हिरनी की रक्षा : संत/गुरु रविदास जी से संबंधित कहानी

Hirni Ki Raksha (Hindi Story) : Sant/Guru Ravidas Ji

गुरु रविदास कोमल हृदय के महापुरुष थे। एक बार लहरतारा तालाब जो कि कबीर की प्रकटस्थली है, उन दिनों वहाँ पर घना जंगल था, वहाँ एकांत रमणीय स्थान पर गुरु रविदास ध्यान की अवस्था में बैठे थे। आसपास प्रकृति का दृश्य मन को मोहित कर रहा था।

इसी समय एक हिरनी भागती हुई इधर निकल आई, जिसके पीछे शिकारी लगा हुआ था। वह हिरनी को मारने के लिए तैयार था। शिकारी ने हिरनी को अपने काबू में कर लिया था। हिरनी ने सोचा कि अब उसका जीवन मुश्किल में पड़ गया है और शिकारी उसे मार डालेगा। उसने सोचा कि अब वह अपने बच्चों से नहीं मिल सकती, दूध पिलाना तो बहुत दूर की बात है। हिरनी अपने मन में ऐसा सोचकर दुःखी हो रही थी। अपने बच्चों को याद कर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। यह देखकर शिकारी ने पूछा कि तेरी आँखों में आँसू आने का क्‍या कारण है? हिरनी ने कहा कि मुझे अपने बच्चों की याद आ रही है, इसलिए मेरी यह हालत है। शिकारी से हिरनी ने कहा--तू मुझे दो पल के लिए छोड़ दे, मैं अपने बच्चों को दूध पिलाकर तेरे पास आ जाऊँगी। शिकारी ने उत्तर दिया कि यदि कोई तुम्हारी जमानत देगा तो मैं तुम्हें छोड़ सकता हूँ। पास ही गुरु रविदास थे। उन्होंने शिकारी से कहा कि मैं इसकी जमानत देता हूँ और तेरे पास तब तक रहूँगा, जब तक हिरनी वापस नहीं आ जाती। शिकारी ने दो घड़ी के लिए हिरनी को छोड़ दिया।

हिरनी तेजी से भागती हुई अपने बच्चों के पास पहुँची। बच्चों ने जब देखा कि उनकी माता आ गई है, तो वे अपनी माता से लिपट गए। जब वे दूध पीने लगे तो उन्होंने देखा कि उनकी माता उदास है। बच्चों ने माता को उदास देखकर पूछा कि माताजी आपकी उदासी का क्या कारण है? हिरनी ने उन्हें सारी बात बताई। बच्चों ने कहा, माताजी, अब हम दूध नहीं पीएँगे, बल्कि आपके साथ जाएँगे। आपसे पहले हम अपनी जान दे देंगे, हमारे बाद ही आपकी बारी आएगी। हिरनी कुछ देर बाद अपने बच्चों के साथ जहाँ शिकारी और गुरुजी बैठे थे, वहाँ पहुँच गई। हिरनी ने शिकारी से कहा कि अब इन संत महापुरुष को छोड़ दो, हम दो घड़ी से पहले तुम्हारे पास पहुँच गए हैं। जब शिकारी ने हिरनी को मारने के लिए कटार का बार किया तो शिकारी का कटार वाला हाथ ऊपर ही रह गया। वह जड़ पत्थर के समान हो गया। उसकी अपनी आँखों के सामने मृत्यु नाचती हुई दिखाई देने लगी। जब उसको ऐसा आभास हुआ तो वह मन-ही-मन पश्चात्ताप करने लगा और बार-बार गुरु रविदास को प्रणाम करने लगा। उसने उनसे क्षमा माँगी। गुरु रविदास ने उसे भविष्य में शिकार करने से मना किया और उसे अपना शिष्य बना लिया।

(ममता झा)

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