टर - (माथे पर हाथ रख कर) गर्म है। (नब्ज देख कर) तेज बुखार है। जबान देखूँ! अच्छा। बस, अभी कसेरू का शरबत बनवाओ। उम्दा चीनी और केवड़े और बर्फ के साथ पी लो। देखो अभी तस्कीन हुई जाती है। इस चीज के लिए कसेरू अक्सीर है।
डाक्टर - साहब के हुक्म के मुताबिक खिदमतगार शरबत तैयार करने चला, तो कई आदमियों ने उसे बुलाया और टोंका; क्योंकि सबके सब गोली खाए हुए थे, और सबको दवा की जरूरत थी; दो दिन तक शराब उड़ती रही।
1 - अरे भई, इधर आना। कसेरू का शरबत जरा ज्यादा लाना।
2 - हम भी पिएँगे।
3 - और पिएगा कौन नहीं?
खिदमतगार - मैं एक घड़ा भर लिए आता हूँ। सब साहब पिएँ।
डाक्टर - हाँ, इससे कम में कुछ भी न होगा। सब के सब कलेजे फूँक के आए हैं।
हुश्शू - मौत का सामना है।
यह कह कर हुश्शू उठे ही थे कि चक्कर आ गया, और गिरे तो बेहोश हो गए। दो - चार मिनट में जब गशी की हालत रफा हो गई तो आँख खोली और पानी माँगा। डाक्टर ने कहा - अब कसेरू का शरबत ही पीजिए। बर्फ और केवड़ा डाल के लुत्फ देगा। और कसेरू से ठंडक पहुँचेगी। जिन लोगों को इसका शौक है और इरकी हद कर देते हैं उनका यही हाल होता है। और जोती परशाद तो हुश्शू ही हैं। छोड़ दी तो इस गधेपन के साथ कि बोतलें और मठूरें चकनाचूर करने लगे। इसको तोड़ उसको फोड़, दहम-धँस! हम हुश्शू लिखते हैं तो पीते नहीं, औरा पीने पर आए तो भलमनसी के खिलाफ, अक्ल से दुश्मनी। भला यह भी कोई अक्लमंदी है कि दो-दो तीन-तीन दिन, आठों पहर वही एक हालत। सुबह, शाम, दोपहर, तीसरा पहर जब देखो चढ़ी रहती है। अफरातफरी इसी का नाम है।
एक हफ्ते तक लाला जोती परशाद साहब हुश्शू खटिया से न उठ सके। यार-दोस्त और घर के सबों को उनकी तरफ से फिक्र हो गई, कि खुदा ही खैर करे। रोज दो वक्त डाक्टर आते थे। और आपस में सलाह लिखते थे, और एक कंपाउंडर हरदम पास रहता था। आठवें रोज उनकी तबीअत जरा सँभली। डाक्टर ने सलाह दी कि एकदम से शराब न छोड़ दो। एकदम से तर्क कर देना नुक्सान पहुँचाता है। मगर उन्होंने एक न सुनी, और एकदम से तर्क कर दी। नतीजा यह हुआ कि हाथ-पाँव टूटने लगे। भूख बहुत कम हो गई। रात को नींद नहीं आती थी। दो महीने पूरे बेहद कमजोर रहे, और बाग से बाहर न निकले। दिन-रात बाग में रहते थे। अगर कोई मिलने गया तो जरा देर के लिए मिल लिए, वर्ना किसी से सरोकार नहीं। लेकिन खिदमतगारों और नौकरों को ताकीद थी कि खबरदार शराब पीके हमारे सामने न आना। बोतल किसी किस्म की न हो! तेल तक कुप्पी में आए : हमको इसके नाम और जाम और बर्तनों तक से नफरत है!
एक इनके दोस्त शैतान ने मिजाजपुरसी की तो ऐसे बेतहाशे बाग से भागे कि मंजिलों पता ही नहीं। जाते-जाते एक पार्क में पहुँचे। शाम का वक्त था, कोई साढ़े सात बजे। हरी-हरी दूब पर तकल्लुफ के साथ खाने की मेज और कुर्सियाँ चुनी हुई थीं और साहब लोग और मिसें और मेमें खाना खा रहे थे, और सार्जन्ट का पहरा था। कोई उधर जाने नहीं पाता था। मगर आप उनकी आँख में खाक-धूल झोंक कर धँस ही तो पड़े, और एक सिरे से टंबलर और गिलास तोड़ने शुरू किए। सब अचंभे में - कि या इलाही, यह कैसी बला सर पर आन टूटी! गिरफ्तार हुए। लोगों ने पहचाना। कहा - हजूर, यह फलाँ रईस के भतीजे हैं। साहब कमिश्नर इनके चचा को जानते थे। उनको फौरन बुलवाया, और कहा - आप कल भतीजे को फौरन पागलखाने भेजिए। इस वक्त इन्होंने बड़ी बेजा हरकत की। दो मेम साहब को गश आ गया; और एक खानसामा के सर पर बोतल तोड़ी। वह बेचैन है। आप इनका इलाज अपने आप न कर सकेंगे। बेहतर, कुछ दिन पागलखाने में रहने दीजिए, और वहाँ इलाज कीजिए।
चचा ने साहब मजिस्ट्रेट से कहा कि मुझे आप के हुक्म की तालीम में कोई उज्र नहीं। लेकिन फिक्र यह है कि पागलखाने गया तो औरतें कुढ़-कुढ़के मर जायँगी। बस इसका खयाल है। मैं कल मजिस्ट्रेटी में दरख्वास्त दे दूँगा कि मुझे इजाजत दी जाए कि पागल के पाँवों में जंजीर डाल कर के हिरासत में रक्खूँ।
साहब कमिश्नर ने इस राय को मुनासिब समझा, और दूसरे रोज मियाँ हुश्शू को किसी बहाने से मजिस्ट्रेटी ले गए। मजिस्ट्रेट ने इनका नाम दरियाफ्त किया। इन्होंने अपना कार्ड दिया। उन्होंने कई सवाल किए, सब का जवाब दिया। फिलासफी के मसले पूछे। ये बर्कदम : हर सवाल का जवाब मौजूद। हिस्ट्री में बहस की। ये पूरे उतरे। तब उन्होंने झल्लाके कहा - वेल, इसको कौन पागल कहता है?
लोग आगे बढ़के कहने ही को थे कि इत्तफाक से दफ्तरी साहब के इजलास पर दवात में रोशनाई डालने को लाया। बोतल का देखना था कि ये जन से इजलास पर थे; और जाते ही दफ्तरी के हाथ से छीनी, और फेंकी - तो सौ टुकड़े। साहब के कपड़ों पर रोशनाई ही रोशनाई! सरिश्तेदार पर रेल के वर्कशाप के खलासी की फबती होती थी। एक वकील साहब दाढ़ी सुर्ख-सुर्ख रँगा कर बहस कर रहे थे। रोशनाई कुछ 'रेशे-मुबारक' (दाढ़ी) पर, कुछ हलक से उतर गई! कोर्ट-मोहर्रिर, कान्स्टेबिल, चपरासी सब इजलास पर पहुँचे, और इनको ले आए। और साहब ने सरिश्तेदार को इशारा कर दिया कि हुक्म लिख दो कि जंजीर पाँव में पिन्हाने की इजाजत है।
दूसरे दिन चचा जो उनको ढूँढ़ते हैं तो इनका कहीं पता नहीं। समझे, कि हमारा वहशी निकल गया।
उस दिन तो अच्छी तरह आए, खाना खाया और कोई बात अक्ल के खिलाफ नहीं की। चचा ने दोस्तों और घरवालों की राय से यह तय किया कि आज इनको यों ही आराम करने दो, कल से कार्रवाई की जायगी। ये आधी रात को वहाँ से अपनी गाड़ी पर सवार हो कर एक होटल में जाके रहे। और सुबह को वहाँ से सौदागरों की दुकान पर तशरीफ ले गए। और इधर-उधर बहुत-कुछ खरीदारी की। रईस आदमी समझ कर सबने इनकी इज्जत-आबरू की। किसी को दस से सात दिए और तीन का रुक्का लिख दिया, किसी को हुक्म दिया कि फलाँ मुकाम पर आदमी को बिल ले कर भेज दो। किसी को कहा - बिल और सामान आज शाम को हमारे पास भेज दो! कोई कहीं गया, कोई कहीं; और ये जो लंबे हुए तो सीधे उसी उसी होटल पहुँचे। लेता मरे कि देता। दूसरे दिन इनकी पागलपने की खबर शहर भर में मशहूर हो गई। लोग पहले ही से जानते थे कि सिड़ी है।
हुश्शू : छठा दौरा (वहशत! वहशत! वहशत!)
एक रईस एक जोड़ी गाड़ी पर सवार हो कर सदर बाजार गए, और एक मालदार बजाज की दुकान पर जा कर दो उम्दा सूट बनवाए - एक रेशमी और दूसरा सूती। इसके बाद टहलते-टहलते-बजाज की आँख जरा चूकी ही थी कि आपने एक चमड़े का बेग, जिसमें बोतल और गिलास सफर के लिए रक्खा जाता है, झप से गले में पहन लिया और दुकान से बाहर निकल आए। थोड़ी देर में एक सार्जेंट आया। अंग्रेजी में लाला से कहा - हम अपना बेग यहाँ भूल गए हैं। उसमें एक बोतल है और गिलास। बजाज के आदमी ने कहा - जी हाँ, रक्खा है। लाला ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में कहा - आप बैठें, मेरा आदमी लिए आता है।
आदमी ने इधर-उधर देखा, तो बेग मय बोतल और गिलास के गायब - और उसके साथ ही आदमी के होश! इधर ढूँढ़ा, उधर ढूँढ़ा मगर वह भला कहाँ मिलनेवाले हैं। हुश्शू तो थे ही; दुनिया भर में उनका कहीं पता नहीं। चौतर्फा ढूँढ़ मारा, कहीं हों तब तो मिलें। दुकान भर परेशान। बजाज अपने आदमी को ललकार रहा है - कि तूने झूठ-मूठ बक दिया; अब तुझको दाम देने पड़ेंगे। और वह सैकड़ों कस्में खाता है कि राम-दुहाई, अभी-अभी यहाँ पर रखा था!
बजाज और नौकर में यह जंग हो ही रही थी कि एक आदमी वही बेग ले कर आया और बजाज को एक चिट्ठी मय बेग के दी। बहुत उम्दा अंग्रेजी में लिखा था -
'लाला साहब, हम शराब और शराबी दोनों के दुश्मन हैं। तुम्हारी दुकान पर शराब की बोतल का बेग देखा। आग ही तो लग गई। सर से पाँव तक फुँक गया। गले में बेग डाला और लंबा हुआ। बोतल रास्ते में तोड़ डाली। गिलासके चार टुकड़े किए। चमड़े का बेग भेजता हूँ। इस आदमी को दो आने दे दो। मा ब-खैर व शुमा ब-सलामत।
राकिम -
हुश्शू'
बजाज ने यह खत बड़े अचंभे के साथ पढ़ कर सार्जेन्ट को दे दिया। पहले तो उनकी समझ में नहीं आया। मगर जब लाला साहब ने समझाया तो बहुत हँसा। बजाज ने आदमी को, लाला जोती परशाद साहब के हुक्म के मुताबिक, दो आने दिया, और सार्जेन्ट से बोतल और गिलास के दाम पूछे। वह नेक आदमी था। बेग गले में डाला और हँस कर कहा - अच्छे पागलों से लेन देन रखते हो! और चला गया।
लाला और उसका भाई और दुकानदार सब हैरान कि या अल्ला यह किसका काम है। जोती परशाद के सिवा और कोई यहाँ आया नहीं। और वह एक वजेदार और रईस आदमी हैं।
अब सुनिए कि लाला जोती परशाद साहब यहाँ से दुकानों की दूसरी लैन में गए और एक बिसाती की दुकान में उतर पड़े। दुकान बड़ी थी। बिसाती उठ कर असबाब दिखाने लगा। उससे आपने धूप की ऐनक माँगी। वह कोठरी में गया, कि इतने में मौका-वक्त गनीमत जान कर आपने जल्दी-जल्दी दो कार्क-स्क्रू यानी काग-पेच पाकट में रख ही तो लिए। और उधर बिसाती का सिख मुलाजिम जो इत्तफाक से इनकी तरफ देख रहा था - और इनको खबर न थी कि कोई हमारी ताक में है - वह झपटा। बिसाती ऐनकें निकाल कर आया ही था कि सिक्ख ने मियाँ हुश्शू का हाथ पकड़ लिया।
हुश्शू - हिस्ट! क्या बात है?।
बिसाती - हायँ! कुछ पागल हो गया है। अरे, एक रईस का हाथ पकड़ता है! छोड़ दे! सिड़ी है, कौन!
सिक्ख - रईस इसको कौन कहता है? यह चोर, इसका बाप चोर!
हुश्शू - देखो, इसको समझाओ।
बिसाती - कपूर सिंह, तुमको आज जनून हो गया है? तुम हमारी दुकान से निकल जाओ।
सिक्ख - अरे सरकार, ये तुम्हारे देस की सरदार, और चोरी-चकारी करें! पाकट में हाथ डाल कर देखिए : यह चोर, इसका बाप-दादा चोर!
बिसाती - लाहौल विला कुव्वत! ले, बस जाइए। कोई दूसरा होता तो मारके उधेड़ डालता।
सिपाही - वह तो कपूर सिंह न देखते तो मार ही ले गया था। अब चलो थाने! काग-पेच चुराने चले थे! चलो थाने! बीस बेंत से कम न पड़ेंगे।
बिसाती - ले जाओ थाने पर।
इतने में इनका खिदमतगार आया। और कोचमैन घोड़ों को साईसों के सुपुर्द करके कूद पड़ा। अब ये भी तीन आदमी हो गए; और आपस में दंगा होने लगा।
कोचमैन - किसी रईस की इज्जत लेते हो?
खिदमतगार - ये काग-पेच चुरानेवाले लोग हैं, जिनके नौकर चाँदी के कड़े पहने हैं।
सिक्ख - अरे, आँखों में खाक झोंकता है! पूछ तो, यह पेच कहाँ से निकला। हिंदू धरम - इससे गंगाजली उठवा! चौड़ी-गाड़ी पर सवार और चोरी!
कोचमैन - बस, जबान सँभालके बोल! बड़ा वह बनके आया है!
यह हंगामा हो ही रहा था कि एक दुकानदार ने चुपके से कोचमैन के कान में कहा - अरे भई, इस तू-तू मैं-मैं से क्या होगा! दुकानदार को कुछ ले-दे के वैस्ट कर दो! माला (मामला) रईस आदमी हैं; बड़े बदनाम होंगे!
कोचमैन ने कहा - अगर यों ही सब रईस डरने लगे, तो जिसका जी चाहे धमका ले। बिसाती ने आदमियों से कहा कि कान्स्टेबुल को बुलाओ। इनको चचा ही बना के छोड़ूँगा। जाते कहाँ है चिड्डा-गुलखैरू!
अब दस-पाँच आदमी और जमा हो गए।
1 - अरे मियाँ, चौड़ी गाड़ी पर सवार हैं, चोरी क्या करते? हजूर गाड़ी पर हों! यह बिसाती बड़ा बदजात है।
2 - किसी रईस को बेइज्जत करना कौन भलमन्सी है?
3 - अरे, तो क्या दुकानदार को कुत्ते ने काटा था?
1 - कोई किसी को झूठ नहीं ले मरता।
गर्जे कि बड़ी ले-दे के बात खिदमतगार ने बिसाती के मुलाजिम को बीस रुपए दिए और उसने अपने मालिक के हवाले किए। तब जाके कहीं लाला जोती परशाद की आबरू बची। और सोचा कि बहुतों को गप्पे दिए थे मगर ये एक गुरू मिले! कोशिश तो यह की थी कि बोतल के खोलने के पेच घुमाके खारी कुएँ में फेंक दें; मगर लेने के देने पड़े - हात्तेरे की! धर लिया गया ना, ओ गीदी!
यहाँ से मियाँ हुश्शू साहब बहुत ही रंजीदा और दुखी और मरी हुई-सी तबीअत ले कर गाड़ी पर सवार हुए। सैकड़ों जूते पड़े। चोर बने; बाप को सलवातें सुनवाई। हाथ पकड़ा गया। जेब से कार्क-स्क्रू निकले; सिक्ख बिगड़ा। दूसरे आदमी ने औंधी-सीधी सुनाई। लोग जमा हुए। सब के सामने चोर बने; आदमियों के सामने जलील हुए। कान्स्टेबुल बुलवाए जाते थे। बीस जरब बेंत का फतवा जमाया गया।
उस रोज मारे रंज के खाना नहीं खाया। घर में जाके सो रहे। दूसरे रोज बुखार आ गया। एक हफ्ते तक बीमार रहे। जब आराम हुआ, तो सदर बाजारवाले बिसाती की कुल कार्रवाई भूल गए, और फिर सदर बाजार चले। इस मर्तबा बैगनर पर सवार थे। न वह खिदमतगार, न कोचमैन, न वह साईस। वर्ना वह लोग जरूर समझाते कि हजूर सदर बाजार की तरफ से न चलें। अभी अठवारा ही हुआ है कि वहाँ फजीता हो चुका है। सदर बाजार में जाके अब उँगलियाँ उठने लगी :
1 - वही जाते है, वही, जिन्होंने काग-पेच की चोरी थी।
2 - इतने बड़े रईस और टके-टके के माल की चोरी, वाह!
3 - इनका उसमें कोई कसूर नहीं। इनके दिमाग में खलल है।
4 - मियाँ, जिन्होंने बोतलें चुराई थीं, और काग-पेच पाकेट में रख कर भागे थे, वह आज फिर आए हैं।
इनको क्या खबर कि यहाँ क्या हँडिया पक रही है। एक सौदागार की दुकान में धँसने ही को थे कि उसने ललकारा - यहाँ नही, यहाँ नही। और दुकान देखिए! जैसे कोई किसी फकीर से कहता है।
एक और दुकान पर कदम रक्खा ही था कि दुकानदार ने कहा - हजूर हमने दुकान बढ़ा दी। जो लेना हो वह और दुकान से लीजिए।
यहाँ से चलते-चलते एक और दुकान में घुसे। दुकानदार वाकिफ था कि हुश्शू यही हैं, मगर तहजीब से पेश आनेवाला आदमी था; जबान से कुछ न कहा। खुद भी साथ हो लिया और उनको मौका चोरी करने का न दिया।
हुश्शू - कोई बढ़िया मनीबेग है?
जवाब - जी नहीं।
हुश्शू - कोई कीमती पेंसिल है?
जवाब - मैं तो एक टुटपुँजिया बिसाती हूँ। हजूर किसी बड़ी दुकान में जायँ!
हुश्शू - अच्छा, हम यहाँ टहल रहे हैं; तुम किसी बड़ी दुकान से जाके ला दो!
जवाब - ह हँ। बस, अब तशरीफ ले जाइए। मैं इस धोखाधड़ी में न आने का। तसलीमात।
हुश्शू कुछ-कुछ अब समझे कि लोग उनके आने के रवादार नहीं हैं। अब किसी दुकान में जाने की जुर्रत न हुई; और गाड़ी में सवार हो कर रवाना शुद। सवार हो कर चले ही थे कि आवाज आई - लदा है! लदा है!
हुश्शू समझ गए कि यह आवाज हमीं पर कसा गया। मगर करते क्या! किसी ने नाम तो लिया ही न था। और नाम लिया भी होता, तो बाजार भर एक तरफ और टुटरूँ-टूँ, काना टट्टू, बुद्धू नफर। एक की दवा दो - मसल मशहूर है।
यहाँ से जलील हो कर चले तो सीधे घर आए; और दो दिन तक घर ही में रहे। बाहर नहीं निकले।
घर में लेक्चरबाजी यों शुरू कर दी -
साहबो, यह शराब वह चीज है कि बस तोबा ही तोबा! खुदा बचाए! अल्लाह न करे कि इसके पास कोई कभी फटके! बचो - इससे जहाँ तक हो सके, बचो! यह वह नागन है, जिसका काटा पानी तक नहीं माँगता...
तीसरे दिन फिर शैतान ने उँगली दिखाई, और हुश्शू साहब ने वहशत की ली, और ये चंद शेर बरजस्ता फरमाए -
परसों गए हम सदर बाजार : आए वहाँ से जलील-औ-ख्वार।
दुबक-दुबक कर भागे हम : पीछे जूती, आगे हम।
आवाजें सबने कसीं हम पर : भागे! लूल है! गीदी खर!
इक्का-दुक्का हम, वह लाख : हम हुश्शू औ' उनकी साख!
कोई दोस्त न कोई यार; दुश्मन सारा सदर बाजार,
बोला कोई - सुन लो भाई! हुश्शू की जब शामत आई।
मारामार गया दर-दर - फिरने लगा दुकानों पर,
बंबूक बड़ा यह हुश्शू है! हुश्शू है, भई हुश्शू है!
नज्म है, यह हुश्शू की नानी - चूरनवालों की है बानी,
चूरन खा लो हुश्शू यार - तोड़ के ला-दो एक अनार।
खाए अनार अब जाएँगे - खबर जहाँ की लाएँगे।
जाम है क्या और मय है कैसी! पीनेवाले की ऐसी-तैसी!
साकी की दुम में नम्दा है - जभी य' बूढ़ा गम्जा है।
भट्टी चाहे जैसी है - कलवार की ऐसी-तैसी है।
काग-चोर ए, एजी, वाह! तोड़ी बोतल इल्लिल्लाह!
इनके कुछ दोस्त एक रोज मिलने गए तो यों बातें हुईं -
जो - 'शीन' 'रे' 'अलिफ' 'बे' (श, र, आ, ब) - ये चार हरफ आज से हम कभी इस्तैमाल न करेंगे।
च - यह तो हो नहीं सकता। ऐसा कोई जुमला लिखो तो सही!
ब - गैर मुमकिन है, जनाब।
जो - (कलम दवात कागज ले कर) अम्मे-मन तसलीम! हम कल तप में दिक थे। हकीम-वैद किसी को हुक्म दीजिए कि नुस्खा लिख दें। कुनैन मुझे मुफीद होती है। वह दो तोले दीजिए, कि पी लूँ। दो शीशी कुनैन की।
मेंड मी सून। फेथ फुल नेव्यू।
ब - वल्लाह खूब लिखा है!
च - बेशक खूब लिखा है। अंग्रेजी में क्या लिखा है?
ब - 'मेंड' के मानी ठीक करना, 'मी' के मानी, मुझे; 'सून' के मानी जल्द, 'फेथफुल' के मानी, खैरख्वाह; 'नेव्यू' के मानी, भतीजा।
च - (आहिस्ता से) अब इसको पागलपन कौन कहे!
मौलवी - क्या अच्छा खत लिखा है!
जो - मय उम्दः चीज नहीं है।
ब - क्या खूब! इस फिकरे में भी कोई 'शराब' का हरफ नहीं है। न 'शीन' 'रे', न 'अलिफ', न, 'बे',
च - हाँ, बेशक नहीं है।
जो - मखटूम-मन ('हजूर'), मैं सिड़ी नहीं हूँ।
ब - क्या खूब! इस वक्त तो जेहन तरक्कियों पर है।
जो - शेर-शायरी बहुत अच्छा शगल चार रोज तबीअत बहलाने का कयास किया गया।
ब - इसके क्या मानी?
म - यह बेतुकी हुई, बंदानेवाज।
च - बेतुकी नहीं हुई। यह खूब हुई। इसके यह मानी, कि कोई लफ्ज इस जुमले में ऐसा नहीं जिसमें 'शीन' या 'अलिफ' या 'बे' न हो।
म - बड़ा तबीअतदार आदमी है।
च - बस इसी तरह, होश की बातें करो।
दस दिन के बाद तबीअत ने फिर पलटा खाया और छै रोज तक इतनी पी, इतनी पी, कि होश-हवाश गायब-गुल्ला। सातवें दिन शराब के नशे में खुदबदौलत बाजार में आए और दुकानों पर इतनी अनोखी बेहूदगियाँ कीं कि पुलिस को दस्तअंदाजी करनी पड़ी। चूँकि इनके चचा एक मशहूर आदमी और रईस और आनरेरी मजिस्ट्रेट थे, इनके साथ रिआयत की; और खुद पुलिसवालों ने इनको इनके घर पहुँचा कर इनके चचा के सुपुर्द कर दिया। इन्होंने घर पर भी आसमान सर पर उठा लिया, और एक हफ्ते तक सिवाय गाली-गलौज, मार-धाड़, जूती-पैजार, धर-पकड़ के और कोई काम न था। चचा और दोस्त और भाई और मोहल्लेवाले आजिज आ गए, और साहब मजिस्ट्रेट से पागलखाने के सुपरिंटेंडेंट के नाम चिट्ठी लिखवाई, और सलाह हुई कि मौलवी साहब के साथ गाड़ी पर बैठ कर पागलखाने जाएँ और इनसे जिक्र भी न किया जाय। एक खिदमतगार ने इनको समझा दिया कि मौलवी साहब के साथ आप कल सुबह को पागलखाने भेजे जाएँगे। चिट्ठी वहाँ के साहब के नाम ले आए हैं।
हुश्शू : सातवाँ दौरा (मुल्ला पागल)
मौलवी साहब गाड़ी पर सवार जोती परशाद को अपने जान बेवकूफ बनाते चले जाते थे और सोचते जाते थे कि लाला को यह खबर ही नही कि घड़ी-दो में मुरलिया बाजेगी; पागलखाने की सैर करते होंगे। दिल में रंज था, मगर करते भी क्या, अपने सर पड़ी आप ही झेलनी पड़ती है। पागलखाने की आलीशान कोठी के पास पहुँच कर मौलवी साहब ने गाड़ी रुकवाई और लाला जोती परशाद के बनाने और दिल बहलाने के लिए, कि पागलखाना देख के भड़कें नहीं, यों मजे-मजे की बातें करने लगे -
मौलवी - भई इस चारदीवारी के अंदर एक बाग है - कश्मीर के शालामार की नकल, इलाहाबाद के खुसरो बाग से बड़ा। अजब मुजहतबार (बहार की फिजा लिए हुए) बाग है! जा-ब-जा चमन और फुलवारियाँ, और उम्दा-उम्दा पौदे, और आसमान से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊचे दरख्त, मेवे और फल से लदे हुए। और बीचो-बीच में एक परी-मंजिल कोठी है। कोठी क्या, नमूनए'जन्नत है। 'छतर-मंजिल' और 'दिलकुशा' और 'फरह-बख्श' जैसी इमारतों की कोई हकीकत नहीं। ताज बीबी के रौजे की भी कोई हकीकत नहीं। चार कोनों में चार परियाँ बनी हैं। इस काबिल है कि यहाँ दो घड़ी इंसान दिल बहलाए। इसमें हूर-खराम मलकए-मलकाते-आलम हजूर शहंशाह बेगम अपनी तफरीह के लिए आती थीं। इस लायक है कि रऊसा (रईस लोग) कभी-कभी आया करें, बहार का लुत्फ उठाया करें।
जोती - बाहर ही से देखने से जी खुश हो गया।
मौलवी - (दिल में खुश हो कर) अंदर और भी खुश हूजिएगा।
जो - हम तो बाहर ही से देख के फड़क गए।
मौ - शुक्र है कि आपने भी पसंद किया। रूह को बालीदगी (हिंदी मुहावरे में आत्मा) होती है।
जो - हमको तो यह मालूम होता है कि जैसे हम अट्ठारह बरस के हो गए।
मौ - अजी बूढ़ा आए तो जवान हो जाय और जवान कभी बूढ़ा न होने पाए। इसकी सैर से इंसान कुल रूहानी आरजों और जिस्मानी मरजों से बचा रहता है।
जो - क्यों नहीं? आप तो कभी-कभी यहाँ आते होंगे।
मौ - जी हाँ! सैर-कनाँ!
जो - आज यहीं रहिए।
मौ - (दिल में) - खुदा न करे, अल्लाह बचाए! (जाहिरदारी में) आप यहाँ रह सकते हैं।
इतने में लाला जोती परशाद गाड़ी से उतरे।
जो - मैं अभी आता हूँ। जरा इसके अंदर चल कर सैर करेंगे।
मौ - (खुश हो कर) जरूर। आप जिस काम को जाते हैं वहाँ से हो आइए!
जो - अभी-अभी आता हूँ।
दस मिनट गुजर गए, पंद्रह मिनट गुजर गए, बीस मिनट गुजर गए, जोती परशाद का पता नहीं। अब सुनिए कि लाला जोती परशाद साहब गाड़ी से उतर कर, घनी और लंबी-लंबी पतावर से हो कर पागलखाने के फाटक पर पहुँचे।
जोती - (पहरेवाले सिपाही से) सुपरिंटेंडेंट साहब हैं?
सिपाही - (जंगी सलाम करके) हाँ, हजूर हैं।
जो - हमारा कार्ड भेज दो। उस पर छपा था - लाला जोती परशाद, एम-ए. फेलो आफ दि कलकत्ता युनिवर्सिटी।
सिपाही ने एक चपरासी के हाथ कार्ड भेजा। उसने आनके कहा - हुजूर को साहब ने सलाम दिया है।
जोती परशाद ने टोपी उतार कर अंग्रेजी में सलाम किया। और साहब ने खड़े हो कर हाथ मिलाया।
साहब - बेल, हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?
जो - मैं एक पागल को ले कर आया हूँ। साहब मैजिस्ट्रेट का यह खत आपके नाम है।
सा - अभी हाल में पागल हो गया है?
जो - जी, हाँ। बोतलें, बर्तन, घड़े और गगरे और चिलमचियाँ और लोटे तोड़ता फिरता है, और जो शख्स उसके साथ रहता है उसको सिड़ी समझता है, और सबसे चुपके से कहता है कि यह आदमी पागल हो गया है।
सा - अभी शुरुआत है, शायद अच्छा हो जाय। उसको बुलवाइए।
जोती परशाद ने चपरासी से कहा कि गाड़ी पर बाहर जो साहब बैठे हैं उनसे कहना कि सुपरिंटेंडेंट साहब बुलाते हैं। मेरा जिक्र न करना। वह बेचारे पागल हो गए है, और जो उनके पास जाता है, उसको पागल कहते हैं। तत्तो-तत्तो करके चीते यार बनाके ले आओ।
चपरासी ने जा कर कहा - चलिए, आपको साहब बुलाते हैं।
मौलवी साहब ने कोचमैन और साईस और खिदमतगार से कहा कि लाला अगर आएँ तो फौरन वहाँ भेज देना। यह कह कर अंदर तशरीफ लाए। जोती परशाद को साहब के पास बैठा देख कर मुस्कराए। कहा - पहले ही से यहाँ आनके डट गए!
साहब ने अंग्रेजी में जोती परशाद से पूछा - ये अंग्रेजी जानते हैं?
जोती - जी नहीं।
सा - चेहरे ही से दीवानापन बरसता है।
जो - जी हाँ, जनून कहीं छिपा रहता है?
सा - और फिर खास कर हम लोगों से?
जो - जी हाँ, जिन्होंने हजारों पागल चंगे किए हैं।
सा - मुद्दत से यही काम है।
जो - आप तो स्पेशलिस्ट हो गए हैं ना?
मौ - (साहब से) मुझे आप से कुछ अर्ज करना है।
सा - (मुस्करा कर) मतलब की बात पर आ रहे हैं - कहिए।
मौ - (अलैहदा ले जा कर) हजूर ये रईस के लड़के हैं, मगर दिमाग में खलल हो गया है। आप इनको पागलखाने में रखिए।
सा - बेहतर।
मौ - इनका कायदा है कि बोतलें...
सा - (मुस्करा कर) हम समझ गए।
मौ - हजूर साहब मजिस्ट्रेट का खत भी हजूर के नाम है।
जेब टटोली, मगर खत कहाँ! खत तो जोती परशाद ने जेब से निकाल लिया था। उस्तादी कर गए थे - और साहब ने पढ़ कर अपनी मेज पर रख लिया था।
सा - उस खत की कोई जरूरत नहीं है।
जोती परशाद को बुलवाया।
साहब और मौलवी साहब और लाला जोती परशाद और जमादार और चपरासी जाने लगे। जमादार से साहब ने कह दिया था कि कोई अच्छा कमरा खाली कर दो। रईस आदमी है। एक मुकाम पर जमादार ने इशारे से कहा कि यही कमरा तजवीजा है। साहब ने मौलवी साहब से कहा - हम और आप इस कमरे में चल कर बैठें, जिसमें यह पागल भड़क न जाय, और खुद ही चला आए, और उधर जोती परशाद से अंग्रेजी में कहा कि इस कमरे से हम जल्द भाग आएँगे, तुम बाहर रहना। मौलवी साहब सीधे-सादे मुसलमान, साहब के साथ चले गए, और दिल में बहुत ही खुश थे कि आज बड़ा काम मारा। जोती परशाद के चचा और दोस्त सब खुश होंगे, कि किस खूबसूरती से इनको पागलखाने में ले गया। किसी की जुर्रत नहीं होती थी। भारी पत्थर हमीं ने उठाया।
साहब जा कर मोंढे पर बैठे, और मौलवी साहब चारपाई पर बैठने ही को थे कि साहब जन से बाहर, और जमादार ने दरवाजा बंद करके ताला डाल दिया, जब तक मौलवी साहब उठें और यहाँ और गुल मचाएँ, ताला पड़ गया, और जनाब मौलाना साहब पागलों की कोठरी में बंद - जल्ले जलाल हू!
मौलवी - खुदावंद, क्या इस कमजोर गरीब को ही पागल बना दिया
साहब - आप इसमें आराम करें, मौलवी साहब!
मौ - पीर-मरशद! गुलाम एक मौलवी आदमी, हाफिज मुल्ला अनवारुल हक साहब सब्जवारी कुद्स सिर्रहुलशरीज का जिलःरुबा और गुलाम को जनून क्या मानी? कभी कुतरफब भी जो अव्वल मुकद्दमा दफ्तर मालेखोलिया का है, नहीं हुआ! (मैं जो कि सब्जबारी कुदस का मुजाविर हूँ, और कहाँ पागलपन की बीमारी। मुझे तो कभी मिरगी भी नहीं हुई, जो कि इस रोग की भूमिका होती है।)
सा - (जोती परशाद से) - उर्दू में क्या कहता है?
जो - मैं जानता हूँ, अरबी पढ़ रहा है।
सा - अच्छी बात है। मौलवी साहब, आप आराम से पढ़िए।
जमादार - मौलवी साहब, पागलखाना तो है ही। यहाँ दाद न फरियाद।
मौ - बाबा, यह अजब पागलखान एस्त, कि हर कोई यहाँ पागल है।
सा - मौलवी साहब, यह जमादार लोग हम तक को कभी-कभी पागलों के साथ बंद कर देता है।
मौ - (बहुत गुस्से में भर कर) ब-खुदाए लम'जयल, हजूर इसी काबिल हैं कि पागलखाने में रहें। जाय-शुमा दुरीं पागलखानाए-सब्ज अस्त। (आपकी जगह इसी पागलखाने के अंदर है।)
सा - यह क्या बोला?
जोती - हजूर फारसी जबान में अपने बाप के बारे में कहता है कि वह भी पागल था।
साहब और जमादार बहुत हँसे। और मौलवी साहब और भी गुस्से में भर गए, और कहा - सौगंद मी खुरम ब-तंगरीए-तआला, कि कलमए-सख्त खिलाफे-शाने जनाबे -वालिद मेरे-बुर्द अल्लाह मजहजअ विन्नार अल्लाह बुर-हानहू!! कलेजे पर कार तीर मीकुनद! (अल्लाह की सौगंद! तूने मेरे पिता को अपशब्द कहे। अल्लाह तुझे आग में डालेगा। तूने मेरा कलेजा छलनी कर दिया है।)
सा - क्या बोला?
जो - अपने नाना के बारे में कहते हैं कि वह भी उसी पागलखाने में मरे थे।
इतना सुनना था कि मौलवी साहब आग ही तो हो गए, और मारे गुस्से के लोहे की सलाखों को जोर से हिलाने लगे। मालूम होता था कि सीखचों को तोड़के बाहर आके दो-एक को खा जायगा। मौलवी साहब ने बड़े जोर से दाँत किटकिटाए और ऐसी भयानक सूरत बनाई, कि खुदा की पनाह! अव्वल तो आपका चेहरा-मोहरा बस क्या कहिए, यों दीद के काबिल था - सर घुटा, भवौं का सफाया, कद सात फिट का, दुबले-पतले। और अब और भी शक्ल निकल आई। साहब को पहले ही इनके पागल होने का यकीन था, अब और भी पूरा-पूरा यकीन हो गया। जमादार ने कहा - हजूर रात को इसकी बड़ी चौकसी करनी होगी।
साहब ने कहा - बेशक।
जोती परशाद ने सीखचों के पास जा कर कहा - जनाब मौलवी साहब, किबला! कोर्निश अर्ज करता हूँ! कहिए कश्मीर के शालामार की नकल है या इलाहाबाद के खुसरौबाग की!
मौलवी - आपके वालिद और पिदर-जन की खाहिश यही है कि आप कुछ दिन इस जनूँसरा में जिसको अवाम पागलखाना कहते है, कायम करें।
वकुजी रब्बुक अल्ला तसब्दु वा इल्ला अमा वह विलवालदैन इहसानन। अमा लवलगन उनिदक इलकब्र अहदहुमा वकुललहमा कौलन करीमा व हिफिज लहमा जनाह अलज्ले मिन उर्रहमत : वकुल रब्बे अरहमहा रब्बयानी सगीरा। कहते है माँ के पाँव के नीचे बहिश्त है।
सा - अब क्या बोलता है।
जो - अब ऊल-जलूल बकने लगा।
सा - हम इलाज करेंगे।
जो - आप सही फरमाते हैं, जनाब मौलबी साहब, कि यह मुकाम इस काबिल है कि इन्सान यहाँ दो घड़ी दिल बहलाए।
मौ - (झल्ला कर) इस वक्त आपके वालिद होते तो आपका सर काटके फेंक देते। अफसोस कि वह हमसे दूर हैं।
जो - कहिए, वह परी-मंजिल कोठी कहाँ है?
मौ - (सर पटक कर) अगर बस चले तो खा जाऊँ!
जो - शालीमार बाग की नकल है ना?
मौ - खुदा समझेगा तुझ मरदूद से।
जो - अब यह तो फरमाइए कि वह हूर-खराम मलकए-मलकाते-आलम हजूर शहंशाह बेगम कहाँ हैं?
मौ - अल्सब्र मफ्ताहुक फर्रह।
जो - अंदर से तो यह कोठी और भी अच्छी होगी!
जो - जो फिकरे मौलवी साहब ने पागलखाने के बाहर कहे थे, वह जोती परशाद ने दोहराए।
मौ - मैं एकाध को मार डालूँगा।
सा - देखो जमादार, बहुत होशियार।
जमादार - हजूर, बहुत होशियार रहूँगा।
सा - सिपाही लोग सब चौकस।
जमादार - हजूर, निशाखातिर रहें।
मौ - आज कजा का मुकाबला है।
जो - यह क्यों? हमसे तो कहते थे कि परीमंजिल कोठी है।
मौ - कजा का सामना है।
जो - आप तो फरमाते थे कि अजब नुजहतबार बाग है!
मौ - खैर, हमारी अजल हमसे इस पागलखाने ही में दोचार हुई।
जो - अपने खोदे गड्ढे में आप ही गिर पड़े। हमको पगलखाने भेजने आए थे। हत्तेरे मौलवी की दुम में हुसैनाबाद का घंटाघर!
लाला जोती परशाद साहब ने जमादार को दो रुपए इनाम दिए और हसन खाँ को एक रुपया, और मौलवी साहब से रुखसत होते कहा - जनाब मौलवी साहब, आप न घबराएँ, कल हजूर की फस्द खोली जाएगी और इन्शा अल्लाह जल्द अपका दिमाग सही हो जाएगा। अब शैतान को सौंपा आपको। जमादार साहब, जरा इनकी देख भाल करना! मियाँ हसन खाँ, भाई हमारे पागल मौलवी को तकलीफ न होने पाए।
यह कह कर जोती परशाद बाहर आए। गाड़ी पर बैठे। खिदमतगार को कोचबक्श पर बिठाया। जमादार और हसन खाँ ने सलाम किया और गाड़ी चली। कोचबक्श से खिदमतगार ने पूछा - हजूर घर चलें ना? फरमाया - सीधे अमीनाबाद चलो। अमीनाबाद में एक दोस्त को साथ लिया और उनसे कुल कार्रवाई बयान की। हँसते-हँसते पेट में बल पड़-पड़ गए। कहा - भई, वल्लाह कमाल किया। मानता हूँ, उस्ताद! मौलवी बेचारे झक मार रहे होंगे। लाहौल-विला कुव्वत! जोती परशाद ने कहा - मुझे सैकड़ों गालियाँ दी, और अरबी में खुदा जाने क्या-क्या पढ़ा। मगर कौन पूछता है! अब एक काम करो। बिलोचपुरे की गढ़ैया है ना? हम मौलवी साहब का मकान बता देंगे।
तुम वहाँ जा कर छोटे मौलवी साहब से सारा माजरा बयान करो। उन दोस्त ने ऐसा ही किया और मौलवी साहब के फर्जन्द पर जो गुजरी वह बयान से बाहर है।
अब लाला जोती परशाद का हाल सुनिए कि ये मौलवी के लड़के को उल्लू बना कर और खुद अलग रह कर रवाना बाशद, तो घर पर आके दम लिया और दोस्त को रास्ते में छोड़ा। घर पर पहुँचे तो गाड़ीवाले को किराया दिया और मकान में गए। वहाँ इनके भाई और यार दोस्त शतरंज खेल रहे थे। जाते ही इन्होंने कहा - अस्सलाम आलेकुम!
ऐं!
क्या खूब!
एक - दूसरे को ताज्जुब की नजर से देखने लगा।
भाई - अरे भाई, कहाँ गए थे?
जोती - मौलवी साहब को एक 'बागो-नुजहतबार' की सैर कराने।
भाई - मौलवी साहब कहाँ हैं?
जो - (मुस्करा कर) आपने सुना नहीं?
शुद गुलामे कि आबेजू आरद,
आबेजू आमद-ओ-गुलाम बबुर्द!
(एक गुलाम नहर से पानी लाने गया था। पानी तो आ गया मगर गुलाम नहर ही में रह गया।)
भाई - इसके क्या मानी? - कोई है? जरा कोचमैन को बुला लाओ! ...कोचमैन! अरे मियाँ तुम गाड़ी कब लाए?
को - सरकार, अभी आया।
भाई - और वह लोग सब कहाँ हैं?
को - हजूर, मौलवी साहब तो पागलखाने में बारह रुपए महीने के जमादार हो गए।
भाई - क्या बकता है, सूअर!
को - हाँ सरकार। छोटे सरकार वहीं रहे।
भाई - छोटे सरकार वहीं रहे! और ये कौन खड़े हैं?
को - (ताज्जुब से) ये हजूर कब आए?
भाई - अच्छा, दूर हो यहाँ से! मौलवी साहब कहाँ हैं, जी?
जो - जनाब कहता तो हूँ कि वह उसी बाग में रह गए।
भाई - बाग कौन?
जो - एक कोठी के बाहर जाके ठहरे, और मुझसे कहा - इसमें बड़ा नुजहतबार बाग है। और इन्सान यहाँ आ कर दो-चार दिन रहे, तो बड़ी तफरीह हो। मैं भी खामोश रहा। वह कुछ खुदा की कुदरत ऐसी हुई कि साहब सुपरिंटेंडेंट इनको पागल समझ बैठे।
दोस्त - मौलवी साहब को?
जो - जी हाँ, और नहीं तो क्या मुझको?
1 - सुपरिंटेंडेंट ने मौलवी साहब को पागल बना दिया?
जो - बेशक। वह तो सूरत देखते ही समझ गया। और मुझसे कहा - यह पक्का सिड़ी है। और मौलवी साहब वहाँ अरबी बोलने लगे। बस, उनको और भी यकीन हो गया।
2 - अच्छा फिर क्या हुआ?
जो - होता क्या! जो वर्ताव पागल के साथ किया जाता है, वह किया। इस पर बड़ा कहकहा पड़ा और सब हँसने लगे।
1 - तुम्हें कसम है, जोती परशाद, जो सच न बताओ।
2 - क्या मौलवी साहब को उलटा पागल बनाया?
जो - उलटा की अच्छी कही?
3 - भई तुम्हें इलम की कसम, साफ बताओ कि मौलवी साहब को दीवानागाह में रख आए?
जो - खुलाया यह कि मौलवी साहब सरन-पनाह बहादुर पागलखाने में हैं।
1 - वल्लाह! (बहुत हँस कर) अच्छी हुई!
2 - (बहुत हँस कर) भई, आखिर यह हुआ क्या?
3 - अरे मियाँ, दिल्लगी करते हैं।
जो - खैर दिल्लगी ही सही। अफसोस है कि तुममें से कोई साथ न था। वर्ना वल्लाह, वहीं होता दाखिल दफ्तर!
1 - अब सब मौलवी साहब थोड़ा ही हैं।
2 - हम होते, तो जोती परशाद से हमसे बिगड़ जाती।
जो - घर में बैठे हो, जो चाहे डींग उड़ा लो! मौलवी साहब को जब पागलों के कटहरे में बंद किया है, तो सैकड़ों गालियाँ दीं। साहब हमसे पूछें, क्या बोलता है? तो मैं कहूँ, कहता है कि इसका बाप भी सिड़ी था। और साहब सुपरिंटेंडेंट यह सुनके कहें कि -ओ! यह पुश्तैनी सिड़ी है। और जब मौलवी साहब झल्लाएँ, तो साहब कहें - वल, जमादार, इस पागल से चौकसी रखना।
इस पर कहकहा पड़ा; और इस जोर से आवाज बुलंद हुई कि उनके चचा को बहुत नागवार मालूम हुआ, कि लड़का तो आज पागलखाने भेजा गया और ये अफसोस करने के बजाय कहकहे लगा रहे हैं।
चचा - (खिदमतगार से) ये आज कहकहे क्यों पड़ रहें हैं?
खि - लाला छोटे भैया तो चले आए।
च - (अचंभे से) कौन? जोती परशाद?
खि - जी हाँ।
च - (कमरे का दरवाजा कोठे पर से खोल कर) जोती परशाद!
जो - आदाब अर्ज करता हूँ, किबलओ-काबा!
1 - जनाब आपको तकलीफ तो जरूर होगी, मगर जरा यहाँ आइए।
च - अच्छा, और मौलवी साहब कहाँ हैं?
1 - हजूर यहाँ तशरीफ लाएँ तो सब हाल बयान हो!
च - (कोठे से उतर कर) मौलवी साहब कहाँ हैं?
भाई - पागलखाने में।
च - अजी नहीं; बताओ तो!
भाई - यही कहते हैं कि पागलखाने में रह गए।
च - हमारी कुछ समझ में नहीं आता। आखिर साफ-साफ क्यों नहीं बताते!
भाई - बोलो, भई जोती परशाद!
जो - जोती परशाद ने तो एक दफा कह दिया कि-
शुद गुलामे कि आबे-जू आरद,
आबे-जू आमद-ओ गुलाम बबुर्द!
च - मालूम होता है, मोलाना पर कोई चकमा चल गया!
भाई - हाँ, है कुछ ऐसा ही।
1 - यह तो कहते हैं कि साहब ने पागलों की एक बारक में मौलवी साहब को भी कोठरी में बंद कर दिया, और वह झल्लाए और गालियाँ देने लगे तो साहब को और भी यकीन हो गया और जमादार से कहा - इस पागल की बड़ी चौकसी करना।
2- (हँसते हुए) - लाहौत बिला कुव्वत!
च - क्यों जी, जोती परशाद?
जो - है तो ऐसा ही जनाब वाला!
च - मौलवी साहब क्यों कर पागल बनाए गए?
जो - हुआ यह कि मौलवी साहब ने पागलखाने के पास बग्घी रोकी और मुझसे कहा कि इसमें एक नुजहतबार बाग है और इस काबिल है कि इन्सान दो घड़ी दिल बहलाए, और इसमें मलकाय-मलकाते-आलम हजूर शहंशाह बेगम तशरीफ लाती थीं।
इस जुमले पर सब हँस पड़े।
जो - और मैने कहा, मैं अभी आता हूँ। यह कह कर मैंने साहब सुपरिंटेंडेंट के पास चुपके से कार्ड भेजा। उन्होंने बुला लिया। टोपी उतार कर हाथ मिलाया, और कुरसी पर बैठे।
च - और मौलवी साहब अब कहाँ हैं?
जो - जी, वह गाड़ी पर बैठे हैं।
भाई - उनको यह खबर ही नहीं कि तुम कहाँ हो!
जो - बिलकुल नहीं। मैंने कहा, मैं एक पागल को साथ लाया हूँ।
च - अच्छी हुई।
जो - साहब ने कहा, बुलाइए। मैंने कहा, वह इस किस्म का पागल है कि सबको पागल समझता है।
इस पर फिर बड़ा कहकहा पड़ा।
जो - मौलवी साहब बुलाए गए। मुझे जो साहेब के पास बैठे देखा तो मुस्कराए और कहा - आप पहले ही से डट गए? मैंने अपने दिल में कहा - घड़ी-दो में मुरलिया बाजेगी। साहब से कहा - कुछ आपसे अर्ज करना है। साहब ने मुस्करा कर अलैहदा ले जा कर कहा - कहिए। कहा। हजूर यह एक रईसजादा है, मगर पागल हो गया है, और साहब मजिस्ट्रेट का खत भी हजूर के नाम दिया है। खत ढूँढ़ने लगे। वह वहाँ कहाँ?
च - क्यों? खत तो उन्हीं के पास था।
भाई - खत तो मौलवी साहब को दे दिया था।
जो - वह मैंने जेब ही से निकाल लिया।
इस पर और कहकहा पड़ा।
च - ओफ्फोह! तो मौलवी बेचारे बन ही गए।
1 - मारे हँसी के बुरा हाल है।
2 - भई यह तो वल्लाह काबिल-दर्ज नावेल है!
3 - जरूर, वल्लाह इसी काबिल है।
4 - वह खत साहब की मेज पर था, और वह पढ़ चुके थे।
भाई - और इधर तुम जड़ ही चुके थे, कि सबको पागल समझता है।
जो - जी हाँ। जैसे ही मौलवी साहब ने कहा, यह पागल है, साहब मुस्कराने लगे।
गरजे कि कुल हाल मौलवी साहब की परेशानी और मुसीबत का कह सुनाया, और सुननेवालों की यह कैफियत थी कि मारे हँसी के पेट में बल पड़-पड़ गए। जब मौलवी साहब को कमरे में छोड़के बाहर आए और उनके आते ही जमादार ने ताला डाल दिया और मौलवी साहब कुरान की आयतें पढ़ने लगे, तो इस कदर कहकहा पड़ा कि कान पड़ी आवाज नहीं सुनाई देती थी।
जो - एक बार फरमाया - जनाब, इस नहीफ को तो अब्बल मुकद्दमए-जनून यानी कुतरफब यानी कुतरफब भी नहीं हुआ।
जिसने सुना लोट गया, और देर तक हँसी रही।
1 - भई वल्लाह, मौलवी साहब खूब बने।
2 - बस पूरे बन गए।
3 - क्या वाकई अभी पागलखाने ही में हैं?
जो - आपका भी नाम लिख लीजिए।
च - हाँ साहब, फिर।
जो - फिर मौलवी साहब ने फरमाया कि बंदा हाफिज मुल्ला अलवारुलहक साहब सब्जवारी का जिला रुबा-साहब बार-बार पूछें, कि अब क्या बोलता हैं? मैंने कहा - हजूर अपने वालिद को बुरा-भला कहता है। कभी कहा करता है कि उसका नाना भी इसी पागलखाने में भरा था।
बड़ा कहकहा पड़ा।
1 - आखिर हुआ क्या?
जो - वहीं बंद हैं।
2 - और साहब सुपरिंटेंडेंट को फौरन यकीन हुआ कि पागल है?
जो - कमरे को सर पर उठा लिया। पागल सब जोश में आ गए। और एक पागल ने गुल मचा कर कहा - ओ सरकसवाला! इस भालू को छोड़ दे, हम उससे लड़ेगा!
च - सरकसवाला कौन?
जो - जमादार को सरकसवाला समझा।
च - और भालू कौन?
जो - जनाब मौलवी साहब को समझा।
इस पर और भी जोर से कहकहा पड़ा, और तमाम मकान गूँज उठा।
1 - पागलखाना देखने के काबिल चीज है,
2 - भई किसी तरकीब से चलना चाहिए।
3 - लाला जोती परशाद साहब के साथ जाय।
इस पर भी कहकहा पड़ा।
च - हमको रंज होता है कि मौलवी साहब खाहनकाही धर लिए गए।
भाई - खुदा जाने, बिचारे का क्या हाल होगा!
जो - हाल? सीखचे तोड़े डालते थे। और साहब कहें कि वल, हम उसकी आँख से पहचान गया कि पागल है। मैंने कहा, क्यों नहीं। आपने हजारों ही पागल चंगे किए हैं, एक दो की कौन कहे। खुश हो गए। और जब मौलवी साहब के फिकरे मैं दोहराऊँ तो मौलाना बोटियाँ बस नोच-नोच लें। मैंने कहा - मौलवी साहब! क्या नुजहतबार बाग है। और वह दाँत पीसके रह जायँ। और मेरी इस छेड़ और उनके बिगड़ने से सबको और भी यकीन हो गया कि मौलवी पागल है, और मुझे अपना दुश्मन समझता है और मुझते जलता है।
1 - कायदा होता है कि सिड़ी, एक न एक को अपना जानी दुश्मन समझता है।
2 - भई, दिल्लगी काबिलदीद है।
3 - अब मौलवी साहब के छुड़ाने की भी कोई तरकीब है?
1 - हमसे कहो, हम चले जायँ इसी वक्त?
च - अब इस वक्त कुछ नहीं हो सकता।
भाई - लाहौल विला कुव्वत! तीन कोस जमीन जाना तीन कोस आना। फिर वहाँ इस वक्त किसको जगाएँगे। कोई बात भी है।
जो - सुबह को फिक्र की जायगी।
भाई - (मुस्करा कर) लाहौल विला।
जो - एक और भी दिल्लगी हुई है।
भाई - वह क्या?
च - वह क्या, भई?
जो - न बताएँगे। घड़ी-दो में मुरलिया बाजेगी।
च - कल सवेरे मालूम हो जायगी। शायद आज ही मालूम हो जाय।
भाई - दिल्लगी की बात है?
जो - खुलासा इतना कहे देता हूँ कि मौलवी साहब को गोरे पकड़ ले गए।
दूसरे दिन मौलवी साहब का खत, नज्म में लिखा हुआ, लास जोती परशाद के चचा के नाम आया (खत और अर्जी वगैरह नज्म में लिखने का कायदा जो नवाबी जमाने में आम था, बहुत बाद तक चलता रहा।) जिसका थोड़ा-सा हिस्सा यहाँ दिया जाता है -
बाद तसलीमों-बंदगी ओ-सलाम
ब-शुमा मी रसानद ई पैगाम।
(आप को यह पैगाम भेजता हूँ।)
कज इनायाते-जोतीए परशाद -
पागल! पागल! मुबारकबाद!
(जोती परशाद साहब की इनायतों से मैं अब 'पागल' ही हूँ।)
डर खुदा से जो कारे-बद तू कर,
औ न कर, तो भी तू खुदा से डर।
मुझ-सा अल्लामा और मुजस्तीख्वाँ,
मेरा सा फलसफी, उलूम की जाँ
, (विद्वानों में अग्रणी)
मगर अज दस्ते-चर्खें-दू परबर
(यानी, आसमान की गर्दिश से।)
हो गया पागलों से भी बदतर...
हैं दरोगा यहाँ के जो अंग्रेज,
करते हैं पागलों में वह भी गुरेज
(पागलों के से काम करते हैं।)
अक्ल पर उनके हैं पड़े पत्थर
उल्लू का पट्ठा है - नहीं यह बशर
आदमीयत से क्या उसे सरोकार
वक्कना! रब्बना! अजाबुन्नार!
(उस पर खुदा का कहर और आग!)
जाने अल्लाह, क्या मैं बकता हूँ,
मौत की राह कबसे तकता हूँ -
कैद कब तक रहूँ, खुदा जाने
हाले आयंदा कोई क्या जाने
मुश्किल आसाँ करो खुद के लिए
मेरे काम आओ, किब्रिया के लिए!
यह सब पढ़ कर जोती परशाद के चचा ने मौलवी साहब के छोटे लड़के को बुलवाया, और कुल हाल कह सुनाया, और कहा - और कहा - दो-चार पागलपन की हरकतों के सबब से वह बेचारे पागलखाने भेज दिए गए। चलो, चलके उनके छुड़ाने की कोशिश करें।
मौलवी साहब के लड़के को पहले यकीन नहीं आया। कहा - आपने तो बाराबंकी भेजा है। चचा ने जवाब दिया - जी नहीं, बाराबंकी नहीं भेजा है। उस वक्त तुमसे कहना मुनासिब नहीं समझा। मगर घबराओ नहीं। उनको छुड़ा लाएँगे। लड़का आँखों में आँसू ले आया, और थोड़ी देर के बाद मौलवी साहब के जीते-जी उनका हाल-चाल दर्याफ्त करने के लिए जोती परशाद के चचा और मौलवी साहब के साहबजादे पागलखाने गए। मगर जमादार ने अंदर नहीं जाने दिया।
कहा - हमको हुक्म नहीं है कि बिला खास इजाजत के किसी को भी अंदर जाने दें! इन्होंने बहुत इसरार किया कि मौलवी साहब को देखना चाहते हैं, मगर उसने एक न मानी। छोटे मौलवी साहब ने पूछा - क्या सचमुच पागल ही हो गए!
उसने कहा - और झूठ-मूठ के पागल कैसे हुआ करते हैं जनाब? मौलवी साहब तो और सब पागलों से ज्यादा नंबर लिए हुए हैं!
छोटे मौलवी साहब रोने लगे।
जोती परशाद के चचा ने जमादार को अलैहदा ले जा कर कहा - अगर कुछ इनाम की जरूरत हो तो ये दो रुपए हाजिर हैं।
उसने जवाब दिया - कि जनाब, इन दो रुपयों की लालच दे कर क्यों मेरी रोटियों के दुश्मन हुए हैं? मुझे हुक्म ही नहीं है। मैं मजबूर हूँ।
लाचार वहीं से खाली हाथ आए, और इसके बाद कई दिन बाद दौड़-धूप करके, बड़ी मुसीबतों के बाद, मौलवी साहब को पागलों की मजलिस से नजात दिलवाई। बाहर आते ही जोती परशाद के चचा से लिपट गए। लड़के से मिले। दोनों ढाड़ें मार-मारके रोए। इतने में एक सिपाही इनाम तलब करने लगा। और मौलवी साहब के आग लग गई। कहा -
बजा इरशाद हुआ! ऐसा ही बड़ा इनाम का काम आपने किया है ना?
गाड़ी पर सवार हो कर चले। रास्ते में अपनी मुसीबत का हाल बयान किया। मगर उनकी बातों से मालूम हुआ कि ये वाकई अपने आप को अस्ल में पागल ही समझने लगे थे।
मौलवी - खुदाय-जिल्शाना को यही मंजूर था!
चचा - अब इसका जरा भी खयाल न फरमाइए!
लड़का - अब्बा, यह वही मसल है कि - कर तो डर, और न कर तो खुदा के गजब से डर! वल्लाहलम, किस गुनाह के पादाश में यह सजा मिली, अफसोस!
मौलवी - कोई अपना, न पराया। तोबा, तोबा।
चचा - हम लोग तड़पते थे, जैसे पानी के बाहर मछली।
मौलवी - क्या शक है! लारैब-फीः!
लड़का - बड़े जद्दो-जहद किए। बहरकैफ, यही शुक्र है कि सूरत तो देखी!
मौ - कभी-कभी तो तबीअत का रुझान खुदकुशी की तरफ होता था मगर फिर अल्लाह की तरफ से कोई मना करता था। और मैं बाज आता था।
चचा - खुदा हर आफत से बचाए! खैर, अब जो हुआ सो हुआ! बजुज अफसोस से के और क्या हो सकता है?
कई रोज तक मौलवी साहब ने अपने घरवालों और दोस्तों से पागलखाने के हालात बयान किए, और जरा भी किसी दिन लाला जोती परशाद की शिकायत न की, क्योंकि परेशानी और रंज के सबब से दिमाग बिलकुल सही न था, और भूले हुए थे। लाला जोती परशाद के बारे में कई बार दरियाफ्त किया कि उनसे मुलाकात नहीं हुई। लोगों ने कहा - वह कहीं सैर और तफरीह के लिए गए हैं। मौलवी साहब ने घर से निकलना हमेशा के लिए छोड़ दिया।
हुश्शू : आठवाँ दौरा (धर लिए गए)
यों तो लखनऊ में मेले बहुत से होते हैं - ऐशबाग के मेले - परिस्तान की परियों का गुंचा खिला हुआ, बावली का मेला - गठा हुआ, अलीगंज का मेला भी, खैर, ऐसा बुरा नहीं। गोल दरवाजे का मेला, होली के दिन सब सफेदपोश - सुनहरा मेला। साहजी के बँगले से चौक तक और कश्मीरी मोहल्ला, यहियागंज नख्खास, यह-वह, हर मोहल्ले में छोटे-छोटे मेले होते हैं। दिवाली की रात, शबरात - तमास शहर जगमगाता है। मजहबी मेलों में रामलीला - ड्रैमेटिक मेला, मोहर्रम - हर जगह रोशनी, हुसैनाबाद मुबारक, नजफ, अशरफ मीरबाकर का इमामबाड़ा, हैदरी का इमामबाड़ा। यह सब कुछ होता है, मगर आठों के मेले के बराबर कोई मेला नहीं होता। खुदा जाने कहाँ-कहाँ से लोग आते हैं। थाली उछालियों तो तमाम बैसवाड़े भर में सर ही सर जाय। (लखनऊ बैसवाड़े में है और बैसवाड़े के तलवरिए मशहूर हैं।) खुलासा यह कि इतने आदमी जमा होते हैं कि अगर लाम बाँधा जाय, तो पामीर से रूसियों को मास्को तक पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाय।
इस इतने बड़े मेले में लाला जोती परशाद साहब 'हुश्शू' मय अपने दोस्तों के सैर-कनाँ तशरीफ ले गए।
जो - चलो तालाब पर चल के दरी बिछाके बैठें।
1 - वल्लाह बड़ी बहार है बी नजीर जान की। ये जालिम छोकरियाँ - बेनजीर और बद्रेमुनीर इस ठस्से से आई हैं कि देखने से ताल्लुक रखता है।
2 - और आबादी की छोकरियों पर क्या जोबन है!
इस पर एक बड़ा कहकहा पड़ा। और जोती परशाद ने कहा - 'जोबन' की एक ही हुई। अबे कहीं तो 'जीम' ('ज') बोला होता!
एक ठिठोल दोस्त ने कहा - जब जरूरत होगी, बोलेंगे। जाहिर छोड़ तो जरूरत नहीं है।
आगे बढ़े तो बग्गन की फीनस मिली। एक ने कहा - इन पर भी बड़ा जोबन है। इस पर और कहकहा पड़ा, और जिसने 'जोबन' कहा था वह बहुत शर्माए।
1 - यह फारसी की टाँग क्यों तोड़ते हो?
2 - भई 'जोबन' भी याद रहेगा।
3 - बग्गन के ठाठ देखिए। सारे चौक की नाक है। आँखों में मोहिनी। और आगे बढ़े तो एक और नाजनीन नजर आई - परीछम, बर्कदम। ये लोग घूरने लगे। एक ने दिल्लगी में कहा - यार हमें तो इसकी एक आँख दिखाई देती हैं?
वह तुनुक कर बोली - मालूम होत है, सावन माँ फूटी राहीं। ईंट की ऐनक लगावो!
'होत' और 'राही' और 'लगावो' से समझ गए कि देहातिन है। दो गाल इससे हँस-बोल कर आगे बढ़े, तो देखा बड़ी भीड़ है। और दो कमसिन यहूदिनें, तनी हुई, अजब अंदाज व नाज से खड़ी मोम के लंगूर और मछलियाँ और कछुवे मोल ले रही हैं। ठठ के ठठ जमा। एक पर दस और दस पर सौ गिरे पड़ते हैं।
1 - मालूम होता है, परियों को पर काटके छोड़ दिया।
2 - खूब घूर लो, यारो, आँखें सेको। मजेदारियाँ हैं।
जो - भई क्या सूरतें हैं, वल्लाह।
1 - देखने से भूख प्यास बंद हो जाती है।
2 - कोहकाफ की परियाँ जो मशहूर हैं, वह यही हैं।
3 - जी चाहता है कि गोद में उठाके ले जाऊँ।
4 - कौन! इतने जूते पडे़ं कि खोपड़ी गंजी हो जाय!
3 - बला से पड़ें। ऊँह, पड़े, पड़ें!
इतने में जोती परशाद के एक दोस्त ने कहा - अरे यार, यहाँ खड़े रहना ठीक नहीं है। सब शोहदे जमा है। जो कोई देखेगा तो कहेगा।
जोती परशाद ने कहा - आपकी ऐसी की तैसी। और यहाँ से जानेवाले की ऐसी की तैसी।
क्या खुदादाद हुस्न पाया है - आप अल्लाह ने बनाया है!
अब सुनिए कि जिधर वह दोनों परीजाद जाती थीं, तमाम मेला उसी जानिब हो लेता था। और डेरेवालियों में जो-जो बनाव चुनाव करके गई थीं, वह कटी जाती थीं। एक बोली - किस काम की हैं! पहनावा तो देखो, जैसे दुमकटी हिरनी। दूसरी ने कहा - ए, फीका शलजम! नमकीनी का नाम नहीं। अल्लाह जानता है, जो उनकी रानें देखो, तो बस यह मालूम हो कि कोढ़ है।
ये जली-कटी कह रही थीं कि - हमारी चाह छोड़ के जिसे देखो उनके पीछे लट्टू हैं!
इनका पीछा छोड़के जोती परशाद मय दोस्तों के वहाँ आके बैठे, जहाँ बग्गन की फीनस थी। उसके बिस्तर से इनका बिस्तर कोई बीस कदम के फासले पर था।
जो - कहिए बी बग्गन साहब, मिजाज शरीफ।
ब - अब तो सुना आप लोगों को पागलखाने की हवा खिलाया करते हैं।
जो - (हँस कर) वह भी एक दिल्लगी थी! चलिए एक दिन आपको भी दिखा लायँ।
ब - ए, तुम्हारे मुँह में खाक-धूल! अल्लाह उसके साये के करीब न ले जाय!
जो - देखोगी तो फड़क जाओगी!
ब - आप ही को मुबारक है। मैं हुश्शू नहीं हूँ।
जो - आपने सुना कहाँ था?
ब - ए लो, और सुनिएगा! ए, यह भी कोई छिपी हुई बात है! सारा शहर जानता है। हमें बड़ा रंज था कि रईस आदमी, हँसमुख, और एकाकी अक्ल से खारिज हो गया।
ये यहाँ से बोरिया-बँधना उठाके कश्मीरियों के बाग में आए, और सैर करके फिर तालाब की तरफ जाते थे, कि जिस बेचारे के मकान को इन्होंने बेच लिया था, उसने उनको देख लिया, और आग हो कर दौड़ा।
- ओ चचा! बहुत दिन बाद मिले! चुलबुली सिंह ठाकुर बने हुए अंडे बेचते थे। किराया छै महीने पहले ही दे गए थे। औने-पौने पर मकान बिकवा लिया। इधर आओ, चचा जान!
यह कह कर कलवार और उसके लड़के और दामाद ने इनको जोर से गिराया, और कलवार ने चाकू निकाल कर इनकी नाक पर रख ही तो दिया। मगर वैसे ही एक शख्स, लाला रूप नरायन नाम, ने फौरन चाकू पर हाथ डाल दिया। चाकू नाक पर जरा यों ही सा छिछलता हुआ लगा। वर्ना 'नाक कटी मुबारक, कान कटा सलामत' का मामला हो जाता!
कान्स्टेबलों ने आके कलवार और उसके लड़के और दामाद और आठ दस बेगुनाहों को गवाही की इल्लत में गिरफ्तार ही तो कर लिया। मुकदमे की कार्रवाई और रूदाद से कोई गरज नहीं, खुलासा यह कि कलवार को एक हफ्ते की कद-सख्त की सजा मिली। और मियाँ हुश्शू की नाक गो कट नहीं गई, मगर निशान यों ही सा बन गया। हात्तेरे गीदी की! मेले भर में हुल्लड़ मच गया कि जोती परशाद की नाक किसी ने जड़ से उड़ा दी। जितने मुँह उतनी ही बातें। लोगों ने नाक के होते - साथ ही नकटा बना दिया।
यहाँ से चले तो दोस्त सब साथ हो लिए, और उनसे कहा कि अब आप घर चलिए। मगर एक बाग तक पहुँचे ही थे कि बोतलवाला मिला। उसकी बीवी बनी-ठनी उसके साथ थी। उसने जो इनको देखा, तो बड़ा खुश हुआ, कि बाद मुद्दत अपने मुजरिम को पाया।
मियाँ लाला, सलाम। पहचाना?
लाला - (सहमे हुए) क्या?
मियाँ - (हाथ पकड़के) भलमन्सी सब मिटा दूँ। अरे तू भलेमानस बना है!
इनके एक दोस्त ने बोतलेवाले का हाथ झटक दिया, और एक लप्पड़ दिया।
बीवी - (रोती हुई) अरे काहे का बड़े आदमियन से लड़त हैं?
मियाँ - अरे सुसरी, इसी ससुर ने बोतलें उस दिन तोड़ी थीं। अरे, यह वही है।
बीवी - अरे भाई, अरे भाई!
दोस्त - दूर हो यहाँ से, भाई की बच्ची!
मियाँ - हजूर हम गरीबों की सुनोगे कि नहीं। हमको झूठा पता बतला के अपने घर भेजा। न घर, न दर। और हमारी बीस-बाइस बोतलें तोड़ी और भाग गए। हम तो इनका लहू पी लेंगे।
दोस्त - (एक और लपोटा जमा कर) अब तेरी लाश निकलेगी!
इस पर बहुत से आदमी जमा हो गए और बोतलेवाले ने रो-रो कर हाल कहना शुरू किया, और उसकी बीवी भी साथ ही रोती थी, कि नुक्सान का नुक्सान हुआ मार की मार खाई। मेलेवालों में बाज को तो जोती परशाद से हमदर्दी थी, कि रईस हो कर एक अदना बोतलवाला इस बेहूदगी से पेश आया। और बाज को उनकी इस हरकत से जरा भी हमदर्दी न थी - कि बेचारे गरीब का नुक्सान किया। और बाज को मौका मिला कि उसकी जवान और नमकीन औरत को घूरें। यहाँ तक कि एक बिगडे दिल जवान ने उसको आँसू बहाते देख कर फौरन जेब से रेशमी रूमाल निकाला, और उसके आँसू पोंछे।
और इस बहाने से उसके नमकीन-नमकीन गालों पर भी बड़े प्यार से हाथ फेर ही तो दिया। वाह उस्ताद, मानता हूँ।
तकरार तो अभी हो रही थी, और इनके दो-एक दोस्त भी वाकिफ थे कि इन्होंने उस बेचारे गरीब का नुक्सान किया। आपस में फैसला करके बोतलवाली को पाँच रुपए दे दिए। ये भी दिल्लगी से न चूके। दिए भी तो बोतल-वाली को, बोतलवाले से कोई मतलब नहीं - गो घी कहाँ गया, खिचड़ी में मगर उनके दिल का हाल तो मालूम हो गया।
खैर, अब उनके दोस्तों ने मशविरा किया कि इनको किसी और बंद पालकी में ले जायँ, ताकि अब और कोई फजीता न हो। पालकी ढूँढ़ ही रहे थे कि मियाँ चपई (यानी उस कलवार का नौकर, जिसकी दुकान की मठूरें और बोतलें खुद-बदौलत तोड़ आए थे) ने इनको देख लिया, और गुल मचा कर कहा - लाला, लाला, दौड़ो! अरे वह मिले हैं जौन सोने की घड़ी पहिने अपनी दुकान का सत्यानास कर गए थे!
लाला आवाज सुनते ही दौड़ पड़ा। और गो ये लाख बगलें झाँकने लगे, वह झपट ही तो पड़ा। और आते ही इनके पटे लेने को था, मगर जुर्रत न हुई। बहुत जोर-जोर से गुल मचा-मचा कर शिकायत करने लगा। फिर एक भीड़ लग गई। ठठ के ठठ जमा। मालूम हुआ कि कलवार की दुकान पर हजूर ने वह अनोखी हरकतें कीं जो आज तक किसी ने नहीं की थीं। इनके दोस्तों की जान अजाब में हो गई। अब किस-किस से लड़ें किस-किस से भिड़ें! और फिर यह भी खयाल था कि लोग हमको क्या कहेंगे, और उनको क्या मालूम होगा कि ये हुश्शू से लड़ रहे हैं या हमसे।
लाचार, अपनी करनी अपने सर, इन लोगों ने उसको समझाया, कि इस धींगा-मुश्ती से कुछ न होगा। इनके घर पर कल सुबह आठ बजे आओ। हम लोग भी होंगे, फैसला कर दिया जायगा। वह इन शरीफों के कहने से राजी हो गया। सब अपने-अपने घर आए। सुबह को यही दोस्त उनके घर गए। उनके चचा से कुल हाल कहा - उन्होंने अपना सर पीट लिया, और कहा, खैर, जो कुछ हुआ, वह हुआ। इनसे रुपया दिलवाया जाय। कलवार भी मय चंद दोस्तों के आया। पचास पर फैसला हुआ।
और जोती परशाद के आदमी ने पचास गिनके दे दिए और रसीद ली। अब यह मशविरा होने लगा कि मकानवाले का रुपया फौरन अदा कर दिया जाय। ऐसा न हो कि वह दीवानी-फौजदारी दोनों में दावा कर दे, और बड़ा फजीता हो। जब वह कैद से निकला, तो ये लोग बुला लाए। और उसने रो-रो कर अर्ज की, कि मैं एक नीच कौम आदमी, आप ही रईसों की बदौलत आध सेर आटा कमाता हूँ। मेरा मकान का मकान खुदवा के बेच लिया और जेलखाने का जेलखाना हो गया।
सुननेवालों को कुछ तो हँसी आती थी और कुछ रंज होता था। बड़ी देर तक रोया-चिल्लाया किया। जो सुनता था, हँसता था, कि भई अच्छे किरायेदार मकान में बसाए, कि मकान ही घूम गया। दोनों में यह फैसला आपस में हुआ कि सात सौ रुपया नकद मालिक मकान को दिया जाय और एक हजार दो सौ रुपए की सौ रुपए माहवारी के हिसाब से किस्त। यों तोड़ हुआ।
अब लाला जोती परशाद साहब की आँखें खुल गईं, और अगली-पिछली बातों पर अफसोस करने लगे, और दोस्तों से कहा कि अगर आप साहबों की शान के खिलाफ कोई बात मुझसे हुई तो माफ फरमाइएगा।
1 - अजी, यह क्या फरमाते हैं?
2 - जो हो गया सो हो गया।
3 - अब बीती को छोड़िए और आगे की सुध लीजिए। मगर अब खुदा के लिए बहशत कीन लेना। लिल्लाह, तबीअत, को सँभालो, काबू में रक्खो, आदमी बनो।
हुश्शू : नवाँ दौरा (लाहौर! लाहौर ! लाहौर! शैतान दूर)
लाला जोती परशाद साहब 'हुश्शू' को अब हम 'हुश्शू' न कहेंगे। क्योंकि अब ये अच्छे-भले इन्सानों की तरह रहते हैं। दो महीने के लिए ये बुजुर्गवार शहर से बाहर अपने गाँव के एक बाग में जा कर रहे और वहाँ से अपने दोस्तों को खत लिखे। एक खत लिख कर उसकी नकल करके रवाना की, जो हू-बहू नीचे दी जाती है :
हजरत सलामत,
गो मैंने अक्सर दोस्तों से माफी माँग ली है, मगर एक बार फिर माफी का खास्तगार हूँ।
शाहाँ च अजब गर बिनवाजंदा गदा रा!
(बादशाहों की शान से यह दूर नहीं है कि वह फकीरों को नेवाज दें!)
यहाँ में दोनों वक्त हवा खाने जाता हूँ। सुबह को पैदल टहलता हुआ, बागों और खेतों का चक्कर लगाता हूँ। और शाम को दरिया की जानिब घोड़े पर जाता हूँ। सुबह को जब हवा खा कर वापस आता हूँ। तो नहा-धो कर अंग्रेजी और उर्दू अखबार पढ़ता हूँ। दस बजे खाना जाता हूँ। थोड़ी देर के बाद कोई नाविल पढ़ता हूँ। गाँव का काम देखता हूँ। साढ़े पाँच बचे सवार हो कर हवा खाने जाता हूँ। शाम को वापिस आ कर बाग में टहलता हूँ। आठ बजे खाना खाता हूँ। खाने के साथ थोड़ी व्हिस्की पीता हूँ। एक बोतल चार रोज में खत्म करता हूँ। सोडा के साथ पीता हूँ। दो सेर बर्फ रोज शहर से आती है। दस बजे तक कभी 'दीवान' कभी 'नाविल' पढ़ता हूँ और सो रहता हूँ। अल्ला-अल्ला खैर सल्ला।
न बोतलें तोड़ता हूँ, न शीशियों पर हाथ साफ करता हूँ। न कलवार की दुकान का सत्यानास करता हूँ। न किसी का माकन किराये पर ले कर ईंटें लकड़ी पटेल डालता हूँ। न सदर बाजार में जूती पैजार होती है, न किसी को पागलखाने भेजता हूँ, न बोतलवाले को जुल देता हूँ। आप मेरी तरफ से इत्मीनान रखें।
जोती परशाद।
एक खत चचा के नाम लिखा कि मेरी तरफ से आप इत्मीनान रखिए।
इसके बाद लाला जोती परशाद, जो कभी 'हुश्शू' के नाम से मशहूर थे, अपने इलाके से शहर में आए, तो आदमी बने हुए। यार-दोस्त, रिश्तेदार, बुजुर्ग, छोटे-बड़े सब खुश कि हमारा वहशी इंसान बन गया। उन्होंने अपने दोस्तों की दावत की।
दोस्त जमा होने लगे। यह वही बाग है, जिसमें जोती परशाद ने मय अपने दोस्तों और डाक्टर और वकील और धमाचौकड़ी मचाई थी, और पीते-पीते जान से हाथ धोने के करीब आ गए थे। उन्होंने इस मर्तबा भी उन्हीं दोस्तों की दावत की, जो उस जल्से में शरीक थे। जो आया, उसने कोई न कोई फबती कही जरूर।
ला - एँ! अरे मियाँ, आज यह तालाब सूना क्यों हैं? वह पैराक लोग कहाँ हैं?
न - पैराक लोग कहीं रोज थोड़ा ही आते हैं। वह तो बस पैराकी के मेले ही पर आते हैं।
जो - (हँस कर) खुदा वह दिन न दिखाए।
ला - आज खड़ी लगानेवाले गायब हैं।
न - भई उस दिन कैफियत तो अच्छी मालूम होती थी। कोई इधर पैर रही है, कोई उधर। कोई पैराक खड़ी लगा रहा है, कोई मल्लाही पैर रहा है। कहीं उस्ताद है, कहीं शार्गिद।
स - मगर मुझे उस दिन इस कदर नशा तेज था, कि बस कुछ न पूछो! मुझे तो याद नहीं, मगर लालारुख ने कहा कि मैं बराबर यही हाँक लगाता था कि - सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का!
डाक्टर - मगर उस रोज इनके यहाँ की वह घर की खिंची शराब ऐसी उम्दा थी कि हमने कभी नहीं पी। खुशबू ऐसी कि मैं क्या कहूँ। और रंगत वह जो छाती तो जाहिद तक का जी ललचाता।
ला - हमने भी पी थी, मगर जायका नहीं याद है।
जो - आपको होश भी था?
ला - बहुत चढ़ गई थी, वल्लाह।
जो - और मुझे क्या बुरा मालूम होता था कि मैं तो मर रहा हूँ और एक साहब नशे की तरंग में बार-बार कहते हैं कि सोने का खयाल करो, नींद का ध्यान करो।
न - सात दिन तक हम लोगों ने पी। मगर एक बात अच्छी थी कि मजा थोड़ा-बहुत हो जाता था। वर्ना अंटा-गफील हो गए थे।
जो - मैं तो समझा कि मैं चला। मगर उसने बचाया।
डाक्टर - जब हद हो जायगी, तब यही होगा। यह तो देव का तमाचा है।
गो उस रोज भी खाना-पीना हुआ, शराब भी पी, दिल्लगी मजाक, चुहल भी हुई, मगर भलेमानुसों की-सी सोहबत थी। खाने के साथ जरूरत के मुताबिक थोड़ी-थोड़ी शराब पी। यह नहीं कि एक हफ्ते तक अंटा-गफील भी हुए है, सर और पैर की खबर नहीं।