हीराबाई वा बेहयाई का बोरका (ऐतिहासिक उपन्यास) : किशोरी लाल गोस्वामी
Hirabai Va Behayai Ka Borka (Hindi Novel) : Kishorilal Goswami
पहिला परिच्छेद : अत्याचार
"सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात्क्रूरतरः खलः।
मन्त्रौषधिवशः सर्पः खलः केन निवार्यते ॥"
(हितोपदेशे)
दिल्ली का ज़ालिम बादशाह अलाउद्दीन ख़िलजी जो अपने बूढे़ और नेक चचा जलालुद्दीन फ़ीरोज़ ख़िलजी को धोखा दे और उसे अपनी आंखों के सामने मरवाकर [सन् १२९५ ईस्वी] आप दिल्ली का बादशाह बन बैठा था, बहुत ही संगदिल, खुदग़रज़, ऐय्याश, नफ़्सपरस्त और ज़ालिम था। उसने तख़्त पर बैठते ही जलालुद्दीन के दो नौजवान लड़कों को क़तल कर डाला और गुजरात पर चढ़ाई करके उसे फ़तह कर दिल्ली में मिला-लिया था। इसके बाद [सन् १२९७ ईस्वी] जब फ़ौज से लूट का माल उसने मांगा तो फ़ौज ने बलवा किया, जिससे जलकर उस मलकुलमौत अ़लाउद्दीन ने सभों को, मय उनके लड़के-बाले और औरतों के, कटवाडाला था।
फिर अ़लाउद्दीन ने [सन् १३०० ईस्वी] साल भर के मुहासरे में रनथंभौर का क़िला जीता, उस के बाग़ी मीरमुहम्मदशाह को शरण देनेवाला वीरकेशरी हम्मीर वीरगति को पहुंचा और सारा रनिवांस इज्ज़त-आबरू बचाने के लिये आग में जलमरा था।
इसके बाद [सन् १३०३ ईस्वी] अ़लाउद्दीन ने पद्मिनी रानी के पाने के लिये तीन बरस तक खूब गहरी लड़ाई लड़कर चित्तौर का प्रसिद्ध किला जीता था। राना रतनसेन मारा गया, पद्मिनी रानी धर्म बचाने की इच्छा से अपनी सहेलियों के साथ महल के अन्दर चिता में जल गई और दुराचारी अ़लाउद्दीन यह देख अपना सा मुंह ले, कलेजा मसोसकर रह गया था।
दूसरा परिच्छेद : छुटकारा
"दुर्जनं प्रथमं वन्दे सज़नं तदनन्तरम्।
मुखप्रक्षालनात्पूर्वं पादप्रक्षालनं वरम्॥"
(नीतिमञ्जर्याम्)
जब अ़लाउद्दीन का चचा जलालुद्दीन जीता था, उसी समय में [सन १२९४ ईस्वी] अ़लाउद्दीन ने आठ हज़ार सवारों के साथ दक्खिन के इलाकों पर चढ़ाई की थी। उस समय उसने देवगढ़ [दौलताबाद] के राजा रामदेव को जा घेरा था और बहुत सा सोना, चांदी और जवाहिरात लेकर तब उसका पिंड छोड़ा था; बल्कि कुछ सालाना नज़राना उससे मुक़र्रर कर लिया था। यह मुसलमानों का दक्खिन में पहला चढ़ाव था।
किन्तु अ़लाउद्दीन को रनथंभौर और चित्तौर की लड़ाइयों में ग़ाफ़िल देख, रामदेव ने एक कौड़ी नज़राना नहीं भेजा था। इस बात को जब ग्यारह बरस बीत गए और अ़लाउद्दीन चित्तौर का सत्यानाश करके दूसरे राज्यों के तहस-नहस करने का मन्सूबा बांधने लगा तो उसे रामदेव का ख़याल हुआ और उसने चिढ़कर [सन् १३०६] देवगढ़ पर अपनी फौज भेजी थी।
बेचारा रामदेव शाही फ़ौज को देखकर घबरा गया और मुक़ाबले की ताक़त न देख, वह दिल्ली में हाज़िर होगया था। फिर बहुत सा नज़राना देकर उसने अ़लाउद्दीन को राजी कर लिया था। आख़िर, बादशाह ने अपनी फ़ौज के अफ़सर फ़तह ख़ां को देवगढ़ से घेरा उठाकर लौट आने का हुक्म लिख भेजा और रामदेव को बिदा किया था।
तीसरा परिच्छेद : बहकावट
"मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोषविहितवृत्तीनाम्।
लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति॥"
(नीतिशतके)
अ़लाउद्दीन कुछ पढ़ा लिखा न था, बादशाह होने पर उसने कुछ पढ़ना लिखना शुरू किया था; पर तौभी वह घमंडी इतना बड़ा था कि अपने तई सारी दुनियां से बढ़कर पंडित और समझदार समझता था। ज़ालिम वह ऐसा था कि क्या मक़दूर कि कोई उसकी बात दुहरा सके। कभी वह अपना नया मत चलाना चाहता, कभी सारी दुनियां को अपने तहत में लाने का मन्सूबा बांधता, कभी अपनी ही फ़ौज को आप कटवा डालता और कभी अपनी ही रियाया के क़त्लेआम का हुक्म दे बैठता था। वह बादशाह क्या, हिन्दुस्तान का मानो मलकुलमौत था।
संध्या का सुहावना समय था, शाही बाग़ में एक संगमर्मर के चबूतरे पर ज़र्दोज़ी मसनद पर बैठा हुआ अ़लाउद्दीन हुक्क़ा पी रहा था और चालीस पचास मुसाहब उस चबूतरे के इर्दगिर्द दस्तबस्त: सिर झुकाए हुए खड़े थे। इतने ही में उसके वज़ीर-आज़म बहरामख़ां ने वहां आ और शाहानः आदाब बजा लाकर एक ख़लीता उसके सामने रख दिया और हाथ जोड़कर कहा,-
“जहांपनाह! यह ख़लीता हुजू़र की ख़िदमत में सिपहसालार फ़तहख़ां ने रवानः किया है।"
अ़लाउद्दीन,-"बेहतर! इसका मज़सून पढ़कर सुनाओ।"
"जो इर्शाद" कहकर वज़ीर ने उस ख़लीते के अन्दर से एक ख़त निकालकर पढ़ा, जो फ़ारसी भाषा में लिखा हुआ था; किन्तु उसका मतलब हम हिन्दी भाषा में अपने पाठकों को सुनाते हैं,-
"आलीजाह!
हुजू़र का हुक्मनामा पाते ही गुलाम देवगढ़ से घेरा उठाकर इलाके गुजरात से गुजरा और फ़ौज के सुस्ता लेने के ख़याल से काठियावाड़ के इलाके़ में ठहर गया; लेकिन काठियावाड़ के राजा विशालदेव ने रसद देने से इन्कार किया और शाही फ़ौज को अपनी सहर्द से बाहर चले जाने का हुक्म दिया; मगर ग़ुलाम ने उसके कहने पर कुछ भी अमल न किया और उसके इलाक़े को लूटकर फ़ौजी सिपाहियों का काम चलाया। अब इस नीयत से ग़ुलाम अभी तक यहां ठहरा हुआ है कि विशालदेव को उसकी इस सर्कशी की सज़ा ज़रूर दी जानी चाहिए। उसकी रानी, जिस का नाम कमलादेवी है, निहायत हसीन और नौजवान औरत है। उसके हुस्न की तारीफ़ मैंने यहांके हर ख़ासोआम के मुंह सुनी है और उम्मीद कामिल है कि उसे पाकर हुज़ूर पद्मिनी रानी के गम को बिल्कुल भूल जायंगे; आगे जो इर्शाद, बंदेनेवाज।"
अ़लाउद्दीन उस ख़त के सुनते ही फड़क उठा और उसने उसी समय अपने हाथ से फ़तहख़ा को यह हुक्म लिख भेजा कि,-"अगर विशालदेव अपनी रानी को बिला उज्र देखके तो उससे बगैर छेड़छाड़ किए, उस औरत को बाइज्ज़त अपने साथ लेकर तुम लौट आओ; बर न जिस तरह हो सके, काठियावाड़ को तहस-नहस करके कमला को पकड़ लाओ।"
पाठकों को समझना चाहिए कि बेचारे विशालदेव ने न तो बादशाही फ़ौज को अपने इलाके में ठहरने ही को मना किया था और न रसद देने में ही कोई हीला पेश किया था। असल बात यह थी कि कमलादेवी के रूप का बखान सुनकर दुष्ट फ़तहख़ां ने यह झूठा प्रपंच रचकर बादशाह को बहकाया था, जिसमें देवगढ़ नहीं, तो यहीं मनमानी लूट-खसोट-कर वह अपनी थैली भरे और बादशाह को अपनी मुर्खरूई दिखलाकर कोई बड़ा वहदा हासिल करे।
चौथा परिच्छेद : धमकी
"सम्पदो महतामेव महतामेव चापदः।
वर्द्धते क्षीयते चन्द्रो न च तारागणः क्वचित्॥"
(पञ्चतन्त्रे)
काठियावाड़, अर्थात् काठियों का देश, जो गुजरात के प्रायद्वीप का मध्य भाग है, बिलकुल जंगल-पहाड़ों से भरा हुआ है; पर पहाड़ प्रायः नीचे हैं और धरती रेतीली तथा कम उपजाऊ है। स्त्रियां वहांकी बड़ी सुन्दरी और लंबे क़द की होती हैं। वहांवाले अपने काठी होने का कारण यह बतलाते हैं कि “जब पांचो पांडव दुर्योधन से जुए में हारकर बारह बरस के लिये वहां आकर छिपे, तो उन्हें ढूंढ निकालने का दुर्योधन ने यह ढंग निकाला कि,-"वहांकी गौवें हरी जायं तो पांडव क्षत्री होकर चुप न रहेंगे और गौवों के छुड़ाने के लिए आकर ज़रूर प्रगट हो जायंगे।" पर किसी क्षत्री ने जब गौ चुराना मंजूर न किया तो कर्ण ने अपनी काठ की छड़ी धरती में पटकी, जिससे एक क्षत्री पैदा हुआ; इसलिये उसका या उसके वंशवालों का नाम काठी [काष्ठी] पड़ा। उस वंश के लोग कर्ण के पिता सूर्य को अबतक मानते, पूजते और अपने काग़ज़ों पर उस [सूर्य] की छाप देते हैं।
निदान, अ़लाउद्दीन की फ़ौज ने काठियावाड़ की राजधानी बड़ोदे के शहर को, जो विश्वामित्र नदी के बाएं किनारे पर, शहरपनाह के अन्दर बसा है, घेर लिया और वहांके राजा विशालदेव से सिपहसालार फ़तहख़ां ने यह कहला भेजा कि,-“या तो अपनी रानी कमलादेवी को फ़ौरन बादशाह की नज़र करो, या लड़ने के लिये तैयार होजाओ। तीन दिन तक तुम्हारे जवाब का आसरा हम देखेंगे, बाद इसके शहर के अन्दर घुस आवेंगे और बड़ोदे की एक-एक ईंट बर्बाद करके कमलादेवी को जीती पकड़ ले जायंगे।"
पांचवां परिच्छेद : दृढ़ता
"कुसुमस्तवकस्येव द्वयो वृत्तिर्मनस्विनाम्।
मूर्ध्न्दि वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा॥"
(नीतिशतके)
इसी से आज सारे शहर में कोहराम मचा हुआ है, शहर के सभी औरत-मर्द अपने जान-माल, इज्ज़त-आबरू और अपने-पराये का ख़याल करके रो-कलप रहे हैं। राजा विशालदेव के रनिवास में हाहाकार मचा हुआ है और ख़ुद राजा बादशाही फ़ौज से मुक़ाबला करने की ताकत न देख बदहवास होरहा है। शहर के सभी छोटे-बड़े राजसभा में आ-आ-कर अपने बचाव के लिये रोरहे हैं, राजा सभीको ढाढ़स देता और समझा-बुझा-कर बिदा कर रहा है, पर वह हैरान है, उसके मंत्री भी परेशान हैं कि यह आफ़त, यह बला, और यह मलकुलमौत का रिसाला क्योंकर यहांसे टाला जाय!!!
यो हीं होते-होते दो दिन बीत गए, आज तीसरा दिन है और इस शहर या शहरवालों के भाग्य के वारे-न्यारे होने का यही आख़िरी दिन है। फ़तहख़ां की फ़ौज में आज सबेरे से ही जंग की तैयारियां होने लगी हैं, जिनका हाल सुनकर राजा, प्रजा और रनिवांस की दशा बहुत ही बुरी दिखलाई देरही है।
दो दिन बीतने पर आज कमलादेवी ने राजा विशालदेव से रोकर कहा,-"नाथ! यदि मेरे ही देडालने से इस नगर के लाखों आदमियों की जान और आपका राज्य बचता है तो मुझे देडालिए और समझ लीजिए कि आपकी प्यारी कमला मर गई।"
विशालदेव रानी के मुंह से ऐसी बात सुन धीरज छोड़कर बालकों की नाईं रोने लगा और बोला,-"प्यारी! हाय! क्षत्रिय होकर प्राण रहते हम अपनी प्रियतमा पत्नी को आततायी यवन के हवाले करेंगे? धिक्कार है, ऐसे जीवन पर! इससे तो अपने हाथों तुम्हें मार शत्रुओं से जूझकर मर जाना कड़ोर गुना अच्छा है।"
कमला,--“आपका कहना तो ठीक है, किन्तु नाथ! नीति कहती है कि-'त्यजेदेकं कुलस्यार्थे०' इसलिये यदि मेरे ही जाने से आप, आप के राज्य और इन निरपराध लाखों जीवों का धन-मान बचता है तो मेरा दे डालना ही अच्छा है। आप इस बात का विश्वास रक्खें कि आपको छोड़कर कमला जीती हुई कभी दिल्ली न पहुंचेगी। हां! मेरी मरी मट्टी को लेकर दुराचारी अ़लाउद्दीन जो चाहे सो करे।"
विशालदेव,---[रोते-रोते] "प्रियतमे! हा! भगवन् भास्कर! तुम्हारे वंशधरों की, पवित्र भारतभूमि की और महावीर क्षत्रियजाति की यह लाञ्छना!!! प्रियतमे! हमे अपने जीने न जीने, या राजपाट की कुछ भी पर्वा नहीं है, किन्तु इन निरपराध प्रजाओं के विनाश का ध्यान जब होआता है, तो हमारी बुरी दशा हो जाती है! हा! सिवाय मर मिटने के, हम बादशाही फ़ौज का किसी भांति भी सामना नहीं कर सकते।"
कमला,---"इसीसे तो-नाथ! कहती हूं कि आप समझ लीजिए कि आपकी सारी दुर्दशा की जड़ निगोड़ी कमला आज मर गई!"
विशालदेव,---"प्यारी! ऐसा काम तो हम प्राण रहते, कभी नहीं करेंगे, इसमें चाहे जो होय!"
छठवां परिच्छेद : प्रत्युपकार
"वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचों वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥"
(सुभाषिते)
इतने ही में वहां पर एक परम सुन्दरी स्त्री, जिसकी अवस्था तीस बरस के लगभग थी, पर तौभी वह बीस बरस की नौजवान औरत के समान जान पड़ती थी, आगई और विशालदेव की ओर देख, हाथ जोड़कर बोली,-"महाराज! अगर आपकी कमला आपके पास ही रहे, पर सारी दुनियां यही जाने कि आपने अपनी कमला क़ाफ़िर अ़लाउद्दीन को देदी और वह पापी भी कमला को पाकर ख़ुश होजाय तो बतलाइए, -इसमें तो आपको कोई उज़्र न होगा?"
उस औरत की ये विचित्र बातें सुन राजा-रानी उसका मुंह निहारने लगे और विशालदेव ने घबरा कर कहा,-
"हीराबाई! यह तुम क्या कह रही हो? हाय! एक कमला की दो कमला क्योंकर होसकती हैं?"
उस स्त्री का नाम हीराबाई था, उसने कहा,-"हां महाराज! आपकी प्यारी कमला तो आप ही के पास रहे, पर दुनिया यही जाने कि आपकी कमला अ़लाउद्दीन को देडाली गई!"
कमला,-"बहिन! फिर वही बात! हाय! तुम पागल तो नहीं हो गई हो?"
हीरा,-"नहीं, महारानी! मैं अपने होशोहवास में हूं। सुनो, मैं ख़ुद कमला बनकर अ़लाउद्दीन के पास जाऊंगी और तुम अपने प्यारे महाराज के ही पास रहोगी; लेकिन आजसे तुम अच्छी तरह अपने तई छिपाए रहना और इस राज़ को हर्गिज़ खुलने न देना, जिसमें इस भेद को कोई जानने न पावे, वर न क़यामत बर्पा होगी। इस राज़ के खुलने पर चाहे मेरी जान जाय, इसकी तो मुझे ज़रा भी पर्वा नहीं, मगर बदज़ात अ़लाउद्दीन काठियावाड़ की एक ईंट भी साबूत न छोड़ेगा; इस बात का ख़याल ज़रूर रखना।"
यह एक ऐसी बात थी कि जिसने विशालदेव और कमला देवी का ध्यान दूसरी ओर पलट दिया और फिर तीनों ने मिलकर इस बारे में ख़ूब बहस की। अन्त में हीरा ही जीती, उसकी बात को विशालदेव और कमलादेवी ने स्वीकार किया और- "अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठके। स्वकार्य साधयेद्धीमान् कार्यध्वंसो हि मूर्खता,-" इस नीति के अनुसार उसी दिन राजा ने फ़तह ख़ां से कहला भेजा कि,-"तुम अपनी तैयारी करो, आज आधी रात के समय कमलादेवी का डोला चुपचाप तुम्हारे पास भेज दिया जायगा।
सातवां परिच्छेद : परिचय
"मदर्थे यत्कृतं राजन् तन्मया नैव विस्मृतम्।
त्वदर्थे सम्प्रदास्यामीदानीं प्राणानिमानहम्॥
(महाभारते)
यह हीराबाई कौन थी, जिसने कमलादेवी की सारी बला अपने ऊपर लेली? सुनिए, कहते हैं,-
यह बात हम पहिले लिख आए हैं कि अ़लाउद्दीन ने तख़्त पर बैठते ही [सन १२९७ ईस्वी] गुजरात को फ़तह कर उसे अपनी सल्तनत में मिलालिया था। उसी लड़ाई में अ़लाउद्दीन का एक फ़ौजी अफ़सर हसनख़ां मारा गया था, जिसकी बीबी लड़ाई के वक्त उसके साथ थी और अपने प्यारे शौहर के मारे जाने से दुखी हो, वह अपनी पांच-चार बरस की लड़की को गोद में ले एक जंगल में चली गई थी। जिस दिन वह एक पेड़ में फांसी लगा और अपने गले में अपनी लड़की के गले को भी बांध कर जान देने की फ़िक में लगी हुई थी। उस दिन संयोग से राजा विशालदेव शिकार खेलता हुआ वहां जा निकला था और उस औरत की जान बचा और समझा-बुझा-कर मय उसकी लड़की के उसे अपने राजमहल में लेआया था।
महल में आकर राजा ने कमलादेवी से उस आफ़त की मारी औरत की सारी बिपता कह सुनाई, जिसे सुन कमला का जी भर आया और उसने उस औरत को अपने पास रक्खा। उस औरत का पहिला नाम दिलाराम और उसकी लड़की का गौहर था, पर कमला ने उसका नाम हीरा और उसकी लड़की का लालन रक्खा था। कुछ दिनों के बाद कमला ने हीरा को बहुत कुछ समझाया कि 'वह अपने घर चली जाय' पर वह कमला की सरन छोड़ कहीं जाना नहीं चाहती थी इसलिये वह कमला की प्यारी सखी बनकर रहने लगी थी और कमला भी उसे मुसलमानी औरत जान, उससे घृणा नहीं करती और प्यारी सहेली की भांति उसके साथ बर्ताव करती थी।
जितनी बड़ी हीरा की लड़की लालन थी, उतनी ही बड़ी कमलादेवी की कन्या देवलदेवी भी थी; इसलिये दोनो साथही साथ खेलतीं, पढ़तीं, लिखतीं और राजभवन में रहती थीं। रानी कमलादेवी लालन को भी उतनाही प्यार करती थी, जितना कि वह देवलदेवी को चाहती थी।
उसी साल देवलदेवी का ब्याह देवगढ़ के राजा रामदेव के पुत्र कुमार लक्ष्मणदेव के साथ हुआ था और वह सुसराल जानेवाली थी; किन्तु बीच में अ़लाउद्दीन की फ़ौज के आजाने से उसकी बिदाई रुक गई थी।
देवलदेवी के ब्याह हो जाने पर कमलादेवी को लालन के ब्याह की बड़ी चिन्ता लगी हुई थी, पर वह लालन का ब्याह किसी आली ख़ान्दान मुसलमान के घर किया चाहती थी, इसीसे लालन के ब्याह में देर हो रही थी।
आठवां परिच्छेद : आत्मबलि
"किं दुस्सहंतुसाधूनां विदुषां किमपेक्षितम्।
किमकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम्॥"
(श्रीमद्भागवते)
अब हीराबाई कमला बनकर दिल्ली जाती है! उसने आज दिनभर अपनी प्यारी और समझदार लड़की लालन को न जाने क्या-क्या सिखाया पढ़ाया है और उसे धीरज दे तथा कमला से गले मिल वह आजन्म के लिये उससे बिदा होती है। कमलादेवी ने अपने बहुमूल्य गहने पहराकर अपने हाथ से हीरा का शृंगार किया, फिर उसे गले लगा और रोकर कहा,-"बहिन! मुझे भूल न जाना।"
हीरा भी रोने लगी और बोली,-"प्यारी कमला! मैं तुम्हारी भलाइयों को जीतेजी कभी भूल सकती हूं! गो, अपने शौहर के मरने से मैं दुनियां के ऐशोआराम को हराम समझ चुकी थी, पर प्यारी कमला! तुम्हारे लिये मैं ज़हर की घूंट पीकर सब कुछ सहूंगी और सभी काम करूंगी; मगर ख़ैर, तुम मेरी उस बात को न भूलना। मैं दिल्ली पहुंचतेही शाही फ़ौज देवलदेवी के पकड़लाने के लिए भेजूंगी।"
इस पर कमला ने "अच्छा" कहकर उसे डोलेपर सवार किया।
निदान, हीरा, उर्फ़ कमला दिल्ली पहुंची। वह ऐसी सुन्दर थी कि लंपट अ़लाउद्दीन उसे देखतेही उस पर मोहित हो गया और तुरंत उसने क़ाजी को बुला उससे निक़ाह करके उसे अपनी प्रधान बेग़म बना लिया।
नवां परिच्छेद : प्रपंच
"यस्य यस्य हि यो भावस्तेन तेन समाचरेत्।
अनु प्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्म वशं नषेत्॥
(नीतिसमुच्चये)
एक दिन हीरा ने अ़लाउद्दीन को खुश देख हाथ जोड़कर उससे अर्ज़ की कि,-"जहांपनाह! मेरी लड़की देवलदेवी मुझसे भी निहायत हसीन है; हुजू़र उसे भी फ़ौरन मंगवाकर अपने शाहज़ादे खिजरखां के साथ उसकी शादी कर दें। वह देवगढ़ के राजा रामदेव के लड़के लक्ष्मणदेव के साथ ब्याही गई है और गौने में बिदा होकर ससुराल जाने ही वाली है। हुजूर चाहें तो अपनी फ़ौज भेजकर उसे भी यहां पकड़ मगावें।
अ़लाउद्दीन यह सुनकर बहुत ख़ुश हुआ और तुरंत उसने समझा-बुझा-कर फ़तहख़ां को उस ओर रवाने किया। हीरा की सलाह से उसकी लड़की लालन ने देवलदेवी बनकर एक हज़ार सिपाहियों के साथ देवगढ़ के रास्ते में एक जंगल में डेरा डाला था और वहीं टिककर वह बादशाही फ़ौज का रास्ता तकने लगी थी। साथ के सिपाहियों में से यह भेद किसी को मालूम न था कि,-'यह असली देवलदेवी नहीं है।' आख़िर एक दिन फ़तहख़ा की फ़ौज उसपर आ टूटी और लालन का डोला लूट दिल्ली की ओर कूच करगई। इधर सिपाहियों ने अपनासा मुंह ले, विशालदेव से आकर देवलदेवी के लूटे जाने का हाल कहा, जिसे सुन ज़ाहिरा तौरपर तो राज-महल में शोक मनाया गया, पर फिर विशालदेव ने रामदेव को बुलाकर तथा सब गुप्तभेद उसे समझा बुझाकर देवलदेवी को चुपचाप देवगढ़ भेज दिया।
सचमुच लालन बड़ी सुन्दर लड़की थी; उसे देखतेही अ़लाउद्दीन ने उसका निक़ाह अपने लड़के ख़िज़रख़ां के साथ कर दिया था। ख़िज़रख़ां और लालन में जिन्दगी भर बड़ी मुहब्बत रही।
इसके बाद एक दिन हीराबाई ने यह सोचकर कि,-"मेरी और कमला की सारी आफ़त की जड़ यही पाजी फ़तहख़ां है; अ़लाउद्दीन से कहा कि,-"आपके लायक सिपहसालार फ़तहख़ां ने मेरे साथ बुरी छेड़छाड़ की थी।" यह सुन उस बेवकूफ़ ने अपने नमकख़ार सिपहसालार फ़तहख़ां को बेरहमी के साथ कटवा डाला था। अगर वह जीता रहता तो शायद अ़लाउद्दीन के मरने पर उसके लड़के ख़िज़र ख़ां को गु़लाम मलिक काफ़ूर आसानी से न मार सकता।
दसवां परिच्छेद : अन्त
"एकां लज्जां परित्यज्य त्रैलोक्यविजयीभवेत्
ततो निरयगामीस्याद्धि क्कृतः साधुवर्ज्जितः॥
(पद्मपुराणे)
यद्यपि फिर जीते जी हीराबाई कमलादेवी से नहीं मिली थी और न कभी उसने कोई चीठी ही लिखने का मौका पाया था, किन्तु जबतक वह जीती रही, उसने अ़लाउद्दीन पर यह बात ज़रा न खुलने दी कि, -"मैं [हीरा] कमलादेवी नहीं, बल्कि कोई दूसरी ही औरत हूं और मेरी लड़की देवलदेवी नहीं, बल्कि लालन है।" हां! यह बात उसने अ़लाउद्दीन पर उस वक्त ज़रूर प्रगट कर दी थी, जब वह पलंग पर पड़ा-पड़ा मौत का आसरा देख रहा था। साथही उसके, लालन ने भी बड़ी होशियारी से अपने भेद को छिपाया और अपना असली हाल कभी ख़िज़रख़ां पर ज़ाहिर नहीं किया था।
अ़लाउद्दीन के मरने पर उसके ग़ुलाम मलिक काफ़ूर ने ख़िज़रख़ां को कटवा डाला था और लालन उस [ख़िज़रख़ां] से लिपटकर जल्लाद की तलवार का निवाला हुई थी, पर उसने अपना असली भेद कभी किसी पर प्रगट नहीं किया था।
हीराबाई ने जीतेजी बड़ौदे और देवगढ़ का ध्यान कभी अपने जी से नहीं भुलाया था और बराबर उन राज्यों की भलाई वह करती रहती थी यहां तक कि उसके कहने से अ़लाउद्दीन ने उन राज्यों से नज़राना लेना एकदम बंद कर दिया था।
अ़लाउद्दीन मृत्युशैया पर पड़ा-पड़ा अपने कुकर्मों को याद कर-कर के चौधारे आंसू बहा रहा था। हीराबाई भी उसके पास ही बैठी हुई थी और उस समय वहां पर कोई तीसरा शख़्स नहीं था। अ़लाउद्दीन का बोल बंद होगया था, पर अभी उसे होश हवास था। हीरा ने एक कटार अपनी मुट्ठी में पकड़ी और अ़लाउद्दीन की ओर लाल-लाल आखों से घूरकर कहा,-
"अय ग़ुनहगार! जिन्हें तू कमला या देवलदेवी समझ रहा है, वे दोनों बेचारियां अब तक पोशिदा तौर से अपने-अपने शौहर के पास मौजूद हैं। मैं और मेरी लड़की लालन कोई और ही हैं, इसलिये अब तुझे यही मुनासिब है कि तू कफ़न के बदले "बेहयाई का बोरक़ा" अपने चेहरे पर डाल ले, वर न ख़ुदा तेरा नापाक मुंह देखकर कभी तुझपर रहम न करेगा। मैं अपनी मेहर्वान रानी कमलादेवी का काम पूरा कर चुकी; पस, अब मुझे इस दुनियां में रहने का कोई तमन्ना बाकी नहीं है। यों कहकर उसने कटार अपने कलेजे के पार कर दी और अ़लाउद्दीन यह हाल सुन ताव पेच खाकर रह गया। थोड़ी देर बाद वह भी मर गया [सन् १३१६ ई०] और दोनों एकही कब्र में गाड़े गए।
इसी तरह लालन भी अपने शौहर ख़िज़रख़ां के साथ एकही कब्र में गाड़ी गई थी।
ग्यारहवां परिच्छेद : स्मृति
"न विस्मरामि तान् सर्वान् मदर्थे त्यक्तजीवितान्।
यैः स्वान् प्राणान् तृणीकृत्य कष्टैश्चाहं विमोचितः॥"
(पद्मपुराणे)
आज दस बरस के बाद कमलादेवी और देवलदेवी का फिर से मानो नया जन्म हुआ! इतने दिनों तक तो वे दोनों मां-बेटियां संसार की आंख की ओट में थीं, पर अ़लाउद्दीन के मरने पर समय ने उन दोनों को फिर नए सिरे से संसार के सामने लाकर खड़ी कर दिया; तब लोगों को हीरा और लालन का, या कमलादेवी और देवलदेवी का सारा गुप्त रहस्य मालूम हुआ!
हीराबाई और लालन की शोचनीय मृत्यु का हाल सुनकर कमलादेवी और देवलदेवी को बड़ा शोक हुआ और उन दोनों मां-बेटियोंने अपने-अपने राज्य में हीरा और लालन का "स्मारक" बनवाया।
हीराबाई का जो स्मारक बना, वह एक तालाब था, जो "हीराझील" के नाम से प्रसिद्ध हुआ था; और लालन के नाम का जो "स्मारक" बना उसका नाम "लालन-पालन" रक्खा गया; वह एक 'अनाथालय' था, जिसमें अनाथों को औषधि, स्थान, अन्न-जल और वस्त्र मिला करते थे।
[ इतिश्री ]