हीरामृग : महिन्दर सिंह सरना

Hira Mrig : Mohinder Singh Sarna

संध्या होते ही गाँव में मचे हुए कुहराम की धमक धीरे-धीरे मद्धिम पड़ती गई । और जब नारे लगाती, चीखती-चिल्लाती टोली का आखिरी मुजाहिद गाँव से बाहर हो गया, तो अँधेरा छाने लगा था ।

अली मुहम्मद ने कोठरी का कुंडा खोला और बाहर निकला । वह सूखे से मारे सरकंडे की तरह काँप रहा था । उसकी बीवी दो-चार बार कोठरी का दरवाजा खटखटाकर उसे बाहर निकलने के लिए कह गई थी, लेकिन अली मुहम्मद की हिम्मत नहीं पड़ी थी । उत्तर में, बल्कि वह बरकते को अंदर आकर छुप जाने के लिए प्रेरित करता रहा था । अब जब वह बाहर निकला, तो मुट्ठी में कलेजा थामे घबराया हुआ था।

उसने देखा, रसोईघर में बैठी बरकते मिट्टी की परात में आटा गूंध रही थी। लालटेन की मद्धिम रोशनी में उसका मुँह पीला-जर्द था और उसकी डरी हुई आँखें चौपट खुली थीं । कँपकँपी से अली मुहम्मद का बुरा हाल था, लेकिन
उसने देखा, बरकते बिलकुल नहीं काँप रही थी । शायद किसी समय वह काँपी हो, लेकिन अब उसने अपनी कँपकँपी घर के झमेलों में समेट ली थी।

बरकते ने क्षण भर के लिए अली मुहम्मद की ओर देखा और फिर आटा गूंधने में व्यस्त हो गई । वह जानती थी कि उसके पति का शरीर बैल-जैसा तगड़ा है, लेकिन उसका दिल चिडिया जितना है । फिर भी वह इस बात के लिए उसको लज्जित नहीं करना चाहती थी ।

"तुम आटा गूंध रही हो?" अली मुहम्मद ने इस प्रकार पूछा, जैसे वह कोई बड़ी अलौकिक बात कर रही हो ।
बरकते ने एक अज्ञात-सी "हाँ" में सिर हिलाया । "काहे के लिए ?"
"आटा काहे के लिए गूंधा जाता है ?"
जब अली मुहम्मद ने कोई उत्तर न दिया, तो वह बोली, "रोटी नहीं खानी ?"
"रोटी !" लगता था, अली मुहम्मद ने यह शब्द जिंदगी में पहली बार सुना था।

बरकते ने गुँधे हुई आटे को सँवारकर परात में थपथपाया और परात को एलूमीनियम की एक टूटी हुई थाली से ढंक दिया । फिर मोटी मलमल के काले दुपट्टे से हाथ पोंछते हुई उसने अपने पति को सिर से पैरों तक जोखा ।

वह जानती थी कि उसके पति जैसा शरीफ और भला आदमी सारे काजी के कोट में अन्य कोई नहीं था । पाकबाज नमाजी था और मरी चींटी पर भी पैर नहीं रखता था । इसलिए गाँव में व्याप्त, जुल्म के झक्कड़ में वह तिनकों जैसा हो गया था ।

लालटेन उठाकर बरकते ने बत्ती ऊँची की। फिर अली मुहम्मद के कंधे पर हाथ रखते हुए बोली, “चलो चलें !"
"कहाँ ?"
"गाँव की कोई खबर-खैरियत लें । न जाने क्या कयामत बरपा हो चुकी हो।"
"नहीं ! नहीं ! मैंने नहीं जाना ।" अली मुहम्मद ने आँखें चुराते हुए कोठरी की ओर देखा।
"क्यों, अब तुम्हें किस बात का खतरा है ? लूट-मार करनेवालों ने तो कब से अपने-अपने गाँव की राह ली है।"
"नहीं ! नहीं ! मुझसे देखी नहीं जाएगी?" "क्या ?" "जो कयामत वह अपने पीछे छोड़ गए हैं।"
"फिर तुम घुस कर बैठे रहो कोठरी में । मैं जाती हूँ। पता नहीं बेचारी खेम कौर और बीरो पर क्या गुजरी हो ?"

खेम कौर का नाम सुनते ही ऐसे लगा, जैसे कँपकँपी अली महम्मद को सिर के बालों तक छिड़ गई हो । खेम कौर का नाम सुनकर उसने कोठरी की ओर से मुँह फेर लिया और बरकते की आँखों में सीधा देखता हुआ बोला, "चल, जल्दी कर।"

वे गाँव की अँधेरी सुनसान गलियों में निकल पड़े । सारे गाँव में जैसे साढ़ेसाती छा गई हो । फिजा खामोश हो गए नारों से अभी तक फटी हुई थी। आज सुबह तक भादों की वर्षा लगी रही थी और गलियों में फिसलन और कीचड़ हो गया था। वे बड़े सँभलकर कदम उठा रहे थे । धर्मशाला की ड्योढ़ी के सामने वे सहसा ठिठककर खड़े हो गए । दहलीज पर एक लाश उलटे मुँह इस प्रकार पड़ी थी, जैसे कोई डंडवत् कर रहा हो । काली खद्दर की पगड़ी से उन्होंने पहचाना कि यह तो धर्मशाला के ग्रंथी भाई ठाकुर सिंह की लाश है । देखते ही अली मुहम्मद की सारी कँपकँपी उतर गई। क्रोध से उसकी कनपटियां जलने लगीं और उसे लगा, जैसे कोई कुंद छुरी उसकी अपनी छाती फाड़कर उसके अंदर टूट गई हो।
"सुअर कहीं के !" उसने फटी हुई आवाज में कहा, "इस्लाम की मिट्टी पलीद कर रहे हैं।"

भाई ठाकुर सिंह, जिसके होठ हर समय अल्लाह की बंदगी में फड़कते रहते थे, उस नेक सीरत फरिश्ते को मार कर बदबख्तों ने क्या सवाब हासिल किया था। अली मुहम्मद के कदम बँध गए । लाश के कंधे और गर्दन ड्योढ़ी की दहलीज पर टिके हुए थे । बाकी का धड़ बाहर गली के कीचड़ में लथपथ था । अली महम्मद ने दोनों पैरों को पकड़कर लाश को ढकेलकर ड्योढी के अंदर किया । फिर उलटा कर चेहरा ऊपर किया । लालटेन के प्रकाश में उन्होंने देखा, पुंछ के उस नौजवान का चेहरा, जो कभी कश्मीरी सेब की तरह दहकता था, उस पर अब मौत की जर्दी छाई हुई थी। उसकी कनपटी पर एक गहरा जख्म था और उसके पेट में से तीखी दराँती ने उसकी आँतें बाहर खींच निकाली थीं।

काजी नूर बख्श की हवेली के खंडहरों में एक कुत्ता रो रहा था । इस रुदन से अली मुहम्मद की रीढ़ की हड्डी में से एक ठंडी कँपकँपी गुजर गई । काजी नूर बख्श, जिसने काजी का कोट बसाया था, उसकी आत्मा, अली मुहम्मद को लगा, इस कुत्ते के रुदन में अपने गाँव की बरबादी का विलाप कर रही थी।

हवेली के खंडहर और कुत्ते के रुदन से तीखे कदमों से दूर होते वे उस गली की ओर मुड़ गए, जो लांबों के आँगन की ओर जाती थी । काजी के कोट में हिंदुओं-सिखों के पंद्रह-बीस गिनती के घर थे । उनमें से अधिकांश उस अहाते में थे, जो लांबों का आँगन कहलाता था । वे दोनों जल्दी से जल्दी खेम कौर के घर पहुंचना चाहते थे । इसलिए उन्होंने आस-पास के अन्य घरों में नहीं झाँका, लेकिन बिना झाँके ही घरों की बरबादी उनकी चेतना पर अंकित हो गई। दरवाजे-खिड़कियाँ टूटी पड़ी थीं और लालची लुटेरे घरों की चौखटें तक उतारकर ले गए थे । खेम कौर के घर का दरवाजा भी उन्हें न खटखटाना पड़ा, क्योंकि वह दरवाजा भी चौखट समेत लूटा-खसूटा गया था । यही दुर्दशा बड़े कमरे, कोठरी और रसोईघर के दरवाजों-चौखटों की थी। चेहरे पर से जैसे किसी ने आँखें निकाल ली थीं और बिना दरवाजों-चौखटों के सारा घर एक अंधा खंडहर नजर आता था ।

रसोईघर और कमरे के चौके के फर्श पर एक कुत्ता मरा पड़ा था। उसकी काली स्याह खाल से बरकते ने पहचाना, वह लांबों के आँगन के कुत्तों में से था। कुत्ते की गर्दन पर कुल्हाड़ी का गहरा जख्म था और उसके शरीर का सारा खुन चौके के कच्चे फर्श में जज्ब हो गया था ।

बड़े कमरे में घुसते ही उनको दो स्त्रियों की लाशें नजर आईं । देखकर बरकते का दिल कटकर रह गया । लेकिन जब उन्होंने लालटेन के प्रकाश में गौर से देखा, तो खेम कौर की साँस चलती देखकर वे चौंके । खेम कौर बेहोश थी। माथे पर एक जख्म था, जो बहुत गहरा नहीं था । लाठी का जख्म लगता था । खेम कौर की ओर से उन्होंने तुरंत अपना ध्यान उसकी जवान बेटी की ओर पलटाया । क्या पता, वह भी जिंदा हो । लड़की के शरीर पर जख्म का कोई निशान नहीं था, लेकिन मुंह से बहे खून ने उसकी सँदली चुनरी पर एक काला धब्बा डाल दिया था । बरकते ने लड़की का माथा छुआ । मौत की ऐसी ठंडक थी, जैसे उसने सर्दियों में संगमर्मर की सिल छू ली हो । सिर से उतारकर काली मलमल का दुपट्टा बरकते ने बीरो की लाश पर डाल दिया ।

बरकते ठंडी आहें भर रही थी। अली मुहम्मद दाँत पीस रहा था, कि यह सारी करनी-करतूत उसके हम-मजहबों की है । सोचकर वह पानी-पानी हो रहा था। बेइंतहा ग्लानि उसे इस बात से आ रही थी कि जब नारे लगाते हुए फसादी गाँव में आ घुसे थे तो उसने अपने घर की कोठरी में छुपकर कुंडा लगा लिया था।

बीरो के लिए वह कुछ नहीं कर सकते थे । खेम कौर के लिए उन्होंने एक क्षण नहीं गँवाया । बेहोश स्त्री का कमजोर और एकहरा शरीर अली मुहम्मद ने अपने चौड़े कंधे पर उठा लिया और उसे अपने घर ले आए।
घी में हल्दी गर्म करके बरकते ने खेम कौर के जख्म पर लगाई । फिर एक पुराने कपड़े की कतरन फाड़कर उसका माथा बाँध दिया ।

रात भर खेम कौर बेहोश पड़ी रही । कभी-कभी उसके खुश्क होंठ काँपते । आधी रात के बाद जख्मों के कारण उसे बुखार हो गया । शरीर में से तपिश की लपटें निकलने लगीं । सारी रात बरकते और अली महम्मद ने गीले उपलों की तरह सुलगती आँखों में काटी । रात भर बरकते के खैर मांगते हाथ दुआ में उठे रहे ।

खेम कौर जैसी भली स्त्री, वे दोनों सोचते रहे, बेहद मधुरभाषिणी, नेक और मिलनसार । अपनी बारह एकड़ जमीन के साथ उसने अपना वैधव्य इज्जत-आबरू के साथ काटा था । अली मुहम्मद काश्तकारी में उसका भागीदार था । फसल पैदा कर के तीसरा हिस्सा लेता था । हर दुख-दर्द के समय खेम कौर ने उसकी मदद की थी और गाँव में अन्य कई जरूरतमंदों की जरूरतें पूरी की थीं ।

कई बार बरकते चाँदी की अपनी बालियाँ दुपट्टे के कोने में बाँधकर लाती और कहती, "मेरी भानजी का विवाह है अगली जुमेरात को । बीस रुपयों से कम में मेरा गुजारा नहीं चलेगा । यह जेवर तुम अमानत रख लो ।"

जवाब में खेम कौर बड़े उलाहने से कहती, "बावली बातें न किया कर, बरकते । मैं ब्याज लेनेवाली सेठानी नहीं । न मुझे कोई बेयकीनी है । जेवर मैंने कभी किसी के रखे हैं, जो तुम्हारे रखूं । पैसे जरूरत-अनुसार ले जा !"

ऐसी नेकदिल स्त्री पर यह क्या गुजरी । अपने इतने भले बंदों पर खुदा क्यों जुल्म ढाता है । बरकते का ईमान मुनकर होता जा रहा था ।
लंबी अँधेरी रात के बाद जब उजाला हआ, तो इस प्रकार जैसे रात को किसी ने कुंद छुरी से जिबह कर दिया हो ।

अगला सारा दिन भी खेम कौर बुखार से कराहती बेहोश पड़ी रही । कई बार बरकते ने गर्म दूध का चम्मच उसके मुख में डाला, लेकिन वह बाछों में से बह गया।

साँझ समय खेम कौर की आँखों ने पलकें उठाई । कितनी देर तक उसकी गुमसुम नजरें बरकते के मुंह पर भटकती रहीं। फिर जब आवाज उसके मुख से निकली, "हाय री बरकते ! मैं कहाँ हूँ? क्या हुआ है मुझे ? मेरे सिर को लपटें चढ़ रही हैं और मेरी चारपाई चक्कर खा रही है !"

अब तक बरकते ने भीतर ही भीतर पीड़ा को समेट रखा था । उसका दिल डूबने लगता था, लेकिन उसने दाँत भींचकर सब सहन कर लिया था । खेम कौर के प्रश्नों के रू-ब-रू उसके जब्त का बाँध टूट गया ।

"कैसे बुरे दिन आ गए हैं बीबी ! हाय, अंग्रेज के राज में कितना सुख था। चिड़िया पंख तक नहीं फड़काती थी । न आता यह अपना राज, और न बनता यह पाकिस्तान !"
अली मुहम्मद कुछ बोल नहीं रहा था, लेकिन उसका रुंधा कंठ बरकते की बात का मूक हुंकारा भर रहा था।
बरकते की बात सुनकर खेम कौर को सब कुछ याद आ गया ।

"हाय मेरी बेटी!" उसने चीखकर कहा. "मेरी क्वाँरी कन्या को ले गए वह पापी । मैं उनकी मिन्नतें करती रही । अल्लाह रसूल के वास्ते देती रही । हाय कमबख्तो, तुम्हारा किसी जग में भला न हो ।"
"नहीं बीबी, लड़की को तो जालिमों ने वहीं मार दिया है। मैं और मेरा शौहर उसकी लाश बड़े कमरे में पड़ी अपनी आँखों से देखकर आए हैं।"
खेम कौर के चेहरे पर धीरज की मद्धिम-सी लौ आई और लोप हो गई।
"नहीं, नहीं," वह बिलख पड़ी, “मुझ बुढ़िया को उन्होंने जान से न मारा ! जवान लड़की को उन्होंने किसलिए मारना था !"

फिर जैसे उसकी धुंधली चेतना में कोई झरोखा खुल गया हो, "हाँ सच, मुझे आवाज आई थी बीरो की । कहती थी, बेबे, मुझे पुड़िया मिल गई है । जरूर उसने खा ली होगी । हाय बरकते, मुझे मेरी मरी बेटी का मुंह दिखा दे । मेरे कलेजे ठंड पड़ जाए."
अचानक अली मुहम्मद के अंदर से रुदन का बाँध टूट गया । सिर पकड़कर उसने दहाड़ मारी ।

उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे पुचकारने का प्रयत्न करते हुए बरकते खुद भी रो पड़ी।
जब उनका रुदन रुका, तो उन्होंने सुना, खेम कौर कह रही थी, "हाय री बरकते, मेरी बेटी के दाह-संस्कार का कोई प्रबंध करो ।"

संध्या गहरी हो गई थी। आगे-आगे अली मुहम्मद जा रहा था । उसके एक हाथ में लालटेन और दूसरे हाथ में घी का कुल्हड़ था । बरकते ने दोनों हाथों से खेम कौर को सँभाला हुआ था । छोटे-छोटे कदम उठाते वे उसको उसके घर ले आए।
इंधनवाली कोठरी खाली करके उन्होंने आँगन में चिता बनाई । बरकते ने काले दुपट्टे में लपेटी बीरो की लाश को ऊपर टिका दिया ।

“हाय बेटी", खेम कौर विलाप कर रही थी, "मैंने तुझे दुपट्टे की लपेट में छुपा-छुपाकर पाला था । अरी मेरी चंदन के बदनवाली रूपवती ! मेरी मोरनी ! मेरी चाँद की टुकड़ी ! तेरी यह अभागिन माँ तेरी डोली सजाने के बजाय आज तुझे चिता में जला रही है !"
चिता की लपटें बरकते के दिल और दिमाग में भड़क उठीं ।

"आग लग जाए ऐसे पाकिस्तान को", वह चिल्लाई, "ऐसे पाकिस्तान को हमने फूंकना है !"
शोलों का प्रकाश चौके में पहुंचा, तो खेम कौर की नजरें मरे कुत्ते पर पड़ी।

"हाय रे मोती ! अरे कसाइयो, तुमने मेरे मोती को भी मार डाला ! अरी बरकते, यह ले मेरा दुपट्टा ! मेरे मोती पर डाल दे। यह मेरा शेर पुत्र है। इसकी बदौलत मेरी बेटी की इज्जत-आबरू सलामत रही है । जब उन्होंने हमारा बाहरवाला दरवाजा तोड़ना शुरू किया, तो बीरो को वह जहर की पुडिया नहीं मिल रही थी, जो पिछली संक्रांति को वह धर्मशाला से लाई थी । जहर की पुड़िया भाई ठाकुर सिंह ने सब लड़कियों को खुद बाँटी थीं । सँभालकर बीरो ने चुनरी के छोर में बाँध ली थी, लेकिन समय पर उसे वह चुनरी नहीं मिल रही थी । मोती उन कसाइयों के साथ देर तक लड़ता रहा । भौंक-भौंककर उन पर झपटता रहा । फिर एक लंबी चीख के बाद उसकी आवाज आनी बंद हो गई। और उसी घड़ी उन्होंने हमारे बड़े कमरे का दरवाजा तोड़ लिया।"
बरकते और अली मुहम्मद सुनसान नजरों से कभी खेम कौर को और कभी जलती चिता को देख रहे थे ।

"अली मुहम्मद मेरे भाई", खेम कौर ने कहा, "मेरे इस श्रवण-पुत्र को भी इसी चिता में लिटा दो । इसके बलिदान पर मैं बलिहारी हूँ। जरा देखो तो बावले ने सूखी रोटी के चार निवालों के बदले अपनी जान दे दी । अरे मेरे अनमोल मोती, अरे मेरे हीरामृग, तेरे अहसान मैं कब और कैसे चुकाऊँगी ! जा तेरा स्वर्ग में निवास हो । अगर कभी फिर जन्मे, तो तुझे यही योनि मिले । ईश्वर तुझे कभी इस मनहूस मनुष्य योनि में न डाले !"

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