हिन्दी व्याकरण की समस्या (निबंध) : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Hindi Vyakaran Ki Samasya (Hindi Nibandh) : Hazari Prasad Dwivedi

वैयाकरण प्रयोगों की शुद्धि से ही सन्तुष्ट हो जाता है। मैं अभी पक्का वैयाकरण नहीं बन पाया हूँ। 'अर्धाक्षरेण पुत्रोत्सवं मन्येत् वैयाकरणः' । क्योंकि वैयाकरण इतना मितभाषी होता है कि किसी बात को कहने में यदि आधा अक्षर कम किया जा सके तो उसे पुत्र-प्राप्ति के समान सुख होता है। इसीलिए अर्थ- विचार से उतना निश्चिन्त नहीं हो पा रहा हूँ। 'सभापति जी आ गये' – व्याकरण सम्मत शुद्ध प्रयोग है। पर मैं थोड़ा रुक जाता हूँ। 'आ गये' क्या मतलब ? आये या गये या आकर चले गये ? आ गये का मतलब एकदम आकर जम गये कैसे मान लिया जाए ? 'बोल उठे', 'बोल बैठे', 'बोल पड़े' आदि व्याकरण समस्त प्रयोगों में बोलने वाला क्या सचमुच उठता है, बैठता है या पड़ता है। बिलकुल नहीं। वह बैठे-बैठे बोल उठता है, खड़े-खड़े बोल बैठता है, चलते-चलते बोल पड़ता है। वैयाकरण को इसकी चिन्ता नहीं होती। मुझे होती है । मगर सैकड़ों-हजारों आदमी रोज ऐसा ऐसा बोलते हैं। किसी को रंचमात्र सन्देह नहीं होता तो मुझे ही क्यों परेशानी है? एक व्याकरण में पढ़ा कि अकारान्त तद्भव पुल्लिंग शब्द कर्ता के बहुवचन का जो रूप होता है वही विभक्ति लगने पर 'एक वचन' का रूप हो जाता है। बात ठीक ही है, पर परेशानी तो होती है। विभक्ति लगने पर बहुवचन एक वचन का बाना धारण करता है, बात कुछ अटपटी-सी लगती है। नहीं लगती ? मैं भाषा को गतिशील तत्त्व मानता हूँ। आजकल विवरणात्मक भाषा विज्ञान और विवरणात्मक व्याकरण की बहुत चर्चा होती है। साधारणतः किसी भाषा को स्थिर मानकर उसका विश्लेषण विवरणात्मक या डिस्क्रिप्टिव प्रयत्न है। बहुत अच्छा है, बहुत-सी बातें उससे स्पष्ट होती हैं, पर सब स्पष्ट नहीं होती। सच पूछिए तो बातें तो स्पष्ट होती हैं पर भाषा नहीं स्पष्ट होती । भाषा मनुष्य को जगन्नियन्ता की दी हुई इच्छा-शक्ति प्रसाद है। वह गतिशील तत्त्व है। वह अतीत का संसार ढोकर ले आती हैं और भविष्य की सम्भावनाओं की ओर बढ़ती जाती है। वह मनुष्य के बताये नियमों में नहीं अटती । और मनुष्य है कि नियम का राजमार्ग अवश्य बनाएगा। सो व्याकरण नाम का यह सारा ठण्टा विधाता की दी हुई इच्छा-शक्ति के साथ मनुष्य की अपनी इच्छा-शक्ति का द्वन्द्व है। जो कुछ सामने दिख रहा है उसी का विश्लेषण करने और उसी पर से नियम बनाने से इतिहास विधाता की इच्छा-शक्ति की अवमानना होती है। इसीलिए भाषा का अध्ययन यथासम्भव ऐतिहासिक प्रक्रिया के भीतर से होना चाहिए। यथासम्भव इसलिए कह रहा हूँ कि संसार की बहुत-सी भाषाओं का कोई लिखित साहित्य ही नहीं है और कुछ का है भी तो कड़ियाँ टूटी हुई हैं। जिन भाषाओं का कोई रेकार्ड नहीं है उनका तो विवरणात्मक अध्ययन ठीक है पर जिनका इतिहास है उनका ऐतिहासिक अध्ययन होना चाहिए। नहीं तो हम रूढ प्रयोगों और मुहावरों का कुछ अता-पता नहीं पा सकेंगे और जिसे भाषा की अनियमितता कहा जाता है उसका रहस्य नहीं समझ सकेंगे।

हिन्दी व्याकरण दो अत्यन्त समृद्ध परम्पराओं के बोझ से दबा है। एक तो संस्कृत की अत्यन्त समृद्ध परम्परा है जिसे हम किसी प्रकार छोड़ नहीं सकते। सारी दुनिया हमारे व्याकरण की श्रेष्ठता स्वीकार करती है। दूसरी ओर लैटिन ग्रामर की, अँग्रेजी व्याकरण के माध्यम से प्राप्त परम्परा है। एक बड़ी भारी कठिनाई यह आ गयी है कि हम पारिभाषिक शब्द तो अधिकतर संस्कृत से लेते हैं पर उनका प्रयोग पश्चिमी व्याकरण में बताये गये अर्थ में करते हैं। ऐसा करने के लिए मनोरंजक दलील भी देते हैं। कहते हैं, प्रथमा, द्वितीया आदि विभाक्तियों के नाम काल्पनिक हैं, उनके बदले में कर्ता, कर्म आदि सार्थक शब्दों को ही ग्रहण करना चाहिए। परन्तु जब हिन्दी व्याकरण में कहा जाता है। कि यहाँ कर्ता का प्रयोग करण में होता है तो सार्थकता की दलील न जाने कहाँ चली जाती है। कभी भी क्या सम्भव है (अर्थ-दृष्टि से) कि कर्ता करण हो जाए ? कर्ता कर्ता है, क्रिया का प्रत्यक्ष भोक्ता और करण साधन है, क्रिया का परोक्ष सहायक। दोनों में से किसी का प्रयोग एक-दूसरे के अर्थ में नहीं किया जा सकता। हाँ, कल्पित पारिभाषिक नाम मात्र लें तो बात और है। अँग्रेजी और कुछ अन्य यूरोपीय भाषा व्याकरणों में एक शब्द है 'प्रेडिकेट नामिनेटिव्' (विधेयात्मक कर्ता)। इस शब्द के सम्बन्ध में जेस्पार्शन ने लिखा है कि जब मैंने एक व्याकरण विषयक निबन्ध पढ़ा, जिसमें कन्सास के स्कूली बच्चों की व्याकरण सम्बन्धी गलतियों पर विचार किया गया था, तो मैं हँसी नहीं रोक सका।

जेस्पार्शन यदि हिन्दी व्याकरण की ऊटपटाँग बातें देखते तो शायद हँसी रोकने में और भी अधिक असमर्थ होते। एक विद्वान् ने, अधिकरण में कर्ता का विवेचन करते हुए 'मो पै सहा न जाए' उदाहरण दिया है। सार्थक पारिभाषिक शब्द व्याकरण में अस्पष्टता ही से आते हैं। पाणिनि ने खूब सोच-समझकर सुबन्त और तिङन्त रूपों के लिए काल्पनिक नामों का व्यवहार किया था। पाणिनि ने अपने से पहले के आचार्यों द्वारा दिए हुए अद्यतनी, भविष्यती आदि सार्थक नामों को छोड़कर काल्पनिक नामों (लट्, लिट्, लङ, लुङ्) आदि व्यवहार किया है। भाषा इतनी विचित्र रूप होती है कि किसी एक परिभाषा या नियम में बँधती नहीं। उसे काल्पनिक पारिभाषिक शब्दों से अधिक आसानी से समझा जा सकता है अगर आप कहें कि हुआ, मिला, मिली आदि रूप भतकाल के हैं तो 'आपका आदेश हुआ तो मैं' अवश्य यह काम करूँगा जैसे वाक्य के लिए कहना होगा कि समानार्थक भविष्य काल में भूतकाल की प्रक्रिया होगी। अर्थ दृष्टि से भविष्य में भूतकाल कहना अनुचित होगा। परन्तु परिभाषीय पद्धति से कहें कि समानार्थक भविष्य में लिट् होगा तो बहुत गड़बड़ नहीं होगा। वस्तुतः व्याकरण में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्द सदा अर्थ-निरपेक्ष होते हैं। भूतकाल, भविष्यकाल सब ऐसे ही पारिभाषिक शब्द हैं, आप उन्हें ऐसा कहें या न कहें।

'सरकार' स्त्रीलिंग है तो यह अर्थ नहीं है कि सरकार किसी औरत का नाम है। 'स्त्रीलिंग' भी पारिभाषिक शब्द है, वह केवल व्याकरणिक रूपों और प्रयोगों का बोध कराता है, अर्थ द्वारा अभिव्यक्त लौकिक लिंग-विरोध का नहीं। इसलिए व्याकरण की संज्ञाएँ सदा अर्थबन्धन से मुक्त होती हैं। उनके लिए निरर्थक नाम देना कभी-कभी आवश्यक होता है। सार्थक नाम भी पारिभाषिक बनकर अर्थ-बन्धन से परे हो जाते हैं। कई भाषाओं में व्याकरणिक परिभाषा वाले शब्द और लोक-प्रचलित अर्थों में अन्तर कर दिया जाता है। अँग्रेजी में 'जेण्डर' शब्द से व्याकरणिक लिंग का ग्रहण होता है और सेक्स शब्द से लोक प्रचलित लिंग का । पाणिनि ने सर्वप्रथम काल्पनिक शब्दों पर बल दिया। परन्तु वे भी परम्परा प्रचलित सार्थक पारिभाषिक शब्दों से अपने को बचा नहीं पाये हैं। पर जितना वे कर सके हैं वह अद्भुत है। मैं यह तो नहीं कहता कि हम हू-ब-हू उनकी व्याकरणिक व्यवस्थाओं के अनुकूल अपने व्याकरण बनायें पर जिन पारिभाषिक शब्दों— काल्पनिक या सार्थक – का प्रचार इस देश में हजारों वर्षों से हो रहा है, वे रूढ़ हो गये हैं, इसलिए उनका प्रयोग उन्हीं अर्थों में किया जाना चाहिए। निस्सन्देह भाषा-शास्त्र और व्याकरण के लिए ऐसे पारिभाषिक शब्दों के गढ़ने की आवश्यकता होगी जो आधुनिक वैयाकरणों ने नये शोधों के आधार पर किये हैं । परन्तु पुराने शब्दों का अगर व्यवहार किया जाए तो उन्हीं अर्थों में, जिनमें वे रूढ़ हो गये हैं। पाणिनि के कुछ पारिभाषिक शब्द तो अब अन्तरराष्ट्रीय बन गये हैं। जेस्पर्शन और ब्लूमफील्ड जैसे विद्वानों ने बहुब्रीहि शब्द अपना लिया है। हमें नवीन शब्दों के लेने या गढ़ने में हिचक नहीं होनी चाहिए। परन्तु पुराने शब्दों को उसी अर्थ में व्यवहार करना चाहिए जिनमें वे सैकड़ों वर्षों से रूढ़ हो गये हैं। पदों से कारक शब्द को लीजिए, कारक इस देश का बहु प्रचलित शब्द है। कारक वे पद हैं जिनका क्रिया के साथ योग होता है। ऐसे पद केवल छह प्रकार के हैं—कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । 'केस' शब्द का यह अर्थ नहीं है। 'केस' पदों के विभिन्न रूपों को खोलता है। अब भी अँग्रेजी में सूटकेस आदि शब्दों में जीवित है। लैटिन में 'रूपों' के खोलने के कारण यह 'केस' कहलाया । अँग्रेजी व्याकरण से केस और संस्कृत व्याकरण से कारक लेकर उनको एकार्थक मान लेने पर देश और काल द्वारा स्वीकृत अर्थ को घटाना-बढ़ाना पड़ता है। केस की धारणा अगर अत्यन्त प्रिय है तो उसे 'कुछ' और नाम देना चाहिए। 'कारक' तो क्रियायोग वाले पद ही हैं। चाहें तो 'केस' को विकारक कह लीजिए वह कारक के निकट भी हो जाएगा और अलग अर्थ भी दे सकेगा। आप मजे में षष्ठी के सम्बन्ध-प्रत्यय और अधिकरण के निपातों को इस 'विकारक' के गले में बाँध सकते हैं। पर 'कारक' शब्द जिस अर्थ में रूढ़ हो गया है उसी अर्थ में पड़ा रहे तो अच्छा होगा।

पाणिनीय पद्धति में विभाक्तियाँ चरम प्रत्यय कही जाती हैं। चरम प्रत्यय का अर्थ यह है कि विभक्तियों के बाद कोई और प्रत्यय नहीं लगता। विभक्तियाँ भी एक प्रकार का प्रत्यय ही हैं। इसलिए एक विभक्ति के बाद और कोई दूसरी विभक्ति नहीं लग सकती। हिन्दी में को, से, में आदि विभक्ति प्रत्यय कहे जाते हैं पर सप्तमी अधिकरण की विभक्ति में पर आदि के बाद जो विभक्तियाँ (परसर्ग) लगती हैं, जैसे, घर में का सामान। स्पष्ट ही विभक्ति की चरम प्रत्ययता हिन्दी में काम नहीं करती। इस विषय में पाणिनि की व्यवस्था हिन्दी में नहीं मानी जा सकती। मैंने पाणिनि की व्यवस्था की बात कही है, संस्कृत की व्यवस्था नहीं। क्योंकि बहुत सी बातें संस्कृत में ऐसी भी चलती हैं जो पाणिनि सम्मत नहीं हैं। इसी बात (विभक्ति की चरम प्रत्ययता) को उदाहरण के लिए लिया जा सकता है। वेदों में 'जनासः', 'देवासः' आदि प्रयोग मिलते हैं। कई पण्डित मानते हैं कि वेदों की भाषा में ये उदाहरण पाणिनि के नियमों के विपरीत विभक्ति पर विभक्ति आने के हैं । जनास में वस्तुतः उंवल विभक्ति है जन+अस् (जनाः) फिर जन+अस्+अस् (जनासः) । ऐसे और भी उदाहरण खोजे जा सकते हैं। इसलिए माननग होगा कि वैदिक काल से ही विभक्ति पर विभक्ति लगाने की प्रथा थी जो लोकभाषाओं में रह गयी और पाणिनीय व्यवस्था में समाप्त हो गयी। हिन्दी में वह व्याकरण रूप से जी रही है। मैंने ऊपर जो में के बाद विभक्ति लगने का उदाहरण दिया है वह विभक्ति का ठीक उदाहरण नहीं है। हिन्दी व्याकरण में उन्हें विभक्ति कहा गया है। इसलिए मैंने भी उन्हें कह दिया था। वास्तव में ये विभक्ति नहीं हैं। इनका नाम परसर्ग या अनुसर्ग होना चाहिए। बहुत विद्वानों को इस नाम पर आपत्ति है। पर ये भाषा के अविच्छेद्य अंग हैं। इनका नाम आप कुछ भी दें, इन पर विचार करना ही होगा। पाणिनि की शास्त्रीय व्यवस्था में परसर्ग या अनुसर्ग जैसा कोई पदार्थ नहीं है, इसलिए हिन्दी में भी ऐसा पदार्थ आना ही नहीं चाहिए, यह मैं मानने को तैयार नहीं हूँ। इसका अर्थ पाणिनि की अवमानना नहीं है, भाषा की विशेषता की स्वीकृति मात्र है। संस्कृत के परवर्ती ग्रन्थों में इस प्रकार की कुछ बातें हैं जहाँ विभक्ति प्रयोग के बाद भी लेखकों को भाव प्रकाशन में कमी महसूस हुई हैं। उन्होंने अन्य अव्ययों का सहारा लेकर भाव प्रकट करने का प्रयास किया है। उदाहरण के लिए, हितोपदेश में 'कूपस्योपरि' जैसे प्रयोग मिलते हैं। लेखक जो कहना चाहता था, वह बात 'कूपे' इस सप्तम्यन्त पद से नहीं स्पष्ट होती थी तो उसने विभक्ति के बाद एक अव्यय का योग किया। इसी प्रकार कृते मध्ये, तः, हेतोः, कारणात् आदि पदों की सहायता आवश्यक जान पड़ी है। ये ही पद बाद में घिस कर परसर्ग का रूप ग्रहण करते हैं। इन्हें विभक्ति से भिन्न सहायक के रूप में अन्य नाम पाने का हक है। 'परसर्ग' नाम मैंने इसलिए चुना है कि वह अब काफी चल चुका है। एक और भी कारण है जिसे ध्यान में रखकर इन्हें अलग कोटि में रखना आवश्यक हो गया है। हिन्दी सिर्फ दो ही विभक्ति रूप है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि हिन्दी में दो ही कारक हैं। कुछ लोगों ने ऐसा लिखा है पर उसका कारण कारक और केस को एक समझ लेने की गलती है। हिन्दी में केस (अर्थात् प्रकारक) दो ही हैं। कारक छः ही हैं। संसार की किसी भी भाषा में छः कारक अवश्य रहेंगे, रूप उनके चाहे भिन्न हों । छः कारक हैं—कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । यह क्रिया के साथ वाक्य के भीतर के नामों (सत्त्व प्रधानानि नामानि सव्सटेण्टिव) का सम्बन्ध निश्चित करते हैं। इसलिए भाषा में ये किसी-न-किसी रूप में रहेंगे ही। रूप उनके अनेक प्रकार के हो सकते हैं। हिन्दी में दो या तीन ही प्रकार के हैं। संस्कृत में सात विभक्तियों के रूप हैं पर वहाँ भी बहुत से रूप एक ही तरह के हैं— द्विवचन में प्रथमा और द्वितीया के रूप एक ही होते हैं, तृतीया चतुर्थी और पंचमी के रूप एक ही होते हैं और पष्ठी सप्तमी के रूप भी एक ही होते हैं। इस प्रकार द्विवचन में सात विभक्तियाँ, छः कारक (सम्बन्ध कोई कारक नहीं है) और तीन रूप (केस) होते हैं। इसी तरह और भी रूप एक ही जैसे होते हैं। बहुत से शब्दों के पंचमी और पष्ठी के रूप एक जैसे होते हैं। चतुर्थी और पंचमी ये बहुवचन रूप एक ही होते हैं। नपुंसक लिंग में प्रथमा और द्वितीया में रूप एक ही होते हैं। परन्तु एक रूप होने पर भी सन्दर्भ के अनुसार उनको विभिन्न कारकों में रखा जाता है। इसलिए केस या प्रकारक के साथ कारक का घालमेल नहीं करना चाहिए।

तो हिन्दी में दो ही प्रकार के रूप हैं। एक को हम 'उक्त' कह सकते हैं दूसरे को 'अनुक्त' या तिर्यक् । हम संस्कृत व्याकरण से प्रेरणा लेकर उक्त और अनुक्त शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं, अनुकरण करके नहीं। अँग्रेजी में जिसे नॉमिनेटिव कहा जाता है, वही डायरेक्ट केस भी होता है। और सम्बोधन को छोड़ कर बाकी को ऑब्लिक या तिर्यक् कहते हैं । सम्बोधन को संस्कृत व्याकरण में कोई कारक नहीं माना गया क्योंकि उसका क्रिया से कोई सम्बन्ध नहीं होता। उसे प्रथमा विभक्ति के समान ही माना जाता है। संस्कृत में सम्बोधन एक वचन के शब्द कुछ अलग होते हैं इसलिए उसे सम्बुद्धि कहकर अलग कोने में डाल दिया गया है। जो हो, अँग्रेजी में नॉमिनेटिव या प्रथमा को प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) और शेष विभक्तियों को तिर्यक् (ऑब्लिक) कहा जाता है। प्रथमा में सम्बोधन भी अन्तर्भुक्त है। जो लोग नॉमिनेटिव को कर्ता कहते हैं उन्हें कठिनाई पड़ती है, क्योंकि जब कर्ता में 'ने' लगता है, उस समय कर्म नॉमिनेटिव होता है। उसे कर्ता कहना वदतो व्याघात है। वस्तुतः प्रथमा से भिन्न सारी विभक्तियाँ तिर्यकू (अनुक्त) होती हैं। अनुक्त अर्थात् तिर्यक्, परोक्ष, केवल तिर्यक् या अनुक्त पदों में ही ने से आदि परसर्ग लगते हैं। क्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध केवल कर्ता से और कभी-कभी कर्म से होता है ! विभक्तियाँ सत्त्व प्रधान सभी नाम या नामक शब्दों के साथ लगती हैं। परन्तु परसर्ग केवल तिर्यक् विभक्तियों के साथ। इस व्यापार भेद के कारण भी परसर्गों का नाम अलग होना चाहिए। व्याकरण शास्त्र में किसी शब्द या शब्द-समूह को अलग नाम तीन कारणों से दिया जाता है—रूप भेद के कारण, व्यापार-भेद के कारण और अर्थ भेद के कारण। परसर्गों में ये तत्त्व भेद होते हैं। इसलिए वे अलग नाम के अधिकारी हैं।

पाणिनि ने केवल दो कारकों के लिए उक्त (अभिहित) और अनुक्त (अनभिहित) शब्दों का प्रयोग किया है, वे हैं—कर्ता और कर्म । जब कर्ता तृतीया में होता है तो वह अनुक्त होता है और कर्म उक्त होकर प्रथमा में चला जाता है। पर जब कर्ता उक्त होता है तो वह प्रथमा में होता है और कर्म अनुक्त होकर तृतीया में चला जाता है। जो भी प्रथमा में जाता है वह उक्त होता है और जो भी प्रथमा भिन्न विभक्ति का सहारा लेता है, वह प्रथमा से भिन्न द्वितीया और तृतीया में जाकर अनुक्त हो जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रथमा हेतु एक मात्र उक्त है और द्वितीया और तृतीया (और उनके साथ ही प्रथमा भिन्न अन्य विभक्तियाँ) अनुक्त। पाणिनि महाराज उक्त को अभिहित भी कहते हैं और अनुक्त को अनभिहित भी। परन्तु उक्त और अनुक्त छोटे शब्द हैं, उन्हीं को हमने स्वीकार कर लिया है।

अब मूल बात पर लौट चला जाए। मैंने कहा था कि हिन्दी में दो ही शब्द-रूप हैं, बाकी कारकों का काम परसर्गों से चला लिया जाता है। संसार की बहुत-सी भाषाएँ (अँग्रेजी भी ) इसी प्रकार की है। अँग्रेजी में परसर्ग का काम पूर्वसर्ग (प्रिपोजीशन) देते हैं।

अपभ्रंश से आगे बढ़ते ही पुरानी हिन्दी को — पूरब में भी और पच्छिम में भी— एक विचित्र विभक्ति मिल गयी है जो सब रोगों की एक दवा सिद्ध हुई। वह हि या हिं है जो पच्छिम में जरा प्राणहीन होकर इ और इं बन गयी है। बहुवचन में न्हि पूर्वी हिन्दी में और नि पच्छिमी हिन्दी में और कभी-कभी सिर्फ 'न' रहकर उसने सब विभक्तियों का काम शुरू किया। यह विभक्ति सभी अनुक्त कारकों में लगती थी। साधारणतः लुप्त विभक्तिक या निर्विभक्तिक पदों का प्रचार अधिक था। कहीं अर्थ पर अधिक स्पष्टता ले आने की जरूरत हुई तो हि या हिं हाजिर मिलती थी। परसर्ग कभी-कभी हि, हिं, इ, ई के बाद लगते थे कभी निर्विभक्तिक पदों के बाद। मैं बहुत उदाहरणों की मार से आपको व्याकुल करना एकदम नहीं चाहता पर इतना कहे बिना काम नहीं चलेगा कि दो प्रकार के सुबन्त रूपों, या चाहें तो तीन प्रकार के कह लें, से अठारहवीं शताब्दी का पूर्वी, पश्चिमी हिन्दी का साहित्य भरा पड़ा है।

1.0 या निर्विभक्तिक उक्त और अनुक्त,
2. हि (हिं) या सविभक्तिक अनुक्त,
3.0 +या हि (हिं) परसर्ग अनुक्त।

निर्विभक्ति पद का एक उदाहरण दूँगा-

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयन (T) ।
भरि आये जल राजिव नयन ( 1 ) । ।

इसमें दो क्रिया-पद हैं—सुनि और भरि आये । बाकी सारें के सारे पद निर्विभक्तिक हैं। अपनी मर्जी से अर्थ कीजिए। सुनकर सीता (के) दुख (को) सुख (के) अयन-प्रभु (के) राजीव (के समान) नयन जल (से) भर आये। कुछ लोग ऐसा भी अर्थ कर लेते हैं— सुनकर सीता (के) दुख (को) सुख (के) अयन-प्रभु (के) राजीव (के सामान ) नयनों (में) जल (के कारण ) भर आये।

काम मजे में चल जाता है। चार सौ वर्षों से किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई। यह और बात है कि कभी-कभी स्वयं तुलसीदास को अर्थ स्पष्ट करने की आवश्यकता महसूस हुई। जैसे यदि लिखते 'राघव चितव भाव जेहि सीया' तो थोड़ी अड़चन आ सकती थी- सीता राम को देख रही थीं या राम सीता को देख रहे थे। दोनों के लिए यह बात सम्भव थी। इसलिए तुलसीदास ने इस स्थान पर स्पष्ट कर दिया—- रामहिं चितव भाव जेहि सीया। सीता राम को देख रही हैं। हिं विभक्ति आवश्यक सहायक सिद्ध हुई । हिहिं के घिसे रूप इ, इं ने धीरे-धीरे अपना प्रभाव विस्तार किया और रामहिं, रामइ, रामैं, रामें, रूप बनते गये। यही एकारान्त रूप तद्भव अकारान्त शब्दों के साथ अनुक्त कारकों में खड़ी हिन्दी में जी रहा है— केवल तद्भव अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में— तत्सम में नहीं, अन्यस्वरान्त शब्दों में नहीं, स्त्रीलिंग शब्दों में भी नहीं।

अर्थात् हिन्दी में दो ही सुबन्त रूप हैं— उक्त और अनुक्त। बहुत पहले जब मैंने स्व. महामहोपाध्याय पं. रामावतार शर्मा के हिन्दी व्याकरण में उन विचारशून्य व्याकरण लेखकों की भर्त्सना पढ़ी जो संस्कृत की देखादेखी हिन्दी में भी सात विभक्तियाँ बताते हैं। तो मुझे बात बड़ी अटपटी लगी थी। शर्मा जी ने कहा था कि हिन्दी में दो ही विभक्तियाँ है— प्रथमा और द्वितीया । प्रथमा दो प्रकार की होती है— साधारण और सम्बोधनार्थक। दोनों विभक्तियों में दो-दो वचन होते हैं। मैं उस समय शर्मा जी की बात नहीं समझ सका था। सच तो यह है कि मुझे यह बात गलत लगी थी। तब अति रहे अचेत! अगर उसके लेखक शर्मा जी न होते तो मैंने पुस्तक फेंक दी होती पर शर्मा जी के अगाध पाण्डित्य पर मेरी श्रद्धा थी और है। उस समय केवल यही कहकर सन्तोष कर लिया कि बात समझ में नहीं आयी। असल में धोखा 'विभक्ति' शब्द के प्रयोग पर हुआ था। शर्मा जी ने द्वितीया का प्रयोग संस्कृत के रूढ़ अर्थ में नहीं किया था। उनका मतलब पहली और दूसरी से था। द्वितीया शब्द कर्मकारक की विभक्ति के रूप में रूढ़ है। पर शर्मा जी ने इसका क्रम वाचक शब्द के रूप में ही प्रयोग किया है। वह सभी अनुक्त सुबन्तों का ही पर्याय है। यह आधुनिक हिन्दी के लिए ही सत्य है। पुरानी हिन्दी में और भी विभक्तियाँ हैं। अनुक्त विकारकों में परसर्ग लगते हैं, अर्थात् जिसे शर्मा जी 'प्रथमा' कहते हैं उसमें परसर्ग नहीं आता, जिसे द्वितीया कहते हैं उसी में परसर्ग लगता है। इस समय मेरे मन में बहुत से प्रश्न हैं। चाहता था कि सबको आपके सामने रख देता और आपसे कुछ सुझाव ले सकता, पर समय कम है और आपके धैर्य की भी एक सीमा है। सो जल्दी-जल्दी कुछ बातें कह कर आपसे विदा लूँगा ।

पुराने जमाने के अँग्रेजी व्याकरणों का कुछ प्रभाव हमारे ऊपर ऐसा पड़ा है जो सब समय अच्छा नहीं लगता। स्वयं अँग्रेजी के वैयाकरण अब नये सिरे से सोचने लगे हैं पर हमारे विद्वान् अभी उनके पुराने संस्कारों से मुक्त नहीं हुए। कभी-कभी तो अँग्रेजी शब्दों के आक्षरिक अनुवाद अत्यन्त भ्रामक होते हैं। एक बहुत बड़े प्रोफेसर फर्स्ट परसन का अनुवाद प्रथम पुरुष करते हैं जबकि हमारी परम्परा में प्रथम पुरुष उसको कहते हैं जिसे अंग्रेजी में थर्ड परसन कहा जाता है। जिन प्रोफेसर साहब की बात कही जा रही है वे थर्ड परसन का अनुवाद तृतीय पुरुष करते हैं। यदि अँग्रेजी न जानने वाला हिन्दी पाठक इस प्रकार के शब्दों को देखेगा तो हैरान होकर आसमान की ओर ताकता रह जाएगा। अँग्रेजी के पुराने व्याकरणों में लिखा गया है कि विशेषण के विशेषण को 'एडवर्ब' कहा जाता है। उक्त विद्वान् एडवर्ब के लिए 'क्रिया विशेषण' शब्द का प्रयोग करते हैं और विशेषण के विशेषण को भी क्रिया विशेषण कहते हैं। विशेषण का विशेषण 'प्रविशेषण' कह लिया जाए, वह क्रिया-विशेषण क्यों कहा जाएगा ?

अब तक हिन्दी में लिखे व्याकरणों में एक बँधा- बँधाया ढाँचा है जो भाषा के भीतर जितने प्रकार के शब्द होते हैं, उनकी परिभाषा और उदाहरण देते हैं। पहले ध्वनियों की चर्चा की जाती है और सन्धि के नियम बताये जाते हैं, फिर सभी प्रकार के शब्द रूप विचार (पार्ट्स ऑव स्पीच) का अलग विवेचन किया जाता है और अन्त में वाक्य विचार की साधारण-सी चर्चा करके व्याकरण समाप्त कर दिया जाता है। यूरोपियन लेखकों में से कई, छन्दों के बारे में भी लगे हाथों चर्चा कर देते हैं। आधुनिक व्याकरण में दो पद्धतियाँ अपनायी जाती हैं, एक तो शब्द-रूपों के माध्यम से अर्थ-विचार की ओर जाने की ओर दूसरी अर्थ- विचार से शब्द रूपों की ओर जाने की दोनों ही अपरिहार्य हैं। आजकल दूसरी दृष्टि भी हिन्दी में काफी मुखर हुई है। परन्तु कुछ आधुनिक भाषाशास्त्री पुरानी पद्धति को केवल अनावश्यक ही नहीं मानते बल्कि भाषा-विचार के लिए हानिप्रद भी मानते हैं। भाषा के ऐतिहासिक अध्ययन के विशेषज्ञ फर्डिनेण्ड ब्रूनोट नामक फ्रांसीसी विद्वान् ने फ्रांसीसी भाषा के शिक्षण में क्रान्तिकारी परिवर्तन ले आने के लिए अर्थ के लिए विचार से रूप-विचार की ओर जाने का सुझाव दिया है। उन्होंने व्याकरण के शब्द रूप-विचार (पार्टस् ऑव स्पीच) पद्धति को उपेक्षणीय माना है। उनकी पुस्तक (ला वेन्सी एटला लिंग्वे ) 1922 ई० में प्रकाशित हुई थी। तब से कई विचारकों ने जहाँ अर्थ की दृष्टि से व्याकरणिक रूपों के समझने की पद्धति को उपादेय माना है, वहीं शब्दों के विविध भेद, जो वागड्ग नाम से ख्यात है, को एकदम उपेक्षणीय मानने का विरोध भी किया है। वस्तुतः शब्दों के भेदों का विभाजन अर्थ की ही दृष्टि से किया जाता है। ऐसा न होता तो एक ही समान दिखने वाले शब्द एक ही प्रकार के मान लिये जाते। कबीरदास जब चलती को गाड़ी कहने वालों की नादानी देखकर रोये थे तो वस्तुतः वे शब्दों के रूपभेद से जातिभेद निश्चय करने वाली प्रक्रिया पर ही कर रहे थे। 'गाड़ी' का एक अर्थ है यान- विशेष, इस अर्थ में वह संज्ञा शब्द है, दूसरा अर्थ है कृदन्त साधित विशेषण (गाड़ी हुई)। यद्यपि ऊपर-ऊपर से 'गाड़ी' एक ही शब्द है पर अर्थ दृष्टि से दो है। सो, शब्दों के भेद या वागड्ङ्ग अर्थ- विचार से शब्द या रूप-विचार की ओर जाने वाली प्रक्रिया की ही देन है।

पर यह ठीक है कि आठ प्रकार के वागड्ग और उनके भेद-उपभेद सहित परिभाषा करने के असफल कुछ बहुत तर्क सम्मत बात नहीं है। मुझे लगता है कि संस्कृत वैयाकरणों ने चार प्रकार के शब्द नाम, आख्या, उपसर्ग और निपात—बताये हैं, वही बहुत कुछ ग्राह्य हैं। थोड़ा घूम-फिर कर उसी नतीजे पर पहुँच रहे हैं। वस्तुतः भाषा वक्ता के मन की बात श्रोता के मन में पहुँचाती है। मीसांसकों की बात यहाँ ठीक जान पड़ती है। वक्ता की ओर से क्रम यह है— विचार-व्यापार- शब्दरूप । अर्थात् पहले वक्ता के मन में विचार आता है, फिर वह बोलना- व्यापार शुरू करता है और अन्त में शब्दों के व्याकरणिक रूप को बोलता है। श्रोता या ग्रहीता की ओर से यह क्रम अलग होता है— शब्दरूप – व्यापार-विचार अर्थात् वह पहले शब्दरूप है, उसके कानों से टकराते हैं फिर वह उनके ग्रहण का व्यापार शुरू करता है और अन्त में वक्ता के विचारों को समझता है। व्याकरण न तो वक्ता की उपेक्षा कर सकता है और न श्रोता की। जब तक लोग किसी वक्ता को दैवी समझते रहे तब तक शब्द भेद निरूपण में श्रोता या ग्रहीता की दृष्टि प्रधान रही। अब नये युग में दैवी वाक् की धारणा समाप्त हो गयी है या होती जा रही है, तब प्रक्रिया वक्ता-सापेक्ष हो गयी है इसलिए पहले वाली धारणा (शब्द रूप-बोधन-व्यापार और विचार पर) बल देती थी, मगर अब वक्ता का ध्यान रखा जाता है। इसी का नाम अन्दर से बाहर जाने की प्रक्रिया है। बाहर से अन्दर जाने वाली प्रक्रिया पुरानी है परन्तु उपेक्षणीय नहीं है।

हिन्दी व्याकरण को आधुनिक और प्राचीन दोनों परम्पराओं से उचित लाभ उठाना चाहिए पर दोनों में से किसी का अन्धानुसरण नहीं करना चाहिए। थोड़े समय में अधिक कुछ नहीं कह सकूँगा परन्तु मेरे मन में तद्धित, कृदन्त, समास, संयुक्त क्रिया, विभिन्न कारक और प्रक्रियाएँ सब के सम्बन्ध में विद्वानों की राय लेने की आवश्यकता है। यदि आपकी रुचि इन बातों में हुई तो और बातचीत का अवसर खोजूँगा ।

कुछ व्याकरण लेखकों ने पाल, पूर्वक, कार आदि शब्दों को तद्धित प्रत्यय माना है। मानना क्या उचित है, संस्कृत में ध्यानपूर्वक को समास माना जाएगा — ध्यान है पूर्व में जिसके ! मगर 'दस सहस्र' मात्र को यदि कोई 'मात्र दस सहस्र' लिखे तो संस्कृतज्ञ नहीं मानेंगे क्योंकि पाणिनि कह गये हैं कि मात्र ( मात्रच्) तद्धित प्रत्यय है। समास द्वारा (दस सहस्र है मात्र जिसकी ) इस प्रकार का बहुब्रीहि समास नहीं किया जा सकता। परन्तु क्यों नहीं समास हो सकता ? कात्यायन मुनि कहते हैं कि 'गुणगण' में भी समास नहीं है, ग्राम (ग्रामच्) प्रत्यय है ( गुणादिभ्यो । पा० 4/2/37 पर वार्तिक) इसी प्रकार खड, काऊं, स्कन्ध, गोष्ठ आदि को भी प्रत्यय कहा है जबकि भाषा में इनका और इनके जैसे अनेक शब्दों को प्रत्यय माना गया है। और भी बहुत से शब्द संस्कृत में हैं जिनके बारे में कुछ कहना कठिन है कि क्यों इन शब्दों में समास न मानकर तद्धित प्रत्यय माना गया। कहा जाता है कि वैदिक स्वरों का निर्देशन इनके मूल में है। लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो समास और तद्धित दोनों का अर्थ की ओर से उद्देश्य एक ही है। संक्षेप में कहना ‘दशरथस्य पुत्रः' जरा भारी पड़ता है, संक्षेप में इसे 'दशरथपुत्रः' कह सकते हैं या यथा प्रयोजन तद्धित प्रत्यय लगाकर 'दाशरथिः' कह सकते हैं। दोनों ही संक्षिप्त रूप हैं। समास और तद्धित में भेद यह है कि समास में सभी शब्द स्वतन्त्र होते हैं, भाषा में वे स्वतन्त्र रूप से व्यवहृत हो सकते हैं पर तद्धित प्रत्यय बद्ध रूप ग्राम हैं, उसका अन्यत्र स्वतन्त्र शब्द के रूप में व्यवहार नहीं होता। यदि उस तर्क को मान लें तो इन्द्रिय-ग्राम को समास ही मानना चाहिए। इन्द्रिय और ग्राम — दोनों शब्द स्वतन्त्र रूप से प्रयुक्त हो सकते हैं, दाशरथि का 'इ' प्रत्येय स्वतन्त्र रूप से प्रयुक्त नहीं हो सकता। इस सिद्धान्त से देखें तो ‘पूर्वक' शब्द हिन्दी में स्वतन्त्र भाव नहीं चलता, उसे बद्ध रूप ग्राम माना जाना चाहिए। इसी प्रकार पाल (राज्यपाल ), कार (कलाकार) आदि बद्ध रूप ग्राम ही हैं, इन्हें प्रत्यय मानना अनुचित नहीं कहा जा सकता। 'मात्र' भी स्वतन्त्र रूप से चलने लगा है, इसलिए उसे बद्ध नहीं माना जा सकता। पर संस्कृत व्याकरण के संसार आसानी से छूटते नहीं। एक व्याकरण में इत्यादि को भी प्रत्यय कहा गया है, हिन्दी में वह भी स्वतन्त्र नहीं है, मगर संस्कार ऐसा मानने में बाधा देता है।

आधुनिक साहित्यिक हिन्दी में तिङन्त क्रियाएँ प्रायः हैं ही नहीं । तिङन्त रूप में हैं, हो और कुछ विधि क्रियाएँ जी अवश्य रही हैं। कुछ दिन पहले तक व्रजभाषा और अवधी में तिङन्त क्रियाएँ थोड़ा-बहुत जी रही थीं, खड़ी बोली ने प्रायः सब धो-पोंछकर साफ कर दिया। अब क्या वे फिर से जिलायी जा सकती हैं ? जिलायी जा सकतीं तो भाषा की जटिलता कुछ कम होती पर वैयाकरण इसमें कुछ नहीं कर सकता। वह इतिहास-विधाता को चुनौती नहीं दे सकता। ऐसा साहस तो सर्जनात्मक साहित्य के लेखक ही कर सकते हैं। वे ही कभी-कभी विधाता से भिड़ जाते हैं— 'विधि ते कवि सब विधि बड़े'। हिन्दी में आज संयुक्त क्रियाओं का जंगल है, संस्कृत में नहीं था। कहाँ से आया यह जंगल ? ऐसा लगता है कि पहले भी कुछ न कुछ संस्कृत में था मगर पाणिनि डट गये, उन्होंने उन्हें पनपने नहीं दिया। वे केवल वैयाकरण नहीं थे, ऋषि भी थे। उनमें साहस था, शक्ति थी, भविष्य देखने की दृष्टि थी। हम क्या करें ? जिस प्रकार हम हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में होना, करना आदि सहायक क्रियाओं के योग से क्रिया बनाते हैं, कुछ उसी प्रकार बभूव, आस, चकार आदि सहायक क्रिया रूप संस्कृत में भी बनते थे। पर पाणिनि को यह बात पसन्द न थी। उन्होंने दो क्रियाओं के योग से बनी हुई क्रिया को एक ही क्रिया मानने का विधान किया। इस प्रकार प्रभ्रंशयांचकार एक तिङन्त पद है। इन्हें संयुक्त क्रिया नहीं माना जाता। परन्तु कालिदास जैसे महाकवि ने इस विषय में पाणिनीय व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया और 'प्रभ्रंशयां यो नहुषं चकार' लिखकर इनकी अविभाज्यता तोड़ दी। लगता है, अन्य व्याकरण पद्धतियों में कालिदास के अनुकूल निर्देश था। तुम जाने वाले हो, जैसे प्रयोग भी कभी संस्कृत में थे पर पाणिनि भगवान ने ऐसे प्रयोगों को एक ही क्रिया रूप बना दिया और गन्तासि, गन्तास्मि जैसे प्रयोगों को भविष्यकालिक एक ही रूप मान लिया। पुराणों में महाभारत में, वाल्मीकि रामायण में ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे जिसमें गन्ता और असि अलग-अलग रूप प्रयुक्त हुए हैं। गन्ता
असि जैसी कृदन्तयुक्त क्रिया के एक मान लेने से यह विशेषता आ गयी कि उनमें लिंग वचन का विचार सम्भव नहीं होता। हालाँकि महाभारत और भागवत में लिंग और वचनगत विकारों का मिलना यह साबित करता है कि सर्वत्र पाणिनीय व्यवस्था लागू नहीं होती। ऐसे स्थलों को आर्ष प्रयोग मान लिया जाता है। प्रकारान्तर से उसे गलत कहकर, ऋषि-महिमा द्वारा उनकी गलतियों का मार्जन कर लिया जाता है। पाणिनीय व्यवस्था बाद में अनूद्य हो गयी पर लोकभाषाओं में पाणिनि का जोर नहीं था और ऐसे प्रयोग केवल जीवित ही नहीं रहे, अपना व्यापक प्रभाव फैलाकर नयी-नयी उद्भावानाओं को बढ़ावा देते रहे।

अपभ्रंश काल में ही संयुक्त क्रियाओं की मात्रा बढ़ने लगी थी। न. आ. भा. में तो सर्वत्र उनका बोल-बाला है। ये अर्थ को मर्यादित, परिवर्तित और विस्तारित करने का काम करती हैं। इधर हिन्दी के वैयाकरणों की ऐसी श्रेणी पैदा हुई जो फतवा देना व्याकरण का मुख्य काम मानती है। इस श्रेणी के विद्वान बड़े-बड़े कवियों और लेखकों से आशा करते हैं कि वे लोग उनकी सलाह पर चलेंगे और उनके द्वारा निर्धारित प्रयोगों को शिष्ट सम्मत मानकर लिखेंगे। वे भूल ही जाते हैं कि पाणिनि और पतंजलि के सामने परिवर्तनशील वेगवती भाषा का प्रश्न नहीं था, हजारों वर्ष से पूर्णता प्राप्त प्रौढ़ अमर भाषा के नियम निर्धारित करने का प्रश्न था। हिन्दी के व्याकरणकार को क्षण-क्षण परिवर्तमान गतिशील त्रुटि-विच्युतिमर्दिनी वेगवती भाषा के भीतर काम करने वाले विषयों को ढूँढ़ निकालना है। आज जिसको हम शिष्ट सम्मत प्रयोग समझते हैं, वह कल भी वैसा ही रहेगा, इसका कोई भरोसा नहीं है। मेरी आँखों के सामने कितने नये शब्द रूप आये और कितने विस्मृत हो गये। भाषा की इस प्राणवन्त धारा को समझना बहुत जरूरी है।

मित्रो, मैंने आपका बहुत समय लिया और फिर भी बहुत थोड़ा ही कह पाया । हिन्दी के व्याकरण की समस्याएँ बहुत हैं। मुझे आज इतना ही कहकर विरत होने की अनुमति दें।

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